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व्यंग्य: रामलीला - विभावसु तिवारी

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विभावसु तिवारी

विभावसु तिवारीअपनी पीढ़ी के सशक्त व्यंग्यकार हैं। आपके व्यंग्य हमारे समय का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। और यह भी कि ये व्यंग्य अपनी एक नयी दुनिया बसाते है और इस दुनिया का एक कॉमन पात्र है - शर्माजी। शर्माजी एक आम आदमी का किरदार निभाते हैं। यह किरदार नैतिकता-अनैतिकता के पारंपरिक बोध को नए ढंग से पेश करता हैं। विभावसु तिवारी का जन्म 12 अगस्त, 1951 को दिल्ली में हुआ। आप 36 वर्ष तक दिल्ली के नवभारत टाइम्स समाचार पत्र (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप) में समाचार संकलन, सम्पादन और लेखन कार्य करते रहे। विभिन्न पत्र- प़ित्रकाओं के सलाहकार सम्पादक रहे।सम्पर्क:टी- 8 ग्रीन पार्क एक्स्टेंशन, नई दिल्ली- 110016. ई-मेल: vtiwari12@gmail.com

र्मा जी को उनकी कॉलोनी के निवासियों ने ‘रामलीला मंचन संस्था’ का संरक्षक (पैट्रन) बना रखा था। संरक्षक इसलिए कि शर्मा जी के पत्रकार होने के नाते रामलीला के लिए पार्क मिलना आसान हो जाता था। रावण को जलाने के लिए वीआईपी भी बिना चक्कर काटे मिल जाते थे। कुछ स्थानीय राजनेताओं के जमावड़े से उनकी रामलीला का थोड़ा रुतबा भी बढ़ जाता था। 
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

इस बार आयोजित की जा रही रामलीला में जिस वीआईपी को रावण का वध करने के लिए तीर चलाना था, वह अचानक से स्वर्ग सिधार गया। अब एकदम से नया वीआईपी मिलने में कठिनाई आ रही थी। शर्मा जी ने अपने नेटवर्क का इस्तेमाल किया, परन्तु दुर्भाग्यवश दशहरे के दिन के लिए सभी वीआईपी लोगों की पहले से ही बुकिंग हो रखी थी। ‘रामलीला मंचन संस्था’ के लोगों ने अपनी रामलीला को फ्लॉप होने से बचाने के लिए शर्मा जी को ही मैदान में उतारने का फैसला किया। शर्मा जी से कहा गया कि दशहरे के दिन रावण का वध करने के लिए आप ही वीआईपी होंगे और तीर चलाएगें। साथ में यह भी कह दिया कि इस बार हमारी दिली इच्छा है कि यह शुभ कार्य आप जैसे वरिष्ठ पत्रकार के हाथों से ही होना चाहिए। शर्मा जी ने अपने को गौरवान्वित महसूस करते हुए राम सेवकों को आश्वस्त किया कि उस दिन मैदान में वही डटेंगे।

लेकिन इन राम सेवकों के चले जाने के बाद उनका मन चिंतित हो उठा। आज तक उन्होंने कभी तीर नहीं चलाया था। बचपन में पिताजी ने आंख में तीर लगने की दलील देकर खेलने के लिए भी कभी तीर-कमान नहीं दिलवाया। इसलिए धनुष पर तीर चढ़ाने और डोरी खींचकर उसे छोड़ने जैसी हिमाकत उन्होंने कभी नहीं की। अपनी बड़ी आरमदेह कुर्सी पर झूलते हुए खुद ही ओढ़ ली इस मुसीबात का हल ढूंढने की कोशिश में वह अपनी सोच पर जोर देने लगे। तभी उनके बचपन के मित्र मुसद्दीलाल टपक पड़े। शर्मा जी के समक्ष जब भी कोई समस्या खड़ी होती मुसद्दीलाल हनुमान जी की तरह अवतरित हो उनके समाधान के लिए अपना पूरा बुद्धिभंडार झोंक देते। वह भी मुसद्दीलाल की मित्रनिष्ठा के कायल थे।

मुसद्दी को देख उनके चेहरे पर रौनक आ गई। बोले, बड़ी लम्बी उम्र है। अभी याद ही कर रहा था। मुसद्दी ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए पूछा, ‘‘सब ठीक तो है!’’ शर्मा जी बोले, ‘‘इस बार अपनी कॉलोनी के रावण को तीर मारने का काम मुझे ही करना है।’’

मुसद्दी थोड़ा चौंका! फिर बोला, ‘‘तुम्हारी कॉलोनी में तो ढेर सारे रावण हैं। एक साथ कितने तीर चलाओगे। सबसे बड़ा रावण तो वही देवदास है, जिसकी मृगनयनी पर तुमने अपनी आंखों के तीर चलाए थे। वह पड़ोसी देवदास तुम्हारी आंखों के सामने ही उसे ले उड़ा था। तभी से तुमने उसका नाम रावण रख दिया था। मौका है उस पर ही सबसे पहले तीर चला देना।’’

शर्मा जी ने जिंदगी के राज उगल रहे मुसद्दीलाल को बीच में ही टोका और बोले, ‘‘इतिहास मत खोद, हमारी कॉलोनी में दशहरा मनाया जा रहा है। परम्परा के अनुसार रावण दहन के लिए उसके पुतले पर तीर चलाना होगा। मैंने आज तक धनुष नहीं उठाया। तीर चलाना तो दूर की बात है। निशाना लगाना भी नहीं आता। अगर रावण के पुतले के पेट में तीर नहीं घुसा तो रावण नहीं मरेगा। बेचारे राम सेवकों की बड़ी भद्द पिट जाएगी। फिर, मैं भी तो इस संस्था का पैट्रन हूं। समझ नहीं आ रहा, क्या किया जाए?’’ 

मुसद्दी को यह मामला कुछ गम्भीर नजर आया। कुछ देर के मौन के बाद वह बोले, ‘‘शर्मा जी कहीं से तीर कमान मंगवाओ। बस धनुष उठाने, डोरी पर तीर चढ़ाने की थोड़ी सी प्रेक्टिस करनी होगी। रावण दहन स्थल पर दर्शकों को यह जरूर दिखाई देना चाहिए कि कोई वीआईपी रावण पर तीर चला रहा है। बस, तुम्हें तो सबके सामने धनुष की डोरी पर तीर चढ़ाना है। एक राम सेवक को रावण के पुतले के पास मशाल लिए खड़ा कर देंगे। जैसे ही तुम धनुष पर तीर चढ़ा कर डोरी खींचोगे वैसे ही वह राम सेवक अपनी मशाल रावण के पुतले में घुसा देगा। देखते ही देखते रावण पटाखों की आवाज के साथ जलने लगेगा। शर्मा जी आप भी भोले हो! बड़ी-बड़ी रामलीलाओं में भी ऐसा ही होता है। वहां भी वीआईपी ऐसे ही करते हैं। देखो! यह काम बड़ी दिलेरी से करना। इसका संदेश दूर तक जाएगा। कॉलोनी के जितने भी रावण हैं वे भी तुम से घबराने लगेंगे। तुम तो, बुराईयों पर अच्छाईयों की जीत के प्रतीक बनने जा रहे हो। रावण का वध करोगे।’’ 

मुसद्दी के इस उवाच से शर्मा जी बड़े कृतज्ञ महसूस कर रहे थे। बढ़ती उम्र के दबाव से उनकी दबी छाती एकदम से फूल गई थी। लगा कि जवानी लौट आई है। उन्हें अपने पड़ौसी देवदास पर गुस्सा आ रहा था, जो उनकी हीरोईन को ले उड़ा था। तभी उम्र की परिपक्वता सामने आ गई। 

मुसद्दी से बोले यार, ‘‘मैंने उस देवदास को तो माफ कर दिया है पर दशहरे वाले रावण को छोड़ना नहीं है।’’ 
उन्होंने पास में ही खेल रहे पोते को गांधीजी वाला दस रुपए का नोट थमा कर बाजार से फौरन धनुष बाण लाने को कहा। सवाल बुराई पर अच्छाई की जीत का था!!

Vibhavasu Tiwari

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