Quantcast
Channel: Poorvabhas
Viewing all 488 articles
Browse latest View live

​समीक्षा : स्त्रियों की छद्म आज़ादी का सूरज फेसबुक की झिर्रियों से

$
0
0
उपन्यासकार – सूरज प्रकाश
उपन्यास - नॉट इक्वल टू लव
संस्कारण – 2016
प्रकाशन – स्टोरी मिरर प्रा.लिमिटेड, हरियाणा
मूल्य- 150/-


विश्व में जब भी नवीन वैचारिक उत्स्दन, दर्शन, फ़िलासॉफ़ी, विज्ञान और तकनीक का जन्म होता है, तो विश्व का अधिकांश लोक भाग उससे या तो सीधे प्रभावित होता है या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है, लेकिन प्रभावित अवश्य होता है। वर्तमान समय में तकनीक के नए-नए प्रयोगों ने नए-नए जनसंचार साधनों का विकास किया है और इन नए संचार साधनो ने विश्व के व्यक्तियों को आपस में बहुत निकट लाने का प्रयास किया है। फिर भी इस निकटता में अभी भी एक बाधा भाषा की बनी हुई है। हो सकता है यह बाधा आने वाले समय में समाप्त हो जाए, तब तकनीक के इन संचार माध्यमों की उपयोगिता और अधिक बढ़ जाएगी, गति तेज हो जाएगी, इसका अधिक से अधिक महत्व बढ़ेगा और गहरी आवश्यकता बन जाएगी। इस सदी में संचार साधनों ने जितनी तेज गति में विकास किया है और अभिव्यक्ति के नए-नए मंच उपलब्ध कराए हैं, यह अभिव्यक्ति की एक अद्भुत दुनिया के द्वार खोलता है। नए-नए संचार साधनों के विकसित होने से मानवी जीवन के कई भाग प्रत्यक्षत: प्रभावित हुए हैं। आज संचार साधनों ने मनुष्य के जीवन की दिशा और दशा को बदल दिया है। अब वह पहले से भी अधिक संपर्कों की दुनिया में जी रहा है, जो उसे अधिक उदार बनाते हुए समन्वयी बना रहे हैं साथ ही साथ अधिक मानवीय और क्रियात्मक बना रहे हैं। संचार साधनों में फेसबुक एक प्रसिद्ध, उपयोगी, सार्थक, त्वरित संपर्कों का ऐसा सामाजिक नेटवर्किंग मंच है, जिसने सारी दुनिया को संकुचित करके कंप्यूटर की एक वॉल पर लाकर उपस्थित कर दिया है। फेसबुक का प्रारंभ 2004 में हार्वर्ड के एक छात्र मार्ग ज़ुकेरबर्ग ने किया तब इसे द फेसबुक नाम दिया गया था, परंतु अगस्त 2005 में इसका नाम फेसबुक कर दिया गया। ज़ुकेरबर्ग ने इस तकनीकी परिकल्पना के विषय में कभी इतनी बड़ी उड़ान के बारे में नहीं सोचा था कि यह विश्व का एक सशक्त संपर्क जनसंचार माध्यम सिद्ध होगा। आज विश्व में फेसबुक पर लगातार लोगों के खाते बन रहे हैं और इस संचार माध्यम का उपयोग कर रहे हैं। अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोला सारकोजी जैसी महान हस्तियां भी इससे जुड़ी और सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से संवाद स्थापित कर पा रहे हैं। आज यह नि:शुल्क जनसंचार का साधन होने के साथ-साथ जनतांत्रिक संवाद पद्धति का एक उपयोगी और महत्वपूर्ण सबल माध्यम बन चुका है।

इसी माध्यम को केंद्रित करते हुए हिंदी का पहला चैट उपन्यास ‘नॉट इक्वल टू लव’ 2016 में हिंदी भाषा में अपनी नवीनता के साथ साहित्य की दुनिया में आता है, जिसके रचयिता प्रसिद्ध कथाकार, अनुवादक सूरज प्रकाश हैं। यूँ तो सूरज प्रकाश ने 1997 में एक कहानी लिखी थी जिसका नाम- ‘दो जीवन समांतर’ है। यह कहानी भी संवादों पर आधारित कहानी थी, जिसमें टेलीफोन की बातचीत को कहानी का रूप दिया गया था। तब भी ये शैली नई शैली थी, लगभग इस कहानी को आज 20 वर्ष हो चुके हैं। इस कहानी के साथ फेसबुक के प्रयोग से एक और सशक्त कहानी ‘लहरों पर बांसुरी’ दो वर्ष पहले लिखी थी जो बेहद सफल रही। अब 2016 में ‘नॉट इकवाल टू लव’ शीर्षक से उपन्यास में बांधकर कहानी की नई शैली संवाद शैली (चैट) फेसबुक के माध्यम से हमारे सामने आती है, जो उपन्यास शैली के अंतर्गत नई शैली के विकास की नई गति सामने लाती है। यूँ तो हिन्दी उपन्यासों की श्रृंखला में हिन्दी में हजारों उपन्यास आए, जो विषयों के प्रतिपादन में नए चौंका देने वाले विषय लेकर उपस्थित हुए। कई उपन्यास अपनी मौलिक शैली के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। परंतु मेरी दृष्टि में सूरज प्रकाश सिर्फ कथाकार नहीं हैं, बल्कि वह एक प्रयोगशील कथाकार हैं। प्रयोगशील इन अर्थों में मानूंगा कि वे तकनीक का साहित्य के लिए उपयोग करते हैं और उपयोग करने के साथ निरंतर वह उसका प्रयोग भी करते हैं। यह उपन्यास नवीन शैली में रचित तकनीक के प्रायोगिक रूप का प्रमाण है, जो उपन्यास के नए तेवर को नई शिल्प योजना में आबद्ध करके हमारे समक्ष रखता है। फेसबुक के माध्यम से यह उपन्यास जहाँ उपन्यासों की छवि को बदल रहा है, वहीं ये उपन्यास फेसबुक की छवि को सकारात्मक रूप में समाज में स्थापना भी दिला रहा है। ये उपन्यास की विशेषता और उसके अंतर्प्रभाव का परिणाम दिखाई देता है। उपन्यासकार ने फेसबुक के माध्यम से हुई चैटिंग के द्वारा संवादात्मक स्तर पर कहानी का ताना-बाना बुना है, जो एक नई कला को बुनने और उसे विकसित करने की राह सुझाता है। प्राय: प्रथम दृष्टि में कोई भी पाठक यह मान सकता है कि संवादों के माध्यम से कैसे किसी कहानी को आकार दिया जा सकता है? क्योंकि चैट कथा तत्व को कैसे उत्पन्न कर सकता है या चैट में कथा तत्वों का समायोजन कैसे हो सकता है? परंतु इस नई शैली के उपन्यास ने यह बात सिद्ध कर दी है किसी संवादों के माध्यम से भी कथा बुनी जा सकती है। इस उपन्यास में उन समस्त तत्वों का समावेश संभव हुआ है, जो एक कहानी गढ़ने के लिए आवश्यक होते हैं। इस उपन्यास में संवादों की भरमार है, लेकिन कहीं भी कहनीपन समाप्त या कम नहीं हुआ है। उपन्यास में चैट अथवा संवाद केवल संवाद नहीं, बल्कि संवादों के माध्यम से कही हुई एक लंबी कहानी है, जिसे उपन्यास की शक्ल दी गई है। संवाद ही कहानी के माध्यम बने हुए हैं और इन्हीं संवादों में कहानी छिपी हुई है। यह अंतर संगुंफन इतनी बारीकी से गूँथा हुआ है कि संवाद कहानी है, कि कहानी संवाद का माध्यम बनती है, कहना बड़ा मुश्किल हो जाता है। मेरी दृष्टि से संवाद के माध्यम से कहानी आगे बढ़ी है और कहानी का मूल प्राण संवाद ही है। वर्तमान में तकनीक का इतना अधिक विकास किया है कि लोगों को अपने मन के विचार स्पष्ट करने के लिए नए-नए मंच मिले हैं, इन मंचों में उसने अपने जीवन की दुविधाएं, समस्याएं, हर्ष, उल्लास, प्यार, सुख, दुख, सफलता, असफलता, खीज, झुंझलाहट, वैचारिक मत, फिलॉसॉफी के साथ-साथ निजी जीवन के उन पक्षों को भी अभिव्यक्ति प्रदान की है, जो वह प्रत्यक्ष रूप से किसी व्यक्ति के सामने कोई नहीं कर पाता है। फेसबुक या अन्य चैट संसार एक ऐसा स्पेस तैयार करता है, जहां व्यक्ति अंतरंगता से प्रतिव्यक्ति से गहरा जुड़ाव महसूस करता है, जो कि सामने नहीं कर पाता है। उपन्यास ‘नॉट इकवाल टू लव’ भी एक ऐसी ही कहानी है, जिसमें एक नायिका और लेखक नायक अपने मन की बात को समाज के प्रत्यक्ष उपस्थित व्यक्ति को न कहकर ऐसे अनदेखे व्यक्तित्व के सामने अपनी अभिव्यक्ति देते हैं, जो कि आभासी दुनिया के नाम से पहचानी जा रही है। माना जाता है कि जनसंचार के संपर्कों की उपस्थित दुनिया आभासी दुनिया होती है, परंतु मैं मानता हूं कि यह आभासी दुनिया नहीं बल्कि एक खरी दुनिया है, जिसमें हम वह सब कुछ बिना किसी डर और खतरे के अभिव्यक्त करते हैं, जिसे हम अपने आप से भी कभी-कभी हम छुपा लेते हैं। इसलिए यह दुनिया आभासी नहीं, बल्कि एक खरी दुनिया है। ‘नॉट इकवाल टू लव’ ऐसी ही खरी दुनिया के दो पक्षों की चैट है, जिसमें एक नायिका है, जो लेखक के संपर्क में आती है। यह संपर्क 18 मई 2014 से शुरू होता है और 8 मई 2015 तक निरंतर चलता है। लगभग 1 वर्ष के अंतराल की यह चैट कहानी अपने आप में एक रोमांच लेकर उपस्थित होती है, जिसमें नायिका (उन समस्त स्त्रियों की प्रतिनिधि जो इस कथा सा जीवन जीती हैं) एक छोटे से शहर में उत्तर भारत में रहती है, जो शादीशुदा है। लेखक भी शादीशुदा है और वह नायिका से उम्र में भी बहुत बड़ा है। दोनों के बीच धीरे-धीरे चैट का सिलसिला शुरू होता है। यह चैट का सिलसिला कोई झूठी लफ्फाजी या टाइमपास का नतीजा नहीं, बल्कि यह चैट गंभीर मुद्दों से होती हुई जीवन की विभिन्न भावनाओं और घटनाओं को दर्शाता हुआ एक कथात्मक स्वरूप लेकर उभरता है, जो धीरे-धीरे कहानी को आगे बढ़ाता है। नायिका विवाह के पश्चात उच्च मध्यमवर्गीय परिवार में नई जिंदगी शुरू करती है। उसके पति सुरिंदर आड़त का काम करते हैं (जिसमें अनाज की खरीदी बिक्री की जाती है)। नायिका तीन विषयों में एम.ए. है और उसके कुछ स्वप्न थे जो उसके विवाह के पहले उसने देखे थे, लेकिन विवाह के पश्चात वह स्वप्न, स्वप्न ही रह गए। नायक लेखक नायिका दोनों उपाय जुटाते हैं कि हम अपना छद्म नाम रखें और इस छद्म नाम के माध्यम से ही चैटिंग की जाए। इसलिए नायक अपना प्रिय नाम देव चुनते हैं और नायिका को छवि के रूप में संबोधित करते हैं। नायक देव और छवि समय-समय पर जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में जीते हुए चैट करते हैं। वास्तव में लेखक की ये चैट किसी एक महिला से किए गए चैट का परिणाम नहीं, बल्कि अलग-अलग समय पर अलग-अलग महिलाओं से की गई चैट और उनकी यथास्थिति को एक रूप में साकार कर देने का परिणाम है। इस चैट के दौरान नायिका धीरे-धीरे अपने जीवन की विडंबनाओं, त्रासदियों, चाहत, प्रेम-संबंध इत्यादि विषय में नायक से संवाद करते हुए धीरे-धीरे खुलती है। छवि चाहती है कि वह अंग्रेजी में पीएच.डी. करे। किसी कॉलेज में लेक्चरर हो जाए, परंतु मध्यमवर्गीय बंदिशें उसे यह सब करने के लिए रोकती हैं। छवि यह निश्चित नहीं कर पाती है कि वह अपने परिवार में प्रसन्न है या नहीं? सुखी है या नहीं? कभी तो उसे आभास होता है कि वह अपने परिवार की बहुत चाहिती बहू है और बहुत सुखी और संपन्न है। परंतु कभी-कभी उसे आभास होता है कि वह नकली जीवन जी रही है। वास्तव में उसके स्वप्न ही उसका जीवन है, लेकिन स्वप्न पूरे न कर पाने की असमर्थता उसे भीतर-ही-भीतर उद्वेलित करके उसे बेचैन किए रखती है।

देव ने छवि के माध्यम से भारत की उन असंख्य महिलाओं की आजादी के विषय में प्रश्न उपस्थित किया है, जिसमें उन्हें धोखा दिया जाता है कि वह इस समय में आजाद हैं। वास्तव में वह इस समय में आजाद नहीं, बल्कि आजादी का छद्म लिए छली हुई, दबी हुई, डरी हुई एक स्त्री है, जो किसी अन्य पुरुष से किसी भी प्रकार का संबंध रखने पर प्रताड़ित की जाएगी, उसे नीचा दिखाया जाएगा तथा समाज में उसे कलंकित माना जाएगा। छवि मात्र एक नायिका नहीं, बल्कि वह उन भारत की उन समस्त स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कर रही है, जो मध्यमवर्ग का जीवन जीती हुई अपने को आजाद करने की ललक में तड़प-तड़प कर आजादी की खिड़कियों से छलांग लगाना चाहती हैं। लेकिन आज़ादी की छलांग लगाने के बाद उनके पास शेष क्या रह जाता है? यह उसी प्रकार की छद्म आजादी की कथा है, जैसे किसी पक्षी को वर्षों पिंजरे में पालो और फिर उसे आजादी के नाम पर उसके पिंजरे का छोटा सा दरवाजा खोल दो। पक्षी बड़ा खुश हो जाता है कि वह आजाद हो गया, लेकिन वह सोचता है; ऐसी आजादी पाकर वह अब करेगा क्या? जाएगा कहां? खाएगा क्या? वह वास्तव में उड़ान भरना भी भूल चुका होता है। इसलिए वह आदतन फिर से पिंजरे में लौट आता है। स्त्री का जीवन भी ऐसी ही छद्म आजादी से भरा हुआ है, जिसमें वह पिंजरे में कैद है और पिंजरा उसमें क़ैद है। देखा जाए तो पिंजरे में स्त्री है और स्त्री में पिंजरा है। वास्तव में स्त्री की आजादी का यह छद्म झुनझुना देश के हर गली-मोहल्ले, शहर-गांव की सड़कों पर बजाया जा रहा है और वास्तव में राज तो आज भी पुरुष सत्ता का ही है। उपन्यासकार ने उपन्यास में उन यथार्थ स्थितियों को दर्ज किया है, जिसमें स्त्रियों को सामाजिक, राजनीतिक आज़ादी तो मिल रही है, लेकिन राज अब भी उनके पति या पिता ही कर रहे हैं। छवि इस बात को बेहतर तरीके से उदाहरण देकर समझाती है कि- 
-“अभी कुछ दिन पहले यहां स्थानीय निकायों के चुनाव हुए थे। बहुत सारी सीटे महिलाओं के लिए आरक्षित थीं तो जब चुनावी पोस्टर लगे सब तरफ तो पोस्टर पढ़ कर ही खूब हंसी आती थी।”

-“जैसे? ”

-“भीमसेन चक्की वाले की पत्नी दुलारी बाई को वोट दें या रामसेवक सुनार की बहू गुलाबी को वोट देकर सफल बनाएं। पोस्टर पर जिस महिला की तस्वीर होती थी लगता था पहली बार कैमरे के सामने आई है।”

-“यह है आजादी का पैगाम मैडम। अब तय है इनमें से कोई तो चुन कर आएगी। चतुरलाल की या चोखेलाल की। वह बेचारी पहले की तरह उपले थापती रहेगी और चतुर लाल जी अपना धंधा छोड़ कर राजनीति की गोटियां बिछाएंगे” (पृष्ठ 140-141)

वास्तव में मध्यमवर्गीय या निम्न मध्यमावर्गीय परिवारों में स्त्री-पुरुष संबंधों की जो बुनियाद है, वह टेढ़ी-मेढ़ी ही रखी हुई है। पुरुषवादी मानसिकता आज भी अपने चरम पर है। कहानी में सुरिंदर किसी अन्य स्त्री को अपने साथ संबंधों की आजादी पाने के लिए छवि को भी उसके पूर्व प्रेमी चन्दन से मिलने की झूठी आजादी की अनुमति देता है। लेखक देव इस बात को छवि को समझाता है कि तुम्हें तुम्हारे पति ने जो तुम्हें आजादी दी है; वास्तव में वह आजादी तुम्हें नहीं दी, बल्कि वह आजादी उसने अपने लिए सुरक्षित कर ली है। भारत का कोई भी पुरुष ऐसा नहीं जो अपनी पत्नी को अपने पूर्व प्रेमी के हाथ में सौंप दे। लेखक इस मुद्दे को बड़ी साफगोई से उठाते हैं और पुरुषवादी मानसिकता को उनका आईना दिखाते हैं।

उपन्यास मध्यमवर्गीय जीवन के चित्रों को तो दर्शाता ही है साथ ही साथ कस्बाई मानसिकता को भी दर्शाने का प्रयास करता है। आज भी भारत के कई कस्बे, छोटे शहर उन ही रूढ़िगत मार्गों से अपना सफर तय कर रहे हैं जहां पर छोटी मानसिकता का बड़ा बोल-बाला है। जहां पर स्त्रियों को आजाद न रखने और उन पर पाबंदियां कसे रहने की भरपूर कोशिश जारी रहती है। लेखक अपने उपन्यास में न केवल कस्बाई मानसिकता को दर्शाता है, बल्कि वह मुंबई जैसे महानगर की विडंबनात्मक स्थितियों की भी चर्चा करता हुआ स्त्रियों के जीवन को दर्शाता है। जहां वर्तमान में लड़कियां लिव इन रिलेशनशिप को महत्व दे रही हैं। लेकिन यह रिश्ता बाहर से आई हुई नौकरीपेशा लड़कियां अधिक मात्रा में अपना रही हैं, जो लड़कियां मुंबई की लोकल लड़कियाँ हैं वह इस तरह की आज़ादी की या तो पक्षधर नहीं है या उन्हें इस प्रकार की आजादी मिली ही नहीं है।

-“अभी तुमने मुंबई में लड़कियों के लिव इन में रहने की बात की”। लेकिन यहाँ मुंबई में आज भी लड़कियों का एक बहुत बड़ा तबका रहता है जो रहता बेशक मुंबई में है, लोकल भी है, जीवन कुछ हद तक आधुनिक भी है लेकिन बंदिशें उसके हिस्से में उतनी ही है जितनी किसी छोटे शहर में लड़कियों के हिस्से में आती हैं।” (पृष्ठ 139)

स्त्री आज़ादी को लेकर उपन्यास में छवि के माध्यम से एक लंबा चैट (22 अक्तूबर 2014 रात 11:47 मिनिट) पृष्ठ क्रमांक 63 से प्रारम्भ होकर पृष्ठ 70 तक चलता है, जिसमें स्त्री की आज़ादी के स्वप्न के साथ उस पर बन्दिशों का एक लंबा पीड़ादायक सिलसिला दिखाई देता है। वास्तव में इस चैट के द्वारा स्त्री की आज़ादी के ज्वलंत प्रश्न उठाए गए हैं और उपन्यास इस बात को केंद्र में रखकर अपनी कथा को गति देता है, जो इस उपन्यास की विशेषता के साथ इसकी महत्ता का प्रतिपादन दर्शाता है। इस चैट का अंश भारतीय स्त्रियों की आज़ादी की छद्म-कथा के साथ उनके रहस्यमयी चरित्र का यथार्थ अंकन है। स्त्रियों के साथ उनकी छद्म आज़ादी का चमकता सूरज फेसबुक की झिर्रियों से दिखाई देता है। जनसंचार ने स्त्रियों के जीवन पर सीधा प्रभाव डाला है और स्त्री किसी न किसी रूप में इस मंच से अपने को कुछ हद तक अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में तो ला पाई है, लेकिन यह भी सत्य है कि वह भीतर से बहुत डरी हुई है। उसे डर है कि यह मुक्त अभिव्यक्ति उसके जीवन को और अधिक उलझा न दे। वह इस बात से आशंकित और भयभीत है कि कहीं कोई सिर पर हाथ फेरते-फेरते पीठ न सहलाने लगे।

दरअसल उपन्यास उन मानसिक अवस्थाओं को उघाड़ रहा है जहां पर स्त्री आज़ादी के छद्म रूप का बेजा ढोंग किया जा रहा है। वास्तव में कहीं तो स्त्रियाँ स्वयं को आज़ाद कराने पर तुली हुई हैं और कहीं स्त्रियाँ ये निश्चित नहीं कर पा रही हैं कि आज़ादी पाकर हम करेंगे क्या? लेखक इसी दुविधा को बखूबी उपन्यास के माध्यम से उजागर करता है कि भारत की स्त्री चाहे वह कस्बों, गांवो या महानगरों में जी रही हो; वास्तव में वह उस आज़ादी की हकदार न हो पाई है जिसमें उसके पक्ष में आज़ादी के नारे लगाए जा रहे हैं। लेखक उन स्त्रियों के जीवन को भी बराबर दर्शा रहा है, जो कि उत्तर आधुनिकता के दौर में खुलकर जी रही हैं और वे उस कल्चर को अपनाई हुई हैं, जिसे आज स्त्री जीवन होने के नाते हेय रूप में माना जाता है। लेखक छवि को बताता है कि बड़े शहरों की महिलाएं अपनी पार्टी के दौरान वह सब करती हैं जो पुरुष करते हैं, वे बेहिचक ड्रिंक करती हैं। फेसबुक के इस मज़बूत चैट विकल्प के माध्यम से स्त्री की छद्म आज़ादी का वह रूप साकार होकर पाठक के समक्ष उभरता है जहां से स्त्री की आज़ादी की पीड़ा, अभिव्यक्ति का संतोष, एकांत दुनिया के स्वप्न और गोपनियता का पक्का विश्वास झलकता है।

नॉट इक्‍वल टू लव पढ़ कर अहमदाबाद की युवा कवयित्री प्रीति अज्ञात लिखती हैं- “'नॉट इक्‍वल टू लव'को पढ़ते हुए आप किसी-न-किसी रूप में कहीं स्वयं को ही जीता हुआ महसूस करेंगे। फेसबुक की दुनिया में पनपती मित्रता, जुड़ाव और संबंधों की मर्यादा को बनाये रखते हुए लिखा गया यह लघु उपन्यास एक जीवंत चित्र की तरह आँखों के सामने चलता है। देव और छवि की दोस्ती हमारे साथ या आसपास घटित, वाक़या ही लगती है। दोनों ही पात्र आर्थिक रूप से संपन्न हैं और कहीं भावनात्मक सहारे की तलाश में हैं। इसे तलाश कहना भी उचित प्रतीत नहीं हो रहा, ये संभवत: एक रिश्ता है जो मन की दरारों से जगह बना परस्पर स्नेह और भावनात्मक संबल की छाँह तले स्वत: ही पल्लवित होता जाता है। जहाँ दोनों साथ हँसते हैं, सुख-दुःख बाँटते हैं और आत्मविश्वास से भर अपनी-अपनी दुनिया में प्रसन्नचित्त लौट जाते हैं।”

उपन्यास की कथा में देव और छवि के रोजमर्रा के जीवन की घटना और संवाद उपन्यास को और भी रोचक तथा जीवंत बनाए रखने में सहायक सिद्ध होते हैं। यह संवाद मात्र संवाद नहीं बल्कि पाठक को महसूस होता है कि यह संवाद व्यक्ति खुद साध रहा है। देव इस उपन्यास में साक्षी भाव के साथ एक फ्रेंड फिलोसोफ़र की भूमिका का निर्वाह करते हैं और अपने लेखकीय जीवन के कई किस्से तथा रूपों को दर्शाते हुए, एक लेखक की रचना प्रक्रिया को भी अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। इस दृष्टि से उपन्यास लेखक के आत्मकथ्य का बहुत प्रामाणिक ब्योरा बन जाता है। लेखक ने अपनी लेखकीय दुनिया से तो साक्षात्कार कराया ही है साथ ही लेखक की अनुसंधानात्मक दृष्टि से अन्य लेखकों की आदतों और उनकी सनकों का भी ज़िक्र उपन्यास के संवादात्मक अंश बनकर उभरे हैं। वास्तव में लेखक ने लेखकों की दुनिया नाम से रोचक किस्से पहले ही पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किए हैं और वही जीवंत अंश इस उपन्यास के भी हिस्से बन गए हैं। इसके अतिरिक्त लेखक देव और छवि को शौक़ भी उपन्यास के आत्मकथ्य रूप को दर्शाते हुए आपसी रुचियों के आदान-प्रदान को रेखांकित करते हैं, जिनमें संगीत, गायकी, ओशो के प्रवचन, मेडिटेशन शामिल हैं। निजी जीवन के ये अंश भी उपन्यास को पाठकों के बहुत निकट लाता है। यह उपन्यास निराकार पत्रों द्वारा रचित है, परंतु ये निराकार पत्र साकार रूप में अपनी उपस्थिती हमारे मानस में दर्ज कराते हैं। इस प्रकार की शैली में रचित उपन्यास की एक बेहद विशेष बात यह है कि हिन्दी को यह उपन्यास तकनीक के साथ जोड़ता हुआ हिन्दी भाषा का तकनीक में उपयोग करना भी सिखाता है और भाषा विकास में सहयोग भी दर्शाता है। लेखक देव छवि से हिन्दी (नागरी लिपि) में ही चैट करने का आग्रह करता है। यह बात लेखक की भाषा के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर करने के साथ अन्यों में हिन्दी के प्रति अभिरुचि जागृत करते हुए हिन्दी के मोहपाश में अनायास रूप में बांध देता है। ‘नॉट इकवाल टू लव’ की संवादात्मक भाषा अत्यंत सरल, सहज और बोधगम्य है। भाषा के खुलेपन का प्रयोग लेखक ने बराबर बनाए रखा है जिससे स्पष्ट होता है कि उपन्यास अपनी सहजता में रचा गया है। भाषा में कहीं कोई बनावटीपन नहीं; बल्कि चैट की भाषा का वास्तविक रूप प्रस्तुत करता है। लेखक ने कहीं भी भाषा के संकोच और अर्थ विस्तार की चिंता नहीं की है और दैनिक जीवन के सहज रूप में प्रयुक्त उन शब्दों को बेलोस तरीके से प्रस्तुत किए हैं, जिनका प्रयोग आम जनता अपने चैट के दौरान करती जा रही है। भाषा की दृष्टि से उपन्यास लोकतान्त्रिक भाषा के बहुत निकट और सम्प्रेषण में कारगर नज़र आता है। इसमें उन रोज़मर्रा के सबदों का समावेश है जिनका प्रयोग हम कहीं न कहीं आग्रह-दुराग्रह के बिना अपनी सहजता से किये रहे हैं। चैट के दौरान दोनों पक्षों ने अँग्रेजी, उर्दू शब्दावली का प्रयोग अपनी सहजता से करते हुए शब्दों के प्रयोग के साथ अपनी भाषा में लोकोक्तियों और मुहावरों का इस्तेमाल किया है जो चैट की भाषा को और पुख्ता बनाते हैं। संवादों में गतिशीलता, वैविध्य और प्रवाह होने के कारण उपन्यास अपनी पठनीयता तथा रोचकता के स्तर को बराबर बनाए रखता है पाठक इससे बंधा रहता है। अंतत: कहा जाए तो अपनी समग्रता में ‘नॉट इक्वल टू लव’ उपन्यास आज के समय की मांग का एक नवीन बेहतर उपन्यास बनने की नयी पद्धति के प्रयोगात्मक स्तर का चैट दस्तावेज़ है, जो कहानी के नयेपन के साथ वर्तमान सामाजिक विसंगतियों को उजागर करता हुआ स्त्री की छद्म आज़ादी का सच्चा बयान अपनी कथात्मक प्रवृत्तियों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। उपन्यास ने नया भाव और शिल्प पकड़ा है, जो प्रगतिशील और परिवर्तनशीलता के स्वभाव और चरित्र को अपने भीतर समेटे हुए है। इसे लेखक सूरज प्रकाश का नया कौशल माना जाना चाहिए।


समीक्षक :
डॉ. मोहसिन ख़ान
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
जे. एस. एम. महाविद्यालय,
अलिबाग़-जिला-रायगढ़
(महाराष्ट्र) ४०२ २०१



Suraj Prakash/ Mohsin Khan

विभाजन का दर्द शायरों के मार्फ़त - डॉ मनोज मोक्षेंद्र

$
0
0
डॉ. मनोज मोक्षेंद्र

ऊर्जावान रचनाकार डॉ. मनोज मोक्षेंद्र का जन्म 8 अगस्त 1970 को वाराणसी, उत्तरप्रदेश, भारत में हुआ। शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. एवं पीएच.डी.। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह- पगडंडियाँ, चाहता हूँ पागल भीड़, एकांत में भीड़ से मुठभेड़आदि। कहानी संग्रह- धर्मचक्र राजचक्र और पगली का इन्कलाबआदि। व्यंग्य संग्रह- अक्ल का फलसफा। अप्रकाशित कृतियाँ: दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), परकटी कविताओं की उड़ान (काव्य संग्रह) सम्मान: 'भगवत प्रसाद स्मृति कहानी सम्मान-२००२' (प्रथम स्थान), रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान-2012, ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक घोषित, राजभाषा संस्थान द्वारा सम्मानित। लोकप्रिय पत्रिका "वी-विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक और दिग्दर्शक। नूतन प्रतिबिंब, राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक। आवासीय पता: सी-६६, नई पंचवटी, जी०टी० रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत। सम्प्रति: भारतीय संसद (राज्य सभा) में सहायक निदेशक (प्रभारी- सारांश अनुभाग) के पद पर कार्यरत। मोबाईल नं: ०९९१०३६०२४९। ई-मेल पता: drmanojs5@gmail.com


 कहां है अब वो जो कह रहे थे कि "दौरे-आज़ाद में वतन को-
 नए   नजूमो-क़मर   मिलेंगे,    नई-नई     ज़िंन्दगी    मिलेगी।।"- आरिफ़ बांकोटी


बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक समस्त भारतवासी सभी सांप्रदायिक, नस्लीय-जातीय तथा धार्मिक संकीर्णताओं को दरकिनार कर पूरी तन्मयता के साथ अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ संघर्षरत थे। किंतु, इस आज़ादी की लड़ाई में अचानक मंदी आ गई जिसकी अनेक वज़हों में एक अहम वज़ह मुस्लिम लीग़ का वर्ष 1906 में गठन था। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग़ का अहम मंसूबा देश में मुस्लिम बहुमत जुटाने के लिए सिर्फ़ मुस्लिमों के लिए राष्ट्रवादी नीतियों को हृष्टपुष्ट बनाना था और इस प्रयोजनार्थ एक इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त करना था। बेशक, ऐसे में अंग्रेजी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ क़ौमी एकता हासिल करने में भारी अड़चनें आने लगीं। तब अमन-चैन और स्वशासन की चाह रखने वाले हिंदुस्तानी कलमकारों को आवाम को आज़ादी का सटीक सबक देने में भी उलझनें पेश आने लगीं। इन सब बातों का आगामी वर्षों में इतना दूरगामी असर हुआ कि देश में दो राष्ट्रों के निर्माण के सिद्धांत ने जोर पकड़ा जिसकी परिणति वर्ष 1947 में भारत के आज़ाद होने के साथ-साथ पाकिस्तान का एक अलग मुल्क़ के तौर पर आज़ाद होना था। बेशुमार बलवा-फ़साद इसी बंटवारे का अंजाम था। उस घटना पर 'सबा'मथरावी के लफ़्ज ग़ौर-तलब हैं:

बट गया सहने गुलिस्तां, आशियाने बट गए
बागबां देखा किया, वे आशियानों का मआल

हर तरफ़ औरा के-गुलशन के फ़साने बट गए
रह गए बे-सख़्त टुकड़े बनकर इक लाहल सवाल

और इस बंटवारे का ख़ामियाजा कुछ इस तरह भुगतना पड़ा; साल 1947 में 'सबा'मथरावी द्वारा दिया गया ब्योरा:

मंज़िलत पर कुछ लुटे, कुछ राह में मारे गए,
बारे गुलशन हो गए जो थे कभी जाने-चमन

दीद कलियों की गई, फूलों के नज्जारे गए
लुट गई शाखे-नशेमन मिट गई शाखे-चमन

खेद इस बात का है कि इस घटना से जहां हिंदुस्तान का पुरातन काल से चला आ रहा भौगोलिक अस्तित्व छिन्न-भिन्न हुआ, वहीं भारतीय महाद्वीप का समूचा इतिहास और भूतकालीन गौरव-गरिमा धूल-धूसरित हुई; टुकड़ों में विभाजित भारतीय महाद्वीप का बौद्धिक हृदय आज भी लहू-लुहान है। विभाजन का दर्द उन सभी के हृदय में स्थायी तौर पर घर कर चुका है जो इस मुल्क़ में धर्म-मजहब और वर्ग-संप्रदाय को तौबा करते हुए सिर्फ़ इन्सानियत के फलने-फूलने की उत्कट इच्छा रखते थे और रखते हैं। विभाजन के पश्चात भारत और पाकिस्तान की जनता, वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान, आज भी उस नासूर का जख़्म भर पाने में ख़ुद को असफल पा रही है। यह कहना अतिरंजित नहीं होगा कि भविष्य में भी न तो इस जख़्म को कभी भरा जा सकेगा, न ही इस नासूर का टींसता दर्द आइंदा कम होगा। यह दर्द ख़ासतौर से आज़ादी के बाद के क़लमकारों में इतना मुखर और हृदय-द्रावक है कि देश का हर भारतवासी, चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो, उस काले दिवस को याद कर कराह उठता है। रमजी इटावी हिंदुस्तान के बंटवारे से पैदा हुए सूरते-हाल का जायज़ा बखूबी लेते हैं। साल 1948 में वह मुसलमानों से सवाल करते हैं:
 
सच बताओ ऐ मुसलमानों! तुम्हें हक़ की क़सम
क्या सिखाता है, तुम्हें क़ुरआन यह जोरो-सितम?

मज़हबे इसलाम रुसवा है, तुम्हारी जात से
दिन तुम्हारे ज़ुर्म क्या तारीक़तर हैं रात से

फ़िर, वह हिंदुओं से भी दरख्वास्त करते हैं:

सच बताओ हिंदुओं! तुमको अहिंसा की क़सम
जज़्बए रहमोकरम और गायरक्षा की क़सम

क्या तुम्हारे वेद-गीता की यही तालीम है?
राम-लछमन और सीता की यही तालीम है

अपने रूठों को मनाओ, हमबग़ल हो एक हो
रस्मे-उल्फ़त देखकर दुनिया कहे, तुम नेक हो

वह दोनों को चुन-चुन कर गालियां देते हैं और जी-भर कर कोसते हैं:

नामुरादो, ज़ालिमो, बदबख़्त, मूजी, भेडियो!
ऐ दरिंदो, अहरमन के नायबो, ग़ारत ग़रो!

ऐ लुटेरो, वहशियो, जल्लाद, गुण्डो, मुफ़सदो!
दुश्मने इन्सानियत, रोना मुबारक हब्सियो!

रख दिया सारा वतन लाशों से तुमने पाटकर
पारा-पारा कर दिया इन्सान का तन काटकर

गरदनें तोड़ी हैं, लाखों गुल रुख़ाने-क़ौम की
इस्मतें छीनी हैं तुमने मादराने-क़ौम की

यहां यह विशेष रूप से उल्लेख्य है कि जिस कश्मीर में आज भी विघटनकारी तत्व राष्ट्रीय अखंडता को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा हैं, उसी कश्मीर के एक प्रमुख शायर आनन्दनारायण 'मुल्ला'भारत-विभाजन से आहत होकर लिखते हैं:

कैसा गुबार चश्मे-मुहब्बत में आ गया,
सारी बहार हुस्न की मिट्टी में मिल गई।

हालांकि भारत के आज़ाद होने की खुशी का इज़हार तो सभी ने दबे मन से की; लेकिन यह कड़वा सच तत्कालीन क़लमकारों के जरिए उद्घाटित होता है कि विभाजन के बाद सारा भारतीय समाज रोष और आक्रोश से पागल हो उठा था। उसे ऐसी आज़ादी कभी रास आने वाली नहीं थी जिसके हासिल होते ही वहशियाने बलवा-फ़साद को अंज़ाम दिया गया और जिस हत्याकांड का सिलसिला आरंभ हुआ, उसमें तमाम बच्चे यतीम हो गए, बेशुमार औरतें बेवा हो गईं, बेग़ुनाह लड़कियों की इस्मतदारी हुई और अखंड रूप में स्वर्णिम भारत का सपना देखने वालों की इच्छाएं मिट्टी में मिल गईं। इस तथ्य को बार-बार उजागर करना उचित नहीं होगा कि 'लीग'दूषित मनोवृत्तियों से सराबोर थी। उसके नापाक इरादे से कुपित होकर 'मुल्ला'की कलम गर्जना कर उठती है:

जहां से अपनी हक़ीक़त छुपाए बैठे हैं
यह लीग का जो घरोन्दा बनाए बैठे हैं

भड़क रही है तआस्सुब की दिल में चिनगारी
चरागे-अम्लो-हक़ीक़त बुझाए बैठे हैं
... ... ... ...
सजाए बैठे हैं दूकां वतन-फ़रोशी की
हरेक चीज की क़ीमत लगाए बैठे हैं

क़फ़स में उम्र कटे जी में है ग़ुलामों के
चमन की राह में कांटें बिछाए बैठे हैं

मुस्लिम लीग़ ने न केवल हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कभी न भरा जा सकने वाला दरार पैदा किया अपितु उसने सांप्रदायिकता और मज़हबदारी के जरिए सिर्फ़ स्वार्थ की रोटियां सेंकी और अस्मिता की ऐसी लड़ाई लड़ी जिसमें इंसानियत के असंख्य हिज्जे हुए। 'मुल्ला'साहब लीग़ पर निशाना साध कर उसके बुरे मंसूबे पर तीर फेंकते हैं:

गिराई एक पसीने की बूंद भी न कभी
मता-ए-क़ौम में हिस्सा बटाए बैठे हैं।

जिस हिस्से की चर्चा 'मुल्ला'साहब करते हैं, उसका साकार रूप पाकिस्तान ही है। बहरहाल, विभाजन का मातम मनाते हुए उसी दौर की जोहरा निग़ाह की कलम कुछ इस तरह बिलखती है:

तमाम अहले-चमन कर रहे हैं यह महसूस।
बहारे-नौका तबस्सुम तो सोगबार-सा है।।

उस दौर के सभी हिंदू और मुस्लिम शायर आज़ादी की क़ीमत पर देश को विभाजित करने के सियासतदारों के शैतानी खेलों से बेहद ख़फ़ा थे क्योंकि उनकी वज़ह से स्वतंत्र भारत में हिंदू और मुसलमान दोनों ही अपनी जमीन पर परदेसी हो गए। उसी काल के मशहूर शायर अर्श मलसियानी भी लिखते हैं:

जो धर्म पै बीती देख चुके, ईमां पै जो गुज़री देख चुके।
इस रामो-रहीम की दुनियां में इनसान का जीना मुश्किल है।।

क्योंकि इधर भारत आज़ाद हुआ, उधर पूरे मुल्क में ख़ून-ख़राबा का माहौल तारी हो गया। यह ख़ून-ख़राबा भारत-विभाजन के लिए खेल खेलने वालों और भारत को अखंड रूप में देखने वालों के बीच हुआ। तभी तो तत्कालीन शायर आदीब मालीगांवी का जज़्बाती होकर आंसू बहाना दिल को चीर जाता है:

तू अपने को ढूंढ रहा है दुनियां के मामूरे में।
यह बेग़ाना देस है ऐ दिल! इसमें सब बेग़ाने हैं।।

हिंदुस्तान के बिखरने का दर्द हरेक ने महसूसा--वह चाहे हिंदू हो, मुसलमां हो, सिख हो या कोई और धर्म-संप्रदाय का। टुकड़ों में बांटने वालों की संख्या नगण्य थी जबकि विशाल भारत को स्वतंत्र रूप में देखने की इच्छा सभी की थी। अंग्रेज देश में उफ़नती हुई सांप्रदायिक वैमनष्यता को देखकर बेहद खुश थे क्योंकि उनका मंसूबा भी यही था और वे इस वैमनष्यता को एक अचूक विघटनकारी घटक बनाने पर आमादा थे जिसमें वे बिलाशक सफल भी रहे। उस दौर के सरमायादारों को हिंदुस्तान या पाकिस्तान से कुछ भी लेना-देना नहीं था; उन्हें तो बस! हुक़ूमत में, चाहे वह पाकिस्तानी हुक़ूमत हो या हिंदुस्तानी, शिरक़त करना था--जिसे उन्होंने भारत माता को लहू-लुहान करके बखूबी किया और उनकी मानसिकता वाली संतानें आज भी वही कर रही हैं। घिनौनी धार्मिक-सांप्रदायिक मनोवृत्तियां आज भी इनसानियत का सिर कलम करने में जरा-सा भी हिचक नहीं कर रही हैं। उस दौर के शायर अदम साहब उनकी नंगाझोरी बेख़ौफ़ करते हैं:

सुना कि कितनी सदाक़त से मस्जिदों के इमाम
फ़रोख़्त करते हैं बेख़ौफ़ फ़तवाहा-ए-हराम

जो बेदरेग़ ख़ुदा को भी बेच देते हैं
ख़ुदा भी क्या है हया को भी बेच देते हैं

नमाज़ जिनकी तिजारत का एक हीला है
ख़ुदा का नाम ख़राबात का वसीला है

उस दौर की घटनाओं का चश्मदीद ब्योरा क्या इतिहासकार दे पाएंगे? इतिहासकार तो सिर्फ़ तारीक़ी वाक़यात बयां करते हैं; वे ऐसे ब्योरे देकर इनसानी जज़्बात कहां पैदा कर सकते हैं? यह काम तो शफ़ीक़ ज्वालापुरी सरीखे शायर ही कर सकते हैं; साल 1951 में लिखी उनकी चंद लाइनें: 
उस हंसी ख़्वाब की उफ़ ऐसी भयानक ताबीर

जैसे भूचाल से गिर जाए कोई रंगमहल
डूब जाए कोई कश्ती लबे-साहिल आकर

जिस प्रकार के बलवा-फ़साद और ख़ून-ख़राबा को अंज़ाम दिया गया, वैसा तो जंगली जानवरों में भी नजर नहीं आता। इल्म और तहज़ीब का सरताज़ कहा जाने वाला हरेक हिंदुस्तानी, जानवरों से भी ज़्यादा वहशी और क्रूर हो गया। अदीबी मालीगांवी व्यंग्यात्मक लहजे में इन्सानी हरक़तों का मख़ौल उड़ाते हुए कहते हैं:

दरिन्दों में हुआ करती है सरगोशियां इस पर।
कि इन्सानों से बढ़कर कोई ख़ूं आशाम क्या होगा।।

बिलाशक, वह चाहे हिंदी का कोई कवि हो या उर्दू का कोई शायर, उसने इस सच्चाई को तहे-दिल अहसासा कि जो कुछ भी हुआ, वह मज़हबी वहश और धार्मिक उन्माद के कारण हुआ।

बहरहाल, यहाँ जिस सच्चाई का अहसास अर्श मलसियानी को हुआ था, वह आज भी भारतीय महाद्वीप का कोई शख़्स नहीं करता है; ऐसा आख़िर क्यों है? क्या ईश्वर और धर्म मानवता से ऊपर है या ईश्वर भी तमाम मज़हबदारों का अलग-अलग होता है? अर्श साहब लिखते हैं:

डंक निहायत जहरीले हैं, मजहब और सियासत के।
नागों के नगरी के बासी! नागों के फ़ुंकार तो देख।।

आज़ादी के ख़्वाबग़ाह में उगे वहशियाना आदम कैक्टसों ने किसे घायल नहीं किया? उस दौर की रोंगटे खड़े करने वाली घटनाएं शायर जगन्नाथ आज़ाद को इन्सानी तहजीब पर फ़िकरा कसने के लिए मजबूर कर देती है:
इन्सानियत ख़ुद अपनी निग़ाहों में है जलील
इतनी बुलंदियों पै तो इन्सां न था कभी?

दरअसल, बर्तानी सियासतदारों की शह पर मुस्लिमों के लिए सियासी हक़ के लिए बारंबार बग़ावत करने वाली मुस्लिम लीग़ को यह भय खाए जा रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि हिंदुस्तान के आज़ाद होने के बाद यहां की राजनीति हिंदू-बहुल हो जाए और मुसलमान अलग-थलग पड़ जाएं। पर यह लीग़ की बडी भूल थी--या यूं कहिए कि उसका सोचना था कि वह पूरी इस्लामी अस्मिता की लड़ाई ख़ुद ही लड़ रही थी। जबकि उसकी लड़ाई अपने सीमित स्वार्थों की पूर्ति के लिए थी। यही कारण है कि आज़ादी के बाद वह भारत की पार्टी न होकर, पाकिस्तान की पार्टी बनी और अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण पाकिस्तानी चुनावों में धीरे-धीरे अपना जनाधार खोती गई तथा वर्ष 1960 के आते-आते यह पूर्णतया नेश्तनाबूद हो गई। मोहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान चले जाने के बाद, मुस्लिम लीगियों की हालत तबाहक़ुन हो गई। वे करते भी क्या? मुस्लिम लीग की साज़िशों के शिकार बनने के सिवाय। वे तो अपनी ही सरजमीं पर ख़ुद को तन्हा पाते हैं। आज़ादी के ही साल में 'निसार'इटावी मायूस होकर कहते हैं:

राहे तलब में राहबर छोड़ गया कहां मुझे?
अब है न मौत की उम्मीद, न ज़िंदगी की आस है।

आख़िर, यह क्या हो गया? आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम अमन-चैन के लिए क्यों तरस रहे हैं? दहशत से सारा भारतीय महाद्वीप तबाही की आग में क्यों ख़ाक हो रहा है? क्या अमन-चैन अब मयस्सर नहीं हो पाएगा? क्या हम बिस्मिल सईदी के साथ आज़ादी का ज़श्न मनाते हुए कुछ इस तरह गुनगुनाने के लिए तरसते ही रहेंगे:

ओजे आज़ादी पै है जमहूरियत का आफ़ताब
आज जो ज़र्रा जहां भी है वहां आज़ाद है
... ... ...
गुरदवारे पर, कलीसा पर, हरम पर, दैर पर
चाहे जिस मंज़िल पै ठहरे कारवां आज़ाद है


Hindi Article by Manoj Mokshendra

​आशीष बिहानी की कविताएँ ​

$
0
0
आशीष बिहानी

​युवा रचनाकार ​आशीष बिहानी ​का जन्म 11 मार्च 1992 को बीकानेर, राजस्थान में हुआ। प्रकाशित कृति : 'अन्धकार के धागे' (कविता संग्रह)। प्रकाशन : आपकी रचनाएँ यात्रा, गर्भनाल, समालोचन, अनुनाद आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित। सम्प्रति : बिट्स पिलानी से B.E. और M.Sc. करने के बाद वर्तमान में कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र, हैदराबाद में शोधरत। ई-मेल : ashishbihani1992@gmail.com

उखड़

दीवार-सी कठोर उसकी पीठ पर ठुकी कीलें हिल गयीं
रेशे तैर आए हरे गाढे द्रव के
काई से ढके, मच्छरों से तरबतर
सुगबुगे दलदली तालाब बन गए उसकी आँखों के चारों ओर
धँसती गयी उसकी जड़ें
किसी पुरानी गली में
ले आई है उसकी खोज उसे
कूदते-फाँदते, घिसटते-लटकते
उसकी साड़ी में छेद हो गए हैं
और मति में स्मृतिभ्रंश
अवाक्, उसने सर उठाया
दूर किसी बुड्ढे की खाँसी की भांति
सूने घर की काल्पनिक सांय सांय ने
झकझोरा उसे
पहेली सी गूँजती भाषा में

इसी डूब में कहीं आस पास उसका घर था
जिसके कोनों में उसके भय बसते थे
खेजड़ी के काँटों की तरह जो
रक्षा करते थे रह्स्यों की
जिनको नंगा कर देना था उसे हाड़ा रानी की तलवार से
जहाँ गुसलखाने में फिसल कर उसके नितम्ब का जोड़ हिल गया
दुविधाओं के वक़्त उस चोट की कसक लौट आती अचानक ही
जहाँ घट्टी की गरड़-गरड़ में पहाड़ों का रट्टा भुला जाता था
उनकी जगह आ बैठती थीं
विसंगतियों से लदीं कहानियां
जिसकी पानी की मोटर हेडीज़ की तरह भूतों को कुओं
से निकाल कर धूप में लेटा देती थी
उनकी संतुष्टि भरी आहों से उसके नथुने बेचैन हो उठते थे

उसके घुटनों में दर्द है
पर नितम्ब में कोई कसक नहीं
वो भौचक है कि कैसे कहानियों की डोरियाँ ले आयीं उसे
इधर
जहाँ से वो भागी थी भीगी, अधूरी बुनावटें लेकर
अरबों टिड्डे टकराए थे उसकी पीठ से
एक पत्ती भी साबुत नहीं बची
वहाँ धरती की नसों ने जमा कर दिया है
खालीपन का पीब
और अजनबीयत
ये उसका देश नहीं है
पर ये जगह उसकी है।

पता लगाओ


 अधपुती दीवारों के चरमराते ढक्कनों को चीरकर
वो बाहर आती है, क्रोध से जलती आँखों से घूरती हुई
और अपनी सारी ताक़त से चिल्लाकर कहती है,

क्या तुमने जाना, समझा, पता लगाया?
क्या तुम सुन भी रहे थे?
तुम्हारे आँख-नाक-कान किस काम के हैं?
तुम अपने कानों में सीसा भर,
हाथों से सीना ढक कर लेट जाओ
एक मुर्दे की भांति
आसमान तुमपर तूफ़ान बरपाएंगे,
रोएंगी फ़िजाएँ

वो सुन नहीं पाया,
विचित्र आवृति वाली ध्वनियाँ
नग्न हो मिट्टी में लोट-पोट हो रही हैं
उसके घुटने कमज़ोर हो गए हैं
वो इस व्यापक उजाड़ की स्वामिनी के क्रोध से थरथराते पैरों के पास गिर पड़ता है
अपने चेहरे से मिट्टी और अश्रुओं का मिश्रण चाट कर साफ़ करता है
कोशिश करता है घटनाओं को समझने की

वो सवार हो जाती है उसे पलट कर उसके जननांगों पर
वो देखता है भयभीत, चकित, रुग्ण; एक अभूतपूर्व प्रचंडता वाला तांडव।

मुस्कुराहट

सवेरे के परदों
ने दिन को रास्ता दिया
और सूरज की रोशनी
धड़धड़ाती हुई उतर आई
टेबल से फर्श पर

दातुन, साबुन और किताबें गर्माहट पाकर
खुश से हो गए
परदे बाहर वाले पेड़ की पत्तियों
की भाँति
मचलना बंद कर चुके

ननिहाल के
गोबर नीपे फर्श पर बने
मांडणों सी
पारदर्शी, गोलमटोल आकृतियाँ
क्रीड़ाएँ करने लगीं
दृष्टिपटल पर

सुग्गों का एक जोड़ा
पिंजड़े का दरवाजा खुला पाकर
बिना मुझे साथ लिए ही
फट्ट-फट्ट कर उड़ गया

बलिश्त भर मुस्कुराहट
ताज सी आ बैठी उसकी
ठुड्डी पर
झड़ गए दो दर्ज़न सितारे
प्यार के मारे
दिन दहाड़े ही।

मन


 वो देख रही है
अभिभूत हो
स्वप्नों के टुकड़ों
का किमेरा

अंतरिक्ष के कोनों में
सज गए हैं
मोहब्बत में झुलसे हुए डामर के ड्रम,
विचारमग्न बरगद के पेड़,
चट्टान सी सपाट भैंस की पीठ,
रेलमपेल, रंग और रुबाइयाँ
गीत, ग़ज़लें और गाँजा
झूले और झगड़े
झाड़ पर टंगी होली पर फाड़ी गयी कमीज़
काई और कली से पुते गुम्बद
बारिश से धुली सड़क
और सवेरे के बन्दर

पदार्थों और छायाओं की ओर झांकते,
विचित्रताओं के मेले में विचरते-विचरते
उसने छोड़ दी माँ की ऊँगली
और जाकर बैठ गयी
रेल के इंजन में
जहाँ दुनिया के नेता बने बनाये चित्रों में
रंग भर रहे हैं
महानता के निर्माण का शोर
बहरा करने पर आमादा है
उसे प्रतिनिधियों की गतिविधियों का जीवित होना
पसंद आया है

"तुम्हारे पापा का नाम क्या है?"
"पापा"
"तुम्हारी अम्मा का नाम क्या है?"
"अम्मी"
"तुम कहाँ से कहाँ जा रहे हो?"
"ननिहाल से घर"
कई मायनों में वह इस टेढ़े विश्व की
सच्ची बाशिंदी है।

पर यह सब घटित होता है
वास्तविकता की सलवटों में कहीं
गुप्त रूप से
अर्थहीनता के जंजाल के ठीक बाहर
उसके माँ-बाप पागलों की तरह
ढूँढ रहे हैं अपनी बच्ची का
मन

रात

तालाब के गीले कोनो पर
ज़िन्दगी की जेबों में
सिमट कर बैठे हैं
गुलदस्ते
अपने घर मिटटी में डुबोए
इस इंतज़ार में कि
अनिर्वचनीय गंध वाली
अँधेरे की एक लट उन्हें प्यार
कर जाएगी
बयार सा ठंडा दामन
सहला जायेगा उन्हें
हंसी की सलवटों से लदी
नाक सा नन्हा चाँद
नहला देगा चांदनी से
उनकी खट्टी उँगलियों को

वो रात है स्वयं,
उसके हाथों से बने सीप से आवरण में सूरज
औंधे मुँह सोया है
सधे हुए नंगे कदमों से
सूखे पत्तों से लदी राह पर
वो रखती है ओस के मोती
सवेरे की दूब पर,
बढ़ती है पश्चिम की ओर
छिड़कते हुए
अल्हड़ मुस्कान का प्रभात

वो चलती है पानी पर यों
जैसे तैरते हैं बादल
पर्वत श्रृंखला के सहारे-सहारे
  

रम, ख़ुशी और ममत्व

रम के नशे में अलमस्त हो,
नथुआ
गन्ने के जंगल से निकल कर
गाँव की ओर बढ़ा
झूलती गलियों और लड़खड़ाते पेड़ों
को कोसते हुए

उसने सितारों से रास्ता पूछा --
पर सितारे टिमटिमाने में व्यस्त हैं,
धरतीवासियों और उनके
पियक्कड़ बच्चों के फालतू सवालों
पर वो भेजापच्ची नहीं करते

सो बिना खगोलीय सहायता के
उलजलूल दुनिया में
सिरफिरा खो गया
जब बिस्तर के गीलेपन में हाथ मारकर
उसने अपने होश खोजे
तो चाँद उसका मुँह चिढ़ा रहा था
और उसके कानों में
भैंस के गोबर और बरसाती पानी
का ठंडा मिश्रण
प्यार की तरह उतर रहा था

एक पागल बूढी भिखारिन,
जिस पर सड़क के दोनों ओर से
बिजली के खंभे पीली रोशनी मूत रहें हैं,
अपने बेहद छोटे छप्पर से
सिर निकालकर,
जोर-जोर से अपने टुंडे हाथ हिलाकर,
पोपले मुँह से हंसकर
टिन के पींपे सी खाली रात में
दर्शकों के एक काल्पनिक
हुजूम के सामने
अपनी ख़ुशी व्यक्त कर रही थी

कुछ दूरी से एक लटकते खाली थनों वाली
कुतिया,
जिसके तीन पिल्लों को
कुत्ता सरदारों ने गोधूलि के वक़्त
मार डाला था,
अपनी आखिरी संतान को लिए
शरण की तलाश में
बुढिया के छप्पर की ओर भागी चली आ रही है
(कीचड में लंपलेट हो बडबडाते शराबी को
कुतूहल से देखते हुए)

गाँव से नौ-तीस पर निकलने वाली
दिन की आखिरी बस खों-खों करती हुई
इन सब पर कीचड़ और धुआं
उछालती हुई चली गई

रम, ख़ुशी और ममत्व
काफी गर्म होते हैं;
ठंडी रातों में
ज़िगर को जकड कर बैठे रहते हैं।


Hindi poems of Ashish Bihani

राजा अवस्थी के नवगीत

$
0
0
राजा अवस्थी

चर्चित कवि राजा अवस्थी का जन्म 04 अप्रैल सन् 1966 को कटनी नदी अँचल में बसे ग्राम पिलौंजी, जिला- कटनी, मध्यप्रदेश में हुआ। शिक्षा: स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)। प्रकाशित कृति: 'जिस जगह यह नाव है' (2006, नवगीत संग्रह)। समवेत संकलन: 'नवगीत नई दस्तकें, गीत वसुधा, नवगीत के नये प्रतिमान, नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्य'आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में नवगीत संकलित। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कुछ कहानियाँ अलग-अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित। इसी अंतराल में ग़ज़लें व दोहे भी प्रकाशित। प्रसारण: दूरदर्शन केन्द्र भोपाल व सभी स्थानीय टी.वी. चैनलों के साथ आकाशवाणी केन्द्र जबलपुर व शहडोल से नवगीतों का प्रसारण। सम्मान: कादम्बरी, जबलपुर द्वारा 2006 का 'निमेष सम्मान'नवगीत संग्रह 'जिस जगह यह नाव है'के लिए। सम्प्रति: मध्यप्रदेश शासन के स्कूल शिक्षा विभाग में प्रधानाध्यापक। सम्पर्क: गाटरघाट रोड, आजाद चौक, कटनी, मध्यप्रदेश, मोबा. 09617913287

गूगल सर्च इंजन से साभार
1. गढ़ता रहेगा

​​प्रगति के किस पंथ निकला
रथ शिखर चढ़ता रहेगा

कुँये का पानी
रसातल की तरफ जाने लगा
खाद ऐसा भूमि की ही
उर्वरा खाने लगा
बैल हल की जरूरत से
मुक्त यन्त्रों ने किया
बेवजह हल-फाल शिल्पी
कहाँ तक गढ़ता रहेगा

अग्रगामी शोध संतति के
फले, फूले अभी
तीव्रगामी पुष्पकों से
सूर्य तक छू ले अभी
बंधु कर स्वीकार
जड़ता छोड़, यन्त्री यन्त्र बन
अकेला इस खोह में तू
कहाँ तक लड़ता रहेगा

सृजन की, संघर्ष की
वह चेतना संकल्पशाली
कंदराओं से निकल
अट्टालिका नभ तक बना ली
बीज ने अंकुर दिए तो
पेड़ होने के लिए
सम-विषम मौसम सहेगा
उम्र भर बढ़ता रहेगा

बाल दीपक, द्वार पर रख
रोशनी से भर गली
बुझाने को हो भले ही
पवन प्यासी चुलबुली
मिटा देगा हारने की
अटकलें संभावनायें
अँधेरे से दीप अपनी
उम्र भर लड़ता रहेगा

2. दद्दा की कमजोर नज़र-सा

सपना क्यों टूटा-टूटा-सा
नभ में खुली उड़ान का

बिखरी हुई उदासी घर में
खामोशी ओढ़े दालानें
तैश भरे हैं कमशिन बच्चे
सिकुड़ी-सिकुड़ी-सी मुस्कानें
उल्टे पाँव सुनहरी किरणें
पश्चिम में कब की लौटी हैं
दद्दा की कमज़ोर नज़र-सा
रिश्ता गाँव-मकान का

बेटी को ले गया जमाई
बेटों को बहुयें ले बैठीं
पतझड़ की मारी दादी की
सारी नशें हड्डियाँ ऐंठीं
खेत बिके सब डोरे टूटे
अनुभूतियाँ अनाथ हुईं
भूल गया व्याकरण सिरे से
बिखरा घर मुस्कान का

काले अन्तर्मन के ऊपर
रँगे चेहरे उजरौटी हैं
भीतर व्यूह-चित्र साजिश के
बाहर आँखें कजरौटी हैं
बढ़ते हुए शोर के भीतर
लगातार बढ़ता सन्नाटा
फिर भी उम्मीदों की देहरी
स्वस्तिक रचे विहान का

3. गुनगुनाये पल

भोर की शीतल हवा से
नेह में डूबे प्रभा से
गुनगुनाये पल, मुस्कराये पल

आँज कर काजल नयन में
शील भरकर आचरण में
वे मिले होंगे
सँजोये कुछ माधुरी-से
इक सुगढ़-सी पाँखुरी-से
लब हिले होंगे
कामनाओं के सजीले
भावनाओं के लजीले
थरथराये पल, कँपकँपाये पल

आस्था का एक बंधन
बाँधकर दो अपरिचित मन
समर्पित होंगे
खुलेंगे फिर बंध सारे
परस्पर दो हृदय हारे
हिमगलित होंगे

;
पुरातन अनुबंध सारे
तोड़ देने को किनारे
उमड़ आए पल, घुमड़ आए पल

यंत्रणा बिखराव लेकर
स्वार्थ प्रेरित दाँव लेकर
जिन्दगी काटे;
मोह, ममता, आस्थायें
उपेक्षित आँसू बहायें
चुभ रहे काँटे;
बाद में अवसाद के
टूटते संवाद के
याद आए पल, डबडबाये पल।

4. और नदी

सदियों हर-हर बहने वाले
सूखे झरने और नदी

कथा-भागवत, झण्डे-डण्डे
पण्डे, पण्डों के मुस्टण्डे
सबकी चहल-पहल भारी है
बाँट रहे ताबीजें गण्डे
जल्दी-जल्दी चले हाँकते
गली-खोर में खदाबदी

सड़कें हुईं राजपथ लेकिन
प्रतिबंधित पग धरना जन का
खेत खो गए, पेड़ कट गए
ठण्डा रहा नीर अदहन का
पूँजी के प्रवाह पर बलि दी
धरती, जंगल, न्याय, नदी

5. अनपूरित इच्छायें
अनपूरित इच्छायें
अनचाही पीड़ायें
रचतीं अनुप्रास, रोज आस-पास

दूध-भात​,​ रोटी तो
पढ़ो चित्रकोटी तो
उपवासी कुर्सी को रबड़ी का भोग
तोंद बढ़े रोज-रोज
होटल में भोज रोज
नित्य नई मुर्गी की चाह लगा रोग
समझो! रानी समझो
बैठी हो खुश तुम जो
चाहत का व्यास, घटे आस-पास

रोज एक मकड़जाल
जेहन में डाल-डाल
सपने सतरंगी कर दिए मनीप्लांट
सुविधा का एक साँप
मन पूरा नाप-नाप
देह की पिटारी में कैद हैं अशांत
भाते या ना भाते
स्वारथरत ये नाते
खोकर एहसास, रचे आसपास

राजा, राजा ठहरे
मरते-कटते मोहरे
पीछे मत लौटो यह बंदिश बस पिद्दी पर
सब कुछ अब जाहिर है
चालों में माहिर है
बदलेगा पाला बस बना रहे गद्दी पर 

अंतस तक बेशर्मी
चस्पा मुँह पर नर्मी
कैसी यह प्यास, बढ़े आसपास।


Hindi Lrics of Raja Awasthi,Katni, M.P.

समीक्षा: 'अँधेरे में : पुनर्पाठ' - मुक्तिबोध के प्रति हैदराबाद के हिंदी जगत की श्रद्धांजलि

$
0
0
समीक्षित पुस्तक : ‘अँधेरे में’ : पुनर्पाठ
संपादक : ऋषभ देव शर्मा एवं गुर्रमकोंडा नीरजा
प्रकाशक : परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद
वितरक : श्रीसाहिती प्रकाशन, हैदराबाद
पृष्ठ : 234, मूल्य : रु. 250/-, वर्ष : 2017

बीसवीं शताब्दी की हिंदी कविता के पुरोधा कवियों में गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम अग्रगण्य है. उन्होंने जनपक्षीय काव्य की धारा को अप्रतिहत गति प्रदान की और अपने समय के ही नहीं आज के अनेक रचनाकारों को प्रेरित किया. यह वर्ष उनकी जन्म शती का वर्ष है. उनका जन्म 13 नवंबर, 1917 को हुआ था. यह भी याद रहे कि 1964 में उनकी महाकाव्यात्मक कविता ‘अँधेरे में’ हैदराबाद से प्रकाशित ‘कल्पना’ के नवंबर अंक में छपी थी जिसकी अर्धशती 2014-15 में मनाई गई. उर्षस अवसर पर हैदराबाद में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी तो हुई ही थी ‘अँधेरे में’ का 12 भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी कराया गया था. उस समारोह के संयोजकों डॉ. ऋषभ देव शर्मा और डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने इस संदर्भ में अब एक संपादित ग्रंथ प्रस्तुत किया है. मुक्तिबोध की जन्म शती के अवसर पर प्रकाशित इस पुस्तक का नाम है – “अँधेरे में : पुनर्पाठ”. इस पुस्तक को मुक्तिबोध के प्रति हैदराबाद के हिंदी जगत की श्रद्धांजलि के रूप में भी देखा जा सकता है.

यह पुस्तक दो खंडों में विभाजित है. पहले खंड में तेरह शोधपूर्ण आलेख शामिल हैं. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से संबद्ध प्रो. देवराज ने विस्तार से ‘अँधेरे में’ की प्रासंगिकता के आयामों को उजागर किया है और इस कविता के पुनर्पाठ की अनेक दिशाएँ दर्शायी है. उन्होंने मुक्तिबोध की कविता को ‘जवाबी ग़दर का विस्फोट’ माना है. अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉ. एम. वेंकटेश्वर ने मुक्तिबोध की काव्यचेतना का विवेचन करते हुए यह दर्शाया है कि उस कवि ने अपनी संपूर्ण अग्नि को फासीवाद, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध केंद्रित करके प्रभावशाली राजनैतिक काव्य की रचना की. उन्होंने ‘अँधेरे में’ को कवि के आत्मसंघ

और स्वप्न की मिथकीय अभिव्यक्ति माना है. विख्यात कवि और समीक्षक डॉ. दिविक रमेश का ‘मुक्तिबोध को समझने के लिए विचारक मुक्तिबोध हाजिर हो’ शीर्षक आलेख भी इस पुस्तक की विशिष्ट उपलब्धि है. उन्होंने मुक्तिबोध की अपनी वैचारिकता के प्रकाश में उनके कविकर्म की गहन मीमांसा की है. इसी प्रकार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. राजमणि शर्मा ने ‘अँधेरे में’ के प्रकाश में मुक्तिबोध की भाषागत मौलिकता को सोदाहरण उभारा है. वे मानते हैं कि मुक्तिबोध की भाषा की संवेदनशीलता विविध सामाजिक संदर्भों के घात-प्रतिघात का सर्जनात्मक परिणाम है.

इनके अलावा डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने मुक्तिबोध के जीवन और कवित्व पर तथा डॉ. साहिराबानू बी. बोरगल ने उनके व्यक्तित्व के आयामों पर चर्चा की है. डॉ. गोरखनाथ तिवारी ने मुक्तिबोध के साहित्यिक प्रदेय, डॉ. बलविंदर कौर ने ‘अँधेरे में’ के कथ्य और डॉ. मृत्युंजय सिंह ने उसके शिल्प पर विचार किया है. डॉ. बी. बालाजी ने ‘नया ज्ञानोदय’ के विशेषांक के
के बहाने मुक्तिबोध और ‘अँधेरे में’ से जुड़ी विभिन्न आलोचकों की मान्यताओं की विवेचना की है. डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने अपने आलेख में 21 वीं शताब्दी के भूमंडलीकृत अँधेरे के संदर्भ में मुक्तिबोध की कविता की सार्थकता प्रतिपादित की है.

इस पुस्तक में एक प्रयोग भी शामिल है. वह यह कि इसके दूसरे खंड में प्रो. गोपाल शर्मा की पूरी एक पुस्तक प्रस्तुत की गई है. ‘अँधेरे में : देरिदा-दृष्टि से एक जगत समीक्षा’ नामक यह पुस्तक उन्होंने विशेष रूप से उत्तर आधुनिक विमर्शकार देरिदा की वैचारिकी की कसौटी पर ‘अँधेरे में’ की विवेचना करने के लिए ही लिखी है. कहना न होगा कि यह अपनी तरह का इकलौता प्रयोग है.

कुल मिलाकर यह पुस्तक नई कविता, मुक्तिबोध, अँधेरे में और देरिदा को समझने के लिए पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय है. 




समीक्षक :
डॉ. मंजु शर्मा
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
चिरेक इंटरनेशनल, कोंडापुर
हैदराबाद 

‘दिल्ली की एक शाम, बॉम्बे के नाम’

$
0
0

कार्यक्रम : ‘बॉम्बे मेरी जान’ (पुस्तक लोकार्पण और परिचर्चा)
लेखिका जयंती रंगनाथन
समय : शनिवार शाम 6:30 बजे (17 जून 2017)
स्थान : ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर, एन-81 कनॉट प्लेस, नयी दिल्ली

‘बॉम्बे मेरी जान’ में लेखिका ने मुम्बई से अपने रिश्तों को उजागर किया है। एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी जयंती जब मुम्बई आयीं तो सब अनजाना था। लेकिन डेढ़ दशक रहते हुए लेखिका ने मुम्बई को अपना शहर बना लिया । उन्होनें मुम्बई इतनी गहराई तक अपना रिश्ता कायम किया कि दिल्ली में आने के बाद वह सालों तक वहाँ की तेज़ी, रवानगी, प्रोफ़ेशनलिज़्म और हल्ला-गुल्ला मिस करती रहीं। आज भी करती हैं। उनके सपनों में आज भी मुम्बई जागता है, जागता ही नहीं, उन्हें आज भी बुलाता है। आज भी उनके दिल के अन्दर मासूम सी खवाहिश है एक दिन

‘बॉम्बे मेरी जान’ की लेखिका चर्चित मीडियाकर्मी जयंती रंगनाथन हैं। उन्होनें पढ़ाई बैंकर बनने के लिए की थी। मुम्बई में एम. कॉम. के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया की प्रतिष्ठित पत्रिका’ ‘धर्मयुग’ में काम करने का मौका मिला तो लेखिका को लगा कि यही उनका शौक है और पेशा भी। दस साल कार्य करने के पश्चात वह कुछ वर्षों तक ‘सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविज़न’ से जुड़ीं। ‘वनिता’ पत्रिका आरम्भ करने के लिए दिल्ली आयीं। ‘अमर उजाला’ से होते हुए पिछले छह सालों से ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में हैं। फीचर के अलावा ‘नन्दन’ की सम्पादक हैं। जयंती रंगनाथन चार सीरियल के अलावा तीन उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

परिचर्चा में शामिल होंगे आकांक्षा पुण्डीर कंसलटेंट, लाइफ कोच एवं ट्रेनर, आर जे रौनक रेडियो जॉकी , अभिज्ञान प्रकाश एंकर एवं मीडिया विशेषज्ञ, जयंती रंगनाथन लेखिका व अदिति माहेश्वरी-गोयल निदेशक, वाणी प्रकाशन से ।

आकांक्षा पुण्डीर नवाचार परामर्शदाता और बेयरफुट लाइटिंग की संस्थापक हैं। यह संस्था विकासशील देशों में हाशिए पर रहने वाले किसानों के लिए काम करने वाली एक कृषि तकनीकी कम्पनी है।

उनका जुनून नवाचार के लिए उनके विश्वास से उत्पन्न हुआ है । उनका विश्वास है कि मानवीय प्रयास नाटकीय परिवर्तन और नवाचार के संचालक हैं क्योंकि वह नवीन विचारधारा के साथ आगे बढ़ते हैं।

अपने खाली समय में वह पर्वतारोहण, मैराथन दौड़, साइकिल चलाना, स्कूबा डाइविंग आदि में बिताना पसन्द करती हैं। उनका निवास स्थान दिल्ली में है जहाँ वे अपने पति और पाँच कुत्तों के साथ रहती हैं ।

आर जे रौनक 93.5 रेड एफएम दिल्ली -एयर कंटेंट के रूप में कार्यरत हैं। दिल्ली में निवास करते हैं। हास-परिहास की दुनिया में उनका नाम बेजोड़ है।

उनका नाम बउआ, सुकुमार, बैण्ड, मुर्गा और स्थानीय समाचारों के प्रस्तुतीकरण के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। अनेक गुणों से युक्त रौनक रेडियो जॉकी के सर्वाधिक लोकप्रिय होस्ट के रूप में प्रसिद्ध हैं।

एनडीटीवी इंडिया हिन्दी समाचार चैनल में कार्यकारी संपादक अभिज्ञान प्रकाश वरिष्ठ पत्रकार हैं। वह हिन्दी समाचार–पत्र दैनिक जागरण के स्वतंत्र स्तम्भकार है। उन्होंने रवीश कुमार के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में घूम-घूमकर किसानों की समस्या और दुर्दशा को लाइव दिखाकर जनता को उनके दर्द से अवगत कराया। नवम्बर 2013 में भारतीय प्रेस काउन्सलिंग जूरी ने अभिज्ञान प्रकाश को पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘सर्वश्रेष्ठ पत्रकारिता राष्ट्रीय अवार्ड’ प्रदान किया।

अदिति माहेश्वरी-गोयल अंग्रेज़ी साहित्य में परास्नातक हैं। इन्होंने स्ट्रेथक्लाइड बिजनेस स्कूल, स्कॉटलैंड से बिजनेस मैनेजमेंट तथा टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुम्बई से प्री-डॉक्टरल/एम.फिल. की डिग्री प्राप्त की है। आप वाणी प्रकाशन में कॉपीराइट और अनुवाद विभाग की प्रमुख तथा वाणी फ़ाउंडेशन की प्रबन्ध न्यासी हैं।

सुरों व धुनों से जादू उत्पन्न करने वाला म्यूज़िक सात सुर बैण्ड कुछ महीनों पहले परिचय में आया । जिसके उत्साही सदस्य सिद्धार्थ ​विश्नोई (पियानों वादक), वृषाली द्विवेदी(गीतकार) और शुभम रावत (गायक व गिटारवादक) हैं।

वाणी प्रकाशन ने विगत 55 वर्षों से हिन्दी प्रकाशन के क्षेत्र में कई प्रतिमान स्थापित किये हैं। वाणी प्रकाशन को फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स द्वारा ‘डिस्टिंग्विश्ड पब्लिशर अवार्ड’ से नवाजा गया है। वाणी प्रकाशन अब तक 6000 से अधिक पुस्तकें और 2500 से अधिक लेखकों को प्रकाशित कर चुका है। हिन्दी के अलावा भारतीय और विश्व साहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं का प्रकाशन कर इसने हिन्दी जगत में एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। नोबेल पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार और अनेक लब्ध प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त लेखक वाणी प्रकाशन की गौरवशाली परम्परा का हिस्सा हैं। हाल के वर्षों में वाणी प्रकाशन ने अंग्रेजी में भी महत्त्वपूर्ण शोधपरक पुस्तकों का प्रकाशन किया है। भारतीय परिदृश्य में प्रकाशन जगत की बदलती हुई जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वाणी प्रकाशन ने राजधानी के श्रेष्ठ पुस्तक-केन्द्र आक्सफोर्ड बुकस्टोर के साथ मिलकर कई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम-शृंखला की शुरुआत की है जिनमें ‘हिन्दी महोत्सव’ उल्लेखनीय है। बॉम्बे मेरी जान पर आयोजित होने वाली परिचर्चा भी वाणी प्रकाशन और ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर के स्वस्थ सम्बन्धों की दिशा में एक अगला कदम है।

सुजश कुमार शर्मा की कविताएँ

$
0
0
सुजश कुमार शर्मा

युवा रचनाकार सुजश कुमार शर्मा  का जन्म 02 जुलाई 1979 को दुर्ग, छत्तीसगढ़ में हुआ। शिक्षा :मेकेनिकल इंजीनियरिंग, स्नातकोत्तर– हिंदी एवं अंग्रेजी। विधा :कविता, खंड काव्य, उपन्यास। प्रकाशित कृतियाँ :काव्य संग्रह- ‘कुछ के कण’ एवं उपन्यास ‘प्रार्थनाओं के कुछ क्षण गुच्छ’। सम्मान :काव्य संग्रह ‘कुछ के कण’ के लिए भारत सरकार, रेल मंत्रालय द्वारा ‘मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार’ से सम्मानित। उपन्यास ‘प्रार्थनाओं के कुछ क्षण गुच्छ’ के लिए भारत सरकार, रेल मंत्रालय द्वारा ‘प्रेमचंद पुरस्कार’ से सम्मानित। स्थायी पता: पुत्र- श्री शरद कुमार शर्मा, बाह्मण पारा राजिम,-गरियाबंद, (छत्तीसगढ़), पिन-493885,  ई-मेल : sujashkumarsharma@gmail.com।

1. चाय की प्याली

कल प्रण किया
देर रात तक गोते खाने के बाद
विचारों के समंदर में
फलां-फलां आदतें छोड़ दूँगा
अमुक चीजें त्यागूँगा,
साक्षी है
उँगलियों के पोरों में
जमे आँसुओं के निशान।

विचार बेहद पवित्र हुए,
एक चीज त्याग तो गया
किंतु 
पूरी तरह बनाए न रख पाया
आयाम की उच्चता
एक आदत
वाकई बेहद जटिल, शक्तिशाली और अपराजेय।

पुरजोर खींची
भरी ठिठुरन में
स्नान बाद की कच्ची धूप सी
चाय की प्याली,
मगर छोड़ दिया!
किंतु चाय से जुड़ी मीठी यादें
नहीं पाया छोड़।

कितना मुश्किल है
छोड़ना आदतों को
हम सिद्धांत ही तो हैं
और सिद्धांतों कि एक-एक दीवार
आदतों की र्इंट से निर्मित होती है,

यूँ व्यक्तित्व का घरोंदा
पुनः बनता है,
समय-समय पर
कुछ दीवारों की ईंटों को
जरूरी हो जाता है हटाना
वरना पूरा घर गिर सकता है
संस्कारों की नींव के बावजूद,
आशीर्वाद के छप्पर तले भी।

कभी कभी व्यक्ति
मकानों की तरह ढह जाता है।

पुनः उन्हीं नींव पर
नई पीढ़ी
संस्कारों का आँगन बुहारती है,
नए संकल्प
नवीन प्रण के साथ
चाय की प्याली लिए।

2. कई बार गया वहाँ

कई बार गया वहाँ
कोई उँगली पकड़ खींच ले गई,
कभी किसी की थाम हथेली,
किसी गोद में खेलता,
हाँ गया हूँ, मैं ही तो
वहाँ तक गया।

गले लग... गया
साथ घूमते-घूमते,
कोई चॅाकलेट लेकर
कभी शतरंज की गोटियों के संग,
कोई गीत दूर का
मुझे खींच ले गया,
कई बार.. गया वहाँ।

किसी बचपने का
नाम लिख-लिखकर
कभी आँखें भर
कभी हँसकर,
कितनी छोटी-छोटी बातें
ले गई मुझे,
और मैं गया
कई बार।

घर में भाइयों के साथ
स्कूल में यारों के बीच
नन्हीं सहेली के साथ भी
कॅालेज में बहनों को ले,
किस-किस बात, घटना, घड़ी में
गया मैं, बार-बार गया।

3. जिंदगी मजाक नहीं

जिंदगी मजाक नहीं है
जिंदगी में मजाक है,

और मजाक का होना तब उपयुक्त है
जब समझ हो,
समझ, बहुआयामी हो
मौलिक, स्वस्फूर्त, जीवंत हो,
तब जिंदगी मजाक है,

तब जिंदगी के ऊपर कुछ है
तब ही संभव है जिंदगी से खेलना
वरना नासमझ सोचते है!
जिंदगी से खेल रहे
मगर वस्तुतः जिंदगी खेलते रहती है
इस तरह खुद मजाक बन जाते हैं।

क्येांकि खेल एक मजा है
समझदार जिंदगी सा!

सो मजा करें, जीएँ,
मजाक-मजाक में खेल जाएँ
कुछ, जिंदगी का खेल।

4. बहत्तरवीं गली के बाद

जिंदगी टस से मस न हुई,
जाने क्या रक्खा है इस पर
कि सरकती ही नहीं
बस वहीं की वहीं
अड़ियल भैंस की भाँति
जुगाली करती स्मृतियों का।

एक आस का बगुला
बार-बार थरथराई पीठ पर बैठता
और फुर से उड जाता,
ढंग से श्वेत रंग उभरा ही नहीं रहता
कि फिर वही भैंस की पीठ पर
वक्त का काला रंग
होने के पुतलियों में घुलने लगता है।

एक तो काला रंग
ऊपर से कडी ‘दुपहरी’,
अपनी ही देह पराई हो रही
इधर मन भी ठीक भैंस के पीठ सा
किसी छायादार वृक्ष पर कोयल बन बैठ रहा।

ले दे के सुकून यही है
कि उँगलियों मे कलम की बाँसुरी है
ये अलग बात कि
वो भी कभी जरूरत से ज्यादा बजती है
तो कभी हफ्तों तक किनारे दबी रहती है।

फिर भी
फिर भी ये एकलौता भैंस
जो मेरे रेहट में है
उसे हँकारना तो है ही
आखिर कब तक इस तरह चलेगा
कि बीच चौराहे पर ये बैठी रहे
और सारा कुछ क्षणों में
इधर से उधर होता रहे,
और बस, बैठी भैंस को
बाँसुरी लिए ताकता रहूँ!

नहीं, कुछ तो करना होगा भई
ये और बात
कि मेरे हाथ में हंटर नहीं
और रह भी जाता तो क्या कर लेता
आखिर ऐसा तो होता नहीं
कि लगूँ खदेड़ने अपनी ही भैंस को
अनावश्यक से परंपरा के डंडे पर लगे
अनुशासन के चाबुक पट्टे से।

मुझे लगता है
ये भैंस उठेगी सहज ढंग से
चलेगी, भले ही जुगाली करती रहे।

निश्चय ही
ये अपने तालाब में
एक डूबकी लगा लेगी
कुछ पल तो जीएगी ही
सद्यःस्नात सौंदर्य की मूरत सी।

देखता हूँ!
उमर के बहत्तरवीं गली के बाद
खडा है इसका साथी।

शायद वही हटाए
रखे इस अजाने भार को!

5.  अस्तित्व

शिशुओं के दाँतों सा
निकल आई वासंती धूप,
खिल उठे चेहरे वनस्पतियों के
वही पिएगा पत्तियों पे ठहरी ओस,

तो मुक्त हो गाएगा
वृक्षों के अस्तित्व का जर्रा-जर्रा
प्रवाह के क्षण-शिशुओं को
हथेलियों में लेकर
बारम्बार दुलारेगी प्रकृति,

स्त्रीत्व सा साँस लेगा कुछ
प्रातः के गहरे उत्सव में।

6. होने का पेड़

लिखना भी होना है
होने की संरचना में
होते शब्द, अक्षर, ध्वनि, हू
और विचारों के प्रवाह में
होते-होते घुलता भीतर का विद्युत
किमीया, मंत्र, जो भी
उर्जा के रूपांतरण का जादू।

कुछ जो भीतर है
कुछ और हो कर
सामने आता है।

लिखना, नशा सा
भूख, प्यास, नींद-सा
एक अनिवार्य आवश्यकता,
कहीं भीतर की प्यास
कुछ उठती है।

शायद गिरते-गिरते गिर ही जाता है
अपनी ही कब्र में आदमी
मगर गिरने से पहले
कुछ छोड़ जाएँ,
शायद कोई नस्ल आए
और संभलना सीख जाए,
खड़े रहना जान पाए
ढंग से बैठना
किसी पेड़ के नीचे,
लिखते लिखते ठहर जाए।
(जिंदगी सचमुच सार्थकता पाए)

आखिर कितनी कलम
इस एक होने के पेड़ की जड़ों में
साँस ले रहीं।
              
7. दूब-पर्व

दिन भर वही-वही ख्याल
घुम-फिरकर मन की कोठी में
जुगाली करते
बेवजह ही रंभा रहे,
कागज की चौहद्दी पर नजरें फैलाए
कुछ ताजे घास की आस में
जो शाम तक तो मुश्किल सा दिखता है,
दूर-दूर तक कोई नहीं, भरी दुपहरी में
नहीं कोई ग्वाल,
जो रख सके ख्याल।

मन की कोठी के
नए-पुराने पलस्तर उखड़ रहे,
असल में घर जो पुश्तैनी रहा
कई कई पीढ़ियों से
अब कोई देख-रेख करने वाला नहीं
न ही प्रज्ञा-विवेक का कोई बाल-गोपाल
जो रख सके ख्याल।

वही ख्याल, वही विचार
अब करें तो क्या करें?
घर भी, बाहर भी
करने वाले तो गाँव के सरपंच ठहरे!

एक मन का डॉक्टर
बैठे-ठाले अपना ही इलाज कर रहा
कभी थककर अपनी ही गायों का,
या अपनी ही घर की दीवारों से
जालें बुहारता
बुन रहा कोई तिलिस्मी जाल
जो रख सके ख्याल।

आखिर कल मछुआरे की भूमिका निभानी है
एक तालाब और ढेरों मछलियाँ खराब
सब मगरमच्छों की उधेड़नी है खाल
पकड़नी है मच्छियों की चाल,
शायद वो कल आए
नया गट्ठर घास का लाए
फिर भोर में
कुछ मगरमच्छ पकड़ पाएँ।

वाकई में अंदर बाहर
सब कुछ
अराजकता के शिकंजे में है।

यहाँ हर दूसरे क्षण,
खुद को ही निगले जा रहे,
मालूम ही तब चलता है
जब जुगाली के झाग
पीढ़ियों के हाथ देखते हैं,
तो नए घास के गट्ठर पर
हथेली मारते
सोचते रह जाते हैं
कुछ।

इसी कुछ को जी जाने वाले
समय-समय पर
इतिहास के पन्नों में
अपने-अपने घास के गट्ठर को
दूब बनाए दिखते हैं।

आइए आमंत्रण है दूब-पर्व का
नव दूब बनाएँ
ताकि पूज सके भलीभाँति पवित्रता से
अपनी कोठी को, अपने घरों को
अपने गाँव को
शुद्ध कर सके, अपने तालाब को
अपने आसपास को
जिससे दमक सके मानव-भाल!

Sujas Kumar Sharma

वरिष्ठ पत्रकार और कथाकार राकेश तिवारी के उपन्यास ‘फसक’ का लोकार्पण और चर्चा

$
0
0

दिनांक : 21 जुलाई 2017 (सायं 5 बजे)
स्थान : साहित्य अकादेमी, सभा कक्ष
तृतीय तल, रवीन्द्र भवन, फ़िरोज़शाह रोड, नयी दिल्ली - 110001


वरिष्ठ पत्रकार एवं कथाकार राकेश तिवारी के उपन्यास ‘फसक’ का साहित्य अकादेमी सभागार, तृतीय तल, रवीन्द्र भवन, फ़िरोज़शाह रोड, नयी दिल्ली-110001 में शुक्रवार, 21 जुलाई 2017, शाम 5 बजे लोकार्पण किया जाएगा और उपन्यास पर चर्चा भी होगी। कार्यक्रम की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध आलोचक एवं गद्यकार डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी करेंगे । इस अवसर पर मुख्य अतिथि सुपरिचित आलोचक प्रोफेसर नित्यानन्द तिवारी, मुख्य वक्ता जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदी की विभागाध्यक्ष और सुपरिचित अम्बेडकरवादी प्रोफेसर हेमलता महिश्वर और वक्ता के रूप में देशबंधु कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर तथा वरिष्ठ आलोचक, कथाकार एवं कवि डॉक्टर संजीव कुमार, अम्बेडकर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापक तथा युवा आलोचक डॉक्टर वैभव सिंह और दयाल सिंह कॉलेज में अध्यापक एवं युवा आलोचक डॉक्टर प्रेम तिवारी उपस्थित होंगे।

राकेश तिवारी ने उपन्यास ‘फसक’ के अलावा दो कहानी संग्रह ‘उसने भी देखा’ और ‘मुकुटधारी चूहा’, एक बाल उपन्यास ‘तोता उड़’ की रचना की है। इसके अलावा पत्रकारिता पर आधारित उनकी एक पुस्तक ‘पत्रकारिता की खुरदरी ज़मीन’ भी प्रकाशित हुई है।

राकेश तिवारी का उपन्यास ‘फसक’ इस दौर की जीती-जागती तस्वीर है, जिसमें लेखक ने अलग-अलग पहचाने जा सकने वाले पात्रों के माध्यम से हमारी दुनिया का एक नायाब ‘क्लोज-अप’ दिखाने का प्रयास किया है। यह वही दुनिया है जिसे हम अख़बारों, न्यूज़ चैनलों और अपने गली-मोहल्लों में रोज़ देखते हैं, पर इन सभी ठिकानों पर बिखरे हुए बिन्दुओं को जोड़कर जब राकेश एक मुकम्मल तस्वीर उभारते हैं तो हमें अहसास होता है कि इन बिन्दुओं की योजक रेखाएँ अभी तक हमारी निगाहों से ओझल थीं। आश्चर्य की बात नहीं कि इस तस्वीर को देखने के बाद, उपन्यास के अन्त में आये लालबुझक्कड़ के ऐलान को हम अपने ही अन्दर से फूटते शब्दों की तरह सुनते हैं। थोड़ा बताना, थोड़ा छुपाकर रखना और ऐन वक़्त पर उद्घाटित करना राकेश तिवारी की मुख्य विशेषता है। इसके साथ ही चुहलबाज़ भाषा और व्यंग्यगर्भित कथा-स्थितियाँ मिलकर यह सुनिश्चित करती हैं कि एक बार उठाने के बाद आप उपन्यास को पूरा पढ़कर ही दम लें।

वाणी प्रकाशन 55 वर्षों से 32 विधाओं से भी अधिक में, बेहतरीन हिन्दी साहित्य का प्रकाशन कर रहा है। इसने प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और ऑडियो प्रारूप में 6,000 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। वाणी प्रकाशन ने देश के 3,00,000 से भी अधिक गाँव, 2,800 कस्बे, 54 मुख्य नगर और 12 मुख्य ऑनलाइन बुक स्टोर में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। वाणी प्रकाशन भारत की प्रमुख पुस्तकालय प्रणालियों, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, ब्रिटेन और मध्य पूर्व, से भी जुड़ा हुआ है। वाणी प्रकाशन की सूची में, साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत 32 पुस्तकें और लेखक, हिन्दी में अनूदित 9 नोबेल पुरस्कार विजेता और 24 अन्य प्रमुख पुरस्कृत लेखक और पुस्तकें शामिल हैं। संस्था को क्रमानुसार नेशनल लाइब्रेरी, स्वीडन, इण्डोनेशियन लिटरेरी क्लब और रशियन सेंटर ऑफ़ आर्ट कल्चर तथा पोलिश सरकार द्वारा इंडो-स्वीडिश, रशियन और पोलिश लिटरेरी सांस्कृतिक विनिमय विकसित करने का गौरव प्राप्त है। वाणी प्रकाशन ने 2008 में भारतीय प्रकाशकों के संघ द्वारा प्रतिष्ठित ‘गण्यमान्य प्रकाशक पुरस्कार’ भी प्राप्त किया है। लन्दन में भारतीय उच्चायुक्त द्वारा 25 मार्च 2017 को वातायन सम्मान तथा 28 मार्च 2017 को वाणी प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक व वाणी फ़ाउंडेशन के चेयरमैन अरुण माहेश्वरी को ऑक्सफोर्ड बिजनेस कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में एक्सीलेंस अवार्ड से नवाज़ा गया। प्रकाशन की दुनिया में पहली बार हिन्दी प्रकाशन को इन दो पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है । हिन्दी प्रकाशन के इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना मानी जा रही है। 3 मई, 2017 को नयी दिल्ली के ‘विज्ञान भवन’ में 64वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह में राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के कर-कमलों द्वारा ‘स्वर्ण-कमल- 2017’ पुरस्कार वाणी प्रकाशन को बतौर प्रकाशक व लेखक यतीन्द्र मिश्र को पुस्तक ‘लता:सुर-गाथा’ के लिए प्रदान किया गया।
- अदिति माहेश्वरी-गोयल
निदेशक, वाणी प्रकाशन


सुनील गज्जाणी की 'इच्छा'को कथादेश पूरुस्कार

$
0
0
सुनील गज्जाणी

बीकानेर: सहित्य, संस्कृति और कलां की जानी-मानी पत्रिका 'कथा देश'द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में सुनील गज्जाणी की लघुकथा 'इच्छा'को सैकड़ो प्राप्त लघुकथाओं में से छठे स्थान के लिए चयनित किया गया। सुनील गज्जाणी की यह उपलब्धि बीकानेर सहित्य समाज के लिए गौरवपूर्ण है। 
 
सुनील गज्जाणी की यह लघुकथा आज के तकनीकी युग के ज्वलंत विषय 'मोबाईल का प्रयोग'पर है।  आजका आदमी मोबाईल में इतना खोया रहता है कि पास बैठी पत्नी गुमसुम-सी उसे देखती रहती है और पति मुस्कुराता हुआ चैटिंग करता रहता है। अतः कथा में पत्नी के मनोयोग को दर्शाया गया है।

प्रतियोगिता के निर्णायक राज कुमार गौतम, सुकेश साहनी तथा हहारीनारायण थे। गौरतलब है कि इस लघुकथा का पंजाबी में भी अनुवाद हुआ है। कवि ,नाटककार गज्जाणी इससे पूर्व भी अखिल भारतीय काव्य तथा लघुकथा प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत हो चुके हैं।

भूपेन्द्र 'भावुक'की कविताएँ

$
0
0
भूपेन्द्र 'भावुक'

युवा रचनाकार ​भूपेन्द्र 'भावुक'का जन्म 27 दिसम्बर 1994 को गाँव- भवानीपुर, जिला- पूर्वी चमपारण, बिहार में हुआ। शिक्षा : एम.ए. (हिंदी)- नेट। विधा​ ​:कविता एवं कहानी। सम्पर्क :​​गाँव-​ ​भवानीपुर,​ ​पोस्ट-​ ​ठीकहाँ भवानीपुर,​ ​थाना-​ ​संग्रामपुर,​ ​जिला-​ ​पूर्वी चमपारण​, बि​हार-845434​, ई-मेल : bhupkb@gmail.com

गूगल सर्च इंजन से आभार
1. तुम

सिर्फ ‘तुम’
हाँ, सिर्फ ‘तुम’ हीं तो हो
यहाँ, वहाँ, इसमें, उसमें, मुझमें, सबमें।

और आज से नहीं
जब ‘तुम’ मुझे-
इस कदर मिली हो,
बल्कि तब से
जब मैंने पहली बार
'तुम्हारे'पेट में
हाथ-पैर मारे थे।

मेरी आँखें खुली न होंगी
उस वक्त
पर
मैंने ‘तुम्हे’ देख लिया था।
जब 'तुमने'मेरी नाड़ी काटी
और मेरे 'क्हाँक्हाँ'पर
'अल्लेलेले'कहा था
मैंने सुने थे
वो तुम्हारे बोल।

सुकून अथाह थे
उन लम्हों में
जब 'तुमने'मुझे
माथे पर चूमा था
और स्तनों से लगा लिया था।
 
'तुम्हारे'साथ की ये यात्रा
अभी खत्म नहीं
बल्कि शुरू हुई थी।

मेरी कलाई पर
जो 'तुमने'स्नेह बाँधा था
वो आज भी-
कहाँ खुला है
और न कभी खुलेगा
वो प्रेम
जो मैंने 'तुम्हारी'आँखों में-
देखा था
आज भी तो
वही देख रहा हूँ
वही ममत्व
वही स्नेह
वही भाव-
अपनेपन वाला।

कभी 'तुम'नाड़ी काटने आयी
कभी दूध पिलाने
तो कभी राखी बाँधने
और आज भी तो
'तुम'आयी हो
गुलाब लेकर।

मैं 'तुम्हारी'आँखों में
वही स्नेह
वही वाला प्रेम-
देख पा रहा हूँ।

'तुम्हारा'रूप बदला है
निगाहें बदली हैं
प्रेम नहीं।

न जाने कितने रूपों में
'तुम'मुझे बनाती रही हो
मुझे हीं नहीं
सबको बनाती रही हो
और बनाती रहोगी।

सब में 'तुम'हो
और 'तुम'में सब हैं
हाँ
'तुम'से सब हैं।

2. दाने

चुग रही थी वह
दाने

बड़े धैर्य
बड़ी मेहनत से
अपने अंडे-बच्चों के लिए,
कोंपलें फूट रही थी
उन दानों से
झाँक रहा था
उनका आज
और कल,

एक-एक दानें के साथ
जमा कर रही थी वह
एक-एक साँस,

उड़ चली समेट
अपने दानें
अपनी मेहनत,
कई सपने
आँखों में लिए,

अंडों की याद
उसके परों की गति
दुगुनी कर जातीं
और भी गहरा जाती लाली
उसके आँखों की,
अनुभव था
सब रस्ते मालूम थे उसे

पर मालूम न चल सका था
कि घात लगाए
ताक पर हैं उसके
कई पेशेवर बहेलिये,
जो ले लेना चाहते हैं
उसके दाने

उसकी मेहनत
उसका सर्वस्व,
चौंक पड़ी
पहुँचते ही करीब
देख जाने-पहचाने चेहरों को,
चाह कर भी बच न पायी
फाँस ली गयी
चारों तरफ से
जादुई जाल में
दाने माँगे गए
'ना'कहने पर
धर दी गयी धारदार चाक़ू
उसकी गर्दन पर,

पर एक भी दाना
निकल न सका उसकी गाल से
छीना-छोरी में
निकल गयी नन्ही-सी जान
उसके नन्हे-से शरीर से,
बिखर गए उसके पर
उसके सपने
उसके हौसले,
इंतजार में है उसके आज भी
वो बरगद का मस्तमौला पेड़
और
उसके घोंसले का तिनका-तिनका,
उसके अंडे
अब उड़ने लगे हैं
नए सपनों-उमंगों के
आकाश में
उसकी ही तरह
जैसे कभी उड़ी थी वह,
ये भी जाने लगे हैं
दानें चुगने,
 
ये नादान हैं
अनजान हैं
दुनियादारी से
जैसे वह थी,
इन्हे भय नहीं है किसी का
पर मुझे भय लगता है
पीढ़ियों की पीढियाँ
निपटती जा रही हैं,
और कोई चढ़ता जा रहा है
सीढीयाँ-दर-सीढीयाँ
दानों की ढेरों की ढेर
की चोटी की चोटी पर,
सहम जाता हूँ
सोच इसके मुकाम को।

3. सिसकियाँ

उस अजीब से
सन्नाटे को चीरती
वो सिसकियाँ
झंकृत कर रही थीं
हृदय के तार
कंपा देती थीं
रह-रह के
चीथड़े बिखरे पड़े थे
जहाँ-तहाँ
मांस के लोथड़ों में
तब्दील थे शरीर के अंग
पहचान मुश्किल थी
स्त्री-पुरुष की

धुएं का अंधकार
सिमट रहा था
धीरे-धीरे
शवों के ढेर के बीच
एक पैर और एक हाथ
गायब एक शव से लगा
एक नन्हा
जिसके चेहरे का अंधकार
अभी तक कम न था

झंकृत कर रही थीं
हृदय के तार
उसकी वो सिसकियाँ। 

4.  अनन्त गन्तव्य

आँचल की छाँह में
वह नन्हा
जीवन के अनमोल लम्हों को
जी रहा था।

जीवन की जटिलता
और उसकी थाह से दूर
वह नन्हा
आँचल के भीतर से
माँ के धुंधले चेहरे को
तिरछी नजरों से
ताक रहा था।

ईंटें-बालू ढोने वाले हाथ
नन्हे का सिर सहलाते
किसी गुलाब से कम न थे।

बदन के पसीने की
सोंधी खुशबू
उस नन्हे को
सुस्ता रही थी।

वह रह-रह कर
दूध पीना छोड़
झपकी ले लेता।

उसे नींद आते ही
धीरे से
माँ उसे सुला देती है
साड़ी के बने
अस्थायी घरौंदे में।

नन्हे को पल भर निहार
वह चल पड़ती है।

एक-एक करके
ईंटें रखी जाती हैं
उसके सिर पर
और फिर वह
निकल पड़ती है
अनंत गन्तव्य को।


Hindi Poems of Bhupendra Bhagat

‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ और ‘क़लम ज़िन्दा रहे’ का लोकार्पण

$
0
0

दिनांक : 30 अगस्त 2017, समय: सायं 5:30 बजे
स्थान :हिन्दी भवन, 11, विष्णु दिगम्बर मार्ग, राउज एवेन्यू, नयी दिल्ली-110002


विख्यात गीतकार एवं आकाशवाणी के मान्यता प्राप्त गायक, समाचार-वाचक, लोकगायक और उद्घोषक इकराम राजस्थानी के हिन्दी और राजस्थानी भाषा में दो ग़ज़ल संग्रह ‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ और ‘क़लम ज़िन्दा रहे’ का हिन्दी भवन, 11, विष्णु दिगम्बर मार्ग, राउज एवेन्यू, नयी दिल्ली-110002 में बुधवार, 30 अगस्त 2017 को सायं 5:30 बजे लोकार्पण के साथ-साथ दोनों पुस्तकों पर ग़ज़ल गोष्ठी भी होगी। इस ग़ज़ल गोष्ठी में आमन्त्रित अतिथि हैं-बालस्वरूप राही, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, लीलाधर मंडलोई, नरेश शांडिल्य, राजेन्द्रनाथ रहबर और रहमान मुसव्विर।

वरिष्ठ गीतकार और अन्य अनेक उपाधियों से अलंकृत इकराम राजस्थानी ने ‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ और ‘क़लम ज़िन्दा रहे’ के अतिरिक्त ‘तारां छाई रात’, ‘पल्लो लटके’, ‘गीतां री रमझोल’, ‘शबदां री सीख’, ‘खुले पंख’ और ‘पैगम्बरों की कथाएँ’ इत्यादि पुस्तकों की रचना की है। उन्होंने हज़रत शेख सादी के ‘गुलिस्तां’ का राजस्थानी भाषा में प्रथम काव्यानुवाद और रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्वप्रसिद्ध कृति ‘गीतांजलि’ का राजस्थानी भाषा में काव्यानुवाद (अंजली गीतां री) भी किया है। वह विश्व के प्रथम कवि हैं, जिन्होंने ‘कुरान शरीफ़’ का राजस्थानी और हिन्दी भाषा में भावानुवाद किया है।

‘लोकमान’ उपाधि से सम्मानित इकराम राजस्थानी को ‘राष्ट्रीय एकता पुरस्कार’, ‘महाकवि बिहारी पुरस्कार’, ‘राष्ट्र रत्न’, ‘वाणी रत्न’, ‘तुलसी रत्न’ और ‘समाज रत्न’ के साथ-साथ अनेक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए हैं।

‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ विख्यात गीतकार इकराम राजस्थानी के रसीले राजस्थानी गीतों का नज़राना है। राजस्थानी मिट्टी और संस्कृति से आत्मीय लगाव के चलते इन्होंने अपना उपनाम ही ‘राजस्थानी’ रख लिया है। इनकी इस रचना में संकलित गीत राजस्थानी भाषा की मिठास के साथ-साथ राजस्थान की मिट्टी-पानी-हवा की सोंधी गन्ध से भी सुवासित हैं। इन गीतों में राजस्थान की क्षेत्रीय विशेषताओं के आत्मीय चित्रण के अलावा वैयक्तिक शैली में वहाँ की प्राकृतिक तथा भौतिक सम्पदा का भी वर्णन है।

‘मरुधरा सूं निपज्या गीत’ में कुछ ऐसे गीत भी हैं, जो पुरुष और स्त्री के संवादों के रूप में रचे गये हैं। इस गीत-संग्रह में ‘गाथा पन्ना धाय री’ जैसे लम्बे गीत भी हैं, जो गायन के साथ-साथ मंचन की ख़ूबियों से युक्त हैं। कुल मिलाकर इस अनुपम कृति में लक्षित की जाने वाली अन्यतम विशेषता है जातीयता का उभार और लोकगीत की प्रचलित शैली का पुनराविष्कार।

‘कलम ज़िन्दा रहे’ इकराम राजस्थानी की हिन्दुस्तानी ग़ज़लों, रुबाइयों, अशआर और दोहों की एक मुकम्मल किताब है। उनकी इन बहुरंगी तेवर की रचनाओं में कथ्य और रूप के समन्वय के साथ-साथ भाव तथा भाषा की आज़ादी और ख़याल एवं चित्रण का खुलापन भी मिलता है। इस संग्रह की रचनाओं में तन-मन, घर-परिवार, नाते-रिश्ते, समाज-परिवेश, देश-दुनिया, गाँव-परदेस, ख़्वाब-हक़ीक़त और ग़म-खुशी के व्यापक दायरों को समेटा गया है। उनकी इन विविध रचनाओं में ज़िन्दगी का एक गहरा फलसफ़ा मिलता है।

इकराम राजस्थानी की भाषा में एक सहज प्रवाह और रवानगी है। इन रचनाओं में उन्होंने आम जन-जीवन और बोलचाल की भाषा का रचनात्मक प्रयोग इस तरह से किया है कि बोलचाल और साहित्यिक भाषा का अन्तर मिट गया है। अपने कथ्य और भाषा के सौन्दर्य के कारण ये रचनाएँ हर तरह के पाठकों के लिए बारम्बार पठनीय हैं।
रपट :
 अदिति माहेश्वरी-गोयल

मैथिलीशरण गुप्त - सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि

$
0
0


"पर्वतों की ढलान पर हल्का हरा और गहरा हरा रंग एक-दूसरे से मिले बिना फैले पड़े हैं....।"कैसा सही वर्णन किया है किसी साहित्यकार ने। लगता है कि हमारे मन की बात को किसी ने शब्द दे दिये। ठीक इसी प्रकार अगर हम ऊपर उठकर देखें तो दुनिया में अच्छाई और बुराई अलग-अलग दिखाई देगी। भ्रष्टाचार के भयानक विस्तार में भी नैतिकता स्पष्ट अलग दिखाई देगी। आवश्यकता है कि नैतिकता एवं राष्ट्रीयता की धवलता अपना प्रभाव उत्पन्न करे और उसे कोई दूषित न कर पाये। इस आवाज को उठाने और राष्ट्रजीवन की चेतना को मन्त्र-स्वर देने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि थे। उन्होंने आम-जन के बीच प्रचलित देशी भाषा को मांजकर जनता के मन की बात, जनता के लिये, जनता की भाषा में कही इसीलिये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि का सम्मान देते हुये कहा था, मंै तो मैथिलीशरणजी को इसलिये बड़ा मानता हूं कि वे हम लोगों के कवि हैं और राष्ट्रभर की आवश्यकता को समझकर लिखने की कोशिश कर रहे हैं।’ इनके रचनाओं में देशभक्ति, बंधुत्व भावना, राष्ट्रीयता, गांधीवाद, मानवता तथा नारी के प्रति करुणा और सहानुभूति के स्वर मुखर हुए। इनके काव्य का मुख्य स्वर राष्ट्र-प्रेम, आजादी एवं भारतीयता है। वे भारतीय संस्कृति के गायक थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में जिन कवियों ने ब्रज-भाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को अपनी काव्य-भाषा बनाकर उसकी क्षमता से विश्व को परिचित कराया, उनमें गुप्तजी का नाम सबसे प्रमुख है। उनकी काव्य-प्रतिभा का सम्मान करते हुये साहित्य-जगत उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में याद करता रहा है।

देश एवं समाज में क्रांति पैदा करने का उनका दृढ़ संकल्प समय-समय पर मुखरित होता रहा है। वे समाज के जिस हिस्से में शोषण, झूठ, अधिकारों का दमन, अनैतिकता एवं पराधीनता थी, उसे वे बदलना चाहता थे और उसके स्थान पर नैतिकता एवं पवित्रता से अनुप्राणित आजाद भारत देखना चाहते थे। इसलिए वे जीवनभर शोषण और अमानवीय व्यवहार के विरोध में आवाज उठाते रहे। उनकी क्रांतवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं, वरन् धार्मिक, सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है। जीवन में सत्यं, शिवं और सुंदरं की स्थापना के लिए साहित्य की आवश्यकता रहती है और ऐसे ही साहित्य का सृजन गुप्तजी के जीवन का ध्येय रहा है।

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी के समीप चिरगाँव में 3 अगस्त, 1886 को हुआ। बचपन में स्कूल जाने में रूचि न होने के कारण इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने इनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया था और इसी तरह उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी और बांग्ला का ज्ञान प्राप्त किया। काव्य-लेखन की शुरुआत उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कवितायें प्रकाशित कर की। इन्हीं पत्रिकाओं में से एक ’सरस्वती’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलती थी। युवक मैथिली ने आचार्यजी की प्रेरणा से खड़ी बोली में लिखना शुरू किया। 1910 में उनकी पहला प्रबंधकाव्य ’रंग में भंग’ प्रकाशित हुआ। ’भारत-भारती’ के प्रकाशन के साथ ही वे एक लोकप्रिय कवि के रूप में स्थापित हो गये। उनकी भाषा एवं सृजन से हिन्दी की साहित्यिक भाषा का विकास हुआ। उन्होंने पराधीनता काल में मुंह खोलने का साहस न करने वाली जनता का नैराश्य-निवारण करके आत्मविश्वास भरी ऊर्जामयी वाणी दी, इससे ‘भारत-भारती’ जन-जन का कण्ठहार बन गयी थी। इस कृति ने स्वाधीनता के लिये जन-जागरण का शंखनाद किया। हिन्दी साहित्य में गद्य को चरम तक पहंुचाने में जहां प्रेमचंद्र का विशेष योगदान माना जाता है वहीं पद्य और कविता में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त को सबसे आगे माना जाता है। 


साहित्यकार किसी भी देश या समाज का निर्माता होता है। इस मायने में मैथिलीशरण गुप्त ने समाज और देश को वैचारिक पृष्ठभूमि दी, जिसके आधार पर नया दर्शन विकसित हुआ है। उन्होंने शब्द शिल्पी का ही नहीं, बल्कि साहित्यकार कहलाने का गौरव प्राप्त किया है, जिनके शब्द आज भी मानवजाति के हृदय को स्पंदित करते रहते हैं। 12 साल की उम्र में ही उन्होंने कविता रचना शुरू कर दी थी। “ब्रजभाषा” में अपनी रचनाओं को लिखने की उनकी कला ने उन्हें बहुत जल्दी प्रसिद्ध बना दिया। प्राचीन और आधुनिक समाज को ध्यान में रखकर उन्होंने कई रचनाएं लिखीं। गुप्तजी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से जन जागरण का काम किया। भारत की आजादी में उनका उल्लेखनीय योगदान है।

महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व गुप्तजी का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। लेकिन बाद में महात्मा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। देशभक्ति से भरपूर रचनाएं लिख उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक अहम काम किया। वे भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परन्तु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शों में उनका विश्वास नहीं था। वे भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय संबंधों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो पंचवटी से लेकर ‘जयद्रथ वध’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। ‘साकेत’ उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। लेकिन ‘भारत-भारती’ उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना मानी जाती है। इस रचना में उन्होंने स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग किया है। कला और साहित्य के क्षेत्र में विशेष सहयोग देने वाले गुप्तजी को 1952 में राज्यसभा सदस्यता दी गई और 1954 में उन्हें पद्मभूषण से नवाजा गया. इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, साकेत पर इन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक तथा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट्. की उपाधि प्रदान की।

गुप्त जी ने हिन्दी कविता को रीतिकालीन श्रृंगार परम्परा से निकालकर तथा राष्ट्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संजीवनी से अभिसंचित करके लगभग छह दशक तक हिन्दी काव्यधारा का नेतृत्व किया। ऋग्वेद के मन्त्र ‘श्रेष्ठ विचार हर ओर से हमारे पास आवें’ को हृदयंगम करके राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कौटिल्य, गुरुवाणी, ईसा तथा माक्र्स के विचार-सार को ग्रहणकर, बिना अंग्रेजी पढ़े लिखे, बुन्देलखण्ड के पारम्परिक गृहस्थ जीवन में सुने आख्यानों को सुन-समझकर स्वाध्यायपूर्वक लोकमंगलमय साहित्य रचा। वाचिक परम्परा के सामीप्य से वे लोकचित्त के मर्मज्ञ बने, इससे उनके काव्य में लोक संवेदना, लोक चेतना तथा लोक प्रेरणा की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। अस्मिता बोध की आधारशिला पर युगानुरूप भावपक्ष पर रचना-प्रवृत्तियों के वैविध्य से उनका रचना संसार लोकप्रिय हुआ। उनका साहित्य गांव-गली तक आमजन की समझ में आने वाला है साथ ही मनीषियों के लिये अनुशीलन, शोध तथा पुनःशोध का विषय है। वे परम्परावादी होते हुए भी शास्त्रों की व्याख्या युग की परिस्थितियों के अनुरूप करने के पक्षधर थे। प्रकृति तथा सौन्दर्य का कवि न होते हुये भी प्रसंगानुकूल रागात्मकता उनके काव्य का महत्वपूर्ण पक्ष है।

आज जब हम भारत को पुनः ‘विश्वगुरु’ तथा ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में देखने के लिये प्रयत्नशील है, तब गुप्तजी के अवदान हमारी शक्ति बन रहे हैं। यही कारण है कि अनेक संकटों एवं हमलों के बावजूद हम आगे बढ़ रहे हैं। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’-आज भारत की ज्ञान-सम्पदा नयी तकनीक के क्षेत्र में वैश्विक-स्पर्धा का विषय है। लड़खड़ाते वैश्विक आर्थिक संकट में भारत की स्थिति बेहतर है। नयी सदी के इस परिदृश्य में, नयी पीढ़ी को देश के नवनिर्माण के सापेक्ष अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी है। जब तक नैराश्य से निकलकर आशा और उल्लास की किरण देखने का मन है, आतंकवाद के मुकाबले के लिये निर्भय होकर अडिग मार्ग चुनना है, कृषकों-श्रमिकों सहित सर्वसमाज के समन्वय से देश को वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित करने का स्वप्न है, तब तक गुप्तजी का साहित्य प्रासंगिक है और रहेगा।

‘हम कौन थे क्या हो गये और क्या होंगे अभी’ पर चिन्तन और मनन अपेक्षित है, उससे दशा के सापेक्ष दिशा भी मिलेगी तथा भारत पुनः विश्वगुरु बन सकेगा। प्रसिद्ध साहित्यकार सोल्जेनोत्सिन ने साहित्यकार के दायित्व का उल्लेख करते हुए कहा हैं-मानव-मन, आत्म की आंतरिक आवाज, जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष, आध्यात्मिक पहलुओं की व्याख्या, नश्वर संसार में मानवता का बोलबाला जैसे अनादि सार्वभौम प्रश्नों से जुड़ा है साहित्यकार का दायित्व। यह दायित्व अनंत काल से है और जब तक सूर्य का प्रकाश और मानव का अस्तित्व रहेगा, साहित्यकार का दायित्व भी इन प्रश्नों से जुड़ा रहेगा और तब तक गुप्तजी के अवदानों के प्रति हम नत होते रहेंगे। 


- ललित गर्ग
60, मौसम विहार, तीसरा माला
डीएवी स्कूल के पास
दिल्ली- 11 0051

Maithalisharan Gupta

हिंदी दिवस पर दो बातें - गुर्रमकोंडा नीरजा

$
0
0
गुर्रमकोंडा नीरजा

डॉ गुर्रमकोंडा नीरजापिछले कई वर्षो से द्विभाषी हिंदी पत्रिक 'स्रवंति'की सह-संपादक तथा इंटरनेट ब्लॉग ‘सागरिका’ की लेखक के रूप में हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा के साथ साथ विशेष रूप से तेलुगु साहित्य के विविध पक्षों पर समीक्षात्मक निबंध लिखकर अपनी मातृभाषा तेलुगु की भी सेवा करती रही हैं।सम्प्रति :सहायक आचार्य, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद– 500004, ईमेल : neerajagkonda@gmail.com


पाठकों को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं देते हुए यह कहना ज़रूरी है कि आज हिंदी का वैश्विक महत्त्व विवाद से परे है। अस्मितावादी विमर्शों के दौर में यह भी याद रखने की ज़रुरत है कि ‘हिंदी’ शब्द केवल खड़ी बोली के मानक रूप का वाचक नहीं अपितु अपने व्यापक अर्थ में संपूर्ण भारतीयता का द्योतक है। भाषा के अर्थ में भी आरंभ में यह शब्द सभी भारतीय भाषाओं के लिए प्रयुक्त होता था लेकिन कालांतर में 5 उपभाषाओं अथवा 20 बोलियों के भाषा-मंडल का द्योतक बन गया। जब 14 सितंबर, 1949 को संविधान ने हिंदी को 'भारत संघ की राजभाषा'का दर्जा प्रदान किया था तो उसी दिन सभी प्रांतों को अपनी-अपनी प्रादेशिक राजभाषा के रूप में अन्य भारतीय भाषाओँ को स्वीकार करने की शक्ति भी प्रदान की थी. इसलिए यह दिन 'हिंदी अर्थात भारतीय'भाषाओँ की संवैधानिक प्रतिष्ठा का दिन है. किसी भी प्रकार के तात्कालिक राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी को भगिनी भाषाओँ या बोलियों का प्रतिद्वंद्वी बताकर भाषाई विद्वेष पैदा करने की हर कोशिश को नाकाम करने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है. एक वयस्क लोकतंत्र के रूप में हमें भाषाई सह-अस्तित्व की समझ भी विकसित करनी होगी. अपने अपार संख्याबल को एकजुट रखकर ही हिंदी भाषा प्रथम विश्वभाषा हो सकती है, अन्यथा बिखर जाने का पूरा ख़तरा है।

दूसरी बात मुझे यह कहनी है कि आज के डिजिटल युग में हिंदी के साथ नए प्रयोजन जुड़ते जा रहे हैं। हिंदी को विश्वभाषा का गौरव प्रदान करने वाले अनेक आयाम हैं। हिंदी भाषा अपने लचीलेपन के कारण कूटनीति और प्रशासन की भी भाषा के रूप में उभर रही है। इतना ही नहीं, वह रोजगारोन्मुख भाषा है, राजनीति की भाषा है, ज्ञान-विज्ञान की भाषा है, मनोरंजन की भाषा है, मीडिया की भाषा है। साथ ही वह बाजार-दोस्त भाषा और कंप्यूटर-दोस्त भाषा भी बन गई है। इन आयामों में शब्द संपदा से लेकर अभिव्यंजना पद्धति तक अनेक स्तरों पर हिंदी के अनेक लोकरंजक रूप सामने आए हैं। व्यावसायिक जगत की चुनौती को विज्ञापन और मनोरंजन के माध्यम से स्वीकार करके हिंदी ने अपने आपको बाजार-दोस्त की भाषा के रूप में सिद्ध किया है। हिंदी में भाषा मिश्रण और भाषा परिवर्तन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है जिससे आतंकित होने की कोई ज़रूरत नहीं। वैश्विक स्तर पर हिंदी को अपना स्थान सुनिश्चित करना हो तो इन आयामों के साथ-साथ उसे विश्वविद्यालय, न्यायालय और संसद के व्यवहार की भाषा भी बनना होगा।

लघु कथा : प्रेस दीर्घा - अवनीश सिंह चौहान

$
0
0
अवनीश सिंह चौहान

विश्वविद्यालय के सभागार में एक विशिष्ट कार्यक्रम। कार्यक्रम के प्रारंभ होने से लगभग आधा घंटा पूर्व अभिभावक, छात्र, शिक्षक, अतिथि निर्धारित स्थान पर बैठे हैं। दो प्राध्यापक भी आकर प्रेस दीर्घा में बैठ जाते हैं।

अनुशासन समिति में सुगबुगाहट। सिक्योरिटी मेन का प्रवेश। समिति से निर्देश पाकर वह दूर से चिल्लाकर बोलता है- "ए डॉक्टर साब, वहाँ से उठो। पीछे जाकर बैठो।"


दोनों प्राध्यापक चुप। 


वह फिर से वही बात कहता है। चिल्लाकर। 

सभागार स्तब्ध!
 

दोनों प्राध्यापक हाथ से इशारा कर उसे अपने पास बुलाते हैं, परन्तु वह उनके पास नहीं जाता है। उसकी ईगो हर्ट।

अनुशासन समिति में खीझ। समिति का एक सदस्य सिक्योरिटी मेन से व्यवस्था में जुटे छात्रों को बुलाने को कहता है। छात्र आते हैं, किन्तु वे यह कहकर निकल लेते हैं कि यह आपका आपसी मामला है।

पुनः मीटिंग। खड़े-खड़े। खुसरपुसर।

तब तक एक और फैकल्टी प्रेस दीर्घा में आकर बैठ जाती है; सभागार में प्राध्यापकों के लिए आरक्षित सीटें भर चुकी होती हैं।

कुछ समय बाद अनुशासन समिति एक दबंग सदस्य को प्रेस दीर्घा खाली कराने को भेजती है। वह अपना भाषण प्रारम्भ करता है। 


सभागार पुनः स्तब्ध!

दोनों प्राध्यापक मिस्टर दबंग से विनम्रतापूर्वक पूछते हैं- "यहां क्या लिखा है?" 


"प्रेस दीर्घा", वह कड़क शब्दों में जवाब देता है। 


"हम कौन हैं?"


सन्नाटा। कोई उत्तर नहीं।
 

यकायक उसकी समझ में कुछ आता है। वह बात बदलता है- "मै तो इस फैकल्टी को हटाने आया हूँ।"

वह उस फैकल्टी का हाथ पकड़कर प्रेस दीर्घा से बाहर ले जाता है। मिस्टर दबंग अपने बॉस को रिपोर्ट करता है कि वे दोनों प्रेस कमेटी में हैं, ड्यूटी चार्ट में उनके भी नाम हैं।

Dr Abnish Singh Chauhan

गोरख प्रसाद मस्ताना की सात कवितायें

$
0
0
गोरखप्रसादमस्ताना

सुविख्यात साहित्यकार डॉ गोरख प्रसाद मस्तानाका जन्म 01 फ़रवरी 1954 को बेतिया, पश्चिमी चंपारण, बिहार में हुआ। शिक्षा :एम.ए. (त्रय), पीएच -डी (हिंदी)। प्रकाशित पुस्तकें : (1 ) जिनगी पहाड़ हो गईल (भोजपुरी काव्य संग्रह) (जयप्रकाश विश्वविध्यालय, छपरा एवं वीर कुंवर सिंह विश्व विद्यालय, आरा के एम ए - भोजपुरी हेतु पाठ्यपुस्तक), (2) एकलव्य (भोजपुरी खंड काव्य), (3) लगाव (भोजपुरी लधु कथा संग्रह) (इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली में भोजपुरी सर्टिफिकेट कोर्स हेतु चयनित), (4 ) भोजपुरी व्यंग यात्रा (प्रेस में), (5) अगरासन (भोजपुरी कथा संग्रह), (6) अंजुरी में अँजोर (भोजपुरी काव्य संग्रह), (7) गीत मरते नहीं (हिंदीगीति काव्य संग्रह), (8) विन्दु से सिन्धु तक (हिंदी काव्य संग्रह), (9) रेत में फुहार (हिंदी गीति काव्य संग्रह), (10) पुन्य-पंथी (हिंदी महाकाव्य), (11) तथागत (हिंदी काव्य संग्रह)। पाठ्यक्रम लेखक :इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली में भोजपुरी सर्टिफिकेट कोर्स, एनसीईआरटी, नई दिल्ली द्वारा पटना में में बाल कविता पर पाठ्यपुस्तक निर्माण, एससीईआरटी, पटना द्वारा भोजपुरी और संगीत का पाठ्यक्रम लेखन व संपादन। कार्यकारी सदस्य : कला व संस्कृति मंत्रालय, बिहार सरकार द्वारा पूर्वी क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार कोलकत्ता में सदस्य मनोनीत। प्रधान संपादक :भोजपुरी जिनगी, दिल्ली से प्रकाशित। सम्पादकीय मंडल : हेल्लो भोजपुरी, भोजपुरिया अमन, डिफेंडर स्थायी स्तंभकार: प्रवासी शक्ति (हिंदी साप्ताहिक)। राष्ट्रीय अध्यक्ष / संरक्षक पुरवैया, राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्था, दिल्ली, इन्द्रप्रस्थ भोजपुरी परिषद्, दिल्ली, अखिल भारतीय भोजपुरी लेखक संघ , बिहार। सम्मान एवं पुरस्कार : परिवर्तन साहित्य सम्मान, फणीश्वर नाथ रेणु शिखर सम्मान (2017), चंपारण साहित्य विभूति सम्मान (2015), बिहार गौरव सम्मान (2012), पंडित हंस कुमार तिवारी नामित पशस्ति पत्र प्राप्त (1990), रामेश्वर सिंह कश्यप सम्मान (1993) आदि। सम्पर्क : कव्यांगन, पुरानी गुदरी, महाबीर चौक, बेतिया, पश्चिमी चंपारण, बिहार- 845438।


गूगल सर्च इंजन से साभार

1. अहंकार
 
एक आग का दरिया
प्रचंड ज्वाला / विकराल व्याल
मैं जान कर, अनजान हूँ
उतार नहीं पाया इस चादर को
असित / भयानक
अमावस की रात में लिपटा
किसी जल्लाद के वस्त्र की भांति
यह लबादा
जिसके तार बने हैं शोषण के
किनारे बाने हैं प्रताड़ना के
और झालर बानी हैं अनय की
वो तनी है अत्याचारी बादलों की तरह
जिसे यह ढकेगी
वह पनपेगा कहाँ ?
साँस भी नहीं ले पाएगा
छटपटाएगा / हकलायेगा
और पैर पैर पटक पटक कर
मर जाएगा
कुरथ को चला रहा हैं
इसकी परम्परा ही रही है
कंसीय/ रावणवंशी
और कलयुगी परिधान में
यह और दर्पित है
यह बटवृक्ष नहीं विष वृक्ष है
पर इसे काटे कौन
सब हैं मौन
तब तो पनपेगा ही

 
2. पीठ पर हिमालय

वह ढोता है बोरियाँ
उठाता है गठरी
कभी कभी जबाब देने लगती है ठठरी
लेकिन ऋतुओं का रोना नहीं रोता
वह
क्या जेठ क्या माघ
सब सूद खोर की तरह घाघ
लेकिन कर्ज के मर्ज
की दवा है कहाँ
है भी तो दे कौन
गरीब चूप अमीर मौन
घर में गो जवान बेटियाँ
एक अपाहिज पुत्र
एक अंधी मां
अर्धांगिनी साथ में /आधी
राह भी नहीं नाप सकी
अब तो संगिनी है लाचारी
रात दिन की मित्र बेचारी
अमीरी की कब्र पर
गरीबी की धूप
टूटी आशा, बिखरे विश्वास
पल पल उच्छ्वास
अपनी ही पीठ पर ढो रहा
अपनी ही लाश
जीवन की हताश
इतनी भारी
मानो पीठ पर हिमालय

  
3. अखबार 

अखबार या विज्ञापन
विज्ञापनों से ढका चेहरा
मानो सत्य पर पड़ा पर्दा
किसी बुर्के  से ढकी नारी की तरह
या
कफ़न में लिपटा कोई मुर्दा
हाँ! मुर्दा हो तो हैं जहाँ
केवल खबर है, हत्या, बलत्कार
न कोई चिंतन/ न सामाजिक सरोकार
सम्पादकीय या अरण्यरोदन
साफ दिखत हैं लाचारी
क्योंकि इसके मालिक है आदमी / नहीं
व्यापारी
आदमी तो दूसरों का दुःख महसूसता है
व्यापारी को चाहिए धन
भाड़ में जाए वतन
आठ पन्नों में विज्ञापन
दो पन्नों में बाज़ार
और बाकिर बचे पृष्ठों में तन उघारु चित्रों की भरमार
भूल से भी कुछ जगह बच गयी
तो मांसल शारीर को बेचने के साधन का प्रचार
यही है प्रजातंत्र का चौथा खम्भा
या अचम्भा
लंगड़ा कर चलता है
बीमार की तरह
हमारा अख़बार
विज्ञापन के चश्मे से झाँकने वाला
जो स्वयं विद्रूप और विखंडित है
क्या गढ़ेगा नया भारत ?

4. चूल्हा

मैं चूल्हा हूँ
सदियों से जल रहा हूँ
झुलस रहा हूँ
लेकिन 'उफ़'
मेरे शब्दकोश में नहीं है
सूरज भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता
क्योंकि
वह केवल दिन में जलता है
और मैं दिन रात
झेलता हूँ आघात
भयानक आग का
जलना मेरा सौभाग्य
मजबूर के लए दुःख भी तो
सौभाग्य है
मैं एक सच्चा समाजवादी हूँ
जलत हूँ एक सामान
क्या आमिर क्या गरीब
सबके लिए कुर्बान
जलता है मेरा तन, जले
 मुझपर सेंकी गई
रोटियां
किसी की उदराग्नि बुझाती है
यही क्या कम है संतोष
सुख
अपने को जला कर दुसरे को ठंढाना
तृप्त करना
मुझ पर भुने हुए भुट्टे किसी भी भूख मिटा दे
यही तो मेरी सार्थकता है
कभी कभी मुझे होता है दुःख
जब कोई अचानक
मुझ पर पानी डाल देता है
मानो मेरे  सपने को कर देता है चूर
आग पर पानी बनता है फोड़ा
फफोला जैसे पीठ पर पड़े कोड़े हों
लेकिन किसे फुर्सत है इसे पढने की
जलना तो मेरी नियति है
आखिर मैं
चूल्हा हूँ।

5. विजेता 

अभावों के पहाड़
वेदना का सागर
उपेक्षा की लहरें
प्रताड़ना के गागर
सब चकनाचूर
काफूर
मेरे साहस के सूरज ने सबों कों
किया ध्वस्त,
पस्त
धुँध की चादर पर ज्यों पछिया
का वार
फाड़ देती है क्षितिज के उस पार तक
निराशा को
उम्मीदों की निगलनेवाली
परिभाषा को
मैं कदापि हतोत्साह नहीं होता
जैसे सूरज नहीं सोता
नहीं हारता घने कुहरे से
असित मेघों से
समय की जंजीर
रोक नहीं सकती मेरे रास्ता
बाँध नहीं सकती मेरे उत्साह को
जीवन तरंग को जैसे
हवा नहीं बाँध सकती
धुप के सात रंगों को
मेरे अंतर के सूरज ने
व्रत ले रखा है
अँधेरे को बेधने का
निराशा को छेड़ने का
आँख आंसू के तिजोरी है
आदमी की कमजोरी है
लेकिन जिसने इसे साध लिया
ह्रदय में बाँध लिया
वही विजेता है।

6. आह

एक भयंकर आग
एक दहन एक तपन
अंतर जवाला
जिसकी दाह में
चमड़े की क्या बिसात
लोहे की क्या औकात
भस्म हो जा है अश्म
एक अलौकिक, अदृश्य हथियार
तीक्ष्ण, तीव्र धार
जिसकी मार से धराशायी हो गयी
लंका
दुर्योधनी तेवर हो गये
तार तार
ध्वस्त हो गयी रावणी नीतियों
सावधान! वर्तमान
निंरकुंशता
मानवता ही सिसकियों को सुनों
समझों उसकी धाह को
जल जायेगी साम्राज्यवाद
पिघल जायेगा महाशक्ति
होने का दंभ टूट जायेगा
घमंड
किसका रहा है जो रहेगा?
वक्त की आह अथाह है
गला डालेगी जला डालेगी
इसकी तपन में
क्या नहीं गला है ?
यह अद्भुत बला है
चेतो / चेतो
समय की धर बड़ी तीक्ष्ण है
बड़ी तेज इसका वार
मार / चेतो

 
7. मेरा गाँव

हाथ बाँधे सच खड़ा है
असत्य की मुट्ठी में कैद
कराहता, अश्रु बहाता
उपेक्षा प्रताड़ना का गीत गाता
छलावे की राजनीति से त्रस्त
बहुमत
अल्पसंख्यक हो गया है
अपनी ही लाश पर
रो रहा है
पर हाथ लगाने वाला कौन
मालिक ! तू भी मौन
---पर
निराशा को ढ़ोता मेरा गाँव
बारह आना धूप चार आना छाँव
ऐसे में न्याय की लालशा
मन को बहलाने का ख्याल
अच्छा है
ईख की  सूखी पत्तियों से
बने हुए घरों की  भीड़
जैसे गौरये का नीड़
गरीबों का जन्म और मृत्यु का
गवाह बना है
सदियों से तना है
लेकिन मात्र डेढ़ हाथ
यही है सपनों का गाँव
जिसपर फ़िल्में  बना कर
कितनों ने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पा लिए
बना लिए, महलों पर महल
और मेरे गाँव
हाथ कटे उस कारीगर की तरह
अपाहिज है आज भी
जिसने बनाया दूसरों के
लिए ताजमहल
झूठ का सच जानना हैं तो
मेरे गाँव आइये
वरना शाम कर चौपाल बंद होनेवाली है। 


Seven Hindi Poems of Gorakh Prasad Mastana

​'आवाज़ दे रहा महाकाल'का भव्य लोकार्पण

$
0
0
'आवाज दे रहा महाकाल'का लोकार्पण करते युग ऋषि सुधांशु जी महाराज। 
साथ में आचार्य देवेंद्र देव, मदन मोहन वर्मा क्रान्त, शम्भू ठाकुर एवं अवनीश सिंह चौहान

दिल्ली: विश्व जागृति मिशन के तत्त्वावधान में अन्तरराष्ट्रीय गणेश-महालक्ष्मी महायज्ञ के अवसर पर परम पूज्य आचार्य श्री सुधांशु जी महाराज के कराम्बुजों से कविवर देवेंद्र देव जी का सद्यः प्रकाशित प्रज्ञा-बोध-गीत-संग्रह 'आवाज दे रहा महाकाल'का भव्य लोकार्पण शुक्रवार, अक्टूबर 6, 2017 को आनन्दधाम यज्ञशाला में सम्पन्न हुआ।

श्री गणेश लक्ष्मी महायज्ञ के दूसरे दिन गीत संग्रह का विमोचन करने के बाद श्रद्धेय आचार्य सुधांशु जी महाराज ने महाकाल और काव्य की बड़ी सुन्दर व्याख्या की और आचार्य देवेन्द्र देव को विलक्षण कवि बताया। उन्होंने कहा कि यह गीत संग्रह संकल्प, विश्वास, शक्ति, साधना एवं प्रेम की एक अनुपम कृति है, जिससे देश-दुनिया के लोगों को कर्तव्यपथ पर चलने की प्रेरणा मिलेगी। उन्होंने कविराज के 65वें जन्मदिन पर उन्हें माला पहनाकर यज्ञ भगवान का आशीर्वाद भी प्रदान किया।

विख्यात कवि मदन मोहन वर्मा क्रान्त ने आचार्य देवेन्द्र देव को शुभकामनायें देते हुए कहा कि उनका यह गीत संग्रह मानवीयता, एकता और समरसता का विलक्षण सन्देश देता है। युवा कवि शम्भू ठाकुर ने कहा कि उनके गीत देश एवं समाज की बहुआयामी समस्याओं से परिचित कराते हैं। डॉ अवनीश सिंह चौहान ने कहा कि आज के गीतों में सामाजिक विषमताओं, विद्रूपताओं को केंद्र में रखकर नकारात्मक भावों को उजागर करने का ट्रेंड चल रहा है, जबकि 'आवाज़ दे रहा महाकाल'के गीत सकारात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत हैं। इन गीतों में माता, पिता, गुरू, समाज, राष्ट्र, आत्मा, परमात्मा आदि विषयों को करीने से व्यंजित किया गया है ताकि जीव मात्र का कल्याण हो सके।

इस काव्य पुस्तक में कवि देवेन्द्र देव के उन सभी गीतों-कविताओं को संकलित किया गया है, जो समय-समय पर अखण्ड ज्योति तथा युग निर्माण योजना में प्रकाशित होती रही हैं। श्री देव ने अपनी एक रचना इस मौक़े पर सबको सुनायी। उन्होंने 108 कुण्डीय यज्ञशाला में हज़ारों यज्ञ-साधकों की मौजूदगी में पुस्तक विमोचन को अपने जीवन का ख़ास अवसर कहा।

उप्र सरकार के नगर विकास विभाग में अधिकारी रहे श्री देव एक गायत्री साधक हैं और सम्प्रति संस्कार भारती प्रकोष्ठ में अखिल भारतीय सह-साहित्य-प्रमुख के रूप में राष्ट्रसेवा कर रहे हैं। देवजी 13 अति महत्वपूर्ण विषयों पर महाकाव्यों की रचना करने वाले राष्ट्रीय स्तर के यशस्वी कविता-साधक हैं। उन्होंने गायत्रेय (गायत्रीपुत्र प.पू. पं.श्रीराम शर्मा आचार्य) बांग्ला-त्राण, युवमन्यु (स्वामी विवेकानन्द) हठयोगी नचिकेता, राष्ट्र-पुत्र यशवन्त, बलि-पथ, इदं राष्ट्राय, अग्नि-ऋचा (डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम), लोक-नायक (जय प्रकाश नारायण), बिरसा मुंडा, शंख महाकाल का, कैप्टन बाना सिंह और बिस्मिल नामक महाकाव्य रचे हैं।

इस अवसर पर देश-विदेश के हज़ारों मिशन साधकों के अलावा अमर सोनी, उदितेंदु कुमार व संतोष ठाकुर आदि युवा कवि भी उपस्थित थे। कार्यक्रम का बेहतरीन संचालन-समन्वयन विश्व जागृति मिशन के निदेशक श्री राम महेश मिश्र ने किया।



नये प्रयोगों से लैस गीत-संग्रह 'टुकड़ा काग़ज़ का' - सुधांशु जी महाराज

$
0
0

विश्व जागृति मिशन : आनंद धाम, दिल्ली में अन्तरराष्ट्रीय गणेश-महालक्ष्मी महायज्ञ के अवसर पर परम पूज्य आचार्य श्री सुधांशु जी महाराज से मिलने का सौभाग्य पिछले शुक्रवार (अक्टूबर 06, 2017) को मिला। अवसर था श्रद्धेय देवेंद्र देव जी का गीत-संग्रह 'आवाज दे रहा महाकाल'का लोकार्पण।

लोकार्पण के पश्चात उदारमना, युग ऋषि सुधांशु जी महाराजसे पुनः उनके आश्रम के एक कक्ष में मुलाकात हुई, तो इच्छा जगी कि उन्हें अपना गीत संग्रह # टुकड़ा काग़ज़ का # (बोधि प्रकाशन, जयपुर) भैंट कर दूं। भैंट किया। उन्होंने मेरे गीत संग्रह को सहर्ष स्वीकार किया और मुझे अपना आशीर्वाद दिया। कहा कि आपके गीतों में ताज़गी है, भाषा में प्रवाह है, शब्दों में नवीनता है, बिम्ब आकर्षक हैं। उन्होंने मेरे एक गीत 'बच्चा सीख रहा टीवी से/ अच्छे होते हैं ये दाग़'की कुछ पंक्तियां- "टॉफी, बिस्कुट, पर्क, बबलगम/खिला-खिला कर मारी भूख/माँ भी समझ नहीं पाती है/कहाँ हो रही भारी चूक। माँ का नेह/मनाए हठ को/लिए कौर में रोटी-साग/अच्छे होते हैं ये दाग़।"भी पढ़कर सुनायी। और कहा कि वह इस नये प्रयोगों से लैस गीत संग्रह को अपने साथ ले जा रहे हैं। आराम से पढ़ने के लिए। यह सब देख-सुन मैं गदगद हो गया।

कक्ष में उपस्थित आदरणीय आचार्य देवेन्द्र देव जी, कविवर क्रान्त एम एल वर्मा जी, अग्रज कवि शम्भू ठाकुर जी, भाई अमर सोनी जी और उदितेन्दु 'निश्चल'जी की उपस्थिति ने बल दिया। इस आत्मीय प्रक्रिया में श्रद्देय श्री राम महेश मिश्र जी, निदेशक- कार्यक्रम एवं विकास, का ह्रदय से आभार।

- अवनीश सिंह चौहान


A Comment on Tukda Kagaz Ka by Sudhanshu Ji Maharaj

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में युवा काव्य प्रतियोगिता

$
0
0

दिल्ली :रविवार, 15 अक्टूबर 2017, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में वार्षिक सांस्कृतिक महोत्सव- 'Rendezvous 2017'के अन्तर्गत देशभर के विभिन्न शिक्षण संस्थानों से आमंत्रित छात्र-छात्राओं ने 'युवा काव्य प्रतियोगिता'में भाग लिया। संस्थान के लेक्चर थिएटर में आयोजित इस मनमोहक कार्यक्रम का शुभारम्भ साहित्यकार एवं सम्पादकअवनीश सिंह चौहान एवं युवा कवि आनंद राजद्वारा दीप प्रज्ज्वलन से हुआ।

चार दिवसीय इस कार्यक्रम में लगभग 30 समितियों के माध्यम से प्रतिभागी अलग-अलग विधाओं में अपनी प्रस्तुतियां देते हैं। हिन्दी समिति और मातृभाषा परिवार के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 'युवा काव्य प्रतियोगिता'में देशभर के शिक्षण संस्थानों के 204 युवा कवियोंने अपनी स्व-रचित रचनाओं के माध्यम से भाग लिया और उनमें से फाइनल राउंड के लगभग 20 छात्र-छात्राओंकी प्रस्तुतियों का मूल्यांकन करने के लिए अवनीश सिंह चौहान और आनंद राज को बतौर जज आमंत्रित किया गया। 


फाइनल राउंड में पुष्पेंद्र भदौरिया, अविनेश सिंह, शुभम द्विवेदी, काजल, निशा शर्मा, अमन गुप्ता, ओंकार सिंह राठौर, सुधान सिंह, श्री हर्ष, नितिन शर्मा, पंकज नारायण, शिवत्म श्रीमाली, आलोक त्रिपाठी, सुधांशु कुमार, दिव्यांशु त्रिपाठी आदि ने मंच पर अपने बेहतरीन अंदाज़ में रचनापाठ किया किया। तदुपरांत प्रतियोगिता में शामिल रचनाओं के कथ्य एवं उनके प्रस्तुतीकरण के आधार पर निर्णायक मंडल के सम्मानित सदस्यों- अवनीश सिंह चौहान और आनंद राज ने अपना निर्णय सुनाया, जिसमें प्रथम और तृतीय पुरस्कार सुधान सिंहएवं ओंकार सिंह राठौरको (गीत विधा में) एवं द्वितीय पुरस्कारसुधांशु कुमारको (नयी कविता में) प्रदान किया गया। 

इस अवसर पर प्रतिभागियों द्वारा प्रस्तुत कविताओं का गंभीर विश्लेषण करते हुए मुख्य वक्ता अवनीश सिंह चौहानने श्रोताओं का मन मोह लिया। युवा रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें देते हुए उन्होंने कहा कि युवा रचनाकार अपनी नयी सोच के साथ काव्य जगत में कदम रख रहे हैं, जोकि स्वागत योग्य है। इस अवसर पर उन्होंने अपने दो गीत भी प्रस्तुत किये। आयोजकों का आभार व्यक्त करते हुए युवा कवि आनंद राजने कहा कि तकनीकी संस्थान में कविता पर आयोजन करना एक अच्छी पहल कही जा सकती है। मातृभाषा पत्रिका के संचालक-सम्पादक नवनीत पाण्डेयने प्रतिभागियों को साधुवाद दिया और कहा कि इस वैज्ञानिक युग में साहित्य से जुड़कर यदि आज के युवा कार्य करेंगे तो उनके कार्य समाज के हित में ही होंगे। मातृभाषा परिवार के महत्वपूर्ण सदस्य प्रशांत द्विवेदीने कहा कि हमारे छात्र कविता के माध्यम से न केवल जीवन के रस को जानेंगे, बल्कि समाज को भी राह दिखाने का कार्य करेंगे।

इस अवसर पर आई आई टी, दिल्ली सहित देश के अन्य संस्थानों से पधारे छात्र-छात्राओं ने रचनापाठ और उस पर दिए गए वक्तव्य का भरपूर आनंद लिया और अतिथियों का गर्मजोशी से स्वागत-सत्कार किया। संस्थान के विद्वान् प्रोफेसर ज्योति कुमार, प्रोफेसर सम्राट मुखोपाध्याय, ऋषभ नागपाल एवं हिन्दी समिति के अध्यक्ष प्रोफेसर एच के मालिक के सान्निध्य में कार्यक्रम का विधिवत प्रबंधन एवं संयोजन भाई नवनीत पांडेय एवं निखिल चौहान (आईआईटी, दिल्ली) ने संयुक्त रूप से किया। प्रभात कुमारने इस कार्यक्रम की सुंदर फोटोग्राफी की, जबकि सफल संचालन संस्थान के युवा छात्र वैभव वर्माने किया।



साहित्यकार समागम : देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'के बहाने - अवनीश सिंह चौहान

$
0
0
वरिष्ठ साहित्यकार देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'जी के साथ
रमाकांत एवं अवनीश सिंह चौहान

देवेंद्र शर्मा 'इंद्र'
सुविख्यात साहित्यकार परम श्रद्देय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी (गाज़ियाबाद) से कई बार फोन पर बात होती— कभी अंग्रेजी में, कभी हिन्दी में, कभी ब्रज भाषा में। बात-बात में वह कहते कि ब्रज भाषा में भी मुझसे बतियाया करो, अच्छा लगता है, आगरा से हूँ न इसलिए। उनसे अपनी बोली-बानी में बतियाना बहुत अच्छा लगता। बहुभाषी विद्वान, आचार्य इंद्र जी भी खूब रस लेते, ठहाके लगाते, आशीष देते, और बड़े प्यार से पूछते— कब आओगे? हर बार बस एक ही जवाब— अवश्य आऊँगा, आपके दर्शन करने। बरसों बीत गए। कभी जाना ही नहीं हो पाया, पर बात होती रही।

इधर पिछले दो-तीन वर्ष से मेरे प्रिय मित्र रमाकांत जी (रायबरेली, उ.प्र.) का आग्रह रहा कि कैसे भी हो इंद्र जी से मिलना है। उन्हें करीब से देखना है, जानना-समझना है। पिछली बार जब वह मेरे पास दिल्ली आये, तब भी सोचा कि मिल लिया जाय। किन्तु, पता चला कि वह बहुत अस्वस्थ हैं, सो मिलना नहीं हो सका। एक कारण और भी। मेरे प्रिय गीतकार आदरणीय जगदीश पंकज जी जब भी मुरादाबाद आते, मुझसे सम्पर्क अवश्य करते। उनसे मुरादाबाद में कई बार मिलना हुआ, उठना-बैठना हुआ। फोन से भी संवाद चलता रहा। इस निरंतर संवाद में उन्होंने भी कई बार घर (साहिबाबाद) आने के लिए आमंत्रित किया। जब इच्छा प्रबल हो और संकल्प पवित्र, तब सब अच्छा ही होता है। रविवार को भी यही हुआ।

सुखद संयोग, कई वर्ष बाद ही सही, कि रायबरेली से प्रिय साहित्यकार रमाकान्त जी का शनिवार को दिल्ली आना हुआ; कारण— हंस पत्रिका द्वारा आयोजित 'राजेन्द्र यादव स्मृति समारोह'में सहभागिता करना। बात हुई कि हम दोनों कार्यक्रम स्थल (त्रिवेणी कला संगम, तानसेन मार्ग, मंडी हाउस, नई दिल्ली) पर मिलेंगे। मिले भी। कार्यक्रम के उपरांत मैं उन्हें अपने फ्लैट पर ले आया। विचार हुआ कि कल श्रद्धेय इन्द्र जी का दर्शन कर लिया जाय और इसी बहाने गाज़ियाबाद के अन्य साहित्यकार मित्रों से भी मुलाकात हो जाएगी। सुबह-सुबह (रविवार को) जगदीश पंकज जी से फोन पर संपर्क किया, मिलने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने सहर्ष अपनी स्वीकृति दी और साधिकार कहा कि दोपहर का भोजन साथ-साथ करना है।

फिर क्या था हम जा पहुंचे उनके घर। सेक्टर-दो, राजेंद्रनगर। समय- लगभग 12 बजे, दोपहर। स्वागत-सत्कार हुआ। मन गदगद। अग्रज गीतकार आदरणीय संजय शुक्ल जी भी आ गए। हम सभी लगे बतियाने। देश-दुनिया की बातें— जाति, धर्म, राजनीति, साहित्य पर मंथन; यारी-दोस्ती, संपादक, सम्पादकीय; दिल्ली, लखनऊ, इलाहबाद, पटना, भोपाल पर गपशप। बीच-बीच में कहकहे। सब कुछ आनंदमय। वार्ता के दौरान दो-तीन बार पंकज जी का फोन घनघनाया। वरिष्ठ गीतकार आदरणीय कृष्ण भारतीय जी एवं साहित्यकार गीता पंडित जी को पंकज जी ने फोन पर अवगत कराया कि हम दोनों उनके यहाँ पधारे हैं। नमस्कार विनिमय हुआ। पंकज जी ने भारतीय जी से बात भी करवायी। हमने सुख-दुःख बाँटे। भारतीय जी के आग्रह पर पंकज जी ने भारतीय जी का सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह 'हैं जटायु से अपाहिज हम'मुझे और रमाकांत जी को सप्रेम भैंट किया; संजय शुक्ल जी ने भी अपना गीत संग्रह 'फटे पाँवोँ में महावर'उपहारस्वरुप प्रदान किया। तभी पंकज जी ने कहा कि एक फोटो हो जाय। इस हेतु उन्होंने अपनी धर्मपत्नी जी को बुलाया और दोनों सदगृहस्थों ने बड़ी आत्मीयता से हम सबका फोटो खींचा।

अब बिना देर किये  
देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी के यहाँ पहुंचना था, क्योंकि उन्हें आदरणीय ब्रजकिशोर वर्मा 'शैदी'जी की पुस्तकों के लोकार्पण समारोह में 4 बजे जाना था। सो निकल पड़े। ई-रिक्शा से। 5-7 मिनट में पहुँच गए, उनके घर। विवेकानंद नगर। दर्शन किये। अभिभूत, स्पंदित। लगभग 84 वर्षीय युवा इंद्र जी। गज़ब मुस्कान, खिलखिलाहट, जीवंतता- ऐसी कि मन मोह ले। उनकी एक-दो बातें तो अब भी मेरे मन में हिलोरे मार रही हैं। वह बोले, 'मुझे ठीक से कुर्ता पहना दो, सजा दो, फोटो जो खिंचवानी है'एवं 'क्यों हनुमान (जगदीश पंकज जी), स्वर्गवाहिनी का इंतज़ाम हुआ कि नहीं?' (कार्यक्रम में जाने के लिए कैब बुकिंग के सन्दर्भ में)। बड़े भाग हमारे जो उनसे मिलना हुआ। वह भी मिले तो ऐसे जैसे वर्षों से मिलना-जुलना रहा हो हमारा। क्या कहने! समय कम था, फिर भी, हमारी मुलाकात सार्थक और आनंदमय रही। ​जय-जय।

संजय शुक्ल, रमाकांत, अवनीश सिंह चौहान, जगदीश पंकज

समीक्षा : 'गीत अपने ही सुने'का प्रेम-सौंदर्य - अवनीश सिंह चौहान

$
0
0
पुस्तक : गीत अपने ही सुने
कवि : वीरेन्द्र आस्तिक

ISBN: 978-81-7844-305-8
प्रकाशक :के के पब्लिकेशन्स
4806/24, भरतराम रोड, दरियागंज, दिल्ली-2
प्रकाशन वर्ष : 2017, पृष्ठ : 128, मूल्य:रु 395/-

हिन्दी साहित्य की सामूहिक अवधारणा पर यदि विचार किया जाए तो आज भी प्रेम-सौंदर्य-मूलक साहित्य का पलड़ा भारी दिखाई देगा; यद्यपि यह अलग तथ्य है कि समकालीन साहित्य में इसका स्थान नगण्य है। नगण्य इसलिए भी कि आज इस तरह का सृजन चलन में नहीं है, क्योंकि कुछ विद्वान नारी-सौंदर्य, प्रकृति-सौंदर्य, प्रेम की व्यंजना, अलौकिक प्रेम आदि को छायावाद की ही प्रवृत्तियाँ मानते हैं। हिन्दी साहित्य की इस धारणा को बहुत स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। कारण यह कि जीवन और साहित्य दोनों अन्योन्याश्रित हैं, यही दोनों की इयत्ता भी है और इसीलिये ये दोनों जिस तत्व से सम्पूर्णता पाते हैं वह तत्व है- प्रेम-राग। 

इस दृष्टि से ख्यात गीतकवि और आलोचक वीरेन्द्र आस्तिक जी का सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह ‘गीत अपने ही सुनें'एक महत्वपूर्ण कृति मानी जा सकती है। बेहतरीन शीर्षक गीत- "याद का सागर/ उमड़ आया कभी तो/ गीत अपने ही सुने"सहित इस कृति में कुल 58 रचनाएं हैं जो तीन खण्डों में हैं, यथा- 'गीत अपने ही सुनें', 'शब्द तप रहा है'तथा 'जीवन का करुणेश'। तीन खण्डों में जो सामान्य वस्तु है, वह है- प्रेम सौंदर्य। यह प्रेम सौंदर्य वाह्य तथा आन्तरिक दोनों स्तरों पर दृष्टिमान है। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सौंदर्य का संतुलित समावेश कर सारभौमिक तत्व को उजागर करते हुए कवि संघर्ष और शान्ति (वार एन्ड पीस) जैसे महत्वपूर्ण उपकरणों से जीवन में आए संत्रास को खत्म करना चाहता है; क्योंकि तभी कलरव (प्रकृति) रूपी मूल्यवान प्रेम तक पहुँचा जा सकता है-

सामने तुम हो, तुम्हारा 
मौन पढ़ना आ गया 
आँधियों में एक खुशबू को 
ठहरना आ गया। 

देखिये तो, इस प्रकृति को 
सोलहो सिंगार है
और सुनिये तो सही 
कैसा ललित उद्गार है

शब्द जो व्यक्त था 
अभिव्यक्त करना आ गया। 

धान-खेतों की महक है 
दूर तक धरती हरी 
और इस पर्यावरण में 
तिर रही है मधुकरी

साथ को, संकोच तज 
संवाद करना आ गया। 

शांतिमय जीवन;
कठिन संघर्ष है
पर खास है
मूल्य कलरव का बड़ा
जब हर तरफ संत्रास है

जिन्दगी की रिक्तता में 
अर्थ भरना आ गया। 

आस्तिक जी का मानना है कि कवि की भावुकता ही वह वस्तु है जो उसकी कविता को आकार देती है; क्योंकि सौंदर्य न केवल वस्तु में होता है, बल्कि भावक की दृष्टि में भी होता है। कविवर बिहारी भी यही कहते हैं "समै-समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न होय/मन की रूचि जैसी जितै, तित तेती रूचि होय।"शायद इसीलिये आस्तिक जी की यह मान्यता भाषा-भाव-बिम्ब आदि प्रकृति उपादानों के विशेष प्रयोगों द्वारा सृजित उनके गीतों को सर्वांग सुन्दर बना देती है। समाज, घर-परिवेश और दैन्य जीवन के शब्द-चित्रों से लबरेज उनके ये गीत प्रेम की मार्मिक अनुभूति कराने में सक्षम हैं-

दिनभर गूँथे/ शब्द,/ 
रिझाया
एक अनूठे छंद को 

श्रम से थका सूर्य घर लौटा 
पथ अगोरती मिली जुन्हाई 
खूँद रहा खूँटे पर बछड़ा 
गइया ने हुंकार लगायी 

स्वस्थ सुबह के लिये 
चाँदनी 
कसती है अनुबंध को। 

जीवन के अंतर्द्वंद्वों की कविताई करना इतना सरल भी नहीं है। उसके लिए कठिन तपश्यर्चा की आवश्यकता होती है। कवि यह सब जानता है- "गीत लिखे जीवन भर हमने/ जग को बेहतर करने के/ किन्तु प्रपंची जग ने हमको/ अनुभव दिये भटकने के/ भूलें, पल भर दुनियादारी/ देखें, प्रकृति छटायें/ पेड़ों से बतियायें।"इतना ही नहीं, कहीं-कहीं कवि की तीव्र उत्कंठा प्रेम को तत्व-रूप में देखने की होती है, तब वह इतिहास और शोध-संधानों आदि को भी खंगाल डालता है; तिस पर भी उसके सौंदर्य उपादान गत्यात्मक एवं लयात्मक बने रहते हैं और मन पर सीधा प्रभाव डालते हैं। कभी-कभी तो वह स्वयं के बनाए मील के पत्थरों को भी तोड़ डालता है, कुछ इस तरह-

मुझसे बने मील के पत्थर
मुझसे ही टूट गए
पिछली सारी यात्राओं के
सहयात्री छूट गए

अब तो अपने होने का
जो राज पता चलता है
उससे/रोज सामना होता है। 

और - 

हूँ पका फल 
अब गिरा मैं तब गिरा 

मैं नहीं इतिहास वो जो 
जिन्दगी भर द्रोण झेले 
यश नहीं चाहा कभी जो 
दान में अंगुष्ठ ले ले 

शिष्य का शर प्रिय 
जो सिर मेरे टिका। 

निष्कर्ष रूप में कहना चाहता हूँ कि जीवन के शेषांश में समग्र जीवन को जीने वाले वीरेन्द्र आस्तिक जी की पुस्तक ‘गीत अपने ही सुने’ के गीत इस अर्थ में संप्रेषणीय ही नहीं, रमणीय भी हैं कि प्रेम-सौंदर्य के बिना जीवन के सभी उद्देश्य निरर्थक-सेे हो जाते हैं। विश्वास है कि सहृदयों के बीच यह पुस्तक अपना स्थान सुनिश्चित कर सकेगी।

समीक्षक :

अवनीश सिंह चौहान
सम्पादक : पूर्वाभास 
www.poorvabhas.in
मो: 9456011560

Viewing all 488 articles
Browse latest View live


Latest Images

<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>