Quantcast
Channel: Poorvabhas
Viewing all 488 articles
Browse latest View live

यादों के बहाने : दिनेश सिंह के पांच नवगीत

$
0
0
दिनेश सिंह
समय: 14 सितम्बर 1947 - 02 जलाई 2012 



रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव गौरारुपई में जन्मे श्रद्धेय दिनेश सिंह का नाम हिंदी साहित्य जगत में अदब से लिया जाता है।  सही मायने में कविता का जीवन जीने वाला यह गीत कवि अपनी निजी जिन्दगी में मिलनसार एवं सादगी पसंद रहा । गीत-नवगीत साहित्य में इनके योगदान को एतिहासिक माना जाता है । दिनेश जी ने न केवल तत्‍कालीन गाँव-समाज को देखा-समझा है और जाना-पहचाना है उसमें हो रहे आमूल-चूल परिवर्तनों को, बल्कि इन्होने अपनी संस्कृति में रचे-बसे भारतीय समाज के लोगों की भिन्‍न-भिन्‍न मनःस्‍थिति को भी बखूबी परखा है, जिसकी झलक इनके गीतों में पूरी लयात्मकता के साथ दिखाई पड़ती है। इनके प्रेम गीत प्रेम और प्रकृति को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं । इनके प्रणयधर्मी  गीत भावनात्मक जीवनबोध के साथ-साथ आधुनिक जीवनबोध को भी केंद्र में रखकर बदली हुईं प्रणयी भंगिमाओं को गीतायित करने का प्रयत्न करते हैं ।  अज्ञेय द्वारा संपादित 'नया प्रतीक'में आपकी पहली कविता प्रकाशित हुई थी। 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान'तथा देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज, ललित निबंध तथा समीक्षाएं निरंतर प्रकाशित। 'नवगीत दशक'तथा 'नवगीत अर्द्धशती'के नवगीतकार तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में गीत तथा कविताएं प्रकाशित। 'पूर्वाभास', 'समर करते हुए', 'टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर', 'मैं फिर से गाऊँगा' (सभी नवगीत संग्रह), 'परित्यक्ता' (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना) आदि संग्रह प्रकाशित। आपके द्वारा रचित 'गोपी शतक', 'नेत्र शतक' (सवैया छंद),  चार नवगीत-संग्रह तथा छंदमुक्त कविताओं के संग्रह तथा एक गीत और कविता से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह आदि प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। चर्चित व स्थापित कविता पत्रिका 'नये-पुराने' (अनियतकालीन) के आप संपादक रहे।  उक्त पत्रिका के माध्यम से गीत पर किये गये आपके कार्य को अकादमिक स्तर पर स्वीकार किया गया है।स्व. कन्हैया लाल नंदन जी लिखते हैं"बीती शताब्दी के अंतिम दिनों में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश सिंह के संपादन में निकलने वाले गीत संचयन 'नये-पुराने'ने गीत के सन्दर्भ में जो सामग्री अपने अब तक के छह अंकों में दी है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं रही । गीत के सर्वांगीण विवेचन का जितना संतुलित प्रयास 'नये-पुराने'में हुआ है, वह गीत के शोध को एक नई दिशा प्रदान करता है. गीत के अद्यतन रूप में हो रही रचनात्मकता की बानगी भी  'नये-पुराने'में है और गीत, खासकर नवगीत में फैलती जा रही असंयत दुरूहता की मलामत भी. दिनेश सिंह स्वयं न केवल एक समर्थ नवगीत हस्ताक्षर हैं, बल्कि गीत विधा के गहरे समीक्षक भी।  (श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन- स्व. कन्हैया लाल नंदन, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, २००९, पृ.  ६७)। आपके साहित्यिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको राजीव गांधी स्मृति सम्मान, अवधी अकेडमी सम्मान, पंडित गंगासागर शुक्ल सम्मान, बलवीर सिंह 'रंग'पुरस्कार से अलंकृत किया गया। नवगीत के इस महान शिल्पी के पांच नवगीत हम आप तक पहुंचा रहे हैं:-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. मैं फिर से गाऊँगा

मैं फिर से
गाऊँगा बचपना बुलाऊँगा
घिसटूगा घुटनों के बल आँगन से चलकर
लौट -पौट आँगन में आऊँगा
मैं फिर से गाऊँगा!

कोई आये
सफेद हाथी पर चढकर
मेरी तरुणाई के द्वारे
किल्कूँगा
देखूँगा एक सूँड, चार पाँव
वह शरीर दाँत दो बगारे
मैं खुद में
घोड़ा बन जाऊँगा
हाथी और घोड़े के बीच
फर्क ढूढूँगा
लेकिन मैं ढूँढ कहाँ पाउँगा
मैं फिर से गाऊँगा !

पोखर में पानी है
पानी में मछ्ली है
मछली के होठों में प्यास है
मेरे भीतर
कोई जिंदगी की फूल कोई
या कोई टूटा विश्वास है
कागज की नाव
फिर बनाऊँगा
पोखर में नाव कहाँ जायेगी
लेकिन कुछ दूर तो चलाऊँगा
मैं फिर से गाऊँगा!

राजा की फुलवारी में
घुस कर चार फूल
लुक छिप कर तोडूँगा
माली के हाथों पड़कर
जाने जो गति हो
मुठ्ठी के फूल कहाँ छोडूँगा
फूल नहीं तितलियाँ फँसाऊँगा
भागेगी जहाँ -जहाँ भागूँगा
माली के हाथ नहीं आऊँगा
मैं फिर से गाऊँगा!

2. प्रश्न यह है

प्रश्न यह है-
भरोसा किस पर करें

एक नंगी पीठ है
सौ चाबुकें
बचाने वाले
कभी के जा चुके

हम डरें भी तो
भला कब तक डरें

स्वप्न हमसे
जी चुराते जा रहे
आँख सुरमे से
सजाते रहे

आँसुओं से
हम इन्हें कब तक भरें

घरों के भीतर
अजाने रास्ते
अलग-अलग बँटे
हमारे वास्ते

झनझनाते पाँव
जब इन पर धरें

3. भूल गए!

जाने कैसे हुआ
कि प्रिय की पाती पढ़ना भूल गए
दाएँ-बाएँ की भगदड़ में
आगे बढ़ना भूल गए

नित फैशन की
नए चलन की
रोपी फसल अकूते धन की
वैभव की खेती-बारी में
मन को गढ़ना भूल गए

ना मुड़ने की
ना जुड़ने की
जिद ऊपर-ऊपर उड़ने की
ऊँचाई की चिंताओं में
सीढ़ी चढ़ना भूल गए

हम ही हम हैं
किससे कम हैं
सूर्य-चन्द्र अपने परचम हैं
फूटी ढोल बजाते रहते
फिर से मढ़ना भूल गए।

4. मौसम का आखिरी शिकार

मौसम का आखिरी शिकार
आखिर फिर होगा तो कौन
झरे फूल का जिम्मेदार
आखिर फिर होगा तो कौन!

शाखें कह बच निकलेंगी
फूल आप झर गये
सूरज से आँख मिलाकर
पियराये और मर गये
सच्चाई का पैरोकार
आखिर फिर होगा तो कौन!

जंगल में आग लगेगी
भागेंगे सभी परिंदे
तिनकों के घोसले जलें
गर्भ भरे बेसुध अंडे
शेष देवदार या चिनार
आखिर फिर होगा तो कौन!

जले हुए टेसू वन में
तोला भर राख बचेगी
भरी -भरी सी निहारती
जोड़ा भर आँख बचेगी
पानी में पलता अंगार
आखिर फिर होगा तो कौन!

5. मैं गाने लगता

अक्सर क्या होता मुझको
जो मन ही मन शर्माने लगता
तुम रोती, मैं गाने लगता

तुम घर मैं कितना खटती हो
कितने हिस्सों में बटती हो
कड़ी धूप-सी सबकी बातें
आर्द्र भूमि-सी तुम फटती हो

मेरा मन छल-छल कर
आँखों-आँखों से बतियाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता

चूल्हा-चौका रोटी-पानी
सुबह-शाम की राम-कहानी
दिन भर बच्चों की
चिकचिक से
पोछा करती हो पेशानी

दस्तरखान सजाने वाले हाथों को
सहलाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता

तुम पर सास-ससुर का हक़ है
यह कहने में बड़ी खनक है
चुप हूँ मैं जानते हुए भी
यह रिश्ता कितना बुढ़बक है

तदपि अजब परिवार राग
मैं बारम्बार बजाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता
 



Remembering Dinesh Singh

कीर्ति श्रीवास्तव को साहित्य मंडल सम्मान

$
0
0


भोपाल : देश की प्रतिष्ठित हिंदी सेवी संस्था "साहित्य मंडल नाथद्वारा"के तत्वावधान में 14-15 सितंबर को 'हिन्दी लाओ देश बचाओ'कार्यक्रम में'साहित्य समीर दस्तक'मासिका पत्रिका के माध्यम से हिंदी को बढ़ावा देने के लिए श्रीमतीकीर्ति श्रीवास्तवको सम्पादक रत्न की मानद उपाधिप्रदान कर सम्मानित किया गया । वरिृष्ठ साहित्यकार डॉ रामअवतार शर्मा, राव मुकुल मानसिंह, श्री जगदीष शर्मा, डॉ उमाशंकर मिश्र, डॉ मुरलीधर वैृष्णव ने कीर्ति श्रीवास्तव को भगवान श्रीनाथजी की स्वर्णिम छवि सम्मान पत्र, शाल एवं उत्तरीय प्रदान कर सम्मानित किया। 
 
कार्यक्रम का संयोजन श्री श्यामप्रकाश देवपुरा ने किया संचालन श्री विठ्ठल जी ने किया । चार सत्रों में हुए दो दिवसीय आयोजन में हिंदी के लिए कार्य करने वाले देश भर से आए हिंदी सेवको को सम्मानित किया गया एवं कवि सम्मेलन व शोध संगोष्ठी का आयोजन भी हुआ । 
 
कीर्ति श्रीवास्तव जी का संक्षिप्त परिचय 
 
चर्चित युवा साहित्यकार एवं वरिष्ठ उप-सम्पादक (दैनिक भास्कर, औरंगाबाद) समीर श्रीवास्तव जीके बारे में हम सभी जानते हैं लेकिन उनको ऊर्जा प्रदान करने वालीं उनकी सहधर्मिणी युवा कवयित्री कीर्ति श्रीवास्तव जीसे हमारा परिचय उतना नहीं है। इसका कारण यह रहा कि वे लेखन से तो काफी समय से जुडी हुईं हैं, लेकिन उनकी रचनाओं का आस्वादन करने का अवसर हमें कुछ समय पहले ही फेसबुक पर मिल सका। तभी से उनकी
रचनाओं के बारे में मेरी धारणा बनी कि वे सामाजिक जीवन की विविध समस्याओं को व्यंजित करती हैं। और जब पता चला कि कीर्ति जी (लगभग एक वर्ष पहले)  साहित्य समीर दस्तक का संपादन करने जा रही हैं, तब सुखद आश्चर्य हुआ। वर्त्तमान में आपके संपादन में पत्रिका ने रफ़्तार पकड़ ली है। यद्यपि संपादन का मार्ग बहुत कठिन है, पर आपका हौसला बुलंद है। कीर्ति जी का जन्म 06 जुलाई 1974 को भोपाल, म.प्र. में हुआ। आपके पिताजी परम श्रद्धेय मयंक श्रीवास्तव जीहिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् हैं। आपकी शिक्षा: एम.कॉम., भोपाल विश्व्वविद्यालय, भोपाल से हुई। संपर्क: 'राम भवन', 444-9ए, साकेत नगर, भोपाल- 462024 (म.प्र.), मो.- 07415999621, 09826837335। ईमेल: gunjanshrivastava18@gmail.com। 
 

Honour to Kirti Srivastava

कुँवर रवीन्द्र : पाँच कविताएँ

$
0
0
कुँवर रवीन्द्र

वरि‍ष्‍ठ चि‍त्रकार, कवि‍ कुँवर रवीन्‍द्र का जन्म 15 जून 1957, रीवा (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपकी कलाकृतियों की प्रदर्शनी रायपुर (छत्तीसगढ़) – 1976 (एकल), ब्यौहारी (मध्यप्रदेश) – 1983 (एकल), शहडोल (मध्यप्रदेश) – 1983 (समूह), विधानसभा सभागार, भोपाल (मध्यप्रदेश) -1985 (एकल), मध्यप्रदेश कला परिषद्, कला वीथिका, भोपाल (मध्यप्रदेश) – 1986 (एकल), “दंगा और दंगे के बाद”, हिंदी भवन, भोपाल (मध्यप्रदेश) – 1993 (एकल), विवेकानंद सभागार, बेतूल (मध्यप्रदेश) – 1995 (एकल), “रंग जो छूट गया था”, संस्कृति भवन कला वीथिका, रायपुर (छत्तीसगढ़) – 2012 (एकल) आदि में लगायी जा चुकी हैं। आजकल, आकल्प, आकंठ, आकलन, अक्सर, अक्षत, अक्षरा, अर्चना, असुविधा, भाषासेतु, धर्मयुग, दिनमान, गवाह, गुंजन, हंस, जनपथ, काव्या, कहानीकार, कल के लिए, कला समय, कला प्रयोजन, कारखाना, कथाबिम्ब, कथादेश, कथानक, खनन भारती, कीर्ति, मधुमती, मध्यांतर, मगहर, नवभारत टाइम्स, नवनीत, नई कहानियां, ऒर, पहल, परिकथा, परिंदे, पथ, प्रगतिशील, प्रेरणा, पुरुष, सारिका, सारिका टाइम्सआदि के साथ देश की व्यावसायिक-अव्यवसायिक पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों के मुखपृष्ठों पर अब तक 17,000 (सत्रह हजार) रेखांकन व चित्र प्रकाशित। समकालीन कविताओं के  पोस्टरों की कई प्रदर्शनियां आयोजित। चित्रकारी के साथ आपने कविताएँ एवं गीत भी लिखे जो मध्यांतर, कथा बिम्ब, आजकल, कृति ओर, आकंठ, उत्तर प्रदेश, पहले-पहल, मधुमती, काव्या, दैनिक जागरण, देशबंधु, दैनिक भास्कर, नवभारतआदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व् आकाशवाणी से प्रसारित हो चुके हैं। सम्मान :सृजन सम्मान, मध्यप्रदेश-1995, कला रत्न, बिहार-1997। सम्प्रति : छत्तीसगढ़ विधानसभा सचिवालय में कार्यरत।ब्लॉग : अमूर्त http://kunwarravindra.blogspot.in/

कुँवर रवीन्द्र की पेंटिंग
1. आओ रचें...

पाँच 
आओ रचें
एक नया दृष्य
एक नया आयाम
एक नई सृष्टि

एक बिम्ब तुम्हारा
और हो एक बिम्ब मेरा

हाँ
इन बिम्बों में

रंग भी भरना होगा
रंग
न रक्त का , न कर्म का
न वैचारिक सोच का

रंग विहीन दृष्य
रंग विहीन आयाम
रंग विहीन सृष्टि
हो सिर्फ मनुसत्व का रंग

मेरा बिम्ब , तुम्हारा बिम्ब
दिखे सिर्फ एक बिम्ब
सार्वभौम
हमारा बिम्ब

2. मैं 

मैं
आदमी कब था
मुझे याद नहीं
हाँ आज
मैं एक कैलेण्डर हो गया हूँ
बताता हूँ सिर्फ
दिन तारीख और महीने
कभी-कभी क्या घटा
क्या घटेगा यह भी
बता नहीं पाता तो सिर्फ
अपनी नियति

3. हम जब कह चुकते हैं

हम जब कह चुकते हैं
तब हम चुक जाते हैं
चुक जाते हैं अपने आप से

चुक जाने के बाद
फिर से भर पाना
कठिन को जाता है
और तब
हम आदमी नहीं रह जाते
हो जाते हैं मजदूर
नहीं रह जाता
अपना कोई अस्तित्व
अपनी सोच
हो जाते हैं आश्रित
रह जाता है सिर्फ सुनना
और हो जाते हैं
केवल कहानी का एक हिस्सा
क्योंकि
तब हम कह चुके होते हैं

4. काश कोई आता

मेरी छाती पर फ़ैल गया है
मरुस्थल
कानों में गर्म सीसे सा उतर गया है
शहरों का शोर
काश कोई आता
रख देता सीने पर
जंगल का एक टुकड़ा
कानों में नदियों के कलकल का फाहा
राजनीतिक शराब का नशा
बढ़ रहा है दिनोंदिन
काश कोई आता
डुबो देता इस पोत को

5. तुमने पूछा है ...

तुमने पूछा है मुझसे
रोटी का स्वाद ?

नहीं
तुमनें किया है
मेरी निजता पर
मेरी अस्मिता पर प्रहार

क्या तुम जानते हो
भूख की परिभाषा 


Hindi poems of Kunwar Ravindra

डॉ नागेश को मिला काव्य वीणा पुरस्कार

$
0
0
काव्य वीणा पुरस्कार प्राप्त करते डॉ नागेश पाण्डेय 

कोलकाता / बरेली : कविता संग्रह 'तुम्हारे लिए'हेतु डा. नागेश पांडेय 'संजय'को कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद के सभागार में २० सितम्बर को काव्य वीणा पुरस्कार प्रदान किया गया। पुरस्कार स्वरूप प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह, अंगवस्त्र, श्रीफल और इक्यावन हजार रुपये की सम्मान राशि मुख्य अतिथि साहित्य अकादमी, नई दिली के हिन्दी समिति संयोजक डा. सूर्य प्रसाद दीक्षित ने प्रदान की। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष परिवार मिलन संस्था द्वारा प्रदान किया जाता है। 


इस अवसर पर डॉ नागेश ने अपनी पुरस्कृत कृति पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को भेंट की। 
डा. नागेश मूल रूप से बाल साहित्यकार हैं और अब तक उनकी बाल साहित्य की दो आलोचना पुस्तकों सहित कुल 25 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उनकी रचनाओं के अंगरेजी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, उर्दू, नेपाली, ओड़िया और राजस्थानी भाषाओँ में अनुवाद भी हुए हैं। 


Dr Nagesh Pandey Sanjay. Kavya Veena Puraskar. Kolkata. Bareilly

त्रिलोक सिंह ठकुरेला को राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान

$
0
0


उत्तम नगर, नई दिल्ली (21-09-2014) : साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला को पंचवटी लोकसेवा समिति (पंजीकृत) द्वारा हिन्दी पखवाड़े के समापन अवसर पर राष्ट्र-भाषा हिन्दी के संवर्द्धन में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए राष्ट्र भाषा गौरव सम्मान से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर अन्य विद्वानों एवं सी.बी.एस.ई. की परीक्षा में 90 से अधिक प्राप्त करने वाले छात्रों को भी सम्मानित किया गया। 

मोहन गार्डन स्थित रेड रोज माडल स्कूल, मोहन गार्डन में राष्ट्रपति के भाषा सहायक रहे डॉ. परमानंद पांचाल के सान्निध्य में आयोजित इस समारोह में मुख्य अतिथि डॉ. महेश चंद शर्मा (पूर्व महापौर और दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष), अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान डॉ.विमलेश कांति वर्मा तथा डा. किशोर श्रीवास्तव (संयुक्त निदेशक समाज कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार), सेवी एवं समारोह के अध्यक्ष शिक्षाविद् श्री परमानंद अग्रवाल तथा पंचवटी लोकसेवा समिति के संरक्षक डा.अम्बरीश कुमार ने त्रिलोक सिंह ठकुरेला (आबू रोड) को शॉल सम्मान-पत्र, स्मृति-चिन्ह एवं सद्साहित्य भेंट कर सम्मानित किया। 

अन्य हिन्दी सेवियों में मेहताब आजाद (देवबंद), डा. कीर्तिवर्धन (मुजफ्फरनगर), डा. माहे तलत सिद्दीकी (लखनऊ), डॉ. संगीता सक्सेना (जयपुर), डा. गीतांजलि गीत (छिंदवाडा), दिनेश बैंस (झांसी), सुरेन्द्र साधक (दिल्ली), प्रख्यात गजलकार अशोक वर्मा (दिल्ली), कमल मॉडल सी.सै. स्कूल, मोहन गार्डन की श्रीमती रजनी अरोडा तथा श्रीमती नीलम सहित अनेक विद्वानों को राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान प्रदान किया। मेघावी छात्रों को भी स्मृति चिन्ह, प्रशस्ति पत्र एवं सद्साहित्य भेंट किया गया। 

श्री महेश चंद शर्मा ने राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं देववाणी संस्कृत के प्रति निक्रियता तथा अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव पर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार तथा आम जनता से इस ओर ध्यान देने की अपील की। डॉ.विमलेश कांति वर्मा ने हिंदी को राष्ट्र एकता की सबसे मजबूत कड़ी बताते हुए इसके अधिकाधिक प्रयोग की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने पंचवटी लोकसेवा समिति द्वारा राष्ट्रभाषा को प्रोत्साहित करने की सराहना करते हुए सभी सम्मानित छात्रों एवं साहित्यकारों के प्रति अपनी शुभकामनाएं प्रेषित की। श्री अम्बरीश कुमार ने प्रश्न प्रस्तुत किया कि क्या विदेशी भाषा के बल में भारत विश्वगुरु बनेगा? उन्होंने सभी से आत्मचिंतन करने तथा हिन्दी में ही हस्ताक्षर करने का संकल्प लेने का आह्वान किया तो समारोह में उपस्थित सैंकड़ों हिन्दी प्रेमियों ने करतल ध्वनि से उनका अनुसरण करने की पुष्टि की। 

इससे पूर्व कार्यक्रम का आगाज रेड रोज माडल स्कूल के छात्रों द्वारा वंदेमातरम तथा सरस्वती वंदना से हुआ। कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण डा किशोर श्रीवास्तव द्वारा व्यंग्यात्मक प्रस्तुति के साथ संचालित राष्ट्रीय कवि सम्मेलन रहा। अपने विशिष्ट चुटकीले अंदाज में किशोर जी ने कविता पाठ करने के लिए सर्वश्री नत्थी सिंह बघेल, डा. सीबी शर्मा, जितेन्द्र प्रीतम, जगबीर सिंह, राजेश वत्स, शैल भदावरी, इरफान राही, अमित कुमार प्रजापति, मुकेश सिन्हा, मनोज मैथिल, संदीप तोमर, मनु बेतकल्लुफ, संजय कश्यप तथा कवयत्रियों में डा. राधा गोयल, सुषमा भंडारी, प्रियंका राय, शशि श्रीवास्तव, भावना शर्मा, सरिता भाटिया को आमंत्रित किया। कवियों ने हिन्दी तथा हिन्दुस्तान का महिमागान करते हुए विभिन्न समसामयिक विषयों पर अपनी श्रेष्ठ रचनाएं प्रस्तुत की। 

इस अवसर पर अनेक सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं के प्रतिनिधि तथा क्षेत्र के गणमान्य नागरिक भी उपस्थित थे। कार्यक्रम संयोजक डा. विनोद बब्बर ने देश के विभिन्न भागों से हर कष्ट सहकर बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित अतिथियों का स्वागत करते हुए कहाकि वे सभी कुछ लेने नहीं बल्कि देने आए है। सभी के हृदय में इस देश के जन-जन की भाषा हिंदी के प्रति जो समर्पण है वह विश्वास दिलाता है कि हिंदी सदा फलती- फूलती रहेगी।

कहानी : एक गुम-सी चोट - सुशांत सुप्रिय

$
0
0
सुशांत सुप्रिय 

कवि, कथाकार, अनुवादक, लेखक सुशांत सुप्रिय जी का जन्म 28 मार्च 1968, पटना, बिहार में हुआ। भाषा : हिंदी, अंग्रेजी। मुख्य कृतियाँ : हत्यारे, हे राम (कहानी संग्रह), एक बूँद यह भी (कविता संग्रह), इन गांधीज कंट्री (अंग्रेजी) संपर्क: मार्फत श्री एच.बी. सिन्हा, 5174, श्यामलाल बिल्डिंग, बसंत रोड, (निकट पहाड़गंज), नई दिल्ली - 110055 । फोन : 09868511282, 08512070086, ई-मेल : sushant1968@gmail.com

कैसा समय है यह
जब बौने लोग डाल रहे हैं
लम्बी परछाइयाँ

                   --- ( अपनी ही डायरी से )
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 


बचपन में मुझे ऊँचाई से, अँधेरे से , छिपकली से, तिलचट्टे से और आवारा कुत्तों से बहुत डर लगता था। उन्हें देखते ही मैं छिप जाता था। डर के मारे मुझे कई बार रात में नींद नहीं आती थी। सर्दियों की रात में भी पसीने से लथपथ मैं बिस्तर पर करवटें बदलता रहता था। यदि नींद आ भी जाती तो मेरे सपने दु:स्वप्नों से भरे होते। माँ

कहती-- "बेटा, रात में पैर धो कर सोया करो और सोते समय भगवान् से प्रार्थना कर लो ।"लेकिन ऐसा करने से भी कोई फ़ायदा नहीं होता।



मुझे भीड़ और अजनबियों से भी डर लगता था । जब भी मैं बेहद डर जाता तो मुझे बेइंतहा हिचकियाँ आने लगतीं । तब कई गिलास पानी पीने के बाद भी हिचकियाँ नहीं रुकतीं । मैं बहुत घबरा जाता और तनाव में आ जाता । जब मैं डर के स्रोत से दूर चला जाता तब जा कर मुझे राहत मिलती ।


दरअसल पिता की गोद में जाकर ही मुझे सभी डरों से मुक्ति मिलती । वे मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते और मैं भयमुक्त हो जाता । तब मैं चाहता कि मैं सदा पिता की गोद में ही रहूँ । किंतु मेरे पास डर बहुत ज़्यादा थे और पिता के पास समय बहुत कम ।

घर के लोग मेरे बारे में ये बातें जानते थे । मेरे भाई-बहन अक्सर इसलिए मेरा मज़ाक़ उड़ाते थे ।

बचपन में मैं दुखी और उदास भी रहता था । मुझे मुकेश के दर्द भरे गीत बहुत अच्छे लगते थे । असल में मेरे पास आशंकाएँ बहुत ज़्यादा थीं , जबकि बड़े-बुज़ुर्गों के पास आश्वासन बहुत कम थे । माँ कहती-- "झूठ बोलना गंदी बात है ।"पर झूठ बोलने वाले अक्सर मज़े में जी रहे होते । पिता सिखाते -- "कभी किसी को सताओ मत।
किसी का हक़ नहीं मारो ।"लेकिन मैं पाता कि दुनिया में ऐसे ही लोगों की चाँदी है ।

जब भी घर में मेहमान आते, वे मेरे भाई-बहनों की बहुत तारीफ़ करते ।

वे सब रट्टा मारने में तेज़ थे, जबकि मैं किसी भी नई चीज़ को ठीक से समझना चाहता था । नतीजा यह होता कि बहन सुभद्रा कुमारी चौहान की लंबी कविता "सिंहासन हिल उठे / राजवंशों ने भृकुटी तानी थी / ... खूब लड़ी मर्दानी / वह तो झाँसी वाली रानी थी "कंठस्थ करके मेहमानों को सुना देती और उनसे वाहवाही पा जाती ।

भाई न्यूटन के सिद्धांत, डार्विन की थ्योरी या सोलर-सिस्टम के बारे बता कर मेहमानों को प्रभावित कर लेता । लेकिन मेरे ज़हन में इन सब के बारे में इतने प्रश्न कुलबुलाते रहते कि मैं मेहमानों के सामने दावे से कुछ नहीं कह पाता । इसलिए पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी माना जाता। "आपका छोटा बेटा स्लो है । पढ़ने-लिखने में कमज़ोर है। "मेहमान पिताजी से कहते । यह सुन कर मैं अपने ही खोल में घुसकर सबकी आँखों से ओझल हो जाना चाहता ।

मेरी कुंडली में लिखा था कि मुझे तेज धार वाले हथियारों से ख़तरा है । ऐसा पिताजी कहते थे । पर मैं यह सब नहीं मानता था । मेरे दाएँ हाथ की 'लाइफ़-लाइन'भी कुछ जगहों से टूटी हुई थी । हालाँकि स्कूल में मैं ज़रूरत पड़ने पर सब बच्चों की मदद करता था, वे सब मुझसे मदद भी ले लेते थे और मुझे 'स्केलेटन'कह कर छेड़ते भी थे क्योंकि मैं बेहद दुबला-पतला था ।

धीरे-धीरे मैं बड़ा हो रहा था । मैंने पाया कि मेरे शहर में बहुत सारे हिले हुए और खिसके हुए लोग थे । लेकिन वे मुझे बुरे नहीं लगते थे । पड़ोस में एक बूढ़े मास्टर जी रहते थे , जिन्हें सब पागल कहते थे । वे अक्सर हवा से बातें करते और शहर की दीवारों पर गणित के मुश्किल थ्योरम हल करते रहते । लोग उनके बारे में बताते थे कि अपनी जवानी में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति जी के हाथों 'सर्वश्रेष्ठ शिक्षक 'का पुरस्कार भी मिला था । बहुत ज़्यादा पढ़ने-लिखने की वजह से उनका दिमाग़ खिसक गया , ऐसा गली वाले कहते थे । मास्टरजी के घर वालों ने उनका इलाज कराने की बजाए उन्हें घर से निकाल दिया था । हालाँकि मुझे मास्टरजी ने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन गली के शैतान बच्चे जब उन्हें तंग करते या उन पर पत्थर फेंकते तो वे उन्हें गालियाँ देने लगते । दूसरी ओर इलाक़े का पंसारी, हलवाई और दूधवाला थे जिन्होंने खाने-पीने के सामान में मिलावट करके अपने-अपने तिमंज़िले मकान बनवा लिए थे । कोई सरकारी अधिकारी उन्हें कभी नहीं पकड़ पाया था क्योंकि वे सभी रिश्वत दे कर उन अधिकारियों को लौटा देते थे । ऐसे ही लोग दुनियावी और सफल माने जाते थे ।

अब मैं बड़ा हो गया था । चूँकि मुझे अकेले रहना अच्छा लगता था इसलिए मेरा कोई दोस्त नहीं था । दरअसल मैं समझ चुका था कि ज़्यादातर लोग आपसे अपने किसी स्वार्थ के लिए जुड़ना चाहते थे । ऐसे मतलबी और अवसरवादी लोगों से मेरी वैसे भी नहीं बनती थी । लोग अपने चेहरों पर कई मुखौटे लगाए घूम रहे होते । वे आपको ठगने और मूर्ख बनाने में माहिर होते । वे मुँह से कुछ कह रहे होते जबकि उनकी आँखें कुछ और ही बयाँ कर रही होतीं । इस युग में ऐसे ही दोगले लोग सफल माने जाते । वे हें-हें करते हुए दोपहर में आपसे गले मिलकर ख़ुद को आपका अच्छा दोस्त बता रहे होते , आपके साथ खाना खा रहे होते । पर कुछ ही समय बाद अपने फ़ायदे के लिए वही लोग आपके विरोधियों के पास बैठ कर आपकी जड़ काट रहे होते । ऐसे अवसरवादी युग में मेरा मन किसी सच्चे मित्र के लिए तड़पता रहता ।

मेरा बड़ा भाई आई.ए.एस. अधिकारी बनना चाहता था जबकि बहन एम. बी. ए. करके किसी मल्टी-नेशनल कम्पनी में जाॅब ले कर लाखों रुपए का पैकेज लेना चाहती थी । मैं अब कविताएँ और कहानियाँ लिखने लगा था। सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अब मेरी अपनी राय थी । मैं समाज के लिए कुछ करना चाहता था । लेकिन मुझे क्या बनना है , इसके बारे में मैंने अभी कुछ सोचा नहीं था । लिहाज़ा घर आए मेहमानों के पूछने पर उन्हें भी मैं यही बता देता । यह सुनकर वे मेरी ओर दया भरी नज़रों से देखते । फिर वे पिता से सहानुभूति जताते जैसे मुझसे कोई बहुत बड़ा गुनाह हो गया हो । मैं उनकी दया और सहानुभूति की नदी में डूब कर लगभग मर ही जाता ।

कुछ समय बाद मेरे पड़ोस में एक नया परिवार आ कर रहने लगा । उस परिवार में मेरे ही उम्र की एक लड़की थी जिसे देख कर मेरे दिल में कुछ-कुछ होताथा । शायद मैं जवान हो गया था । मेरी माँ की दोस्ती उस लड़की की माँ से हो गई थी । एक दिन माँ के घुटनों में दर्द था । उन्होंने मुझे उस लड़की की माँ से 'गृहशोभा 'का नया अंक लाने के लिए भेजा जिसमें कई नए व्यंजन बनाने की विधियाँ छपी हुई थीं ।इत्तिफ़ाक़ से दरवाज़ा उसी लड़की ने खोला । उसके दरवाज़ा खोलते ही मेरे मन के भीतर भी जैसे आस की एक खिड़की खुल गई जिसमें से झाँक कर मैं उसे अपलक ताकने लगा । तितलियाँ उड़ने लगीं । आँखों के आगे इंद्रधनुष छा गया ।

अब अक्सर मेरी मुलाक़ात उस लड़की से मदर डेयरी के बूथ पर या सब्ज़ी वाले के यहाँ या मंदिर के बाहर हो जाती ।उसका नाम सुरभि था । उसकी बातें मुझे अच्छी लगतीं । उसके साथ मैं बिना पिये ही ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर उठ जाता । सारा समय एक अदृश्य डोर मुझे उससे बाँधे रहती । मैं कहीं भी रहता , मेरा दिल करता कि मैं तैरते बादल के टुकड़े पर बैठ कर जल्दी से उसके पास पहुँच जाऊँ । जब मैं उसके साथ होता तो मुझे भीड़ में या अजनबियों के सामने भी हिचकियाँ नहीं आतीं । मैं जिन चीज़ों से डरता था वह उनसे बिलकुल नहीं डरती थी । हैरानी की बात थी कि उसकी संगत में अँधेरा, छिपकली, आदि से लगने वाला मेरा डर भी धीरे-धीरे ख़त्म हो गया । अब मैं ख़ुश रहने लगा था । अपने कपड़े इस्त्री करके पहनने लगा था । हर दूसरे-तीसरे दिन अपने बालों में शैम्पू करने लगा था । और अपना जेब-ख़र्च बचा कर महँगा वाला 'डीओ 'इस्तेमाल करने लगा था । सुरभि से बातें करते ही मेरे अंग-अंग में जैसे कोई अनजान रागिनी बज उठती ।

हालाँकि हममें कुछ रोमानी समानताएँ थीं लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जो मुझे सुरभि से अलग करता था । मैं संवेदनशील था जबकि वह बेहद व्यावहारिक और दुनियावी थी । मेरे पिता सरकारी दफ़्तर में मामूली क्लर्क थे जबकि उसके पिता के शहर में कई शो-रूम थे । मेरे पिता के पास केवल एक स्कूटर था जबकि उसके पिता के पास दो-दो लक्ज़री-गाड़ियाँ थीं । शोफ़र थे । फिर भी एक सूर्य-जले दिन मैंने हिम्मत करके उससे कह ही दिया कि मैं उससे प्यार करता था । यह सुन कर वह ज़ोर से हँसी और बोली -- "लगता है , तुम हिन्दी फ़िल्में ज़्यादा देखते हो !"यह सुन कर मुझे बेइंतहा हिचकियाँ आने लगीं । हिचकियाँ लेते-लेते ही मैंने उससे कहा -- "भगवान की क़सम, मैं सच कह रहा हूँ ।"

वह बोली -- "तुमने नीत्शे को नहीं पढ़ा? भगवान कब का मर चुका है ! "
मैंने फिर हिम्मत की--"मैं सच कह रहा हूँ । मैं तुम्हें हमेशा ख़ुश रखूँगा ।"उसने कहा --"मुझे रखोगे कहाँ ? खिलाओगे-पिलाओगे कैसे और क्या? तुम्हारे पास तो कोई नौकरी ही नहीं ! "

यह सुनकर मैं जैसे काफ़ी ऊँचाई से धड़ाम् से ज़मीन पर आ गिरा । फिर भी मैंने एक अंतिम कोशिश की । मैं बोला-- "अगर तुम मेरे साथ होगी तो मैं हम दोनों का वर्तमान सुधार लूँगा । "

इस पर वह बोली-- "लल्लू लाल, तुम्हारे साथ न मेरा वर्तमान, न भविष्य ही सुरक्षित होगा । तुम्हारे आदर्शों से घर का चूल्हा नहीं जल सकता । तुम्हारी कविताओं-कहानियों से गृहस्थी की गाड़ी नहीं चल सकती । तुम अपने सपनों में जीते हो । तुम अपनी कल्पना में जीते हो ।तुम्हारा-मेरा कोई मेल नहीं । "

उसकी बातें सुनकर मैं मोमबत्ती की बुझती लौ-सा काँपने लगा । मैं जिसे काॅमेडी समझा था वह ट्रेजेडी निकली। मैंने अपने मन को उसकी यादों से छुड़ाया और भागा । मेरी पीठ पर कई बिच्छू रेंग रहे थे । मेरे ज़हन में कई मधुमक्खियाँ डंक मार रही थीं । मैं भरी भीड़ में ज़ोर से चिल्लाना चाहता था । मैं खम्भे से लिपट कर उसे अपना दुख-दर्द बताना चाहता था । मैं अपने बारूद में विस्फोट करके चिथड़े-चिथड़े उड़ जाना चाहता था । मैं सब कुछ भूल कर रिप-वैन-विंकल की तरह सदियों लम्बी गहरी नींद में सो जाना चाहता था । मैं दुनिया के अंतिम छोर पर जा कर कहीं छिप जाना चाहता था । मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हर परीक्षा में फ़ेल हो गया हूँ । मेरे भीतर की सभी नदियों का जल जैसे यकायक सूख गया था । झुके हुए झंडे-से उदास पल मुझे घेरे हुए थे । मैंने अपने मन की तलाशी ली और उसे ख़ाली पा कर बेहद डर गया ...

उस रात मैं घर नहीं गया । आकाश के क़ब्रिस्तान में चाँद-सितारों की लाशें दफ़्न थीं । मैं पास के तालाब में रात भर पत्थर फेंकता रहा । मैं उस हिलते हुए जल में चाँद की खंडित छवि को रात भर देखता रहा । सुबह तक चाँद की अनगिनत नुकीली किरचें मेरी आँखों में चुभ गई थीं । दिशाओं में धोखे की गंध थी । जीवन के ख़ाली गिलास में मैंने जो जल उड़ेला था उसमें समय ने ज़हर घोल दिया था । वह एक अशक्त-सी सुबह थी । मेरे भीतर एक गुम-सी चोट बंद थी । नरक-सा यह जो लम्बा जीवन मेरे सामने पड़ा था , उसे अकेले ही जीना मेरी नियति थी । बीच समुद्र में भटकता नाविक जिसे तट समझा था , वह एक छलावा था । स्मृति की कौंधती बिजली के पार केवल एक रिक्त सन्नाटे का न्योता था ...

जब मैं अपने भीतर गुज़र गए चक्रवात से उबरा तो मैंने कहीं नौकरी पाने की क़वायद शुरू की । हालाँकि मेरे पास प्रथम श्रेणी में पास होने की अंक-तालिकाएँ और डिग्रियाँ थीं, किंतु मेरे पास न कोई 'पुश 'था न ही मुझे 'जुगाड़ 'आता था । मैं सही जगह पर 'चढ़ावा 'चढ़ा पाने में भी असमर्थ था । लिहाज़ा नौकरी मेरे लिए आकाश-कुसुम बनी रही ।

इन्हीं दिनों शहर में दंगा हो गया । दो समुदायों के बच्चों में पतंग काटने को ले कर हुए झगड़े से बात शुरू हुई । देखते-ही-देखते पथराव, आगज़नी और छुरेबाज़ी शुरू हो गई । कट्टों और देसी बमों का भी प्रयोग किया गया । पुलिस मूकदर्शक बन कर बहुसंख्यक समुदाय के गुंडों का अल्पसंख्यकों पर उत्पात देखती रही । जब मेरे पड़ोसी लियाक़त मियाँ की दुकान पर दंगाइयों ने हमला किया उस समय मैं उन्हीं की दुकान पर था । मैंने उन्हें पिछले रास्ते से भगा कर बचा लिया पर मैं दंगाइयों के क्रोध का भाजन बन गया । मुझ पर लाठियों और धारदार हथियारों से हमला हुआ और मैं बुरी तरह घायल हो गया ।डेढ़-दो महीने मैं अस्पताल में पड़ा रहा । घर वालों पर बोझ बन गया । जान-पहचान वाले कहते --"हीरो बनने की क्या ज़रूरत थी ? जान है तो जहान है ।"

रिश्तेदार कहते--"जब तुम्हारी कुंडली में लिखा है कि तुम्हें धारदार हथियारों से ख़तरा है तो दंगे-फ़साद के चक्करों में पड़ने की क्या ज़रूरत थी ? "कोई कहता -- "जो आदमी अपना बुरा-भला भी ना समझ पाए , वह आदमी किस काम का?"यदि आज गाँधीजी जीवित होते तो ये लोग उन्हें भी ऐसी ही सलाह देते !

अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा-पड़ा मैं सोचता -- "कैसे युग में जी रहे हैंहम! व्यावहारिक और दुनियावी बनने के चक्कर में हमने इंसानियत ही खो दी थी । जो जितना बड़ा कमीना था , उतना ही ज़्यादा सफल था । लोग मुझे 'सीधा'कहते थे । उनके लिए आज के युग में 'सीधा'होने का मतलब था , 'बेवक़ूफ़'होना । दरअसल गिद्धों और लकड़बग्घों के बीच मैं और मेरे जैसे लोग 'मिसफ़िट 'थे । हम जिस युग में जी रहे थे, उसमें न मूल्य बचे थे, न आदर्श । अपने फ़ायदे के लिए लोग थूक कर चाट रहे थे । गधे को बाप और बाप को गधा बता रहे थे । वे दोगलेपन , स्वार्थ और अवसरवाद से पनपी महत्वाकांक्षा का झुनझुना बजा रहे थे और नोटों के सूटकेसों के पीछे हाँफ़ते हुए भागे जा रहे थे । जीवन के गला-काट खेल में कोई नियम नहीं था । दूसरों की छाती पर पैर रखकर आगे बढ़ जाना ही इस युग में सफल होने का मूल-मंत्र था । जो मुट्ठी भर लोग यह सब नहीं कर पाते थे वे उपहास का पात्र बन जाते थे । जैसे वे किसी गुज़रे ज़माने के पुरावशेष हों जिनकी प्रासंगिकता अब केवल किसी संग्रहालय में बची हो ।

मेरे बाहरी घाव धीरे-धीरे भर रहे थे किंतु बचपन से ही युग और परिस्थितियों ने जो गुम-सी चोट मुझे दी थी , वह हर पल टभकती रहती । मेरे मन पर, मेरी आत्मा पर समय के भारी पैरों के निशान थे ।

अस्पताल से इलाज करवा कर जब मैं घर लौटा तो पता चला कि सुरभि का विवाह किसी आई. ए. एस. अधिकारी से तय हो गया है । फिर काफ़ी एड़ियाँ रगड़ने के बाद मेरी नियुक्ति शहर के एक प्राइवेट काॅलेज में अस्थायी शिक्षक के रूप में इस शर्त पर हो गई कि मुझे केवल आधी तनख़्वाह दी जाएगी । कुछ महीने वहाँ छात्र-छात्राओं को पढ़ाने के बाद मुझे पता चला कि कई अन्य शिक्षकों से भी जितने वेतन पर हस्ताक्षर करवाए जाते थे, उन्हें उसका आधा वेतन ही दिया जाता था । जो भी शिक्षक इस शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाता था उसे तत्काल नौकरी से निकाल दिया जाता था । चारों ओर अँधेरगर्दी मची हुई थी ।

कुछ महीने बाद एक शाम मैं काॅलेज से घर की ओर लौट रहा था । तभी मैंने रास्ते में कुछ गुंडों को एक बुज़ुर्ग आदमी को बुरी तरह पीटते हुए देखा । पास जाने पर मैंने पाया कि पिटने वाला व्यक्ति सुरभि का पिता था । आस-पास बहुत से लोग खड़े थे पर कोई उस बुज़ुर्ग को बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहा था । पूछने पर पता चला कि ये गुंडे दरअसल एक राजनीतिक दल की युवा इकाई के सदस्य थे । उस राजनीतिक दल के स्थानीय माफ़िया से घनिष्ठ सम्बन्ध थे । मैंने मोबाइल फ़ोन से सौ नंबर डायर करके पुलिस बुलाने की कोशिश की । पर बार-बार उधर से केवल एक ही आवाज़ सुनाई देती थी-- "इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ... ।"मेरे लिए यह दृश्य असहनीय होता जा रहा था । यदि उस बुज़ुर्ग को नहीं बचाया जाता तो वह मर भी सकता था । मैंने आस-पास खड़े लोगों की ओर देखा । मुझे लगा जैसे मैं बिना टिकट का तमाशा देख रही किसी भीड़ में खड़ा हूँ ।

अंत में मैंने अकेले ही उस बुज़ुर्ग को बचाने की कोशिश की । गुंडों से हाथापाई के बीच ही किसी ने मेरे सिर पर लोहे का सरिया दे मारा । और उसी समय किसी ने मेरे पेट में छुरा घोंप दिया ...जब मेरी आँख खुली तो मैं अस्पताल में पड़ा था । एक बार फिर मुझे नसीहतें मिलने लगीं-- "क्या ज़रूरत थी तुम्हें दूसरों के मामले में टाँग अड़ाने की...?"

-- क्या ज़रूरत थी लाला लाजपत राय को देश के लिए लाठियाँ खाने की ...
-- क्या ज़रूरत थी भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव को हमारी स्वाधीनता के लिए फाँसी पर चढ़ जाने की ...
-- क्या ज़रूरत थी गाँधीजी को पराधीन भारतवासियों के लिए बार-बार जेल जाने की ...
-- क्या ज़रूरत थी सुभाष चंद्र बोस को ...
-- क्या ज़रूरत थी जयप्रकाश नारायण को ...
-- क्या ज़रूरत थी अन्ना हज़ारे को ....



ढाई महीने अस्पताल में रहने के बाद मैं एक बार फिर घर लौट आया हूँ । मेरे बाहरी घाव भर चुके हैं । डाॅक्टरों ने मुझे स्वस्थ घोषित कर दिया है । किंतु काॅलेज प्रशासन ने मुझे लंबे समय तक काॅलेज से ग़ैर-हाज़िर रहने के कारण नौकरी से निकाल दिया है ।

एक हफ़्ता पहले सुरभि मुझसे मिलने आई थी । उस मुलाक़ात में उसने मुझसे केवल एक बात कही -- उसके पिता को गुंडों से बचा कर यदि मैं यह सोच रहा हूँ कि वह मुझसे शादी कर लेगी तो यह मेरी ग़लतफ़हमी है ... ऐसा कभी नहीं होगा ! उसने यह बात बल दे कर कही थी। वह अपनी शादी का कार्ड भी मेरे मुँह पर मार गई थी। अगले रविवार की रात उसकी शादी है ।

आजकल सुबह के अख़बार भ्रष्टाचार, घोटालों और मासूम बच्चियों से बलात्कार की भयावह ख़बरों से भरे होते हैं । किसी पन्ने पर भ्रष्टाचार उजागर करने वाले की हत्या की ख़बर छपी होती है, किसी पर RTI के लिए संघर्ष करने वाले किसी एक्टिविस्ट को मार दिए जाने का समाचार होता है । रोज़ सुबह ऐसी ख़बरें पढ़ कर मेरी आत्मा कराहने लगती है और मेरे दिलो-दिमाग़ पर मुर्दनी छा जाती है । ज़माने की हालत देखकर लगता है जैसे भरी दुपहरी में अँधेरा छाया हुआ हो ।

इधर कुछ दिनों से मुझे शरीर में असहनीय दर्द रहने लगा है । कभी कहीं, कभी कहीं ।जैसे मुझे गहरी चोट लगी हुई हो । मैंने अपनी देह के कई अंगों की एम.आर.आइ. और सी.टी. स्कैनिंग भी करवा ली है । पर रिपोर्ट में सब कुछ ठीक है । डाॅक्टर कहते हैं कि मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ । लेकिन अकसर मैं असहनीय दर्द से छटपटाने लगता हूँ । क्या आपके पास मेरी इस गुम-सी चोट का इलाज है ?


Ek Gum See Chot - Sushant Supriy

व्यंग्य : गधे ही गधे - डॉ नरेंद्र शुक्ल

$
0
0
डॉ नरेंद्र शुक्ल 

चर्चित युवा साहित्यकार डॉ. नरेंद्र शुक्ल (20 जनवरी 1969)ने अपनी बेबाक शैली से हिन्दी साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। शिक्षा:एम.ए, पी.एच.डी, एल.एल.बी, एम.बी.ए., स्नातकोत्तर डिप्लोमा (अनुवाद), स्नातकोत्तर डिप्लोमा गॉंधीयन स्टडीज़, स्नातकोत्तर डिप्लोमा कम्प्यूटर विज्ञान, स्नातकोत्तर डिप्लोमा हायर एजुकेशन, सर्टिफिकेट कोर्स कार्यकारी हिंदी। प्रकाशित पुस्तकें :मरो मरो जल्दी मरो (व्यंग्य संग्रह), ही ही ही (व्यंग्य संग्रह), गागर में सागर (हिंदी व्याकरण), धूप अभी बाकी है (काव्य संग्रह), स्वर्ग में इलैकशन, उजाले की ओर, बैंकुंठ हेयर ड्रैसेज़, आधुनिक रामलीला कमेटी (सभी गद्य नाटक)। दैनिक ट्रिब्यून, द ट्रिब्यून,  दैनिक जागरण,  दैनिक भास्कर,  दैनिक सवेरा टाइम्स, उत्तम हिंदू, पंजाब केसरी, नीरज टाइम्स आदि प्रमुख अखबारों में व्यंग्य लेख, कहानियॉं व कविताएँ प्रकाशित। सम्मान :चंडीगढ़ साहित्य अकादमी अवार्ड- 2013। सम्पर्क : मकान नंबर 124, सेक्टर 35- ए, चंडीगढ़ - 160022, दूरभाष मोबाइल : 09316103436। आपकी एक व्यंग्य रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ :- 


गधे ही गधे 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
एक चौराहे पर खड़े चार गधे एक दूसरे के सामने अपना - अपना दुखड़ा रो रहे थे । काने गधे ने चितकबरे गधे से कहा - यार , पिंकू , मेरा मालिक मुझे बड़ा पीटता है । दिन भर काम करवाता है चैन से खाने भी नहीं देता । चितकबरे गधे ने रोते हुये कहा - मेरा मालिक भी मुझे चैन से नहीं सोने देता हमेशा गालियॉं देता रहता है । सामने बस स्टैंड के बाजू वाली गली में एक कजरारे नयनो वाली सांवली किंतु सुघड़ गधी देखते हुये मिंकू ने कहा - दोस्तों मेरा भी कुछ यही हाल है । चौथा गधा , जिसका नाम , राजू था , ने अपनी पूंछ से अपनी पीठ सहलाने हुये कहा - यार , हमसे अच्छा तो गली का शेरू है । भौंकता भी है और दांव लगने पर काट भी खाता है । गली की सारी सुंदर औरते बड़े प्यार से उसे अपने हाथों से खाना खिलाती हैं । . . . पार्क के मच्छर तक हमसे अच्छे हैं । एक बार इंसान को पा जातेे हैं तो बिना बिना काटे नहीं छोड़ते । कुनैन तक की गोली खानी पड़ती है । सात दिनों तक उठना - बैठना भारू हो जाता है । चितकबरे गधे ने राय दी - क्यों न हम अपनी यूनियन बना ले । सब एक साथ रहेंगे तो कोई हमारा बाल भी बांका नहीं कर पायेगा । बस स्टैंड के बाजू वाली गली की सुंदर -सलोनी गधी को उसका आशिक ले जा चुका था । मिंकू ने चलते हुये कहा - क्यों नहीं , हम कल इसी जगह मिलेंगे और आगे की रणनीति पर विचार करेंगे । चारों गधों ने एक ही स्वर में मिंकू के प्रस्ताव का समर्थन किया और अपने - अपने घर चले गये । अगले दिन मिंकू सांवली - सुंदर व सलौनी गधी को भगा ले गया और बाकी गधे गधे रह गये ।


गधों को मूर्खता का पर्याय समझा जाता है पर , मेरी नज़र में गधा अत्यंत मासूम , संवेदन व सहनशील प्राणी है । हमेशा अपने मालिक की सेवा में लगा रहता है । कभी प्रतिकार नहीं करता । हम अपने आपको शेर , चीता , बाज़, आदि कहलवाना पसंद करते हैं । लोमड़ी व बगुला भक्त तक कहे जाने में हमें गुरेज़ नहीं लेकिन , गधा कहे जाने पर हम मरने - मारने पर उतारू हो जाते हैं । एक रामलीला में मंदोदरी के महल के पर्सनल बॉडीगार्ड को जुआ खेलने के जु़र्म में अचानक पुलिस पकड़ कर ले गई । रामलीला में अफड़ा - तफड़ी मचती देखकर आयोजक ने घर के माली को दारू की एक बोतल का लालच देकर टैंपरेरी बॉडीगार्ड नियुक्त कर लिया लेकिन मंच पर जाते ही वह अपने डॉयलाग भूल गया और मंच पर पर्दे के पीछे से बार - बार इशारा करने पर भी वह डॉयलाग न बोल पाया । अब रावण , जो स्वयं रामलीला का आयोजक भी था , की स्थिति खिसियानी बिल्ली खंबा नोचेे जैसी हो गई । वह बड़े गुस्से से माली की ओर बढ़ा और तलवार खींचते हुए दहाड़ा - अबे गदहे हम पूछते हैं कि मंदोदरी कहॉं है और तू साले मुंह में दही जमाये बैठा है । माली तिलमिला गया । आगे बढ़ते हुये बोला - हमका गदहा कहात हो . . . न तुम कहीं के गर्वनर हो . .। जाओ नाहीं बताइत ..। रावण ने फिर आंखंे दिखाईं , लेकिन इस बार माली से न रहा गया । वहीं से पेट में भाला कोंचते हुये गुर्राया - आंख दिखावत हीं . .। ससुरउ ऑंख दिखावत हीं । ज्यादा बोलबो तो ई अखिया निकाल के हाथ मा पकड़ा देअब । खड़े - खड़े सूरदास बना दिअब । जान्यो कि नाहीं । . . आंख दिखावत हीं . .। देय का एको रूपया नाहीं । आंख दिखावत हीं . .। हमका गदहा कहात हीं । जाओ नाहीं बताइत कर लियो जो करना है । आयोजक चुपचाप टेंट में चला गया । वकील अक्सर अपने क्लाइंट को गधा बने रहने की सलाह देते हैं । उनके अनुसार कानून से बचे रहने का यही सबसे उत्तम तरीका है । 

एक काव्य सम्मेलन में एक उभरता हुआ कवि एक मंझे हुये कवि की कविता इस अंदाज़ से सुना रहा था जैसे वह स्वंय कविता का रचयिता हो । उभरता हुआ कवि एक सच्चा कवि था । उसने कसम खाई हुई थी कि न तो वह स्वयं की कोई कविता रचेगा और न ही उसे किसी मंच से सुनायेगा । पड़ोसियों के घर में लगी अंगूर की बेल को अपने घर में दो बल्लियां गाड़ कर छवा लेने की कला में उसका कोई सानी नहीं था . . . वैसे भी हाथ न आने पर अंगूर खटटे हो जाते है । इस उभरते हुये कवि के काम में इतनी सफाई व पवित्रता थी की कोई उसकी कविता को चुरा नहीं सकता था अलबत्ता कभी - कभी तो मूल कवियों को यह शक हो जाता था कि उक्त कविता उन्होंने लिखी भी है या नहीं । सभा में मूल कवि तालियां बजाते हुये कहते - वाह , क्या खूब कहा है - 

इधर भी गधे हैं , उधर भी गधे हैं ।
जिधर देखता हूँ, गधे ही गधे हैं ।

मंच के दायीं ओर की चौथी कुर्सी पर बैठे डॉक्टर वर्मा से न रहा गया वहीं से पांव बढ़ाकर लड़गी मारी - अबे गधा किसे कहता है मैं एम.बी.बी.एस हूँ  . . . . यू इडियट ! तेरे जैसे लोगों का मैं रोज़ इलाज़ करता हॅूं । डॉक्टर वर्मा अंग्रेजी को हिंदी से अधिक महत्तव देते थे उनका मानना था कि अंग्रेजी बोलने वाला साहब और बाकी सब उसके मातहत होते हैं । वह कभी भी किसी को भी गाली दे सकता है । आस - पास बैठे कविता के मर्मज्ञों द्वारा चुप रहने का संकेत देखकर इस बार आवाज़ का वॅाल्यूम कुछ कम करते हुये उन्होंने थोड़ा नरमी से कहा - लगता है आंखों में मोतिया उतर आया है । मेरे क्लिनिक पर मोतिया का शर्तिया इलाज़ कैंप लगा है आ जाना आई विल्ल मेक यू हैप्पी । डॉक्टर वर्मा एक नया मरीज़ पाकर बेहद खुश थे जब से ननकू ऑपरेशन कांड केस में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया द्वारा ब्रेकिंग न्यूज़ के रुप में हर दस मिनट पर जनमानस के समक्ष उजागर हुआ है तब से डॉक्टर साहब खुद लकवे के शिकार हैं । कैंची पकड़ते हुये उनके हाथ कांपने लगे हैं । दरअसल पथरी का ऑपरेशन करते हुये मरीज़ ननकू के पेट में उनकी कैंची रह गई थी और पेट पुनः खोलते हुये वे अपना तौलिया भूल गये थे । बहरहाल , लड़गी इतनी जोर की थी कि एक पल के लिये उभरता हुआ कवि लड़खड़ा गया लेकिन दूसरे ही पल संभलता हुआ फिर बोला - 

इधर भी गधे हैं , उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूँ, गधे ही गधे हैं ।

अबकि मंच के बायीं ओर बैठी मशहूर मॉडल पूनम के बगल में बैठे शहर के मशहूर उद्योगपति, जिनका कालिया रेसीडेंस सोसाइटी के बगल में , बहुजन हिताय दीन बंधू वि़द्यालय के साथ लगती दीवार के साथ कायदे से शराब का एक ठेका भी है , दांत किटकिटाते, किंतु गोष्ठी की मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुये उभरते हुए कवि को डांटा - व्हॉट नॉनसेंस । दायें बैठी महिलाओं को अपनी ओर घूरते हुये देखकर वे मुस्कराते हुये बोले - आई थिंक ही इज़ मोर डंकी । मिस्टर कालिया हैंडसम थे लेकिन शादी अभी नहीं हुई थी । पार्टियों में वे हॉट बैचलर माने जाते थे । पिछली पंकित में बैठी महिलायें खुश थीं । महिलाओं को गधा नहीं कहा जाता। 

एक अधेड़़ माडर्न कवयित्री ने अपनी बिखरी जुल्फ़ों की लटों को कान पर चढ़ाते हुये उभरते हुये कवि की प्रशंसा में तालिया बजाई - वाह क्या खूब कहा . . . कमाल कर दिया। वाह गधे ही गधे हैं । बाजू़ वाली सीट पर बैठी मोहल्ला किटटी पार्टी की आर्गेनाइज़र स्वीटी ने मार्डन कवयित्री से पूछा - उर्मि ! क्या सभी मर्द गधे होते हैं । - उर्मि ने काउंटर प्रश्न किया - क्या तेरा लकी गधा नहीं है । स्वीटी ने अपने शाइनिंग लाल होंठ सिकोड़ते हुये कहा - हूँ... है तो . . . पर थोड़ा - थोड़ा । कभी - कभी दुलत्ती मार देता है , कहता है सर्दी में ठंडे पानी से मैं बरतन साफ नहीं करुंगा । किचन में हीटर लगवाओ । पास बैठी कांता ने कहा - मेरा पति घोड़ा है । सरपट भागता है । वह स्वीटी से आगे निकल जाना चाहती थी । पतियों की इस रेस में अमेरिका रिर्टन, हाल में ही मिसिज़ बनी डेज़ी ने कहा - माई हसबेंड इज़ माई लिटिल पपी ...यू नो... आलॅवेज़ , मेरे पीछे - पीछे घूमता है। माई लिटिल बेबी । 

आजकल पति कब बेबी हो जाये और बेबी कब कुत्ता हो जाये , कहा नहीं जा सकता । . . . खैर , प्यार में सब कुछ जायज़ है । अपनी प्रशंसा सुनकर उभरता हुआ कवि और जोर से रेंका - जवानी का आलम गधों के लिये है । अपना सब कुछ लुटता देखकर पास बैठे सत्तर साल के काने काका ने अपने जबड़ों में दांत खोंसते हुये कहा - भैया . . हमहू जवान हैं । लड़ाय के देख लियोे। नचाय के देख लियोे . .। सुबह - शाम दिन में दो बार दंड पेलते हैं . . आजकल के इन मरियल छोकरों की तरह नहीं कि दस कदम पैदल चले नहीं कि मिरगी आने लगी । उभरते हुये कवि को भरी जवानी में बुढ़ापा दिखाई देने लगा । उसने सिर घुमाकर एक पल काने काका की ओर देखा और दूसरे ही पल सिर झटक कर आगे बढ गया - तू पिलाये जा साकी तू पिलाये जा डटके ... मटके के मटके ... मटके के मटके . . । सामने बैठे सरदार जी से न रहा गया । जेब से पउआ निकालकर पीते हुये मंच पर चढ़ गये और उभरते हुये कवि से माइक छीन कर गाने लगे - पिलाये जा डटके ... मटके के मटके . मटके के मटके . . । 

इससे पहले कि आयोजक उन्हें मंच से उतारते उन्होंने उभरते हुये कवि के कान पकड़कर उसके गालों पर ताबड़ तोड़ चार - पॉंच चुुम्मे जड़ दिये - ओह मुंडिया कमाल कर छडिया . . . जे मटिकियॉं च विस्की दी थां दारु पा लैंदा तां होर नज़ारे आणे सी । मंच पर बैठे चीफ गैस्ट ने माथे पर हाथ रखते हुये कहा - व्हॉट रबिश ! गदा कहीं का । इतना भी नहीं जानता कि विस्की को ही दारु कहते हैं । मैं और डॉक्टर प्रोफेसर जे. पी . चोपड़ा मंच के सामने बीचों - बीच सबसे पीछे बैठे थे । लिहाज़ा उभरते हुए कवि के रेडार में नहीं आ रहे थे । वैसे भी मंच पर चढ़ा कवि इधर - उधर ही देखता है । मैंने अपने साथ बैठे डॉक्टर प्रोफेसर जे. पी . चोपड़ा के कान में कहा - डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा जी कितना कच्चा गधा है दो ही घूँट में झूम रहा है । यहॉं पूरी बोतल पीने पर भी गले में तरावट नहीं आती । डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा हिंदी के रिटायर्ड प्रोफेसर थे । हिंदी के डॉक्टर ही सचमुच के डॉक्टर होते हैं । यह उन्हें पता था । डॉक्टर बनने के बाद , शुरुआती दिनों में वे बड़ी शान से अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाते थे और अगर कोई परिचित उन्हें डॉक्टर न कहता तो वे उससे सदा के लिये संबंध विच्छेद कर लेते थे । लेकिन प्रोफेसर बनने के बाद मामला थोड़ा पेचिदा हो गया । अब उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि वे अपने आप को डॉक्टर कहें या प्रोफेसर । इसी उधेड़ - बुन में वे रिटायर हो गये । सारी उमर वे हिंदी के शिक्षक रहे , लेकिन राप्ट्र भाषा घोषित होने के लगभग 64 साल के बाद भी जिस प्रकार लोग आज भी हिंदी को अछूत समझते हैं उसी प्रकार पड़ोसियों व सगे - संबधियों द्वारा हीन समझे जाने के कारण उन्होने रिटायर होने के बाद अपने घर के बाहर मुगल समा्रठ शहाजहां की तरह संगमरमर के पत्थर पर खुदवा लिया - डॉक्टर प्रोफेसर जे. पी .चोेपड़ा लेकिन , उनकी बीवी मुमताज न होकर ललिता निकली। वह आयकर विभाग में सुपरीटेंडेंट थीं और सुपरीटेंडेंटी के सारे गुर जानती थीं इसलिये असैसी के आते ही वे डॉक्टर साहब को तरकारी लाने बाज़ार भेज देती थीं । डॉक्टर साहब को तरकारी लाते - लाते आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था ओर वे बातों ही बातों में डॉक्टर चोपड़ा से डॉक्टर प्रोफेसर जे. पी .चोेपड़ा हो गये । अब पहले की तरह कोई उन्हें केवल डॉक्टर कहता तो वे आजकल की प्रेमिकाओं की तरह ब्रेकअप के लिये धमकी देने लगते । वे चाहते थे कि लोग उन्हें डॉक्टर प्रोफेसर कहें ताकि वे नील अमास्ट्रांग हो जायें । जे. पी . से अब उन्हें इतना लगाव नहीं रह गया था । खैर , इससे पहले कि वे कुछ जवाब दे ते उनका मोबाइल बज उठा । 

आजकल हम पतलून के बटन बंद करना बेशक भूल जायें लेकिन मोबाइल हाथ में लेना नहीं भूलते । जमाना प्रगतिशील है । हम सब वी . आई .पी हो चले हैं । सोते - जागते ,उठते - बैठते हमें कोई न कोई काम हो सकता है । डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने फोन पर हाथ रखते हुये मुस्कराते हुये कहा - माफ करना , ज़रा वाइफ का फोन है । मैंने अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लिया लेकिन , जहॉं किसी दूसरे की वाइफ का मामला हो मेरे कानों व ऑंखों की कपैस्टी बढ़ जाती है । डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने मोबाइल कान पर लगाते हुये कहा - हलो ! कि पये करदे हो । उधर से आवाज़ आई - मेरी जूती कित्थे रखी है । तुहांनू किनी बारी किहा है दस के जाया करो । तुहाडे कन्न ते जूं तक नहीं रेंगदी । खसमां नूं खाणियां . .तुहाडा मैं की करां । डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने सहमते हुये बडे़ प्यार से कहा - डार्लिंग कि पई कहिंदे हो । मैं कल ही तुहाडी जुत्ती लिया दिती सी । पंलग दे निच्चे देखों सां । उधर से आवाज़ आई - खसमां नूं खाणियां दृ राशन लियाए हो ? डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने कहा - परची मेरी जेब च है । आंदे होये लिआवांगा । तू एवें ही औखी होई जांदी है । मिसरी पा मुंह च . . । उन्होने फोन काट दिया । मैंने पूछा - प्रोफेसर साहब , भाभी जी क्या कह रहीं थीं । वे बोले - कुछ नहीं, हाल - चाल पूछ रहीं थीं । सुबह से ही खांसी है । मैंने मन में बिना किसी श्रद्धा के कहा - मुझे गधा समझ रहा है । बच्चू मैं तेरा बाप हूॅं । प्रकट में मुस्कराते हुये कहा - क्यों , आपको क्या हुआ ? वे जबरदस्ती खॉंसते हुये बोले - । सुबह से ही खांसी है । मैंने कहा - चलो आपकी बारी आने वाली है । उन्होंने कविता निकालने के लिये जेब टटोली लेकिन, कोट की जेबों से उनकी उंगलियॉं बाहर आ गईं । मैंने कहा - प्रोफेसर साहब , पतलून की जेब देख लो । शायद , वहॉं रखी हो । उन्होंने पतलून की जेब में हाथ डाला । राशन की पर्ची निकली लेकिन कविता नहीं निकली । वे बोले - लगता है वाइफ ने कागज़ बदल लिया है । डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा कविता ढूॅंढ़ ही रहे थे कि मोबाइल फिर बज उठा । मैंने कहा -- प्रोफेसर साहब , भाभी जी ने फिर याद किया है । कमाल है इस उम्र में भी इतना ख्याल रखती हैं । डॉक्टर प्रोफेसर चोपड़ा ने मोबाइल कान पर लगाते हुये कहा - हलो । उधर से आवाज़ आई -तुसी कित्थे हो ?

वे बोले - डॉक्टर कोल हॉं . . खॉंसी वद गई है । दवाई लै रिहां हां । मैं मुस्कराया । उन्होंने फोन पर हाथ रख कर आंख मारते हुये कहा - कहना पड़ता है । बहुत प्यार करती है न ! ज़रा सी बीमारी देखकर घबरा जाती है । उधर से वाइफ की आवाज़ आई - सारा दिन दवाइयॉं खांदे रिहा करो । खसमां नूं खाणियां . . पता नहीं किहड़ियां - किहड़ियां बिमारियॉं लगीयां होइंया ने । तूसी कद तक आणा है । मैं बालां नूं मेंहदी लाई होई है । घर दा सारा कम्म पिया है । ़ ़ ़ सफाई वाली नूं वी अज ही मरणा सी । . . तुसी सुणदे हो . . . आंदे होए कल्लू हलवाई दी दुकान तो अददा किल्लो गुलाब जामुन वी लैंदे आयों . . . मुंह सुकदा पिया है । जल्दी आओ . . खसमां नूं खाणियां . . खोते वांग इदर - उदर घुम्मी जांदे हो। 

इधर प्रोफेसर साहब बुदबुदाये - . . मैंनू खोता समजदी है . . न . . मैं खोता हां . . । मैंने मन में कहा - मुझे तो रत्ती भर भी संदेह नहीं है। प्रकट में कहा - प्रोफेसर साहब , भाभी जी क्या कह रहीं थीं । प्रोफेसर साहब फिर बुदबुदाये - . . . . मैंनू खोता समझ रही है । . . . मैं सारे घर दा ठेका लिता होया है । . . सारा दिन खोतियां वांग कम्म करदा रवा. .। हूँ . .जा नहीं करदा मैं। मैंने कहा - . . क्या बात है प्रोफेसर साहब ! अपने आप से ही बातें कर रहे है। भाभी जी ठीक तो हैं ! वे नींद से जाग गये थे - कुछ नहीं . . तुम्हारी भाभी सीढ़ियों से गिर गयी है . . अभी घर जाना होगा । मैंने कहा - ज्.यादा चोट तो नहीं लगी । उन्होंने उठते हुये कहा - अरे नहीं . . । घर चल कर देखता हूँ। मैंने चुटकी ली - उधर , कल्लू हलवाई की दुकान की ओर से जाना शार्टकट है जल्दी पहुंचोगे। वे चले गये । 

इधर उभरते हुये कवि की कविता पर सभा में उपस्थित सभी विद्वानों ने वैल्डन गधे कह कर उभरते हुये कवि को प्रसिद्ध होने का अवसर दिया और मैं सोचने लगा सरकार महंगाई के डोज़ पर डोज़ दिये जाती है और हम टुकुर- टुकुर देखते रह जाते हैं । आज हम आपसी रंजिश में कभी जमीन के एक टुकड़े के लिये तो कभी बाप - दादाओं की संपति के बंटवारे के नाम पर अपने ही भाइयों का कत्ल कर रहे हैं । कही होली के नाम पर सैकड़ों लीटर पानी बहाया जा रहा है । कहीं पानी के अभाव में लोग गंदे नालों का पानी पीने के लिये मजबूर हैं । कहीं गंदे खाने के रूप में बच्चों को बीमारियॉं परोसी जा रही हैं । कहीं अंधविश्वास के चलते औरतें ठगी जा रही हैं । कहीं सीमेंट में अधिक रेत मिलाने से सरकारी इमारतें गिर रही हैं । नव - निर्मित पुल टूट रहे हैं। कहीं लोग पाई - पाई को मोहताज़ हैं तो कहीं विदेशों में अकाउंट खुलवाये जा रहे हैं । कहीं लूटखोरी हैं कहीे सूदखोरी है । कहीं ट्रफिक नियमों को मनवाने के लिये , घूस के अभाव में , बिना हैल्मैट के बाइक सवार छात्रों का वायरलैस मार कर सिर फोड़ा जा रहा है । हम पर कभी आलू- प्याज़ टमाटर लाद दिया जाता है तो कभी डीज़ल - पैट्रोल के दाम बढ़ाकर , वाहन होते हुये भी , खाली सिलेंडर लाद कर चरने पर पर मज़बूर कर दिया जाता है । हम सब कुछ सहते हुये भी हर पांच साल के बाद मालिक के रूप में उन्हें ही चुनते हैं . .। हम सुबह न्यूज़ पढ़ते है और शाम को बीवी के साथ फिल्म देखने चल देते हैं । कहीं कोई संवेदना नहीं . .। कोई प्रतिकार नहीं । . . क्या हम असली गधे नहीं हैं . . और अचानक . . एक झन्नाटेदार झापड़ के साथ सुनाई पड़ा - . .. इडियट . . गधा कहीं का । मैंने देखा . . दरअसल . . भावनावश . . मेरा दायां पैर अगली सीट पर बैठी एक नई - नवेली हिन्दी कवयित्री के बायें पैर से उलझ गये था ।


Dr Narendra Shukl

समीक्षा : ‘उधेड़बुन’ की सार्थकता - मधुकर अष्ठाना

$
0
0
कृति : उधेड़बुन (कविता संग्रह)
कवि : राहुल देव
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद
मूल्य : रु 20/-,  पृष्ठ सं. : 112, प्रकाशन वर्ष : 2014 

अंतर्मन के भावोद्रेग का उच्छलन जब शब्दों में ढलकर हमारे समक्ष जब अर्थ का सम्पुट खोलता है तो उस भाव एवं विचार के संतुलित रूप को कविता की संज्ञा दी जाती है, जो प्रकाशित होकर समाज को समर्पित हो जाती है | हमारी भावनाएं आसपास के परिवेश से निश्चित तौर पर प्रभावित होतीं हैं और अपने परिवर्तित रूप में, वास्तव में स्वानुभूत सुख-दुःख, हंसी-रुदन तथा उस जीवनसंघर्ष जो सृजनकर्ता के जीवन का अंश होता है एवं उसकी आकांक्षाएं ही प्रतिफलित होतीं हैं | उसकी व्यक्तिगत आवाज़ एक समानधर्मी समूह की आवाज़ बन जाती है और उसकी व्यक्तिगत सृजनशीलता अपने समूहगत रूप में जागरूकता का प्रसार कर सामाजिक परिवर्तन का आधार बन जाती है | जब सृजन अपने उद्देश्य में सफ़ल हो जाता है तो उसकी उपयोगिता तथा सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है | कविता न तो मनोरंजन की सामग्री है और न ही प्रत्यक्ष रूप में दिशा देती है |किन्तु जागरूकता लाकर अपेक्षित बदलाव हेतु प्रेरणा देती है | वास्तव में वर्तमान कविता का यही उद्देश्य है और समसामयिक प्रासंगिकता ही उसकी सार्थकता है | अतः कविता को व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होना चाहिए | वर्तमान में जीना ही कविता की अनिवार्यता है जिसके इतर सृजन कविता न होकर कुछ और हो सकता है | भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है किन्तु उसकी भी एक सीमा है | अभिव्यक्ति ऐसी हो जिससे सामाजिक सद्भाव तथा समरसता अक्षुण्ण रहे | व्यक्तिगत आक्षेपों के लिए यह उपयुक्त प्लेटफ़ॉर्म नहीं है | कविता अभिव्यक्ति का तराशा हुआ रूप है अर्थात यह भाव एवं विचार की संतुलित सुरभि समेटे एक पुष्प है जिसमें कलात्मकता की अपार संभावनाएं हैं और ध्यान रखने का महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि ऐसे पुष्प से सुगंध आनी ही चाहिए, वह कागज़ी सुमन बनकर न रह जाये | कविता एक कला है और कला को कलात्मकता विहीन न होने देने के लिए प्रत्येक कवि का प्रतिश्रुत होना आवश्यक है | 


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और कविता मानवता की पाठशाला है | ऐसे में कवि आजीवन छात्र बना रहता है | यदि वह शिक्षक बनना चाहेगा तो कवि का गौरव खो देगा | तात्पर्य यह कि सीखने की, कुछ ग्रहण करने की प्रवृत्ति सदैव बनी रहनी चाहिए और वर्तमान में ही जीना चाहिए | सीखने और नूतनता ग्रहण करने का स्त्रोत हमारे परिवेश और सामाजिक परिवर्तनों में निहित होता है | कवि जो कुछ भी सृजन करता है उसकी प्रेरणा इन्हीं से मिलती है और यही रचनाकार के विषय भी हैं | डॉ नामवर सिंह कहते हैं कि, ‘कविता से लय को बहिष्कृत कर हमने बहुत बड़ी गलती की जिससे आज की लय विहीन कविता हाशिये पर आ गयी है |’ वर्तमान कवि को इसपर भी ध्यान देना है | पुराने कवियों की बनिस्पत नए कवियों में जो उद्भावनाएँ, नये विचार और नये बिम्ब प्रकट हो रहे हैं, उनमें नूतनता के साथ ही सौन्दर्यबोध में ताजापन दिखाई पड़ता है | पुराने कवियों में जो हताशा और दोहराव है, उससे ऊब होने लगी है, जबकि नये कवियों में उर्ज्वस्विता एवं उर्ध्वमुखी जागरूकता तथा साहस है, परिलक्षित हो रही है | ऐसी ही नयी पीढ़ी के प्रमुख हस्ताक्षर भाई राहुल देव हैं जिनकी रचनाओं में हमें नवता का विकासोन्मुखी स्वरुप देखने को मिलता है | उनकी रचनाओं में वह सभी तत्व अन्तर्निहित हैं जो एक उदीयमान प्रातिभ रचनाकार में अनिवार्य हैं और उनका प्रथम कविता संग्रह ‘उधेड़बुन’ वर्तमान में लक्ष्यहीन पीढ़ी के अंतर्द्वंध-ग्रस्त संघर्ष एवं जिजीविषा का परिचय कराता है | यह दिशाहीन पीढ़ी बीमार सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था के फलस्वरूप भटक रही है और अपना पथ निर्धारित करने में असमर्थ जरूर दिखाई पड़ती है किन्तु उसका आक्रोश एवं विद्रोही स्वभाव निश्चय ही भविष्य की आहट की सुगबुगाहट है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है | यह अर्जुन का युद्धपूर्व मोहाविष्ट अंतर्द्वंध है जिसे एक कृष्ण की तलाश है | इसमें दायित्वबोध तो है पर उसे प्रकट करने की प्रक्रिया ज्ञात नहीं है | सामाजिक सरोकार, संवेदना तथा यथार्थता से परिपूर्ण ‘उधेड़बुन’ से पाठक को विशिष्ट अंतर्ज्ञान का बोध होता है | संग्रह की प्रथम रचना ‘छद्मावरण’ में ही व्यक्ति अनेक सपनों में विचरण करता है, कितनी परिस्थितियों से गुज़रता है, मजदूर से लेकर ईश्वर तक का जीवन जी लेता है परन्तु उसे कहीं भी शांति नहीं मिलती किन्तु सपने का अंत होते-होते उसे सही दिशाबोध हो जाता है | यथा – “अब कहाँ जाऊं ? यह सोचकर/ थोड़ी ही देर बाद तुम्हारे कदम/ उस सड़क की ओर मुड़ गये/ अपने आप ही/ जो तुम्हारे घर की ओर जाती थी/ जहाँ तुम्हारी चिंताओं का हल हो सकता था/ जहाँ तुम अपनी चिंताएं बाँट सकते थे/ वह तुम्हारा अपना घर था/ बाहर इतना भटकने के बाद/ आखिरकार तुम अपने घर आ गये |” 

वस्तुतः अंतर्द्वंध अथवा उधेड़बुन की स्थिति निर्णय से पूर्व की होती है क्योंकि प्रत्येक कार्य करने से पूर्व का यह मानसिक उद्वेलन या तर्क-वितर्क हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करने में सहयोगी की भूमिका निभाते हैं | स्वप्न देखना हर व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है और वस्तुतः स्वप्न से ही भविष्य के सकारात्मक विकास की दिशा में आगे बढ़ा जाता है | इसके अतिरिक्त स्वप्न हमारे कुंठाग्रस्त मन हेतु औषधि का कार्य करते हैं | भौतिक जगत में हम जिससे वंचित रह जाते हैं, उसे स्वप्न में प्राप्त कर लेते हैं | वैज्ञानिकों ने उड़ने का स्वप्न देखा तभी वायुयान का अविष्कार हो सका | वास्तव में हमें आज जो भी प्रगति और विकास दिखाई देते हैं, वे सभी किसी न किसी स्वप्न से ही आविर्भूत हैं | “सपनों में जी लेना/ कितना सुकून देता है |” अथवा “जो आज सच है/ वह भी तो कभी/ सपना रहा होगा |” आदि ऐसी पंक्तियाँ हैं जो स्वप्न की सार्थकता और प्रासंगिकता का बोध कराती हैं | स्वप्न हमें यथार्थ की ओर अग्रसर करते हैं और इस प्रकार स्वप्न ही सच्चाई में तब्दील होते रहते हैं | 

कविता के विषय में राहुल देव की भी अपनी अवधारणा है | इस सम्बन्ध में अपनी भावना व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं, “जो मन में घर कर जाये/ सोच जगाये, भाव उठाये/ कल्पना के घोड़े पर सवार/ चलती जाये, मुदित बनाये/ हृदय को निर्मल बनाकर/ भावनाओं को जगाकर/ शांत हो जाये |” तात्पर्य यह कि कविता एक ओर तो चिंतन अर्थात विचार के साथ भावना का तालमेल बिठाकर, ऐसी कल्पना में परिभ्रमण कराये जो यथार्थ के निकट हो एवं तृप्ति तथा संतुष्टि की अनुभूति करा सके | वह ऐसी सकारात्मक एवं रचनात्मक कलात्मकता से युक्त हो जिससे हृदय में अन्तर्निहित विकार नष्ट होकर निर्मलता का बोध कराएँ | जिसे पढ़ने या लिखने के उपरांत अंतर्मन में शांति का आभास हो | इसीलिए तो कविता को ‘विकारों की रेचक’ कहा गया है | जब कविता कागज़ पर उतर जाती है तो अंतःकरण निर्मल एवं शांत हो जाता है | लेकिन एक अच्छे कवि की पहचान है कि अभिव्यक्ति में अधूरापन महसूस होता रहे और उस अधूरेपन को पूर्ण करने हेतु वह सर्वदा अपनी सर्वश्रेष्ठ कविता की खोज़ में निरत रहे | एक प्रश्नकर्त्री ने एक सुप्रसिद्ध श्रेष्ठ कवि से पूछा कि आपकी सर्वश्रेष्ठ कविता कौन सी है ? तो उन्होंने उत्तर दिया कि वह तो अभी लिखी जानी है, उसी की खोज़ में मैं भी हूँ | जीवन के उत्तरार्ध में भी इस अधूरेपन का एहसास बना रहना ही कवि को प्रगति की ओर अग्रसर करता है | 

राहुल देव की यह विशेषता है कि वह यथार्थ से जुड़ी कल्पनाओं तक ही सीमित रहना जानते हैं और अतीतजीवी न होकर वर्तमान की बात कहते हैं | उनके चिंतन में आज का विरूपित समाज, भ्रष्ट व्यवस्था और विषमताओं-विसंगतियों का नंगा नाच हो रहा है | मानवता के पुजारियों को समाप्त कर दिया जाता है | मानवता, संस्कार तथा मूल्यों का क्षरण हो चुका है | तभी वे कहने को विवश हैं – “मेरे चारों ओर चलता/ वहशियत का नंगा नाच/ मानवता का हो रहा चीर-हरण खुलेआम/ कोई नहीं यहाँ मुझे बचाने को/ सुनो मेरा आर्तस्वर, मेरी पुकार/ मैं हुआ संज्ञाशून्य/xxx/ हाय ! यह कैसा जगत दर्शन/ जहाँ होता राक्षसी नर्तन/ ले चलो मुझे यहाँ से दूर कहीं/ जहाँ हों निर्विकार/ मिले शांति, बाख सकें, सबके प्राण |” जब सम्पूर्ण विश्व में ऐसा निर्विकार स्थान नहीं है तो ऐसी स्थिति में “आये कोई नायक/ करे परिवर्तन, उपसंहार/ मिट्टी की सौंधी खुश्बू लौटे/ लौटे हरियाली/ आये वही बहार |” कभी-कभी दुनिया में ऐसे महानायक अवतरित होते हैं जिनमें समाज को परिवर्तित करने की शक्ति होती है | कवि को उक्त परिस्थितियों में ऐसे ही नायक की प्रतीक्षा है | 

कवि की दृष्टि बड़ी वस्तुओं पर तो पड़ती ही है किन्तु छोटी वस्तुओं पर भी पड़ती है | निष्प्राण-जड़ पदार्थों में भी वह प्राण भर देता है और उनका वर्णन इस प्रकार करता है कि वे जीवंत होकर अपनी परिभाषा ही बदल देते हैं | ‘ओस की वह बूँद’ कविता में हमें क्षुद्र में विराट का बोध होता है | लघुता में प्रभुता दिखाई पड़ने लगती है | प्रतीक बनकर लघुता भी महान बन जाती है | यथा- “रात्रि के अवसान पर/ प्रभात-करों के स्पर्श से/ हर्षातिरेक में झूमना चाहती हो/ बजना चाहती हो वह घुंघरुओं की तरह/ बूँद ! पूर्ण है स्वयं में/ समेट सकती है/ विश्व को स्वयं में/ स्त्रोत है भक्ति का/ नवशक्ति का/ वह ओस की बूँद/ प्रतीक है जीवन का/ गति का !” 

भविष्य के नियामक बच्चे राष्ट्र की संपत्ति होते हैं किन्तु भारत में अनचाहे खर-पतवारों की तरह बाल दैहिक शोषण, बाल मजदूरी और भिक्षा मंगवाने के लिए प्रयुक्त होते हैं | बच्चों की स्थिति अपने देश में नितांत दयनीय और चिंतनीय है | राहुल का कविमन बच्चों के प्रति विशेष संवेदनशील है और करुणा के वशीभूत ‘बच्चे और दुनिया’ शीर्षक रचना में उनकी लेखनी अपनी पीड़ा प्रकट कर देती है | यथा – “देखना कहीं/ झरने की मानिंद गिरता-चढ़ता/ आसमान को छूने की चाह रखने वाला/ अपनी दुनिया का बादशाह/ कहीं रुक न जाये/ समय का पहिया/ कहीं उसके सपनों को बींध न दे/ एकलव्य की तरह/ कहीं उसकी प्रतिभा/ दबा न दी जाये/ अनंत चेहरे, अगणित रचनाएँ/ हर कोई विशेष है यहाँ/ xxx/ कालखंड/ तुम्हारे स्वागत को प्रतीक्षारत है/ इस दुनिया के कायदे इतने आसान नहीं/ यह छीन लेगा तुमसे तुम्हारी मोहक हंसी |” जहाँ बच्चे खरीद-फरोख्त की जिन्स हैं वहां कवि की यह चेतावनी-सावधानी यद्यपि ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज़’ लगती है किन्तु इससे उसके करुणाशील अंतर्मन का ज्ञान होता है जिसमें नोबेल पुरुस्कार प्राप्त कैलाश सत्यार्थी तथा मलाला की भावना छिपी है | अंकुर ही एक दिन विशाल वृक्ष बनता है | अभी तो पक्षी के पंख खुले ही हैं जो एक दिन पूरा आकाश नापने लगेगा | इसी प्रकार देश में, हर क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी वे कटाक्ष करते हुए कहते हैं, “जी हाँ ! मैं भष्टाचार हूँ/ मैं आज हर जगह छाया हूँ/ मैं बहुत खुश हूँ/ और होऊं भी क्यों न ?/ ये दिन मैंने ऐसे ही नहीं देखा/ मुझे वो दिन आज भी याद है/ जब मैंने अपने सफ़ेद होते बालों पर/ लालच की डाई/ और कपड़ों पर ईर्ष्या का परफ्यूम लगाया/ बातों में झूठ और व्यवहार में/ चापलूसी के कंकर मिलाये/ फार्मूला हिट रहा/ xxx/ मैं बदनीयती की रोटी संग मिलने वाला/ फ्री का अचार हूँ/ पॉवर और पैसा मेरे हथियार हैं/ मैं अमीरों की लाठी और गरीबों पर पड़ने वाली मार हूँ |” 

भाववाचक संज्ञाओं का मानवीकरण और अभिनव उपमाओं से अलंकृत राहुल देव की रचनाओं में यदि इतिवृत्तात्मकता पर ध्यान न दें तो कथ्य को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करने की यथेष्ट क्षमता है और उनकी रचनाएँ परिवेश के साथ दूध-पानी की तरह एकाकार हो जातीं हैं | जहाँ तक भाषा का प्रश्न है तो वे समय, परिस्थिति एवं पाठकवर्ग के अनुकूल अधिकतर बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग करते हैं जिसमें उर्दू तथा अंग्रेजी के भी शब्द जो आम आदमी की ज़बान पर रहते हैं, प्रयोग करने में गुरेज़ नहीं करते | इस प्रकार भाषा की सहजता, सरलता, प्रवाह और प्रसाद गुण सम्पन्नता उसे जीवन्तता प्रदान करने के साथ ही सम्प्रेषणीता में अभिवृद्धि करते हैं | 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अभिधात्मक भाषा को सर्वोत्तम कहा था क्योंकि यह एकार्थी होती है और इसे समझने में सरलता होती है | इसके विपरीत लाक्षणिकता और व्यंजनात्मकता में जो उसका वाच्यार्थ होता है, वह उसका वास्तविक अर्थ नहीं होता है जिससे उसका अन्यार्थ शोध हेतु विद्वत्ता की आवश्यकता होती है | राहुल देव भाषा के मोह में नहीं पड़ते हैं और सीधे स्पष्ट शब्दों में अपने मनोभावों को प्रकट कर देते हैं जिसमें सम्प्रेषणीय सफलता असंदिग्ध होती है | भाषा का उदाहरण उनकी प्रत्येक रचना में उपलब्ध है | भाषा के साथ कथ्य की प्रासंगिक सार्थकता रचनाकार की रचना को समसामयिक प्रगतिशीलता से जोड़ती है | अधिकांश कवियों की लम्बी रचनाओं में एक-आध पंक्ति ही कविता की श्रेणी में आती है और शेषभाग केवल भूमिका अथवा घेराबंदी ही होती है किन्तु राहुल देव की रचनाओं में कविता अधिक और भूमिका संक्षिप्त एवं आवश्यकतानुसार ही होती है | यह एक रचनाकार के लिए बड़ी उपलब्धि है | राहुल देव जो कहना चाहते हैं उसे बड़ी साफगोई से स्पष्ट कर देते हैं जिसमें घुमाव-फिराव नहीं होता | महानगर की सड़कों से सभी लोग परिचित हैं जो रात-दिन व्यस्त रहतीं हैं और व्यस्तता भी इतनी सघन कि इस पार से दूसरी ओर जा पाने में ही अधिक समय लग जाता है | ऐसी सड़कों पर प्रतिदिन अनेक दुर्घटनाएं होतीं हैं | स्थिति यह है कि दुर्घटनाओं से मृत्युदर बढ़ती ही जा रही है | इस पारिस्थितिक त्रासदी ने कवि को संवेदित किया और निम्नांकित रचना ‘शहर की सड़कें’ शीर्षक से अवतरित हो गयी | यथा, “सड़के दिन होने पर/ कैसी व्यस्त हो जातीं हैं/ बहुत लोग उसपर दब-कुचल जाते हैं/ बहुत बेमौत मारे जाते हैं/ बहुत घायल होकर/ अपंग हो जाते हैं/ सड़के तेज़ी से भाग रही हैं/ रूकती ही नहीं/ कोई दुर्घटना उसे पिघला नहीं सकती/ शायद यह/ उसकी नियति बन गयी है अब/ सड़कें/ जिन पर चल रहा है/ आज का ज़हरीला आदमी/ रोज़ की तरह/ कल के अख़बार की सुर्खियाँ/ तैयार हो चुकीं हैं !” 

संवेदना हमारे चारों ओर बिखरी पड़ी है, केवल उसे ग्रहण करने के लिए सूक्ष्मदृष्टि की तलब होती है | संवेदना को कलात्मकता के साथ सज़ा देना ही कविता है | अतः कविता के साथ कला का अटूट सम्बन्ध होता है | जो संवेदना को जितनी गहराई तक ग्रहण कर पाता है उसे जितनी सूक्ष्मता एवं कलात्मकता के साथ सहज एवं प्रवाहपूर्ण शब्दखंड में सज़ा पाता है, उसी के अनुरूप साहित्य में प्रतिष्ठित होता है | राहुल देव में श्रेष्ठ कवि बनने के पर्याप्त गुण विद्यमान हैं और उन्होंने अपनी प्रस्तुत कृति में भरसक प्रयत्न किया है कि संवेदना का विस्तार कर उसकी अनुभूति जन-जन तक पहुँचा सकें और बहुत हद तक वे सफ़ल भी हुए हैं | प्रथम कृति की दृष्टि से कविता के क्षेत्र में उनका यह प्रथम सोपान पर कदम, भविष्य की विराट संभावनाओं का संज्ञान कराता है | निश्चित रूप से आने वाला कल उनके नाम होगा | मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ आशा करता हूँ कि साहित्य के क्षेत्र में उनके पदार्पण का समुचित स्वागत होगा।  

समीक्षक : 
मधुकर अष्ठाना 
संपर्क : विद्यायन, एस.एस.-108-109,
सेक्टर- ई, एल.डी.ए. कालोनी 
कानपुर रोड, लखनऊ - 226012 
मो. 09450447579, 0522-2437901




Udherbun by Rahul Dev

लखनऊ में संपन्न हुआ चौथा नवगीत महोत्सव

$
0
0


पूर्णिमा वर्मन 
लखनऊ : विभूति खण्ड स्थित 'कालिन्दी विला’ के परिसर में दो दिवसीय 'नवगीत महोत्सव - 2014'का शुभारम्भ 15 नवम्बर की सुबह 8 : 00 बजे हुआ।'अनुभूति', 'अभिव्यक्ति'एवं 'नवगीत की पाठशाला'के माध्यम से वेब पर नवगीत का व्यापक प्रचार-प्रसार करने हेतु प्रतिबद्ध 'अभिव्यक्ति विश्वम'द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम न केवल अपनी रचनात्मकता एवं मौलिकता के लिए जाना जाता है, बल्कि नवगीत के शिल्प और कथ्य के विविध पहलुओं से अद्भुत परिचय कराता है। ख्यातिलब्ध सम्पादिका पूर्णिमा वर्मन जी एवंप्रवीण सक्सैना जी के सौजन्य से आयोजित यह कार्यक्रम पिछले चार वर्षों से लखनऊ में सम्पन्न हो रहा है। 

आर्ट गैलरी का एक दृश्य 
कार्यक्रम का शुभारम्भ देश-विदेश से पधारे नए-पुराने साहित्यकारों की उपस्थिति में वरिष्ठ नवगीतकार श्रद्धेय सर्वश्री कुमार रवीन्द्र, राम सेंगर, धनन्जय सिंह, बुद्धिनाथ मिश्र, निर्मल शुक्ल, राम नारायण रमण, शीलेन्द्र सिंह चौहान, बृजेश श्रीवास्तव, डॉ. अनिल मिश्र एवं जगदीश व्योमके द्वारा माँ सरस्वती के समक्ष दीप-प्रज्ज्वलन से हुआ।  

प्रथम सत्र में चर्चित चित्रकार-प्राध्यापक डॉ राजीव नयन जी ने शब्द-रंग पोस्टर प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। नए-पुराने नवगीतकारों के गीतों पर आधारित यह पोस्टर प्रदर्शनी आगंतुकों के लिए आकर्षण का केंद्र रही। ये पोस्टर पूर्णिमा वर्मन, रोहित रूसिया, विजेंद्र विज एवं अमित कल्ला द्वारा तैयार किये गए थे।

तदुपरांत देश भर से आमंत्रित आठ नवोदित रचनाकारों के दो-दो नवगीतों का पाठ हुआ। इस सत्र में पवन प्रताप सिंह, सुवर्णा दीक्षित, विजेन्द्र विज, अमित कल्ला, प्रदीप शुक्ल, सीमा हरिशर्मा, हरिवल्लभ शर्मा एवं संजीव सलिल का रचना पाठ हुआ, जिस पर वरिष्ठ नवगीतकारों के एक पैनल, जिसके सदस्य श्रद्धेय सर्वश्री कुमार रवीन्द्र, राम सेंगर, धनन्जय सिंह, बृजेश श्रीवास्तव एवं पंकज परिमलथे, ने अपने सुझाव दिए। इस अवसर पर श्रद्धेय कुमार रवीन्द्र जी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में नवगीत में नवता को लेकर व्याप्त भ्रम को दूर करते हुए कहा कि शाब्दिकता तथा संप्रेषणीयता के बीच तारतम्यता के न टूटने देने के प्रति आग्रही होना नवगीतकारों का दायित्व है। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्रद्धेय राम सेंगर जी ने नवगीत महोत्सव को उत्सव बताते हुए कहा है कि इस प्रकार की कार्यशालाएं युवा रचनाकारों के रचनात्मक व्यकितत्व के विकास तथा उनमें नवगीत की समझ बढाने में सहायक होंगी। इस सत्र का सफल संचालन जगदीश व्योम जी ने किया


कुमार रवींद्र 


राम सेंगर 

धनञ्जय सिंह 


बुद्धिनाथ मिश्र
कार्यक्रम के दूसरे सत्र मेंलब्धप्रतिष्ठित गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्रका 'गीत और नवगीत में अंतर' शीर्षक पर व्याख्यान हुआ। आपका कहना था कि नवगीत का प्रादुर्भाव हुआ ही इसलिये था कि एक ओर हिन्दी कविता लगातार दूरूह होती जा रही थी, और दूसरी ओर हिन्दी साहित्य में शब्द-प्रवाह को तिरोहित किया जाना बहुत कठिन था। अतः नवगीत नव-लय-ताल-छंद और कथ्य के साथ सामने आया।

कार्यक्रम के तीसरे सत्र मेंदेश भर से आये वरिष्ठ नवगीतकारों द्वारा नवगीतों का पाठ हुआ। इस सत्र के प्रमुख आकर्षण रहे - श्रद्धेय कुमार रवीन्द्र, राम सेंगर, अवध बिहारी श्रीवास्तव, राम नारायण रमण, श्याम श्रीवास्तव, ब्रजेश श्रीवास्तव, शीलेन्द्र सिंह चौहान, डॉ मृदुल, राकेश चक्र, जगदीश पंकज एवं अनिल मिश्रा। कार्यक्रम के अध्यक्ष कुमार रवीन्द्र जी  एवं मुख्य अतिथिराम सेंगर जी रहे। मंच संचालन अवनीश सिंह चौहान ने किया।

कार्यक्रम के प्रथम दिवस का समापन सांस्कृतिक संध्या से हुआ, जिसमें रोहित रूसिया, अमित कल्ला, रामशंकर वर्मा, सुवर्णा दीक्षित, सौम्या आशीष एवंआशीष (अभिनय एवं स्वर), विजेंद्र विज (फिल्म निर्माण), सृष्टि श्रीवास्तव (कत्थक नृत्य), सम्राट आनन्द, रजत श्रीवास्तव, मयंक सिंह एवं सिद्धांत सिंह (संगीत), अमित कल्ला (लोक गीत एवं संगीत) ने अपनी आकर्षक एवं मधुर प्रस्तुतियाँ दीं। इस सत्र में कुछ नवगीतों को माध्यम बनाकर नवोदित रचनाकारों द्वारा एक नाटिका प्रस्तुत की गयी और इसके तुरंत बाद फिल्म, गणेश वंदना, भजन, कत्थक नृत्य, लोक गीत, राजस्थानी संगीत आदि की प्रस्तुतियों ने सबका मन मोह लिया। उपस्थित रचनाकारों/काव्यरसिकों/अतिथियों ने इस सांस्कृतिक संध्या की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस सत्र का सफल संचालन रोहित रूसिया ने किया।

 दूसरा दिन

'नवगीत महोत्सव 2014’ का दूसरा दिन भी काफी महत्वपूर्ण रहा। अकादमिक शोधपत्रों के वाचन के सत्र में नवगीत विधा पर प्रकाश डालते हुए विद्वानों ने नवगीत आंदोलन, दशा और दिशा, संरचना एवं सम्प्रेषण, चुनौतियाँ आदि विषयों पर व्यापक चर्चा की। वरिष्ठ गीतकविराम सेंगर जीने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में नवगीत दशक और डॉ शम्भुनाथ सिंह जी  से जुड़े अनुभव साझा किये। उन्होंने बताया कि नवगीत दशक को प्रकाशित करने की योजना 1962 में बनी थी, किन्तु वह बहुत बाद में पुस्तकाकार हो सकी। श्रद्धेय डॉ शम्भुनाथ सिंह जी के निर्देशन में उन्होंने स्वयं नवगीत दशक -एक, दो, तीन की पांडुलिपियों को अपनी हस्तलिपि में तैयार किया था। 'नवगीत की दशा और दिशा’ विषय पर अपना वक्तव्य देते हुए डॉ. धनन्जय सिंह जी ने कहा कि नवगीत संज्ञा नहीं वस्तुतः विशेषण है। आजकी मुख्य आवश्यकता शास्त्र की जड़ता से मुक्ति है, न कि शास्त्र की गति से मुक्ति। 'नवगीत : सरंचना एवं सम्प्रेषण'पर मधुकर अष्ठाना जी की उद्घोषणा थी कि नवगीत आज भी प्रासंगिक एवं गीतकवियों की प्रिय विधा है। 'रचना के रचाव तत्व’पर बोलते हुए पंकज परिमल जी ने कहा कि शब्द, तुक, लय, प्रतीक मात्र से रचना नहीं होती, बल्कि रचनाकार को रचाव की प्रक्रिया से भी गुजरना होता है। रचाव के बिना भाव शाब्दिक भले हो जायें, रचना नहीं हो सकते। जगदीश व्योम ने 'नयी कविता तथा नवगीत के मध्य अंतर'को रेखांकित करते हुए कहा कि रचनाओं में छंद और लय का अभाव हिन्दी रचनाओं के लिए घातक सिद्ध हुआ। कविताओं के प्रति पाठकों की  अन्यमन्स्कता का मुख्य कारण यही रहा कि कविताओं से गेयता निकल गयी। द्वितीय दिवस का यह सत्र अकादमिक शोधपत्रों के वाचन के तौर पर आयोजित हुआ था, जिसके अंतर्गत वक्ताओं से अन्य नवगीतकार प्रश्न पूछकर समुचित उत्तर प्राप्त कर सकते थे। इस सत्र का मंच संचालन अवनीश सिंह चौहान ने किया था।

प्रथम सत्र के तुरंत बाद सभी नवगीतकारों/ साहित्यकारों को अभिव्यक्ति विश्वम द्वारा परिकल्पित 'सांस्कृतिक भवन'के निर्माण स्थल पर बस और कारों से ले जाया गया जहाँ उन्हें पूर्णिमा जीने भावी योजनाओं की जानकारी दी। साथ ही पूर्णिमा जी के आदरणीय पिताजी आदित्य कुमार वर्मन जी ने भवन निर्माण और वास्तुशिल्प की गहरी जानकारी दी।

'चोंच में आकाश’ का लोकार्पण करते साहित्यकार 
भोजनावकाश के बाद दूसरे सत्र में विभिन्न प्रकाशनों से प्रकाशित कुल दो नवगीत-संग्रहों एवं एक संकलन का लोकार्पण हुआ। ये पुस्तकें थीं - चर्चित रचनाकार पूर्णिमा वर्मन जीका नवगीत-संग्रह 'चोंच में आकाश’रोहित रूसिया का नवगीत-संग्रह 'नदी की धार सी संवेदनाएँ’एवं डॉ. महेन्द्र भटनागर पर केंद्रित पुस्तक 'दृष्टि और सृष्टि।’ तदुपरांत विभिन्न विद्वानों ने छः कृतियों पर अपने विचार व्यक्त किये।  रोहित रूसिया के नवगीत-संग्रह 'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ पर डॉ. गुलाब सिंह की भूमिका को वीनस केसरीने प्रस्तुत किया।चर्चित रचनाकार पूर्णिमा वर्मन जी के नवगीत-संग्रह 'चोंच में आकाश’ पर आचार्य संजीव सलिलने समीक्षा प्रस्तुत की। ओमप्रकाश तिवारीके नवगीत-संग्रह'खिड़कियाँ खोलो’ पर सौरभ पाण्डेयने अपने विचार रखे।  चर्चित कवि यश मालवीयके संग्रह 'नींद काग़ज़ की तरह’पर वरिष्ठ साहित्यकार निर्मल शुक्ल जी ने अपना वक्तव्य दिया। निर्मल शुक्ल जी के नवगीत-संग्रह'कुछ भी नहीं असंभव’पर वरिष्ठ गीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने समीक्षा प्रस्तुत की। वरिष्ठ गीतकार डॉ. महेन्द्र भटनागर पर केंद्रित पुस्तक 'दृष्टि और सृष्टि’ पर बृजेश श्रीवास्तवने समीक्षा प्रस्तुत की। सभी समीक्षकों ने उपर्युक्त नवगीत-संग्रहों एवं संकलन के भाव तथा शिल्प पक्षों पर खुल कर अपनी बात रखी। इस सत्र का संचालन अवनीश सिंह चौहान ने किया।

प्रवीण सक्सैना 

'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ का लोकार्पण 



तीसरे सत्र से पूर्व अभिव्यक्ति-अनुभूति संस्था की ओर से अवनीश सिंह चौहान (इटावा) को उनके नवगीत संग्रह 'टुकड़ा काग़ज़ का’कल्पना रामानी (मुम्बई)को उनके काव्य संग्रह'हौसलों के पंख’ तथा रोहित रूसिया (छिंदवाड़ा) को 'नदी की धार सी संवेदनाएँ’ के लिए सम्मानित तथा पुरस्कृत किया गया। पुरस्कार स्वरुप इन सभी को ११०००/- (ग्यारह हज़ार) रुपये, प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति चिन्ह प्रदान किया गया। इस कार्यक्रम में कल्पना रामानी अस्वस्थ होने के कारण उपस्थित नहीं हो सकीं, इसलिए उनका पुरस्कार लेने के लिए संध्या सिंह को मंच पर आमंत्रित कर लिया गया। इस सत्र का सफल संचालन जगदीश व्योम जी ने किया


तीसरे सत्र में आयोजन की परिपाटी के अनुसार सबसे पहले आमंत्रित रचनाकारों ने अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ किया। इस वर्ष के आमंत्रित कवियों मेंचेक गणराज्य से पधारेडॉ. ज्देन्येक वग्नेर, निर्मल शुक्ल, वीरेन्द्र आस्तिक, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग, शैलेन्द्र शर्मा, पंकज परिमल तथा जयराम जयथे।
इनके अतिरिक्त इस सत्र में श्रद्धेय कुमार रवींद्र जी, धनञ्जय सिंह जी, कमलेश भट्ट कमल जी, ब्रजेश श्रीवास्तव, राकेश चक्र, अनिल वर्मा, पूर्णिमा वर्मन, मधु प्रधान, जगदीश व्योम, सौरभ पांडे, अवनीश सिंह चौहान, रामशंकर वर्मा, रोहित रूसिया, प्रदीप शुक्ला, संध्या सिंह, शरद सक्सेना, आभा खरे,  वीनस केसरी आदि ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। मंच का सफल सञ्चालन श्रद्धेय धनञ्जय सिंह जीने किया। 

आदरणीय यज्ञदत्त पण्डित, प्रभा वर्मन, निर्मल शुक्ल, वीरेन्द्र आस्तिक, चन्द्रभाल सुकुमार, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', पारसनाथ गोवर्धन, सुरेश उजाला, राजेश परदेशी, शैलेन्द्र शर्मा, अनिल वर्मा, मधु प्रधान, महेंद्र भीष्म, सौरभ पाण्डेय, ओम प्रकाश तिवारी, श्रीकान्त मिश्र कान्त, राकेश चक्र, संध्या सिंह, रश्मि, शरद सक्सेना, जयराम जय, आभा खरे, वीनस केसरी, राहुल देव सहित शहर के कई साहित्यकार, विद्वान, गणमान्य व्यक्ति आदि मौजूद रहे। फोटोग्राफी एवं फिल्मांकन में आशीष, रोहित रूसिया, विजेंद्र विज, राम शंकर वर्मा, श्रीकांत मिश्र कांत, वीनस केसरी और न्यूज़ मेकिंग और कम्पोज़िंग में सौरभ पाण्डे विशेष सहयोगी रहे। इस अवसर पर पूर्णिमा वर्मन जीने सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि गीत भारतीय काव्य का मूल स्वर है, इसके प्रचार प्रसार में हिन्दी भाषा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार की असीम संभावनाएँ छुपी हुई हैं। इसे बचाए रखना और इसका विकास करना हमारा उत्तरदायित्व होना चाहिये। अन्य विद्वानों द्वारा नवगीत विधा के बहुमुखी विकास की संभावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही 'नवगीत महोत्सव 2014’ का विधिवत समापन हुआ।

Navgeet Mahotsav - 2014

विरासत : श्रंग जी की याद आना स्वाभाविक है - अवनीश सिंह चौहान

$
0
0
राजेन्द्र मोहन शर्मा 'श्रंग' 
(12 जून 1934 - 17 दिसंबर 2013)

लोग कुछ जो हार कर भी जीत जाते हैं यहाँ। 
और कोई जीत कर भी है यहाँ हारा हुआ।। 

भोपाल के सुपरिचित ग़ज़लगो महेश अग्रवाल जीकी उपर्युक्त पंक्तियाँ श्रद्धेय राजेन्द्र मोहन शर्मा 'श्रंग'जीपर सटीक बैठती हैं। इसलिए कि मुरादाबाद के साहित्यिक इतिहास में श्रंग जी का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होने के बावजूद भी, समूचा देश उनके अवदान से लगभग अपरिचित है। 

श्रद्धेय श्रंगजी का प्रथम गीत संग्रह'अर्चना के बोल'1960 में प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह पारम्परिक गीतों की एक कड़ी के रूप में देखा जाता है, जिसमें साठोत्तरी कविता के प्रमुख तत्वों, विशेषताओं, यथा- आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियां और उनके प्रति विद्रोह एवं आक्रोश की भावना आदि, का अवलोकन किया जा सकता है। शायद इसीलिये उस समय ख्यातिलब्ध रचनाकारश्रद्धेय डॉ हरिवंशराय बच्चन, गोपाल सिंह नैपाली जी, गोपालदास नीरज जीआदि ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। समय का पहिया घूमा और यह स्वाभिमानी एवं संस्कारवान रचनाकार रेलवे से रिटायर होने के बाद आर्थिक कठिनाइयों से जूझने लगा। इन विषम परिस्थितियों में भी वह रचनाकर्म करता रहा। किन्तु रचनाकर्म ही काफी नहीं था। जरूरत थी कि वह अपने लिखे को समय से प्रकाशित-प्रसारित करवाते। और ऐसा न होने पर यह रचनाकार समय की धुंध में खो गया। 

एक समय ऐसा भी आया जब युवा कवि योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'श्रंगजी के संपर्क में आये और उनसे प्रभावित हुये। व्योमजी जी ने सहृदयतावश उनकी दो पुस्तकों का प्रकाशन कराया- 'मैंने कब ये गीत लिखे हैं' (गीत संग्रह, 2007) एवं'शकुंतला' (प्रबंध काव्य, 2007)। इन कृतियों का प्रकाशन श्रंगजी के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना बनी, जिसके परिणामस्वरूप उनमें फिर से रचनात्मक उत्साह एवं उमंग का संचार होने लगा। 

यहाँ यह बात गौर करने की है कि 1960 ई. से 2007 ई. तक उनकी कृतियों के प्रकाशन का अंतराल बहुत बड़ा है। उस अंतराल का एक प्रभाव यह भी पड़ा कि जो रचनाएँ जिस समय लिखीं गयी थीं, उस समय प्रकाशित न हो पाने के कारण उनकी प्रासंगिकता पर प्रकाशन वर्ष को ध्यान में रखकर विचार किया जाने लगा। तब बदले हुए समय, समाज और परिस्थितियों के साथ काव्य की भाषा-कहन में जबरदस्त बदलाव का प्रभाव पाठकों के मन में श्रंगजी की रचनाओं के प्रति एक अलग प्रकार का दृष्टिकोण बनाने लगा। यह पाठकों/भावकों में उनके रचना संसार के प्रति अलगाव की स्थिति थी - विचार के स्तर पर। तथापि मुरादाबाद में उनके चाहने वालों की कमी नहीं रही। उन्हें अपने शहर में भरपूर सम्मान एवं स्नेह मिलता रहा। 

प्रतिभावान कवि, लेखक, कुशल संयोजक एवं हिंदी प्रेमी श्रद्धेय श्रंगजी ने गीत, कहानियां, संस्मरण, एकांकी, हाइकु, बाल कविताएँ, रेखा-चित्र, हास्य-व्यंग्य, प्रबंध काव्य आदि विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। किन्तु दुःखद यह है कि उनकी कई कृतियां आज तक प्रकाशित नहीं हो सकी और जो हुईं भी उनका मूल्यांकन नहीं हो सका। जहाँ तक उनकी प्रकाशित कृतियों की बात है, तो मेरी दृष्टि में उनका प्रबंध काव्य'शकुंतला'सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रबंध काव्य में शकुंतला एवं दुष्यंत के चरित्रों को बड़ी सहजता एवं गंभीरता से उभारा गया है। भारतीय संस्कारों का ऐतिहासिक घटना के माध्यम से प्रकटीकरण इस पौराणिक प्रेम कथा को जीवंत कर देता है। इसका मतलब यह कदापि नहीं कि इसमें आधुनिक जीवन के लिए कोई सन्देश नहीं है, बल्कि इसमें सर्वकाल के लिए जीवन सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन मिलता है। इस दृष्टि से यह प्रबंध काव्य प्रसिद्ध लेखक वेलेन्सकी की इस धारणा से मेल खाता है कि'सौन्दर्य सामाजिक जीवन के जीवंत यथार्थ का ऐसा प्रतिबिम्ब है, जो हमें आनन्द ही नहीं देता, प्रगतिशील होने की प्रेरणा भी देता है।'

अपने को अकिंचन और दूसरों को श्रेय देने वाले श्रंगजी निर्मल हृदय के व्यक्ति थे। सहज एवं मितभाषी। जब भी बोलते, विनम्रता से बोलते। जब भी मिलते, अपनेपन से मिलते। अपनी संस्था'हिन्दी साहित्य संगम'से साहित्यकारों को जोड़ना, आगंतुकों का आदर करना, रसिकों का स्वागत करना, उन्हें अच्छा लगता था। युवा साहित्यकारों से उन्हें विशेष लगाव था। वे युवा रचनाकारों को न केवल प्रोत्साहित करते, बल्कि मंच प्रदान कर उनका मार्गदर्शन भी किया करते थे। वे अपनी संस्था की साहित्यिक गोष्ठी में स्वयं रचनाकारों को आमंत्रित करते थे, किसी के न पहुँचने पर उससे फोन पर न आ पाने का कारण, कुशल-क्षेम पूछते और अगली मासिक गोष्ठी में पुनः आमंत्रित करना कभी नहीं भूलते। बाद में उनके इस कार्य में विशेष सहयोगी बने आदरणीय रामदत्त द्विवेदी जी एवं युवा रचनाकार जितेंद्र कुमार जौली। 

यह उनका युवा रचनाकारों के प्रति स्नेह एवं वात्सल्य ही था कि वे मेरा हाल-चाल लेने मेरे घर पर भी आ जाया करते थे और इसी बहाने मेरे बच्चों को भी उनका आशीर्वाद मिल जाया करता था। श्रंगजी जैसे सहज व्यक्तित्व मुरादाबाद के साहित्यिक इतिहास में कम ही दिखाई पड़ते हैं, इसलिए उनकी याद आना स्वाभाविक है। कहा जाता है कि आत्मा अमर है, और यदि ऐसा है तो श्रंगजी अतीत में भी थे, वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे। 



स्व. राजेंद्रमोहन शर्मा 'श्रंग'जी का एक गीत 'वंदना के बोल' 
यहाँ प्रस्तुत है :- 

अर्चना के गीत कुछ लेकर
मैं तुम्हारे द्वार आया हूँ

सोहती तंत्री करों में
और पुस्तक धारणी तुम
हंस है वाहन तुम्हारा
बुद्धि ज्ञान प्रदायिनी तुम
अर्चना को कुछ नहीं लाया
भाव का नैवेद्य लाया हूँ

मैं तुम्हारा क्षुद्र बालक
अर्चना मैं क्या करूंगा
तुम स्वयं वाणी जगत की
वंदना मैं क्या करूंगा
गीत की माला करों में ले
भाव में भर प्यार लाया हूँ

विश्व बढ़ता जा रहा है
नाश के पथ पर निरंतर
ज्योति दो ज्योतिर्मयी
सदभावना भी हो परस्पर
मांगने निर्माण का मैं पथ
वंदना के बोल लाया हूं


Late Rajendra Mohan Sharma 'Shring', Hindi poet of Moradabad, U.P.

‘सारांश समय का’ लोकार्पण समारोह एवं काव्य गोष्ठी

$
0
0
सारांश समय कालोकार्पण करते साहित्यकार 

दिल्ली :जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली के ‘अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्र’ में २२ नवम्बर २०१४ को 'शब्द व्यंजना'और 'सन्निधि संगोष्ठी'के संयुक्त तत्वाधान में 'सारांश समय का'कविता-संकलन का लोकार्पण समारोह एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया.

कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसून लतांत ने की, जबकि लक्ष्मी शंकर वाजपेयी मुख्य अतिथि एवं रमणिका गुप्ता, डॉ. धनंजय सिंह, अतुल प्रभाकर विशिष्ट अतिथि के रूप में कार्यक्रम में उपस्थित थे. कार्यक्रम के मुख्य वक्ता अरुण कुमार भगत थे तथा संचालन महिमा श्री ने किया.

इस आयोजन में बड़ी संख्या में कवि, लेखक तथा साहित्य प्रेमी सम्मिलित हुए. कार्यक्रम दोपहर ढाई बजे से शाम सात बजे तक चला.

'सारांश समय का'कविता संकलन का संपादन बृजेश नीरज और अरुण अनंत ने किया है. इस संकलन में अस्सी रचनाकारों की बेहतरीन कविताएँ सम्मिलित हैं जिसकी सराहना अतिथियों ने की. लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने कविताओं के चयन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि यह संकलन हिन्दी साहित्य के लिए शुभ संकेत देता है. इसमें कई मुक्कमल कविताएँ हैँ. उन्होंने संकलन में सम्मिलित कई कविताओं का सस्वर पाठ कर रचनाकारों को प्रोत्साहित किया.

उन्होंने कहा कि १२५ करोड़ के देश में अगर ८० लाख लोग भी यदि कवि हो जाएँ तो समाज बेहतर हो जाएगा. कविता अभी संकट में है, कई विधाएँ लुप्त हो रही है उन पर भी काम होना चाहिए. वाचिक परम्परा समाप्त हो रही है, पहले एक शेर, एक कविता भी हलचल मचा देती थी. बिना साधन के जहाँ बिजली भी नहीं थी उस गाँव में भी कविता पढ़ी जाती थी. आज शब्दों की चाट परोसी जाती है. हिन्दी में मंच पर हल्के स्तर की कविताऐं कही जाती हैं. एक अलग ही तरह का गणित है. गम्भीर रचनाकारों ने मंच से दूरी बना ली है. साहित्य का विघटन हुआ है. साम्प्रदायिकता पैदा की गई है. इससे कविता को बड़ा नुकसान हुआ है. उर्दू में ये बंटवारा नहीं है, मंच से दूरी नहीं है. निदा फ़ाज़ली ग़ज़ल पढ़ने मस्कट भी जाते हैं.

मुख्य वक्ता अरुण कुमार भगत का कहना था कि कविता अणु से अनंत की यात्रा है. कविता की विशेषता और लिखने से पहले की रचनाकारों की संवेदनाओं के घनीभूत होने की आवश्यकता के बारे में उन्होंने विस्तार से चर्चा की. उन्होंने कहा कि कविता पाठक के सीधे ह्रदय तक पहुँचती है और हर पाठक अपनी तरह से उसकी अभिव्यंजना करता है. पाठक कविता के लिए तथ्य समाज से लेता है और स्वयं के साथ समाज को भी रचना के साथ जोड़ता है. कविता में जो असर और क्षमता है वह किसी अन्य विधा में नहीं है. कविता में जन समाज को आंदोलित करने की क्षमता है. स्वतंत्रता काल हो या आपातकाल कवियों ने अपनी लेखनी से समाज को झकझोरा भी और दिशा भी दी. समाज में व्याप्त संताप, पीड़ा, दुःख को कवियों ने बखूबी रेखांकित किया. उन्होंने कहा रचना सयास नहीं लिखी जाती है, ये उतरती है, माजिल होती है, प्रकट होती है. अपनी बात को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से जन-जीवन के कृष्णपक्ष को ही बड़ी संख्या में रेखांकित करने की परम्परा चल पड़ी है. देश और समाज में भोग गया यथार्थ इन रचनाओं में है पर अगर रचना को कालजयी करना है तो जीवन के शुक्लपक्ष को भी रेखांकित करना होगा.

रमणिका गुप्ता ने अपनी बात कहते हुए कहा आज जन सरोकार का चलन है उसी विषय को माध्यम बनाकर लिखा जाना चाहिए. लोगों तक आपकी बात पहुँचेगी, लोगों के विचारों में परिवर्तन आएगा. उन्होंने कहा मैं आदिवासीयों, पीड़ित दलितों और स्त्रियों के बीच उनके समस्याओं के निवारण के लिए लम्बे समय से काम कर रही हूँ आप भी इन सरोकारों को लेकर लिखें.

आयोजन दो सत्रों में चला. लोकार्पण सत्र में डॉ धनजंय सिंह, अतुल कुमार, लतांत प्रसून व संग्रह के सम्पादक द्वय ब्रिजेश नीरज और अरुन अनंत ने भी अपनी बात रखी.

लोकार्पण के बाद काव्य गोष्ठी में कवि और कवियत्रियों ने उत्साह के साथ अपनी प्रस्तुति दी. आयोजन की उपलब्धि रही कि हर विधा में रचना पढ़ी गयी. गीत, नवगीत, ग़ज़ल, घनाक्षरी, कुंडलिया, अतुकांत, पद्य की सभी प्रचलित विधाओं की रचनाएँ सुनी और सुनायी गईं. कार्यक्रम के अंत में किरण आर्या ने धन्यवाद ज्ञापन किया

मयंक श्रीवास्तव को नवगीतकार सम्मान

$
0
0
सम्मान प्राप्त करते भोपाल के वरिष्ठ कवि मयंक श्रीवास्तव जी 

जबलपुर :वरिष्ठ कवि मयंक श्रीवास्तव जीको उनके गीत संग्रह 'सहमा हुआ घर'के लिए जबलपुर (म प्र) की साहित्यक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था 'कादम्बरी'द्वारा स्व सरस्वती सिंह की स्मृति में 'नवगीतकार सम्मान'से अलंकृत किया गया। मयंक श्रीवास्तव जी को यह सम्मान 29 नवम्बर 2014 को आयोजित कादम्बरी के भव्य सम्मान समारोह में प्रज्ञानंद जी महाराज, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गिशरण मिश्र 'मराल'आदि ने प्रदान किया। उन्हें सम्मान स्वरुप 5000/- रुपये, शॉल-श्रीफल एवं सम्मान पत्र प्रदान किया गया। इस अवसर पर सर्वश्री निर्मल शुक्ल, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग', मधुप्रसाद, ज्ञानेन्द्र साज़, वंदना सक्सेना, रजनी मोरवाल, आनंद तिवारी आदि को भी सम्मानित किया गया। इस अवसर पर श्री सुरेन्द्र बाजपेयीउपस्थित नहीं हो सके, अतः उनका सम्मान पारसनाथ गोवर्धन जीको सौंप दिया गया। सम्मान समारोह के उपरांत कवि सम्मेलन रखा गया, जिसमें शहर और अन्य शहरों से पधारे रचनाकारों ने काव्य पाठ किया। 

"इस शहर में आजकल / हर शख्स सन्नाटा बुने /बन्धु अपने पाँव से कुछ आहटें पैदा करो"- ये चर्चित पंक्तियाँ लिखने वाले आदरणीय मयंक जी एक ऐसे रचनाकार हैं जो आज के कठियाये समय में भी आहटें- टकराहटें पैदा करने हेतु न केवल स्वयं प्रयासरत है बल्कि अपने सहयात्रियों का भी सस्नेह आवाहन कर रहे हैं। आपके गीत तो बोलते ही हैं, आपके गीत-संग्रह अपने शीर्षकों के माध्यम से भी बहुत कुछ कह देते हैं- 'सूरज दीप धरे'(गीत-संग्रह) उजाला और आनन्द का प्रतीक,'सहमा हुआ घर' (गीत-संग्रह) घर-परिवार के टूटते रिश्तों-संबंधों का शब्द-चित्रण,'इस शहर में आजकल'(गीत-संग्रह) शहरीकरण एवं वैश्वीकरण के दुष्प्रभावों की सटीक व्यंजना, 'उंगलियाँ उठती रहें' (गीत-संग्रह) फिर वही आहट-टकराहट की बात इस पीड़ा के साथ- "वही महल है वही संतरी/ बंदे वही मिले/ राजा बदला मिला मगर/ कारिन्दे वही मिले''। आपने 'प्रेस मेन'का कुशल संपादन किया। आपका जन्म उ.प्र. के आगरा जिले की तहसील फिरोजाबाद (अब जिला) के छोटे से गाँव 'ऊंदनी'में 11 अप्रेल 1942 को हुआ। वर्ष 1960 से माध्यमिक शिक्षा मंडल, म.प्र. भोपाल में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए दिसंबर 1999 में सहायक सचिव के पद से सेवानिवृत्त। वरिष्ठ गीतकार के रूप में आपको म प्र के महामहिम राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जा चुका है। म.प्र. लेखक संघ के 'हरिओम शरण चौबे गीतकार सम्मान', कला मंदिर द्वारा 'साहित्य प्रदीप'एवं अभिनव कला परिषद् द्वारा 'अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान'से भी आपको विभूषित किया जा चुका है।

Mayank Sreevastav ko Navgeetkar Samman

युवा स्वर : जितेन्द्र कुमार 'जौली'के दोहे

$
0
0
जितेन्द्र कुमार जौली 

मुरादाबाद में युवा साहित्यकारों में एक नाम बड़ी तेजी से उभरा है- जितेन्द्र कुमार 'जौली'। सहज एवं सौम्य जितेन्द्र जौली का जन्म 14 सितम्बर, 1987 को ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद (उ.प्र.) में हुआ। शिक्षा :बी.बी.ए, बी.एड., एम.कॉम., एम.एड., डिप्लोमा इन कम्प्यूटर एप्लीकेशन, सीटीईटी, यूपीटीईटी। लेखन की विधाएँ : हास्य कविताएँ, मुक्तक, व्यंग्य, कुण्डलिया, दोहे, पत्र-लेखन, गीत। आप वेब पत्रिका 'साहित्य मुरादाबाद'के संपादक हैं। प्रकाशन :कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित होने के साथ अमर उजाला, हिन्दुस्तान एवं दैनिक जागरण (मुरादाबाद) में पांच दर्जन से अधिक पत्र प्रकाशित।सम्मान : राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति द्वारा सारस्वत सम्मान, दैनिक जागरण मुरादाबाद द्वारा काव्य पाठ प्रतियोगिता में सम्मानित। फिल्मी सफर (वीसीडी) : यारा ढोल बजाके में लेखन एवं अभिनय, इंसाफ की आवाज- गीतकार, डम डमाडम डमरू वाले में नृत्य प्रस्तुत किया। संपर्क :कार्यालय - गांगन सेवा समिति, अम्बेडकर नगर, दिल्ली रोड, गांगन का पुल, मुरादाबाद - 244001 (उ.प्र.)। मोब : 0935885432, 09457576543

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
1.
छात्र आज नेता बने, मचा रहे उत्पात।
कैसे हो काबू भला, बेकाबू हालात।।

2.
इनकी हालत देख के, होता हमको कष्ट।
थाने चौकी अब हुए, सबसे ज्यादा भ्रष्ट।

3.
जब थाने के सामने, घर में घुसे दबंग।
पुलिस खड़ी यूं देखती, रहकर सदा अपंग।।

4.
यूं ही चूसा जा रहा, हम लोगो का खून।
दागी संसद में घुसे, बना रहे कानून।।

5.
रिश्वत के इस जाल में फँसा पड़ा है मुल्क।
रिश्वतखोरी बन गया, अब तो सुविधा शुल्क।।

6.
जिनसे कुछ आता नही, बनते हैं उस्ताद।
बात-बात पर हर कहीं, करते फिरें विवाद।।

7.
हम लोगों के साथ में, होता है नित खेल।
जो हक की खातिर लड़े, वही गये हैं जेल।।

8.
छोटों को अवसर मिले, रखलें अपना पक्ष।
इक छोटे से बीज से, बन जाता है वृक्ष।।

9.
बेकारी के दौर में, पढ़ा-लिखा पछताय।
अब तो अनपढ़ आदमी, इन्टरनेट चलाय॥

10.
जो अच्छा इंसान है, आता सबके काम।
वो ही मेरा कृष्ण है, वो ही मेरा राम॥

11.
हिंसा करनी छोड़ दे, कर तू सबसे प्यार।
बातों से है जो मरे, लात उसे मत मार॥

12.
तुम अपने माँ-बाप का, करो सदा सम्मान।
इनमें ही बसते सदा, दुनिया के भगवान॥

टीईटी पर कुछ दोहे :

13.
यूपी मे जबसे चली, हवा बड़ी ये सर्द।
टी ई टी ने कर दिया, सबके सिर में दर्द॥

14.
टी ई टी कानून की, पड़ी कई पर मार।
हाईकोर्ट दिखा दिया, इसने हमको यार॥

15.
जो शिक्षण के काम को, समझ रहे थे खेल।
टी ई टी मे हो गये, अच्छे-अच्छे फेल॥

16.
नित नये हैं दिख रहे, इसमे सबको खोट।
टी ई टी पर हो गये, खर्च बहुत ही नोट॥

17.
टी ई टी उपहार है, टी ई टी वरदान।
कठिन परिश्रम जो करे, देती उसको मान।

Couplets of Jitendra Kumar Jolly

'जनता दरबार'का भव्य लोकार्पण

$
0
0

पटना : पटना पुस्तक मेले के आखिरी दिन यानी 18 नवम्बर 2014 को परिसर में बने मुख्य मंच पर हिन्दी कथा-साहित्य की जगमगाती लम्बी कतार में ग्यारह कथाओं के एक संग्रह ‘‘जनता दरबार’’ का नाम भी जुड़ गया। विद्वान-साहित्यकारों एवं सुधी दर्शक-श्रोताओं की उपस्थिति में इस कथा-संग्रह को लोकार्पित किया भारतीय प्रशासनिक सेवा के संवेदनशील एवं सांस्कृतिक चेतना से लवरेज दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक एवं वर्तमान में बिहार सरकार के विज्ञान एवं प्रवैद्यिकी विभाग के प्रधान सचिव त्रिपुरारि शरण ने।

अपने सम्बोधन में श्री शरण ने कहा कि आज बिहार की संस्कृति और साहित्य का परिदृश्य उत्साहवर्द्धक नहीं है। लेखक हैं। पाठक भी हैं। परन्तु बिहार के लेखकों की पहचान नहीं है। इसका मुख्य कारण है रचनाकार एवं रचना का परिष्कार नहीं होना। सबसे बड़ी दिक्कत है कि हम वाद-विवाद की परम्परा को स्थान नहीं देते। साहित्य के उत्तरोत्तर विकास के लिए लगातार संवाद जारी रखने की जरूरत है। उन्होंने उदीयमान कथा-शिल्पी शंभु पी॰ सिंह को लेखन जारी रखने एवं लू शून को पढ़ने की सलाह देते हुए शुभकामना दी।

प्रख्यात आलोचक कर्मेन्दु शिशिर ने कहा कि ‘जनता दरबार’के कथाकार नवोदित हैं पर वाद रहित। इनकी कहानियां कथा साहित्य के फ्रेम में भले न अंटती हों पर पाठकों के मर्म को जरूर स्पर्श करती है। शिल्प भले अनगढ़ हों पर कथाकार की कलम ईमानदार है, इसमें कोई शक-सुबहा की गुंजाइश नहीं। कथाकार-पत्रकार अवधेश प्रीत ने कहा कि शंभु पी सिंह के ‘जनता दरबार’ की पहली कहानी ‘एक्सीडेंट’ को प्रकाशित करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त है। यह कहानी मानवीय मूल्य एवं साम्प्रदायिक सौहार्द पर आधारित है। ‘जनता दरबार’ की कहानियां समाज के यथार्थ को उजागर करती है। कहानी की निर्धारित आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं करने पर भी ये कहानियां पाठक से सीधा संवाद करती है। 

पटना दूरदर्शन के निदेशक पी॰एन॰ सिंह ने ‘जनता दरबार’ के परिपेक्ष्य में सहज और सरल लेखन की चर्चा करते हुए विश्वस्तर के कथाकारों का उदाहरण पेश किया। उन्होंने कहा कि सरल भाषा में सहज विषयों पर लिखी गयी रचनाएं ही कामयाब हुई है। गंभीर एवं दुरुहतापूर्ण बहुत कम। उन्होंने काफ्का एवं दोतोवस्की का उदाहरण देते हुए लेखक शंभु पी सिंह को उनसे सीखने की सलाह दी तथा भविष्य में लेखन को परिमार्जित करते हुए जारी रखने की सलाह दी। विलम्ब से पहुंचे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रो अरुण कमल दरबारी व्यवस्था पर चोट करते हुए कहा कि सरकारी दरबार से छुट्टी पाकर ‘जनता दरबार’ के लिए आया हूँ। मैंने कहानी संग्रह पढ़ा नहीं है इसलिए कहानी पर बोलना ठीक नहीं। हां कहानीकार को बधाई देता हूँ। 

समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर मदन कश्यप ने कथाकार शंभु पी सिंह को शुभकामनाएं दीं। उन्होंने कहा कि उनकी कहानियों से वह नहीं गुजरे है। इसलिए उसपर कुछ कहना नहीं चाहेंगे। वैसे वह कविता के आदमी है कहानी पर बोलने में किताब पढ़ने की जरूरत है। कवि मुकेश प्रत्यूष ने शंभु पी सिंह की कई कहानियों की चर्चा की तथा उनको पठनीय बताया। उन्होंने शुभकामना देते हुए अगला संग्रह शीघ्र देने का कथाकार से आग्रह किया। कथाकार प्रो॰ शिवनारायण ने शंभु पी सिंह के कथा संग्रह ‘जनता दरबार’ की चर्चा करते हुए कहानियों को सरल एवं सम्प्रेषणीय बताया। उन्होंने कहा कि शिल्प की चहारदीवारी लांघकर बाहर आने पर भी कहानियां सहजता से दिल में उतरकर जगह बनाती है।‘जनता दरबार’ के कथाकार शंभु पी सिंह ने अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि आस-पास और सामने घटी घटनाओं ने उन्हें कथा लेखन को प्रेरित किया। मैंने कभी सोचा नहीं था कि कथा लेखक के रूप में भी सफर तय करूंगा। दृश्य माध्यम की सेवा में रहने से चीखों और घटनाओं को करीब से देखने-परखने का मौका मिला यह भी लेखन में उत्प्रेरक बना। श्री सिंह ने साफ कहा कि वह कथा सृजन का ककहरा भी नहीं जानते। जो देखा, महसूस किया उसे शब्दों में पिरो डाला। मैं न किसी वाद से जुड़ा हँू और न साहित्य के किसी खेमे से।

मंच को अपनी बुलंद एवं शायराना आवाज में संचालित किया शायर कासिम खुर्शीद ने। वक्ताओं को सादर आमंत्रित करने के पूर्व कथाकार एवं कहानियों से उन्हे जोड़ते हुए तथा उनके वक्तव्यों पर सार्थक अभियुक्ति देते हुए श्री कासिम ने श्रोताओं को भी मंच से बांधे रखा

दिव्या माथुर के उपन्यास 'शाम भर बातें'का लोकार्पण

$
0
0
बाएँ से दाएं: भगवान श्रीवास्तव 'बेदाग़', नरेश शांडिल्य, दिव्या माथुर, 
असगर वजाहत, कृष्णदत्त पालीवाल, कमल किशोर गोयनका, अजय नावरिया, 
लीलाधर मंडलोई, अनिल जोशी, अलका सिन्हा एवं प्रेम जन्मेजय

दिल्ली : 26 नवंबर, 2014, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्सी. अक्षरम और वाणी प्रकाशन के एक संयुक्त आयोजन में ब्रिटेन की लेखिका, दिव्या माथुर, के उपन्यास 'शाम भर बातें'का लोकार्पण बड़ी धूमधाम के साथ संपन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता विख्यात हिंदी लेखक, शिक्षाविद, भाषाविद एवं प्रेमचंद मर्मज्ञ डॉ कमल किशोर गोयनका, केन्द्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष, ने की और लोकार्पण भारतीय ज्ञानपीठ के निर्देशक डा लीलाधर मंडलोई ने। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे प्रसिद्ध नाटककार और लेखक प्रोफेसर असगर वजाहत, सान्निध्य मिला डा कृष्ण दत्त पालीवाल का. वक्ता थे डॉ प्रेम जनमेजय, लेखक एवं व्यंगयात्रा के सम्पादक; अनिल जोशी, प्रवासी दुनिया के सम्पादक और लेखक; एवं अजय नावरिया, लेखक और जामिला मिलिया इस्लामिया में हिन्दी के प्राध्यापक। युवा अभिनेता संकल्प जोशी ने उपन्यास के अंश का नाट्य पाठ पूरे उतार-चढ़ाव के साथ किया। जानी मानी लेखिका अलका सिन्हा का संचालन उत्कृष्ट रहा। यह कार्यक्रम वातायन साहित्य संस्था-लन्दन एवं प्रवासी दुनिया के सौजन्य से संपन्न हुआ।

अपने वक्तव्य में डा प्रेम जनमेजय ने कहा कि दिव्या जी की भाषा में विविधता है, प्रत्येक पात्र के अनुसार भाषा और चरित्र चित्रण किया गया है। भारतीय उच्चायोगों और दूतावासों के क्रिया कलापों पर उनकी टिप्पणी तल्ख़ है। उनकी आब्सरवेशन-पावर बहुत प्रभावी है। अजय नावरिया ने कहा कि यह उपन्यास एक विनोदपूर्ण ट्रेजडी है किन्तु यह केवल ऊपर से विनोदपूर्ण है; उसके भीतर एक व्यथा कथा है। इसमें व्यक्ति मनोविज्ञान का कुशल चित्रण है और दिव्या जी ने पुरूषों की मानसिकता का बड़ा सटीक चित्रण किया है। 

डा कृष्ण दत्त पालीवाल ने कहा कि उन्होंने उपन्यास पर केवल एक सरसरी दृष्टि डाली है किन्तु उनके विचार में इसमें कोई बौद्धिक चिंतन नहीं है; केवल सपाटबयानी है किन्तु डा असगर वजाहत ने पालीवाल जी से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि जीवन स्वयं अपने आप में विमर्श है; कोई भी लेखक को यह नहीं बता सकता कि वह क्या लिखे, कैसे लिखे। दिव्या जी के विमर्शों को देखने के लिए सही आँख चाहिए. डा लीलाधर मंडलोई ने भी डा पालीवाल से असहमति प्रकट की और कहा कि यह उपन्यास बदलाव का दस्तावेज़ है। अगर लेखक पालीवाल जी के सुझाव मानना तो यह उपन्यास दो कौड़ी का होता। उन्होंने कहा कि दिल्ली के उच्च वर्ग में भी वही स्थितियां हैं जो कि इस उपन्यास में वर्णित की गयी हैं; यहां की फार्म हाउस की पार्टियां भी ऐसी ही होती हैं। कथावस्तु के मानदंडों में अंतर आ चुका है जैसे कि विनोद शुक्ल की नौकर की कमीज़ आदि कहानियां कथा तत्व के रूढ़िवादी ढांचे से बाहर हैं। 

अनिल जोशी ने कहा कि कथात्तत्व की अवधारणाएं बदल चुकी हैं। उपन्यास के केन्द्र में समूचा प्रवासी समाज है। लेखिका की व्यक्ति मनोविज्ञान व सामाजिक मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ है। उन्होंने प्रवासी समाज के विभिन्न वर्गों को प्रामाणिक और प्रभावी चित्रण किया है। दिव्या माथुर प्रयोगधर्मी उपन्यासकार है। उनकी कहानी 'पंगा'ऐसा ही एक सार्थक प्रयोग है। इसी क्रम में 'शाम भर बातें'एक आस्कर विजेता फिल्म की तरह लगता है। दिव्या जी ने सामाजिक, पारिवारिक जीवन, हिंदी की समस्या, नस्लवाद, संस्कृति का खोखलापन, भारतीय दूतावास के अधिकारी, टूटते हुए परिवार इत्याति बहुत सी समस्याओं को उकेरा है। अभिमन्यु अनत की कहानी 'मातमपुर्सी'का ज़िक्र करते हुए डा गोयनका ने बताया कि प्रेमचंद की कहानियों में भी प्रवासी जीवन का चित्रण रहा है। 'नीली डायरी'का उद्धरण देते हुए, उन्होंने दिव्या जी की सृजनात्मक क्षमता की प्रशंसा। 

इंडिया इन्टरनैशनल सेंटर के खचाखच भरे हौल में विदेश से आए हुए बहुत से मेहमान भी सम्मलित थे - डा अचला शर्मा, सुभाष और इंदिरा आनंद, कमला दत्त, अरुण सब्बरवाल, जय और महीपाल वर्मा एवं जय विश्वादेवा। विशिष्ट अतिथियों में शामिल थे श्री वीरेन्द्र गुप्ता, सु. पद्मजा, नासिरा शर्मा, हरजेन्द्र चौधुरी, रमा पांडे, अमरनाथ वर्मा, शाहीना ख़ान, सीतेश आलोक, नरेश शांडिल्य, सीतेश आलोक इत्यादि।



शलभ प्रकाशन की पुस्तकों का लोकार्पण

$
0
0


दिल्ली : साहित्य अकादमी'दिल्ली के सभागार में 'शलभ प्रकाशन'द्वारा 6 दिसंबर 2014 को 'अतीत के पाँव' (गीत संग्रह- मदन शलभ), 'मुमकिन तो है' ( ग़ज़ल संकलन - मदन शलभ, प्रवीण पंडित, गीता पंडित), 'गली गंवारिन' (कहानी संग्रह- प्रवीण पंडित), 'अब और नहीं बस' (नवगीत संग्रह -गीता पंडित) की पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। 

कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी साहित्य की चर्चित लेखिका पुष्पा मैत्रेयी ने की । मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद प्रख्यात शायर व कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, मुख्य वक्ता विजय किशोर मानव (सुपरिचित गीतकार) एंव विवेक मिश्र (सुपरिचित कथाकार) ने इन पुस्तकों पर अपने- अपने विचार रखे। 

इस मौके पर पुष्पा मैत्रेयी ने किताबों पर चर्चा करते हुए एक स्त्री ( गीता पंडित ) का प्रकाशन के क्षेत्र में आने को विशेष रूप से सराहा। कथाकार विवेक मिश्र ने प्रवीण पंडित के कहानी संग्रह गली गंवारिन पर चर्चा करते हुए कहा कि ये कहानियाँ मौलिक कहानियां हैं। पात्रों का चयन और प्रस्तुति बिलकुल जमीन से जुडी हुई है। गीतकार विजय किशोर मानव ने गीत और नवगीत की प्रासंगिकता को बेहद ही सारगर्भित तरीके से ज़ाहिर किया। और इस गद्यात्मक समय में गीत-नवगीत लिखने पर गीता पंडित की सराहना की। हिन्दी साहित्य में विशेष रूप से कविता में कम होती लोगों की रूचि, व कविता में थोड़ी सी कविताई की महत्ता पर भी अपनी बात रखी। शायर व कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने मदन शलभ की लिखी गजलों को कहने के साथ-साथ उन तत्वों पर भी प्रकाश डाला जो आजकल हिन्दी साहित्य से गायब होते जा रहे हैं। 

प्रवीण पंडित और गीता पंडित ने भी अपने लेखन के उद्देश्य की सार्थकता से लोगों को अवगत कराया। कार्यक्रम का संचालन सईद अय्यूब ने बेहद ही औचारिक तरीके से किया। कार्यक्रम को इस लिहाज़ से काफी महत्वपूर्ण रहा कि इसमें गजल, गीत, नवगीत और कहानियों पर एक साथ चर्चा हुई। 

डॉ सी एल खत्री की कविता 'टू मिनट साइलेंस'पर व्याख्यान

$
0
0
व्याख्यान देते डॉ सुधीर कुमार अरोड़ा 

मुरादाबाद : 20 दिसंबर 2014: महाराजा हरिश्चन्द्र पीजी कालेज के अंग्रेजी विभाग में डॉ सीएल खत्री की कविता 'टू मिनट साईलेंस’ पर एक दिवसीय व्याख्यान का भव्य आयोजन किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ डॉ मधुबाला सक्सैना, डॉ विशेष गुप्ता एवं डॉ अवनीश सिंह चैहान द्वारा माँ सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण से हुआ।
प्रतिभागी छात्रों को सम्मानित करते डॉ विशेष गुप्ता,
डॉ मधुवाला सक्सैना एवं डॉ अवनीश सिंह चौहान 


मंच पर डॉ विशेष गुप्ता एवं डॉ मधुवाला सक्सैना
एक दिवसीय व्याख्यान का विषय प्रस्तुत करते हुए ऋचा शर्माने खत्री जी की कविता पर विचार रखने के लिये उपस्थित प्राध्यापकगण एवं छात्रों को आमंत्रित किया। कॉलेज के विद्वान प्राध्यापक डॉ सुधीर कुमार अरोराने सीएल खत्री की कविता का विस्तृत विश्लेषण करते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए इस कविता में समाज का एक सुन्दर मॉडल प्रस्तुत किया गया है, जिसमें प्रत्येक भारतीय को आगे बढ़कर अपना योगदान देना चाहिए। तदुपरांत मुज्जिमल जी ने खत्री जी की कविता का उर्दू अनुवाद व आतिफ सुजादने डॉ सुधीर अरोड़ा द्वारा हिन्दी में अनुवादित कविता को विधिवत प्रस्तुत किया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कॉलेज के चीफ प्रॉक्टर डॉ विशेष गुप्ताने समाज, संस्कृति एवं साहित्य पर पुर्नमंथन की आवश्यकता पर बल दिया।कार्यक्रम में आमंत्रित विषय विशेषज्ञ डॉ अवनीश सिंह चैहानने कहा कि डॉ सीएल खत्री की कविता बदलते मूल्यों के साथ भारतीय पराम्पराओं के टूटने और असंयमित आधुनिक जीवन शैली के दुष्परिणामों पर प्रकाश डालती है।अंग्रेजी विभाग की अध्यक्षा आदरणीया डॉ मधुबाला सक्सैनाने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि भारतीय अंग्रेजी साहित्य के समकालीन कवियों का विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना एक अच्छी पहल के रूप में देखा जा सकता है।
डॉ शुभ्रा गुप्ता मंच संचालन करते हुए 

इस अवसर पर विभाग के छात्रों - उज़मा नाज़, युसरा कामरान, तानिया राजपूत, फतेह ताज, जौहा, गौरवआदि ने भी उक्त कविता पर अपने मौलिक विचार रखे।

इस अवसर पर 100 से अधिक छात्र-छात्राओं सहित अनेक प्रध्यापक एवं प्राध्यापिकाओं, जिनमें डॉ नरेन्द्र सिंह, डॉ रविश कुमार, डॉ मनीष भट्ट, डॉ मुकेश चन्द्र गुप्ता, डॉ प्रियंका गुप्ता, डॉ सुषमा गुप्ता, डॉ संगीता गुप्ता, डॉ मीना गुप्ता, डॉ असमा अजीज, डॉ इन्द्रा कश्यप, शीबा, शमा आदि उपस्थित रहे। मंच का संचालन डॉ शुभ्रा गुप्ताने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन डॉ मधुबाला सक्सैनाने किया ।


'टू मिनट साईलेंस’ : अनुवादक - डॉ सुधीर अरोड़ा 
 Two-Minute Silence by Dr C L Khatri

मेरेदेशकीबहनोंऔरभाईयों
आइऐे
दोमिनटकामौन रखे
उनटूटेहुएमाइक्रोफोनकेलिये
संसदकीउनटूटीहुईकुर्सियोंकेलिये
संविधानकेफटेहुएपन्नोकेलिये
आइऐ
दोमिनटकोमौन रखें

मेरेदेशकीसभीमाताओंऔरपिताओं
आइऐ
दोमिनटकामौन रखें
आपसभीकीकाव्यात्मकमृत्युपर
आपकेडरकेसहमजानेपर
आपकेवायदोंऔरमूल्योंकेसम्मानकीमृत्युपर
आइऐ
दोमिनटकामौन रखें

मेरीदेशकीसभीभद्रमहिलाओंऔरपुरूषों
आइऐ
दोमिनटकामौन रखें
परम्पारिकघोतीकेगुमहोजानेपर
सम्मानितपगड़ीकेगिरजानेपर
बैलोंऔरकुलियोंकेगायबहोजानेपर
पहियोंकेआनेसे
हाथोंकेकटजानेपर
टांगोकेलगड़ानेपर
आइऐ
दोमिनटकामौन रखें

मेरेसाथआइऐ
मित्रों
दोमिनटमौन रखें
इसनयीसंस्कृतिकेलिये
जोनामसेमहानहै
वहारसेशानदारहैं
इसशताब्दीकेलिये
जोअपनेबड़े-बड़ेवायदोकेलिये
शानदारसेभीज्यादाशानदारसीलगतीहै

आइए,
दोमिनटकामौन रखें
अंतरिक्षकेसिकुड़नेपर
सूर्यकेसिकुड़नेपर
पवित्रनदियोंकेजलके मैलाहोजानेपर
चिड़ियोंकाचिरनिद्रामेंसोजानेपर
पत्तियोंकेलियेपतझड़  होजानेपर
भाईयोंकेझगड़ोकेबीच
तरबूजकेटुकड़े-टुकड़ेहोजानेपर
आइऐ
दोमिनटकामौन रखें

इतनेमेंकोईजल्दीसे 
मेरेकानोंमेंफुसफुसाताहै
क्याऐसानहींहोसकताकि
हमदोमिनटकेबजाय
एकहीमिनटकामौन रखें !

      
Sisters and brothers of India
Let’s observe two-minute silence
On the uprooted microphone
On the broken chair in the parliament
On the torn pages of the constitution.

Mothers and Fathers of India
Let’s observe two-minute silence
On your death, on the death
Of your fear and deference
To your vows and values.

Ladies and gentlemen of India
Let’s observe two-minute silence
On the death of dhoti and pugadi
Oxen and coolies replaced by wheels
Chopped up hands and lame legs.

Friends, stand with me
To observe two-minute silence
On this great grand culture
On this glorious century
On its great promises.

Let’s observe two-minute silence
On the shrinking space, shrinking sun
Stinking water of the sacred rivers
Sleeping birds, falling leaves
Watermelon being sliced for quarreling cousins.

Someone whispered in my ear
Can’t we do with one minute…?

(‘Two-Minute Silence’ from Two Minute Silence 67-68)

Dr C L Khatri




दैनिक जागरण, मुरादाबाद, 21 दिसंबर 2014, पृ 06 


समीक्षा : कस्बाई अंचल और भाषा की नई शक्तियां - वीरेन्द्र आस्तिक

$
0
0
कृति : संवेदन के बस्ते 
गीतकवि : कृष्णमोहन अम्भोज 
प्रकाशक : नर्मदा प्रकाशन, पचोर (म.प्र.)
मूल्य : 75/-, पृष्ठ : 100/-, वर्ष : 2013 


आजकल जब अनेक गीत-कृतियों की विषयवस्तु और उनकी कहन पद्धतियों पर विचार करते हैं तो उनमें विविधता के बजाय समानता अधिक देखने को मिलती है। विगत में कई नवगीत पुस्तकों की समीक्षा करते हुए, कॉमन कथ्य ओर कॉमन लय पर प्रश्न उठाया था हमने। ऐसा क्यों होता है, इसका सीधा सा अर्थ यही है कि रचनाकार कथ्य और भाषा की नई जमीन को तोड़ने का खतरा उठाना नही चाहता हैं फिर मुजी-मंजाई से न तो मौलिकता की सुगन्ध आती है ओर न ही कोई संप्रेषणीय कुतूहल। कहना यह भी आवश्यक है कि भाषाई लय के घूर्णन से कलात्मकता के स्तर पर शैल्पिक वैशिष्ट्य तो मजबूत होता है, लेकिन यही मजबूती प्रायः यथार्थगत ईमानदारी को गिरा देती है। अतः हमें कलात्मक आग्रहों से सतर्क होते हुए और सपाटबयानी आदि से बचते हुए यथार्थ के धरातल पर लयात्मक भाषा की नई शक्तियों की खोज करनी होगी। इस चुनौती भरे कार्य का एक उपाय यह हो सकता है कि रचनाकार अपनी परिवेशगत मानसिकता से बाहर निकलकर समाज के भिन्न ओैर दूरान्त इलाकों को अपना कार्यक्षेत्र बनाए। उसका भोक्ता बनें।

उपरिकथित विचार मेरे जेहन में तब आए जब मुझे नवगीत पुस्तक 'संवेदन के बस्ते'से गुजरने का अवसर मिला। पुस्तक के रचनाकार हैं श्री कृष्ण मेाहन अम्भेाजजो ग्रामीण ओैर कस्बाई अंचलवासी है।

कृति भाषा की एक स्वाभाविक-सी नवीनता से हमारी पहचान कराती हैं। कवि की अभिव्यक्ति में समकालीन आग्रहों का प्रभाव तो दिखता है वह न्यूनतम रुप में। शायद तभी वह अपने आसपास के सामयिक और सामाजिक सरोकारों की प्रचलित भाषा का नया मुहावरा पकड़ सका है।

श्री अम्भोज ने व्यवस्था के वास्तविक चरित्र को गहराई से समझने का यत्न किया है। इसका प्रमाण है उनके नवगीत। इन नवगीतों में घर, गाँव, शहर , श्रम-श्रमिक, गरीबी-अमीरी मंहगाई आदि के आपसी संबंधो और नाते-रिश्तों की अलग-अलग ढ़ग से अभिव्यंजना हुई और अनेक बार हुई है। उनका कहना सही है कि संवेदना जहां नही होती वहां निरंकुशता पैदा होती है। तब पूरी व्यवस्था एक चारागाह बन जाती है। मनरेगा जैसे योजना भी षोषण का षिकार हो जाती है। समाज जिसकी लाठी उसकी भैंस के रुप में चरितार्थ होता है। लोग ईश्वर से डरते नहीं क्यों कि उनके लिए ईश्वर मर गया होता है। (पृष्ठ 10) राजा यदि अंधा है अर्थात प्रतिभा संपन्न नही है तो समाज की आँखेों पर स्वतः पट्टी बँध जाती है। बुद्धिजीवी अधार्मिक, अनैतिक परिवेष में ऐसे छटपटाते हैं जैसे विदुर कौरवों की बींच :

मिल रहे संकेत
होनी है
कुरुक्षेत्र की तैयारी 
बाँध रही आँखों पर पट्टी 
गांधारी-सी समझ हमारी
बेचारे कुछ युग दृष्ठा अब,
औचक खडे़ विदुर से। (पृष्ठ 11)

समाज के ऐसे अरण्य में कवि अकेला सेवेदना का पर्याय है।

एक दूसरी विशेषता की तरफ संकेत करना चाहूँगा। कवि जब रचना में सच्ची भावना को जीता है, अभिव्यक्ति में ईमानदारी की प्रतीती होती है। जीवन की कैसी भी द्वंद्वात्मक स्थितियां हों। सत्य सत्याभास हो। कवि की विवेकजन्य संवेदना मानवीय पक्ष को ही प्रकाशित करेगी। तात्पर्य ये कि अम्भेाज का कविकर्म निर्णायकबोधी है।

उन विकट स्थितियों में भी : 'जब दीवारों में कानाफूसी / मन देहरी का आहत है / तवे की तेरी / हाथ की मेरी / घर-घर रोज कहावत है / दिशाभ्रम हो गया समझ को / आँगन टेढें लगतें है / मुट्ठी की कीमत याद हमें / फिर बंद कहाँ रखते है / अलगाँवों की / जंजीरों से / बँधी-बँधी सी चाहत है।'बंधन भी जंजीर है तो अलगाव भी, क्योंकि अलगाव में भी बँधने की चाहत अभी शेष है।

पुस्तक के अनेक स्थलों पर बाजार चरित्र अभिव्यक्त हुआ है। रिश्तों का अजनबी होना बाजार की ही देन है। बाजारवाद जो व्यवस्था का एक अंग बन गया हैं। जब चरम पर होता हैं तब आदमी की आत्मा मर जाती है। संवेदना सूखकर पत्ते की तरह झर जाती हैं। बाजारवाद मुखैाटा का खेल है। आत्मा संवेदना न जाने कहां दब गई होती है। कवि व्यवस्था के इस तिलिस्म को जान चुका है। दूसरों को गैरो को ठगने में व्यक्ति स्वंय को भी ठग रहा है : 'चीजें जिन्दा है- व्यक्ति मर चुका है/ भूल गए हम / असली सूरत / मुख आवरण लगा / ओरों से ज्यादा हमने तो खुद को खूब ठगा।' (पृष्ठ 39) बाजारवाद मँहगाई का दूसरा नाम है। कवि उसे अजगर की दाढ़ कहता है क्योंकि बाजार सबसे पहले गरीब को ही निगलता है। ऐसा बाजार तंत्र प्रत्येक घर में घुसकर विखण्डन पैदा कर रहा हैं। विषेश यह कि यहां तक कवि समकालीन रचनाकारों की तरह भूमंडलीकरण की अवधारणा से नहीं, उसके परोक्ष्य प्रभाववश पहुँच पाया है। 

'घर के हिस्से तो सीमित पर / मन के अनगिन हिस्से हैं /शिकवे-गिले तो अनसुलझें से / बैतालों के किस्से हैं / अब शब्दों की अर्थो से ही / लो होने लगी बगावत है।'अर्थात सिद्धांत और व्याख्याएं तो झूठ में बदल चुकी हैं। इन सबको ध्वस्त करके शब्दों के नयें अर्थ तलासने होंगे। जॉक्स देरीदा का यही विखण्डनवाद है।

प्रेम और जीवन का अन्योन्याश्रित संबंध है। इस पवित्र संबंध पर भी कुछ रचनाए हैं। कुछ में युगीन त्रासदी भी व्यंजित हुई है। लोग तो विचारों की कैद से ऊबकर नैसर्गिकता में जीना चाहतें है। (पृष्ठ 87) किन्तु जीने के सारे मापदण्ड जहाँ धुंधला गए हों, वहाँ ढाई आखर के मर्म का विस्मृत हो जाना जीवन की सबसे बड़ी पराजय है। 'भूले दर्पण लिखना'में कवि का श्रेष्टतम मानसिक व्यापार व्यक्त हुआ है- एक तरफ पीड़ा व्यंग्यात्मक बोध है तो दूसरी तरफ दार्शनिक भाव की गहराई भी :

सच पूछो तो / ढाई आक्षर / भूल गया मन लिखना
इतनी पर्तें चढी पर / भूले दर्पण लिखना। (पृष्ठ 96)

कहना चाहूँगा, संग्रह मे नई कथन, नये कथ्य की खनक सर्वत्र विद्यमान हैं किन्तु इन्हे साधने मे कही-कही लय खुरदूरी हुई हैं। इस पर विचार करना होगा। वेसे बिना किसी चमत्कार के युगल बंधियों, मुहावरों और सूक्त वाक्यों के प्रयोग भी कुछ नही, जैसे बादल-सी छतें, आग चूल्हे की जा बैठी हैं पेट में, फूलो में फाग आने कि बात, शब्द डरते से मिले, पसीना मात का टीका, मरहम भी नासूर, नोन लगी बातें, समझ को मोतियां बिन्द, एक जांघ उघारे दूजी ढांके, आदि। समय अनेक प्रकार से व्यंजित हुआ है - समय बदचलन, समय के सुई-धागें, चुभा समय कील की तरह। इसी प्रकार तूकान्तों के नए प्रयोग हुए हैं किन्तु प्रचलित तूकान्त भी भाषा में नई सोच लेकर आए हैं । कुल अर्थ यही कि संक्षिप्त रूपाकार में अन्विति का निर्वाह हुआ हैं। 

शुरूआत में एक संकेत किया गया था, भाषा की नवीनता का, किन्तु यहां कृति अपने पीछें अनेक प्रश्न छोड़ रही है। मसलन संवेदन के बस्ते की अति साधारण साज-सज्जा। प्रश्न उठता हैं, यदि पुस्तक का कलेवर साधारण है। तो क्या उसकी पठनियता भी प्रभावित होती हैं? प्रायः सुनने मे आता है। कि ऐसी कृतियों को समीक्षक आलोचक एक किनारें सरका देते है। पुस्तक से जुड़ा दूसरा प्रश्न है - रचनाकार की आर्थिक स्थिति का, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है, उसके संकल्पित मन का जो पचोर (राजगढ़) म.प्र. जैसे कस्बाई इलाके मे पुस्तक को छपवा लेता है। अभ्भोज जी से पूछने पर पता चला कि कुल 250 प्रतियां ही छपी है। अर्थात वितरण भी सीमित है। ऐसे रचनाकार जो कथित समकालीनता के प्रभाव क्षेत्र से दूर गांवों में है और जो संमय को अपने नजरिये से देख रहें है, उनके रचना कर्म मे जो मौलिक सुगंध मिलती है। क्या उसका अभाव नही दिखता है शहरी समकालीन रचना कर्म में? इतने सारे मुद्दों पर विचार-विमर्श करने को यह कृति आमंत्रित करती है सुधी पाठकों और बुद्धिजीवियों को।

इस दृष्टि से हिन्दी काव्य जगत में इस कृति की और इसके कवि श्री कृष्णमोहन अम्भोज की पहचान बननी चाहिए। विश्वास है कि साहित्य समाज में'संवेदन के बस्ते'का स्वागत होगा।






समीक्षक : 
वीरेन्द्र आस्तिक
एल- 60, गंगाविहार
कानपुर - 208010

लघुकथा : अंतर -डॉ. विजेन्‍द्र प्रताप‍ सिंह

$
0
0
डॉ. विजेन्‍द्र प्रताप‍ सिंह


टूटा फूटा जर्जर घर, दुर्बल परंतु जुझारू प्रकृति वाला गृहस्‍वामी, अपर्याप्‍त साड़ी में किसी तरह अपने शरीर को ढंके हुए हडिडयों का ढांचा सी दिखाई देने वाली गृहस्‍वामिनी और आठ बच्‍चे । किसी तरह जीने की चाह में जिंदगी को घसीटते हुए। गृहस्‍वामी का जुझारूपन एवं गृहस्‍वामिनी का सहयोग रंग लाया । हालातों से जुझते हुए दोनों के द्वारा बच्‍चों को पालते, पोशते यथाशक्ति पढ़ाते-लिखाते समय गुजरता गया और हालात में परिवर्तन हुआ परंतु बहुत शनै: शनै:। इतनी धीमी गति के बावजूद दोनों कब बुढ़ापे की दुनिया में पहुंच गए पता न चला और न कभी दोनों के इस संबंध में सोचने का अवसर त‍क प्राप्‍त हुआ। जिस तरह भी हो, बच्‍चे कुछ पढ़े लिखे, कुछ को नौकरी मिली तो कुछ ने छोटा-मोटा व्‍यवसाय कर अपने आप को व्‍यवस्थित एवं स्‍थापित करने में सफलता प्राप्‍त की । सबने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार अपने आशियाने बनाए और अपनी-अपनी दुनिया में रम गए।

गृहस्‍वामी एवं गृहस्‍वामिनी को प्रारंभ से ही उनकी जिंदगी, बचपन में दादी मॉं द्वारा सुनाई गई ने चिड़ा और चिडि़या की कहानी जैसी ही लगती जिंदगी, परंतु दोनों अक्‍सर यह भी सोचा करते थे कि वे दोनों पक्षी नहीं इंसान हैं और इंसान की योनि को सर्वश्रेष्‍ठ माना गया है जो हाल अक्‍सर चिड़ा और चिडि़या का होता है उनका नहीं होगा। जिस समाज में वे जीते थे उसकी कुछ अपेक्षाएं थी उनसे और उसी के अनुरूप उनकी भी कुछ अपेक्षाएं थीं अपने परिंदों से। यूं कहें कि उन्‍हें अपनी परवरिश और मेहनत पर कुछ ज्‍यादा ही भरोसा था तो गलत न होगा। उनकी सोच और विश्‍वास उस दिन पूरी तरह से टूटे जब सबसे छोटा बच्‍चे ने भी एक दिन दोनों के पैर छूते हुए अच्‍छी जिंदगी जीने का आशीर्वाद लिया और चला गया।
- डॉ.विजेन्‍द्र प्रताप‍ सिंह
सहायक प्रोफसर(हिंदी)
राजकीय स्‍नातकोत्‍तर महाविद्यालय
जलेसर,एटा, उत्‍तर प्रदेश, पिन-२०७३०२

कहानीः अंतर्व्यथा - दिनेश पालीवाल

$
0
0
दिनेश पालीवाल 

३१ जनवरी १९४५ को जनपद इटावा (उ.प्र.) के ग्राम सरसई नावर में जन्मे दिनेश पालीवाल जी सेवानिवृत्ति के बाद इटावा में स्वतंत्र लेखन  कर रहे हैं। आप गहन मानवीय संवेदना के सुप्रिसिद्ध कथाकार हैं । आपकी ५०० से अधिक कहानियां, १५० से अधिक बालकथाएं, उपन्यास, सामाजिक व्यंग, आलेख आदि  प्रितिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। दुश्मन, दूसरा आदमी , पराए शहर में, भीतर का सच, ढलते सूरज का अँधेरा , अखंडित इन्द्रधनुष, गूंगे हाशिए, तोताचश्म, बिजूखा, कुछ बेमतलब लोग, बूढ़े वृक्ष का दर्द, यह भी सच है, दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की, रुका हुआ फैसला, एक अच्छी सी लड़की (सभी कहानी संग्रह) और जो हो रहा है, पत्थर प्रश्नों के बीच, सबसे खतरनाक आदमी, वे हम और वह, कमीना, हीरोइन की खोज, उसके साथ सफ़र, एक ख़त एक कहानी, बिखरा हुआ घोंसला (सभी उपन्यास) अभी तक आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। आप कई सम्मानों से अलंकृत। संपर्क: राधाकृष्ण भवन, चौगुर्जी, इटावा (उ.प्र.)। संपर्कभाष: ०९४११२३८५५५। यहाँ पर आपकी एक कहानी दी जा रही है-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

अंतर्व्यथा 

जिन दुखों के चेहरे नहीं होते वही हम सबके लिए अक्सर जानलेवा सिद्ध होते हैं। वे जीवन भर बेचैन रहे। एक बदहवास आदमी की तरह जिए। देश, समाज और अपने जीवन के वर्तमान से पूरी तरह असंतुष्ट। प्रतिकूल परिस्थितियों से हर वक्त जूझते हुए। उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच कर ठहरे हुए जहां न कुछ बदला जा सकता है, न कुछ नया करने का हौसला जुटाया जा सकता है। किया जा सकता है तो सिर्फ मौत का इंतजार। बस किसी तरह दिन को रात, और रात को दिन में बदलते हुए चुपचाप देखना और सहना। हर वक्त एक अंतहीन प्रतीक्षा कि कोई आए और उनकी सुने। उनकी व्यथा, उनकी अंतहीन अंतर्व्यथा, उनके दुख-दर्द, उनकी तकलीफें। लेकिन किसके पास वक्त है इस भागमभाग के जमाने में जो उनकी यह सब कथा सुने? सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं। गमों में मुब्तिला हैं। सबको लगता है, हमारी अपनी क्या कम समस्याएं हैं? अपने क्या कम गम हैं जो हम दूसरों की तकलीफें सुनें?

’पराधीन सपनेहुं सुख नाही!’ की उक्ति उन्हें तब आजादी के लिए प्रेरणा देती रही थी। वे गांधी के आन्दोलनों में कक्षा नौ से ही जुट गए थे। हालांकि तब उन्हें देश, दुनिया, समाज, गुलामी, पराधीनता, परवशता-विवशता, निर्भरता, अर्थतंत्र की लूट, आम आदमी और किसान-मजदूरों के जीवन का लगातार उजाड,़ राजनीति के दांव-पेच, प्रथम-व्दितीय विश्वयुद्धों के कारण और उनकी भयावहता आदि के बारे में बहुत पता नहीं था। नयी उमर थी। नया जोश। कुछ नया करने का हौसला भीे। सो आन्दोलन में कूद पड़े। आगें लगाईं। रेलों की पटरियां उखाड़ीं। पुलिस की लाठियां खाईं। जेल गए। घर से भगा दिए गए। गांव निकाला झेला। आजादी आई। अचानक घर वालों को उनकी याद आ गई। गांव वाले उन्हें इज्जत देने लगे। सबको उनसे आशा और उम्मीद हो गई। लेकिन वे सबसे एकदम तटस्थ और बेजार-से हो गए। परिवार उनकी शादी की फिकर करने लगा। लेकिन वे घर से फिर भाग खड़े हुए।

ऐसा नहीं है कि उन्होंने शादी नहीं की। की, लेकिन जिससे की और जिस तरह की, जिस जाति और मजहब की लड़की से की, उसके बारे में सुन-जान कर न केवल गांव वालों ने उन पर थूका, बल्कि परिवार वालों ने भी उनसे अपना नाता तोड़ लिया। जमीन-जायदाद से बेदखल कर दिए गए। अखबार में पिता ने विज्ञप्ति छपवा दी--'मेरे इस बेटे से मेरा और मेरे परिवार का अब कोई संबंध नहीं है। मैं उसे अपने घर-परिवार, चल-अचल संपत्ति से बेदखल करता हूं। उसके किसी प्रकार के लेन-देन, वायदे या वायदा-खिलाफी से हमारा और हमारे परिवार का अब कोई संबंध नहीं होगा। उससे किसी तरह के लेन-देन करने वाले लोग स्वयं ही जिम्मेदार होंगे। हम पर किसी तरह की जिम्मेदारी नहीं होगी।'

घर-परिवार, जाति-बिरादरी, दीन-मजहब और धर्म सेे बेदखल कर दिए जाने के बाद उन्होंने बहुत तरह के पापड़ बेले। तरह-तरह के काम-धंधे किए। किसी तरह जिंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश की पर जिंदगी को जितना समेटने की कोशिश करते रहे, जिंदगी उतनी बिखरती चली गई। यहां तक कि दो बच्चों की मां बनी उनकी पत्नी भी उनका साथ छोड़ कर किसी और के साथ चली गई। चली गई तो उसे वापस लाने और जिंदगी और परिवार कोे ढर्रे पर लाने की उन्होंने दुबारा कोशिश नहीं की। अकेले ही जिंदगी काटते रहे। मुझे उनके बारे में पता तो था लेकिन मुलाकात उस वक्त हुई जब देश में इंदिरा जी ने आपातकाल लगाया। पूरा देश दुबारा गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया गया। पत्रकारों के साथ मैं भी जेल में पहुंचा दिया गया था और आचरज तब हुआ जब उन्हें भी उसी जेल में पाया। वे जेल में सबसे अलग रहते। किसी से अधिक बोलते नहीं थे। गुम-सुम और चुप बने रहते। 

'आप तो पुराने कांग्रेसी हैं। गांधी के आन्दोलन में शामिल रहे। जेल गए। पुलिस की लाठियां खाईं। आपको उसी कांग्रेस के राज में आजादी के बाद पुनः क्यों जेल में डाल दिया गया?’ एक दिन जेल में ही जाड़े की धूप में उनके पास आ बैठा था।

’कैसे बेवकूफ पत्रकार हो तुम?’ उन्होंने अचरज से मेरी ओर देखा--’इस कांग्रेस को तुम गांधी वाली कांग्रेस समझ रहे हो? इस आजादी को गांधी के सपनों वाली आजादी समझने की मूर्खता करोगे तुम? यह निजी स्वार्थों के लिए, अपनी और अपने परिवार की निजी सत्ता को बनाए रखने के लिए देश की आजादी का गला घेंटने का घिनौना अपराध है किया गया है बरखुरदार और इसके खिलाफ लड़ने की वैसी ही जरूरत है जैसी गांधी के समय थी। गांधी अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे और हमें इस कांग्रेस के खिलाफ लड़ना पड़ रहा है।’ शायद यही कारण रहा कि जब वे मरे तो श्मशान घाट पर शहर के ज्यादातर लोग आए पर कांग्रेसी नेताओं में कोई जाना-पहचाना चेहरा वहां दिखाई नहीं दिया। और तो और, स्वतंत्रता सेनानी होने के बावजूद न उन्हें पेशन दी गई। न अंतिम विदायी के वक्त दी जाने वाली पुलिसिया सलामी का प्रबंध प्रशासन ने किया। पत्रकारों ने अधिकारियों का ध्यान भी इस ओर दिलाया पर प्रशासन इंतजार करता रहा कि ऊपर से आदेश आए तो वे ऐसा कुछ करें! न ऊपर से आदेश आया, न प्रशासन के कानों पर जूं रेंगी। और वे एक साधरण, आम आदमी की तरह पंचतत्व में विलान हो गए।

आपातकाल के दौरान जेल में उनसे होती रही मेरी मुलाकात बाद में भी जारी रही। एक लालच भी मुलाकात के पीछे रहा। उनके पास पुरानी महत्वपूर्ण किताबों और विलुप्त पत्रिकाओं का भारी खजाना था जिन्हें मैं कई बार उनसे मांग कर लाता और पढ़ कर अपने ज्ञान का परिमार्जन करता रहा। आजादी के तत्कालीन आन्दोलन को समझने में उन किताबों-पत्रिकाओं ने मेरी बहुत मदद की। बहुत बार उनसे आन्दोलन के वक्त की बातों पर बहस भी करता रहा। कई बार वे मेरे तर्कों से सहमत होते पर कई बार वे मुझसे तीखी बहस करते हुए मुझे गलत सिद्ध करते और मेरी धारणा को बदलने का प्रयास करते थे। अपनी बात पर अड़ता तो वे बेहिचक मुझे गालियां देते, मूर्ख और बेवकूफ ठहराते। डांट कर चुप कर देते थे।

जिंदगी की गाड़ी खींचने के लिए उन्होंने कई तरह के कामों में अपना भाग्य आजमाया पर सफल किसी में नहीं हुए। एक टाकीज में पान की दूकान खोली। पर वह टाकीज दिनोदिन बैठता गया। बदलते वक्त के साथ लोगों ने टाकीजों में फिल्में देखना बंद कर दिया तो उनकी पान की दूकान भी चलनी बंद हो गई। बाद में एक चौराहे के नजदीक उन्होंने चाट-पकौड़ी का ठेला लगाया लेकिन लोग उसके साथ उनसे चाय का प्रबंध करने के लिए कहने लगे तो एक दूकान किराए पर ले कर उन्होंने चाट-पकौड़ों, समोसों के साथ चाय का होटल-सा डाल दिया। बच्चों को मदरसों में पहुंचा कर पत्नी भी दूकान पर आ जाती। समोसों और पकौड़ियों को बनाने में मदद करने लगी। काम चल निकला। गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चलने लगी। लेकिन गड़बड़ तब हुआ जब उनकी दूकान पर तमाम कामरेडों, साहित्यकारों और पत्रकारों का जमघट लगने लगा। अखबार आते। शाम तक उन अखबारों की हालत फैंक देने योग्य हो जाती। अक्सर बहसों में वे खुद भी शामिल हो जाते। उनके तर्क लोगों को पसंद नहीं आते पर वे तर्क करने से बाज नही आते थे।

मजदूर संगठनों, बुनकरों, रिक्शे वालों और दिहाड़ी पर काम करने वाले लोगों के संगठनों में वे भाग लेने लगे। वामपंथी पाट्री से तो वे अरसे से जुड़े हुए थे, बाद में उनके प्रदर्शनों, जुलूसों, धरनों में भी शामिल होने लगे थे। अब उनका ध्यान दूकान पर कम, आन्दोलनों में ज्यादा रमने लगा था। नतीजा हुआ, पत्नी को ही दूकान संभालनी पड़ती। पत्नी की इच्छा थी कि आमदनी बढ़े तो वे बच्चों को खैराती मदरसों में पढ़वाने की बजाय शहर के अंग्रेजी स्कूलों की मंहगी पढ़ाई में डालें पर पति की रुचि दिनोंदिन दूकान में कम होती गई। नतीजा हुआ दूकान बैठने लगी। आमदनी बढ़ने की बजाय घटने लगी और पत्नी घर को चलाने में बहुत पेरेशानी अनुभव करने लगी। झगड़े होने लगे। गाली-गलौज की नौबतें आने लगी। अक्सर बच्चों के भविष्य को ले कर कहा-सुनी इतनी अधिक बढ़ जाती कि लोगों को उनके बीच पड़ना पड़ता और उनके झगड़े निबटाने पड़ते।

बाई पास रोड और रेलवे की लाइनें बिछाने के लिए किसानों की जमीनें ओने-पौने दामों में जबरन ली जाने लगीं तो किसानों के साथ मिल कर उन्होंने कई बार धरने-प्रदर्शन किए। उत्तेजक भाषण दिए। नतीजा हुआ, प्रशासन की आंख की किरकिरी बन गए। मौका पा उन्हें सही-गलत धाराएं लगा कर जेल में डाल दिया गया। ऐसे समय ही उनकी पत्नी उनसे परेशान हो कर अपने बच्चों को ले कर किसी और के साथ चली गई। चली गई तो उसे मना कर या कानूनी लड़ाई लड़ कर उन्होंने वापस लाने का प्रयास नहीं किया।

मैंने एक दिन उनसे कहा--‘हाथों रोटी ठेकते हो। दूकान बंद हो गई। पहले पत्नी देखे रहती थी। चलाने में मदद करती थी। बच्चे भी किसी तरह पल रहे थे। अब आप अकेले रह गए तो घर में मनहूसों की तरह एकांत में पड़े रहते हैं। मन होता है तो खाना बना लेते हैं वरना कुछ उल्टा-सीधा खा कर या डबलरोटी-बन वगैरह के सहारे दिन काट लेते हैं। ऐसे कैसे काम चलेगा? कुछ कर नहीं पा रहे। मेरा ख्याल है आप को अपनी पत्नी और बच्चों को मना कर घर वापस ले आना चाहिए।’

देर तक वे अपनी झंगोला खाट पर सिर हाथों पर थामे चुप बैठे रहे फिर एक लंबी सांस ले कर बोले--’औरत को भी आजादी का उतना ही हक है, जितना मर्द को है। वह मेरे साथ रहना नहींे चाहती। उसके बच्चों की मैं ठीक से परवरिश नहीं कर पा रहा। अक्सर आन्दोलनों के कारण जेल यात्रा करता रहता हूं। पीछे उनकी आमदनी का कोई प्रबंध नहीं रह जाता। कहां तक वे लोग मेरे साथ अपनी जिंदगी बरबाद करें? पत्नी चाहती है कि उसके बच्चे भी बड़े लोगों के बच्चों की तरह अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ें। अपना कैरियर बनाएं। अच्छी नौकरी पाने के हकदार बनें। प्रायमरी स्कूलों और खैराती मदरसों की पढाई से उनका क्या भविष्य बनना है? यही सब सोच कर उसने फैसला किया है। जिससे शादी की है, वह विधुर है। उसके बच्चे बड़े हो गए हैं। नौकरी से लग गए हैं। औरत के मरने के बाद उसकी देखरेख लड़के-बच्चे नहीं कर रहे थे तो उसने मेरी पत्नी को पटा लिया। वह उसकी बातों में आ गई। उसके साथ चली गई। उसने पत्नी के बच्चों को अपना लिया। अच्छे स्कूलों में पढ़ने लगे। उसे भी बिना कांय-क्लेश के अच्छा खाना-कपड़ा और रहने को घर मिल गया। कौन औरत यह सब नहीं चाहती? अगर मेरी पत्नी ने इस सबके लिए यह समझौता किया तो क्या गलत किया? मैं उसे यह सब कहां दे पा रहा था?'

'लेकिन आप अकेले रह गए। ठीक से खाते-पीते नहीं। आमदनी का जरिया नहीं रह गया। उम्र बढ़ती जा रही है। दिनोदिन स्वास्थ्य आप का साथ छोड़ रहा है। अक्सर खाट पर पड़े रहते हैं। बीमार पड़ जाते हैं तो कोई पानी देने वाला तक नहीं फटकता आप के पास। ऐसे कब तक जिएंगे? लोगों को अभी भी आपसे कुछ उम्मीदें हैं। उनके काम आते रहते हैं आप। इस तरह जिंदगी क्यों जाया कर रहे हैं? या तो आप अपनी पुरानी दूकान को पुनः जिंदा करिए। लोगों के बीच उठिए-बैठिए। राजनीतिक-सामाजिक बहसों में हिस्सा ले कर अपने आप को जिंदा बनाए रहिए, वरना ऐसे तो आप बेमौत मर जाएंगे।'

'असल बात यह है कि अब जीने से जी ऊब गया है। बहुत जी लिया। चुपचाप मर जाना चाहता हूं।'

साफ लगा, वे जीवन से पूरी तरह हार गए हैं। कहां यह आदमी आजादी के आन्दोलन में गांधी जी के साथ लड़ा था। आजादी के लिए पुलिस से अपनी हड्डियां तुड़वाई थीं। जेल काटी थी। कहां आजादी मिलने के बाद अन्य तमाम इन्हीं जैसे आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले लोग किनारे लगा दिए गए। किसी ने उन्हें नहीं पूछा। जिन्होंने आजादी के दौरान चोरी-चकारी या जेबकटी में जेलें काटी उन तक ने स्वतंत्रता सेनानी का सर्टीफिकेट हासिल कर लिया। पेंशन के हकदार बन गए। दूसरी तरफ उन जैसे सैकड़ों-हजारों लोग रहे जिन्होंने वाकई लड़ाई लड़ी। अपनी जिंदगियां दांव पर लगाई, वे पीछे धकेल दिए गए। किसी ने उन्हें पूछा तक नहीं। और आजकल तो आजादी की फसल काटने वाले तमाम दल राजनीति के घिनौने, स्वार्थ भरे दलदल में आ गए जो जनता को ऊन लदी भेड़ मान कर चल रहे हैं। उन भेड़ों को वे उल्टे उस्तरे से मूड़ रहे हैं। अपनी जेबें और तिजोरियां भर रहे हैं। सातों पुश्तें बैठ कर खाएं, ऐसी टकसालें लगा कर नोट छापे-चांपे जा रहे हैं। जिन्होंने देश की आजादी के लिए कुछ भी नहीं किया, वे इस आजादी की फसलें काट रहे हैं। न केवल खुद, बल्कि अपने पूरे परिवार और कुनबे राजनीति में ला रहे हैं। उनकी पांचों उंगलियां घी में तिर रही हैं। सुरा, सुंदरी और स्वर्ण में नाक तक डूबे हुए हैं। उसके लिए दिन-रात सही-गलत सब करते जा रहे हैं।

यह सब बातें उनसे कहना बेकार थीं। वे गए-गुजरे जमाने के लोग हैं जो देना ही जानते थे। जिन्होंने देश से कुछ लिया नहीं। हां, अलबत्ता जिंदगी की स्वर्ण-उम्र जरूर होम कर दी देश की आजादी के लिए। शहर में ऐसे तमाम लोग हैं जो उन्हें सिरफिरा, सिर्री, बेवकूफ और पूरा पांगा कहते नहीं थकते। पर ऐसे भी तमाम लोग हैं जो उनका आदर करते हैं। नयी पीढ़ी तो उन्हें पहचानती तक नहीं है। उनका नाम तक नहीं जानती। जब पत्रकार पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के अखबारों में ऐसे लोगों पर कोई लेख या इंटरच्यू वगैरह छाप देते हैं तो नयी पीढ़ी अचरज से उन्हें देखती है, जैसे वे आदमी न हों, कोई अजूबा हों। किसी चिड़ियाघर से पकड़ कर लाए गए कोई विचित्र जानवर!

हम तमाम लोग सिर झुकाए चुपचाप श्मशान घाट से लौट रहे थे--उन्हें चिता के हवाले करके। गनीमत रही कि उनकी पत्नी और उनके बच्चे अंतिम समय में उनके पास आ गए थे। उनकी क्रिया-कर्म में शामिल हुए। उन्होंने हिन्दू रीति-रिवाज से उनका संस्कार किया । बाद में उनकी जो भी जमा-पूंजी थी, वह सब अंध-अनाथालय को दे कर वे लोग वापस लौट गए थे, अपने उस परिवार में जहां उन्हें नया और संपन्न जीवन मिला हुआ था। मरने वाले के साथ भला कौन मरता है? और मरे भी तो क्यों मरे? सब एक जैसे सिरफिरे, पागल और बेवकूफ तो होते नहीं। आज के जमाने में लोग बहुत होशियार और समझदार हो चुके हैं। मौका मिल जाए तो दूसरों का सब कुछ हड़प लें और गर्दन रेतने तक में न हिचकें।

तमाम ऐसी ऊल-जलूल बातें सोचता हुआ मैं अपने में डूबा, जमना से वापस लौट रहा था अपने उस दगाबाज शहर के उन चतुर-चालाक-चालबाज लोगों के बीच जो ऐसे पागलों-सिर्रियों-सिरफिरों को गालियां देने में माहिर हैं! उनकी हंसी उड़ाने में सबसे आगे हैं। इन समझदार लोगों का फलसफा है--चूतिया मत बनो। चूतिया बनाओ! ऐसे काठ के उल्लुओं को वहां जाने दो जहां कोई भला आदमी नहीं जाता। ये शैतान की औलादें हैं। ऐसे ही बेमौत मरने को पैदा होती हैं। बरसाती कीड़ों-मकोड़ों के मरने का किन्हें अफसोस होता है आज की धन-दौलत और पद-प्रतिष्ठा की दीवानी दुनिया में? '


Antarvyatha - A Hindi Story of Dinesh Paliwal
Viewing all 488 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>