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मध्य प्रदेश में संस्कृत पढ़ाएँगी डॉ प्रियंका

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गुरुवार  (7 अक्टूबर) के दिन डॉ प्रियंका को ग्वालियर संभाग के एक गवर्नमेंट गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल में संस्कृत शिक्षक (वर्ग एक) पद पर नियुक्ति मिल गयी।
 
डॉ प्रियंका ने मध्य प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित परीक्षा (2019) में ग्वालियर संभाग में महिला वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। हाईस्कूल और इंटरमीडिएट प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर इन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ ओरिएंटल फिलॉसफी (आईओपी), वृन्दावन, मथुरा (उत्तर प्रदेश) से बी.ए. और एम.ए. की पढ़ाई की। बी.ए. और एम.ए. (संस्कृत) में कॉलेज में प्रथम स्थान और एम.ए. में डॉ॰ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा (उत्तर प्रदेश) में 'टॉप टेन'में रहीं डॉ प्रियंका ने एमफिल और पीएचडी की उपाधियाँ देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर (मध्य प्रदेश) से प्राप्त कीं। इन्होंने एमफिल में विश्वविद्यालय में तृतीय स्थान प्राप्त किया था। 

डॉ प्रियंका ने संस्कृत शिक्षक हेतु आयोजित एक और परीक्षा कुछ वर्ष पहले भी उत्तीर्ण की थी, किन्तु उस समय जीवाजीराव विश्वविद्यालय, ग्वालियर से इनकी बीएड कंप्लीट नहीं हो पाई थी, अतः इनकी नियुक्ति नहीं हो सकी। इनकी एक पुस्तक- "वैदिक वाड्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी" (प्रकाश बुक डिपो, बरेली) प्रकाशित हो चुकी है। हिंदी साहित्य पर इनके समीक्षात्मक लेख- 'कैलाश गौतम स्मृति अंक' (नये-पुराने, 2007), 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' (2013) आदि में प्रकाशित हो चुके हैं। 

इस अवसर पर डॉ प्रियंका को पिता श्री प्रह्लाद सिंह चौहान, माता श्रीमती उमा चौहान, पति श्री गौरव सिंह राजावत, देवर श्री सौरभ राजावत, सास-ससुरजी, छोटे भाई आचार्य शिवम, दादा अवनीश सिंह चौहान, भाभी नीरज, छोटी बहन दीपिका, परिवार के अन्य सदस्यों और गुरुजनों ने बधाई एवं शुभकामनाएं दीं।
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डॉ प्रियंका की पुस्तक एमाज़ॉन पर उपलब्ध है : https://www.amazon.in/Vedic-Wandmaya-vigyan-prodhogiki-Hindi/dp/8179774430
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उक्त पुस्तक की समीक्षा :http://www.poorvabhas.in/2021/09/blog-post.html?m=1
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अमृत विचार, बरेली, पृष्ठ 7, अक्टूबर 08, 2021 


Dr Priyanka Chauhan, Sanskrit

ग्यारह वर्ष : आभासी दुनिया में पूर्वाभास — आचार्य शिवम्

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10 अक्टूबर 2010 को चीनी मानवाधिकार कार्यकर्ता लियू शियाओबो को 'चीन में मौलिक मानवाधिकारों के लिए उनके लंबे और अहिंसक संघर्ष'के लिए 'नोबेल शांति पुरस्कार'प्रदान किया गया। जब यह समाचार दुनियाभर में सुर्खियाँ बटोर रहा था तब 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर अनियतकालीन पत्रिका 'पूर्वाभास' (www.poorvabhas.in) की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई। सोमवार के दिन इस यात्रा का शुभारंभ— "दिनेश सिंह के नवगीत"पोस्ट से हुआ, जिसके तहत 'नये-पुराने'पत्रिका के यशस्वी संपादक दिनेश सिंह का संक्षिप्त परिचय और पाँच नवगीत प्रस्तुत किये गये थे। आभासी दुनिया में प्रथम पोस्ट के आते ही सुधी पाठकों-विद्वानों ने इस पत्रिका का स्वागत करते हुए अपना भरपूर स्नेह और सहयोग देना प्रारंभ कर दिया था। शायद इसीलिये इसी पोस्ट के 'कमेंट बॉक्स'में सकारात्मक प्रतिक्रिया करते हुए डॉ बुद्धिनाथ मिश्रने लिखा था— 
प्रिय भाई, पूर्वाभास को देखा। अच्छी तरह देखा। बहुत पसंद आया। आपने इस तरह दिनेश जी के नवगीतकार को नया रूप, नया आयाम दिया। उनके गीतों को विश्व-पटल पर रखने के लिए नवगीतकारों को आपके प्रति आभारी होना चाहिए। आपकी यह नेट-यात्रा सफल और सार्थक हो। नवरात्र पर मेरी शुभ कामनाएँ।

'पूर्वाभास'पत्रिका का ध्येय वाक्य— "शब्द-साधकों की साधना स्थली" (जिसे बाद में— "शब्द-साधकों का रचना-संसार"कर दिया गया) सांकेतिक भाषा में बहुत कुछ कह तो रहा था, किन्तु पत्रिका के कलेवर में कुछ चीजों को सूत्रबद्ध करने की बड़ी आवश्यकता थी। इसलिए पत्रिका का खण्ड विभाजन कर पत्रिका के स्वरुप और उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिए कुछ स्वतंत्र पृष्ठों का निर्माण किया गया। इसी क्रम में "आलेख, कविता, कहानी, ग़ज़ल, दोहा, नवगीत, पुस्तकें, बालगीत, यादें, विविध, समाचार, समीक्षा, साक्षात्कार, हाइकु"खण्ड बनाए गए और मुखपृष्ठ पर प्रारंभिक दौर में पत्रिका में छपे रचनाकारों के लिए "संस्थापक शब्द-साधक” सहित “कुछ पुराने लिंक, प्रकाशक एवं प्रकाशन, प्रमुख हिन्दी पत्रिकाएँ, संपादक के बारे में"जैसे स्वतंत्र पृष्ठों को यथाशक्ति तैयार किया गया। मुखपृष्ठ पर ही "लोकप्रिय पोस्ट", अनुवाद करने का टूल— "TRANSLATE", सामग्री को खोजने के लिए— "खोज बटन", पत्रिका का निःशुल्क सदस्य बनने के लिए— "सब्स्क्राइब करें", पाठकों की संख्या को जानने के लिए— "कुल पृष्ठ दृश्य"एवं पाठकों की लोकेशन जानने के लिए "अतिथिवृंद"जैसे महत्वपूर्ण विजेट लगाकर और अपनी ही अन्य पत्रिकाओं— 'गीत पहल' (www.geetpahal.webs.com), 'क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म' (www.creationandcriticism.com), 'आईजेएचईआर' (www.ijher.com), 'भक्तकोश विकी'आदि के लिंक जोड़कर 'पूर्वाभास'को और अधिक 'यूजर फ्रेंडली'बनाने की कोशिश की गयी है। यथा—

आ गए पंछी
नदी को पार कर
इधर की रंगीनियों से प्यार कर। — दिनेश सिंह

आभासी दुनिया की 'रंगीनियों'से प्यार कर पत्रिका यहाँ तक आ तो गयी, किन्तु अभी भी अपने मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए यह पूरी तरह से तैयार नहीं थी; यानी कि उन दिनों पत्रिका के पास न तो अपना कम्प्यूटर था और न ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी। उन दिनों प्रकाशन के लिए आने वाली सामग्री भी डाक से ही आया करती थी; बाजार से टाइपिंग होने के बाद उसे किसी प्रकार से यूनीकोड में कन्वर्ट किया जाता था और फिर उसकी प्रूफ रीडिंग होती थी। यह सब काम किसी कैफे (या कभी-कभार किसी कम्प्यूटर लैब) में जाकर ही संभव होता था। कुछ समय तक कैफे (या लैब) में ही बैलगाड़ी की तरह चलने वाले कम्प्यूटर पर काम कर किसी प्रकार से पत्रिका प्रकाशित होती रही। इस तरह से कुछ महीने और गुजर गये। सुविधा बनी तो पत्रिका को आगे बढ़ाने के लिए एक कम्प्यूटर खरीदा गया और इंटरनेट की सुविधा भी जुटायी गयी। सम्मिलित प्रयासों से धीरे-धीरे जब 'पूर्वाभास'पत्रिका पटरी पर आने लगी तब इसके माध्यम से 'कविता कोश', 'अनुभूति', 'रचनाकार', ‘अभिव्यक्ति'एवं ‘नवगीत विकी’ आदि बड़ी वेब पत्रिकाओं को भी यथा सम्भव रचनात्मक सहयोग मिलने लगा। 

हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के संवर्द्धन, प्रचार-प्रसार एवं विकास के उद्देश्य से 'पूर्वाभास'पत्रिका के 'आलेख खण्ड'में प्रथम पोस्ट— "सत्येन्द्र तिवारी : एक मानव, एक गीतकार" (अवनीश सिंह चौहान) लगाई गयी थी। उसके बाद "बुद्धिनाथ मिश्र और उनकी सृजन-यात्रा" (अवनीश सिंह चौहान), "महेन्द्र भटनागर : व्यक्तित्व और कृतित्व" (हरिश्चंद्र वर्मा), "शिवबहादुर सिंह भदौरिया की रचनाधर्मिता : 'नदी का बहना मुझमें हो’ के सन्दर्भ से" (अवनीश सिंह चौहान), "राधेश्याम बंधु कृत नवगीत के नये प्रतिमान" (राजेन्द्र गौतम), "नयी कविता बनाम गीत-नवगीत" (दिनेश सिंह), "इंग्लैण्ड में हिन्दी की वर्तमान स्थिति" (तेजेन्द्र शर्मा), "नवगीत का संक्षिप्त इतिहास और उसकी मौजूदा समस्याएँ" (वीरेन्द्र आस्तिक), "मॉरिशस की साहित्यिक यात्रा" (महेश दिवाकर), “दूसरी दुनिया यानी औरत की दुनिया - पार्ट- 1, 2, 3” (संवेदना दुग्गल), "यारों का यार अनिल जनविजय" (भारत यायावर), "प्रवासी साहित्यकारों का हिन्दी को अवदान" (आशा पाण्डे ओझा), "प्रेम के निवेदन में अपनी धुरी पर नतमस्तक पृथ्वी : महेंद्र भटनागर" (मनोज श्रीवास्तव), "ज्ञान के माध्यम की भाषा और गांधी का पाठ" (अमरनाथ), "अनबीता व्यतीत में पर्यावरण प्रदूषण" (लंबोधरन पिल्लै. बी.), "गीत स्वीकृति : रचना प्रक्रिया के नए तेवर, भाग-1 एवं 2" (वीरेन्द्र आस्तिक), "कहते कुछ, करते कुछ हैं आज के रचनाकार" (अवनीश सिंह चौहान), "सृजन और उसका क्रमिक विकास - विशेष सन्दर्भ निराला" (वीरेन्द्र आस्तिक), "विरासत : श्रृंगजी की याद आना स्वाभाविक है" (अवनीश सिंह चौहान), "आशाओं का सूर्योदय दिवाकर ही कर सकते" (साधना बलवटे), "समकालीन हिंदी गीत के पचास वर्ष" (नचिकेता), "राजेन्द्र प्रसाद सिंह : नवगीत से जनगीत तक" (रवि रंजन), "विरासत : नए आस्वाद का गद्य" (भारत यायावर), "रवीन्द्रनाथ और महावीर प्रसाद द्विवेदी" (भारत यायावर), "पिघलती पीर के गायक मनोज जैन मधुर" (अंजना दुबे), "दो संस्कृतियों के संगम थे संत कबीर" (ललित गर्ग), "महेन्द्र भटनागर का काव्य : सामाजिक समता, संघर्ष और विश्व-निर्माण का पथ" (मोहसिन ख़ान), "पोएट्री मैनेजमेंट : मूल्यांकन की माँग" (मोहसिन ख़ान), "लता मंगेशकर : अद्भुत, अकल्पित हैं स्वर-माधुर्य की साम्राज्ञी" (ललित गर्ग), "विभाजन का दर्द शायरों के मार्फ़त" (मनोज मोक्षेंद्र), "मैथिलीशरण गुप्त : सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि" (ललित गर्ग), "यायावर, तेरे कितने पांव!" (दिलीप कुमार अर्श), "प्रकृति और हम" (अवनीश सिंह चौहान), "हार के आगे ही जीत है" (आचार्य शिवम्), "वृन्दावन मेरा घर है" (अवनीश सिंह चौहान), "राजेन्द्र यादव के किस्से" (भारत यायावर), "समकालीन गीत : कथ्य और तथ्य" (अवनीश सिंह चौहान), "भरम, करम और धरम" (अवनीश सिंह चौहान), "रेणु का ऋणजल-धनजल" (भारत यायावर), "नवगीत के उन्नायक दिनेश सिंह" (अवनीश सिंह चौहान), "गीति काव्य में वसंत की अनुभूति और उसका सौंदर्य" (समीर श्रीवास्तव), "वीरेन्द्र आस्तिक : समय, साहित्य और संपादन" (अवनीश सिंह चौहान), "हिन्दी-ग़ज़ल की दिशाबोधी पारदर्शियाँ" (मधुर नज्मी), "कलमकार की पीड़ा" (अवनीश सिंह चौहान), "माँ, तुझे प्रणाम!" (अवनीश सिंह चौहान), "गीत : जीवन-संघर्ष का संवेदना-शिल्प" (दिनेश सिंह), "संघर्षशील साहित्यकार प्रमोद प्रखर" (अवनीश सिंह चौहान), "अर्थों की पंखुड़ियाँ बिछाते गुलाब सिंह" (अवनीश सिंह चौहान), "नवगीत की नवता" (रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’), "अंतरजाल पर 'गीत-पहल'" (राजा अवस्थी) आदि लेखों को समाहित किया गया है। इस अनंतिम लेख में यायावर जीने जो बात कही है, वह नवगीत सर्जना के लिए ही नहीं, नवगीत पर आलोचना एवं उसके प्रकाशन के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण है— 

नवगीत में नवता कल भी थी, आज भी है और जब तक सृजनशील प्रतिभाएँ सक्रिय रहेंगी और उनकी नूतनोद्भावनी कल्पना जीवित रहेगी तब तक नवगीत गीत-रसिकों और मनीषी समीक्षकों को प्रभावित करता रहेगा।

पूर्वाभास में नवगीत के प्रकाशन को ध्यान में रखते हुए 'नवगीत'खण्ड की स्थापना की गयी, जिसमें दिनेश सिंह, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, शचीन्द्र भटनागर, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', राजेंद्रमोहन शर्मा 'श्रंग', माहेश्वर तिवारी, गुलाब सिंह, राम सेंगर, वीरेंद्र आस्तिक, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, ओमप्रकाश सिंह, विनय भदौरिया, रमाकांत,जय चक्रवर्ती, जयजयराम आनंद, मनोज जैन 'मधुर', आनंद कुमार 'गौरव', मयंक श्रीवास्तव, सत्येंद्र तिवारी, योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', विवेक 'निर्मल', राघवेंद्र तिवारी, जय शंकर शुक्ल, पूर्णिमा वर्मन, जगदीश व्योम, महेश अनघ, देवेंद्र कुमार पाठक, अजय तिवारी, ज्योति खरे, रजनी मोरवाल, चंद्र प्रकाश पाण्डे, रामनारायण रमण, ओम धीरज, विनोद श्रीवास्तव, ब्रजनाथ श्रीवास्तव, चित्रांश वाघमारे, अम्बरीश कुमार गर्ग, प्रदीप शुक्ल, राम शंकर वर्मा, कृष्ण नंदन मौर्य, रविशंकर मिश्र, संध्या सिंह, विनय मिश्र, रामकिशोर दाहिया,राजा अवस्थी, मनोहर अभय, अवनीश त्रिपाठी, योगेंद्र प्रताप मौर्य, कृष्ण भारतीय, किशन सरोज, मंजुलता श्रीवास्तव, राहुल शिवाय, गरिमा सक्सेना, रवि खंडेलवाल, चंद्रेश शेखर, संतोष कुमार सिंह, रमेश गौतम, रघुवीर शर्मा, अवनीश सिंह चौहान आदि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संक्षिप्त टिप्पणी के साथ नवगीत प्रकाशित किये जा चुके हैं। इस खण्ड की अनंतिम पोस्ट में नवगीत के महत्व को प्रकाशित करते हुए गुलाब सिंह अपने एक गीत में ठीक ही कहते हैं—

गीत न होंगे 
क्या गाओगे? 

हँस-हँस रोते,/ रो-रो गाते 
आँसू-हँसी राग-ध्वनि-रंजित 
हर पल को संगीत बनाते 

लय-विहीन हो गए अगर तो
कैसे फिर सम पर आओगे?

कविता क्या है? कई मनीषियों ने अपने-अपने ढ़ंग से इसका उत्तर दिया है। गहनता से विचार करने पर प्रतीत होता है कि कविता साध्य है और कवि साधक। यद्यपि 'साध्य'और 'साधक'शब्द जनमानस में बहुत प्रचलित हैं, फिर भी रफ़्तार ऑनलाइन शब्दकोश में 'साध्य'शब्द का अर्थ कुछ इस प्रकार से देखा जा सकता है— "वह विचार जिसे पूरा करने के लिए कोई काम किया जाए", "वह कार्य जिसका साधन हो सके", "जो सिद्ध या पूरा किया जा सके", "ऐसा विषय जो प्रयत्न करने पर जाना जा सकता हो"आदि। किन्तु इतने से कविता की परिभाषा स्पष्ट नहीं होती? इसलिए यहाँ आचार्य रामचंद्र शुक्लको उद्धृत करना समीचीन लगता है— "कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है।"कविता में गीत, नवगीत, बालगीत, ग़ज़ल, दोहा, हाइकु, नई कविता, कुंडलियाँ, सवैया, घनाक्षरी आदि विधाएँ समाहित हैं। शायद इसीलिये 'पूर्वाभास'में 'कविता'खण्ड में कविता की दो विधाओं (नई कविता एवं कुण्डलियाँ) को रखते हुए पैडी मार्टिन, महेंद्र भटनागर, रमाशंकर यादव 'विद्रोही', केदारनाथ सिंह, वीरेन डंगवाल, वीरेंद्र आस्तिक, उमेश चौहान, जयप्रकाश मानस, अनिल जनविजय, कुमार मुकुल, दुष्यंत, सुरेंद्र वर्मा, संजीव निगम, कुँवर रवींद्र, सुधीर कुमार अरोड़ा, अनिल श्रीवास्तव, अवधेश सिंह, इंद्रेश भदौरिया, सुशील कुमार, सरस्वती माथुर, वसुंधरा पाण्डे निशी, पंखुरी सिन्हा, पंकज त्रिवेदी, परमेश्वर फूँकवाल, अनुज कुमार, ब्रजेश नीरज, हरिहर झा, सुनील कुमार सोनी, बीनू भटनागर, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, अनिल गुप्त, संजय वर्मा दृष्टि, ओम आचार्य, विशाखा तिवारी, नीरा सिंह, सुषमा वर्मा, दीप्ति शर्मा, तारिक असलम 'तस्नीम', अशोक शर्मा, आशा सहाय, नीलम डढवाल, अशोक बाबू माहौर, आशीष बिहानी, सुजश कुमार शर्मा, भूपेंद्र भावुक, गोरख प्रसाद मस्ताना, चंद्र आदि को स्थान दिया गया है। 

'गजल'खण्ड में मंसूर उस्मानी, मीना नक़वी, ओंकार सिंह 'ओंकार', कृष्ण कुमार 'नाज़', मधुर नज़्मी, रघुनाथ मिश्र, मनोज मनु, किशन तिवारी, प्राण शर्मा, कीर्ति श्रीवास्तव, अमरीक सिंह, साधना बलबटे, रमाकांत, धर्मेंद्र कुमार सिंह 'सज्जन', राकेश जोशी, महेश अग्रवाल आदि; 'दोहा'खण्ड में महेश दिवाकर, अम्बरीश कुमार गर्ग, रघुराज सिंह निश्चल, मूलचंद 'राज', जितेंद्र कुमार 'जौली', ज्योत्स्ना शर्मा, मनोहर अभय, इंद्रेश भदौरिया आदि; 'बालगीत'खण्ड में राकेश 'चक्र'; 'हाईकु'खण्ड में संतोष कुमार सिंह, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, राजेंद्र वर्मा, विनोद कुमार दवे, अवनीश सिंह चौहान आदि; 'विविध'खण्ड में दिनेश पालीवाल, गुलाब सिंह, बुद्धिनाथ मिश्र, महेश दिवाकर, प्रहलाद सिंह चौहान, इंद्रेश भदौरिया, अलभ्य घोष, राहुल यादव, शैलेन्द्र कुमार शर्मा, ललित गर्ग, संवेदना दुग्गल, राकेश चक्र, विभावसु तिवारी, राधेश्याम बंधु, बलबंत, नरेंद्र शुक्ल, साधना बलबटे, गुर्रमकोण्डा नीरजा, अवनीश सिंह चौहान, शिवम् चौहान आदि के संस्मरण, व्यंग्य, नाटक, यात्रा-वृत्त, हास्य रचनाएँ, आध्यात्मिक लेख, पत्र, पुस्तक भूमिकायें आदि को शामिल किया गया है। 'यादें'खण्ड में पैडी मार्टिन, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, देवेंद्र शर्मा इंद्र, केदारनाथ सिंह, दिनेश सिंह, महेश अनघ, विजयदान देथा, दिवाकर वर्मा, रामशंकर यादव 'विद्रोही', राजेन्द्र मोहन शर्मा 'श्रृंग, नबाब सिंह, जोधा सिंह, रामबेटी, बालकवि बैरागी, किशन सरोज आदि की पावन स्मृतियों को संजोया गया है। 

'पुस्तकें'खण्ड में 'मुरादाबाद जनपद के प्रतिनिधि रचनाकार', 'इस कोलाहल में', 'नये-पुराने'पत्रिका का 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता'पर केन्द्रित अंक, 'धार पर हम - दो', 'समर करते हुए!', 'जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ', 'सन्नाटे ढोते गलियारे', 'झूठ नहीं बोलेगा दर्पण', 'एक गैल अपनी भी', 'टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर', 'नवगीत: नई दस्तकें', 'शब्दपदी', 'लखनऊ  के प्रतिनिधि गीतकार', 'एक और अरण्य काल', 'नील वनों के पार', 'मुट्ठी भर अस्थियाँ', 'और कितनी देर', 'दर्द जोगिया ठहर गया', 'नई सदी के पाँव', 'शब्द हैं प्रतिबिम्ब मेरे', 'किन्तु मन हारा नहीं', 'खिरनी की छांह', 'एक औरत: तीन बटा चार', 'कही अनकही', 'केयर ऑफ़ स्वात घाटी', 'करतूते मरदां', 'विमर्श और विस्तार', 'पढ़ते, लिखते, रचते', 'तनिक ठहरो समुद्र', 'पाटी', 'सदी के पार', 'वैदिक वाड्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी', 'समीक्षा के निकष पर', 'उत्तर प्रदेश के हिन्दी साहित्यकार : सन्दर्भ कोश', 'टुकड़ा कागज़ का', 'पांच जोड़ बांसुरी', 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन', 'नवगीत एकादश', 'नवगीत: नई दस्तकें', 'नवगीत: एक परिसंवाद', 'गीत वसुधा', 'नये-पुराने'पत्रिका के नवगीत पर केंद्रित छः विशेषांक (1996- 2000), 'काशी मरणान्मुक्ति', 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता', 'नवगीत का मूल्यबोध’, 'अभिनव सिनेमा', 'नवगीत वाङ्मय'आदि का सचित्र विवरण दिया गया है।

'समीक्षा'खण्ड धारदार समीक्षाओं से लबरेज है, जिसमें 'एक बूँद हम' : बूंद में समाहित गीत गंगा — किशन तिवारी, 'सप्तराग'यानी सात सुरों का समवेत सरगम — कुमार रवींद्र, 'नवगीत के नये प्रतिमान'— राजेन्द्र गौतम, 'काशी मरणान्मुक्ति' : साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन तथा अध्यात्म का अद्भुत समन्वय — एस.पी. दुबे, 'टुकड़ा कागज का' : सत्य से साक्षात्कार करवाते गीतों का संग्रह — साधना बलवटे, 'ये हवा से बोल देना' : जीवन के प्रति अगाध आस्था का आचमन करते गीत — साधना बलवटे, सौरभ शर्मा कृत 'लव हेट्स मी एण्ड आई लव इट'— अवनीश सिंह चौहान, 'दिन क्या बुरे थे!' : ज़मीनी चेतना के गीत — सन्तोष कुमार तिवारी, 'देती है आवाज नदी' : गीत के ये नये आकाश — वीरेंद्र आस्तिक, ‘अँजुरी भर प्रीति' : कविता की समसामयिक भंगिमा — कुमार रवीन्द्र, 'बंजारन': नए आस्वाद की कविताएँ — राहुल देव, 'डॉक्टर ग्लास' : नैतिकता तो मात्र हिंडोला है — कुमार मुकुल, 'सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया' : समकालीन संदर्भों में मीडिया की परख — राकेश कुमार, 'कुछ बेक्ड कविताएँ' : मर्मस्पर्शी संवेदनाओं के चित्र उकेरती कविताएँ — आनन्द कुमार 'गौरव', ‘उधेड़बुन’की सार्थकता — मधुकर अष्ठाना, 'संवेदन के बस्ते' : कस्बाई अंचल और भाषा की नई शक्तियाँ — वीरेन्द्र आस्तिक, 'साँझी साँझ' : सपनों के टुकड़े सँजोये गीत-नवगीत — मधुकर अष्ठाना, 'दिन क्या बुरे थे!' : वीरेन्द्र आस्तिक के रचनात्मक संदर्भ — सन्तोष कुमार तिवारी, 'चोंच में आकाश' : नवगीत होने का अर्थ — वीरेन्द्र आस्तिक, '‘कविता का ‘क’ : छन्दोबद्ध काव्य के विविध आयामों से परिचित कराती — राजेंद्र वर्मा, 'मुट्ठी भर विश्वास'की कविताई — वीरेन्द्र आस्तिक, ‘केसरिया सूरज‘: भावों का खूबसूरत गुलदस्ता — प्रियंका चौहान, ‘काव्यगंधा’ : काव्य जीवन की सुगन्ध - बाबूराम, 'अमिट लकीरें' : अनुभवों का इन्द्रधनुषी गुलदस्ता - दिनेश तिवारी, 'सरहदें' : स्मृतियाँ और शुभेच्छाएँ नहीं मानतीं ‘सरहदें’— ऋषभदेव शर्मा, 'समय की आँख नम है' : जो आँखों के पानी में है — अनूप अशेष, 'हिंदी साहित्य और फ़िल्मांकन' : सिनेमा और हिंदी साहित्य की दीर्घ परंपरा का रेखांकन — मोहसिन ख़ान, ‘नयी सदी के नवगीत’के वैचारिक अंतर्विरोध — नचिकेता, 'अमिट लकीरें' : हक जो अदा हुआ — अवनीश सिंह चौहान, 'टुकड़ा कागज़ का'पर विद्वानों की टिप्पणियाँ, 'इस पानी में आग' : जीवन के अतल में गहरे तक धँसा रचनाकार — रंजना गुप्ता, 'नॉट इक्वल टू लव' : स्त्रियों की छद्म आज़ादी का सूरज फेसबुक की झिर्रियों से — मोहसिन ख़ान, 'अँधेरे में : पुनर्पाठ'— मुक्तिबोध के प्रति हैदराबाद के हिंदी जगत की श्रद्धांजलि, 'गीत अपने ही सुने'का प्रेम-सौंदर्य — अवनीश सिंह चौहान, 'अभी समय है' : जो करना है अभी करना है — अवनीश सिंह चौहान, 'किंबहुना' : स्त्री संघर्ष की कथा — राजा अवस्थी, 'आग लगी है' : जो भी लिखा है, दिल से लिखा है — अवनीश सिंह चौहान, 'अंतराएँ बोलती हैं' : नवगीत की ज़मीन पर अंखुवायी संवेदनाओं का संकलन — माधव वाजपेयी, 'समकाल से मुठभेड़' : समकालीन चुनौतियों और विडंबनाओ से मुठभेड़ — वेदप्रकाश अमिताभ, 'दादाजी की चौपाल' : कहानियाँ सुनाती दादाजी की चौपाल — ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश', 'दिन कटे हैं धूप चुनते'— राहुल शिवाय, 'परछाईं के पाँव' : प्रेम और सौंदर्य की मौलिक अभिव्यक्ति — रवीन्द्र भ्रमर, 'रंगरेज़' : मोहे रँग दे ओ रंगरेज़ — अवनीश सिंह चौहान, 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' : एक दस्तावेजी पुस्तक — शिवचन्द प्रसाद, मयंक श्रीवास्तव कृत रामवती — अवनीश सिंह चौहान, शचीन्द्र भटनागर कृत ‘ढाई आखर प्रेम के’ — अवनीश सिंह चौहान, रामनारायण रमण कृत ‘जोर लगाके हइया’ — अवनीश सिंह चौहान, प्रियंका चौहान कृत 'वैदिक वाड्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी'— वीरेन्द्र आस्तिक, 'नवगीत वाङ्मय :  एक स्वागतयोग्य संकलन'— गंगाप्रसाद 'गुणशेखर'आदि समीक्षाएँ संकलित हैं।

'साक्षात्कार'खण्ड में 'सहजगीत : रागवेशित आवेग का सहज संप्रेषण — आनंद कुमार 'गौरव', 'शिल्प तो रचना की अपनी विशिष्टता है — सत्यनारायण', 'मनुष्यता को बचाये रखना ज़रूरी है — वेदप्रकाश 'अमिताभ', 'रुकावट के लिए खेद है'के बाद का 'सीन'और भी आकर्षक हो — गुलाब सिंह', 'नवगीत भविष्य की कविता बनने की दिशा में है — कुमार रवीन्द्र', 'नवगीत, गीत का आधुनिक संस्करण — वीरेंद्र आस्तिक', 'बाजार मनुष्य की संवेदना को खत्म कर रहा हैं — दिनेश पालीवाल', 'नवगीत की आलोचना स्वयं लिखें — नचिकेता', 'संवेदना तो छन्द और छन्दमुक्त रचनाओं में भी होती ही है — पंकज त्रिवेदी', 'सारे हिंदी वाले एक यूटोपिया में जी रहे हैं — अमरनाथ', 'प्रतिलिपि डॉट कॉम के प्रतिनिधि से अवनीश सिंह चौहान की संक्षिप्त बातचीत', 'बात ही कविता में खुलती-बोलती है और उसे एक अभीष्ट स्वर देती है — राम सेंगर', 'कुछ फ़िल्में मन और बुद्धि दोनों को पुष्ट करती हैं — अवनीश सिंह चौहान, 'नवगीत ने गीत को रूढ़िग्रस्त होने से बचाया है — मयंक श्रीवास्तव', 'संतुलन अपने आप बन जाता है — पूर्णिमा वर्मन', फॉर्म से ज्यादा कॉन्टेंट पर ध्यान — बुद्धिनाथ मिश्र, 'समय की छलनी बड़ी निर्मम है — रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर', 'कवि केवल सोशल मीडिया के भरोसे नहीं — शान्ति सुमन'आदि सुधी पाठकों को आकर्षित करने में सफल रहे हैं। 

'पूर्वाभास'के 'समाचार'खण्ड में सर्वाधिक सामग्री संकलित हुई है, इसलिए इसका विस्तार से यहाँ वर्णन कर पाना कठिन है। किन्तु, इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि इस खण्ड में साहित्य, संस्कृति, कला से संबंधित जो भी समाचार प्रकाशित हुए हैं, वे बार-बार पढ़े जाने की माँग करते हैं। ऐसा इसलिए भी कि इसमें संकलित इतिहास-बोध से समृद्ध समाचारों का अवगाहन करने पर साहित्य की विभिन्न विधाओं में चल रही गतिविधियों की भरपूर जानकारी मिलती है। यह सब 'नये-पुराने'लेखकों के अथक परिश्रम और उनके द्वारा 'पूर्वाभास'पत्रिका को सस्नेह दिए गए सहयोग का ही सुफल लगता है। 'पूर्वाभास'के प्रेरणास्रोत— स्व. दिनेश सिंह, संरक्षक— वीरेन्द्र आस्तिक, स्नेह-सहयोग प्रदाता— अनिल जनविजय, रमाकांत, समीर श्रीवास्तव आदि के प्रति भी यह पत्रिका कृतज्ञता ज्ञापित करती है। साथ ही फेसबुक पर संचालित समूहों—'गीत-नवगीत' (अगस्त 04, 2011 से संचालित), 'हिन्दी साहित्य' (जुलाई 09, 2012 से), 'वृन्दावन-मथुरा' (मार्च 21, 2020 से), 'इंडियन हाइकु' (मार्च 21, 2015 से), 'क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज़्म'(मई 10, 2016 से) आदि, जिन्होंने पूर्वाभास की सामग्री को सोशल मीडिया में प्रचारित-प्रसारित करने हेतु सदैव मंच प्रदान किया है, के प्रति भी ऋणी है।

'पूर्वाभास'हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों से सम्बंधित सामग्री को इन्टरनेट पर एक स्थान पर लाने का एक अव्यावसायिक और सामूहिक प्रयास है, जिसमें नवगीत को केंद्र में रखकर हिन्दी की अन्य समस्त विधाओं में रचित मौलिक तथा स्तरीय रचनाओं का सदैव स्वागत किया जाता रहा है। इसका उद्देश्य बस इतना है कि हिंदी साहित्य की सेवार्थ वरिष्ठ रचनाकारों और उभरते रचनाकारों को एक ही मंच पर उपस्थित कर हिन्दी को और अधिक सशक्त बनाया जाय; इसलिए इस पत्रिका के लिए समस्त हिन्दी प्रेमियों, साहित्यकारों, साहित्य-सेवियों का मार्गदर्शन और सहयोग सदैव अपेक्षित रहता है। यहाँ 'पूर्वाभास'की यात्रा से संबंधित वीरेंद्र आस्तिककी टिप्पणी दृष्टव्य है— 
आजकल ई-पत्रिकाओं की सोशल मीडिया में भीड़ है, किन्तु उनमें से बहुत ही कम पत्रिकाएँ गीत-नवगीत केन्द्रित हैं। ऐसी ही पत्रिकाओं में से एक 'पूर्वाभास'पिछले 10 वर्ष से नवगीत को प्रमुखता से प्रकाशित करती आ रही है। इस महत्वपूर्ण एवं चर्चित पत्रिका में साहित्यिक विषयों की विविधता देखते बनती है। जिस पत्रिका को कुशल, निष्ठावान और परिश्रमी संपादक मिल जाता है, वह पत्रिका विश्वसनीयता और ख्याति का आकाश छू लेती है। कहना चाहूँगा— उक्त तथ्य को 'पूर्वाभास'और संपादक अवनीश सिंह चौहान की जोड़ी सार्थक करती है।

'पूर्वाभास''ओपन एक्सेस'और 'ओपन सबमिशन'पॉलिसी पर कार्य करती रही है। अतः सुधी रचनाकार अपनी रचनाओं को पत्रिका के पैटर्न के अनुरूप हिन्दी के यूनीकोड फॉण्ट में टाईप कर (या करवाकर) दिए गए ईमेल पर कभी भी भेज सकते हैं। रचनाएँ यदि अप्रकाशित, मौलिक और स्तरीय रहती हैं तो उन्हें प्राथमिकता दी जाती है। अगर किसी अप्रत्याशित कारणवश रचनाएँ प्रकाशित नहीं हो पाती हैं अथवा रचनाकार को इस संबंध में कोई सूचना प्राप्त नहीं हो पाती है, तो भी रचनाकार सम्पादक को स्मरण दिलाने या अन्यत्र कहीं रचनाएँ भेजने के लिए स्वतंत्र रहता है। यह जरूर है कि इसमें प्रकाशित किसी भी रचनाकार की रचना या अन्य किसी प्रकार की सामग्री को कॉपी करना अथवा अपने नाम से कहीं और प्रकाशित करना, अवैधानिक माना गया है। फिर भी इसमें प्रकाशित किसी भी रचना/ सामग्री को कोई भावक रचनाकार के नाम का स्पष्ट उल्लेख करते हुए प्रयोग में लाना चाहता है, तो उसे उक्त रचनाकार की सहमति लेनी आवश्यक होती है। सहमति और असहमति लोकतंत्र के मूल तत्व कहे गए हैं, किन्तु इनसे परे भी इंटरनेट पर साहित्य का संसार दिखाई पड़ता है। जो भी हो इस वेब पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन डॉ अवनीश सिंह चौहान द्वारा बड़ी कुशलता से आज भी किया जा रहा है। 

संदर्भ:-

मिश्र, बुद्धिनाथ, "टिप्पणियाँ : दिनेश सिंह के नवगीत", 'पूर्वाभास', सोमवार, 11 अक्तूबर 2010 : https://www.poorvabhas.in/2010/10/blog-post.html

चौहान, अवनीश सिंह, "दिनेश सिंह और उनके पाँच प्रेम गीत", 'पूर्वाभास', बुधवार, 29 जनवरी 2020 : https://www.poorvabhas.in/2020/01/dinesh-singh.html

चौहान, अवनीश सिंह, "गुलाब सिंह और उनके दस नवगीत", 'पूर्वाभास',  बुधवार, 19 मई 2021 : https://www.poorvabhas.in/2021/05/blog-post.html

आस्तिक, वीरेन्द्र, "टिप्पणियाँ : अर्थों की पंखुड़ियाँ बिछाते गुलाब सिंह — अवनीश सिंह चौहान", 'पूर्वाभास', सोमवार, 31 मई 2021 : https://www.poorvabhas.in/2021/05/blog-post_78.html

रफ़्तार ऑनलाइन शब्दकोश— साध्य का हिंदी में अर्थ : https://shabdkosh.raftaar.in/Meaning-of-sadhya-in-Hindi#gsc.tab=0

शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, "कविता क्या है", 'भक्तकोश' :  https://bhaktkosh.fandom.com/hi/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%80:%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF



'पूर्वाभास'पत्रिका के तकनीकी प्रबंधक, वृन्दावनवासी (मथुरा) आचार्य शिवम् (जन्म : 07 फरवरी 1993) संस्कृत भाषा एवं साहित्य के युवा विद्वान हैं। ई-मेल: toshivamchauhan@gmail.com

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'नवगीत वाङ्मय' : कविता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण संकलन — राजा अवस्थी

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[पुस्तक : नवगीत वाङ्मय, संपादक : अवनीश सिंह चौहान, प्रकाशक : आथर्सप्रेस, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष : 2021 (संस्करण प्रथम, पेपर बैक), पृष्ठ : 174, मूल्य रु 350/-]

हिंदी कविता के इतिहास में समवेत संकलनों की एक परंपरा अब स्थापित हो चुकी है। ये समवेत संकलन कभी कुछ सहयोगी मित्रों की कविताओं को साथ लेकर, कभी अपने शहर, क्षेत्र या प्रान्त के कवियों की रचनाओं को समेटने के लिए प्रकाशित किए-कराये जाते रहे हैं। ये सभी किसी न किसी दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, किंतु कुछ काम इस दिशा में ऐतिहासिक महत्व के भी प्रमाणित हुए हैं। ऐतिहासिक महत्व के ऐसे समवेत संकलन या तो अपने समय की किसी विशिष्ट काव्यधारा के कवियों की कविताओं के बहाने नई पनपी काव्य-प्रवृत्तियों को पहचानने, स्थापित करने या स्थायित्व प्रदान करने के सम्पादित किये गए या कभी स्वयं को एक नेतृत्वकारी भूमिका में स्थापित करने की दृष्टि से प्रकाशित किये-कराए गये हैं। ऐसे समवेत संकलनों की पड़ताल पर जाएँ, तो यह परंपरा अज्ञेय के 'तार सप्तक'से शुरू होकर डॉ शम्भुनाथ सिंह के द्वारा संपादित 'नवगीत दशकों' (नवगीत दशक- 1, नवगीत दशक-2, नवगीत दशक-3) एवं 'नवगीत अर्द्धशती'से होती हुई 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' (संपादक- कन्हैयालाल नंदन), 'नई सदी के नवगीत'- पाँच खंड (संपादक- ओमप्रकाश सिंह) तक किसी विशिष्ट उद्देश्य के साथ चली आती दिखाई देती है। यद्यपि इस दिशा में 'गीत वसुधा' (संपादक- नचिकेता), 'समकालीन गीत कोश' (संपादक- नचिकेता), 'नवगीत- नई दस्तकें', (संपादक- निर्मल शुक्ल), 'नवगीत का सौंदर्य बोध' (संपादक- राधेश्याम बंधु) आदि के काम भी उल्लेखनीय हैं, किन्तु ये सभी सम्पूर्ण नवगीत कविता को एक साथ लाने के सिवा किसी विशेष उद्देश्य को केंद्र में नहीं रख पाते और सबको तथा सब कुछ समेटने की लालसा ने इन्हें बड़ा और मोटा ग्रंथ तो बना दिया, किंतु इनकी यह स्थूलता वह नहीं कर पाई, जिसकी इनसे आशा थी। इस दिशा में महत्वपूर्ण काम डॉ रणजीत पटेल का है, जिन्होंने जहाँ एक संकलन बिहार के गीतकवियों को केंद्र में रखकर संपादित किया है, तो वहीं बड़े फलक पर 'सहयात्री समय के'शीर्षक से भी एक उल्लेखनीय समवेत संकलन का संपादन किया है। इन सभी समवेत संकलनों में जो अधिक महत्वपूर्ण दिखाई देता है वह है संपादकों के द्वारा इनकी भूमिका के रूप में लिखे गये आलेख, जिनमें नवगीत कविता की पूरी यात्रा को समझने और आलोचनात्मक स्थापना देने का महत्वपूर्ण काम किया गया है। इस दृष्टि से नचिकेता और डॉ ओमप्रकाश सिंह की भूमिकाएँ महत्वपूर्ण हैं। 

इतनी रामायण बाँचने से स्वयं को न रोक पाने के मूल में समवेत संकलन की समृद्ध परंपरा में डॉ अवनीश सिंह चौहान के संपादन में आथर्स प्रेस से हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'नवगीत वाङ्मय'का मेरे सामने होना है। 174 पृष्ठों के इस समवेत संचयन में हिंदी कविता की प्रमुख विधा नवगीत के प्रारंभ से लेकर अब तक के लेखन को मात्र 12 नवगीत कवियों के माध्यम से समेटने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक को संपादक ने चार खंडों में वर्गीकृत किया है। प्रथम खंड- 'समारंभ', जिसमें डॉ शंभुनाथ सिंह, डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया और डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह को शामिल किया गया है। दूसरे खंड 'नवरंग'में नवगीत कविता के नौ महत्वपूर्ण कवि- गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, शांति सुमन, राम सेंगर और नचिकेता के साथ नवगीत सर्जना के साथ 'धार पर हम' (दो भागों में) समवेत नवगीत संकलन का संपादन करने वाले वीरेंद्र आस्तिक, नवगीत की मंचीय काव्य-धारा के प्रमुख कवि बुद्धिनाथ मिश्र और एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत ध्रुवों पर ठहरने वाले दो कवि- विनय भदौरिया और रमाकांत को शामिल किया गया है। इस तरह सन 1916 में जन्मे डॉ शंभुनाथ सिंह से लेकर 1964 में जन्मे रमाकांत तक के नवगीतों को लिया गया है। 

'नवगीत वाङ्मय'शीर्षक इस ग्रंथ को महत्वपूर्ण बनाने में सम्मिलित नवगीत कविताओं के साथ बहुत बड़ी भूमिका दिनेश सिंह जी के आलेख 'गीत की संघर्षशील जयी चेतना'की भी है। यह आलेख पुस्तक के तीसरे खंड 'अथबोध'में डॉ मधुसूदन साहा के अवनीश जी के द्वारा लिए गए सारगर्भित साक्षात्कार (चौथा खण्ड) से ठीक पहले रखा गया है। यह आलेख 'नवगीत कविता'और उसकी आलोचना को कई-कई कोणों से खोलता है। आलोचना के सूत्र रचता है। गद्य कविता के सापेक्ष नवगीत कविता को देखता है। इस तरह यह आलेख एक अलग और स्वतंत्र वैचारिकी को प्रस्तुत करता है। 

पुस्तक हाथ में आते ही जो चीज सबसे पहले आकर्षित करती है, वह है इस किताब का शीर्षक- 'नवगीत वाङ्मय'। बहुत बड़ा शीर्षक ले लिया है अवनीश जी ने। प्रथमतया इसे देखकर या सुनकर ऐसा लगता है जैसे यह समग्र नवगीत कविता को समेटने वाला ग्रंथ होगा, किंतु जब किताब सामने आती है, तो यह चिंता में डाल देती है। यह संपादक के लिए भी चिंतित होने की बात हो सकती है? चिंतित होने की बात इसलिए कि यदि इसे आगे शृंखलाबद्ध रूप में लाकर समग्र नवगीत कविता को नहीं समेटा गया, तो एक बहुत बड़ा शीर्षक जाया हो जाएगा; यद्यपि अवनीश सिंह चौहान बहुत समर्थ, प्रतिभाशाली और सक्रिय रचनाधर्मी संपादक हैं, वह यह कार्य कर भी लेंगे। पाठकों व शोधार्थियों को भी इसकी प्रतीक्षा रहेगी। 

'नवगीत वाङ्मय'शीर्षक की इस किताब में अवनीश जी के संपादकीय कौशल को भी देखा जा सकता है। एक तो उन्होंने सभी रचनाकारों को उनकी जन्मतिथि के अनुसार क्रम दिया है। किसी तरह के विवाद से बचने का यही आसान तरीका भी है। पुस्तक के प्रथम खण्ड 'समारंभ'में तीन नवगीत-कवियों की तीन-तीन नवगीत कवितायें, तो दूसरे खण्ड 'नवरंग'में नौ नवगीत कवियों की नौ-नौ नवगीत कवितायें शामिल की हैं। शामिल की गई ये कवितायें कवि की रचना-दृष्टि के साथ संपादक की वैचारिक-दृष्टि और काव्य-दृष्टि के संकेत देती हैं, संपादक के निरपेक्ष और तटस्थ रहने के किसी दावे के बावजूद (यद्यपि पुस्तक की सम्पादकीय में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है)। आशय यह कि नवगीत कविता भी अपने सर्वांश में किसी वाद, मत, विचारधारा आदि के प्रति विराग भाव की घोषणा करती है। किन्तु, मनुष्य और मनुष्यता के कल्याण व उसकी वाणी बनने के प्रति प्रतिबद्धता किसी भी तरह की कला के मूल में होती है। नवगीत कविता की इस दृष्टि की पक्षधरता के कारण संपादक ने जीवन-स्थितियों के ऐसे नवगीत चुने हैं, जिनमें जीवन का संघर्ष है, विषमताओं और संताप से भरे क्षणों में भी जीवन और संबंधों के प्रति अनुराग और उम्मीद भरते चित्र हैं। इन चित्रों में पेड़, नदी, खेत, कोपल सभी कुछ तो है। 

इस किताब में जो पहली रचना डॉ शंभुनाथ सिंह का चर्चित नवगीत- 'सोन हँसी हँसते हैं लोग/ हँस-हँसकर डसते हैं लोग'है और 'नवरंग खण्ड के अंतिम कवि रमाकांत की अंतिम रचना- 'बदलेंगे दिन'किताब का अंतिम नवगीत है। शंभुनाथ सिंह जी के नवगीत में जहाँ मनुष्य की छद्मवृत्ति को दिखाया गया है, वहीं रमाकांत के नवगीतों में हार-थकन के बावजूद जीवन संघर्ष करते हुए पतझड़ के बीत जाने की आहट है। उम्मीद भी है। देखें-

साँझ हुई/ हम हारे-थके/ नीड़ को आये 

दाना-पानी/ यहाँ-वहाँ खोजा-बीना 
छीना-झपटी/ हर पग पर मुश्किल जीना 

लड़ते रहे/ कवच अपना/ मजबूत बनाये 
... 
देखो, रुको!/ समय का पतझड़/ बीता जाये। 

'समारंभ'खण्ड में नवगीत कविता की अब तक की काव्य-प्रवृत्तियों और कथ्य-दृष्टि में आया हुआ अंतर दिखाते हुए इन रचनाओं के साथ सभी काव्य-विधाओं के सापेक्ष नवगीत कविता के भी हर दौर में आदिम रागबोध, निकट उपलब्ध प्राकृतिक उपादानों के प्रति आत्मीयता और उनकी आड़ लेकर यानी उनको बिंब-प्रतीक बनाकर मनुष्य की रागात्मकता, जिजीविषा, संघर्ष और ताप को व्यक्त करने का मोह और कौशल आद्यांत विद्यमान देखा जा सकता है। यह सब हम इस पुस्तक में शंभुनाथ सिंह, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, राजेंद्र प्रसाद सिंह से लेकर गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, शांति सुमन, राम सेंगर, नचिकेता, वीरेंद्र आस्तिक, बुद्धिनाथ मिश्र, विनय भदौरिया और रमाकांत तक भी बराबर बना हुआ देखते हैं। देखें- "पुरवा जो डोल गई/ घटा-घटा आँगन में/ जूड़े-सा खोल गई/ गाँवों की रौनक है/ मेहनत की बाहों में/ धोबन भी पाटे पे/ हइया छू बोल गई।"या-  "मेरी कोशिश है/ कि नदी का बहना मुझमे हो" (डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया) जैसी संपूर्ण भारतीय संस्कृति की 'सर्वे भवंतु सुखिनः'की कामना से भरी नवगीत-कविता; इतना ही नहीं, नवगीत-कविता में आद्यांत चर्चा में रहने वाली उसकी विशेषता 'शिल्पगत प्रयोग'को समारंभ के तीसरे कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह के नवगीतों में देखा जा सकता है। छठवें-सातवें दशक के इस नवगीत कवि में सामाजिक-वैचारिक बदलाव के उस आत्महंता नैराश्य में परिणति को भी देखा जा सकता है, जो आज की प्रमुख समस्याओं में से एक है। देखें- 

इधर एक पोखर है/ उधर एक नदी 
और बीच में सड़क हुई खतम,
ए जी! किधर जाएँ हम!

सड़क एक लम्बी/ जो आँगन में जनमी 
दरवाजे से निकली तो बहक गई 
चौकों पर अँटकी/ बाजारों में भटकी 
थककर टूटी सीढ़ी से लटक गई!

कूदे वह और बँधे पानी में डूबे 
या कि दौड़कर पकड़े नाव?

इधर वही सीढ़ी है/ उधर घाट-गली 
और गाँठ बना नीति का भरम,
ए जी! किधर जाएँ हम!

पुस्तक के दूसरे खण्ड 'नवरंग'में प्रवेश करते ही 1940 में जन्मे और आज के शीर्षस्थ नवगीत कवि गुलाब सिंह की नवगीत कवितायें पाते हैं। गुलाब सिंह एक अलग ही रंग के कवि हैं। भारतीय गाँवों की दशा और दुर्दशा के बहाने सामाजिक बदलावों के साथ व्यवस्था-रचित छद्म व व्यक्ति पर उसके प्रभाव तथा भूख से जूझते आदमी की आशाओं-आकांक्षाओं और संघर्षों के चित्र उनकी कविता में मिलते हैं। उनकी कविताओं में लय, छंद, प्रवाह की विद्यमानता कविता को पाठक के भीतर उतारने में समर्थ है। देखें- 

यह शहर का घाट है/ पानी नहीं, सीढ़ी तो है 
इस सदी का सफर है/ सपने नहीं, पीढ़ी तो है। 

 या      

शब्दों के हाथी पर/ ऊँघता महावत है 
गाँव मेरा लाठी और/ भैंस की कहावत है 

शीत-घाम का वैभव/ रातों का अंधकार 
पकते गुड़ की सुगंध/ धूल-धुएँ का गुबार 

पेट-पीठ के रिश्ते/ ढो रहा यथावत है। 

नवरंग के दूसरे कवि मयंक श्रीवास्तव की नवगीत कविताओं में ग्राम्य-रति के साथ ज्यादातर चिंता खेमों में बटते लोगों, बढ़ती महंगाई और प्रकृति के अनियंत्रित दोहन को लेकर भी दिखाई पड़ती है। उनकी, "चले जा रहे लोग यहाँ/ खेमों में बंटे हुए/ एक दूसरे से लम्बे/ अरसे से कटे हुए"या- "आग लगती जा रही है/ अन्न-पानी में/ और जलसे हो रहे हैं/ राजधानी में"अथवा- "जब से नदिया पर डाका/ डाला है बिल्डर ने/ बंद किया खैरियत पूछना/ जालिम अंबर ने"जैसी नवगीत कवितायें इस संकलन में संकलित हैं, जो सहज भाषा-शैली में होने के बावजूद गहरी अर्थ व्यञ्जना से भरी हुई हैं। 

अपने समय में नवगीत कविता को मंचो पर पूरी ठसक के साथ जमाये रखने वाली कवयित्री शांति सुमन को नवरंग के तीसरे कवि के रूप में लिया गया है। शांति सुमन जी की नवगीत कविताओं में कथ्य की दृष्टि से अच्छा वैविध्य देखने को मिलता है। इन्होंने "दरवाजे का आम-आँवला,/ घर का तुलसी चौरा/       इसीलिए अम्मा ने अपना,/ गाँव नहीं छोड़ा"लिखकर, जहाँ संतति के लिए अपनी सारी इच्छाएँ दबाकर जीने वाली माँ की ग्राम्य-रति का मूल खोजने की कोशिश की है, वहीं 'आ गए काली आँधियों के दायरे में हम/ खेत में जलती फसल-सी जिंदगी'जैसी कविता लिखकर वे बदहाल किसान और आज के मनुष्य की त्रस्त जीवन स्थिति का चित्र भी अंकित करती हैं। साथ ही वे 'भीतर-भीतर आग भरी है बाहर तो सन्नाटा है', 'इस अकाल में बच्चे रोते मुंह में कौर नहीं', जैसी नवगीत कविताओं के साथ वत्सलता की वास्तविक और भीतर तक उतर जाने वाली अनुभूति की विरल नवगीत कविता रचती हैं। देखें- 

धीरे पाँव धरो!
आज पिता-गृह धन्य हुआ है 
मंत्र-सदृश उचरो!

तुम अम्मा के घर की देहरी 
बाबूजी की शान 
तुम भाभी के जूड़े का पिन 
भैया की मुस्कान 

पोर-पोर आँगन के 
लाल महावर-सी निखरो! 

आइये अब नवरंग के चौथे कवि के रूप में नवगीत कविता के विलक्षण और सर्वाधिक शिल्पगत प्रयोगों के साथ जीवन-स्थितियों के अनुभूतिजन्य, जीवंत चित्र उकेरने वाले कवि राम सेंगर को पढ़ते हैं। देखें- "खेत-कोनियाँ-पार सभी गरकी में आये/ बारिश ने सब इस गरीब के रंग उड़ाये/ कैसा कहर हमारे ऊपर प्रभु ने ढाया है/अबकी यह आषाढ़/ तबाही लेकर आया है"या "रंग-भेद, पाखंड, धरम के/ तोप, तमंचे, बम/ इतना तय है, हर कीमत पर/ बचे रहेंगे हम।"यहाँ  संपादक ने जहाँ उनके 'चढ़ी बाँस पर नटनी', 'चीरें एक, बघारें पाँच', 'अबकी यह आसाढ़', 'मन की कौंध जगाये', जैसे व्यापक और समष्टिगत संवेदनाओं के नवगीत शामिल किये हैं, वहीं 'रहे आदमी कोरे', हवेलियों का गाँव हमारा','लय पकड़ने की कवायद'और''अपने भी दिन आएँगे'जैसी नवगीत-कवितायें भी शामिल की हैं, जिनमें कवि के निजी जीवन के अक्श तो हैं ही, विडम्बनापूर्ण जीवन-स्थितियों के चित्र भी पूरी संवेदना से पगे हुए दिखाई पड़ते हैं; दरअसल ये कवि की ऐसी जीवनानुभूतियाँ हैं, जो अधिसंख्य आम आदमी की जीवन-स्थितियों से पैदा हुई हैं। वे यह सब लिखते हुए आशा का ऐसा वितान भी तानते हैं जो  दुनिया से टकरा जाने की ताकत पैदा कर देती है।
               
'नवगीत वाङ्मय'के नवरंग खंड के पांचवें कवि नचिकेता जनवादी तेवर की अपनी नवगीत कविताओं और उनके मुखर पक्षधर कवि के रूप में जाने जाते हैं। वह कई-कई संदर्भों में कविता के एकाधिक प्रारूपों में लिखते रहे हैं, किंतु उनका प्रतिबद्ध स्वर जनपक्षधरता का ही है। यहाँ भी उनकी इस सोच के नवगीतों का चयन कर संपादक ने नचिकेता की उपस्थिति को और पुख्ता किया है। यथार्थ बनाया है। देखें - "फूल गया महुआ/ अच्छे दिन आने वाले हैं/ वनवासी चेहरे थोड़ा/ मुस्काने वाले हैं"और "पर, महुआ की/ खैर नहीं है ठेकेदारों से/ हरियाली गुम होगी/ जंगल और पहाड़ों से/ खेल सियासी इन पर/ बज्र गिराने वाले हैं।"गाँव में हुए और हो रहे बदलाव गीत कविता के लगभग हर कवि का विषय बने हैं। नचिकेता जी के नवगीतों में भी यह बार-बार अंकित होता है। जहाँ साहित्य में कभी गाँव के प्रति आत्मीय लगाव नॉस्टैल्जिया की तरह लिखा गया, वहीं एक अंतराल के बाद आज वह लगाव कहीं दिखता ही नहीं है। इस बदलाव को अंकित करते हुए नचिकेता मानो समय, समाज और पीढ़ी के ही बदलाव को अंकित कर रहे हैं। देखें-

नयी सदी की 
नयी इबारत लिखता मेरा गाँव 

युवा वर्ग को रहा नहीं 
गाँवों से तनिक लगाव 
अपनेपन की कब्र खोदता 
है चेहरे का भाव 

काम-धाम का 
टारगेट है लुधियाना-पंजाब।

नवरंग के छठवें कवि के रूप में संपादक ने वीरेंद्र आस्तिक जी की नवगीत कविताओं को शामिल किया है। यहाँ संकलित पहला ही नवगीत "तुम नायक"में कवि उस व्यक्ति के प्रति अपनी पक्षधरता की घोषणा करता है, जो निरीह है और सदैव ताकतवर लोग उसे सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर ऊपर चढ़ जाते हैं। वे उससे कोई आत्मीयता, निकटता या संवेदना भी नहीं रखते- "तुम नायक मेरी कविता के/ जबर बना कर तुमको सीढ़ी/ आसमान पर चढ़ जाते हैं।/ तुम हो कितने पास मगर वे/ कितने दूर-दूर रहते हैं/ कहने भर को महानगर में/ झुग्गी और महल रहते हैं/ बराबरी के बन प्रतीक वे/ 'राजघाट'तक हो आते हैं।"यहाँ यह कवि ऐसे आगे बढ़ने वाले लोगों में 'उपन्यास सम्राट'सहित 'स्लमडॉग'जैसी फिल्म बनाकर झुग्गी-झोपड़ियों के बीच पलती प्रतिभा की पहचान की कोशिश करने वाले निर्माता-निर्देशक और साहित्य-जगत के आलोचकों तक को अपने प्रश्नों के घेरे में लेते हैं- "उपन्यास सम्राट बने वो/ जस के तस तुम धनिया-गोबर/ तुमको पढ़-पढ़ हुए यहाँ पर/ बड़े नामवर, बड़े मनीजर/ तुम ही तो 'स्लमडाग'तुम्हीं पर/ लोग पुरस्कृत हो जाते हैं।"यहाँ कोई आलोचक कह सकता है कि कवि जिन प्रतीकों के सहारे प्रश्न खड़ा करता है, यदि रचनाकार इन प्रतीकों को लेकर यह भी नहीं करेंगे, तो समस्या कभी दिखाई ही नहीं पड़ेगी और यदि इस तरह के प्रयत्नों पर ही उंगली उठने लगे और वह भी प्रबुद्ध और चिंतक कवियों के द्वारा, तो समस्याओं पर लिखना ही रुक जाएगा। वास्तव में इस नवगीत में कवि संघर्षरत मनुष्य के जीवन में सार्थक बदलाव न आने से चिंतित दिखाई पड़ रहा है। इसके बाद के शामिल आस्तिक जी के गीत 'पेड़ों से बतियाएँ', वनवासी जीवन की इस समाज के लिए सार्थकता की बात करता है, तो वहीं 'काम अपना क्या यहाँ', 'बाजारें हैं रिश्तों की', 'हम जमीन पर ही रहते हैं'जैसी नवगीत कविताओं में उत्तर आधुनिक संस्कारों की जकड़बंदी से आहत होते मन की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ "दासता करता कुबेरों की थका'', 'मैं समय हूँ, अब बदल डालो मुझे'जैसा प्रतिरोध को आमंत्रित करता समकाल का गीत है।   

'नवगीत वाङ्मय'में नवरंग के सातवें कवि बुद्धिनाथ मिश्र हैं। ये नवगीत कविता को कविता की श्रुति परंपरा में मंचों पर पूरी ताकत से बनाये और बचाये रखने वाले बड़े कवि हैं। यहाँ सम्मिलित नवगीतों में बुद्धिनाथ मिश्र हर उस शोषित, दलित और पिछड़े रह गये व्यक्ति के साथ खड़े दिखाई देते हैं, जो पूँजी, राजनीति, बाजार आदि किसी भी कारण से शोषण का शिकार हुए हैं। वे लिखते हैं- "मैं वहीं हूँ, जिस जगह पहले कभी था/ लोग कोसों दूर आगे बढ़ गए हैं"और "भूखे-प्यासे रहकर पुरखे जिए अकालों में/ मरा डूबकर गाँव कर्ज के गहरे तालों में।"इनके साथ ही "नदी रुकती नहीं है/ लाख चाहे सेतु की कड़ियाँ पिन्हा दो/ ओढ़कर शैवाल वह चलती रहेगी"जैसा व्यञ्जना भरा नवगीत भी यहाँ पढ़ा जा सकता है। 

नवरंग खंड के सातवें कवि बुद्धिनाथ मिश्र का जन्म 1949 में हुआ, वहीं आठवें कवि विनय भदौरया का जन्म 1958 में होता है। संपादक ने जहाँ सन् 1940 से 1950 के बीच जन्में सात कवि शामिल किये हैं, वहीं वह अगले दो दशकों से एक-एक नवगीतकार ही रखता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि आखिर सम्पादक पूरे एक दशक को पूरी तरह छोड़कर छलाँग लगाते हुए सीधे सन् 1958 में क्यों पहुँच गया है। यहाँ यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है कि क्या इस अवधि में पैदा होने वाले कवियों में कोई उल्लेखनीय नवगीत कवि नहीं हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि संपादक ने भविष्य की किसी योजना को ध्यान में रखकर ऐसा किया हो? खैर.... यह संपादक का अपना निर्णय है, किंतु प्रश्न से परे फिर भी नहीं है। 

डॉ विनय भदौरिया ग्राम्य रति की आत्मीयता में पगे नवगीत कवि हैं। उनके गीतों में गाँव का वह आत्मीय चेहरा भी दिखता है और उसके सापेक्ष शहर का अजनबीपन, स्वार्थीपन तथा बदलता हुआ गाँव भी दिखाई पड़ता है। देखें - "वैसे पुरखों की देहरी से/ अब भी रहा लगाव हमें/ मजबूरी में पड़ा छोड़ना/ भैया अपना गाँव हमें/ रास न आता अब पड़ोस का/ कोई आज स्वभाव हमें।/ रात-रात चलती पंचायत/ व्यर्थ पनालों-नाबदान की/ इधर हमारे घर में उत्सव/ उधर बैठकें खानदान की/ न्याय-अहिंसा और प्रेम का/ खटका बड़ा अभाव हमें।"विनय भदौरया मानुषी प्रवृत्तियों के साथ आध्यात्म को भी नवगीत बनाने वाले कवि हैं। इस दृष्टि से ये नवगीत कविता को एक विस्तार देते हैं।
 
नवरंग खण्ड के अंतिम रचनाकार रमाकांत अपने खास तेवर के नवगीतों के लिए पहचान बनाने में सफल नवगीत कवि हैं। उनकी नवगीत कविताओं में सर्वत्र निरंतर मेहनत करने के बावजूद अभाव, गरीबी, तिरस्कार, विकट जीवन स्थितियों से जूझते मनुष्य के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। देखें- "हर सुबह उठना/ समय को ताकना फिर/ एक कोल्हू बैल वाला/ हाँकना फिर"या फिर- "जागे तुम अक्सर ही भाई/ फिर भी जागृति रही पराई/ जाल और फन्दे ऐसे थे/ तड़पन ही हिस्से में आई/ निर्दय, कलावंत लोगों से/ तुम भी डरते हो।"
 
इस तरह 'नवगीत वाङ्मय'के रूप में संपादक डॉ अवनीश सिंह चौहान ने एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। एक लंबे कालखंड को समेटने जैसे मुश्किल काम को उन्होंने बड़ी सूझबूझ से किया है। यद्यपि यहाँ दो चीजें हुई हैं- एक तो सन् 1950 से 1960 और 1960 से 1970 के बीच जन्में कवियों का प्रतिनिधित्व अति न्यून रह गया है। कुछ और लोगों को शामिल करते तो शायद इन कालखण्डों के लेखन की कुछ और प्रवृत्तियाँ सामने आ पातीं। दूसरा 1970 के बाद जन्म लेने वाले नवगीतकवियों पर अभी काम बाकी है। इन सारी सीमाओं के बावजूद यह संकलन इस दृष्टि से भी उल्लेखनीय माना जाएगा कि संपादक ने जहाँ 'समारंभ'में शामिल नवगीत कवियों के चर्चित नवगीत लिए हैं, वहीं 'नवरंग'में शामिल नवगीतकवियों की उन कविताओं को भी शामिल किया है, जो प्रायः उतनी चर्चित नहीं रहीं और उनके यहाँ होने से इन नवगीत-कवियों के और-और रूपों को विमर्श के दायरे में लाया गया है। तीसरे खण्ड में दिनेश सिंह जी का आलेख और चौथे खण्ड में डॉ मधुसूदन साहा जी का साक्षात्कार भी नवगीत की संवेदना और सरोकारों को जानने-समझने के लिए विस्तृत विश्लेषण की माँग करते हैं।  

'नवगीत वाङ्मय'शीर्षक से यह समवेत संकलन नवगीत वाङ्मय से चुनी हुई श्रेष्ठ कविताओं का गुलदस्ता है। निश्चित ही यह कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय माना जाएगा। इस ग्रन्थ के संपादक अवनीश सिंह चौहान जी को हार्दिक शुभकामनाएँ, बधाई।

समीक्षक : 
राजा अवस्थी 
गाटरघाट रोड, आजाद चौक 
कटनी-483501 (मध्य प्रदेश) 
मोबा.- 9131675401 
ईमेल- raja.awasthi52@gmail.com

Book Review of Navgeet Vangmaya. Raja Awasthi

अतीत से वर्तमान : नवगीत वाङ्मय — डॉ रणजीत पटेल

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[पुस्तक : नवगीत वाङ्मय, संपादक : अवनीश सिंह चौहान, प्रकाशक : आथर्सप्रेस, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष : 2021 (संस्करण प्रथम, पेपर बैक), पृष्ठ : 174, मूल्य रु 350/-]

इक्कीसवीं सदी में देखा गया है कि लगभग हर दो-तीन वर्ष में नवगीत के संकलन प्रकाशित हो रहे हैं, जिनमें कुछ वृहद संकलन हैं, तो कुछ संक्षिप्त भी। इन संकलनों के द्वारा नवगीत सृजन के समसामयिक परिदृश्य को प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है। इस क्रम में सद्यः प्रकाशित संकलन- 'नवगीत वाङ्मय'यशस्वी नवगीतकार एवं संपादक डॉ अवनीश सिंह चौहान के संपादन में प्रकाशित हुआ है। यह संकलन चार उपशीर्षकों में संयोजित है। पहला भाग- 'समारंभ'है, जिसमें क्रमशः जन्मतिथि के अनुसार डॉ शम्भुनाथ सिंह, डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरियाएवं राजेंद्र प्रसाद सिंहशामिल है। इन वरिष्ठ नवगीतकारों के तीन-तीन नवगीत उद्धृत हैं। दूसरा भाग- 'नवरंग'है, जिसमें गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, शांति सुमन, राम सेंगर, नचिकेता, वीरेंद्र आस्तिक, बुद्धिनाथ मिश्र, विनय भदौरियाएवं रमाकांतशामिल हैं। इन सभी के नौ-नौ नवगीत उद्धृत हैं। तीसरा भाग- 'अथ-बोध'है, जिसमें नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर एवं 'नये-पुराने'पत्रिका के संपादकदिनेश सिंहका आलेख- 'गीत की संघर्षशील जयी चेतना'पठनीय है। अंतिम भाग में वरिष्ठ नवगीतकार डॉ मधुसूदन साहाजी से डॉ अवनीश सिंह चौहान द्वारा लिया गया विशिष्ट साक्षात्कार है। यानी कि पूरे संकलन में अतीत से वर्तमान तक नवगीत की दशा-दिशा का बोध होता है। 

भूमिका- 'प्रसंगवश'में संपादक डॉ अवनीश जी द्वारा संक्षिप्त, किंतु सारगर्भित समालोचनात्मक आलेख प्रस्तुत किया गया है। आजकल नवगीत पर केंद्रित कतिपय प्रसंगों को अलग रखकर देखें, तो यह विमर्श अत्यंत प्रभावी एवं उपयोगी है। कहने को तो कोई भी संकलन या ग्रंथ परिपूर्ण नहीं होता है- 'रामचरितमानस'भी नहीं है। यहाँ आधुनिक कवि मैथिलीशरण गुप्त के 'साकेत'को भी उदाहरणस्वरूप दिया जा सकता है। 'नवगीत वाङ्मय'में अवनीश जी ने अपने 'वाङ्मय कौशल'का भरपूर उपयोग किया है। 'वाङ्मुख से साक्षात्कार तक'यह संकलन ध्यानाकर्षक है। खास बात यह भी है कि संपादक अवनीश सिंह चौहान स्वयं नवगीत के अच्छे रचनाकार हैं। पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों में छपते रहते हैं। इनका नवगीत संग्रह- 'टुकड़ा कागज़ का'प्रकाशित है, फिर भी अपने आप को इस संकलन से अलग रखा है। आज के समय में लोभ-संवरण कोई आसान कार्य नहीं है। सच्चाई है कि कुछ रचनाकार जब आलेख लिखते हैं, तब उन्हें अपनी रचनाओं के उदाहरण देने में थोड़ी भी हिचक नहीं होती है। 

अब प्रश्न उठता है कि क्या संकलन में शामिल सभी नवगीतकार वाङ्मय निपुण हैं? अगर हैं, तो कहा जा सकता है कि समय को देखने और पहचानने की दृष्टि अलग-अलग होगी ही। निहितार्थ नगण्य अपवादों के होते हुए भी संपादक को 'नवगीत वाङ्मय'के सृजन परिदृश्य को प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण सफलता मिली है। संपादक डॉ अवनीश ने जिन तब और अब के कवियों को समग्र रूप में सम्मिलित करने का कठिन प्रयास किया है और इसके माध्यम से उन्होंने जिस संपादन कौशल का परिचय दिया है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। 'प्रसंगवश'में डॉ अवनीश जीसाफ-साफ कहते भी हैं— 
 
"समय-समय पर प्रबुद्ध नवगीतकारों के साथ-साथ समर्पित सम्पादकों ने भी समाज-निर्माण के उद्देश्य से नवगीत की वैश्विक चेतना का विस्तार करने की भरपूर कोशिश की है। ऐसी ही एक छोटी-सी कोशिश के रूप में इस 'नवगीत वाङ्मय'को देखा जा सकता है।"

जाहिर है कि 'कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।'छोटी-सी कोशिश एक गिलहरी ने की, पुरुषोत्तम रामका आशीर्वचन मिला था। गीत एक ऐसी विधा है, जिसे कोई खारिज नहीं कर सकता है। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंहकहते हैं- "यदि विद्यापति को हिंदी का पहला कवि माना जाए, तो हिंदी कविता का उदय ही गीत से हुआ, जिसका विकास आगे चलकर संतो और भक्तों की वाणी में हुआ" (प्रगति और समाज, पृ. 109)। समयानुसार गीत की काया बदली, किंतु आत्मा नहीं। कभी इसका स्वर मंद भी हुआ, किंतु बंद नहीं हुआ। गीत के स्वर्णकाल को आज भी याद किया जाता है। स्वर्णकाल से भी गीतकारों को संतुष्टि नहीं मिली, इसका कारण भी भिन्न-भिन्न विद्वानों के द्वारा स्पष्ट किया जाता रहा है। आजादी के बाद औद्योगिकीकरण, आधुनिकतावाद, बाजारवाद एवं उत्तर संस्कृति जैसी अवधारणाएँ पूरी दुनिया में फैलने लगीं। इसका प्रभाव साहित्य पर भी होने लगा। नई कहानी, नई कविता, नवगीत इत्यादि इस बदलती दुनिया की ही देन है। यह भी सही है कि नई कविता की प्रतिक्रिया में गीत को नवगीत कहा गया। 1958 में राजेंद्र प्रसाद सिंहने 'गीतंगिनी'पत्रिका में ऐसे गीतों को नवगीत संज्ञा से प्रतिपादित किया। प्रारंभ में नामकरण का श्रेय लेने के लिए 'वाक्-युद्ध'भी होता रहा। अनुसंधान में प्रमाण की आवश्यकता होती है, नवगीत की प्रगति में डॉ शम्भुनाथ सिंह का ऐतिहासिक योगदान है। इस प्रसंग में जनवाद के वरिष्ठ गीतकार रमेश रंजकलिखते हैं- "गीतंगिनी'की भूमिका में प्रकाशित नवगीत के इस 'मेनिफेस्टो'को वाराणसी से प्रकाशित होने वाली 'वासंती'मासिक पत्रिका के 'नये गीत : नये स्वर'लेख माला (1961-62) में डॉ शम्भुनाथ सिंह ने कुछ और आगे इस प्रकार बढ़ाया - गीत रचना की परंपरा-पद्धति और भाव-बोध को छोड़कर नवीन पद्धति और विचारों के नवीन आयामों तथा नवीन भाव सारणियों को अभिव्यक्त करने वाले गीत जब भी और जिस युग में लिखे जाएंगे, नवगीत कहलाएंगे" (नये गीत का उद्भव एवं विकास, पृ. 109)। प्रारंभ से अब तक नवगीत हम-ग्रस्त है। यह नवगीत की सेहत के लिए अच्छा नहीं है। नवगीत को शिखर तक ले जाने के लिए इस हम को दूर करना होगा। स्वस्थ आलोचना किसी भी विधा के लिए आवश्यक है। वह 'हम-ग्रस्त'नहीं होनी चाहिए। हम दावे से नहीं कह सकते हैं कि किंतु देखा जाता है कि कुछ लोग व्यक्तिगत जीवन में कुछ, सर्जना में कुछ और होते हैं। गीत उद्योग का सांचा लेकर बैठे रहते हैं, ताकि बड़ी उपलब्धि प्राप्त की जा सके। 

बहरहाल, 'नवगीत वाङ्मय'के 'समारंभ'में जन्म-तिथि क्रमानुसार तीन वरिष्ठ नवगीतकार प्रारंभिक दौर के हैं। इन तीन नवगीतकारों के तीन-तीन नवगीत उद्धृत है। मूलतः उनके नवगीतों में सामाजिक प्रतिबद्धता है, जीवन यथार्थ तथा मानवीय रिश्तों के पुनर्गठन की चेतना है। अमानवता के प्रति रोष है, किंतु उथल-पुथल मचाने वाला शोर नहीं है। युग-समय एवं आदमी के मर्म को महसूस कर जो रचनाएँ होती हैं, वैसी रचनाएँ इतिहास में स्थाई रहती हैं। डॉ शम्भुनाथ सिंहके नवगीत जातीय परंपरा को पुष्ट करते हैं- “देश हैं हम/ महज राजधानी नहीं।/ हम नगर थे कभी/ खण्डहर हो गए/ जनपदों में बिखर/ गाँव, घर हो गए/ हम जमीं पर लिखे/ आसमाँ के तले/ एक इतिहास जीवित/ कहानी नहीं।/ हम बदलते हुए भी/ न बदले कभी/ लड़खड़ाए कभी/ और सँभले कभी/ हम हजारों बरस से/ जिसे जी रहे/ ज़िन्दगी वह नई/ या पुरानी नहीं।“  

‘हम’ बदलते हुए भी भीतर से नहीं बदले हैं। शम्भुनाथ जीअतीत को याद करते हुए वर्तमान में पहुंच जाते हैं। उन्होंने प्रायः अनदेखी और उपेक्षित सच्चाइयों को अपने नवगीत में संवेदनात्मक विमर्श का विषय बनाया है। उनकी आकांक्षा की जमीन उर्वर है। डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरियाइसे अपने ढंग से सुदृढ़ करते हैं- “अपनी शर्तों पर जीने की/ एक चाह सबमें रहती है/ किन्तु जिंदगी अनुबंधों के/ अनचाहे आश्रय गहती है/ क्या-क्या कहना, क्या-क्या सुनना/ क्या-क्या करना पड़ता है।/ समझौतों की सुइयाँ मिलतीं/ धन के धागे भी मिल जाते/ सम्बंधों के फटे वस्त्र तो/ सिलने को हैं सिल भी जाते/ सीवन, कौन कहाँ कब उधड़े/ इतना डरना पड़ता है।” स्थिति स्पष्ट है कि समझौतों की सुई एवं धन के धागे के बीच जिंदगी उलझ कर रह गई है। पैबंद लगाकर कब तक जिया जा सकता है। शिवबहादुर जीके नवगीतों में जीवन की समग्रता तक पहुँचने का खुला प्रयास मिलता है।

नवगीत संज्ञा के प्रणेता राजेंद्र प्रसाद सिंहको आधुनिकता की आँधी में जातीय विरासत को बचा लेने की चिंता है- "उतरे जहाज से जो/ जीवन के नये-नये बटखरे/ मैं तुलने लगी उन्हीं से/ फिर वायुयान से उतरे/ जो संबंधों के ग्रह-तारे/ मैं जुड़ने लगी उन्हीं से/ मैं आधुनिका हूँ संदेही/ — तुम क्या हो?"यहाँ आधुनिका कौन है? समय की रंगत में पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण है। याद करें आदि कवि विद्यापतिको- "देसिल बयना सब जन मिट्ठा।"आज आधुनिकता के दौर में शहर गाँव में प्रवेश कर गया है। युगबोध से संपृक्त 'समारंभ'के नवगीतकारों को मूल रूप से अपनी संस्कृति को बचा लेने की चिंता है।

'नवरंग'उपशीर्षक 'नवगीत वाङ्मय'का द्वितीय अध्याय है। 'नवरंग'में नौ रचनाकारों के नौ-नौ नवगीत हैं। उम्र के हिसाब से सात पुराने एवं दो नये नवगीतकार हैं। सभी समान विचारधारा के हैं। लिखने की भाव-भंगिमाएँ अलग-अलग हैं। इनमें सबसे पहले गुलाब सिंह जी हैं। गुलाब सिंहभीड़ से अलग रहते हैं। तटस्थ भाव से चुपचाप समय की रंगत को करीने से व्यक्त करते हैं— 

छंदों में जीने के सुख संग/ शब्दों की विभुता
दर्द और दुख भी गाने की/ न्यारी उत्सुकता
भाव, कल्पना, संवेदन/ ले भीतर बसा प्रयाग। 

और-

सघन भीड़ में बचे ‘आदमी’/ उसका आदमकद हो
गए प्यार का नए गीत में/ आगम ही ध्रुवपद हो
धुले मैल, निखरे मानवता/ चमक उठे बेदाग।

स्पष्ट है कि गीत का वंशज नवगीत है। नवगीतकार गुलाब सिंह'नये गीत'के लिए 'गीत'को खारिज करना नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिये वे 'धुले मैल, निखरे मानवता'की सुन्दर कामना करते हैं।

ऐसी ही कामना के पक्षधर कवि मयंक श्रीवास्तवजी हैं, जो बेबाक कह भी देते हैं- 'गीत और नवगीत की पीड़ा में कोई विशेष फर्क नहीं होता है।'यह बात किसी बड़े कवि की पहचान के लिए काफी है। मयंक जी के नवगीतों में, जो सामाजिक ताना-बाना है, वह औरों से अलग है। वे अपने आसपास के बिम्बों से बड़ी इमारत खड़ी करते हैं। वे सरल भाषा में संश्लिष्ट कहने वाले कवि हैं- "कोलाहल में एक बात/ यह मुझको भी कहने दो/ मेरा गाँव अगर छोटा है/ छोटा ही रहने दो।/ बड़े नगर की देख रोशनी/ बेसुध हो जाएगा/ पता नहीं है किस बंगले में/ पूरा खो जाएगा/ जब तक भी बह सके/ हवा पावन होकर बहने दो।"मयंक जी हार नहीं मानते हैं, उम्मीद में जीते हैं, थोड़े में गुजारा करना जानते हैं, आशान्वित भी हैं कि एक रोज विद्रूप समय भी बदलेगा।

नवगीत की प्रथम कवयित्री डॉ शान्ति सुमनने अपनी राह खुद बनायी है। वे घर, परिवार, प्रकृति से बिंब लेकर सामाजिक असमानता के विरोध में गीत-नवगीत रचती रही हैं। वे कभी-कभी समय की प्रतिकूलता से जूझते हुए अतिक्रमण भी करती हैं- "दहशतों की नींद सोयी/ हर गली, हर मोड़/ देर कुछ जीकर मरा है/ रोशनी का मोर/ छू गया हो पाँव जैसे आग से/ धुंआ, कुहरा, रैन-छल-सी जिंदगी।"आलोचक डॉ रेवती रमणके शब्दों में "शांति सुमन नवगीत की अकेली कवयित्री मान्य हैं। इनके नवगीतों का उपजीव्य मिथिला की जनपदीय संस्कृति है, जनपदीय पर्यावरण और जीवन द्रव्य उन्हें गीतमय सुलभ है।"

राम सेंगर जी ख्याति प्राप्त नवगीतकार हैं। उनकी दृष्टि साफ है। वे इस संकलन में अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहते भी हैं- "बौद्धिक विश्लेषण द्वारा जीवन स्थितियों के आर-पार देखने की सर्जनात्मक आत्म-दृष्टि नवगीत के पास है।"इसीलिये राम सेंगर जी कबीरकी तरह खरी-खरी कहते हैं—

बने अलग माटी के ये सब/ नामी और गिरामी 
गैरत बची रहे मत करना/ इनकी गोड़-गुलामी 

इनकी नीयत से टकराना/ लेश नहीं मिमियाना 

ठाकुर, बामन, बनियों में तुम/ ठहरे निरे छदामी 
खाल न उधड़े, ये जो ठहरे/ बड़े-बड़े आसामी 

इनकी फितरत से टकराना/ खुद को ढाल बनाना।

आजादी के वर्षों बाद भी आम आदमी हाशिए पर खड़ा है। प्रतिरोध के स्वर गूँज रहे हैं। जन-मन के वरिष्ठ गीतकार नचिकेता जी समय यथार्थ एवं सुविधाभोगी वर्ग के प्रति रोष व्यक्त करते हैं- "यहाँ नहीं होती अब/ उत्सव-त्योहारों की बात/ ठर्रे-विस्की की बोतल में/ गर्क हुए जज्बात/ तुलसी-चौरा सूनेपन का/ है बन गया पड़ाव।/ युवा वर्ग को रहा नहीं/ गाँवों से तनिक लगाव/ अपनेपन की कब्र खोदता/ है चेहरे का भाव/ काम-धाम का/ टारगेट है लुधियाना-पंजाब।"पुस्तक में संकलित कुछ नवगीतों में नचिकेता जी का प्रेम और प्रकृति से भी गहरा लगाव दिखाई पड़ता है।

कहते हैं कि कविता की वापसी आठवें दशक में हुई थी। यही वह समय था जब 'नवगीत दशक' (सम्पादक- डॉ शम्भुनाथ सिंह) अपनी आभा बिखेर रहा था। दूसरी ओर रमेश रंजकएवं रवींद्र भ्रमरजैसे गीतकार अपना परचम लहरा रहे थे। इसी दौर में सुकंठ कवि वीरेंद्र आस्तिकधीरे-धीरे राष्ट्रीय स्तर पर उभर रहे थे। आस्तिक जीबड़े सहज एवं ईमानदार नवगीतकार हैं। किसी खास 'वाद'से इनका जुड़ाव नहीं है। संवेदनशील हैं, सो इनके कवि की नजर हर तरफ रहती है। आस्तिक जी का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है- "हम जमीन पर ही रहते हैं/ अम्बर पास चला आता है।/ अपने आस-पास की सुविधा/ अपना सोना अपनी चांदी/ चाँद-सितारों जैसे बंधन/ और चाँदनी-सी आजादी/ हम शबनम में भींगे होते/ दिनकर पास चला आता है।/ हम न हिमालय की ऊँचाई/ नहीं मील के हम पत्थर हैं/ अपनी छाया के बाढ़े हम/ जैसे भी हैं हम सुन्दर हैं/ हम तो एक किनारे भर हैं/ सागर पास चला आता है।"भाषा, संवेदना एवं शिल्प की दृष्टि से वीरेंद्र आस्तिकएक सजग नवगीतकार हैं।

प्रेम, प्रकृति एवं मनुष्यता के पक्षधरडॉ बुद्धिनाथ मिश्र मेरे प्रिय नवगीतकार हैं। वे आदि कवि विद्यापतिएवं जन-जन के कवि बाबा नागार्जुन के क्षेत्र से आते हैं। बुद्धिनाथ जी के नवगीतों में एक अद्भुत आकर्षण एवं मिठास है। कहा जाता है कि दुनिया की सबसे मीठी बोली मिथिला की ही है। शायद इसीलिये उनके नवगीत श्रोताओं एवं पाठकों को रोमांचित करते हैं। बुद्धिनाथ जीजीवन को समग्रता में लिखते हैं- "मैं वहीं हूँ जिस जगह पहले कभी था/ लोग कोसों दूर आगे बढ़ गए हैं।/ ज़िन्दगी यह, एक लड़की साँवली-सी/ पाँव में जिसने दिया है बाँध पत्थर/ दौड़ पाया मैं कहाँ उन की तरह ही/ राजधानी से जुड़ी पगडंडियों पर/ मैं समर्पित बीज-सा धरती गड़ा हूँ/ लोग संसद के कँगूरे चढ़ गए हैं।"और "दूर पर्वत पार से मुझको/ है बुलाता-सा पहाड़ी राग/ गर्म रखने के लिए बाकी/ है बची बस काँगड़ी की आग/ ओढ़कर बैठे सभी ऊँचे शिखर/ बहुत महँगी धूप के ऊनी दुशाले।"

अपने पिता की तरह जीवन की त्रासदियों के बीच डॉ विनय भदौरियाअपने नवगीत की छाप औरों से अलग छोड़ते हैं—
राम जाने सोच अपनी 
किस दिशा को मुड़ गई 
सड़क संसद भवन की 
अब बीहड़ों से जुड़ गई 

जानकार फिर भी बने अनजान 
खो रहे दिन-दिन निजी पहचान 
युग को क्या हुआ है।

डॉ विनय जीप्रतीकात्मक भाषा में समय पर करारी चोट करते हैं, जबकि समय-सत्य को देखते-परखते हुए बेबाक लहजे में रमाकांत जी कुछ इस प्रकार से लिखते हैं- 

महाभारत फिर न हो/ यह देखियेगा 
फिर वही बातें/ वही चालें पुरानी 

राजधानी में लुटी है/ द्रोपदी फिर 
खेलती रस्साकसी/ नेकी-बदी फिर 

कौन जीते, कौन हारे देखियेगा 
धर्म ने फिर ओढ़ लीं खालें पुरानी।

कहना न होगा कि 'नवगीत वाङ्मय'में सम्मिलित सभी नवगीतकार समय की रंगत को अपनी-अपनी नजर से देख रहे हैं और व्यक्त कर रहे हैं। 

संकलन के तृतीय अध्याय- 'अथ-बोध'में 'नये-पुराने'पत्रिका के यशस्वी संपादक दिनेश सिंहका आलेख- 'गीत की संघर्षशील जयी चेतना'बेहद पठनीय है। यह आलेख नवगीत लिखने-पढ़ने वालों के लिए बहुत उपयोगी भी है। यह कहना उचित ही है कि दिनेश सिंहने ताउम्र नवगीत के लिए कोई समझौता नहीं किया। ऐसा विरले ही देखने को मिलता है।

अंतिम खण्ड- 'साक्षात्कार'का है- 'नवगीत : न्यूनतम शब्दों में अधिकतम अभिव्यक्ति।'संपादक द्वारा पूरे गए प्रश्नों के जवाब डॉ मधुसूदन साहाने बिना लाग-लपेट के खरे-खरे शब्दों में दिए हैं। गद्य लेखन की तरह ही, साहा जी के गीत-नवगीत भी सहज और सम्प्रेषणीय होते हैं। प्रस्तुत साक्षात्कार में साहा जीपर्दे के भीतर से नहीं, पर्दा उठाकर अपनी बात रखते हैं; उन्होंने कई रहस्यों का पर्दाफाश भी किया है।

इस समवेत संकलन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी नवगीतकार को छोटा या बड़ा नहीं दिखलाया गया है और न ही किसी की कमियों को गिनाया गया है। इसमें छः राज्यों से चुने गए नवगीतकारों की वैचारिकी एवं नवगीतों में क्या विशेषताएँ हैं, बस इसे ही संपादक ने बताने की कोशिश की है। पुस्तक में संकलित नवगीत, आलेख, साक्षात्कार संप्रेषण में कितना सफल हुए हैं, यह सब भी पाठकों पर छोड़ दिया गया है। 'नवगीत वाङ्मय'के यशस्वी संपादक डॉ अवनीश सिंह चौहानस्वयं हिंदी और अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं के संपादक हैं, इसलिए आशा है कि उनके पाठक भविष्य में 'नवगीत वाङ्मय'का मूल्यांकन करेंगे ही। इस श्रमसाध्य कार्य के लिए डॉ अवनीश सिंह चौहान को ढेर सारी बधाइयाँ।


समीक्षक :

डॉ रणजीत पटेल 
अलकापुरी, भगवानपुर
मुजफ्फरपुर-842001 (बिहार) 
मो. 94314 75283

Book Review: From Past to Present : Navgeet Vangmaya by Dr Ranjit Patel

मथुरा जनपद में संस्कृत पढ़ाएँगे आचार्य शिवम्

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वृन्दावन : शुक्रवार (10 दिसंबर 2021) को आचार्य शिवम की मथुरा जनपद के एक सरकारी विद्यालय— श्री राष्ट्रीय इण्टर कॉलेज में संस्कृत शिक्षक (टीजीटी) पद पर नियुक्ति हो गई है। नियुक्ति होने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आचार्य शिवम् ने कहा— "परम पूज्या माता जी, पिता जी, गुरुजनों के आशीर्वाद एवं श्री बाँके बिहारी जी की असीम अनुकम्पा से उत्तर प्रदेश शासन के माध्यमिक शिक्षा विभाग में टीजीटी-संस्कृत के पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया है। अब जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हो गया है; हमारी संस्कृति और देवभाषा संस्कृत के प्रति और भी जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं।" 

स्वभाव से अति विनम्र और मितभाषी आचार्य शिवम ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित परीक्षा में 480 (500 में) अंक प्राप्त किए थे। इन्होंने वृंदावन (मथुरा) में संस्कृत भाषा एवं साहित्य के मूर्धन्य विद्वान परम श्रद्धेय श्री राजाराम मिश्र (धर्म संघ एवं दण्डी आश्रम), (स्व) श्री शिवकरन पाण्डेय, श्री बनवारी लाल गौड़, डॉ रामदत्त मिश्र आदि गुरुजनों के श्रीचरणों में बैठकर संस्कृत परिपाटी से 'प्रथमा से आचार्य तक'विद्यार्जन किया और सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। तदुपरांत इन्होंने बन महाराज इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एण्ड टेक्नोलॉजी, वृन्दावन (आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध) से बीएड की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। क्रिकेट, बैडमिंटन एवं चेस में विशेष रूचि रखने वाले आचार्य जी कॉलेज स्तर पर बैडमिंटन में गोल्ड मेडल और चेस में सिल्वर मेडल भी प्राप्त कर चुके हैं। 

सरकारी सेवा में आने से पहले वे ब्रजमण्डल के ही दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS) में 'विभागाध्यक्ष' (संस्कृत) तथा 'परीक्षा नियंत्रक'के रूप में पिछले लगभग 7 वर्ष से सेवाएँ दे रहे थे। इन्हें कई बार दिल्ली पब्लिक स्कूल के छात्रों ने 'वाल्किंग एन्साइक्लोपीडिया'ख़िताब से भी अलंकृत किया है। 'बृज संदेश', 'पूर्वाभास', 'क्रिएशन एंड क्रिटिसिज्म', 'आईजेएचईआर', 'भाषांतर'आदि के लिए वेबसाइट निर्माण तथा अन्य तकनीकी सहयोग देने वाले आचार्य शिवम के लेख 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' (2013) पुस्तक सहित 'देश धर्म', 'हिंदुस्तान', 'साहित्य कुंज', 'रचनाकार', 'वसुधा', 'पूर्वाभास' , 'क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म'आदि ऑफलाइन एवं ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।  

परम पूज्य पिताजी श्री प्रह्लाद सिंह चौहान, प्रातः वन्दनीया माताजी श्रीमती उमा चौहान, दादा डॉ अवनीश सिंह चौहान, भाभी नीरज चौहान, बड़ी बहनें— डॉ प्रियंका व दीपिका, बहनोई— गौरव राजावत एवं सोनू तोमर और परिवार के अन्य सदस्यों की ओर से लला (आचार्य शिवम) को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
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पूर्वाभास में पढ़िए 

क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म में पढ़िए : 



Shivam Singh (Acharya Shivam), Sanskrit, Vrindavan, Mathura

'दुनिया जब ठहर गयी'पुस्तक हुई लोकार्पित

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19 दिसंबर 2021, शाम 5 बजे :
अखिल भारतीय साहित्य परिषद के तत्वावधान में वरिष्ठ साहित्यकार अवधेश सिंह द्वारा लिखित कोरोना काल पर आधारित पुस्तक'दुनिया जब ठहर गई'के लोकार्पण व परिचर्चा का आयोजन ऑनलाईन माध्यम से किया गया। कार्यक्रम का संचालन अरविंद कुमार मौर्य, क्षेत्रीय संयोजक, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, नैनीताल ने किया। 

“साहित्य की यथार्थता वही है जो समसामयिकता को परिलक्षित करे। पुस्तक "दुनिया जब ठहर गयी"के अध्यायों में विश्व समाज पर, कोरोना त्रासदी से जुड़ी घटनाओं को दर्पण-सा प्रस्तुत किया गया है”। उक्त विचार दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय कला-संस्कृति के विशेषज्ञ, हिन्दी सलाहकार, गृह मंत्रालय भारत सरकार एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सुनील पाठक, अध्यक्ष अखिल भारतीय साहित्य परिषद, उत्तराखंड ने व्यक्त किए। 

विगत दिनों कोविड -19 वैश्विक आपदा पर लिखी गयी संदर्भ पुस्तक "दुनिया जब ठहर गयी"के लोकार्पण के दौरान अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ सुनील पाठक ने स्पष्ट किया कि पुस्तक का शीर्षक भोगा हुआ सच है, क्योंकि दुनिया उस काल में वास्तव में ठहर-सी गई थी और इस प्रकार यह पुस्तक साहित्य की परिभाषा पर भी खरी उतरती है। लॉकडाउन के समय को याद करते हुए श्री पाठक ने कहा कि कुछ लोगों को लॉक डाउन का समय "लगते दिवस समुद्र से लगता समय पहाड़..."जैसा लग रहा था, परंतु प्रस्तुत पुस्तक के लेखक अवधेश सिंह ने उस समय का सार्थक उपयोग किया व समाज को एक उत्कृष्ट कृति दी, इसलिए वे साधुवाद के पात्र हैं। 

लोकार्पण कार्यक्रम में बीज वक्तव्य देते हुए पुस्तक 'दुनिया जब ठहर गई'के लेखक वरिष्ठ साहित्यकार अवधेश सिंह ने पुस्तक में वर्णित विषयवस्तु का संक्षिप्त परिचय देते हुए कहा कि “इस किताब के माध्यम से कोरोना काल में हमारी जीवन-शैली में अचानक आये परिवर्तित को दिखाया गया है। अवधेश सिंह ने कहा कि वास्तव में उस समय दुनिया तो ठहरी लेकिन हमारे देश की सामर्थ्य, शक्ति, एकता व संस्कृति एक तरह से मुखर हो गतिशील बन गई। समाज के द्वारा 'वसुधैव कुटुंबकम', जोकि भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है, का पालन कई स्तरों पर हुआ।  

वरिष्ठ वक्ता के रूप में उपस्थित वरिष्ठ साहित्यकार शंभू प्रसाद भट्ट जी ने बताया कि पुस्तक में त्रासदी का जिस तरह क्रमवार विवरण दिया गया है यह दस्तावेजीकरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहेगा। उन्होंने कहा कि कोरोना काल में बहुत कुछ खोने के साथ-साथ हमने बहुत कुछ सीखा और पाया भी है। प्रकृति का सौंदर्यात्मक रूप हमने कोरोनाकाल में देखा। पुस्तक में कहा गया है कि विश्व ने हमारे अभिवादन के तरीके को अपनाया जो हमारी संस्कृति की महानता को सिद्ध करता है। 

डॉ मनोज प्रसाद नौटियाल, सह-प्रोफेसर, गवर्नमेंट पीजी कॉलेज, गोपेश्वर, चमोली द्वारा पुस्तक की सामिग्री को रोचक बताया गया। उन्होंने यह भी कहा कि पुस्तक की विषयवस्तु, शब्द संयोजन व जीवंत वर्णन सराहनीय है। कोरोना काल में, जो सामाजिक प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ा, वह इस पुस्तक में वर्णित है। उस समय उपचारात्मक उपाय हमारे पास नहीं थे, जिसकी जगह निवारत्मक उपाय अपनाए गए। भारतीय जीवन-पद्धति और प्राचीन मूल्यों ने यह साबित कर दिया कि वह विश्व में सर्वश्रेष्ठ है और उन्हें अपना कर मानव सभ्यता को बचाया जा सकता है। आने वाले समय में संदर्भ ग्रंथ के रूप में इस पुस्तक की महत्ता बढ़ेगी। 

इसी क्रम में डॉक्टर स्मृति शर्मा, जोकि कोरोना काल में केंद्र प्रभारी- कोविड-19, गाजियाबाद रही हैं, के द्वारा पुस्तक के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किए गए। उन्होंने कहा कि आने वाली पीढ़ी के लिए यह पुस्तक धरोहर का कार्य करेगी। पुस्तक की रचना प्रक्रिया गागर में सागर भरने की उक्ति चरितार्थ करती है। कोरोनाकाल में देश की कठिन परिस्थितियों के साथ भारत के नेतृत्व की सराहना के साथ सभी फ्रंटलाइन वर्कर्स के योगदान की चर्चा इस पुस्तक की विशेषता है, इस कारण लेखक के प्रति समाज की ओर से अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। 

वरिष्ठ साहित्यकार उपन्यासकार कवि बृजेंद्र नाथ मिश्र ने कहा कि “दुनिया जब ठहर गयी” पुस्तक में जहां प्रवासी मजदूरों के पलायन की चर्चा की गयी, वहीं प्रशासन के द्वारा तत्परता से इस कठिन समय में प्रवासी मजदूरों को भोजन पानी और ठहरने, रात्रि-विश्राम आदि प्रयासों का उल्लेख पुस्तक के सकारात्मक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है । कोरोना की प्रथम लहर का सचित्र वर्णन होने के कारण यह पुस्तक संग्रहणीय है। किसी भी आगामी महामारी से निपटने के लिए यह पुस्तक प्रबन्धकों व प्रशासन के लिए भी एक अच्छा रोडमैप साबित हो सकती है। 

कार्यक्रम का प्रारम्भ सर्वप्रथम किरण मौर्य द्वारा सरस्वती वंदना, तत्पश्चात सृष्टि गंगवार द्वारा परिषद गीत की प्रस्तुति के साथ किया गया। कार्यक्रम का समापन प्रेरणा द्वारा राष्ट्रीय गीत की प्रस्तुति के साथ हुआ। कार्यक्रम में अस्सिस्टेंट प्रोफेसर सबज सैनी, हिमांशी जी व उत्तराखंड व अन्य प्रांतों के अनेक साहित्यकार व साहित्यप्रेमी उपस्थित रहे।  
- अरविंद कुमार मौर्य 
क्षेत्रीय संयोजक 
अखिल भारतीय साहित्य परिषद 
नैनीताल 


Online Book Release: Duniya Jab Thahar Gayi- Awadhesh Kumar Singh

आचार्य शिवम् ने दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड द्वारा आयोजित टीजीटी परीक्षा की उत्तीर्ण

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मंगलवार (21 दिसंबर 2021): आचार्य शिवम ने दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड द्वारा आयोजित टीजीटी (संस्कृत) परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली है। इस परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए 'लोएस्ट मेरिट' 82 गई है, जबकि आचार्य जी ने 118.5 अंक प्राप्त किए हैं। 
इस परीक्षा को उत्तीर्ण करने पर हर्ष व्यक्त करते हुए आचार्य शिवम् ने कहा— "मैं वृन्दावनवासी हूँ। श्री बाँकेबिहारी जी और श्री राधारानी जी के चरण-कमलों को छोड़कर अब कहीं और जाने की इच्छा शेष नहीं रही।" 

इससे कुछ दिन पहले ही उनकी मथुरा जनपद के एक सरकारी विद्यालय— श्री राष्ट्रीय इण्टर कॉलेज में संस्कृत शिक्षक (टीजीटी) पद पर नियुक्ति हो गई थी। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित उक्त परीक्षा में 480 (500 में) अंक प्राप्त किए थे। नियुक्ति होने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आचार्य शिवम् ने कहा— "परम पूज्या माता जी, पिता जी, गुरुजनों के आशीर्वाद एवं श्री बाँके बिहारी जी की असीम अनुकम्पा से उत्तर प्रदेश शासन के माध्यमिक शिक्षा विभाग में टीजीटी-संस्कृत के पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया है। अब जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हो गया है; हमारी संस्कृति और देवभाषा संस्कृत के प्रति और भी जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं।" 

स्वभाव से अति विनम्र और मितभाषी आचार्य शिवम ने वृंदावन (मथुरा) में संस्कृत भाषा एवं साहित्य के मूर्धन्य विद्वान परम श्रद्धेय श्री राजाराम मिश्र (धर्म संघ एवं दण्डी आश्रम), (स्व) श्री शिवकरन पाण्डेय, श्री बनवारी लाल गौड़, डॉ रामदत्त मिश्र आदि गुरुजनों के श्रीचरणों में बैठकर संस्कृत परिपाटी से 'प्रथमा से आचार्य तक'विद्यार्जन किया और सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। तदुपरांत इन्होंने बन महाराज इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एण्ड टेक्नोलॉजी, वृन्दावन (आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध) से बीएड की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। क्रिकेट, बैडमिंटन एवं चेस में विशेष रूचि रखने वाले आचार्य जी कॉलेज स्तर पर बैडमिंटन में गोल्ड मेडल और चेस में सिल्वर मेडल भी प्राप्त कर चुके हैं। 

सरकारी सेवा में आने से पहले वे ब्रजमण्डल के ही दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS) में 'विभागाध्यक्ष' (संस्कृत) तथा 'परीक्षा नियंत्रक'के रूप में पिछले लगभग 7 वर्ष से सेवाएँ दे रहे थे। इन्हें कई बार दिल्ली पब्लिक स्कूल के छात्रों ने 'वाल्किंग एन्साइक्लोपीडिया'ख़िताब से भी अलंकृत किया है। 'बृज संदेश', 'पूर्वाभास', 'क्रिएशन एंड क्रिटिसिज्म', 'आईजेएचईआर', 'भाषांतर'आदि के लिए वेबसाइट निर्माण तथा अन्य तकनीकी सहयोग देने वाले आचार्य शिवम के लेख 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' (2013) पुस्तक सहित 'देश धर्म', 'हिंदुस्तान', 'साहित्य कुंज', 'रचनाकार', 'वसुधा', 'पूर्वाभास' , 'क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म'आदि ऑफलाइन एवं ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।  

परम पूज्य पिताजी श्री प्रह्लाद सिंह चौहान, प्रातः वन्दनीया माताजी श्रीमती उमा चौहान, दादा डॉ अवनीश सिंह चौहान, भाभी नीरज चौहान, बड़ी बहनें— डॉ प्रियंका व दीपिका, बहनोई— गौरव राजावत एवं सोनू तोमर और परिवार के अन्य सदस्यों की ओर से लला (आचार्य शिवम) को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
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क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म में पढ़िए : 



Shivam Singh (Acharya Shivam), Sanskrit, Vrindavan, Mathura, Uttar Pradesh, India

‘नवगीत वाङ्मय’ : एक समीक्षा — डॉ वीरेन्द्र निर्झर

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[पुस्तक : नवगीत वाङ्मय, संपादक : अवनीश सिंह चौहान, प्रकाशक : आथर्सप्रेस, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष : 2021 (संस्करण प्रथम, पेपर बैक), पृष्ठ : 174, मूल्य रु 350/-, ISBN 978-93-5529-004-5]

(1)
नवगीत पर अब तक अनेक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। सभी संकलनों के अपने-अपने मानदंड हैं— कुछ क्षेत्रीय कवियों को लेकर प्रकाश में आए हैं, तो कुछ काल खण्डों के आधार पर और कुछ कोश के रूप में। कुछ संग्रहों की भूमिकाएँ नवगीत की पृष्ठभूमि और स्वरूप को व्याख्यायित करतीं बड़ी और व्यापक हैं। 

नवगीत पर सन 2021 में आथर्स प्रेस, नई दिल्ली से यशस्वी नवगीतकार डॉ अवनीश सिंह चौहान द्वारा संपादित 'नवगीत वाङ्मय'नाम से एक और संकलन प्रकाश में आया है, जो चार पर्वों में संकलित, नाम के अनुरूप नवगीत की समग्रता को समोये हुए है। इस ग्रंथ में डॉ चौहान द्वारा लिखी भूमिका— 'प्रसंगवश'मात्र डेढ़ पेज में है। लघुकाय इस भूमिका में डॉ चौहान आम आदमी के साथ-साथ खास आदमी के दुख-दर्दों की बात भी उठाते हैं। भले ही दोनों के दुख-दर्द अलग-अलग हैं, पर खास आदमी का दुख-दर्द भी दुख-दर्द है, उसे नकारना वे समीचीन नहीं मानते। दूसरे वे नवगीत को प्रेम, प्रकृति, हर्ष, विषाद, संघर्ष, वर्तमान विसंगतियों आदि जीवन के सतरंगी अनुभवों को उकेरने की एक सशक्त एवं प्रतिष्ठित विधा मानते हैं। थोड़े शब्दों में उन्होंने बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है। 

डॉ चौहान ने 'नवगीत वाङ्मय'के प्रथम पर्व को 'समारंभ'कहा है। इस पर्व में नवगीत के पुरस्कर्ता और दिवंगत कवियों में प्रमुख डॉ शम्भुनाथ सिंह, डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया और डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह के संक्षिप्त परिचय सहित प्रत्येक के तीन-तीन नवगीत संकलित किए गए हैं। 'नवरंग'पर्व में उन प्रवर नौ  नवगीतकारों के नौ-नौ गीत संपादित हैं, जो नवगीत की निकष हैं और आज भी इस विधा को समृद्ध कर रहे हैं। तीसरा पर्व 'अथबोध'है। इस पर्व में यशस्वी कवि एवं आलोचक दिनेश सिंह का 'नवगीत की संघर्षशील जयी चेतना'शीर्षक से समीक्षात्मक लेख दिया गया है। अंतिम पर्व का नाम साक्षात्कार है, जिसमें डॉ मधुसूदन साहा से संपादक महोदय की बातचीत का ब्यौरा है। इस प्रकार काव्य, लेख और साक्षात्कार से युक्त यह संकलन नवगीत पर एक सम्यक संपादन है और 'वाङ्मय'शब्द की व्यापकता के अनुरूप भी।

(2)
युगीन नव्यता और गीतात्मक छंद विधान दोनों की संपृक्ति में गीत की अमरता के दृष्टा, नवगीत के समर्थ और पुरोधा कवि डॉ शम्भुनाथ सिंह 'समारंभ'पर्व के पहले कवि हैं— नई कविता के दौर में गीत विधा में नई स्फूर्ति फूँकने वाले कवि। इस संकलन में उनके तीन गीत संग्रहीत हैं, जो समय की त्रासदी का सम्यक चित्र प्रस्तुत करते हैं। 'सोन हँसी हँसते हैं लोग' (17) में हँस-हँस कर डसते लोगों के आम चरित्र को कवि ने उजागर किया है। नगर, घर, बस्ती सभी कत्लगाहों की तरह दुखद और संवेदना-शून्य है। ऊपर से सुंदर दिखती इस दुनिया में— "वे, हम, तुम और ये सभी/ लगते कितने प्यारे लोग/ पर कितने तीखे नाखून/ रखते हैं ये सारे लोग" (18)। दूसरे गीत में 'देश'हम-आप-सब का समष्टि का प्रतीक है और 'राजधानी'व्यष्टि का। समाज, संस्कृति और उसके गौरव को, जिसे हम हजारों बरस से जी रहे हैं, वह अभी भी हमारी रगों में गर्म खून की तरह प्रवहमान है। उसे कोई भी शक्ति "मोड़ सकती मगर/ तोड़ सकती नहीं" (19) में कवि ने राष्ट्रीयता का उद्बोध दिया है। तीसरा गीत मानवता की रोशनी के लिए बुराइयों से लड़ने की इच्छाशक्ति को संबलित करता है। इस प्रकार शम्भुनाथ सिंह जी के गीत मानवता के विकास और युग की अपेक्षाओं के सजग संवाहक हैं।

(3)
डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया ने गीत ढाँचे की रक्षा करते हुए उसकी निजी पहचान को नवीन आयाम दिए हैं। इनमें उनका रूढ़िग्रस्त सोच को तोड़ने और सापेक्ष संस्कार गढ़ने का प्रयास है। 'पुरवा जो डोल गई'ग्राम्य जीवन के प्राकृतिक सौंदर्य और परिश्रम का वह सौंधा गीत है जिससे उनकी गीत साधना को प्रतिष्ठा मिली है। 'नदी का बहना मुझमें हो'में जीवन की प्रवहमानता और परोपकार का भाव तो है ही, विलुप्त होती मानवता को पुनः प्रतिष्ठापित करने का प्रयास भी है। तीसरा गीत "जी कर देख लिया जीने में/ कितना मरना पड़ता है" (24) जीवन संघर्ष का गीत है। इसमें अपनी शर्तों पर जीने की चाह और विसंगतियों से जूझने, समझौता होने आदि की अनचाही स्थितियों की व्यंजना है। भदौरिया जी के गीत कई बार एक छंद तक ही सिमटे हुए हैं, पर हैं लोक की अभिव्यंजना के तीखे तेवरों से युक्त।

(4)
नवगीत के अन्य महास्तंभ डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने आज के गीत का नामकरण 'नवगीत'ही नहीं किया, उसे गहरे तक जिया भी है। उनके अनुसार नवगीत नई अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार्य है। संकलन के 'अर्थ मेरा क्या'गीत में मानव जीवन के अर्थ को खोजते सिंह साहब बहुरंगी गतिविधियों और विसंगतियों के बीच जीवन को समझने और पकड़ने के प्रयास में हैं, तो 'बीच की सड़क हुई ख़तम'में नदी और पोखर, गाँव और नगरों, अभिजात्य और सामान्यजन, पूंजीपति और गरीबों के बीच सड़क न होने से भटक जाने के असमंजस में हैं। 'किधर जाएँ हम'गीत में वे जनजीवन के ऊहापोह को व्यंजित करते और नई सभ्यता के उलझावों से त्रस्त जीवन की विडंबना को उद्घाटित करते हैं। इस प्रकार 'समारंभ'पर्व नवगीत की पूर्वपीठिका है, प्रशस्त पथ और पाथेय है, जिसके सहारे नवगीत के नए आयाम तय हुए हैं।

(5)
'नवरंग'में नव जहाँ नवता का परिचायक है, वहीं नवगीत को पूर्णता की ओर ले जाने वाले उन नौ शिखरस्थ गीतकारों के गीतों का संकलन है, जिन्होंने नवगीत की दिशा और उसके बोध को संबलित किया है। 1940 से 1964 के बीच में जन्मे ये गीतकार नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर ही नहीं, नवगीत धारा के वे पुण्य तीर्थ हैं जहाँ से आवेग लेकर धारा पुरस्सर हुई है और आज भी जो धारा को प्राण संपन्न बनाए हुए हैं।

नवरंग के इन नवगीतकारों में पहला नाम गुलाब सिंह जी का है, जिनके अब तक पाँच नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। विभिन्न नवगीत संग्रहों में भी उनके नवगीत संग्रहीत हैं। आत्मा की तरह कविता की अमरता के संपोषक गुलाब सिंह जी समय और उसकी प्रवृत्तियों के साथ बदलती जीवनलय को जिस सूक्ष्मता के साथ महसूसते हैं, उसे उस रूप में प्रस्तुत भी करते हैं। 'जीवन राग'गीत में गाँव के पारंपरिक जीवन के सुख-दुखात्मक संवेदन, भाव, कल्पना और लयात्मकता के बीच भीतर बसे प्रयाग की पावनता का स्मरण करते हुए वे उसमें रमण की भावना से जुड़े हैं। गीत की रसज्ञता के बीच वे आदमियत को बचाने और प्रेम को ध्रुपद बनाने के लिए लालायित हैं। पंक्तियाँ हैं—

सघन भीड़ में बचे ‘आदमी’
उसका आदमकद हो
गए प्यार का नए गीत में
आगम ही ध्रुवपद हो

धुले मैल, निखरे मानवता
चमक उठे बेदाग। (33)
आँगन में तुलसी का बिरवा
मन में जीवन राग। (33)

पर गाँव का जीवन आज 'लाठी और भैंस'की कहावत की तरह शक्ति-संपन्नों के हाथ— "गरीब की पतोहू-सी" (35) हो गया है।

नगरीय जीवन की असंतुष्टता में भी— "यह शहर का घाट है/ पानी नहीं, सीढ़ी तो है/ इस सदी का सफर है/ सपने नहीं, पीढ़ी तो है" (34) के रूप में सदी की यात्रा में संतोष व्यक्त करती भीड़ की तकदीर की तरह परवाहहीन जहाँगीरी को अपनाए बढ़ी चल रही है। संतोष की यह इयत्ता "देखते एँड़ी उठाकर/ हम बड़े कि तुम बड़े" (34) में विवशता की संवेदना को स्पर्श करती है। असंतोष और संतोष के अंतर को नापती है। 'समय के प्रवाह'गीत में आधुनिकता के प्रवाह और अपनों से आँख चुराते इस सदी का वर्णन है, तो फूल वाले रास्तों पर चलने और हथेली मलने में ऊंची उड़ानों की व्यस्तता समाहित है। 'बाजार'कविता में विदेशी सामानों की चमक-दमक और बाजारवाद का प्रभाव है, तो 'पत्ते'गीत में लोभ-लालच से परे देश के विकास का स्वर है और 'वनवासी'गीत में वनवासी जीवन की सुख-दुख की दास्तान है। इस प्रकार गुलाब सिंह जी जहाँ विसंगतियों से पहचान कराते हैं, बदलते गांवों और नगरों से रूबरू कराते हैं, वहीं अंतिम गीत में पठारीपन को वैचारिक लहर से सींचकर हरा करने और "मिटाकर के सत्य का/ वनवास, वत्सल प्राणदा/ संकल्प सत्तासीन" (42) करने में मानव-शक्ति को जगाने के प्रयास में हैं।

(6)
दूसरे गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी अपने समय के विसंगत यथार्थ के प्रति जितने सचेत हैं, मानवता के प्रति उतने ही संवेदनशील भी हैं। नवगीत को इसी अर्थ में वे गीत के विकास का सोपान मानते हैं। समय कितना भी बदल जाए, पर व्यक्ति की सकारात्मक सोच, सात्विकता और आचरण की शुचिता लोक में उसे प्रतिष्ठावान बनाती है। लोक उसी को सिर माथे पर लेता है, जिसमें वह मानवीयता और अपनेपन की झलक देखता है। 'कथन में आए होंगे हम'गीत में इसी तथ्य को मयंक जी ने व्यक्त किया है। वे लिखते हैं— "अपनेपन की किरण/ कहीं देखी होगी/ इसके बाद नयन में आए होंगे हम" (44)। यद्यपि नगरीय विकास की हवा तथा अपसंस्कृति का प्रभाव गाँवों को भी गिरफ्त में ले रहा है, पर मयंक जी उसे विकृतियों से बचाए रखने के लिए वह जैसा है वैसा ही रहने देने के पक्षधर हैं—  "मेरा गाँव अगर छोटा है/ छोटा ही रहने दो" (45) और "जब तक भी बह सके/ हवा पावन होकर बहने दो" (45)। 'लोग यहाँ'गीत में मानवता के बिखरने और विघटनकारी शक्तियों तथा गुणधर्मों की व्यंजना है, तो "आग लगती जा रही है/ अन्न-पानी में/ और जलसे हो रहे हैं/ राजधानी में" (47) गीत में भी विसंगतियों की तस्वीर उभरी है। आज के प्रवाह में सब कुछ बदल रहा है, सपने ध्वस्त हो रहे हैं और अस्वीकार्य को भी स्वीकारने की बेबसी है। शहरी संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन का प्रभाव गाँवों की जीवन शैली को भी बदल रहा है। 'लड़के के जीवन'गीत की पंक्तियाँ हैं—

मेरा लड़का जान गया 
क्या होती बिरियानी 
पीने से पहले शराब में 
मिलता है पानी 

वापस जाते समय 
मीन का 
स्वाद उछाल गया। (46)
... 
सीख गया सुत 'मटन'
मांस को बोला जाता है 
मदिरा की बोतल को कैसे 
खोला जाता है 

मन उसका 
उजली चादर से 
हो रूमाल गया। (47)

आज की आपाधापी में सरगम के तार के ढीला होने, लय खंडित होने, और मन को जीवन की लंगड़ी भाषा के बेधने में मन पंछी की उड़ान ही रुक गई है। ऐसे में गीत के अनबोले दीप मानवता को रोशन कर जाते हैं। मयंक जी के गीत विसंगतियों को तोड़ने और मानवीयता के फलने-फूलने की कामना से परिपूर्ण अटल सत्य की स्थापना की प्रतीक हैं। वे कहते हैं—

तुम नहीं मुझको सुनहरी और ऊँची 
कल्पनाओं की नकल देना 
शब्द कुछ मुझको असल देना 

गाँव की पगडंडियाँ लूटी गई हैं 
हो सके तो तुम लुटेरों का पता दे दो 
मेड़ की खोई हंसी फिर ढूँढ़ लाना 
अन्यथा घायल दिलों को और मत भेदो 

जो न हिल पाए कभी अपनी जगह से 
बात कुछ ऐसी अटल देना। (53)

इस प्रकार मयंक जी में विडंबनाओं का दर्द गहरे तक पैठा हुआ है। वे परिवेश से संतप्त मनुष्य की मुक्ति के लिए बेचैन हैं।

(7)
'नवरंग'में तीसरा स्वर शान्ति सुमन जी का है। भले ही डॉ शम्भुनाथ सिंह ने अपने दशकों और संकलनों में उन्हें स्थान न दिया हो, पर उनके गीत समय के साथ न्याय करते समकालीनता से जुड़े नवता के हर क्षितिज को छूने के प्रयास में हैं। संकलन का पहला गीत— 'फिर हरापन ओढ़ती है/ ताल में झरती कमल की पंखुरी'में विडंबनाओं और दुखों से भरे जीवन के हरियाने की कल्पना में उल्लिखित बिम्ब— उड़ने के लिए पाँखें तोलते परिंदे, शिवालय के कलश पर मेघों की बांसुरी का स्वर, जंगलों के रास्तों में प्रकाश फूटने और पीड़ा से तृप्त पाँव की पायल छनकने में गाँवों के विकास शहरों को भी पीछे छोड़ने का भाव समेटे हैं। 

अवतरण होगा, बहेगी धार 
गंगा की नई 
गाँव की पगडंडियों में 
राजपथ होंगे कई 

छाप नंगे पाँव की 
अब शहर में लगती बड़ी। (55)

भारतीय संस्कृति और परिवेश से सुमन जी का विशेष लगाव है— "दरवाजे का आम-आँवला/ घर का तुलसी-चौरा/ इसीलिए अम्मा ने अपना/ गाँव नहीं छोड़ा" (56)। पोता-पोतियों की चंचलता के लिए घुँघरुओं का श्रव्य-बिंब और खुशियों के लिए बताशों का आस्वाद्य बिम्ब भी इसी परिवेश से लिया गया है।  आधुनिकता की काली आंधियों में जीवन के मार्दव का खिरखिरा उठना तथा फूल की खुशबू की तरह मुरझा जाने में "बैल बिन बेकार हल-सी जिंदगी" (57) का चित्र व्यक्ति की विवशता को मूर्तित करता है। समय की विद्रूपता, वैमनस्यता और मक्कारी से भरे समय में आदमी भले ही बाहर सन्नाटे में जी रहा हो, पर भीतर-भीतर आग की तरह धड़क रहा है। 'अकाल में बच्चे'गीत में यह विडंबना और व्यापक हुई है— "सन्नाटे में सीटी बजती/ बस कुछ और नहीं/ इस अकाल में बच्चे रोते/ मुँह में कौर नहीं" (59)। लालच के बताशों ने हमें यहाँ तक पहुँचा दिया है जिससे समय के हाथों हम ढोल-तांसे की तरह बज रहे हैं।

'धीरे पाँव धरो'गीत में "आज पिता-गृह धन्य हुआ है/ मंत्र-सदृश उचरो!" (60)। यह गीत बेटियों को वधू जीवन की पावनता का बोध कराता है और ढाढ़स देता है, तो बूँद पसीने की गीत में श्याम वर्ण श्रमिक महिला के श्वेत बिंदुओं से झलमलाते सौंदर्य और जीवनचर्या की कठोर कर्मठता का चित्र आरेखित हुआ है— "गोबर-माटी सने हाथ में/ भाषा जीने की" (61)। आठवाँ गीत विसंगतियों के बीच "नहीं मरकर भी मरे ये पेड़" (62) की जीवंतता को समर्पित है, तो अंतिम गीत में कृषक जीवन की जड़ता और हवाओं के आंख खोलने के रूप में खुशियों के अंकुरण का वर्णन है। इस प्रकार शांति सुमन जी के गीत लोक की पृष्ठभूमि से अधिक जुड़े हैं और नवगीत चेतना के प्रकर्ष हैं।

(8)
राम सेंगर जी ने वर्तमान स्थितियों, जीवन यथार्थ और आंतरिक अनुभूतियों को विश्लेषित करने तथा सर्जनात्मक दृष्टि से अपनी संवेदनाओं को बिम्बों-प्रतीकों और अप्रस्तुत विधान द्वारा साकार करने की अद्भुत क्षमता है। उनका पहला नवगीत है— "जन से कटे, मगन नभचारी/ देख रहे हैं नब्ज हमारी" (65)।  यह राजनीतिक धृष्टता को रेखांकित करता इकहड़ आदमी की लाचारी का गीत है, जिसमें अनर्गल लोग भी "हमें हमारी जगह बतावें/ लोहा-लंगड़ के व्यापारी" (65) हमें रास्ता बताते हैं। दूसरे गीत में ऊंची नाक वाले लोगों के बीच जनजीवन की समस्याएं और उनसे संभलकर रहने तथा गुलामी न करने की समझाइश देते हुए सेंगर जी सर्वहारा वर्ग को खुद को ढाल बनाने के लिए उद्यत करते हैं और कहते हैं— 

बने अलग माटी के ये सब 
नामी और गिरामी 
गैरत बची रहे मत करना 
इनकी गोड़-गुलामी 

इनकी नीयत से टकराना 
लेश नहीं मिमियाना। (66)

और—

इनकी भाषा से टकराना
जोखिम भले उठाना। (66) 

सेंगर जी शहर में इज्जत से जीने की कीमत चुका रहे लोगों की जीवंतता के साथ-साथ 'चढ़ी बाँस पर नटनी'गीत में नारी की स्थिति, उसके साहस और रोटी की जुगाड़ में लहूलुहान लज्जा के तमाशा बनने की व्यथा-कथा को व्यक्त करते हैं। सेंगर जी की संवेदना ने एकाकी बुढ़ापे से जूझते जीवन की पीड़ा को महसूसा है— कहीं आषाढ़ की तबाही और दाने-दाने पर साहूकार का नाम होने का दर्द को जाना-समझा है, तो कहीं 'रंगभेद, पाखंड, धर्म के तोप तमंचे बम'के बीच भी वे जीवन के बचे रहने की उम्मीद से भरे हुए भी हैं।  सेंगरजी के गीत विसंगतियों में भी अस्तित्व की रक्षा के लिए चिंताओं के "बिंब को शक्ति बनाकर/ एकचित्त हो/ दुनिया से टकरा जायेंगे" (73) की प्रतिरोधी-शक्ति से संपन्न हैं।

(9)
नचिकेता जी नवगीत के बड़े हस्ताक्षर हैं। गीत संकलनों के अतिरिक्त उन्होंने आलोचना पर भी कार्य किया है और समवेत संकलन भी सम्पादित किए हैं। उनमें मानवीय संवेदना को उकेरने के साथ ही अस्तित्ववादी जीवन दृष्टि का समन्वय है। उनका मानना है कि यद्यपि बहुत कहा जा चुका है फिर भी बहुत कुछ कहने सुनने को शेष है। समाज में अनेक जाति-वर्गों को बहुत से कार्यों से आज भी दूर रखा गया है। इस कुरीति पर वे कहते हैं— "किंतु मनाही है/ मकड़ी को जाले बुनने की" (75)। दलितों की किस्मत पर भी उनका तर्क है— "सुर्ख चने ने/ किस्मत पाई पिसने-भुनने की" (75)। विकास की आधुनिकता में गांव भी नई सदी की इबादत लिखते-लिखते अपनी परंपराओं और संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। यहां तक कि "सगे भाई-बहन के रिश्ते/ पहने दिखे नकाब" (77)। आज तुलसी-चौरे, पनघट, चौपाल, अलाव आदि इतिहास की वस्तुएं बन गई हैं। आधुनिकता का प्रभाव इस कदर बढ़ा है कि "परिचित चेहरों पर/ मुस्कान अपरिचित-सी" (78) दिखाई पड़ती है।

अच्छे दिन का अर्थ सबके लिए अलग-अलग होता है। वनवासियों के अच्छे दिन का अर्थ "फूल गया महुआ/ अच्छे दिन आने वाले हैं/ वनवासी चेहरे थोड़ा/ मुस्काने वाले हैं" (79)। महुआ आया है तो व्याह, सगाई, नृत्य, उत्सव होगा। अन्न के दाने आएंगे, "पर, महुआ की/ खैर नहीं है ठेकेदारों से" (79) के माध्यम से सुखों पर वज्रपात और सियासत की विडंबना को भी नचिकेता जी उजागर करते हैं। वहीं 'यहाँ नहीं जल है'गीत में "मछली के हिस्से में आया/ यहाँ नहीं जल है" (80) और "सीपी, घोंघे,/ शंख, केकड़े भी तो घायल हैं" (80) के द्वारा समय की अराजकता का वर्णन है। 'बच्चे हैं'गीत में बच्चों की अनुमति और उनके स्वच्छंद विकास को महत्व दिया गया है। 'हँसी तुम्हारी'गीत में हँसी को उपमानों के माध्यम से कवि ने 'हँसी'को साकार ही नहीं किया, बल्कि इसे भावात्मक पवित्रता और तरलता से भी समंजित किया है। समय के साथ जीने की कवि की कामना, वन पखेरू-सा चहकना, फूलों की तरह महकना और नदी-सा अभिराम प्रवहमान होना चाहती है। इस प्रकार नचिकेता जी आज की विडंबनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए— "जो सोए हैं आज/ उन्हें कल जगना ही होगा" (84) की भावना के साथ कुच-कुच अंधियारे में दिया जलाने के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।

(10)
वीरेन्द्र आस्तिक अपने गीत 'तुम नायक मेरी कविता के'के द्वारा लोक-जीवन और शहर के अंतर को निरूपित ही नहीं करते, लोक-जीवन की संपदा से प्रगति करते आधुनिक मनुष्य की कृतघ्नता को भी आरेखित करते हैं। पेड़ों से बतियाते हुए वे प्रकृति के प्रति व्यामोहित हैं, तो उनमें परिस्थितियों के बीच राह खोजने की जीवटता भी है। संकलन में बाजारवाद पर उनके दो गीत हैं। पहले में— 'हो गई बाजार/ दुनिया/ औ'अकेले हम", "प्यार हो या रंग हो/ सब हैं बिकाऊ"और "सब तो सोनेलाल हैं/ मानव नहीं हैं" (89)। मानवता का यह स्खलन दूसरे गीत में रिश्तों के भी बाजार बनने में लाभ-हानि की तुला को महत्व देते हैं। खुशियाँ मृगजल की तरह छलावा बन जाती हैं और चैटिंग की प्रमुखता में संस्कार बिखर जाते हैं। पंक्तियाँ हैं— 

बिटिया बता रही है
टूट गई है चैटिंग
संस्कारों की टकराहट में
कैसी मैचिंग

पापा के कम्प्यूटर पर
भीगा है काजल। (90)

और—  

नये अर्थ के युग में हैं
नव निर्मित रस्ते
सोच एक से, कर्म एक-से
बनते रिश्ते

पापा ने ई-मेल किया
मम्मी का आँचल। (90)

कुबेरों की इस दासता से थका कवि समय को बदलने का आह्वान करता है— "हाथ तेरे हों हथौड़े/ शक्ति हो भरपूर फिर/ मन-वचन से संगठित/ हो देश का मजदूर फिर/ वक्त यह जंजीर-सा है, तोड़ दो/ माल-गोदामों से निकालो मुझे" (92-93) और "वक्त का पर्याय गाँधी है अगर/ क्यों न गाँधी ही बना डालो मुझे" (93)। कवि को व्यक्ति की कर्मठता पर पूरा विश्वास है और इसी विश्वास पर ईश्वर भी पास चलाता है। यह आस्था व्यक्ति को बलवान बनाती है। 'कहता मन'गीत में यही विश्वास गिरकर उठने और उम्मीदों पर चलने की शक्ति देता है— "धीरज, दूर-दृष्टि, आशाएँ-/ मन के घोड़ों की क्षमताएँ/ अन्तर संकल्पों का दीया/ ज्योतित होती हैं इच्छाएँ (95)। इस प्रकार आस्तिक जी के गीतों में समय की सही पहचान भी है और विसंगतियों के विरुद्ध नाम की तरह ऊर्जा से संपन्न आस्तिक स्वर भी है—  

हम न समय से अब तक हारे 
हम न अभी हैं मरने वाले। (95)

(11)
बुद्धिनाथ मिश्र के गीत मंच को बांधने में भी समर्थ हैं और पाठकों के बीच भी पूरी शिद्दत से अपनी बात रखते हैं। वे नवगीत को गीत के विशाल परिवार की एक प्रशाखा मानते हैं। उनके गीतों में समय की विडंबना के साथ मनुष्य भी है। जिंदगी की स्थिरता को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं— "ज़िन्दगी यह, एक लड़की साँवली-सी/ पाँव में जिसने दिया है बाँध पत्थर/ दौड़ पाया मैं कहाँ उन की तरह ही/ राजधानी से जुड़ी पगडंडियों पर/ मैं समर्पित बीज-सा धरती गड़ा हूँ/ लोग संसद के कँगूरे चढ़ गए हैं" (97)। आज की राजनीति में तरह-तरह के लोगों का जमावड़ा है, पर जिन्हें जो मिलना चाहिए, उन्हें वह नहीं मिल पाता। 'देखी तेरी दिल्ली'गीत में यह विसंगति देखें— "हर दुकान पर कोका-कोला, पेप्सी की बौछार/ फिर भी कई दिनों का प्यासा मरा राम औतार" (98)। यह विसंगति "पशु-मेले की जगह/ हुआ ऋण मेलों का उत्सव" (99) में कर्ज में डूबते गाँव और सतरंगी चालों में हाथी, घोड़ों आदि को मात देती विकास-यात्रा पर व्यंग्य है। 'जंगलराज'गीत में "फूलों जैसा लोकतन्त्र था/ काँटों में बदला" (101)— इसमें आधुनिकता, बर्बरता, अवगुणों का विकास, पब संस्कृति आदि बुराइयों के प्रति आकर्षण तथा तुलसी, पीपल आदि की उदासी में अराजकता और सभ्य समाज की तटस्थता को कवि ने व्यक्त किया है। "कड़वी लगे शहद/ मीठी पत्तियाँ नीम की आज" (102) जैसी स्थिति हो गई है।

आज गांधी के बंदरों को राजनीति रास आने लगी है। परिणामतः सदाचार की बस्ती को "रौंद रहा सत्ता का अंधा भैंसा" (102)। जनता की स्थिति को "मेहतर पूरा देश" (103) के रूप में मिश्र जी वीभत्स बिम्ब द्वारा व्यक्ति की दुर्बलता और असमर्थता को पूरी जुगुप्सा के साथ प्रस्तुत करते हैं। मिश्र जी ने 'जाड़े में पहाड़'गीत में हंस जैसे स्वेत भींगे पंख वाले परेवा मेघों और लोकरंग में खिले फूलों के सौंदर्य को आरेखित किया है, वहीं ठंड, बर्फीली हवा आदि के रूप में आतंक का वर्णन है, जो अंदर तक झिंझोड़ जाता है। फिर मिश्र जी ने भी राह में आए अवरोधों के बावजूद—"नदी रुकती नहीं है"के द्वारा जिंदगी की सतत प्रवहमानता और जिजीविषा को अभिव्यक्ति दी है। इस प्रकार 'नवगीत वाङ्मय'में संकलित नवगीतों में मिश्र जी "दिया बनकर तमक से लड़ने" (104) की भावना को उकसाते हैं और 'प्रकृति', 'बसंत', 'जिजीविषा', 'जंगलराज'आदि गीतों में वे बढ़ रही अराजकता को मूर्तित करते हुए मनुष्य को मनुष्य जोड़ने का प्रयास करते हैं।

(12)
डॉ विनय भदौरिया डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया के सुपुत्र हैं। पेशे से भले ही वकील हैं, पर काव्य के संस्कार उन्हें घुट्टी में मिले हैं। नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर डॉ विनय जी वक्त की दुरभिसंधि से आहत हैं। समय की भूमिका के प्रति उनकी टीस है— 

भूमिकाएँ इस तरह से 
हैं निभाई जा रहीं 
जब जरूरत चक्र की 
वंशी थमाई जा रही 

किस तरह पारथ करे संधान 
कौरवों के पास गिरवी बान 
युग को क्या हुआ है। (108)

आज की बढ़ती महंगाई में मोबाइल आज की प्राथमिकता और बिना हैसियत के आसमान तक की ख्वाहिशों में ईमान की मिट्टी पलीद होना तो स्वाभाविक है। डॉ विनय जी इन स्थितियों से बेचैन हैं। उनकी पंक्तियाँ हैं— 

जीने की बदली स्टाइल 
मेहनत छोड़ हुये हम काहिल 
खाली पेट भले सो जायें 
पर न रहे भूखा मोबाइल 

बिन पैसे के नई आफतें 
हर-दिन रहे खरीद। (114)

कथनी और करनी में बढ़ता अंतर, दोहरी नीतियाँ— "आधे अँगना पानी बरसे/ आधे अँगना धूप" (115) की स्थितियाँ, विद्रूपताओं, वैमनस्यता और विघटन को जन्म देती हैं। 'जीवन है तो जीना भी है, पर तृष्णा का कोई अंत नहीं है— "जितना पियो प्यास हो दुगनी", पर "सोच-समझकर पीना होगा" (117), क्योंकि इसमें विष और अमृत दोनों हैं। अतः डॉ विनय जी सचेत करते हैं— 

इस नदिया में काल मकर है 
जो रहता हरदम मुँह खोले 
हम बे-फिकर न देखें उसको 
निकट आ रहा हौले-हौले 

ग्रास बनें हम, इसके पहले 
उसका ही मुख सीना होगा। (117)

'समता के बीज-मंत्र'गीत में कवि मानवीय संवेदनाओं को जगाते हुए "आयत औ'चौपाई साथ गुनगुनाएँ" (116) के रूप में देश को एकता के प्रेम-सूत्र में बाँधने का प्रयास करता है। 'मेरा बेटा'गीत में घर से दूर होते बच्चों की मनोदशा तथा ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप्प आदि के प्रभाव का अंकन है। 'पुरखों की देहरी से लगाव'में गाँव की राजनीति के कारण— "लाठी और कलम— दोनों में/ करना पड़ा चुनाव हमें" (110) में गाँव छोड़ने की मजबूरी का जिक्र है। 'जब से चली बयार'गीत में पछुआ के स्पर्श से उद्वेलित नवयौवना के मानसिक ऊहापोह को कवि ने प्रकृति के माध्यम से व्यक्त किया है, तो वहीं 'पनडिब्बे में'गीत में माँ के पनडिब्बे की स्मृतियों में जीवन के छोटे-छोटे रेशों और अपनेपन की संस्कृति का उन्मेष है। डॉ विनय जी के गीत लोक से अधिक जुड़े हैं।

(13)
रमाकांत जी नवगीत में सामाजिक सरोकारों की तो बात करते हैं, पर सबूत और अर्थों से परे बिम्बों तथा प्रतीकों के अनावश्यक प्रयोगों को उचित नहीं मानते। वे आज के खुले समय में साफ अभिव्यक्ति के पक्षधर हैं। पहले गीत में "जीत उसकी फिर/ हमारा हारना फिर" (119) की पड़ताल में जिंदगी की अनवरत रीतेपन के लिए वे— "दोष मेरा, दोष उनका/ दोष सबका/ हाँ, मगर दोषी/ बड़ा है एक तबका" (119) के रूप में जन-सामान्य को तो दोषी मानते ही हैं, पर उस बड़े शक्तिशाली तबके की ओर भी इशारा करते हैं जो कोल्हू के बैल को हाँक रहा है। इस विभीषिका में लगता है कुछ बचेगा ही नहीं। रंजिशें, अहंकार और लोकतंत्र की आड़ में फिर वही बातें और चालें चली जा रही हैं। भले ही राजशाही नहीं है, पर— "बस, जरा-सा 'क्लिक'/ कि दग जाये पलीता" (121)— कवि साइबर-युद्ध जैसी भयावह महाभारत जैसी विभीषिका से आगाह करता है। 'योग होता है विरल'गीत में शहर की अपेक्षा गांव का सुख और 'विषम-सी पगडंडियों की स्नेह की भाषा'अभिभूत करती है। ग्लैमर की दुनिया के रंगों और आज की विद्रूपता की ओर खिंच रहे युवाओं और उन पर पड़ रहे प्रभावों को 'सेलिब्रिटी'गीत में उजागर किया है, तो 'हे गरीब'के अंतर्गत प्यासों के घर में पानी की बात बड़ी मार्मिक और दयाद्रता को बिम्बित करती है। रमाकांत ने प्रेम को मदारी की भांति स्वार्थी और सौदेबाजी का खेल माना है। कवि ने माँ की ममता के प्रति नमन करते हुए— "सपने टूटे फिर भी सपनों का/ सत बाकी है" (126) गीत में "संघर्षों की अकथ-कथा में/ साथ नहीं कोई/ हारे तो हारे हम/ निर्मल दृष्टि नहीं खोई" (126) की आशावादिता सिर उठाती है। दिनों के बदलाव में आशा और आशा से ही प्रकृति के अनोखे रचाव में कल का विश्वास है, यथा—

बदलेंगे दिन 
ऐसी आशा बची हुई है 
आशा से ही 
प्रकृति अनूठी रची हुई है 

देखो, रुको 
समय का पतझड़ 
बीता जाये। (128)

इस प्रकार शिल्पीय गूढ़ता से दूर रमाकांत जी के गीत जीवन की सूक्ष्म-संवेदना के गीत हैं।

(14)
तृतीय पर्व 'आठ-बोध'में नवगीत के प्रमुख हस्ताक्षर दिनेश सिंह का "गीत की संघर्षशील जयी चेतना"शीर्षक से एक लेख संकलित है। यह आज के गीत की प्रासंगिक भूमिका है। नवगीत नई कविता के साथ-साथ युग की पीड़ा को खेलता हुआ अपने पथ पर आगे बढ़ा है, किंतु नई कविता ने इसे अपना प्रतिपक्ष ही मानकर सदा विरोध किया। इस विरोध के बावजूद नवगीत युगबोध के साथ बराबर आगे बढ़ता रहा, संघर्ष करता रहा। आज के गीत की प्रासंगिकता समय के समग्र यथार्थ से जुड़ी हुई है। नवगीत की छान्दसिक समकालीनता को केवल छंदों में बाँधने का शिल्प नहीं है, वह कविता की वह भावप्रवणता है जो रागात्मक लय से जीवन में आवेगमयी धड़कने पैदा करती है। दिनेश जी ने इस लेख में बहुत अधिक गहरे तक जाकर गीत की संघर्षशील चेतना को, उसकी जयी चेतना को समझने और समझाने का प्रयत्न किया है। जीवन की भाषा तथा गीतों की भाषा के बीच लयात्मक संबंध और अभिव्यक्ति के फलक पर कल्पनाशीलता, बिम्बों आदि की आवश्यकता पर भी विचार किया है।

(15)
अंतिम पर्व में "नवगीत : न्यूनतम शब्दों में अधिकतम अभिव्यक्ति"शीर्षक से डॉ अवनीश सिंह चौहान द्वारा डॉ मधुसूदन साहा से लिया गया साक्षात्कार दिया गया है। इसमें डॉ साहा जी की काव्ययात्रा, उन पर अन्य रचनाकारों का प्रभाव, कविता की विभिन्न विधाओं में उनके आधिकारिक लेखन तथा हिंदी और उड़िया में उनके गद्य लेखन आदि पर चर्चा उनके व्यक्तित्व की महत्ता को उद्घाटित करते हैं। इस साक्षात्कार में डॉ चौहान ने उनसे नवगीत के संदर्भ में उसके स्वरूप, प्रवर्तन, दशा और दिशा तथा नवगीत दशकों में उनकी अनुपस्थिति को लेकर प्रश्न किए हैं, जिससे नवगीत के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। 

नवगीत विधा के महत्वपूर्ण साधक होने के नाते गीत की काव्य धाराओं पर उनके विचार और दीर्घकालीन साहित्यिक यात्रा में उनके खट्टे-मीठे अनुभव, पत्र-पत्रिकाओं में उनके गीतों के प्रकाशन तथा प्रिंट मीडिया की बड़ी पत्रिकाओं द्वारा नवगीत से दूरी बनाए रखने के विषय में भी डॉ चौहान की चर्चा हुई है। नवगीत अपने समय और समाज का प्रतिनिधित्व ठीक से कर रहा है? के सवाल पर डॉ साहा जी का उत्तर कि आज की तारीख में नवगीत ही वह काव्यधारा है जिसने समसामयिक जीवन-मूल्यों के तमाम कथ्यों को संपूर्ण सामर्थ्य सहित अभिव्यक्ति प्रदान कर यह सिद्ध कर दिया है … कि उसे अपनी विकास यात्रा में आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता।

इस प्रकार 'नवगीत वाङ्मय'नवगीत का एक सम्यक संपादन है। इसके लिए हिंदी और अंग्रेजी भाषा के यशस्वी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ एवं बधाई।

समीक्षक : 
डॉ वीरेन्द्र निर्झर का जन्म 15 अक्टूबर 1949 को महोबा, उत्तर प्रदेश में हुआ। बुरहानपुर (म.प्र.) के एक महाविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष रह चुके डॉ निर्झर की अब तक एक दर्जन से अधिक पुस्तकें— 'ओंठों पर लगे पहरे' (नवगीत संग्रह), 'विप्लव के पल' (काव्य संग्रह), 'ठमक रही चौपाल' (दोहा संग्रह), 'कजली समय' (पाठालोचन), 'वार्ता के वातायन' (आलेख), 'बुंदेली फाग काव्य : एक मूल्यांकन (सं), आल्हाखण्ड : शोध और समीक्षा (सं) प्रकाशित हो चुकी हैं। संपर्क : एम.बी./120, न्यू इंदिरा कालोनी, बुरहानपुर-450331 (म.प्र.)

Book Review of Navgeet Vangmaya. Reviewer - Dr Virendra Nirjhar

कबीरदास : श्रमजीवी-दर्शन की एक प्रस्तावना — वंदना चौबे

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शोध आलेख : पूर्वाभास, वर्ष 12, अंक 1, जनवरी 2022

आँखिन की देखी से कागद की लेखी का भरम तोड़ना  

 

‘बिन ठाहर बिसवास’ 
अनल आकासाँ घर किया, मद्धि निरंतर बास
बसुधा  व्योम बिगता रहै, बिन ठाहर बिसवास 

कबीर जब यह कहते हैं तो ध्यान रखना  चाहिए कि यह ‘बिन ठाहर’ क्या है! अनल अकासा’ क्या है! इनकी व्याख्या नाथ और योगियों की परिभ्शा और मान्यताओं के अनुसार होती ही रही है बावजूद इसके यह समझना होगा कि पारंपरिक-वैचारिक मान्यताओं के बाद भी लिखने वाला अपने समय और समाज के द्वंद्व से उपजे अपने आत्मिक-व्यक्तिक संघर्ष की गुज़र को भी लिख रहा होता है।इस गुज़र से गुज़रे बिना रचनाकार के मूल उत्स तक पहुँचना कठिन है।

समाज मे ताकतवर और प्रभुत्वशाली होने के मोटे तौर पर कुछ पुख्ता सामाजिक धारणायें होती है जो असमानता आधारित होती है, जैसे- 

— ज्ञान-बल, प्रबुद्धता या बौद्धिकता का वर्चस्व।

सामंती समाज मे यह ज्ञान धर्माधारित था। धर्म ही ज्ञान और ज्ञानोत्पादन का स्रोत था।बहस-मुबाहिसों और शास्त्रार्थ आदि मे जो मूल रूप से मसले-   मुद्दे उठाए जाते थे वे धर्माधारित दार्शनिक-बौद्धिकता से जुड़े हुए होते थे।उनका व्यवहारवाद भी सीमित और विशेष समुदाय हितों, उनके ज्ञान और उनकी सोच की सीमा तक महदूद होते थे।

— जाति-बल  जो समाज और समुदाय में विश्वास के साथ स्थापित करती है।अस्तित्व और इडेंटिटी देती है।मूल अर्थ मे जाति ज्ञान से भी अधिक गहरे जड़ो मे बसी हुई थी।जाति प्रभुत्व और ताकत आज़माने और नीति-निर्देशन मे बड़ा काम किया करती थी।

— धन-बल तो हर समय-समाज की सचाई है।जाति-जुलाहा कबीर अपनी ज़मीन पर एक श्रमिक थे। बुनकर! खटान का काम! आँख लगाकर बारीक काम करने वाले इस श्रम का स्थान समाज मे गरिमापूर्ण और भरोसे वाला नहीं था। सामंती समाज मे श्रम की जो स्थिति रही उसका वृहत्तर विस्तार औपनिवेशिक और बाद बाज़ारवाद के समय में और कमतर और हीन हुआ। 

— पारंपरिक पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी समाज मे अपना महत्व होता है।निर्धन-निर्जात परिवारों की पृष्ठभूमि भी यदि किसी मान्य परंपरा मे आती है तो समाज में उसका एक विशेष स्थान बनता है।

इनमे से किसी भी सामाजिक मापदंड के अनुरूप कबीर किसी बिन्दु, किसी स्थान पर समायोजित नहीं होते।इनमें से कोई आधार कबीर के पास नहीं है।कबीर इनमे से किसी परंपरा पर दावा तो छोड़िए किसी स्थान पर खड़े भी नहीं हो सकते तो वह कौन सा भरोसा..कौन सा विश्वास है जिसके बल पर कबीर इतना बोलते हैं?और इतना तल्ख़ इतने विश्वास के साथ बोलते हैं?वह कौन सी ठहर-ठौर है जहाँ से कबीर अपने समाज को नग्न आँखों से देखने का दावा करते हैं?

वह आधार..वह भरोसा..वह ठौर-ठाहर श्रम और संघर्ष का है।श्रम-संघर्ष की जगह से कबीर अपने समाज के जिस यथार्थ को देखते हैं वह शास्त्रार्थ-परंपरा की जगह से देखना संभव नहीं।घर, मठ और मंदिर मे बैठकर किए  जाने वाले तात्विक-चिंतन और शास्त्रार्थ से श्रम के दर्शन और उससे उपजे दुख और विराग को नहीं समझा जा सकता।श्रम और संघर्ष सबके अपने हो सकते हैं! होते ही हैं लेकिन हमें उस श्रम को समझना होगा जो नितांत दैहिक या भौतिक है! सामाजिक मान्यताओं मे बिलकुल निचले दर्ज़े का माना जाने वाला!जिस पर समाज का सामंती ढाँचा खड़ा है लेकिन इस श्रम की कोई मान्यता नहीं है न ही कोई गरिमा।ऐसी अवस्थिति और काम जिसका कोई विकल्प नहीं, एक वर्ग को जिसे करना ही है,जिसके लिए एक समूचा समुदाय अभिशप्त है।भक्तिकाल के निर्गुण संतो का समुदाय दरअसल मेहनतकश और श्रमशील समुदाय है।निश्चित रूप से तत्कालीन समय मे अनेक धाराएँ और पंथ सक्रिय थे लेकिन उन पंथो से जुड़े निर्गुणियाँ किसी न किसी श्रमजीविता से जुड़े हुए थे।हिन्दी साहित्य के मान्य इतिहासों से इतर थोड़ा उतरकर सोचें तो इन निर्गुणियाँ पंथों ने जीवन-जगत के प्रति जिस तरह की गहरी और तात्विक बातें सूत्र रूप मे कह दी हैं इतनी सहजता-सरलता और स्पष्टता वैदिक-वैष्णव-शिव या शाक्त परम्पराओं नहीं है।यथार्थ और व्यावहारिकता के साथ साथ जीवन- विराग की इतनी ऊँची बातें हमे निर्गुण संतों मे ही दिखाई देती हैं।अकारण नहीं कि यह उनके यहाँ रगड़ खाये खुरदरी ज़मीनी हक़ीक़त से उपजे बयान हैं—
सहज सहज सब ही कहें सहज न चीन्हे कोई 

हमारे समय का एक सरल-सादा कवि त्रिलोचन कहता है—
इधर सचमुच तुम्हारी याद नहीं आई 
झूठ क्या कहूँ/ पूरे दिन मशीन पर खटना
बासे पर आकर पड़ जाना 
और कमाई का हिसाब जोड़ना/ बराबर चित्त उचटना 
इस उस पर मन दौड़ाना
फिर उठकर रोटी करना 
कभी नमक से कभी साग से खाना 
आरर डाल नौकरी है/ यह बिलकुल खोटी है।
इसका कुछ ठीक नहीं आना जाना।
आए दिन की बात है वहाँ टोटा टोटा छोड़ 
और क्या था।
किस दिन क्या बेचा कीना
कमी अपार कमी का ही था अपना कोटा 
नित्य कुआँ खोदना तब कहीं पानी पीना 
धीरज धरो, आज कल करते तब आऊँगा 
जब देखूंगा अपने पर कुछ कर पाऊँगा।

यहाँ इस कविता में कोई अतिरिक्त भावुकता या अतिरेकी विवशता और दुख नहीं है, क्योंकि श्रम से उपजे विचार और भावों के पास इतना अवकाश नहीं होता कि वह आत्मग्रस्त भावुकता के सुविधाजनक दुख बना सके।

श्रम के बल पर ही कबीर के भीतर यह विश्वास पैदा होता है कि वे धन-बल,ज्ञान-बल और जातिगत सत्ता संरचना को चुनौती देते रहे।पूंजीवादी समाज ने दैहिक श्रम को निचले पायदान पर रखकर प्रभु वर्ग को अनियंत्रित लूट का एक वैधानिक रास्ता दे दिया है जिससे काम करने वाला रोज़ दिन खटता रहता है लेकिन श्रम के अनुरूप न उसे परिश्रमिक मिलता है न ही समाज मे वीएच प्रतिष्ठा और स्थान!

पारंपरिक आलोचकों ने कबीर कि कविता को मात्र समाज-सुधारक कविता कहकर उसे एक किस्म से मैनेज कर लेने कि कोशिश की है, वे उसके मर्म तक या तो गए नहीं या जान बूझकर जाना नहीं चाहते। कबीर कि कविता खुद एक बयान है। वह कहती है—
तेरा मेरा मनुवा कैसे इक होई रे
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यों अरुझाय रे

कबीर स्पष्ट कहते हैं कि वे जो शास्त्र बल पर, तथाकथित ज्ञान-बल पर, जाति-बल पर या धन-बल पर विद्वान बने हुए हैं उनका ज्ञान कितना खोखला और अधूरा है इसलिए मेरा और उनका मन एक हो ही नहीं पाता।मैं चीजों को जीवन कि जटिल प्रक्रिया से भी सरलतम करके निकालता और समझता हूँ जबकि शास्त्रज्ञ जन उस सहज-ज्ञान को बौद्धिक-विलास के लिए उलझाते जाते हैं।शास्त्रज्ञ और धनी लोग जो श्रम को निचले दर्जे का समझते हैं, दरअसल वे भरे पेट और समाज मे जातिगत आधार पर प्रतिष्ठित लोग हैं अतः उनके पास बौद्धिक विलास का समय है, बौद्धि विलास जैसे ज्ञान और शास्त्र को वे दर्शन के रंग मे लपेटकर जज्ञान का नाम देते हैं। कबीर ऐसे शास्त्र को चुनौती देते हैं— "तू कहता कागद की लेखी/ मैं कहता आंखिन की देखी।"

कबीर को अपने जीवनगत अनुभव पर भरोसा है। उन्हे मनुष्य कि साझा पीड़ा, विषाद, शोषण और दुख कि समझ है। उन्हे मनुष्य के समूहिक शक्ति और प्रतिरोध कि समझ है।वे मनुष्य की समूहिक शक्ति को बिखेरने के शास्त्रीय छद्म को ठीक से समझते हैं।

हमारे समय के कवि आलोक धन्वा कहते हैं—
‘मैं जानता हूँ कुलीनता की हिंसा’

कबीर को समायोजित करने के लिए अनेक कुलीन आलोचक और विद्वानो ने काम किया है, यहाँ तक कि उनकी साखियों की तर्ज़ पर अनेक छद्म साखियाँ रची गयी हैं जिनमे धार्मिक कर्मकांड को खूब बढ़ा चढ़ाकर लिखा ज्ञ है जिससे मूल कबीर हमसे दूर पड़ते जाएँ लेकिन यहाँ फिर इस बात की ओर ध्यान जाना चाहिए कि कबीर के श्रम संबंधी साखियों को ध्यान मे रखते हुए हमे इन छद्म साखियों को कैसे अलगाना चाहिए।

इसी तरह कबीर के गुरु संबंधी विचारों को लेकर भी छद्म पद रचकर संशय को बढ़ावा दिया गया है जिससे मूल कबीर तक हमारी पकड़ न रह सके लेकिन बनारस कि ठसक वाले कबीर की बनारसी भाषा-भाव  और तेवर कबीर को अंततः कबीर बनाती है।डॉ. धर्मवीर ‘कबीर के कुछ और आलोचक’ के अध्याय ‘हिन्दू कबीर की खोज’ में कबीर के आलोचक डॉ. राजदेव सिंह के संदर्भ में लिखते है- "डॉ. राजदेव सिंह कबीर को हिन्दू धर्म से दूर नहीं होने देते।वे लिखते हैं कि वैसे ध्यान देने की बात है कि उनके मन में तीर्थ व्रत, माला, तिलक और जप-तप के लिए कोई प्रतिकूल भाव नहीं था।तीर्थ के प्रति उनकी आस्था को समझने का अवसर हमें अभी मिलेगा। रहा व्रत, माला, तिलक और जप-तप तो इनके विषय में भी वे आस्थाशील थे। उन्होने बार-बार नाम जप तरने की बात कही। तप उनका आदरणीय है" (कबीर के कुछ और आलोचक, 62)।

कबीर दशरथ के बेटे राम में भी अपने राम की झलक देख लेते हैं।..(शासक, जमींदार, राजा) में दीन-प्रतिपालन का गुण इस राम की छवि में दिखा जाता है। (कबीर के कुछ और आलोचक, 62)

डॉ. राजदेव सिंह चिंतन के क्षेत्र में बहुत दूर दूर तक घूमे हैं लेकिन अंत में उन्होने कबीर को वेदांती बनाकर रख दिया।अब वे बुद्ध , महावीर और नानक की प्रभाव छाया से भी दूर हो गए। वे ऐसे हो गए हैं, हिन्दू धर्म के जैसे क्षत्रिय आजकल ब्राह्मणों के जगतगुरूपन में रह गए हैं। (कबीर के कुछ और आलोचक, 62)

आचार्य क्षितिमोहन सेन कहते हैं— "कबीर की आध्यात्मिक क्षुधा एवं आकांक्षा विश्वग्रासी है। वह कुछ भी छोडना नहीं चाहती इसलिए उन्होने हिन्दू, मुसलमान, सूफ़ी, वैष्णव, योगी, प्रभृत्ति सभी साधनाओं को ज़ोर से पकड़ रखा है।" 

इस तरह बड़े-बड़े विद्वानों ने किसी न किसी प्रकार से कबीर को वैष्णवी हिन्दू पंथ कि ओर देखने के तर्क रखे हैं।आलोचक देवीशंकर अवस्थी तो कबीर को सगुण मार्गी साबित कर देते हैं। 
कबीर निर्गुण की उपासना केवल कहते भर हैं; पर करते उपासना सगुण की ही हैं। सिद्धान्त में कबीर निर्गुणोपासक हैं, व्यवहार में नहीं। कहते हैं ऐसा ही आंतरिक विरोध तोल्स्तोय मे भी पाया जाता है। उनके उपदेश, नीति आदि आदर्शों और कलात्मक कृतियों के मध्य सामञ्जस्य की रेखा बैठाना किंचित कठिन है। (भक्ति का संदर्भ, 119) 

इसके बाद देवीशंकर अवस्थी सगुण कितना विस्तृत अर्थ लिए हुए है-इसकी व्याख्या करते हैं जिसमे सभी कुछ समा सकता है।लेकिन इसी विस्तार के साथ वे निर्गुण कि व्याख्या नहीं करते। बस यह कहते हैं कि कबीरर का निर्गुण नकारात्मक नहीं था। इसका मतलब क्या सगुण इतना विस्तृत था कि सब निर्गुण-सगुण उसमे समाहित हो सकता है लेकिन निर्गुण को वे अराजक किस्म का नकारात्मक मानते हैं?

डॉ. धर्मवीर कबीर को अस्मिता मूलक खांचे से बाहर देखते ही हमलावर हो जाते हैं तो सवर्ण आलोचक ‘प्रेम-रस’ के सम्मोहक लेप के माध्यम से धीरे-धीरे कब्र कि तल्खी और तीक्ष्ण तेवर को भोथरा कर अपने चिंतन मे समायोजित करने का प्रयास करते हैं।

कबीर पर स्त्री-विरोध का जो आरोप लगा हुआ है उसे नामवर सिंह कुछ दूसरी तरह से विश्लेषित करते हैं—
मुद्दे की बात यह है कि कबीर जब धर्म के ठेकेदारों को चुनौती देते हैं तो उसका एक महत्वपूर्ण आधार है स्त्री। स्त्री पक्ष से ही वे काज़ी से जिरह करते हैं और पांडे को भी फटकारते हैं। सच तो यह है कि कबीर अक्सर स्त्री की ओर से नहीं स्त्री की तरह बोलते हैं। क्या इसलिए वे जन्म से जुलाहे हैं? समाज मे जुलाहे की वही स्थिति है जो स्त्री की।चाहे इस्लाम हो, चाहे हिन्दू धर्म-दोनों ही जगह स्त्री और शूद्र कि की जगह एक सी है। स्त्री के साथ कबीर के तादात्म्य का बुनियादी कारण यही तो नहीं? (कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, 53)

सोचना चाहिए क्या स्त्री दुख से कबीर की वाणी का तादात्म्य है? नामवर जी का यह कथन विचारणीय है हालांकि इस पर बहस प्रस्तावित होनी चाहिए।    
  
कबीर का अध्ययन इस खींच-तान से नहीं, ठोस द्वन्द्वात्मक मूल्यांकन से होना चाहिए।कबीर समाज सुधारक नहीं बल्कि विद्रोही कवि है। समाज-सुधार और अध्यात्मिकता  के पारंपरिक चश्मे से हम कबीर की तल्खी, कबीर के दुख और कबीर की चिंताओं की लीपापोती कर देते हैं जबकि आज के पूंजीवादी दौर मे जहां गरीब-अमीर के बीच बढ़ती खाई, सामंतवाद के नए रूप और श्रम का अमानवीय वर्गीकरण के दौर मे कबीर की तल्खी और प्रश्न पूछने का साहस हमारे लिए बहुत ज़रूरी है।

कबीर अपने मूल मे शास्त्रज्ञों के आडंबरों के समानान्तर जनमानस के अनुभव आधारित मुखर ज्ञान को सामने रखते हैं, उसे प्रस्तावित करते हैं। इसी आधार पर वे श्रमशील जनता के पक्ष मे खड़े होकर सामंती-पूंजीवादी समाज की आलोचना भी करते हैं।

संदर्भ :
1. द्विवेदी, हजारीप्रसाद, कबीर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019
2. चतुर्वेदी, आचार्य परशुराम, संत काव्य, किताब महल, इलाहाबाद, 1981  
3. अग्रवाल, पुरुषोत्तम, अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009  
4. हाली, जॉन स्ट्रेट्न, भक्ति के तीन स्वर: मीराँ, सूर, कबीर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019  
5. पाण्डेय, मैनेजर, भक्ति आंदोलन और सूर का काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001 
6. गुप्त, माताप्रसाद (सं), कबीर ग्रंथावली, साहित्य भवन, इलाहाबाद, 1985 
7. भारती, डॉ. धर्मवीर, कबीर के आलोचक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004
8. भारती, डॉ. धर्मवीर, कबीर के कुछ और आलोचक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2002
9. अवस्थी,  देवीशंकर, भक्ति का संदर्भ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997 
10.  सिंह, नामवर, कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010 

लेखिका :
डॉ वंदना चौबे आर्य महिला पी.जी. कॉलेज (BHU), चेतगंज, वाराणसी में सहायक आचार्य (हिन्दी विभाग) के पद पर कार्यरत हैं। ईमेल : jnuvandana@gmail.com
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नवगीत और उसकी मौजूदा समस्याएँ — वीरेन्द्र आस्तिक

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शोध दिशा : पूर्वाभास, वर्ष 12, अंक 1, जनवरी 2022

आज नवगीत एक समृद्ध विधा है। बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि भविष्य में नवगीत का सुनहरा युग आने वाला है। इस परिप्रेक्ष्य में बात करने के लिए हमें नवगीत के इतिहास को भी जाँच-परख लेना चाहिए। यों तो नवगीत का इतिहास व्यापक है, किन्तु यहाँ पर हम कुछ मुख्य बिन्दुओं पर आप सभी का ध्यान चाहेंगे, तभी मौजूदा परिस्थितियों और समस्याओं पर विचार करना तर्कसंगत होगा। यहाँ पर हम नवगीत के इतिहास को प्रमुखतः चार खण्डों में विभाजित करके देख सकते हैं। यहाँ हम बहुत विस्तार में न जाकर इन चार खण्डों के संक्षिप्ततम रूप को अर्थात् एक संकेत के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।

आज नवगीत एक समृद्ध विधा है। बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि भविष्य में नवगीत का सुनहरा युग आने वाला है। इस परिप्रेक्ष्य में बात करने के लिए हमें नवगीत के इतिहास को भी जाँच-परख लेना चाहिए। यों तो नवगीत का इतिहास व्यापक है, किन्तु यहाँ पर हम कुछ मुख्य बिन्दुओं पर आप सभी का ध्यान चाहेंगे, तभी मौजूदा परिस्थितियों और समस्याओं पर विचार करना तर्कसंगत होगा। यहाँ पर हम नवगीत के इतिहास को प्रमुखतः चार खण्डों में विभाजित करके देख सकते हैं। यहाँ हम बहुत विस्तार में न जाकर इन चार खण्डों के संक्षिप्ततम रूप को अर्थात् एक संकेत के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।

नवगीत का पहला कालखण्ड है उसके जन्म का। उद्भव का। हम सभी नवगीतकार जानते हैं कि नवगीत एक तत्व के रूप में हमें महाप्राण निराला की रचनात्मकता से प्राप्त हुआ। आधुनिकता के प्रथम चरण में निराला उस टर्निंग प्वाइंट पर खड़े थे जहां से कविता समाज के यथार्थ और उसके सापेक्ष मूल्यों से प्रभावित होती है, और वह प्रभाव हमें बाद के रचनाकारों में दिखाई देने लगता है। केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, वीरेन्द्र मिश्र, डॉ. रवीन्द्र भ्रमर और राम दरश मिश्र आदि एक प्रेरणास्रोत के रूप में दिखाई देते हैं। 1948 में अज्ञेय के संपादन में 'प्रतीक'का 'शरद अंक'आया, जिसमें अघोषित रूप से नवगीत विद्यमान थे। तदोपरान्त एक श्रृंखला के रूप में 'कविताएं - 52-53 और 54'आदि का प्रकाशन हुआ। इन अंकों में भी नवगीत का तत्व था। उस समय जो नए गीत आ रहे थे, वे पारम्परिक गीतों से अलग हट कर आ रहे थे। 1958 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के संपादन में 'गीतांगिनी'आई। 'गीतांगिनी'में नवगीत का नामकरण ही नहीं, बल्कि उसका तात्विक विवेचन भी किया गया। उस दौर का यही सब नवगीत के उद्भवकाल का संक्षिप्त इतिहास है। उद्भव कैसा भी हो, वह हमें आल्हादित करता है। वहाँ आलोचना की गुंजाइश कम होती है, आलोचना की संभावनाएं उसके विकास में हुआ करती हैं।

नवगीत का दूसरा कालखण्ड आता है उसकी स्थापना का, जो सन् 1960 से माना जाना चाहिए। स्थापना काल में भी अनेक समवेत संकलन आए। गीत की इस नई अवधारणा की एक प्रकार से आंधी-सी चल पड़ी। बड़े-बड़े रचनाकार नई कविता को छोड़कर नवगीत के क्षेत्र में आ गए। नई कविता 1952-53 में स्थापित हो चुकी थी। सन् 1960 से नवगीत को लेकर बहसों और विमर्श का दौर शुरू हुआ। ओम प्रभाकर की 'कविता-64'जैसी पत्रिकाओं से नवगीत की जमीन तैयार होने लगी। भाषा के सारे बोझिल अंलकरणों को निरस्त करते हुए और लोक तत्वों से ऊर्जा ग्रहण करते हुए, ठाकुर प्रसाद सिंह की संथाली गीतों की ‘वंशी और मादल’ आई। 1969 में चंद्रदेव सिंह ‘पॉच जोड़ बाँसुरी’ लाए। 'गीतांगिनी'की तरह इस समवेत संकलन में भी पाँच पीढ़ियों के उन गीतों को चयनित किया गया, जिनमें कम या ज्यादा नवगीत के तत्व विद्यमान थे। सन् 1980 तक नवगीत पूरी तरह से स्थापित हो चुका था।

नवगीत का तीसरा चरण आता है, उसके विकासात्मक काल का। 9वें दशक के प्रारम्भ से ही एक ऐसा विकास देखने में आता है जिसमें अनेक प्रकार की भाषा-शैली के प्रयोग देखने को मिलते हैं। यों नवगीत अपने आरम्भिक काल से ही नए कथ्य के स्तर पर प्रयोगपरक ही रहा। यह काल भी अनेक समवेत संकलनों और नवगीत की पत्रिकाओं आदि से समद्ध हुआ। अब तक अनेकानेक नवगीतकार स्थापित हो चुके थे— उमाकांत मालवीय, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, छविनाथ मिश्र, विश्वरंजन, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, शांति सुमन, मधु सूदन साहा, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, सत्यनारायण, शम्भू नाथ सिंह, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, रमेश रंजक, श्रीराम सिंह शलभ, कुमार रवीन्द्र, माहेश्वर तिवारी, गुलाब सिंह, दिनेश सिंह आदि। इन्हीं के साथ उस दौर के नयी पीढ़ी के नवगीतकार डॉ राजेन्द्र गौतम व विजय किशोर मानव आदि भी चर्चित हो रहे थे। इन सारे नवगीतकारों में से, आयु के स्तर पर 10-10 रचनाकारों का चयन करके डॉ शंभुनाथ सिंह ने 'नवगीत दशक— एक, दो और तीन'निकाले। सर्वविदित है कि नवगीत के विकास में इन नवगीत दशकों का ऐतिहासिक महत्व रहा है। नवगीत के विकास की यात्रा भी थमी नहीं। डॉ सिंह के संपादन में ही 'नवगीत अर्द्धशती' (1986) भी आई। डॉ राजेन्द्र गौतम कृत 'नवगीतः उद्भव और विकास'जैसा शोध ग्रन्थ भी आया। 1997 में डॉ सुरेश गौतम के संपादन में 'काव्य परिदृश्य : अर्द्धशती : पुनर्मूल्यांकन'भाग एक और भाग दो आए। दोनों ग्रन्थों में लगभग 300 गीत-नवगीत के रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व पर सविस्तार विवेचन मिलता है। 1998 में गद्य कविता को चुनौती देता हुआ ‘धार पर हम’ (सं.- वीरेन्द्र आस्तिक) प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ की लम्बी भूमिका में अनेक पूर्वाग्रहों और भ्रान्तिओं का निवारण हुआ। बीच-बीच में ‘नवगीत एकादश’ (सं.- भारतेन्दु मिश्र, 1994) जैसे समवेत संकलन आये। इसी दौरान 'नये-पुराने' (सं.- दिनेश सिंह) के छः गीत अंक (1997-2000) भी आए। सन् 2000 में साहित्य अकादमी से ‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन’ आया। नवगीत की विकास-यात्रा में हमें कथ्य-भाषा-शैली के स्तर पर नवगीत के अनेक रंग, अनेक प्रकार के भाषाई मुहावरे देखने को मिलते हैं।

21वीं सदी के प्रारम्भ से ही नवगीत का चैथा चरण माना जा सकता है जो अपनी सारी ऐतिहासिक विशेषताओं को उजागर करता है। आज नवगीत अपने पूरे इतिहास बोध को साथ लेकर प्रगति-पथ पर अग्रसर है। इस अवधि में मधुकर गौड़ के संपादन में नवगीत के गीत नवांतर के रूप में कई अंक आए। 2004 में 'नवगीत और उसका युग बोध' (सं.- राधेश्याम बंधु), 2006 में 'शब्दपदी: अनुभूति एवं अभिव्यक्ति' (सं.- निर्मल शुक्ल) एवं 2009 में 'नवगीत : नई दस्तकें' (सं.- निर्मल शुक्ल) प्रकाशित हुई। बाद में नवगीत-इतिहास को समृद्ध करने हेतु ‘धार पर हम- दो' (सं.- वीरेन्द्र आस्तिक, 2010), 'नवगीत के नये प्रतिमान' (सं.- राधेश्याम बंधु, 2012), 'गीत वसुधा' (सं.- नचिकेता, 2013), 'नयी सदी के नवगीत' - पाँच खण्डों में (सं.- डॉ ओमप्रकाश सिंह, 2015-18), 'सहयात्री समय के' (सं.- डॉ रणजीत पटेल, 2016), 'समकालीन गीतकोश' (सं.- नचिकेता, 2017), 'नवगीत वाङ्मय' (सं.- अवनीश सिंह चौहान, 2021) आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी निकले।

मौजूदा दौर में भी अन्य महत्वपूर्ण समवेत संकलन प्रकाश में आते जा रहे हैं। इस तरह हिन्दी काव्य साहित्य के इतिहास में नवगीत का एक समद्ध इतिहास विद्यमान है। नवगीत के उपर्युक्त विकास को देखते हुए इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भविष्य में नवगीत का सुनहरा युग आने वाला है, जो नवगीत का चौथा काल खण्ड होगा।

आज नवगीत एक समृद्ध विधा के रूप में जरूर है, लेकिन उसके साथ यह बिडम्बना भी है कि वह साहित्य की मुख्य धारा में नहीं है। एक नकारात्मक बोध का इतिहास नवगीत की विकास यात्रा के साथ-साथ बराबर चलता रहा है और वह इतिहास आज भी मौजूद है। नवगीत हमेशा अपनी प्रगति के बावजूद षडयंत्रों और खेमीब़ाजी का शिकार रहा। इन षडयंत्रों और खेमेबाजी में किसी सीमा तक, नवगीत के अगुआ भी शामिल रहे हैं। उन लोगों के अपने-अपने पूर्वाग्रह रहे हैं और ये पूर्वाग्रह हमारी एकजुटता में बाधक रहे हैं। अब हमें ऐसे फतवेबाजी के माहौल से उबरना होगा। हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होना होगा। मेरे विचार से दो प्रकार के ये पूर्वाग्रह हैं जो देखने में आए हैं। ऐतिहासिक और रचनात्मक। ऐतिहासिक अर्थात हम फलां-फलां गुट के हैं। गुटपरस्ती हमें विरासत में मिली हुई है। यानी एक तरह से ये पूर्वाग्रह हम रचनाकारों के संस्कार बन चुके हैं। इसी तरह रचनात्मक स्तर पर पूर्वाग्रह हैं— अर्थात् फलाने का नवगीत, नवगीत नहीं है या अमुक नवगीत साधारण-सा है। अब हमें इस प्रकार की मानसिक ग्रन्थियों से उबरना होगा। हमें सभी रचनाकारों के रचनात्मक अवदान को आत्मसात करना चाहिए। तभी हम सब अपनी अंर्तआत्मा से एकजुट हो पाएंगे। यहाँ उदाहरण के लिए गद्य कविता के क्षेत्र की एकजुटता को देखा जा सकता है जो एक आदर्श के रूप में हमारे सामने हैं।

अक्सर अलग-अलग मोर्चों की लड़ाईयां निजी स्वार्थों में बदल जाया करती हैं। इस तथ्य को समझना होगा। विकल्प के रूप में अन्ततः हमें एक मंच पर आना ही होगा।

अन्तिम बात मैं हिन्दी आलोचना के सन्दर्भ में कहना चाहूँगा। अर्थात्मक दृष्टि से आज नवगीत गद्य कविता से किसी मायने में कम नहीं है। मैं हमेशा कहता रहा हूँ। यहाँ पर पुनः कह रहा हूॅू कि सभी विधाओं के केन्द्र में मनुष्य और उसकी मनुष्यता है अर्थात् सभी विधाओं में संरचनात्मक स्तर पर भिन्नता होते हुए भी कथ्यात्मक स्तर पर एकात्मकता है। समानता है। रचना प्रक्रिया की दृष्टि से रचना की प्रभावोत्पादकता में फर्क आ सकता है, बल्कि आता भी है, किन्तु ऐसा कभी देखने में नहीं आया कि नवगीत जटिल कथ्य को सहज रूप में कह न पाया हो। नवगीत ने भी आम और खास की लड़ाइयां लड़ी हैं।

पिछले 60 वर्षों में नवगीत ने अनेक रचनात्मक मूल्य स्थापित किए हैं, लेकिन उन पर विचार मुख्यधारा के आलोचकों द्वारा नहीं किया गया। तथ्य साफ है कि मुख्य धारा में हमारे नवगीत के आलोचक नहीं हैं। अर्थात् पिछले 60 वर्षों में हम ऐसा आलोचक, ऐसा इतिहसकार पैदा नहीं कर पाये, जो गद्य कविता के आलोचकों पर भारी पड़े। हम जिस प्रकार की आलोचना करते हैं, वह भी अंशतः खेमेबाजी से प्रभावित रहती रही है, उसमें विवेचना तो होती रही है लेकिन मूल्यांकन की दृष्टि अपेक्षाकृत कम ही रही है। इसका प्रमुख कारण जो मेरी समझ में आ रहा है वह यह कि हम सारी विधाओं के अध्येता नहीं होते हैं, कविता-कहानी आदि की आलोचना पद्धतियों से हम अनजान रहे हैं और शायद हम अनजान रहना चाहते भी हैं। यही सब कारण हो सकते हैं जिनकी वजहों से हम बड़े आलोचक पैदा करने में असमर्थ रहे। यही कारण है कि शैक्षिक और अकादमिक जगत में हमारी भागीदारी नगण्य हो जाती है।

यहाँ मैं आलोचना पर जोर क्यों दे रहा हूँ? विगत में डॉ नामवर सिंह जैसे गद्य कविता के आलोचक यह कहते आए हैं कि ‘गीत आलोचना की वस्तु नहीं है।’ यह कहकर वे एक तीर से दो निशाने साधते रहे हैं। एक— गीत इस लायक नहीं कि उसकी आलोचना हो और दो— शैक्षिक जगत में, गद्य कविता का एकाधिकार बरकरार रहे।

मेरा मानना हे कि यदि गीत पर विमर्श नहीं होगा तो वह मूल्यांकित भी नहीं होगा और यदि उसका मूल्यांकन नहीं होगा तो पाठ्यक्रमों आदि में प्रवेश का रास्ता भी नहीं बन पाएगा। यहाँ पर मैं बड़े आदर के साथ उन सभी आलोचकों-समीक्षकों को याद करता हूँ जिनकी महती भूमिका से नवगीत समृद्ध हुआ। लेकिन बात वहीं की वहीं है कि नवगीत आज साहित्य की मुख्य धारा में नहीं है जिसका वह हकदार है, क्योंकि उसकी वकालत के लिए हमारे पास बड़े आलोचक नहीं है।

मित्रों! हमारी वरिष्ठ पीढ़ी ने, हमारे वरिष्ठ आलोचकों-रचनाकारों ने नवगीत को स्थापित किया, उसको विकसित किया, उसका इतिहास रचा और यह सब करते-करते वह अब अवसान की ओर जा रही है। समय के ऐसे मोड़ पर हमारी दृष्टि अब अपनी युवा पीढ़ी पर टिकी हुई है। मेरा अनुरोध है युवा पीढ़ी से कि वह नवगीत लेखन के साथ-साथ आलोचना के क्षेत्र में भी प्रवेश करें। हमारी युवा पीढ़ी बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर नवगीत के क्षेत्र में अवतरित हुई है। मेरा संकेत मनोज जैन मधुर, अवनीश सिंह चैहान, डॉ जयशंकर शुक्ल, गरिमा सक्सेना जैसे नवगीतकारों की ओर है। डॉ राजेन्द्र गौतम और नचिकेता जी आलोचक के रूप में जाने जाते हैं और डॉ सुरेश गौतम को कौन नहीं जानता! लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनौतियों का सामना एकजुट होकर ही किया जा सकता है; छोटी-छोटी प्रतिक्रियात्मक बातों को भूलकर अब हमें गम्भीर हो जाना चाहिए।

लेखक :
वीरेंद्र आस्तिक हिंदी गीत-नवगीत विधा के सशक्त कवि, आलोचक एवं सम्पादक हैं। इन्हें 'उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान- लखनऊ'द्वारा 'साहित्य भूषण सम्मान' (2018) से अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क : एल-60, गंगाविहार, कानपुर-208010, ईमेल : astikavirendra@gmail.com

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आजाद अघोरी साधक : भुवनेश्वर — भारत यायावर

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शोध दिशा : पूर्वाभास, वर्ष 12, अंक 1, जनवरी 2022

भुवनेश्वर
पिछले दिनों मई, 1937 में प्रकाशित और बाबुराव विष्णु पराड़कर के द्वारा संपादित ‘हंस’ का ‘प्रेमचन्द-स्मृति-अंक’ पढ़ रहा था. इसमें प्रेमचन्द पर अनेक संस्मरण हैं, किन्तु जैनेन्द्र कुमार का संस्मरण सबसे लम्बा और दिलचस्प है- ‘प्रेमचन्द : मैंने क्या जाना और पाया’. इस संस्मरण में एक जगह जैनेन्द्र ने लिखा है : ‘‘प्रेमचन्द जी ने एक बड़ी दिलचस्प आपबीती सुनाई. एक निरंकुश युवक ने किस प्रकार उन्हें ठगा और किस सहज भाव से वह उसकी ठगाई में आते रहे, इसका वृतान्त बहुत ही मनोहर है. पहले-पहल तो मुझे सुनकर अचरज हुआ कि मानव प्रकृति के भेदों को इतनी सूक्ष्मता से जानने और दिखाने वाला व्यक्ति ऐसा अजब धोखा कैसे खा गया. लेकिन मैंने देखा कि जो उनके भीतर कोमल है, वही कमजोर है. उसे छूकर आसानी से उन्हें ऐंठा जा सकता है. उनकी उसी रग को पकड़कर उस चालाक युवक ने प्रेमचन्द जी को ऐसा मूँड़ा कि कहने की बात नहीं. सीधे-सादे रहने वाले प्रेमचन्द जी के पैसे के बल पर ऐन उन्हीं की आँखों के नीचे उस जवान ने ऐसे-ऐसे ऐश किये कि प्रेमचन्द आँख खुलने पर स्वयं विश्वास न कर सकते थे. प्रेमचन्द जी से उसने अपना विवाह तक करवाया, बहू के लिए जेवर बनवाये, और प्रेमचन्द जी सीधे तौर पर सबकुछ करते गये. कहते थे- भई जैनेन्द्र, सर्राफ को अभी पैसे देने बाकी हैं. उसने जो सोने की चूड़ियाँ बहू के लिए दिलाई थीं, उनका पता तो मेरी धर्मपत्नी को भी नहीं है. अब पता देकर अपनी शामत ही बुलाना है. पर देखो न जैनेन्द्र, यह सब फरेब था. वह लड़का ठग निकला. अब ऊपर ही ऊपर जो दो-एक कहानियों के रुपये पाता हूँ उससे सर्राफ का देना चुकता करता जाता हूँ. उस चतुर युवक ने प्रेमचन्द जी की मनुष्यता को ऐसे झाँसे में पकड़ा और उसे ऐसा निचोड़ा कि और कोई होता तो उसका हृदय हमेशा के लिए हीन और कठिन और छूछा पड़ गया होगा. पर प्रेमचन्द का हृदय इस धोखे के बाद भी मानो और धोखा खाने की क्षमता रखता था. उस हृदय में मानवता के लिए सहज विश्वास की इतनी अधिक मात्रा थी.’’

जैनेन्द्र के प्रेमचन्द पर लिखे गए संस्मरण के इस अंश पर आकर ठिठक गया और कई दिनों तक सोचता रहा कि वह ठग युवक कौन हो सकता है, जिसको प्रेमचन्द ने अपने हृदय में स्थान दिया और उसके लिए इतना अधिक खर्च किया. इतनी आत्मीयता उनकी किस युवक से थी? वह कौन था? ठग, धोखेबाज, नौटंकीबाज- किन्तु इतना प्यारा और प्रतिभाशाली- कौन था वह युवक?

कई दिनों तक यह प्रश्न अन्दर उठता रहा और बेचैन रहा. फिर अचानक एक नाम याद आया- भुवनेश्वर प्रसाद! कोई दूसरा नाम दिमाग में नहीं आया, क्यों?

इसका कारण है. प्रेमचन्द नये प्रतिभाशाली रचनाकारों की हर तरह से मदद करते थे और उनकी रचनात्मकता को प्रोत्साहित करते थे. उस दौर के अनेक युवा लेखक ‘हंस’ और ‘जागरण’ में पहली बार प्रकाशित हुए. प्रेमचन्द का अन्तरंग संस्मरण लिखते हुए शिवपूजन सहाय ने उनके उदार और तरल व्यक्तित्व का जो रेखाचित्र खींचा है, उसके कुछ वाक्यों के परायण से ही यह बात उजागर हो उठती है : ‘‘किसी के अपराध पर भी वे क्रोध करने के बदले हँसते ही थे. बहुत दिनों तक उनके संपर्क का सौभाग्य रहा, अनेक प्रसंगों पर उनकी उदारता और सहृदयता देखने के सुयोग मिले, पर कभी उन्हें क्रोध करते देखा ही नहीं. साधारण बोलचाल में भी वे सूक्तियाँ कह जाते थे. एक दफा कहा था- ‘गुस्सा पी जाने पर आबे-हयात (अमृत) बन जाता है.’’

ऐसे थे प्रेमचन्द! यहाँ तो ऐसे लेखकों की भरमार है जो एक भी अप्रीतिकर लगने वाली बात पर बातचीत बन्द कर देते हैं या गुस्से में आग-बबूला होकर खड्गहस्त हो जाते हैं.

अपने अराजक व्यक्तित्व के कारण भुवनेश्वर को उनके समकालीन लेखकों ने बहिष्कार कर दिया था, पर कुछ सदाशयी लेखक थे, जिनका स्नेह उनको मिला था. ऐसे लेखकों में प्रेमचन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने भुवनेश्वर को सबसे पहले ‘हंस’ में स्थान दिया और उनकी पुस्तक की छपने के साथ ही लम्बी समीक्षा लिखी, जिसके बल पर भुवनेश्वर साहित्य में अपनी रचनाशीलता को लगातार जारी रख सके.

भुवनेश्वर का पहला एकांकी ‘श्यामा : एक वैवाहिक विडम्बना’ ‘हंस’ के दिसम्बर, 1933 में प्रेमचन्द ने प्रकाशित किया. मार्च, 1934 ई. के ‘हंस’ में उनका दूसरा एकांकी ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ और इसी वर्ष उनका ‘शैतान’ नामक एकांकी. इन तीनों एकांकियों के प्रेमचन्द द्वारा (‘हंस’ में) प्रकाशित होते ही भुवनेश्वर को साहित्य जगत में मान्यता मिल गई. उन्होंने तीन अन्य ‘प्रतिभा का विवाह’, ‘रोमांस-रोमांच’ एवं ‘लाटरी’ नामक एकांकियों को मिलाकर अपना ‘कारवाँ’ नामक एकांकी-संग्रह 1935 ई. में प्रकाशित किया. इसकी भूमिका उन्होंने प्रयाग-प्रवास में 30 मार्च, 1935 ई. को लिखी और पुस्तक अप्रैल महीने में छपी, तो उन्होंने काशी जाकर उसे प्रेमचन्द को दिया. प्रेमचन्द ने उसकी लम्बी समीक्षा लिखी जो मई, 1935 ई. के ‘हंस’ में प्रकाशित हुई. भुवनेश्वर ने ‘कारवाँ’ की भूमिका और ‘उपसंहार’ बिल्कुल नए अंदाज में लिखी है, जिसमें उनकी अद्भुत मान्यताएँ सूक्तियों के रूप में उजागर हुई हैं. नमूने के तौर पर उसकी भूमिका से कुछ सूक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ  :

1. ‘आत्मज्ञान’ मानव-जीवन की सबसे बड़ी समस्या है और यह तभी संभव है जब वह संसार से ऊपर उठ जाय, क्योंकि मानव-जीवन के चारों ओर सभी वस्तुएँ एक समस्या हैं और सीमाएँ. आदिम मनुष्य ने जब एक शब्द गढ़ा, उसने सोचा, मैंने एक समस्या हल कर दी, पर वास्तव में उसने एक समस्या का सृजन किया.

2. नाटककार का पूर्व विकास तब होता है, जब वह स्वयं अपने असत्य पर विश्वास करने लगता है.

3. विचार-स्वातं॑त्र्य का अर्थ है विचारों का अभाव, जो वर्तमान युग में कोई ट्रेजडी नहीं है.

4. प्रायः समस्त नाटककार जो पेटीकोट की शरण लेते हैं, दो पुरुषों को एक स्त्री के लिए आमने-सामने खड़ा कर संघर्ष उत्पन्न करते हैं. मैंने भी यही किया है, केवल बुलडॉग कुत्ते के मुख से हड्डी निकाल कर अलग फेंक दी है.

5. जिस भांति जीवन असार और निष्फल है, उसी प्रकार कला भी. जीवन एक लजीली मुसकान है, कला एक शुष्क और कठोर हास्य.

कला अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर अश्लील हो जाती है. कला में अश्लीलता के अर्थ हैं नग्न पवित्रता.

‘कारवाँ’ की भूमिका ‘प्रवेश’ शीर्षक से लिखी गयी है, अंत में ‘पुनश्च’ लिखकर भुवनेश्वर ने लिखा- ‘‘मैं अपनी इस प्रथम छपी हुई कृति के साथ अमर कथाकार श्री प्रेमचन्द का नाम जोड़कर अपने-आपको उनका आभारी बनाता हूँ.’’

भुवनेश्वर की ‘कारवाँ’ उनकी रचनाशीलता के प्रारम्भिक चरण में ही प्रकाशित उनका इकलौता एकांकी-संग्रह है. उनकी कोई दूसरी पुस्तक उनके जीवन-काल में क्या, उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं छपी, जबकि उन्होंने लगातार एकांकी, कहानी, कविता, लेख आदि लिखे, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे रह गये. उनकी साहित्यिक दुनिया में चर्चा होती रही, नए एकांकी के प्रारम्भकर्ता के रूप में हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका स्थान भी निश्चित हो गया, अनेक एकांकी-संकलनों में उनके एकांकी संकलित हुए, विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकों में उनके कई एकांकी पढ़ाए जाते हैं. तात्पर्य यह कि अपनी अपूर्व रचनाशीलता के बलबूते भुवनेश्वर आज भी जीवंत हैं और अपनी ओर सतत ध्यान खींचते हैं.

भुवनेश्वर का जन्म 1910 ई. में शाहजहाँपुर में हुआ था. वहीं से उन्होंने पढ़ाई की थी. विद्यार्थी जीवन में उन्होंने अंग्रेजी भाषा में दक्षता प्राप्त कर ली थी और उर्दू-हिन्दी में लिखने का अभ्यास किया था. जॉर्ज बर्नाड शॉ के नाटक उनके घोंटे हुए थे. उन्होंने अपने एकांकी ‘शैतान’ के एक दृश्य में शॉ की छाया को स्वीकार भी किया है. कुछ समय तक वे फ्रायड और डी.एच. लारेन्स से भी प्रभावित रहे. इनके अलावा उनपर सबसे अधिक प्रभाव आस्कर वाइल्ड का था. 1933 में वे शाहजहाँपुर से इलाहाबाद आये और उनकी घनिष्ठ मित्रता उर्दू के प्रसिद्ध नवयुवक लेखक और बैरिस्टर सज्जाद जहीर से हुई. नवम्बर, 1932 ई. में सज्जाद जहीर ने उर्दू में ‘अंगारे’ नामक एक संयुक्त संकलन निकाला था, जिसमें उनके अलावा रशीदजहाँ, अहमद अली और महमूद जफर की चार कहानियाँ एवं एक एकांकी संकलित किया गया था. ‘अंगारे’ की कहानियों ने मुसलिम समाज की जड़ता, अंधविश्वास, सड़न और बदबू को उद्घाटित करते हुए उर्दू साहित्य में एक नई कलादृष्टि को जन्म दिया और यही संकलन उर्दू के तरक्की पसंद लेखकों की प्रेरणा का प्रस्थान-बिन्दु माना जाता है. इस संकलन पर बेहद वाद-विवाद हुए और संयुक्त प्रांत की सरकार ने मार्च, 1933 ई. में उसपर प्रतिबन्ध लगा दिया. उस समय सज्जाद जहीर इलाहाबाद के 38 कैनिंग रोड पर रहते थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रघुपति सहाय फिराक और अहमद अली प्रायः उनके घर बैठकी करते. भुवनेश्वर भी इसमें शामिल होते. इलाहाबाद में ही उनके दो मित्र और बने- शिवदान सिंह चौहान एवं शमशेर बहादुर सिंह. ये दोनों तब एम.ए. में पढ़ते थे. 12 फरवरी, 1936 ई. को इलाहाबाद के ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी’ में भाग लेने प्रेमचन्द आये थे और 14 फरवरी को सज्जाद जहीर के घर पर एक बैठक हुई जिसमें प्रगतिशील लेखक संघ स्थापित करने का निर्णय लिया गया. यह ‘अंगारे’ के लेखकों की मूल संकल्पना थी, जिसके प्रेरक प्रेमचन्द थे. एक-डेढ़ महीने में ही इलाहाबाद में हिन्दी-उर्दू लेखकों का यह सक्रिय मंच बन गया और देखते ही देखते कई शहरों में इसकी शाखाएँ खुल गईं. 10 अप्रैल को लखनऊ में इसका भव्य समारोह हुआ. भुवनेश्वर युवा लेखक के रूप में इसमें शामिल थे. उस समय भुवनेश्वर से जो भी मिला, वह उनकी प्रतिभा से कुछ प्रभावित और ज्यादा आतंकित हुआ. प्रगतिशील लेखक संघ के समारोह के बाद महीनों तक वे लखनऊ में रहे. रामविलास शर्मा से उनकी दोस्ती इलाहाबाद में हो चुकी थी. तब रामविलास जी रिसर्च कर रहे थे और अकेले रहते थे. भुवनेश्वर प्रसाद उनसे मिलने जाया करते.

रामविलास शर्मा से भुवनेश्वर की तीखी बहसें होतीं. अपने निरंकुश स्वभाव के बावजूद भुवनेश्वर में कुछ बातें ऐसी थीं कि रामविलासजी के मन में उनके प्रति सहृदयता थी. उस समय यानी 1936 ई. के दिनों की याद करते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है : ‘‘प्रेमचन्द, फिराक और सज्जाद जहीर के इर्द-गिर्द चक्कर काटने वालों में एक नौजवान लेखक थे भुवनेश्वर. कद में वह प्रेमचन्द से भी छोटे थे. अंग्रेजी और उर्दू अच्छी जानते थे, अपनी ‘विट’ से यूनिवर्सिटी के छात्रों और प्राध्यापकों को प्रभावित करने में वह अद्वितीय थे. उन्होंने कुछ दिन तक लोगों पर यह रोब गालिब किया था कि वह आई.सी.एस. परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके हैं, पर साहित्य-सेवा के लिए नौकरी नहीं की. दोस्तों से किताबें माँगकर ले जाते, किसी सेकेंड हैंड किताबों की दूकान में या कबाड़ी के यहाँ बेच आते. जान-पहचान वालों से अठन्नी, चवन्नी, रुपया जो मिल जाय, माँगने में उन्हें शर्म न थी. उन्हें कुछ अश्लील लोकगीत याद थे, फुर्सत में कभी-कभी मेरे कमरे में चटाई पर लेटे हुए पैरों में घुँघरू बांधकर ताल देते हुए ये गीत मुझे और नरोत्तम नागर को सुनाते थे. मैं उनसे कहता- ‘‘तुम न्यूरौटिक हो, प्रोग्रेसिव राइटर से तुम्हारा क्या सम्बन्ध?’’ भुवनेश्वर जवाब देते- ‘‘ए प्रोग्रेसिव इज ए न्यूरौटिक शौट थ्रू विद होप.’’

ऐसा था भुवनेश्वर का व्यक्तित्व! अनैतिकता का उन्होंने अपना ऐसा चरित्र बनाया था कि लोग उसे पचा नहीं पाते थे. वे बदनाम बनकर जीना चाहते थे. ठग, धोखेबाज, नशेबाज भुवनेश्वर ने सबसे पूज्य स्थान प्रेमचन्द को दिया था, पर उनसे भी छल करना उन्होंने अपना कर्तव्य समझा. अंग्रेजी साहित्य में जो स्थान आस्कर वाइल्ड का है, वे वही स्थान हिन्दी साहित्य में अपना बनाना चाहते थे. अपनी अद्वितीय साहित्यिक प्रतिभा के सहारे उन्होंने प्रेमचन्द जैसे मानव-आत्मा के शिल्पी कथाकार को अपना मुरीद बना लिया था, जिन्होंने ‘कारवाँ’ की समीक्षा के प्रारम्भ में लिखा था- ‘‘कारवाँ’ हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नई प्रगति का प्रवर्तक है, जिसमें शॉ और आस्कर वाइल्ड का सुन्दर समन्वय हुआ है. अभी तक हमारा हिन्दी ड्रामा घटनाओं और चरित्रों और कथाओं के आधार पर ही रखा गया है. कुछ समस्या नाटक भी लिखे गए हैं. जिनमें रूढ़ियों का या नए-पुराने विचारों का खाका खींचा गया है, पर सब कुछ स्थूल, घटनात्मक दृष्टि से हुआ है, जीवन और उसकी भिन्न-भिन्न समस्याओं पर सूक्ष्म, पैनी, तात्त्विक, बौद्धिक दृष्टि डालने की चेष्टा नहीं की गयी जो नए ड्रामा का आधार है.’’

प्रेमचन्द को भुवनेश्वर ने कितना प्रभावित किया था इसका प्रमाण हैं उपर्युक्त पंक्तियाँ. भुवनेश्वर एक साथ शॉ और वाइल्ड होना चाहते थे. शॉ होना प्रेमचन्द के लिए अच्छी बात थी, किन्तु आस्कर वाइल्ड की विशेषताएँ वे छोड़ कर आगे बढ़ें, ऐसा प्रेमचन्द चाहते थे. उन्होंने निष्कर्ष देते हुए लिखा- ‘‘भुवनेश्वर प्रसाद जी में प्रतिभा है, गहराई है, दर्द है, पते की बात कहने की शक्ति है, मर्म को हिला देने की वाक्चातुरी है. काश, वह इसका उपयोग ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ जैसी रचनाओं में करते. आस्कर वाइल्ड के गुणों को लेकर क्या वह उसके दुर्गुणों को नहीं छोड़ सकते.’’

प्रेमचन्द ने ‘कारवाँ’ की समीक्षा जितने जोरदार ढंग से लिखी है, उतनी किसी दूसरी पुस्तक की नहीं. जितनी भुवनेश्वर की प्रशंसा की है, किसी लेखक की नहीं. वे भुवनेश्वर को कितना मानते थे, स्नेह करते थे, उनके शब्दों में छलछला रहा है. बस वे चाहते थे कि वाइल्ड के दुर्गुणों को छोड़कर वे आगे बढ़ें. लेकिन ऐसा हो नहीं सका.

प्रेमचंद ने बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में भुवनेश्वर की रचनात्मक प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा- ‘‘मेरी समझ में भुवनेश्वर सबसे अधिक प्रतिभा सम्पन्न हैं, शर्त एक ही है कि वह अपनी प्रतिभा को आलस्य, खयाली पुलाव पकाने, सिगरेट फूँकने और इश्कबाजी के चक्कर में बरबाद न कर दे. उसके पास अभिव्यक्ति की असाधारण शक्ति है, आस्कर वाइल्ड और शॉ के रंग में.’’

भुवनेश्वर मानव स्वभाव की पतनशील प्रवृत्तियों को अपने लेखन से ज्यादा अपने जीवन में जगह दे चुके थे और उसी दिशा में आगे बढ़ रहे थे. वे रिश्ते-नाते, घर-परिवार सभी को त्यागकर साहित्य-सेवा में आये और अद्भुत, अश्रुतपूर्व, मौलिक उद्भावनाओं से परिपूर्ण अनेक रचनाओं की सृष्टि की, जिसकी चमक आज भी फीकी नहीं हुई है.

‘कारवाँ’ में संकलित छह एकांकियों के अलावा उनके महत्त्वपूर्ण एकांकी निम्नलिखित हैं- 1936 ई. में ‘मृत्यु’, ‘हम अकेले नहीं’, ‘सवा आठ बजे’, 1938 के ‘हंस’ के एकांकी नाटक विशेषांक में प्रकाशित ‘स्ट्राइक’, जिसका जिक्र रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में है. इसी वर्ष ‘हंस’ में ही ‘ऊसर’ एवं ‘रूपाभ’ के पाँचवें अंक (अक्टूबर, 1938 ई.) में ‘आदमखोर’ नामक नाटक छपा. 1940 ई. में गोगोल के नाटक का एकांकीकरण ‘इन्सपेक्टर जनरल’ प्रकाशित हुआ.1941 ई. में ‘विश्ववाणी’ पत्रिका में ‘रोशनी और आग’ नामक एकांकी छपा. 1942 ई. में प्रतीकवादी शैली में उनका प्रथम एकांकी ‘कठपुतलियाँ’ का प्रकाशन. 1945 ई. में ‘फोटोग्राफर के सामने’ और उनका सर्वाधिक चर्चित एकांकी ‘ताम्बे के कीड़े’ 1946 ई. में छपा. 1948 ई. ‘इतिहास की केंचुल’, 1949 ई. में ‘आजादी की नींव’, ‘जेरुसेलम’, ‘सिकन्दर’, 1950 ई. में ‘अकबर’, ‘चंगेज खाँ’ और अन्तिम एकांकी ‘सींकों की गाड़ी’ का प्रकाशन हुआ. ये भुवनेश्वर के अमर एकांकी हैं, जो विभिन्न पाठ्य-पुस्तकों में संकलित होते रहे हैं और किसिम-किसिम के लिखे हिन्दी साहित्य के इतिहासों में एकांकी विधा के प्रसंग में उल्लेख किये जाते रहे हैं. सभी इतिहासकारों ने एक स्वर में यह स्वीकार किया कि नए ढंग के एकांकी नाटक लिखने की शुरुआत भुवनेश्वर ने ही की. यह ध्यान में रखने की बात है कि हिन्दी में पहला एकांकी-संग्रह जयशंकर प्रसाद का 1929 में प्रकाशित ‘एक घूंट’ है एवं दूसरा 1935 ई. में प्रकाशित ‘कारवाँ’. इस तरह यह निर्विवाद रूप से हिन्दी साहित्य के इतिहास में सर्वसम्मत रूप में दर्ज कर लिया गया कि भुवनेश्वर का एकांकी-साहित्य में अप्रतिम योगदान है.

1936 ई. में भुवनेश्वर लखनऊ में रह रहे थे. वहीं उनकी निराला से अक्सर भेंट हो जाया करती. उसी समय निराला ने अपनी कमर से ऊपर तक नग्न तस्वीर खिंचवाई. यह तस्वीर उनके लम्बे निबन्ध ‘मेरे गीत और कला’, (जो ‘माधुरी’ के तीन अंकों में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था.) की पहली किस्त के साथ ‘माधुरी’ के मार्च, 1936 अंक में प्रकाशित हुई. भुवनेश्वर ने लखनऊ के कैसरबाग में स्थित पुस्तकालय में बैठकर निराला का यह निबन्ध ध्यान से पढ़ा और उनके इस चित्र ने उनको काफी प्रभावित किया. निराला की अर्धनग्न यह तस्वीर भुवनेश्वर को बहुत दिलचस्प लगी. लगा कि उनके ही जैसा अजब, गजब और बेबाक एक तेजस्वी व्यक्तित्व है हिन्दी में, जो शालीनता, सज्जनता, पूर्वाग्रह, नैतिकता की दीवार तोड़कर, अपने ओढ़े हुए सभी आवरण हटाकर, साहित्य में संघर्ष कर रहा है. अक्टूबर महीने के प्रारम्भ में ही भुवनेश्वर ‘माधुरी’ के दफ्तर गये और उसके सम्पादक रूपनारायण पाण्डेय से कहा कि वे निराला पर एक लेख लिखना चाहते हैं, पर पारिश्रमिक तुरंत चाहिए. रूपनारायण पाण्डेय ने इसे स्वीकार कर लिया. भुवनेश्वर ने ‘माधुरी’ के दफ्तर में बैठकर निराला पर एक अद्भुत लेख लिखा, जिसके प्रारम्भ में उन्होंने निराला से बातचीत का एक टुकड़ा रखा, फिर निराला पर अपनी विलक्षण राय रखी- ‘‘निराला बंगाली संस्कृति का कवि है. वह संस्कृति जो ‘टैगोर की द्रुत मैनरिज्म’ से पैदा हुई है, जिसके अति विश्लेषण में कबीर, ब्लेक सभी आते हैं. पंत को उसने बार-बार टैगोर का प्रोटेजे बताया है, पर सत्य यह है कि निराला टैगोर को पचा न सका. वह मैनरिज्म का कवि है, वह उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का कवि है, वह अपने सर्वोत्तम रूप में भी एक चतुर शिल्पी है. शायद महान भी, पर महान कवि नहीं. निराला में टैगोर की शक्ति नहीं, ‘जुही की कली’, ‘तुम और मैं’ वगैरह में अर्थ की स्थूलता है. निराला मेहनती है, आत्माभिमानी है, विशाल हृदय है, उसकी कविता में साधना है, अध्यवसाय है, कारीगरी है, कोमलता है, पर वही नहीं है जिसके बगैर वह न ब्राउनिंग है, न बर्न्स, केवल निराला है. वह बना सकता है, पर निर्माण नहीं कर सकता. वह जीवन को पचा नहीं सकता. कथाकार की हैसियत से निराला गम्भीर विवेचन का पात्र नहीं है.’’

नवम्बर, 1936 की ‘माधुरी’ में भुवनेश्वर का यह लेख छपा. इस लेख की हिन्दी के साहित्यकारों के बीच काफी चर्चा हुई. इस तरह की भाषा में हिन्दी में लिखी यह पहली आलोचना थी. तब निराला इलाहाबाद के लीडर प्रेस में वाचस्पति पाठक के साथ रह रहे थे. ‘राम की शक्तिपूजा’ उसी समय साप्ताहिक ‘भारत’ में प्रकाशित हुई थी. भुवनेश्वर के इस लेख से वे बहुत दुखी और क्षुब्ध हुए. निराला को लगा कि यह उनकी रचनाशीलता पर भीषण तौर पर किया गया हमला है. 7 नवम्बर को निराला ने रामविलास शर्मा को लिखे पत्र में पूछा- ‘माधुरी’ में मुझपर छपा वह लेख भुवनेश्वर वाला तो देखा होगा? फिर 8 नवम्बर को उन्होंने रामविलास शर्मा को सूचित किया कि माधुरी का उत्तर कल भेज रहा हूँ. साथ दो और आदमियों के संस्मरण हैं भुवनेश्वर पर. फिर 9 नवम्बर को पत्र में लिखा- ‘‘श्री भुवनेश्वर प्रसाद को उत्तर भेज चुका हूँ. मैंने भूमिका भर लिखी है, मुझे ही लिखना था, क्योंकि बातचीत उन्होंने मेरी लिखी है, उनका परिचय मेरे मित्र पं. वाचस्पति पाठक और बलभद्र प्रसाद मिश्र एम. ए. (आपकी तरह प्रयाग विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कालर) ने लिखा है, दोनों पत्र भेज दिये हैं जो बड़े चुभते हुए हैं. वहाँ छपते-छपते पढ़ लीजियेगा. उनके लिये बड़े तिक्त साबित होंगे.’’ पत्र के अंत में उन्होंने रामविलास शर्मा को सुझाव दिया- ‘‘आप साहित्यिक तरीके से एक लेख लिखकर भुवनेश्वर प्रसाद से अंगरेजी और फ्रेंच का ज्ञान थोड़ा-बहुत प्राप्त करने की कोशिश करें तो क्या बुरा है : Morbidity   तो वे आपको बहुत दिनों तक बतायेंगे, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ. उनके उत्तर में मैंने आपका थोड़ा-सा उल्लेख किया है कि ‘‘स्कॉलर कवि मित्र श्री रामविलास शर्मा के यहाँ कला की रूपरेखा लिखी.’’

भुवनेश्वर को साहित्य से खारिज कर देने वाला निराला का यह उग्र लेख वाचस्पति पाठक एवं बलभद्र प्रसाद मिश्र की टिप्पणियों के साथ ‘माधुरी’ के दिसम्बर, 1936 अंक में छपा, जिसमें उनके फरेबी स्वभाव और मनगढंत हाँकने वाला सिद्ध किया. अब तक भुवनेश्वर अपनी प्रतिभा के दम पर अपने आपको प्रगतिशील, नए साहित्य-विवेक और विद्रोही चेतना से सम्पन्न ऊँचाई पर महसूस करते रहे थे, पर इस लेख ने पहली बार उन्हें धराशायी कर दिया था. वे निरीह और हताश नजर आये. उन्होंने निराला को उत्तर दिया, जो जनवरी, 1937 की ‘माधुरी’ में छपा- ‘‘अगर निराला जी का Vindication है तो कुरुचिपूर्ण, अगर Revenge तो बहुत सख्त. मैं फिर कहता हूँ कि इस प्रसंग में कमोबेश मैंने उनके शब्द ही दोहराये हैं और बर्न्स वाली बात उस वक्त मुत्तलक नहीं हुई थी. रहा एम.ए. और आई.सी.एस. का फरेब, मैं अपराधी प्लीड करता हूँ, कर चुका हूँ कई बार. परिस्थितियाँ बलवती मनुष्य से इससे भी जघन्य काम करवाती हैं, मुझसे करवा चुकी हैं. इन्हें संग्राम करते हुए एक कलाकार पर दाग लगाने के लिए प्रयोग करना हलकापन है. खैर! अगर इस बात से जन्म भर के लिए मैं ज्ंइवव किया जा सकता हूँ मेरी बला इसकी परवा करे.’’ अंत में उन्होंने लिखा कि ‘‘अब अपनी ओर से इसे (यानी इस प्रसंग को) समाप्त ही करता हूँ. अगर मैं वाकई मर गया हूँ तो गालिब का एक शेर निराला जी, मिश्र जी, पाठक जी और पसेपर्दा और सज्जन सुन लें-

गर नहीं है मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तहाँ और भी बाकी हों तो यह भी न सही.

रामविलास शर्मा ने निराला की जीवनी लिखते हुए इस प्रसंग का विस्तार से उल्लेख किया है. मैं इस प्रसंग को जब भी पढ़ता हूँ, मुझे फणीश्वरनाथ रेणु की ‘अगिनखोर’ कहानी की याद आती है, जिसे उन्होंने पटना के दो विद्रोही युवा लेखकों को एक चरित्र में ढालकर ‘अगिनखोरजी’ बनाकर कुछ वैसा ही प्रसंग खड़ा किया था. 1972 ई. में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में जब वह कहानी प्रकाशित हुई थी तब ये दोनों युवा लेखकों (आलोक धन्वा और जुगनू शारदेय) ने उनसे पटना कॉफी हाउस में तीव्र बहस की थी कि उनके चरित्र को आधार बनाकर उन्होंने क्यों वह कहानी लिखी?

रामविलास शर्मा ने इस प्रसंग के अंत में लिखा है- ‘‘भुवनेश्वर कलाकार थे. घिर जाने पर साफगोई से काम लेते थे. अपनी पूँजी बहुत कम थी. दूसरों से उधार लिये हुए माल पर अपनी विट से पालिश ही कर सकते थे. पर बहुत से आई.सी.एस. अफसरों, एम.ए. पास होनहारों और प्रोफेसरों से वह ज्यादा काबिल थे. यही सबब है कि इस वर्ग के लोगों को इतने दिन तक वह चकमा देते रहे, भेद खुल जाने पर भी उनकी प्रतिभा की दाद देनेवाले उसमें दस-पाँच फिर भी बचे रहे.निराला विचलित हुए, अपने साथ दो अन्य व्यक्तियों के लेख लेकर उत्तर देने आये, यह भुवनेश्वर की सफलता थी.’’

खानाबदोश अर्थात् बेघरबार, आवारा, चकमा देने वाला, छली, ठग, जालसाज भुवनेश्वर की अजीबोगरीब दास्तान चलती रही. वे इलाहाबाद, लखनऊ और काशी की गलियों में घूमते-फिरते कई लेखकों को अनायास दिखलाई पड़ते और फिर ओझल हो जाते. भोजन-पानी का इन्तजाम हुआ, फिर किसी पुस्तकालय में पढ़ते नजर आते. वहीं बैठकर कुछ लिखते. कभी पत्र-पत्रिकाओं के दफ्तर में. उनकी रचनाएँ यदा-कदा छपती रहतीं. भुवनेश्वर में इतनी प्रतिभा थी कि कहीं नौकरी कर सकते थे, घर बसा सकते थे, व्यवस्थित जीवन जीते हुए विपुल साहित्य रच सकते थे. किन्तु उन्होंने अपने जीवन को स्वेच्छाचारी बनाया था. उनकी मृत्यु के बाद उनका अन्तिम संस्कार करने वाला न कोई था और न उनकी रचनाओं को सहेजने वाला. उनका जीवन जैसा बिखरा था, उनकी रचनाएँ भी बिखरी रह गई. 2010 ई. में उनके शताब्दी वर्ष में हिन्दी रंगमंच का ध्यान फिर भुवनेश्वर पर गया. मीराकांत ने ‘भुवनेश्वर-दर-भुवनेश्वर’ नामक नाटक लिखा जो भुवनेश्वर के जीवन एवं एकांकियों से टुकड़े लेकर अद्भुत रूप में संयोजित है. इसे सुशील कुमार गौतम ने अपने निर्देशन में 17 अक्टूबर, 2010 को कनक थियेटर ग्रुप के द्वारा लिटिल थियेटर ग्रुप ऑडिटोरियम में प्रस्तुत किया. इसके साथ ‘कंजूस’ नामक एकांकी भी प्रस्तुत किया गया. ‘भुवनेश्वर-दर-भुवनेश्वर’ में यह दिखलाया गया कि भुवनेश्वरवाद क्या है और किस तरह बदनाम भुवनेश्वर का जन्म हुआ, जिसने स्वेच्छा से बदनामी की चादर ओढ़कर भी रचनाशीलता की बुलंदियों को छुआ, वैसा लेखक उग्र थे, निराला थे और फिर स्वयं भुवनेश्वर.

रामविलास शर्मा जिस तरह भुवनेश्वर की प्रतिभा का सम्मान करते थे, उससे भी बढ़कर उनकी कदर करने वाले शमशेर बहादुर सिंह थे. 1958 ई. के जनवरी में जब भुवनेश्वर की मृत्यु की खबर आयी तो वह शमशेर को झकझोर गई और उन्होंने भुवनेश्वर पर एक कविता लिखी जो हरिशंकर परसाई के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘वसुधा’ में छपी. बाद में उस कविता को शमशेर ने संशोधित-परिवर्तित कर ‘कुछ और कविताएँ’ (1961) में शामिल किया. किन्तु, रामविलास शर्मा को उसका पहला प्रारूप ही पसंद था. जब उन्होंने शमशेर की कविताओं पर ‘धर्मयुग’ (27 जून, 1965 ई.) में ‘शमशेर बहादुर सिंह : गहरे बीहड़ संस्कारों वाला काव्य-व्यक्तित्व’ नामक लेख लिखा, तो ‘वसुधा’ में प्रकाशित कविता के पाठ को ही ज्यादा सही बताया. भुवनेश्वर पर लिखी यह शमशेर की एक अमर कविता है, जो उनके जीवन और साहित्य को समझने का एक नया नजरिया देती है. यह पूरी कविता इस तरह है :

आदमी रोटी पर ही जिन्दा नहीं
तुमसे बढ़कर और किसने
हर सच्चाई को अपनी कड़ुई मुस्कराहट भरी भूख
के अन्दर
जाना होगा?

पता नहीं तुम कहाँ किस सदाव्रत का हिसाब
किस लोक में
लिख रहे हो
बगैर खाए-पिए ...
सिर्फ अमरूदों की सी गोरी सुनहरी धूप अंगों की
फ्रेम से उभरती हो कमरे के एकान्त में,
भुवनेश्वर,
जहाँ तुम बुझी हुई आँखों के अन्दर
एजरा पाउण्ड के टुकड़े,
इलियट के बिब्लिकम पीरियड्स
किसी ड्रामाई खाब में,
पॉल क्ली के घरौंदों में, एक फ्रीवर्स की तरह तोड़ देते हो
खाब में ही हंसते हुए!
आह! बदनसीब शायर, नाटककार, फकीरों में
नव्वाब, गिरहकट
आजाद अघोरी साधक!
होठ बीड़ी-सिगरेट की नीलिमा से (चूमे हुए किसी रूप के)
किसी एक काफिर शाम में,
किसी क्रास के नीचे
वो दिन, वो दिन ...
धुंधली छतों में बिखर गये हैं
शराब के, शवाब के, दोस्त एहबाब के वो-
वो ‘विटी’ गुनाह-भरे
खूबसूरत बदमाश दिन
चले गये हैं...
हाँ, तपती लहरों में छोड़ गये हैं वो
संगम गोमती दशाश्वमेध के
सैलानियों की बीच
न जाने क्या
एक टूटी हुई नाव की तरह,
जो डूबती भी नहीं, जो सामने हो जैसे,
और कहीं भी नहीं.

शमशेर ने भुवनेश्वर की जीवंत और यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत की है, साथ ही उनके साथ के अपने लगाव को मार्मिकता से उजागर किया है. भुवनेश्वर अपने अंतिम दिनों में ज्यादातर बनारस में विदेशी सैलानियों के बीच रहते थे. यदा-कदा जब कभी इलाहाबाद आते तो शमशेर के साथ ही रहते. उनकी लिखी हुई अनेक रचनाएँ शमशेर के यहाँ अप्रकाशित पड़ी हुई रहतीं. 1950 के बाद अपनी रचनाओं के प्रकाशन की उनको चिन्ता ही नहीं रह गई थी. शमशेर ने उनकी कुछ रचनाओं को तब इलाहाबाद की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाया था.उन्होंने अंगरेजी में भी काफी कुछ लिखा था. शमशेर ने ‘निष्कर्ष’ के तीसरे एवं चौथे संयुक्त संकलन में, जिसके संपादक धर्मवीर भारती और लक्ष्मीकान्त वर्मा थे और जो जनवरी, 1957 में प्रकाशित हुआ था, भुवनेश्वर की एक अंगरेजी कविता का अनुवाद प्रकाशित करवाया था, जो उनकी अन्तिम प्रकाशित रचना है. कविता का शीर्षक हैः ‘बौछार पे बौछार’-

बौछार पे बौछार
सनसनाते हुए सीसे की बारिश का ऐसा जोश
गुलाबों के तख्ते के तख्ते बिछ गए कदमों में
कायदे से अपने रंग फैलाए मेह से कुम्हलाए हुए
आग आवश्यकता से अधिक पीड़ा का बदला चुकाने को
पीड़ा निर्बीज करने वाली उस आग से भी अधिक
दल के दल बादल
कि हौले-हौले कानाफुसियाँ हैं अफवाह की
जो अपशकुन बन कर फैली हैं
किसी...दीर्घ आगत भयानक यातना की
फौजी धावा हो जैसे, ऐसा अन्धड़
बादलों के परे के परे बुहार कर एक ओर कर रहा
ऐसी-ऐसी शक्लों में छोड़ते हुए उनको
कि भुलाए न भूलें
आदमी पर आदमी का ताँता
और हरेक के पास
बड़े ही मार्मिक जतन अलगायी हुई अपनी
एक अलग कहानी
उसी व्यक्ति को लेकर
जो सदा वही एक कुर्ता पहने
उसी एक दिशा में चला जाता रहा
रहम पर रहम की मार
मरदूद करार देने उसी व्यक्ति को
और उसके साथ उसे मठ के पुजारी को भी
जो शपथ ले-ले के जीतों और मुर्दों की
कम से आधे पखवारे में एक बार तो
झूठ बोलता ही है.

लेखक :
भारत यायावर (1954-2021) हिन्दी के जाने माने साहित्यकार हैं। 'झेलते हुए'  और 'मैं हूँ यहाँ हूँ' (कविता संग्रह), 'नामवर होने का अर्थ' (जीवनी), 'अमर कथाशिल्पी रेणु', 'दस्तावेज', 'नामवर का आलोचना-कर्म' (आलोचना)— इनकी चर्चित पुस्तकें हैं। इन्होंने हिन्दी के महान लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं फणीश्वरनाथ रेणु की खोई हुई और दुर्लभ रचनाओं पर लगभग पच्चीस पुस्तकों का संपादन किया है। 

डानलोड पीडीएफ

पंत और छायावाद का घोषणा-पत्र — अभिजीत सिंह

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शोध आलेख : पूर्वाभास, वर्ष 12, अंक 1, जनवरी 2022

सुमित्रानंदन पंत
सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित काव्य संग्रह 'पल्लव'का प्रकाशन सन् 1928 में हुआ था। इसी काव्य संग्रह की भूमिका को 'छायावाद का घोषणा पत्र'के नाम से जाना जाता है, जिसमें पंत ने भाषा, साहित्य पर पड़ने वाले भाषा के प्रभाव, तत्कालिक समय का भाषा से संबंध, ब्रजभाषा और खड़ी बोली और हिंदी साहित्य में खड़ी बोली के सक्रिय पदार्पण पर विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए थे।

सुमित्रानंदन पंत ने अपने काव्य संग्रह 'पल्लव'की भूमिका में छायावादी कविता का पक्ष विस्तार से प्रस्तुत किया है। पंत ने सभी छायावादी कवियों का पक्ष लेकर अपनी कविता के वैशिष्ट्य का उद्घाटन किया है और पुरानी कविता से उसकी भिन्नता को उद्घाटित करते हुए उसके महत्व को भी स्पष्ट किया है। 'पल्लव'की इस भूमिका को छायावाद का घोषणा पत्र कहने के पीछे कारण ही यही है कि इसमें छायावाद के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसके भाव भाषा और छंद का सोदाहरण परिचय दिया गया है। साथ ही ब्रजभाषा और खड़ी बोली के बीच हिंदी के काव्य भाषा बनने की प्रक्रिया को भी उजागर किया गया है। स्वर, छंद और व्यंजनों की दृष्टि से पंत का यह विवेचन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें हिंदी कविता के विकास पर प्रकाश डालते हुए ब्रजभाषा के माधुर्य का विवेचन है एवं बिहारी रसखान एवं देव जैसे कवियों का भी मूल्यांकन किया गया है। इस भूमिका में पंत ने भाव और भाषा के तादात्म्य का पक्ष लिया है। साथ ही कविता के लिए चित्र भाषा की आवश्यकता को भी प्रतिपादित किया है । इसके अतिरिक्त पंत ने काव्य में शब्द और अर्थ के सामंजस्य पर भी बल दिया है। उनके अनुसार 'काव्य में शब्द और अर्थ की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती, वे दोनों भाव की अभिव्यक्ति में डूब जाते हैं, तब भिन्न-भिन्न आकारों में कटी छंटी और शब्दों की शिलाओं का अस्तित्व ही नहीं मिलता, राग के लेप से उनकी संधियां एकाकार हो जाती हैं।'तथा भाषा के संबंध में पंत का कहना है कि भाषा संसार का नादमय चित्र है, ध्वनिमय स्वरूप है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यह भूमिका छायावाद का मानचित्र प्रस्तुत करती है और हिंदी आलोचना की वर्तमान स्थिति पर अपना असंतोष व्यक्त करती है। अतः 'पल्लव'की यह भूमिका न केवल पंत के अपितु समस्त छायावाद के काव्य आदर्शों का प्रतिबिंब है।

'पल्लव'में सन् 1918 से 1925 तक की रचनाएं संकलित हैं। पंत के छायावादी काव्य - व्यक्तित्व का सबसे अच्छा प्रस्फुटन 'पल्लव'में ही हुआ है । प्रेम-गीत, कल्पना प्रधान गीत, भाव प्रधान गीत तथा वे कविताएं जिनमें कल्पना और भावों का उचित सम्मिश्रण है - इसमें संकलित हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना था कि - "पंत जी की पहली प्राण रचना पल्लव है जिसमें प्रतिभा के उत्साह या साहस का तथा पुरानी काव्य पद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया का बहुत बढ़ा चढ़ा प्रदर्शन है। इसमें चित्रमयी भाषा, लाक्षणिक वैचित्र्य, प्रस्तुत विधान आदि की विशेषताएं प्रचुर परिमाण में भरी सी पाई जाती हैं।"1 

पल्लव की यह भूमिका द्विवेदी युग और छायावाद के संधिकाल के दौरान होने वाले परिवर्तनों पर इतना गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है कि इसकी गहराई में जाने पर अलग से शोध की संभावनाओं को तलाशने जैसा अनुभव होता है। फिर भी इस लेख में उन मुद्दों की एक रूपरेखा भर तैयार करने का प्रयत्न किया गया है जो छायावाद को एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे थे। पंत के काव्य विकास एवं पल्लव जैसी रचना के पल्लवित होने के संदर्भ में डॉक्टर बच्चन सिंह कहते हैं - "सुमित्रानंदन पंत का काव्य विकास अंतर्मुखता से निरंतर बहिर्मुख होने का इतिहास है। जिस प्राकृतिक परिवेश में उनका जन्म एवं पालन पोषण हुआ वह स्वयं कविता से कम आकर्षक और लुभावना नहीं है।  उनके जन्म भूमि कौसानी ने उनके मन में सौंदर्य और प्रेम का जो बीजवपन किया वह समय पाकर 'पल्लव'के रूप में पल्लवित हुआ।"2

एक स्थान पर लिखते हैं - "हम खड़ी बोली से अपरिचित हैं, उसमें हमने अपने प्राणों का संगीत अभी नहीं भरा ; उसके शब्द हमारे हृदय के मधु से सिक्त होकर अभी सरस नहीं हुए, वे केवल नाम मात्र हैं, उनमें हमें रूप - रस - गंध भरना होगा।"3  दरअसल पंत के इस कथन से यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि जिस समय पंत यह पंक्तियां लिख रहे थे उस समय खड़ी बोली गद्य में प्रेमचंद और प्रसाद तथा पद्य में निराला और प्रसाद जैसी विभूतियां हो चुकी थी, कामायनी की रचना हो चुकी थी जिसे आधुनिक काल का महाकाव्य भी कहा जाता है। फिर वे ऐसे कौन से कारण थे जो खड़ी बोली के ऐसे परिपक्व रचनाकारों व रचनाओं की उपस्थिति के बावजूद पंत को यह कहने पर मजबूर कर रहे थे की खड़ी बोली में प्राणों का संगीत अभी तक नहीं भरा गया है और उसमें रूप, रस और गंध का अभाव है? लेकिन यदि पंत की इस धारणा को मात्र काव्य भाषा के प्रसंग से जोड़कर देखें तो वास्तव में छायावादी कविता में एक उच्च आयाम की ओर अग्रसर होने के बावजूद खड़ी बोली, ब्रज के लावण्य और प्रभाव क्षमता से युक्त नहीं हो पाई थी। निराला या प्रसाद जैसे खड़ी बोली के प्रतिष्ठित कवियों को पाने के बाद भी ब्रजभाषा का सांगीतिक आकर्षण आमजन में बना हुआ था। ऐसे में ब्रजभाषा, खड़ी बोली के सामने किसी चुनौती से कम नहीं थी। और इस चुनौती की भावना पर दृष्टिपात करने पर यह चर्चा स्वत: ही महावीर प्रसाद द्विवेदी की ओर मुड़ जाती है, जिन्होंने खड़ी बोली की समृद्ध परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और नए कवियों को खड़ी बोली में रचने को निरंतर प्रेरित व प्रबोधित किया। ऐसे में महावीर प्रसाद द्विवेदी को अलगा कर इस मुद्दे पर कोई बात हो ही नहीं सकती। द्विवेदी जी ने गद्य और पद्य की एक भाषा पर विशेष जोर दिया था और भाषाई सुधारों के अलावा रचनाओं के विषयों को भी लेकर सचेत रहे थे। मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत-भारती'और 'साकेत'के पीछे द्विवेदी जी की प्रेरणा भी क्रियाशील थी। यानी हम समझ सकते हैं कि छायावाद के शुरुआत के बाद तक भी उस वक़्त के साहित्य और साहित्यकारों पर उनका पुख्ता प्रभाव रहा है।

ब्रजभाषा के अलंकृत काल के तमाम कवियों - देव, बिहारी, रसखान, पद्माकर, घनानंद और मतिराम आदि की कविताओं पर पंत विशेष रुप से रुष्ट दिखते हैं। ब्रजभाषा के भाषागत और विषयगत सौंदर्य पर न्योछावर होते हुए भी पंत इस अलंकृत काल की भाषा को 'जीर्ण-शीर्ण छिद्रों की झोली', 'अलंकारों के व्यभिचार का काल'4 और 'अनुप्रासों की अराजकता का काल'5 आदि कहने से कतराते नहीं दरअसल इस तथ्य को समझने के लिए हमें थोड़ा सा पीछे आना होगा। भारतेंदु या महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने समय में भले ही ब्रजभाषा और खड़ी बोली का संघर्ष कहें या विवाद सुलझा लिया हो, लेकिन उस समय की एक अंतर्धारा छायावाद के पूर्वार्ध तक चलती रही है। प्रसाद ने भी शुरू में ब्रजभाषा में रचनाएं लिखी हैं। 'चित्राधार'काव्य संग्रह ब्रजभाषा में ही है। जगन्नाथदास रत्नाकर तो अंत तक ब्रज में ही लिखते रहे। गद्य में तो खड़ी बोली प्रतिष्ठित हो चुकी थी, लेकिन कविता के मामले में अभी भी एक वर्ग ऐसा था जो यह मानता था कि काव्यशास्त्रीय सौंदर्यबोध की परिपाटी को अब भी ब्रजभाषा के माध्यम से ही जीवित रखा या विकसित किया जा सकता है। क्योंकि इस वर्ग का मानना था की भाषा का संस्कार जो है विशेष रूप से कविता में, वह निरंतर प्रयुक्त होते होते परंपरा की नई अर्थ-छायाओं और अर्थ छवियों की सृष्टि करता है, क्योंकि ब्रजभाषा एक विशिष्ट सौंदर्यबोध की ओर संकेत करने के कारण और विशिष्ट संवेदनात्मक वातावरण की निरंतर सटीक अभिव्यक्ति के कारण इस क्षेत्र में मंजी हुई भाषा थी। ब्रजभाषा और खड़ी बोली के इस संघर्ष को यदि 'भक्ति काल के स्वर्ण युग'वाले नजरिए से देखने का प्रयास करें तो यह तो मानना ही पड़ेगा कि जातीय व राष्ट्रीय निर्माण की मंशा तले खड़ी बोली पर चाहे कितना ही काम क्यों ना हुआ हो लेकिन कुछ एक सशक्त कवियों को छोड़कर आज भी खड़ी बोली की कविताएं ब्रजभाषा की पंक्तियों की तरह जन मन में अपनी जगह कहां बना पाई हैं? समकालीन कविता के वरिष्ठ हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह ने अपने एक वक्तव्य में अपने गांव के एक संस्मरण को सुनाते हुए कहा था की गांव में उनके घर पर काम करने वाली एक गरीब महिला को जब यह पता चला कि केदारनाथ जी कविता लिखते हैं तो उसने यह बताते हुए कि वह आज भी तुलसी, सूर की कविताएं पढ़ती है और उसे वह कविताएं याद रहती हैं, उनसे उनकी कोई पुस्तक मांगी उसकी इस मांग पर केदारनाथ जी को यह चिंता सताने लगी कि जो महिला रोज सुबह शाम तुलसी, कबीर और सूर की कविताएं गुनगुनाती होगी वह अब उनकी कविताओं को पढेगी और जाहिर तौर पर सूर, कबीर और तुलसी की कसौटी पर ही उनकी भी कविताओं को कसने की चेष्टा करेगी। अपने समय के सबसे बड़े कवि की यह चिंता भाषा की दृष्टि से अवधी या ब्रज की उत्कृष्टता का प्रमाण है। 

पंत भी एक तरफ ब्रजभाषा के सांगीतिक लावण्य पर न्योछावर दिखते हैं तो दूसरी तरफ अलंकृत काल के कवियों को लगभग लगभग खारिज ही कर देते हैं। खड़ी बोली के सामने ब्रज की महत्ता का भी प्रतिपादन करते हैं, लेकिन अंततः खड़ी बोली में राष्ट्रभाषा का गौरव भी देखते हैं - 'हमें भाषा नहीं राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है।'6 धारणाओं की इन टकराहटों को यदि सिर्फ काव्य उपकरणों के दृष्टिकोण से देखें तो यहां घोर अंतर्द्वंद दिखाई पड़ता है, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पंत भाषा और काव्य को लेकर अपने जीवन में काफी संवेदनशील रहे थे। लेकिन जब उनकी यह संवेदना उनके युगबोध की चेतना में एकमेक होती थी तो इस मिश्रण का प्रभाव अलग तरीके से पड़ा करता था। इस प्रभाव को लोकवृत्त की अवधारणा से जोड़ें तो समझ आता है कि पंत की कविताओं में प्रकृति अपने खालिस और एकांतिक रूप में दिखती हुई भी लोकचेतना से इतर नहीं थी। इसी युगबोध और लोकवृत्त के बदलते स्वरूप के कारण ब्रज के पराभव या तिलांजलि की आवश्यकता पड़ी। क्योंकि अब ब्रज भाषा में आधुनिक भावों की अभिव्यक्ति संभव नहीं रह गई थी, वह अब सिर्फ एक युग विशेष की काव्य-परिधि का द्योतक भर रह गई थी। ऐसे में भाषा माध्यम परिवर्तित करना एक युगीन आवश्यकता थी - यह बात पंत भली-भांति समझ रहे थे। स्वाधीनता आंदोलन के नजरिए से भी देखें तो ब्रज एक अप्रासंगिक भाषा थी। स्वाधीनता आंदोलन की चेतना को जन जन तक पहुंचाने और तमाम संवादों के लिए खड़ी बोली सर्वाधिक उपयुक्त ठहरती थी। इसीलिए पंत खड़ी बोली में अभिव्यक्ति की उत्कृष्ट संभावनाएं देखते हैं। ऐसे में यदि इन सारी चीजों के बरक्स हम यह कहें कि पंत द्वारा श्रृंगारिक कवियों का विरोध उन्हें खारिज करना नहीं था बल्कि युगबोध व युगीन आवश्यकताओं के मद्देनजर एक प्रतिक्रिया थी तो उचित ही होगा।

'पल्लव'की भूमिका में ब्रज के लावण्य पर बात करते हुए पंत बांग्ला भाषा के उच्चारण के सौंदर्य पर भी काफी कुछ चर्चा करते हैं। यह इसलिए था कि बांग्ला भाषा का उस वक्त तक बड़ा जबरदस्त प्रभाव भारतीय साहित्य पर ही नहीं विश्व साहित्य तक पर पड़ चुका था। 1910 में प्रकाशित गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को 1913 में नोबेल पुरस्कार मिल चुका था। हिंदी में भी बांग्ला के प्रभाव से अनुवाद का एक दौर चला था जिसमें बांग्ला के तमाम उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद हुआ था। इसी कारण तत्कालिक हिंदी काव्य परंपरा पर भी बांग्ला का प्रभाव पड़ा था। ऐसे में बांग्ला से किनारा कर लेना किसी कवि हृदय के लिए भला कैसे संभव हो पाता?

बहरहाल, पल्लव की भूमिका में भाषा, उसकी युगीन आवश्यकताओं और उन युगीन आवश्यकताओं के आधार पर भाषा के नए स्वरूप के गठन पर तमाम तकनीकी और विश्लेषणात्मक चर्चाएं की गई हैं। पंत द्वारा लिखित पल्लव की भूमिका के नजरिए से देखें तो छायावाद की व्याख्या के नए आयाम खुलते हैं। छायावादी युग की काव्य भाषा, काव्य में प्रयुक्त अलंकार, बिंब, प्रतीक और तत्कालीन समाज से उनके संबंधों पर अलग नजरिए से देखने में सहूलियत मिलती है। संभवत इसी कारण प्रख्यात आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने पंत और पल्लव के बारे में सच ही लिखा था - "छायावाद की पहली पहचान बनाने वाले कवि सुमित्रानंदन पंत हैं।"7

संदर्भ :
1. शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2009, पृ. 364
2. सिंह, डॉ. बच्चन, आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृ. 207
3. पंत, सुमित्रानंदन, पल्लव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 50
4. वही., पृ. 31
5. वही., पृ. 31
6. वही., पृ. 23
7. चतुर्वेदी, रामस्वरूप, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, 2010, पृ. 231

लेखक :
डॉ अभिजीत सिंह बानरहाट कार्तिक उरांव हिंदी गवर्नमेंट कॉलेज, जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल में असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी विभाग) हैं। ईमेल : abhisingh1985123@gmail.com

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'अनाहत शब्द और जीवन-मूल्यों के कवि : त्रिलोचन'— भैरव सिंह

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शोध आलेख : पूर्वाभास, वर्ष 12, अंक 1, जनवरी 2022

आधुनिक हिन्दी कविता में त्रिलोचन एक प्रगतिशील कवि के रूप में विख्यात हैं । प्रगतिशील कवि महान मानवीय मूल्यों और मनुष्यता की खोज का कवि होता है । मनुष्य की ‘जययात्रा’ को सफल और सार्थक बनाने के लिए जितने भी तत्व आवश्यक होते हैं, वह सब उसकी कविताओं में निहित होते हैं । मसलन प्रेम, करुणा, संघर्ष, श्रम, साहस, आस्था, सौंदर्य, प्रकृति, मनुष्यता, सत्य, न्याय, जिजीविषा आदि । इन मूल्यों को वह मानव-जीवन व समाज में वैसे ही रोपने की कोशिश करता है, जैसे एक किसान अपने खेतों में बड़े ही संयमित और सधे रूप में धान की रोपाई करता चलता है । प्रगतिशील कवि रचनाकर्म को एक गंभीर सामाजिक दायित्व के रूप में लेता है । कविता उसके लिए केवल आत्मशोध या आत्मतुष्टि (आनंद) का माध्यम मात्र नहीं होती, बल्कि जीवन को रचने और सँवारने का पर्याय बन जाती है । केदार ने लिखा – ‘कि जब मरूँ संसार को संवारते-संवारते मरूँ, संवारने का सुख भोगते-भोगते मरूँ ।’ उसकी चिंता का केंद्र ‘कविता’ नहीं बल्कि ‘जीवन’ है – ‘धूप सुंदर/ धूप में जग रूप सुंदर/ ....सोचता हूँ क्या कभी/ मैं पा सकूँगा/ इस तरह/ इतना तरंगी/ और निर्मल/ आदमी का रूप सुंदर ।’1 ‘शब्द साधना’ उसके लिए कवि-व्यक्तित्व और कविता को चमकाने का कारण नहीं बल्कि जीवन से कुछ बेहतरीन खोज लेने, पाने और फिर उसे बाँट देने के लिए है । लेकिन लेन-देन की यह प्रक्रिया तभी सफल और सार्थक होगी जब रचनाकार का ‘लोकजीवन से गहरा जुड़ाव’ होगा । अन्यथा नहीं । यह जुड़ाव ही उसके भीतर की जड़ता, निराशा, कुंठा आदि को समाप्त कर उसे नई आशा, दृढ़ संकल्प, साहस और ओज से भरकर जीवन व संसार को नए सिरे से बदलने की इस सांस्कृतिक प्रक्रिया के लिए उत्साहित और प्रेरित करती है । त्रिलोचन ने रचनाकर्म के इस मूलमंत्र को जान लिया था – ‘मुझमें जीवन की लय जागी/ मैं धरती का हूँ अनुरागी/ जड़ीभूत करती थी मुझको/ वह संपूर्ण निराशा त्यागी/ मैं निर्भय संघर्ष-निरत हो/ बदल रहा संसार तुम्हारा ।’2 प्रगतिशील कवि और उसकी कविता की यह अपनी विशेषता है कि आप उसे जहाँ से भी टटोलने या पकड़ने की कोशिश करें एक चीज जो आपको समान रूप से सर्वत्र मिलेगी वह है – जीवन के प्रति उसका झुकाव । यह झुकाव ही उसे सहजता की उस भूमि पर ले जाता है जहाँ उसका सृजनकर्म ‘जीवन सौंदर्य’ का कारण बन जाता है ।

नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की त्रयी हिन्दी में प्रगतिशील कविता की धुरी मानी जाती हैं । रचनात्मक उद्देश्य की एकता होने के बावजूद यहाँ ‘हर एक का अपना अनुभव है, अपनी दृष्टि है और अपना मत’ है । नागार्जुन और केदार की कविताओं का स्वर बहुत कुछ एक-सा है, लेकिन त्रिलोचन के यहाँ जीवन के धूप-छांही झिलमिल की आभा और उसको अभिव्यक्त करने का ढंग तनिक जुदा है । प्रगतिशील कविता की यथार्थवादी धारा के विकास में त्रिलोचन की अलग भूमिका पर विचार करते हुए मैनेजर पांडे ने लिखा – “त्रिलोचन का यथार्थवाद दूसरे कवियों के यथार्थवाद से कुछ अलग है । उसमें न कहीं भावुकता है, न झूठा आशावाद; न काल्पनिक संघर्षों के अमूर्त्त चित्र हैं, न मारो-मारो, काटो-काटो की ललकार है । वहाँ जनशक्ति में आस्था है, संघर्ष के लिए आव्हान है, मुक्ति आंदोलन के गीत भी हैं, लेकिन यह चेतावनी है कि – ‘सोच समझकर चलना होगा ।’ उनकी कविता का मुख्य स्वर यह है – ‘भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय/ पर अभाव से दबे नहीं, जागे स्वभावमय ।’ जो लोग जन जीवन की कविता में केवल आशा और उल्लास देखना चाहते हैं, उनको लक्ष्य करके त्रिलोचन ने लिखा – ‘अगर न हो हरियाली/ कहाँ दिखा सकता हूँ? फिर आँखों पर मेरी चश्मा हरा नहीं है । यह नवीन ऐयारी/ मुझे पसंद नहीं है/ जो इसकी तैयारी करते हों वे करें/ अगर कोठरी अंधेरी है तो उसे अंधेरी समझने-कहने का मुझको है अधिकार ।’3 अगर जनता के जीवन में संघर्ष और दुःख है तो उस वास्तविकता को झुठलाना गलत है । लेकिन वह यह भी जानते हैं कि ‘दुख के तम में जीवन-ज्योति जला करती है ’। वे किसान-जीवन की करुण कहानी नहीं कहते, उसके स्वाभिमान की रक्षा को महत्व देते हैं। उनकी कविता में किसान-जीवन का यथार्थ सच्चे और खरे रूप में है; न वह भावुकता के उच्छ्वास में डूबा है, न विचारधारा के आग्रह से ढँका है। त्रिलोचन इसी सजग किसान-दृष्टि से समाज, प्रकृति और विश्व को देखते हैं।”

त्रिलोचन की कविताओं में जीवन की वास्तविकताएँ बड़े ही सहज रूप में सामने आती हैं । जीवन का सहज, स्वभाविक, शांत किन्तु गतिशील चित्र बिना किसी तामझाम और शोर-शराबे के । जीवन के यही शांत, सहज, स्वभाविक चित्र उनकी कविताओं में सौंदर्य का आधार बनते हैं । कुछ-एक कविताओं को उदाहरण स्वरूप देख लें । ‘धरती’ संग्रह में संकलित उनकी एक प्रसिद्ध कविता है – ‘चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती ।’ चम्पा सुंदर ग्वाला की अच्छी, चंचल, उधम मचानेवाली लड़की है, जो पढ़ने-लिखने की उम्र में चौपायों को लेकर चरवाही करने जाती है । कवि उसे यह सीख देता है कि – ‘तुम भी पढ़ लो/ हारे-गाढ़े काम सरेगा ।’ गांधी जी की भी यही इच्छा है कि – ‘सब जन पढ़ना-लिखना सीखें ।’ जीवन में पढ़ने-लिखने के महत्व को समझाते हुए कवि चम्पा से कहता है – ‘पढ़ लेना अच्छा है/ ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी/ कुछ दिन बालम संग-साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता/ कैसे उसे सँदेसा दोगी/ कैसे उसके पत्र पढ़ोगी ।’ गाँव की यह चंचला जिस निपट गंवई सयानेपन के साथ कवि को जवाब देती है, वह हमें कई दृष्टिकोण से सोचने व समझने को विवश करता है – ‘तुम कितने झूठे हो, देखा,/ हाय राम; तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो/ मैं तो ब्याह कभी न करूँगी/ और कहीं जो ब्याह हो गया/ तो मैं अपने बालम को संग-साथ रखूँगी/ कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी/ कलकत्ता पर बजर गिरे ।’4 यहाँ दो पंक्तियाँ गौर करने लायक है । पहली ‘तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो ।’ यह पंक्ति पढ़े-लिखे समाज पर कटाक्ष है, जिसकी जीवन शैली सहज, स्वभाविक न होकर दिखावे और जटिलता की ओर बढ़ती जा रही है । आवश्यकता से अधिक समझदारी, धूर्तता कहलाती है । गंवई समाज में अक्षर ज्ञान से ज्यादा जीवन से प्राप्त अनुभव का ज्ञान बोलता है । इसी अनुभव के आधार पर चम्पा कहती है – ‘कलकत्ता पर बजर गिरे ।’ यह पंक्ति हमारे मन में कई सवाल पैदा करती है । मसलन चाम्पा क्यों कहती है कि कलकत्ते पर बजर गिरे? क्यों वह विवाह के बाद गाँव में ही अपने बालम के साथ सुखमय वैवाहिक जीवन को नहीं जी सकती? क्यों उसका बालम कलकत्ते जाने को विवश है? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है – ‘पूंजी’ । आज के पूंजीवादी समाज में ‘पूंजी’ ही सुखमय जीवन का आधार है । लेकिन पूंजी के स्रोत का आधारभूत ढाँचा गंवई जीवन से बहुत दूर शहरों में विकसित होता जा रहा है । आजादी के बाद जितना विकास शहरों में दिखाई पड़ता है उतना गाँवों में नहीं । इसीलिए उत्तर भारत के अधिकतर परिवारों में युवा अपना घर-परिवार छोड़कर बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए शहर की तरफ भागता है और न जाने कितनी चंपाओं को अकेले ही गाँवों में गुजर बसर करना होता है । यह कविता ‘पूंजी के विरुद्ध प्रेम के प्रतिरोध’ की कविता है ।

त्रिलोचन की ऐसी ही एक कविता है – ‘परदेशी के नाम पत्र’, जिसमें आर्थिक तंगी की वजह से गाँव का खेतिहर शहर जाकर मेहनत-मजदूरी करता है और उसकी पत्नी गांव में अकेले रह जाती है । पति और पत्नी दोनों की जीवनदशा और मनोदशा का बड़ा ही सटीक चित्रण त्रिलोचन ने इस कविता में किया है । लंबे समय तक पति की कोई खबर न मिलने पर पत्नी घर का हालचाल बताती हुई शिकायत भरे लहजे में पति को पत्र में लिखती है – ‘और वह बछिया कोराती है/ यहाँ जो तुम होते/ देखो कब ब्याती है ।/ ....तुम्हें गाँव की क्या कभी याद नहीं आती है/ आती तो आ जाते/ मुझको विश्वास है/ थोड़ा लिखा समझना बहुत,/ समझदार के लिए इशारा ही काफी है।’ पति पत्र के जवाब में लिखता है – ‘सचमुच इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई/ झूठ क्या कहूँ/ पूरे दिन मशीन पर खटना/ बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई/ का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना/ इस-उस पर मन दौड़ाना, फिर उठकर रोटी करना, कभी नमक से कभी साग से खाना/ ...धीरज धरो आज कल करते तब आऊँगा/ जब देखूंगा अपना घर कुछ कर पाऊँगा ।’5 यह कवि कल्पना नहीं बल्कि खेतिहर-मजदूरों के जीवन की वह त्रासद सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता । जीवन के इस कठिन रूप को जिस कुशलता से चित्रित किया गया है, वह यथार्थवादी कला की देन है । ऐसी त्रासद जीवन-स्थितियों से गहरा परिचय होने के कारण ही कवि पूछ बैठता है – ‘हाथों के दिन कब आएँगे/ कब तक आएँगे, यह कोई नहीं बतलाता’ 

‘धरती’ संग्रह में एक कविता है – ‘भोरई केवट के घर’ । भोरई जिस गाँव का निवासी है वह रेल-तार से बहुत दूर है । अनपढ़ देहाती होने के नाते ‘राष्ट्रों के स्वार्थ और कूटनीति, पूंजीपतियों की चालें’ वह नहीं समझ पाता लेकिन जीवन के अनुभव से उसने इतना अवश्य जान लिया है कि जिस ‘महँगाई’ ने उसका जीवन तबाह कर दिया उसका कारण है ‘लड़ाई’ यानी दूसरा विश्वयुद्ध । वह कहता है – ‘बाबू, इस महंगी के मारे किसी तरह अब तो/ और नहीं जिया जाता/ और कब तक चलेगी लड़ाई यह ।’6 

त्रिलोचन के काव्य-संसार में हमें भोरई केवट, चम्पा, नगई, महरा, लखमनी, भिखरिया जैसे ग्रामीण परिवेश से संबंधित चरित्रों की सृष्टि ही अधिक मिलती है । इन चरित्रों को माध्यम बनाकर कवि ‘ठोस अनुभवों की उस दुनिया’ से हमारा परिचय कराता है जैसा ‘प्रेमचंद के कथा-साहित्य’ में मिलता है । त्रिलोचन की कविता के केंद्र में वह मनुष्य है – जिनकी साँसों को आराम नहीं, जिन्होंने सारा जीवन समाज की कल्मष धोने में लगा दिया और जो अपने जीवन की बाजी लगाकर आगामी मनुष्यता का पथ तैयार करने को तत्पर हैं । लेकिन जब यही मनुष्य शासन व सत्ता द्वारा छला जाता है, देश के नेताओं व नौकरशाहों के द्वारा पूंजीपतियों के शोषण का माध्यम-मात्र बना दिया जाता है तब उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए कवि को आवाज उठानी ही पड़ती है । प्रगतिशील कवि जीवन के इस लड़ाई को कविताओं में लड़ता है । क्योंकि उसके लिए कविता जीवन से अलग या ऊपर की चीज नहीं है । कविता की सार्थकता जीवन की सार्थकता से जुड़ने में ही है । 

देश के लाखों-करोड़ों लोगों ने एक साथ मिलकर ‘आजाद भारत’ के सपनों की लड़ाई लड़ी । देश आजाद भी हुआ । लेकिन इस आजाद भारत में नगई महरा, भोरई केवट, चम्पा, अवतरिया, भिखरिया, लखमनी जैसे न जाने कितने लोग हैं जिनके सपनों को आज तक उड़ान नहीं मिली । देश के पहले आम चुनाव से लेकर आज तक के चुनाव के मूलभूत मुद्दों (रोटी, कपड़ा, मकान, बेरोजगारी) में कोई बदलाव नहीं आया है । जियावन ने चुनाव में नेहरू जी को बोलते हुए सुना था – ‘रोटी कपड़ा सबको किसी तरह देना है/ नाव पड़ी है लहरों में, उसको खेना है/ सब कुछ नया करेंगे/ यह खाली भंडार भरेंगे, विपद हरेंगे ।’ लेकिन हुआ क्या – ‘वे नेहरू जो अपनों को भरते हैं गिन गिन ।’ कथनी और करनी का यह फर्क जियावन में यह विश्वास पैदा करता है कि – ‘पंख लगाकर कौवा फिर मोर न होगा ।’ भोली-भाली जनता को देश के नेताओं ने बड़े-बड़े सपने दिखाए, झूठे वादे किए और जनता इनकी सारी करतूतों की मूक दर्शक बन बैठी – ‘जिसने भोगा है वह तो गूंगी जनता है जिसे जवाहर/ जय प्रकाश गोलवलकर फुसलाया करते हैं/ स्वर्ग तुम्हें हम दिखलाएंगे ।’7 आजाद भारत में गांधी ने रामराज्य का सपना लोगों के सामने रखा । भारत के आम लोगों के लिए रामराज्य आया की नहीं यह तो पता नहीं लेकिन देश के नेताओं, पूंजीपतियों और नौकरशाहों के लिए अवश्य ही रामराज यहाँ स्थापित हो गया । रामराज्य की असल तस्वीर को दिखलाते हुए त्रिलोचन ने लिखा – ‘भीषण कमी अन्न की, बलात्कार की अनुदिन/ बढ़ने वाली गाथाएँ, हत्याएँ, डाके/ चोरी, रिश्वतखोरी, कोई बुरा न ताके/ रामराज्य है ।’ इस व्यवस्था में – ‘अच्छाई इन दिनों बुराई के घर पानी/ भरती है, क्या ठाट बुराई ने बाँधे हैं/ बड़े बड़े अड़ियल भी हार गए.... कहीं किसी ने भौंहें तानी/ उसको निबटाया ।’8 इसीलिए केदार ने लिखा – ‘आग लगे इस रामराज में ।’ 

त्रिलोचन के कवि-व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है – उसका सधा-संयमित स्वर । कवि प्रायः उद्विग्न नहीं होता । वह चाहे राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक विद्रूपताओं पर व्यंग्य कर रहा हो, चाहे अपनी देखी-भोगी गरीबी का बयान कर रहा हो अथवा मुक्ति का आह्वान, कहीं भी तीव्र भावाकुल आवेग, प्रहार या ललकार की मुद्रा नहीं अपनाता । आवेगों की राग तनी रहती है, वह उन्हें उन्मुक्त नहीं छोड़ता । दरअसल त्रिलोचन घटनाओं के प्रभाव में आकर तीव्र आवेगों की तुरत प्रतिक्रिया करने वाले कवियों में नहीं हैं, बल्कि उन घटनाओं के मूल में स्थित जीवन-संवेगों के स्थिर आवेगों के कवि हैं । यही वजह है कि हिन्दी का सामान्य पाठक आसानी से स्वयं को उनकी कविताओं से जोड़ नहीं पाता बल्कि पहले-पहल पढ़ते ही बिदकने लगता है । इस संदर्भ में अपनी राय रखते हुए मैनेजर पांडे ने लिखा – ‘त्रिलोचन घटनाओं के कवि नहीं हैं । वे मूल्यों के कवि हैं । उनकी कविताओं में सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं का चित्रण-वर्णन बहुत कम है, मानव-जीवन की दशाओं और अनुभवों की अभिव्यक्ति अधिक है । वे मानवीय अनुभवों और जीवन दशाओं की अभिव्यक्ति करते हुए संघर्ष, आस्था, जिजीविषा, प्रेम, न्याय और स्वतंत्रता जैसे जीवन-मूल्यों की व्यंजना करते हैं । ....घटनाओं की कविता हमारे सामने की वास्तविकता का बोध कराती है, इसलिए वह जल्दी मन को छूती है । मूल्यों की कविता सतह के नीचे छिपी सच्चाईयों को पहचानने की अंतर्दृष्टि देती है, इसलिए वह पाठकों से धैर्य की माँग करती है, धीरे-धीरे विवेक को प्रभावित करती है । यही कारण है कि त्रिलोचन की कविता कुछ देर से पाठकों को प्रभावित करती है, मन में जगह पाती है ।’9 

दरअसल अपनी कविताओं के लिए त्रिलोचन का प्रयास ‘अनाहत शब्दों’ की ओर रहा – ‘कैसे और कहाँ से शब्द अनाहत पाऊँ’। अनाहत शब्द से उनका आशय- ‘वह शब्द जो कहीं से आहात (विशेषकर राजनीति) न हुआ हो ।’ शायद इसीलिए ‘ठेठ राजनीतिक कविता’ की ओर उनका झुकाव थोड़ा कम ही देखने को मिलता है । इसकी वजह से उन्हें अपने कवि-मित्रों की उपेक्षा, डांट-डपट सबकुछ सहना पड़ा । कवि और उसकी कविताओं को वह लोकप्रियता न मिली जिसका वह हकदार था । लेकिन त्रिलोचन ठहरे ‘शास्त्री’ । उन्होंने न स्वयं को बदला और न अपनी कविताओं को । नामवर जी ने इस प्रसंग को विस्तार से समझाया है – ‘नागार्जुन की स्पष्ट राय है कि कविता में स्पष्ट राजनीति के अभाव ने त्रिलोचन को काफी नुकसान पहुँचाया । नुकसान से आशय यदि नामयिक लोकप्रियता से है तो नागार्जुन की बात ठीक है । त्रिलोचन को नागार्जुन जैसी लोकप्रियता तो निश्चय ही न मिली । लेकिन यदि काव्य के स्तर पर देखें तो स्पष्ट राजनीति के प्रभाव से नुकसान तो नागार्जुन को ही हुआ है, त्रिलोचन से अधिक; बल्कि त्रिलोचन बहुत कुछ बच गए हैं । फिर भी हिन्दी में सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक कविताएँ अगर किसी ने लिखी हैं तो नागार्जुन ने ही । नागार्जुन की तरह यदि त्रिलोचन की स्पष्ट पक्षधरता हर क्षण प्रकट नहीं होती और वे गुस्सा करने के अवसर पर गुस्सा पी जाते हैं तो एक तरह से वे भारतीय किसान के अधिक निकट हैं । इस मामले में वे प्रेमचंद के होरी की परंपरा में हैं । सहिष्णुता और धैर्य के आगार । करुणा उनका स्थायी भाव है । संघर्ष के गहरे अनुभव से ही यह पीड़ा बोध, यह त्रासद चेतना उपलब्ध होती है ।’10 यही वजह है कि नामवर जी उनकी कविताओं को देखने-समझने के लिए एक अलग ‘काव्य-दृष्टि’ की माँग करते हैं ।

छायावादके बाद हिन्दी में प्रगतिशील कविता (प्रगतिवाद) का दौर आया । प्रगतिशील कविता अपनी वैचारिक खुराक ‘मार्क्सवाद’ से ग्रहण करती है । मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक जीवन-दर्शन है, जो जीवन के साथ-साथ साहित्य के अवलोकन-मूल्यांकन के लिए भी दृष्टि देती है । लेकिन दिक्कत तब होती है जब कोई रचनाकार या आलोचक जीवन से बड़ा ‘दर्शन’ को समझने लगता है । दर्शन जीवन के लिए है, जीवन दर्शन के लिए नहीं । कोई भी विचार, सिद्धांत, दर्शन, कला ‘जीवन’ से बढ़कर नहीं । सब जीवन के कारण है । इनके कारण जीवन नहीं । जो लोग अपने आप को मार्क्सवादी कहने का दंभ भरते हैं वह कविताओं में केवल सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों की छवियों को उकेरते हैं या ऐसे विषयों को देखना पसंद करते हैं और अपने को कलावादी कहलाने का शौक रखते हैं वे कविताओं को जीवन से अलग ‘शुद्ध कला’ का विषय बताते हैं । लेकिन कविता जीवन से जुड़कर अपना घेरा इतना व्यापक और असीम कर लेती है कि कोई भी सिद्धांत, विचार, दर्शन उसे बांध नहीं पाता । कविता जीवन से जुड़कर ही उसके विविध रंगों को बिखेरती है । एकरस, निष्प्राण होने से बचती है । प्रगतिशील कवि (नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार) जीवन और कविता के इस अन्तःसंबंध को जानता है । इसीलिए यहाँ कविता का एकरस, एकरंग रूप आपको नहीं मिलेगा । रूप, रस, गंध, ध्वनि, स्पर्श से भरी कविता जीवन के उत्सव का गान बनकर यहाँ आती है । प्रगतिशील कविता जीवन में संघर्ष और कर्म करने की प्रेरणा देती है – ‘तुम नष्ट करो सब भेदभाव/ तुम भरो निखिल जग के अभाव/ सब बाधा हर/ होकर तत्पर/ नव साहस भर/ तुम विजयी बन कर अपना नियमन आप करो/ जीवन की संचित व्याकुलता सब ताप हरो/ जग-जीवन तुम पर निर्भर/ तुम अपने बल पर निर्भर ।’11 संघर्ष की इस लड़ाई में जब अकेलापन बढ़ जाता है तो उसे अपनी प्राणप्रिया पत्नी की याद आती है – ‘बांह गहे कोई, लहरों में साथ रहे कोई ।’ प्रेम का यह उदात्त रूप उसमें ‘जीवन का लय’ पैदा करता है, जगत-जीवन का प्रेमी बनाता है – एकांत की ओर नहीं ले जाता –‘मुझे जगत-जीवन का प्रेमी/ बना रहा है प्यार तुम्हारा ।’ 

प्रयोगवाद और नई कविता के दौर में प्रगतिवाद पर गंभीर आरोप लगाए गए । मसलन प्रगतिवादी कविता ‘साहित्य का संकीर्णतावादी आंदोलन है, जिसमें रचनाकार की स्वतन्त्रता का अपहरण कर लिया जाता है और प्रगतिवाद विषय-वस्तु पर अत्यधिक बल देकर विचारधारा की नारेबाजी का फार्मूला अपनाता है । इससे साहित्य की ‘कलात्मकता’ और ‘रूपविधान’ की भयंकर उपेक्षा होती है । प्रगतिशील साहित्य में ‘साहित्येतर मूल्यों’ को स्थान मिला किन्तु प्रयोगवाद कविता को केवल ‘काव्यात्मक मूल्यों’ तक ही सीमित रखना चाहता था । इन आरोपों को पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता । यह सबकुछ एक सुनियोजित अभियान के तहत किया गया । प्रातिशील कवियों को यह समझने में देर न लगी कि ‘शुद्ध कविता’ की बात करना, ‘शुद्ध व्यक्तित्व’ की बात करना उन्हें ‘जनपथ’ से हटाने का एक तरीका है । उनकी चालों की कलई खोलते हुए त्रिलोचन ने लिखा – ‘प्रतिभा नहीं चाहिए, मेरे गुट में आओ/ इधर-उधर मत भटको/ देखो स्वयं जमाना/ बहुत बुरा है, बेकारी छायी है। जाना/ सुना तथ्य है/ जाओ वहाँ जहां सुख पाओ/ अपना है रेडियो, वहाँ बोलो या गाओ/ जगह-जगह शाखाएँ हैं, अब नाम कमाना/ और डूबाना अपनी इच्छा पर है । आना/ चाहो आ जाओ, या चूको फिर पछताओ ।’ लेकिन प्रगतिशील कवियों के लिए ‘जन’ की प्रतिबद्धता, व्यापक जन जीवन की खुशी ही सर्वोपरि है – ‘धन की उतनी नहीं मुझे जन की परवा है ।’ जीवन में कोई भी प्रलोभन, पद उसे इस सिद्धान्त से डिगा नहीं सकता । इसीलिए वह ‘जनकवि’ कहलाता है । यह थाती उसे जीवन में सबसे अधिक प्रिय है, जिसके लिए वह कोई भी मूल्य चुका जाता है – ‘बिस्तरा है न चारपाई है । जिंदगी हमने खूब पाई है ।/ ठोकरें दर-ब-दर की थीं, हम थे,/ कम नहीं हमने मुंह की खाई है ।’12 

त्रिलोचन की कविता में न आपको ‘समाजवाद’ की हुंकार मिलेगी और न ही शिल्प और रूप की चमक-दमक । इन दोनों के बीच जहां कहीं ‘जीवन’ उपस्थित होता है त्रिलोचन की कविता आपको वहीं मिलेगी । त्रिलोचन ‘जीवन के चित्रकार’ हैं, जो समाज में उठने वाली ध्वनियों को ग्रहण कर उसका चित्र बना देने की कला में माहिर हैं । उन्हें यह बात भली-भांति पता है कि – ‘जीवन जिस धरती का है, कविता भी उसकी’, वह चाय की चुस्की और सिगरेट के धुओं के साथ पूरा किया जाने वाला कोई शगल नहीं बल्कि जीवन-साधना और तप है । कविता को रचने की प्रक्रिया जीवन को रचने की प्रक्रिया के साथ जुड़ी हुई है । 

‘धरती’ का यह कवि जीवन के समक्ष विनत है । ‘शब्द-साधना’ उसके लिए ‘जीवन की खोज’ ही है । भाव, विचार, अनुभूति, शैली की स्पष्टता और सरलता उसकी कविता की आत्मा है । साधारण में भी अनिवार्य रूप से ‘असाधारण’ खोज लेना उसकी प्रतिभा है और जीवन की लय को कविता की लय बनाकर ‘समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक’ बनाने का संकल्प उसकी कविता का उद्देश्य है । कुल मिला-जुलाकर यही त्रिलोचन हैं और यही उनकी कविता का शास्त्र है । 

संदर्भ :

1. केदारनाथ सिंह, संपादक, प्रतिनिधि कविताएं त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण: 2017, पृ. 80
2. रवि रंजन, संपादक, लोकचेतना वार्ता, अंक 8-9, वर्ष 2018, पृ. 255 
3. केदारनाथ सिंह, संपादक, प्रतिनिधि कविताएं त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण: 2017, पृ. 14
4. वही, पृ. 58
5. गोविंद प्रसाद, संपादक, त्रिलोचन के बारे में, वाणी प्रकाशन, संस्करण: 1994, पृ. 153
6. केदारनाथ सिंह, संपादक, प्रतिनिधि कविताएं त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण: 2017, पृ. 65
7. रवि रंजन, संपादक, लोकचेतना वार्ता, अंक 8-9, वर्ष 2018, पृ. 197
8. वही, पृ. 198
9. गोविंद प्रसाद, संपादक, त्रिलोचन के बारे में, वाणी प्रकाशन, संस्करण: 1994, पृ. 157-58
10. वही, पृ. 88
11. वही, पृ. 138
12.केदारनाथ सिंह, संपादक, प्रतिनिधि कविताएं त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण: 2017, पृ. 21

लेखक :
डॉ. भैरव सिंह हासिमारा हिंदी हाई स्कूल, अलीपुरद्वार, पश्चिम बंगाल में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। ईमेल : bhairaw.singh490@gmail.com

डानलोड पीडीएफ

पूर्वाभास : वर्ष 12, अंक 1, जनवरी 2022

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अनुक्रम


शोध आलेख

 शोध दिशा  

    1. आजाद अघोरी साधक : भुवनेश्वर — भारत यायावर
    2. नवगीत और उसकी मौजूदा समस्याएँ — वीरेन्द्र आस्तिक

 शोध समीक्षा

    1. ‘नवगीत वाङ्मय’ : एक समीक्षा — वीरेन्द्र निर्झर  

 शोध समाचार

साहित्य, कला एवं संस्कृति पर केंद्रित सर्जनात्मक एवं शोधपरक सामग्री के एकीकृति प्रस्तुतिकरण एवं नये-पुराने शोधार्थियों, अध्येताओं, लेखकों को सर्जना एवं शोध के नवीन अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से पूर्वाभास (Poorvabhas) की परिकल्पना की गई है। यह हिंदी में प्रकाशित होने वाली एक ऑनलाइन (Online), पूर्व समीक्षित/ पियर-रिव्यूड (Peer-reviewed), अन्तर्राष्ट्रीय (International) रचनात्मक लेखन (Creative Writings) एवं शोध (Research) की अर्द्धवार्षिक (Biannual) पत्रिका है।

Poorvabhas : Vol. 12, Issue 1, Jan 2022

पुस्तक चर्चा : वीरेन्द्र आस्तिक कृत ‘मगर कब तक’ — अवनीश सिंह चौहान

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वीरेन्द्र आस्तिक, ‘मगर कब तक’, दिल्ली : कल्पना प्रकाशन, 2022  
मूल्य : रु. 395/-, पृ. 126, ISBN: 978-93-91709-33-4


(1)
आजकल कहीं किसी 'सत्ता की परिक्रमा', कहीं किसी 'मान्यता की जकड़बंदी'या कहीं किसी 'वैचारिक असहिष्णुता'में नतमस्तक होने जैसी प्रवृत्ति विकसित होती दिखाई पड़ रही हैं। इस प्रकार की अविवेकपूर्ण प्रवृत्तियों के विकसित होने से जहाँ तर्क और संवाद की प्रक्रिया अत्यधिक मंद पड़ रही है, वहीं 'वैचारिक स्वतंत्र अभिव्यक्ति'पर अंकुश भी लगता चला जा रहा है। इन विषम स्थितियों में भी हमारे बीच कुछ ऐसे निश्छल एवं निडर शब्द-साधक मौजूद हैं, जो अपनी सघन अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर नित्य-नये-रूपों में सार्थक एवं सदुपयोगी चिंतन प्रस्तुत कर रहे हैं।

                                                                                (2)
उपर्युक्त पृष्ठभूमि में श्री वीरेन्द्र आस्तिक एक ऐसे ही आलोक-स्तम्भ हैं जिन्होंने अपनी विचारात्मक दृष्टि से प्रगतिशील समाज के इस जटिल स्वरुप को कई कोणों से देखा-समझा है। अपनी इस रचनात्मक प्रक्रिया के दौरान उन्होंने आधुनिक मनुष्य की चेतना में खिंचीं फाँकों को चीन्हते हुए समय-समय पर अपनी सर्जना में कई जरूरी प्रश्न उठाये हैं। अलग-अलग तरीकों से उठाये गए इन अलग-अलग प्रकार के प्रश्नों के केंद्र में एक बड़ा प्रश्न जब पुस्तक के शीर्षक— 'मगर कब तक'के रूप में आकार लेता है तब फ़िराक़ गोरखपुरी बरबस याद आते हैं— "उमीदे-मर्ग कब तक, ज़िन्दगी का दर्दे-सर कब तक?/ ये माना सब्र करते हैं मोहब्बत में, मगर कब तक?'जिंदगी और मौत के बीच दर्द के दरिया में इम्तिहान लेती मोहब्बत में भला 'सब्र'भी किया जाये तो कब तक? फ़िराक साहब की उक्त चिंतनधारा से साम्य रखते हुए आस्तिक जी इस समस्या की जड़ में पूँजीवादी व्यवस्था और उससे उपजी मूल्यहीनता को पाते हैं— "ठिकाना प्यार का था जो/ वही अब लापता है/ नई तकनीक के सामान से/ ये घर लदा है/ बढ़ी पूँजी/ मगर दूरी बढ़ी है/ क्यों मनुजता से?"सादगी और सहजता जैसे अलंकारों से स्वाभाविक रूप से प्रदीप्त 'मनुजता'से बढ़ रही दूरी के चलते यहाँ आस्तिक जी के लिए 'मोहब्बत'से भी अधिक महत्वपूर्ण वर्तमान की खौफनाक स्थितियों में 'निडर'होकर जीवन जीना है— "घरों को छोड़ कर पंछी/ वनों में बस रहे हैं/ नहीं मालूम है इनको/ कि जंगल कट रहे हैं/ अभी खुशहाल चिड़िया है/ मगर कब तक निडरता से"— कारण सिर्फ यह कि 'निडरता'से 'विश्वास'उपजता है, 'विश्वास'से 'संकल्प'और 'संकल्प'से 'सिद्धि'होती है।

                                                                            (3)
इस पूँजीवादी व्यवस्था से जैसे-जैसे उपभोग का संसार विस्तृत हुआ है, वैसे-वैसे मनुष्य की इयत्ता अपनी जड़ों से कटकर समय की रेत में धसती चली गयी है। परिणामस्वरूप मनुष्य को अब भीड़भरे बाजार में भी 'अकेलापन'महसूस होने लगा है— "हो गई बाजार दुनिया/ औ'अकेले हम।"अब प्रश्न उठता है कि यदि हमारी दुनिया महज बाजार बनकर रह जाएगी तो मानव और प्रकृति के मध्य योगात्मक संबंध का निरूपण करने वाली यह शस्य-श्यामला भारत-भूमि अपना वैभव कैसे बचा पाएगी? इस प्रश्न का सीधा उत्तर यह कवि अपने शीर्षक गीत के अंतिम बंध में बड़ी सहजता और सजगता से देता है— "अभी भूले नहीं हम/ वाल्मीकी पर्णकुटियाँ/ अभी भी है/ प्रकृति की छाँव,/ पर्वत और नदियाँ/ बहुत नादान हैं ये बम/ जो टकराते करुणता सें।"यानी कि ऋषियों-मुनियों-कर्मयोगियों की तपस्थली के रूप में अभिहित और प्रेम और करुणा जैसे श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों को धारण करने वाली अपनी यह सुंदर धरती प्राकृतिक संपदा और नैसर्गिक सुषमा से भरी पड़ी है; हम भारतीयों को तो केवल इसके महत्व को समझते हुए 'योग'और 'उपभोग'का संतुलित और कल्याणकारी संसार रचना है।

                                                                            (4)
कभी महात्मा बुद्ध ने कहा था कि 'बुद्धत्व'की प्राप्ति तभी होती है जब मनुष्य किसी के पीछे नहीं चलता है, बल्कि स्वयं के भीतर रचे संसार में प्रवेश करता है। इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि ‘शब्द-साधक’ को 'शब्द-ब्रह्म'की उपलब्धि तभी होती है जब वह पूरी ईमानदारी से अपने भीतर उतरता है। तब अपनी कला के प्रति असीम अनुराग से उसकी आंतरिक शक्तियों और गुणों का ऐसा विकास होता है कि— "अनुभव, सपनों को सच करके/ और युवा हो जाते हैं/ नए दर्द, फिर नए रूप में/ पतझर पर उग आते हैं/ शब्द सूख तो जाते लेकिन/ स्वप्न नए/ हर बार हरा कर देते।"तदनुकूल ‘चैतन्यता’ की इस विलक्षण स्थिति में 'शब्द'को इस सृष्टि का मूल मानने वाले इस तत्वज्ञानी कवि के अंतर्मन में 'अनाहत स्वर'फूटने लगता है और इस प्रकार 'संस्कृति'के बीजों को बोने बाले नये गीतों का सृजन होता है— "अक्सर पाठों, प्रतिपाठों से/ हम निष्चेत-से हुए हैं/ आखिर हमनें फिर से आदिम-/ संस्कृति के बीज बुए हैं/ शब्द सूख तो जाते लेकिन/ गीत नये/ हर बार हरा कर देते।" 

                                                                            (5)
इस कवि के लिए गीत की सर्जना एक ऐसी साधना है जिससे इस अराजक समय में मानवता को आलोकित करती मानवीय क्षमताओं का समुचित विकास तो संभव है ही, 'युगल सरकार'के नाम, रूप, लीला, गुण की सिद्धि और साक्षात्कार होने में भी कोई संशय नहीं है— "कार्ल-नीत्से अप्रासंगिक/ काम न होगा ईशु-बुद्ध का/ घबरा जाता मन, समय देख/ इन ऐटम औ'न्यूक्लीअर का/ असत् न रोके रुकता इससे/ राधा-कृष्ण प्रकट हो जाएँ।"
 


लेखक : 
'वंदे ब्रज वसुंधरा'सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

Flap Matter by Abnish Singh Chauhan

'अमृत महोत्सव'में भावपूर्ण प्रस्तुतियाँ

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बरेली : मंगलवार 16 अगस्त 2022 को बीआईयू कॉलेज ऑफ़ ह्यूमनिटीज एण्ड जर्नलिज्म एवं बीआईयू कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट (बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी) में संयुक्त रूप से आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर 'अमृत महोत्सव'का भव्य आयोजन किया गया, जिसमें उक्त महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। कार्यक्रम का शुभारंभ छात्र-छात्राओं द्वारा माँ सरस्वती की वंदना से हुआ

सहायक आचार्य अतुल बाबू ने महाविद्यालय परिसर में 'अमृत महोत्सव'मनाये जाने के लिए की गयी तैयारियों पर प्रकाश डालते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। तदुपरांत बी.ए. (मास कम्युनिकेशन, प्रथम सेमेस्टर) की छात्राओं- वंशिका पटेल, बरशानी गुप्ता एवं युसरा ज़ैदी ने आजादी के महत्व पर संक्षिप्त वक्तव्य दिए। एमएचए की छात्रा करिश्मा कनौजिया ने 'देश हमें पुकार रहा'कविता का पाठ कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। एमपीएच की छात्रा शिखा यादव एवं सृष्टि शुक्ला ने राष्ट्र-ध्वज के महत्व पर प्रकाश डाला। बीकॉम (ऑनर्स) की छात्रा प्रियांशी गुप्ता ने नेताजी सुभाष और बीबीए की छात्रा गरिमा वर्मा ने भगत सिंह के अप्रतिम योगदान को गीतों के माध्यम से रेखांकित किया।  


कार्यक्रम के समापन पर छात्र-छात्राओं को सम्बोधित करते हुए प्राचार्य डॉ अवनीश सिंह चौहान ने कहा कि "आजादी के इस महापर्व को मनाते हुए यहाँ पर छात्र-छात्राओं द्वारा जो प्रस्तुतियाँ दी गयीं, वे श्लाघनीय हैं। इससे हम सभी में उत्साह एवं उमंग का भाव जागृत हुआ है।"इस कार्यक्रम के सफल आयोजन पर बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी की माननीया कुलपति डॉ लता अग्रवाल एवं कुलसचिव डॉ एस के ठाकुर ने उक्त महाविद्यालयों के सभी छात्र-छात्राओं एवं शिक्षकों को बधाई एवं शुभकामनाएँ दीं। फोटोग्राफी का कार्य चमन बाबू ने किया। कार्यक्रम का समापन सहायक आचार्य शिवानी सक्सेना एवं हर्षित गुप्ता द्वारा धन्यवाद ज्ञापन से हुआ। 

गुरुवार 18 अगस्त 2022 को पृष्ठ 07 पर 'अमृत विचार' (बरेली) में प्रकाशित समाचार : 


प्रस्तुति: 
'वंदे ब्रज वसुंधरा'सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

'Amrit Mahotsava' in BIUCHJ & BIUCM

'शिक्षक दिवस' : आभार अभिव्यक्ति का महापर्व

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बरेली : सोमवार 5 सितंबर 2022 को बीआईयू कॉलेज ऑफ़ ह्यूमनिटीज एण्ड जर्नलिज्म एवं बीआईयू कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट (बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी) में संयुक्त रूप से 'शिक्षक दिवस'का आयोजन किया गया, जिसमें माँ सरस्वती को नमन करते हुए प्राचार्य डॉ अवनीश सिंह चौहान द्वारा मुख्य अतिथि के रूप में पधारे विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ सुशील कुमार ठाकुर का पुष्प भेंट कर स्वागत किया गया।

बीबीए (फाइनेंस एण्ड टेक्सेशन) की छात्रा आरती गंगवार ने कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए छात्रा संस्कृति द्विवेदी को माँ सरस्वती की वंदना- "या कुन्देन्दु तुषार हार धवला"प्रस्तुत करने के लिए मंच पर आमंत्रित किया। तदुपरांत विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ सुशील कुमार ठाकुर ने छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा, "शिक्षक हमें सत्य के मार्ग पर चलना सिखाते हैं।"डॉ अवनीश सिंह चौहान ने माननीय मुख्य अतिथि का आभार व्यक्त करते हुए कहा, "शिक्षक दिवस शिक्षकों के प्रति श्रद्धा एवं आभार प्रकट करने का महापर्व है।" 


इसके उपरांत बीबीए (फाइनेंस एण्ड टेक्सेशन) की छात्रा गरिमा वर्मा ने अपने वक्तव्य में बताया, "गुरुजन जीवन में आयी कठिनाइयों का बहादुरी से सामना करने की प्रेरणा देते हैं।"बी.ए. (मास कम्युनिकेशन, प्रथम सेमेस्टर) की छात्रा बरशानी गुप्ता ने शिक्षक को जीवन में ज्ञान-रूपी प्रकाश लाने वाला बताया, जबकि वंशिका पटेल ने "जीवन में जो राह दिखाए"शीर्षक से काव्य प्रस्तुति दी। कॉलेज की अन्य छात्राओं- सलोनी (बीबीए), अदिति, (एमएचए), प्रियांशी गुप्ता एवं निमरा खान (बीकॉम ऑनर्स), सृष्टि (एमएचए) आदि ने भी भावपूर्ण प्रस्तुतियाँ दीं। शिक्षा और शिक्षक की भूमिका को रेखांकित करने के उद्देश्य से महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं द्वारा दी गयीं भावपूर्ण प्रस्तुतुतियों की सहायक आचार्य अतुल बाबू ने सराहना की। 


कार्यक्रम के सफल आयोजन पर बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी की माननीया कुलपति डॉ लता अग्रवाल ने उक्त महाविद्यालयों के सभी छात्र-छात्राओं एवं शिक्षकों को बधाई एवं शुभकामनाएँ दीं। फोटोग्राफी का कार्य चमन बाबू ने किया। कार्यक्रम का समापन संयोजक मंडल - सहायक आचार्य रीना सिंह एवं अश्वनी प्रताप सिंह, द्वारा धन्यवाद ज्ञापन से हुआ।

06 सितंबर 2022 को पृष्ठ 07 पर 'अमृत विचार' (बरेली) में प्रकाशित समाचार :
 


प्रस्तुति: 
'वंदे ब्रज वसुंधरा'सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

'Teacher's Day Celebration' in BIUCHJ & BIUCM

पुस्तक चर्चा : 'समकालीन गीत और वीरेन्द्र आस्तिक'— अवनीश सिंह चौहान

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समीक्षित ग्रन्थ :समकालीन गीत और वीरेन्द्र आस्तिक
संपादक : डॉ कृष्ण गोपाल मिश्र
प्रकाशक : वृंदा प्रकाशन, 1093, मुखर्जी नगर, दिल्ली-110009
प्रकाशन वर्ष : 2021, पृष्ठ : 364, मूल्य : रु 995/- (सजिल्द)
ISBN : 978-81-954028-2-3 
समीक्षक  : अवनीश सिंह चौहान 


वर्तमान समय में गीतकवियों की रचनाओं का प्रकाशन तो खूब हो रहा है, किन्तु उनकी रचनाधर्मिता पर केंद्रित पुस्तकों का सृजन या संपादन करने वाले कलमकार बहुत कम हैं। इन्हीं अल्पसंख्यक कलमकारों में से एक— डॉ कृष्ण गोपाल मिश्र, जोकि शासकीय नर्मदा महाविद्यालय, होशंगाबाद (म.प्र.) में विभागाध्यक्ष (हिन्दी) के पद पर कार्यरत हैं, के सम्पादकत्व में एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका शीर्षक है— "समकालीन गीत और वीरेन्द्र आस्तिक।" 364 पृष्ठों के इस ग्रन्थ में डॉ मिश्र ने गीत-नवगीत के इतिहास तथा उसके विमर्शात्मक मौजूदा मुद्दों के बहाने ख्यात कवि, आलोचक एवं संपादक वीरेन्द्र आस्तिक की गीत-यात्रा की गहन पड़ताल की है। अपनी इस पड़ताल में सम्पदकीय के माध्यम से 'गीत-साधना की त्रिगुणात्मिका सृष्टि'का सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत करते हुए डॉ मिश्र ने आस्तिक जी के अवदान को 'सृजन, सम्पादन एवं समीक्षण'की दृष्टि से रेखांकित तो किया ही है, उनकी इस त्रिआयामी सर्जना को मुख्य आधार बनाते हुए इस ग्रन्थ को करीने से खण्डबद्ध भी किया है।

विगत पाँच दशकों से सक्रिय वीरेन्द्र आस्तिक एक ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने अपनी साधना, संयम, स्वाध्याय, समर्पण और सेवा से हिंदी गीत और आलोचना को साहित्य-प्रेमियों के बीच जीवंत बनाये रखा है। स्वाभाव से फक्क्ड़, मोह-माया से परे, यश-कीर्ति की तृष्णा से मुक्त आस्तिक जी का रचना-संसार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, संकलनों आदि में पसरा पड़ा है, जिसे सम्पादक ने अपनी कुशल एवं अनुभवी संपादन-कला द्वारा छः खण्डों— 'व्यक्तित्व-कृतित्व' (आस्तिक जी के जीवन और साहित्य की दशा-दिशा को प्रदर्शित करते आलेख), 'विचार-विमर्श' (आस्तिक जी के बहाने गीत अस्मिता पर केंद्रित आलेख), 'मूल्यांकन' (आस्तिक जी द्वारा संपादित कृतियों की मीमांसा ), 'समीक्षण' (आस्तिक जी द्वारा रचित गीत-नवगीत कृतियों की समीक्षाएँ), 'साक्षात्कार' (डॉ जयशंकर शुक्ल से वीरेंद्र आस्तिक की बातचीत) एवं 'काव्य-वीथियाँ' (आस्तिक जी की काव्य-रचनाएँ), में समाहित कर इस ग्रन्थ को आकर्षक कलेवर प्रदान किया है। संपादक का मानना भी है— "उनके (वीरेन्द्र आस्तिक) कृतित्व में परंपरा एवं आधुनिकता की युक्तियुक्त संहति है, अनुभूति की संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति की तलस्पर्शी भंगिमा उनकी रचनाशीलता का वैशिष्ट्य है। इसलिए उनके प्रदेय की यत्किंचित चर्चा भी साहित्य-समीक्षालोक में सुलभ है, किन्तु उनके अवदान पर कोई समेकित-प्रस्तुति अभी तक नहीं हुई है। यह संपादित ग्रन्थ इसी अभाव की पूर्ति का प्रयत्न है" (22)।

वीरेन्द्र आस्तिक पर केंद्रित इस रचना-समग्र को समृद्ध करने के लिए सम्पादक ने निम्नलिखित नामवर साहित्यकारों एवं आलोचकों के अमूल्य शब्दों को इसमें संकलित किया है— 'व्यक्तित्व-कृतित्व खण्ड'में : डॉ विमल, डॉ मधुसूदन साहा, मधुकर अष्ठाना; 'विचार-विमर्श खण्ड'में : डॉ सुरेश गौतम, डॉ संतोष कुमार तिवारी, डॉ प्रेम बहादुर सिंह, डॉ अन्जना दुबे, डॉ सरिता आदि; 'मूल्यांकन खण्ड'में: डॉ वेद प्रकाश अमिताभ, श्री रंग, डॉ वीरेन्द्र सिंह, दिवाकर वर्मा, डॉ सूर्य प्रसाद शुक्ल आदि; 'समीक्षण खण्ड'में : डॉ कामिनी, डॉ अवनीश सिंह चौहान, डॉ रणजीत पटेल, आचार्य रामदेव लाल ‘विभोर’, डॉ शांति सुमन, डॉ साधना बलवटे, डॉ कृष्णकुमार श्रीवास्तव, डॉ प्रभा दीक्षित, डॉ श्याम नारायण पाण्डेय, डॉ रवीन्द्र कुमार आदि; 'साक्षात्कार खण्ड'में : डॉ जयशंकर शुक्ल; तथा ‘काव्य-वीथियाँ खण्ड'में वीरेन्द्र आस्तिक के समकालीन गीत, गज़ल, हाइकु एवं दोहे समायोजित किए गए हैं। साथ ही अंतिम खण्ड से पहले ‘पत्रों के गवाक्ष से’ में वीरेंद्र आस्तिक के द्वारा नामचीन विद्वानों, यथा— राजेंद्र प्रसाद सिंह, वीरेंद्र मिश्र, रवींद्र भ्रमर, सत्यनारायण, सिद्धिनाथ मिश्र, मधुर शास्त्री, चन्द्रसेन विराट, रामदरश मिश्र, रामेश्वर शुक्ल अंचल, लक्ष्मीशंकर मिश्र 'निशंक', सेवक वात्सायन, सुरेश गौतम, राम अधीर, विष्णु विराट, अश्वघोष, जीवन सिंह, ओमप्रकाश सिंह आदि से हुए संवादों को पत्र-रूप में संग्रहीत भी किया गया है, जिससे लेखक के व्यक्तिगत संबंधों की सुनहरी परतें भी खुलती हैं।

यहाँ वीरेन्द्र आस्तिक की रचनाधर्मिता को थोड़ा और जानने-समझने के लिए कतिपय विद्वानों की संक्षिप्त टिप्पणियाँ को भी देख लेना समीचीन लगता है। इस सन्दर्भ में डॉ विमल का कथन है— ‘‘मेरी आलोचना दृष्टि में आस्तिक जी महान कलाविद हैं। ललित कलाओं के न केवल निष्णात पंडित, अपितु कुशल सर्जक भी। यही कारण है कि उनकी कविताओं में स्थापत्य, मूर्ति, चित्र और संगीत, यानी कविता की चारों भगिनी ललितकलाओं की सहभागिता और सहगामिता विद्यमान है" (37); डॉ अंजना दुबे मानती हैं— "वीरेन्द्र आस्तिक संवेदन से मानवता का अर्थ निकालने वाले गीतकार हैं" (97); डॉ कामिनी का कहना है— "आस्तिकजी यथार्थधर्मी रचनाकार हैं। उनकी यह प्रतिबद्धता और शुचिता ही गीत का सौंदर्यबोध है" (215); डॉ प्रेम बहादुर सिंह का अभिमत है— ‘‘महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आस्तिक को किसी एक परिधि में बाँधना कठिन है। उनकी सामग्री जन विराट है" (96)। इस प्रकार पूरे ग्रन्थ में साहित्यिक वैचारिकता के साथ कई तथ्यपूर्ण निष्कर्ष मौजूद हैं। यह ग्रन्थ पाठकीय दृष्टि से पठनीय एवं संग्रहणीय तो है ही, इससे सुधी शोधार्थीगण भी लाभान्वित होंगे— ऐसा मेरा विश्वास है


प्रस्तुति: 
'वंदे ब्रज वसुंधरा'सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

Book Review: Samkaleen Geet aur Vrendra Astik - Abnish Singh Chauhan

संविधान दिवस पर शपथ समारोह

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बरेली : शनिवार 26 नवम्बर 2022 को बीआईयू कॉलेज ऑफ़ ह्यूमनिटीज एण्ड जर्नलिज्म एवं बीआईयू कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट (बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी) में संयुक्त रूप से संविधान दिवस पर संविधान की प्रस्तावना की शपथ दिलाई गयी। 

बीबीए (फाइनेंस एण्ड टेक्सेशन) की छात्रा संस्कृति द्विवेदी ने सर्वप्रथम प्राचार्य डॉ अवनीश सिंह चौहान, सहायक आचार्य अतुल बाबू एवं अश्वनी प्रताप सिंह को मंच पर आमंत्रित किया। तदुपरांत संस्कृति द्विवेदी ने सभी उपस्थित जनों को संविधान की प्रस्तावना की शपथ दिलाई। इस अवसर पर डॉ अवनीश सिंह चौहान ने संविधान के निर्माताओं का पुण्य स्मरण करते हुए कहा, "आज पूरे देश में संविधान दिवस 'भारत - लोकतंत्र की जननी'के रूप में मनाया जा रहा है। भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है। यह संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हुआ था। संविधान के बनने में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन लगे थे।" 

गरिमा वर्मा, विष्णु गुप्ता, शिफा इंतज़ार, प्रियांशी गुप्ता, निमरा खान, शिखा यादव, अनम आफताब, बलराम बिष्ट, करिश्मा कनोजिया, आशी सक्सेना, फरहान अली, नूर फातिमा, सृष्टी शुक्ला आदि विद्यार्थियों ने बड़े मनोयोग से प्रतिभाग किया। 

कार्यक्रम के सफल आयोजन पर बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी की माननीया कुलपति डॉ लता अग्रवाल और कुलसचिव डॉ एस के  ठाकुर ने उक्त महाविद्यालयों के सभी छात्र-छात्राओं एवं शिक्षकों को बधाई एवं शुभकामनाएँ दीं। फोटोग्राफी का कार्य चमन बाबू ने किया। कार्यक्रम का समापन संयोजक मंडल - सहायक आचार्य अतुल बाबू एवं अश्वनी प्रताप सिंह, द्वारा धन्यवाद ज्ञापन से हुआ। 






 


प्रस्तुति: 
'वंदे ब्रज वसुंधरा'सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

Constitution Day: Pledge Taking Ceremony

साक्षात्कार : "साहित्य की समाज में आज भी प्रतिष्ठा है"— रामनारायण रमण

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रामनारायण रमण का जन्म 10 मार्च 1949 को ग्राम पूरेलाऊ, पो. बरारा बुजुर्ग, जनपद रायबरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ। साहित्य की विविध विधाओं में सर्जना करने वाले रमणजी की प्रकाशित कृतियाँ हैं— 'मैं तुम्हारे गीत गाऊँगा' (गीत,1989), 'निराला और डलमऊ' (संस्मरणात्मक जीवनवृत्त, 1993), 'मुझे मत पुकारो' (कविता, 2002), 'परिमार्जन' (निबंध, 2008), 'निराला का कुकुरमुत्ता दर्शन' (निबंध, 2009), 'हम बनारस में, बनारस हममें' (यात्रा-वृत्तांत, 2010), 'हम ठहरे गाँव के फकीर' (नवगीत, 2011), 'उत्तर में आदमी' (निबंध, 2012), 'नदी कहना जानती है' (नवगीत, 2017), 'जिंदगी रास्ता है' (आत्मकथा— प्रथम खण्ड, 2020), 'पंछी जागे नहीं हैं अभी' (कविता, 2021), 'जोर लगाके हइया' (नवगीत, 2021) आदि। इन्होंने 'गंगा की रेत पर' (काव्य संकलन), 'महाप्राण' (वार्षिकी) व 'डलमऊ दर्शन' (वार्षिकी) का संपादन किया है। इनकी कृति— 'निराला और डलमऊ'पर दूरदर्शन दिल्ली द्वारा वृत्त-चित्र बनाया जा चुका है। इनके नवगीत 'शब्दायन : दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि' (सं.— निर्मल शुक्ल, 2012), 'गीत वसुधा' (सं.— नचिकेता, 2013), 'नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्यबोध' (सं.— राधेश्याम बंधु, 2016), 'नयी सदी के नवगीत— खण्ड चार’ (सं.— डॉ ओमप्रकाश सिंह, 2017), 'समकालीन गीतकोश' (सं.— नचिकेता, 2017) आदि में संकलित हो चुके हैं। इन्हें सरस्वती प्रतिष्ठान (रायबरेली) से 'सरस्वती सम्मान' (1993) सहित आधा दर्जन से अधिक सम्मान/ पुरस्कार प्रदान किये जा चुके हैं

रामनारायण रमण से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

अवनीश सिंह चौहान—आपने सबसे पहले किस रचनाकार को पढ़कर प्रतिक्रिया-स्वरुप अपने विचार शब्दबद्ध किये और कब आपकी रचना आलोचना/ समालोचना के रूप में पहली बार किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हुई?

रामनारायण रमण—यह सौभाग्य की बात थी कि हिंदी नवगीत के प्रणेता कवि डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया हमें हिंदी पढ़ाते थे। कभी-कभी छात्रों के कहने पर वे कक्षा में नवगीत सुनाया करते थे। उन्हें पढ़-सुनकर मेरे मन में कविता के भाव जागृत हुए। पहले साधारण तुकबंदिया होती रहीं; धीरे-धीरे कविता का सृजन होने लगा। जहाँ तक प्रकाशन का सवाल है, तो नवंबर 1975 में मेरी एक रचना— 'किरण ज्योति'पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह प्रकाशित मेरी प्रथम रचना है— 'वर्षा ऋतु।'

अवनीश सिंह चौहान—आपने गीत लिखना कब और कैसे प्रारम्भ किया? आपका पहला गीत कब और कहाँ प्रकाशित हुआ? उस समय गीत साहित्य में मानव जीवन का सौंदर्य और यथार्थबोध किस प्रकार से अभिव्यक्त किया जाता था?

रामनारायण रमण—मैंने गीत से ही अपना रचनाकर्म प्रारंभ किया है। पहले-पहल गीत 1970 में लिखा और फिर लगातार लिखता ही रहा। कुछ कहानियाँ भी इसी समय लिखी गईं और प्रकाशित भी हुईं। हमारे कॉलेज का वातावरण गीतमय था। जैसा कि प्रथम प्रश्न के उत्तर में बता चुका हूँ कि डॉ भदौरिया के कारण पहले-पहल गीत ही जन्मा। यदि डॉ भदौरिया न होते तो रचनाकर्म कविता या कहानी से शुरू होता। इसमें मैं उनका ही श्रेय मानता हूँ कि उन्होंने ही मुझे गीत की प्रेरणा दी। नवंबर 1975 में 'केरल ज्योति'मासिक में मेरा प्रथम बार गीत प्रकाशित हुआ। उस समय गीत साहित्य में सौंदर्यबोध आदर्शोन्मुख हुआ करता था। कवि चतुष्टय— निराला, पंत, महादेवी और जयशंकर के बाद का काल होने के कारण गीत में रहस्य की धारा और यथार्थ का पदार्पण दिखाई पड़ता था। यथार्थ को अपने गीत के माध्यम से आदर्श में ढालने का कार्य निराला ने सबसे पहले किया। निराला ही एक ऐसे कवि थे, जिन्हें सच्चाई के मार्ग पर चलने और अभिव्यक्त करने वाला श्रेष्ठ कवि माना जा सकता है। हमारे साहित्य के शैशवकाल में गीत-रचना में कई प्रकार की स्थितियाँ देखने को मिलती हैं, जहाँ गीत सौंदर्य की मार्मिक अभिव्यंजना भी करता है और यथार्थ के सच्चे स्वरूप में भी प्रस्तुत करता है। इसे गीत को नवगीत होने का काल भी कह सकते हैं। डॉ भदौरिया द्वारा सृजित— 'पुरवा जो डोल गई'और 'नदी का बहना मुझमें हो'जैसे गीत (नवगीत) उस समय के प्रेरक गीत रहे हैं। मेरे गीतों में— "धूल भरे गलियारे हैं मेरे गाँव में/ मेहंदी के रंग नहीं उभरेंगे पाँव में"और "हम कितने घाव किये बैठे हैं पाँव में/ और ये चढ़ाई आकाश की"जैसी रचनाएँ उन दिनों हुआ करती थीं।

अवनीश सिंह चौहान—आपने नवगीत लिखना कब और किन परिस्थितियों में प्रारम्भ किया था? आपके नवगीत की रचना-प्रक्रिया क्या है? इस रचना-प्रक्रिया के दौरान आप कथ्य के साथ छंद और लय को किस प्रकार से साधते हैं?

रामनारायण रमण—मैंने नवगीत लिखना 1980 से ही प्रारंभ कर दिया था। इससे एक वर्ष पूर्व 'मैं तुम्हारे गीत गाऊँगा'गीत संकलन प्रकाशित हो चुका था। इस गीत संकलन में दो-तीन नवगीत और शेष परंपरागत गीत ही हैं। मुझे लगा था कि अपने विचारों यानी विषयवस्तु की ताजगी और नवीन शिल्प-विधान के माध्यम से जो नवगीत रचेगा, वह अधिक प्रभावशाली होगा। उस समय नवगीत के अनेक कवि अपनी रचनाओं से नवगीत को समृद्ध कर रहे थे। जहाँ तक रचना-प्रक्रिया का सवाल है तो वह गीत से ही आई लगती है। नवगीत में नवीन समस्याओं और समाधानों के साथ प्रगतिशील विचारों का समावेश उसे समृद्ध बना देता है। मेरा मानना है कि रचना के अनुसार शिल्प-विधान अपने आप आकार ले लेता है। नई अनुभूतियाँ, नये बिम्ब और प्रतीक गढ़ने में मदद करती हैं। शिल्प की नवीनता नवगीत के कलेवर की शोभा है। हम जो कहना चाहते हैं उसमें छंद और लय नवगीत की आत्मा के साथ बँध जाते हैं, अलग से कुछ करना नहीं पड़ता। नवगीत की साधना में 'सधना'अपने आप 'सध'जाता है। समर्पण उसकी आत्म-शक्ति है।

अवनीश सिंह चौहान—आपने अपने जीवन और उससे जुड़ी कठिनाइयों के बारे में अपनी आत्मकथा में विस्तार से चर्चा की है। आपका अपना जीवन-संघर्ष आपके नवगीतों में किस प्रकार से आकार लेता रहा है?

रामनारायण रमण—नवगीतकारों ने शायद आत्मकथा नहीं लिखी है। मैं पहला नवगीतकार हूँ जिसने आत्मकथा लिखी है। आत्मकथा में जीवन के सारे उतार-चढ़ाव, सुख-दुख, अच्छाइयाँ-बुराइयाँ— सभी कुछ लिया ही जाता है और जो बचकर लिखता है वह सच्ची आत्मकथा नहीं होती। तीन बहनें और तीन भाइयों में सबसे बड़ा था और परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। इसलिए कठिनाइयों का मुझे ज्यादा अनुभव है, वह सब मेरी आत्मकथा में वर्णित है। इसलिए स्वाभाविक है कि मेरी कठिनाइयाँ और दुश्वारियाँ मेरी रचनाओं में दिखाई पड़ें। मेरा मानना है कि सच्चा साहित्यकार जाने-अनजाने अपनी रचनाओं में ही फैलता चला जाता है। कितना भी रोका जाए, जीवन की सच्ची रेखाएँ रचना में उतर ही आती हैं। कुछ रचनाकार अवश्य छद्म में रहते हैं अपने को प्रकट नहीं होने देते। भीतर-बाहर एक समान न रहने वालों को मैं रचनाकार नहीं मानता। सच्चा कवि/ साहित्यकार सच्चा ही रहता है। मेरी रचनाएँ प्रायः मेरी आत्मकथा ही होती रही हैं। बस उन्हें समझने की दृष्टि भर चाहिए। मैं जब गाँव से निकला तो नवगीत भी निकला—

मत पूछो अब हाल गाँव का

अब हम नहीं गाँव में रहते।

ऐसे ही हमारा जीवन, हमारी रचना है और हमारी रचना हमारा जीवन।

अवनीश सिंह चौहान—आपके सम्पूर्ण जीवन में कौन-सी समस्या सबसे अधिक विकट रही, जिसका प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव आपकी किसी विशेष रचना या कृति पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है?

रामनारायण रमण—जीवन समस्याओं का जाल है। इस जाल से बचना किसी के लिए भी मुश्किल है। मेरे जीवन में भी तमाम समस्याएँ आईं हैं, जिनका तात्कालिक रचनाओं में प्रभाव पड़ा है। सभी कृतियों के मूल में कोई न कोई समस्या परिलक्षित हुई है, जिसका परिणाम रचना के रूप में सामने आया है। मेरे बहुत सारे नवगीत उन समस्याओं से प्रेरित है।

अवनीश सिंह चौहान—आपको यात्रा-वृत्तांत और आत्मकथा लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली? इन विधाओं के माध्यम से आप क्या सन्देश देना चाहते हैं?

रामनारायण रमण—असल में यात्रा-वृत्तांत और आत्मकथा पढ़ना मुझे अच्छा लगता है। आत्मकथाएँ तो मैं खोज-खोज कर पढ़ता हूँ। आत्मकथा पढ़ने से जीवन की सच्चाई का पता चलता है। सो मेरा भी मन हुआ की आत्मकथा और यात्रा-वृत्तांत लिखूँ। बनारस जैसे शहर की यात्रा करने पर यात्रा-वृत्तांत लिखकर लगा कि अब यात्रा पूरी हुई है। इसी प्रकार अभी मेरी आत्मकथा का प्रथम खंड ही आया है, जिसका नाम है— 'जिंदगी रास्ता है'। जब दूसरा खंड प्रकाशित होगा, तब यह कार्य पूरा होगा। आत्मकथा लिखने की प्रेरणा भी लेखकों को पढ़ने से मिली है। अनेक महिला रचनाकारों सहित तमाम लेखकों की पुस्तकें, आत्मकथा पढ़कर ही लिखने का मन हुआ है। आत्मकथा लिखकर मन हल्का हो गया है। यात्रा-वृत्तांत और आत्मकथाओं में जीवन के अदृश्य संदेश छिपे हैं।

अवनीश सिंह चौहान—आपने सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'को केंद्र में रखकर काफी कुछ लिखा-पढ़ा है। 'निराला'पर कार्य करने की कोई विशेष वजह? 'निराला'पर आपने अब तक क्या-क्या कार्य किये हैं और उनका साहित्यिक महत्त्व क्या है?

रामनारायण रमण—निराला आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, मैं ऐसा मानता हूँ। मेरा निवास-स्थान और कर्मस्थली डलमऊ नगर है और निराला की कर्मभूमि और ससुराल होने का डलमऊ को गौरव प्राप्त है। इसलिए हम निराला के लोग हैं, ऐसा मानते हैं। निराला मेरे आदर्श कवि भी हैं। वे 'वह तोड़ती पत्थर', 'विधवा', 'राम की शक्ति पूजा', 'कुकुरमुत्ता'जैसी रचनाओं के सृजनकर्ता हैं; 'चतुरी चमार', 'कुल्ली भाट'और 'बिल्लेसुर बकरिहा'जैसी गद्य रचनाओं के साहित्यकार हैं। वे 'सरोज स्मृति'जैसी रचना के रचनाकार हैं। उन्हें मैंने बचपन में डलमऊ गंगा तट पर हाथ में बड़ा-सा लोटा लिए देखा है। वे हमारे अपने जैसे लगते हैं। वे प्रगतिशील और जुझारू कवि हैं— 'यह कवि अपराजेय निराला।'डलमऊ का होना भी निराला को समझने का अवसर देता रहा है, इसलिए मैंने निराला पर अनेक रचनाओं का सृजन किया है— कविता, गीत में भी और निबंधों-संस्मरणों में भी। 'निराला और डलमऊ'कृति पर वृत्तचित्र तो बना ही, 'कादम्बिनी'और 'नवनीत'जैसी पत्रिकाओं ने 11-12 पृष्ठ की समीक्षाएँ और सारांश छापे। निराला का 'कुकुरमुत्ता दर्शन'की भी काफी सराहना हुई।

निराला पर पुस्तकें निकालने के साथ उनकी मूर्ति भी स्थापित की गई। ‘निराला स्मारक’ का निर्माण किया गया, जिसका मैं प्रमुख संस्थापक सदस्य हूँ; डलमऊ में 'निराला स्मारक'एक विशिष्ट और सुंदर जगह है। इन कृतियों का और स्मृति संचयन का भी साहित्यिक महत्व है। ‘निराला जयंती’ आदि कार्यक्रम किए जाते हैं और निराला की मूल भावना को प्रसारित करने का अवसर इन्हीं से मिलता है।

अवनीश सिंह चौहान—क्या लोकगीत को लोक-संस्कृति का संवाहक माना जाता है? क्या जनगीत को सर्वहारा वर्ग का प्रवक्ता कहा जाता है? क्या नवगीत को समसामयिक हिंदी कविता कहा जाता है? यदि हाँ, तो क्यों?

रामनारायण रमण—'हाँ', यह इसलिए कि लोकगीत लोक का प्रतिनिधित्व करता है और जनगीत सर्वहारा का। इसीप्रकार नवगीत को भी सामयिक गीत कहना अनुचित न होगा। ये सभी विधाएँ अपनी मूल पृष्ठभूमि में केंद्रित हो आगे बढ़ी हैं।

अवनीश सिंह चौहान—आप अपने लेखन (गद्य एवं पद्य) में भाषा और संवेदना का प्रयोग बहुत ही संतुलित ढंग से करते हैं? भाषा की सृजनात्मकता को केन्द्र में रखकर रचना-कर्म करने के लिए क्या आवश्यक है?

रामनारायण रमण—भाषा का परिमार्जन अभ्यास द्वारा किया जाता है। अध्ययन और अध्यवसाय से भाषा समृद्ध और प्रवहमान होती है। साहित्य के पठन-पाठन और अनुशीलन से भी भाषा में निखार आता है और हमारी संवेदना अपना आकार ग्रहण करती है। सृजन करते समय वही भाषा अपने आप काम आती है जो पहले से हमारे अभ्यास में है। भाषा की सृजनात्मकता को केंद्र में रखकर रचना कर्म करने के लिए अभ्यास और साधना आवश्यक है।

अवनीश सिंह चौहान—भाषा क्या है? भाषा से अनुभव, काव्यानुभव और आलोचनात्मक अनुभव कैसे होता है?

रामनारायण रमण—हम अपने विचार व्यक्त कर देने के लिए जिन शब्द-समूहों का उच्चरण उच्चारण करते हैं, वह हमारी भाषा होती है। भाषा से हम अपने भाव व्यक्त करने में समर्थ होते हैं। भाषा संवाद का आधार होती है। भाषा द्वारा ही हम एक दूसरे के अनुभवों को साझा करते हैं। काव्य हो या आलोचना, सबको संप्रेषित करने के लिए भाषा ही मूल स्रोत है। कोई भी भाषा अपने निवासियों के लिए एक वरदान है।

अवनीश सिंह चौहान—काव्य रचना और आलोचना में कौन-कौन-से दृष्टिगत सामंजस्य दिखाई पड़ते हैं? कृपया बताएँ कि रचना को जीवन का अर्थविस्तार क्यों कहा जाता है और आलोचना को उस रचना का अर्थविस्तार क्यों कहा जाना चाहिए?

रामनारायण रमण—आजकल आलोचनात्मक लेखन बहुत हो रहा है। इसलिए आलोचना पर बात करना बहुत उचित जान पड़ता है। काव्य रचना और आलोचना में यथार्थबोध, प्रगतिशीलता और स्पष्टता जैसे सामंजस्य दिखाई पड़ते हैं। और दूसरा प्रश्न कि रचना को जीवन का अर्थ विस्तार क्यों कहा जाता है, क्योंकि रचना जीवन से जुड़ी है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियाँ रचना को जन्म देती है और रचना उन परिस्थितियों सहित जीवन का विस्तार जैसी लगती है। इसी प्रकार आलोचना उस रचना का अर्थ विस्तार ही है। आलोचना रचना के भीतर के अर्थ संदर्भ खोलकर रख देती है।

अवनीश सिंह चौहान—आज दुनियाभर में हजारों पुस्तकें प्रतिवर्ष लिखीं जा रही हैं, इनके अनेकों संस्करण प्रकाशित किये जा रहे हैं। किन्तु ज्यादातर रचनाकारों के पास अपना पाठकवर्ग नहीं है। ऐसे में लिखने के क्या माने? लेखक की सामाजिक हैसियत के क्या माने?

रामनारायण रमण—यह सही है कि दुनिया में हजारों पुस्तकें प्रतिवर्ष लिखी जा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर साहित्यकारों के पास अपना पाठकवर्ग नहीं है। मेरा मानना है कि दुनिया तेजी से बदल रही है और सूक्ष्म से सूक्ष्म उपकरण/ साधन ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे पास उपलब्ध हैं। ऐसे में पुस्तकों का महत्व और उपयोग कम हुआ है। लेकिन पुस्तकें ज्ञान प्राप्त करने में जिस प्रकार हमारा सहयोग करती हैं, वैसा अन्य माध्यमों से संभव नहीं है। पुस्तकों की हमारे समाज को बहुत जरूरत है। पुस्तकों का साथ छूटना स्वयं के टूटने के बराबर है। लेखक की सामाजिक हैसियत कम हुई है, जिसका मुख्य कारण तथाकथित और शौकिया रचनाकारों का उदय होना है। साधक रचनाकार के पाठक भले ही कम हों, उसके साहित्य की समाज में आज भी प्रतिष्ठा है।

अवनीश सिंह चौहान—क्या आज ज्यादातर हिंदी लेखकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के लिए स्वयं धन खर्च करना पड़ता है? क्या उन्हें ‘रॉयल्टी’ आदि के रूप में प्रकाशकों से कोई लाभ मिलता है? यदि नहीं, तो ऐसा क्या किया जाना चाहिए जिससे लेखकों का हित हो सके?

रामनारायण रमण—यह बिल्कुल सही है कि ज्यादातर लेखक स्वयं धन खर्च कर पुस्तकें प्रकाशित करवाते हैं। उन्हें रॉयल्टी आदि के रूप में कुछ भी नहीं मिलता। यदि पुस्तक का संस्करण तुरंत भी बिक गया और दूसरा-तीसरा भी निकल गया, तो भी प्रकाशक लेखक को कुछ नहीं देता। उसे अनेक प्रकार के झांसे देता है। इसके लिए सरकार को लोगों के साथ मिलकर ऐसे नियम बनाने चाहिए जिससे लेखक को उसका लाभ मिल सके। सरकार को भी चाहिए कि वह अच्छी पुस्तकों का ईमानदारी से चयन कर उन्हें प्रकाशित करे और लेखक को रॉयल्टी आदि लाभ दे।

अवनीश सिंह चौहान—आज ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकाएँ या तो सदस्यता शुल्क के आधार पर या फिर सरकारी या गैर-सरकारी संगठनों से थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद प्राप्त कर चल रही हैं। इन पत्रिकाओं का एक सीमित पाठकवर्ग है— पत्रिका से जुड़े गिने-चुने साहित्यकार (जोकि जयादातर उक्त पत्रिकाओं के सदस्य हैं या रहे हैं) और कुछ अन्य लोग। ऐसी पत्रिकाओं से साहित्य का प्रचार-प्रसार और सामाजिक चेतना लाने का महत्वपूर्ण कार्य कितना संभव है?

रामनारायण रमण—ज्यादातर पत्रिकाएँ सहयोगी आधार पर ही चल रही हैं। लगभग सभी पत्रिकाओं से जुड़े साहित्यकार ही उन्हें चला रहे हैं। साहित्य के प्रचार-प्रसार के अलावा साहित्य के माध्यम से विभिन्न प्रकार का ज्ञान भी वितरित होता है इन्हीं पत्रिकाओं से। ये पत्रिकाएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। जो भी संभव है, वह इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से किया जा रहा है।

अवनीश सिंह चौहान—साहित्य के परिप्रेक्ष्य में आज के मनुष्य की अभिरुचि क्या है? मंचीय लेखन और अकादमिक लेखन जन-रुचि का परिष्कार करने में किस प्रकार से सहायक हैं?

रामनारायण रमण—साहित्य के क्षेत्र में आज मनुष्य की अभिरुचि कम हुई है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के अनेक उपलब्ध साधन अधिक सुविधाजनक जान पड़ते हैं। कंप्यूटर युग में सारा कुछ देखने-सुनने तक सिमट कर रह गया है। मनुष्य की चेतना चिंतन के स्तर पर संक्षिप्त हुई है। मनोरंजन भी निचले पायदान तक गिर गया है। मंचीय लेखन की भी गिरी दशा है, वह लोगों की तालियों के लिए लिखा जाता है। मंच से जन-चेतना का परिष्कार अब संभव नहीं लगता? हाँ, अकादमिक लेखन में अब भी गुणवत्तापूर्ण लेखन कार्य हो रहा है, मगर उसका प्रचार-प्रसार ‘नहीं’ के बराबर है। आज अच्छे लेखक तथाकथित लेखों के आगे बौने साबित हो रहे हैं। भ्रष्ट बुद्धि हर जगह अपना तांडव खुलेआम खेल रही है। अकादमिक लेखन को जन-जन तक पहुँचा कर जनरुचि का परिष्कार किया जा सकता है।

अवनीश सिंह चौहान—वर्तमान में तमाम नवगीतकार अच्छा लेखन कर रहे हैं। अपनी पसंद के कुछ वरिष्ठ नवगीतकारों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि किस प्रकार से नवगीत को जन-जन तक पहुँचाया जा सकता है?

रामनारायण रमण—यह सही कहा आपने कि वर्तमान में बहुत सारे नवगीतकार अच्छा लेखन कर रहे हैं, इससे नवगीत के भविष्य को लेकर चिंता की जरूरत नहीं है। मेरी दृष्टि में अनेक रचनाकार नवगीत रचना में अच्छा कार्य कर रहे हैं। सबका नाम नहीं लिखा जा सकता, परंतु कुछ नाम उदाहरण के तौर पर बताए जा सकते हैं, जैसे— गुलाब सिंह, नचिकेता, राम सेंगर, वीरेंद्र आस्तिक, मधुकर अष्ठाना, यतीन्द्रनाथ राही, ओमप्रकाश सिंह आदि ऐसे रचनाकार हैं जिनसे नवगीत समृद्ध हुआ है। नवगीत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसे वर्तमान समस्याओं से टकराना होगा और समाधानों को खोजना होगा। जब आमजन की वाणी का प्रतिनिधित्व नवगीत करेगा, तभी वह जन-जन तक पहुंचेगा। नवगीतकारों को ताजी विषयवस्तु और नये शिल्प-विधान के साथ समाज में प्रस्तुत होना होगा। जन सरोकारों से लैस रचना सहज ही आमजन को स्वीकार्य हो जाती है।

अवनीश सिंह चौहान—आम जनता के लिए आपका सन्देश?

रामनारायण रमण—साहित्य अच्छे मनुष्य के निर्माण में सहायक है। अच्छा साहित्य जन-जन तक पहुँचाया जाए तो एक अच्छा समाज निर्मित हो सकता है; और आदर्श समाज आदर्श राष्ट्र का निर्माण करता है। ऐसे में जनता को चाहिए कि वह अच्छा साहित्य पढ़े और उसका लाभ उठाए। 



प्रस्तुति: 
'वंदे ब्रज वसुंधरा'सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

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