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जगदीश पंकज की चार रचनाएं

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जगदीश पंकज 

सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद से सेवानिवृत्त एवं स्वतंत्र लेखन कर रहे जगदीश प्रसाद जैन्ड का जन्म 10 दिसम्बर 1952 को पिलखुवा, जिला-गाज़ियाबाद (उ .प्र .) में हुआ। शिक्षा :बी .एससी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत एवं कवितायें प्रकाशित हो चुके हैं। पंकज जी का मानना है-'मैंने कई बार अपने आप से सवाल किया है कि मैं क्यों लिखता हूँ? या मैंने क्यों लिखना शुरू किया? उत्तर के लिए अतीत की ओर जाकर देखा तो पाया कि जो कुछ भी लिखा गया वह प्रतिक्रिया है अपने समय पर, जो देखा है, भोगा है उस पर। चाहे वह सौन्दर्य पर हो, देश की सीमा पर युद्ध या मुठभेड़ पर, राजनीतिक परिदृश्य और उसके स्वयं पर पड़ने वाले प्रभाव पर या जीविका क्षेत्र के दबाव-तनाव अथवा व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों द्वारा चेतना पर डाले गए प्रभाव की अभिव्यक्ति है मेरा लेखन। समष्टि के व्यष्टि पर प्रभाव और व्यष्टि से समष्टि की ओर बहने वाली अन्तर्धारा ने स्वयं को लयात्मकता के साथ प्रकट करने के लिए विवश किया। पीड़ा को भी गुनगुनाने की चाह ने गीतों की ओर उन्मुख किया।' संपर्क : सोमसदन ,5/41 सेक्टर -2 , राजेन्द्रनगर,साहिबाबाद, गाज़ियाबाद-201005, मो . 08860446774, ई-मेल: jpjend@yahoo.co.in ..


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
(1) कैसा मौसम है 

कैसा मौसम है 
मुट्ठी भर आंच नहीं मिलती 
मिले विकल्प मिले तो 
सीली दियासलाई से  

मन से तन तक
फ़ैल गयी 
आतंक भरी सिहरन 
संचित विश्वासों पर 
छाई है 
भय की ठिठुरन 
बर्फाती जा रही 
चेतना है प्रतिबंधों से 
धूप नवेली सकुचाती है 
मुंह दिखलाई से 

पग -पग पर
शंकित-श्रृद्धायें 
अविचल मौन खड़ीं 
बूढ़े संकल्पों की सांसें 
हैं उखड़ीं-उखड़ीं 
इन बीमार आस्थाओं को 
लेकर कहाँ चलें 
सारे पथ सूने 
विधवा की रिक्त कलाई से
 
रक्तिम क्षितिज 
हुआ है किन 
अनगिन विस्फोटों से 
हम अब तक अंजान रहे 
अपनी ही चोटों से 
किसको कौन सांत्वना दे 
सबका मन आहत है 
सब ही जूझ रहे 
अंतर में छिपी रुलाई से 

(2) किसी अवशेष से 

किसी अवशेष से 
आरम्भ करना भी जरूरी है 
सृजन के हेतु कुछ आधार, 
मिल जाए उठाने को 

भवन के ही नहीं
विश्वास के भी 
खंडहर अनगिन 
सशंकित चेतना की 
देह पर भी 
चुभ रहे हैं पिन 
निरंतरता,पुरातनता हमें 
मिलती रहे यों ही 
अनर्गल दम्भ से बच कर चलें , 
विश्वास लाने को

नहीं निर्माण में
कोई कहीं 
उल्लेख आहों का 
विवादित उत्खनन में 
गर्व है 
कल्पित कथाओं का 
कोई सन्दर्भ ना उन्माद की 
अब भेंट चढ़ जाये 
चलो हर ओर अब सौहार्द की 
फसलें उगाने को 

कभी संसाधनों के
क्रूर दोहन ने 
सताया है 
उजाडी बस्तियों को 
देश की उन्नति 
बताया है 
जिसे तुम आम कहते हो 
कभी वह ख़ास भी होगा 
इसी विश्वास से उठकर चलें 
दुनिया सजाने को 

(3) शंकित मन

शंकित मन, कम्पित श्रद्धाएं 
और समय अवसादग्रस्त है 
खड़े चिकित्सक रुग्णालय में 
नैसर्गिक उपचार कर रहे 


नीम-हकीमों ने पीढ़ी को 
कैसा आसव पिला दिया है 
हमने अपने विश्वासों के 
स्तम्भों को हिला दिया है 
अपनी नैया रामभरोसे 
डगमग-डगमग बही जा रही 
मांझी कूद किनारे जाकर 
झूठा हाहाकार कर रहे 

अपराधों के श्वेत-पत्र में 
किस-किस का लेखा-जोखा है 
अधिवक्ताओं के तर्कों में 
कितना सच, कितना धोखा है 
दुष्कर्मों पर बहस चल रही 
लज्जा का उपहास हो रहा 
पीड़ित को निर्लज्ज बताकर 
इकतरफा व्यवहार कर रहे 

अपने झूठों को संचित कर 

काल-पात्र में गाड़ रहे हैं 
और उत्खनित सन्दर्भों से 
सच्चाई को झाड़ रहे हैं 
प्रायोजित धारावाहिक सा 
मक्कारी का नाटक जारी 
सच के सब हत्यारे मिलकर 
खुद ही चीख-पुकार कर रहे 

(4) इस सभागार में

बार-बार इस सभागार में 
यह कैसा सहगान चल रहा 

चाहे अलग-अलग गायक हों 

गीत एक सुर-ताल एक है 
अपनी पीठ ठोकते तनकर 
वाद्य-यन्त्र की चाल एक है 
खड़े विदूषक ऊंघ रहे हैं 
बेताला अभियान चल रहा 

नक्कारों का शोर मचा है 
तूती की आवाज दबी है 
दर्शक ताली बजा रहे हैं 
और जोर की होड़ लगी है 
चाटुकार संवादों का ही 
दो-अर्थी संधान चल रहा 

एक झूठ को दोहरा करके 

अटल सत्य का पाठ हो रहा 
अपने घर के जगराते में 
मालिक लम्बी तान सो रहा 
अपने मुंह से चीख-चीख कर 
अपना ही गुणगान चल रहा

Three Hindi Poems of Jagdish Pankaj

छह नवगीत : चन्द्र प्रकाश पाण्डे

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चन्द्र प्रकाश पाण्डे

आज जब तमाम साहित्यकार अपना ढोल अपने आप पीटने में लगे हुए हैं, ऐसे में बहुत कम साहित्यकार साहित्यकार लगते हैं। इन मुट्ठी भर विशुद्ध साहित्यकारों की सूची में एक नाम और जोड़ा जा सकता है - वरिष्ठ कवि चन्द्र प्रकाश पांडे।  पांडे जी का जन्म  6 अगस्त 1943 को लालगंज, रायबरेली में हुआ, यह वही लालगंज है जहाँ डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया और दिनेश सिंह जैसे ख्यातिलब्ध साहित्यकारों की पहचान बनी। शिक्षा:एम ए, विशारद (वै) साहित्य रत्न। प्रकाशित कृतियाँ :बैसवाड़ी के नए गीत, मुट्ठी भर कलरव (नवगीत संग्रह), आँखों के क्षेत्रफल में (ग़ज़ल संग्रह), राम के वशंज (बाल कथाएं)। सम्मान :आकाशवाणी हरिद्वार एवं कोलकाता, राष्ट्र निर्माण सेवा समिति, अहमदाबाद आदि द्वारा सम्मानित। संपर्क : लालगंज, रायबरेली, उ. प्र., मोब - 09621166955।

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. शाम हुई तो ...

शाम हुई 
तो बुद्धू लौटा
खाली हाथों घर

हारे हुये

जुंवारी जैसा
पस्त-हाल दीखे
परत-परत
मन में चिन्तायें
बालों में लीखें

पांव पराये से
लगते हैं 
कंपते डगर-डगर

भूल गया

सुरती में चूना
बीड़ी का बण्डल
दम बेदम है
चलता जैसे
कदम तले दलदल

घर की दूरी 
खिंची रबड़ सी
कई किलोमीटर। 

2. सूरज नहीं उगा

अभी
सूरज नहीं उगा
गया नहीं कोहरा

बच्चे मगर

कचरे में 
ढूँढते रोटियाँ
हीरे-मोती 
जैसे बिनते
पालीथिन दफ्तियाँ 

अभी 
सूरज नहीं उगा
करियापन ठहरा

वर्षों गये 

क्या कुछ किया
इनके लिये कुछ बात की,
बैठी कभी संसद सही
इनके लिये
सवालात की।

अभी
सूरज नहीं उगा
धुंध जड़ा पहरा।

3. बच्चे कहेंगे

कल सुबह

बच्चे कहेंगे
फीस दो स्कूल की

जिस सतह पर 

मैं खड़ा हूँ 
वह खिसकता जा रहा
एक धोखा
दे रहा हूँ
एक धोखा खा रहा

मै मुकाबिल था

हवा के 
यह बड़ी सी भूल की

काँच के घर में

छिपूँ क्या
मैं तमाशा बन गया
आँख से
अपनी ही आखिर
खुद ब खुद
मैं गिर गया

विषमतायें 
हमेशा
बेतरह अनुकूल कीं

4. अब अफसर है

कल बेटा था

अब अफसर है
इतना ही तो
रिश्ता भर है

वही मिरजई 

पंचा मेरा
उस पर खाकी का
रंग गहरा

बेशुमार 
गिरते सलाम हैं
रौबदाब सबके ऊपर है

हमको हाँ में 

हाँ कहना है
आखिर
पानी में रहना है

नशा ओहदे का

है तारी
साहब से सरकारी डर है

जब बोले

क़ानून बोलता
सबको 
बारह बाँट तोलता

निबह जाये बस

अपने लिये
यही आदर है।

5. चिडि़या घर

मुटठी भर

कलरव समेट कर
मौन हो गया
चिडि़या घर

चित्रों सी

शान्त भूमिकायें
वेताल की कथायें
कटी हुईं जीभें
लाचार
कितना भी 
पंख फड़फड़ायें,

चुटकी भर

दर्द फेंट कर
मौन हो गया 
चिडि़या घर

दृश्य
हर तरफ फफूँदिये
क्या जिया शहर
न पूछिये
तार घिरे
बाड़ों के बीच
कैसे भी 
श्वास तोलिये,

पुटकी भर

प्रश्न टेंट कर
मौन हो गया
चिडि़या घर।

6. रधिया

छोटे-छोटे हाँथों

रधिया
बासन माँज रही

छोड़ गई माई 
फिर बापू
एक भाई देकर
दिन भर काम
पसीना दाँतों
देह हुयी थ्रेशर,

खुली सिलाई 

टूटी बटनें 
रधिया टांक रही

भौजाई  
ले आई घर में
अपनी फिकर नहीं 
खुद के कद में
हुई कटौती
तो भी नुकुर नहीं,

आपस की 

खटटी-खोटी सब
रधिया पाट रही

कैसे

कितनी मरी खपी है
जिकर कभी ना की
छोड़ गई घर
छिन में अपना
रहा न कुछ बाकी,

मन का मैल

बड़े धैर्य से 
रधिया छाँट रही।

Six Hindi Lyrics of Chandra Prakash Pande

रामनारायण रमण के छः नवगीत

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रामनारायण रमण 

रायबरेली की धरती पर रहकर जहाँ साहित्य शिरोमणि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'जी ने अपनी विशिष्ट साहित्य साधना से हिन्दी संसार को अचरज में डाल दिया, वहीं वरिष्ठ साहित्यकार रामनारायण रमण जी ने निराला जी को अपने जीवन में उतारकर निराला की परम्परा का बखूबी निर्वहन किया। गॉंव-देहात में रहना, लेखन करना, उसे प्रकाशित करवाना और पाठकों तक पहुँचाना बहुत कठिन है; कठिन न हो तो भी आजकल ज्यादातर लोग अपने आप को ही प्रकाशित करवाना चाहते हैं और किसी दिवंगत रचनाकार के लिए 'इनर्जी वेस्ट'करने से परहेज करते हैं। ऐसे कठिन समय में रमणजी ने निराला जी के सरोकारों को जन-मन तक पहुंचाने के लिए निराला और डलमऊ को केंद्र में रखकर संस्मरणात्मक जीवन वृत्त की रचना की और निराला का कुकुरमुत्ता दर्शन प्रस्तुत किया। साथ ही उन्होंने निराला जी के बहाने न केवल गद्य और पद्य में तमाम रचनाएं लिखीं बल्कि कई साहित्यिक आयोजन कर समाज के विभिन्न वर्गों/समुदायों को निराला जी से जोड़ने का सार्थक प्रयास किया। आज जब रायबरेली में निराला जी की बात होती है तो रामनारायण रमण जी का नाम लोगों के जेहन में आ जाता है। यह अलग बात है कि वे औरों की तरह निराला को भुना नहीं पाये, याकि उन जैसा खुद्दार व्यक्ति कभी भी किसी को भुनाने के लिए श्रम नहीं करता। यह एक गॉंव-जंवार में रहने वाले साहित्य साधक की एक (अ) साधारण कहानी है। यह भी कहना चाहूंगा कि रमणजी नयी सोच के सहज कवि एवं आलोचक हैं और बतौर संपादक भी वह आज के तमाम तथाकथित सम्पादकों पर भारी पड़ते हैं। रमण जी का जन्म 10 मार्च 1949 ई. को पूरेलाऊ, डलमऊ, रायबरेली (उ प्र) में हुआ। प्रकाशित कृतियाँ : मैं तुम्हारे गीत गाऊँगा (गीत संग्रह) 1989, निराला और डलमऊ (संस्मरणात्मक जीवन वृत्त) 1993, मुझे मत पुकारों (कविता संग्रह) 2002, निराला का कुकुरमुत्ता दर्शन (निबन्ध) 2009, परिमार्जन (निबन्ध) 2009, हम बनारस में बनारस हममें (यात्रा वृत्तांत) 2010, हम ठहरे गाॅव के फकीर (गीत संग्रह) 2011, उत्तर में आदमी (निबन्ध) 2012 । सम्पादन : गंगा की रेत पर (काव्य संकलन), डलमऊ दर्शन (वार्षिकी), कई अन्य पत्रिकाओं का सामयिक सम्पादन किया है। सम्मान :सरस्वती पुरस्कार एवं सम्मान, विवेकानन्द सम्मान, निराला सम्मान, हौसला सिंह स्मृति सम्मान, गंगा सागर स्मृति सम्मान, अब्दुर्रसीद आधुनिक रसखान सम्मान। विशेष : निराला और डलमऊ कृति पर वृत्त चित्र।सम्पर्क : 121, शंकर नगर, मुराई का बाग (डलमऊ), रायबरेली - 229207 (उ.प्र.), मो. 09839301516

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. हम रिटायर क्या हुए       

हम रिटायर क्या हुए
धरती हुए अम्बर हुए

लोग हमसे पूछते हैं
क्या बतायें
आदमी के भाव
ईष्र्या द्वेष के, संताप के,
पाप के कितने तरीके
प्रकट होने के
मगर वे नही दिखते
कभी अपने आप के
दूसरों के वास्ते -
ये आदमी खंजर हुए 

बहुत छलनायें दिखी हैं
हर उजाले में
जिसे हम प्रेम कहते हैं
उसी मे रमे रहते हैं,
नदी से बह नहीं पाते
फरेबों से भरे नद हैं,
अंधेरे हैं
जहाँ हम थमे रहते हैं
जो लगे थे देवता
वे बदल कर पत्थर हुए 

भीड़ से बचना हमेशा
खोजना एकान्त
जीवन जहाँ खिलता है
हमें आराम मिलता है,
तसल्ली भी, दिलासा भी
नई आशा, नई भाषा
कि अपने रास्ते पर -
एक मुकाम मिलता है
कह नहीं पाते -
कि क्या हटकर हुए ।     

2. चुप रहना 

रचनाओं से
खेल रहा है मन सैलानी  
              चुप रहना 

इन्द्रधनुष कुछ नहीं
किसे मालूम नहीं
पानी की बूँदों पर किरणें तारी हैं,
धीरे-धीरे दुनिया
बदली जाती है
बदलाहट के बीच-बीच चिनगारी हैं
आँख उठाकर
देख रहा आकाश गुमानी
               चुप रहना 

एक टाँग पर खड़ा
कुकुरमुत्ता मुस्काता
कूड़ा करकट जहाँ वहीं उग आता है,
बच्चों की छतरी से -
लेकर कैप सदृश
खाने के पकवानों तक घुस जाता है
नहीं चलेगी
बेमतलब की बात पुरानी
               चुप रहना 

कितना पानी बहा
नदी वतुल में है
सागर, पर्वत, सूरज, चाँद-सितारे हैं,
जाड़ा-गर्मी-बरसातें -
मधुमास मिलन
पतझड़ के विग्रह की लगी कतारें हैं
वातायन से
फिर लौटा अद्भुत विज्ञानी
             चुप रहना ।

3. चौराहे पर       

चौराहे पर
खड़े हुए हम
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए 

चारों ओर एक सी सड़कें,
चारों ओर सवारी हैं,
सबको जाने की जल्दी है
पर गतिविधियाँ न्यारी हैं
अपनी गठरी
सिर पर लादे
ज्ञानी हुए कि मूढ़ हुए 

संदेशे स्मृतियों में है
स्मृतियाँ छलनाओं में,
अंतरिक्ष में आँख लगी है
शैल बंधे हैं पावों में
संकेतक हैं
मगर न दिखते
अक्षर-अक्षर गूढ़ हुए 

खोज रहे जो अपने रस्ते
उनमें नाम हमारा भी,
सूरज-चंदा की मत कहिये
यहीं कहीं ध्रुवतारा भी 
एक रोशनी
जिसके भीतर-
जगी, वही आरूढ़ हुए

4. जिंदगी के दिन

चलो हटो
बैठो उस ओर 
जिंदगी के दिन
सुख-दुख
की चिंता के घोर
जिंदगी के दिन 

फर्राटें मार
नई कार चली
धुआँ, धूल, आँधी-अंधियारा,
खटर-पटर
कुछ दिन के बाद
हुआ शुरू वहीं मीठापन खारा 
बेचैनी
बाघिन का जोर
जिंदगी के दिन 

काँच की सड़क
तलुवे फूल से
जिबह हुए बेवजह सपन,
घर में
गौरैया के घोसले-
छितरे है, भागता पवन
आगे-पीछे
कोने चोर
जिंदगी के दिन ।

5. ज्वार के भुट्टे  

शीश को झुका
करते नमस्कार
ज्वार के पके भुट्टे खेत में

किरणों ने
अपने संजाल में
सुबह-सुबह प्यार से समेटा,
धूप हुई
गुनगुनी निगोड़ी
बाहों में बाँधकर लपेटा
दानों के दाँत
हँसे मोती से
ज्वार के पके भुट्टे खेत में

कवियों की
आँखे हैं खिड़कियाँ
दृश्य गये भीतर आराम से,
ध्यान की
सधी मुद्रा जागती
फलती है कविता उपराम से 
देते हैं
काव्यमय संदेशे
ज्वार के पके भुट्टे खेत में। 

6. एक गौरैया रहती है 

मेरे बिल्कुल पास
एक गौरेया रहती है

पतझड़ हुआ
कि बेल हमारी
कच-कच-कच निकली,
पतझड़ के
मौसम में भी
पतझड़ से बच निकली 
दो दिन में छा गई
कि नीचे गैया रहती है

टहनी फूटी जहाँ
वहीं पर
झोंझ लगाती है,
तिनके-तिनके
जोड़-जोड़कर
महल बनाती है
गाती तो लगता है
यही सुरैया रहती है

सुख-दुख भी
होंगे तो होंगे
कुछ परवाह नहीं,
अपने जीवन
की मस्ती है
कोई चाह नहीं
मुझ अधीर के घर में
धीर-धरैया रहती है।

Ramnarayan Raman, Raibareli

श्री सत्य कॉलेज ऑफ हायर एजूकेशन करेगा साहित्यकारों का सम्मान

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मुरादाबाद :श्री सत्य कॉलेज ऑफ हायर एजूकेशन, मुरादाबाद (उ प्र) 29 मार्च 2014 (अपराह्न 2 : 00 बजे) को 'सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह'का आयोजन करने जा रहा है, जिसमें आमंत्रित कवियों को सम्मानित किया जायेगा और काव्य पाठ होगा। 

इस कार्यक्रम में श्रद्धेय डॉ धनञ्जय सिंह (ग़ाज़ियाबाद) को'बंशी और मादल पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) को'राघव राग पुरस्कार'श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक (कानपुर) को'गीतांगिनी पुरस्कार'श्रद्धेय श्री निर्मल शुक्ल (लखनऊ) को'गीतम पुरस्कार'श्रद्धेय श्री कमलेश भट्ट 'कमल' (बरेली) को'भ्रमर पुरस्कार'श्रद्धेय श्री राकेश चक्र (मुरादाबाद) को 'शिंजनी पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ जगदीश व्योम (दिल्ली) को'गीत विहग पुरस्कार', अग्रज श्री रमाकांत (रायबरेली) को'ढाई आखर पुरस्कार'एवं डॉ अवनीश सिंह चौहानको 'दिवालोक पुरस्कार'से अलंकृत किया जाएगा। इसमें सम्मानित कवि को रु 2100/- पुरस्कार राशि के रूप प्रदान किये जाने का प्रावधान है। 


बंशी और मादल पुरस्कार

'बंशी और मादल पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ धनञ्जय सिंह जी (ग़ाज़ियाबाद) को प्रदान किया जाएगा। जाने-माने कवि, संपादक, लेखक डॉ सिंह (जन्म 29 अक्टूबर 1945) ने हिन्दी में एम ए करने के बाद 'महाभारत के उपजीव्य : आधुनिक खंडकाव्यों में पौराणिक सन्दर्भ एवं आधुनिक चेतना'शोध विषय पर पीएच. डी की उपाधि प्राप्त की। आपका काव्य संग्रह 'पलाश दहके हैं'काफी चर्चित रहा है। आपने 20 काव्य संकलन, 2 कहानी संग्रह, 1 जीवनी का विधिवत सम्पादन किया एवं देहरादून से प्रकाशित पत्रिका 'सरस्वती सुमन'का 'गीत विशेषांक'के अतिथि संपादक रहे। आपकी कई रचनाओं का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण हो चुका है। आपने फिल्म 'अंतहीन'हेतु गीत लिखे और डॉक्यूमेंट्री 'चलो गाँव की और'की पटकथा लेखन भी किया। आपको उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ से 'साहित्य भूषण सम्मान'प्रदान किया जा चुका है। मुख्य कॉपी सम्पादक (कादम्बनी पत्रिका) से सेवानिवृत्ति के बाद वर्तमान में आप स्वतन्त्र लेखन कर रहे हैं।

'बंशी और मादल पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व ठाकुर प्रसाद सिंह जी की स्मृति में दिया जायेगा। हिन्दी में नवगीत के एक प्रमुख प्रवर्तक कवि ठाकुर प्रसाद सिंह जी का जन्म 01 दिसम्बर 1924 को ईश्वरगंगी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। इन्होंने हिन्दी तथा प्राचीन भारतीय इतिहास व पुरातत्व में उच्च शिक्षा प्राप्त की। कई वर्षों तक अध्यापन और पत्रकारिता के बाद आप उत्तरप्रदेश के सूचना विभाग में चले गए और वहाँ निदेशक रहे। आपने कई नाटक तथा उपन्यास भी लिखे। आपने बरसों तक 'ग्राम्या'साप्ताहिक और 'उत्तर प्रदेश'मासिक का सम्पादन किया। प्रमुख कृतियाँ : वंशी और मादल (नवगीत संग्रह) 1959, महामानव (प्रबन्धकाव्य) 1946, हारी हुई लड़ाई लड़ते हुए (कविता-संग्रह) 1988 । निधन : अक्तूबर 1994। 

राघव राग पुरस्कार

'राघव राग पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) को प्रदान किया जाएगा। हिन्दी और मैथली के लाड़ले कवि डॉ बुद्धिनाथ मिश्र का जन्म 01 मई, 1949 को मिथिलांचल में समस्तीपुर(बिहार) के देवधा गाँव में हुआ। शिक्षा: (अंग्रेज़ी), एम.ए.(हिन्दी), ‘यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत’ शोध विषय पर पी.एच.डी. की उपाधि। 1969 से आकाशवाणी और दूरदर्शन के कई केन्द्रों पर काव्यपाठ, वार्ता, संगीत रूपकों का प्रसारण। बीबीसी, रेडियो मास्को आदि से भी काव्यपाठ, भेंटवार्ता प्रसारित। दूरदर्शन के राष्ट्रीय धारावाहिक ‘क्यों और कैसे?’ का पटकथा लेखन। वीनस कम्पनी से ‘काव्यमाला’ और ‘जाल फेंक रे मछेरे’ कैसेट, मैथिली संस्कार गीतों के दो ई.पी. रिकार्ड और संगीतबद्ध गीतों का कैसेट ‘अनन्या’। ‘जाल फेंक रे मछेरे’ ‘शिखरिणी’ ‘जाड़े में पहाड़’ और 'ऋतुराज एक पल का'आपके अब तक प्रकाशित नवगीत संग्रह हैं। ‘अक्षत’ पत्रिका और ‘खबर इंडिया’ ई-पत्रिका में आपके कर्तृत्व पर केन्द्रित विशेषांक और ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ (सम्पादक : डॉ. अवनीश चौहान) पुस्तक प्रकाशित। आप रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, मारिशस, उज़बेकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, सिंगापुर,यूएई आदि देशों की साहित्यिक यात्रा कर चुके डॉ मिश्र ने न्यूयार्क और जोहान्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। अन्तरराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ से 'साहित्य भूषण सम्मान'सहित कई अन्य सम्मानों से अलंकृत। ओएनजीसी में निदेशक (राजभाषा) के पद से सेवानिवृत्त डॉ मिश्र ‘प्रभात वार्ता’ दैनिक में ‘साप्ताहिक कोना’, ‘सद्भावना दर्पण’ में ‘पुरैन पात’ और ‘सृजनगाथाडॉटकॉम’ पर ‘जाग मछन्दर गोरख आया’ स्तम्भ लेखन कर रहे हैं। 

'राघव राग पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व उमाकांत मालवीय जी की स्मृति में दिया जायेगा। उमाकांत मालवीय जी का जन्म 02 अगस्त 1931 को मुम्बई में हुआ था। शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। इन्होंने कविता के अतिरिक्त खण्डकाव्य, निबंध तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। काव्य-क्षेत्र में मालवीय जी ने नवगीत विधा को अपनाया। प्रकाशित कृतियाँ : मेंहदी और महावर, एक चावल नेह रींधा, सुबह रक्त पलाश की, रक्तपथ (सभी नवगीत-संग्रह), देवकी, रक्तपथ (सभी कविता संग्रह), राघवराग (रामायण के पात्रों पर केंद्रित काव्य संग्रह)। निधन: 11 नवम्बर 1982 ।

गीतांगिनी पुरस्कार

'गीतांगिनी पुरस्कार'श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक (कानपुर) को प्रदान किया जाएगा। चर्चित कवि, सम्पादक एवं आलोचक वीरेंद्र आस्तिक जी का जन्म 15 जुलाई 1947 को कानपुर (उ.प्र.) के एक गाँव रूरवाहार में हुआ। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। 1980 में आपका पहला गीत संग्रह 'वीरेंद्र आस्तिक के गीत'नाम से प्रकाशित हुआ। अब तक आपके पांच गीत संग्रह- 'परछाईं के पाँव', 'आनंद! तेरी हार है', 'तारीख़ों के हस्ताक्षर', 'आकाश तो जीने नहीं देता',  'दिन क्या बुरे थे'प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त काव्य समीक्षा के क्षेत्र में भी आप विगत दो दशकों से सक्रिय हैं जिसका सुगठित परिणाम है- धार पर हम (एक और दो) जैसे आपके द्वारा किये गये सम्पादन कार्य। आपकी कृति 'तारीख़ों के हस्ताक्षर'को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ से आर्थिक सहयोग प्रदान किया गया। इसी संस्थान से आपके चर्चित गीत संग्रह 'दिन क्या बुरे थे'को सर्जना पुरस्कार मिला।  आपकी कई रचनाओं का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण हो चुका है। 2013 में मासिक पत्रिका संकल्प रथ (भोपाल) ने आपकी रचनाधर्मिता पर एक विशेषांक प्रकाशित किया जोकि काफी चर्चित रहा। भारत संचार निगम लि. से सेवानिवृत्त आस्तिक जी वर्त्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 


'गीतांगिनी पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व राजेन्द्र प्रसाद सिंह जी की स्मृति में दिया जायेगा। हिन्दी में नवगीत के एक प्रमुख प्रवर्तक कवि स्व राजेन्द्र प्रसाद सिंह जी का जन्म 1930 में मुजफ्फरपुर, बिहार में हुआ। प्रकाशित कृतियां : आओ खुली बयार, भरी सड़क पर, रात आँख मूंदकर जगी है, लाल नील धारा (नवगीत संग्रह), भूमिका, मादिनी, दिग्वधू, सजीवन कहाँ, उजली कसौटी, डायरी के जन्म दिन (कविता संग्रह), अमावस और जुगनू, जुगनू और चांदनी (उपन्यास), सो हीयर आई स्टैंड (अंग्रेजी में अपनी कविताओं का स्वानुवाद), दीप-युद्ध (चीनी कविताओं का अनुवाद)। नवगीत का पहला समवेत संकलन 'गीतांगिनी'का संपादन। निधन : 07 नवंबर 2007। 

गीतम पुरस्कार

'गीतम पुरस्कार'श्रद्धेय श्री निर्मल शुक्ल (लखनऊ) को प्रदान किया जाएगा। अथक हिंदी सेवी निर्मल शुक्ल जी का जन्म 03 फरवरी 1948 को पूरब गाँव, बक्‍शी का तालाब, लखनऊ, उ.प्र. में हुआ। अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्‍य काल, नील वनों के पार, नहीं कुछ भी असम्भव आपके चर्चित नवगीत संग्रह हैं। आप उत्तरायण पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन कर रहे हैं। आपके द्वारा सम्पादित गीत संकलन 'शब्‍दपदी'और 'शब्दायन'काफी चर्चित रहे। देश के महत्‍वपूर्ण समवेत काव्‍य संकलनों में आपकी रचनाएं संकलित। हिन्‍दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी-केन्‍द्र, साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक मंचो के माध्‍यम से आपकी अनेक रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण। 'अब तक रही कुंवारी धूप'पुस्तक उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ से पुरस्कृत। आप विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, उज्जैन से 'विद्यावाचस्पति उपाधि'सहित कई अन्य सम्मानों से विभूषित किये जा चुके हैं। भारतीय स्‍टेट बैंक से सेवानिवृत्ति के पश्‍चात आप स्‍वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 

'गीतम पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व वीरेंद्र मिश्र जी की स्मृति में दिया जायेगा। मिश्र जी का जन्म 01 दिसंबर 1927 को मुरैना, म प्र में हुआ। आपकी प्रकाशित कृतियां : गीतम, लेखनी बेला, अविराम चल मधुवंती, झुलसा है छायानट धूप में, धरती गीताम्बरा, शांति गन्धर्व, कांपती बांसुरी, गीत पंचम, चन्दन है माटी मेरे देश की, उत्सव गीतों की लाश पर, मुखरित संवेदन, बरसे रस की फुहारी, वाणी के कलाकार, जलतरंग, अंतराल (सभी गीत संग्रह), तथा 'वीरेंद्र मिश्र की गीत यात्रा (पांच खण्डों में)। सांध्यमित्रा पत्रिका का सम्पादन। निधन : 01 जून, 1995 । 


भ्रमर पुरस्कार

'भ्रमर पुरस्कार' श्रद्धेय श्री कमलेश भट्ट 'कमल' (बरेली) को प्रदान किया जाएगा। साहित्य रत्न कमल जी का जन्म 13 फरवरी 1959 को सुल्तानपुर (उ॰प्र॰) की कादीपुर तहसील के ज़फरपुर नामक गाँव में हुआ। शिक्षा: एम॰एस-सी॰ (साँख्यिकी)। आप ग़ज़ल, कहानी, हाइकु, साक्षात्कार, निबन्ध, समीक्षा एवं बाल-साहित्य आदि विधाओं में लेखन करते हैं। प्रकाशित कृतियाँ : त्रिवेणी एक्सप्रेस (कहानी संग्रह), चिट्ठी आई है (कहानी संग्रह), नखलिस्तान (कहानी संग्रह), सह्याद्रि का संगीत (यात्रा वृतान्त), साक्षात्कार (लघुकथा पर डॉ॰ कमल किशोर गोयनका से बातचीत), मंगल टीका (बाल कहानियाँ), शंख सीपी रेत पानी (ग़ज़ल संग्रह), अजब गजब ( बाल कविताएँ), तुर्रम (बाल उपन्यास), अमलतास (हाइकु संग्रह)।  साथ ही 'आपने शब्द साक्षी' (लघु कथा संकलन), हाइकु - 1989 (हाइकु संकलन), हाइकु-1999 (हाइकु संकलन), हाइकु 2009 (हाइकु संकलन) का संपादन किया। आपको उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा 'मंगल टीका'एवं 'शंख सीपी रेत पानी'कृतियों पर 20-20 हजार रुपए का नामित पुरस्कार तथा नखलिस्तान के लिए सर्जना पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है । परिवेश सम्मान, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान सहित कई अन्य सम्मानों से अलंकृत। वर्त्तमान में आप उ॰प्र॰ के बिक्री कर विभाग में ज्वाइंट कमिश्नर पद पर आसीन हैं

'भ्रमर पुरस्कार' ख्यातिलब्ध साहित्यकार  स्व रवीन्द्र भ्रमर जी की स्मृति में दिया जायेगा। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफ़ेसर रहे भ्रमर जी का जन्म 06 जून 1934 को जौनपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ। प्रकाशित कृतियाँ : रवीन्द्र भ्रमर के गीत, सोनमछरी मन बसी, धूप दिखाये आरसी, गीत रामायण (सभी गीत संग्रह), कविता- सविता, प्रक्रिया (दोनों कविता-संग्रह)। पद्मावत में लोकतत्व, हिन्दी के आधुनिक कवि, हिन्दी भक्ति साहित्य में लोक-तत्व, छायावाद : एक पुनर्मूल्यांकन, समकालीन हिन्दी कविता, लोक साहित्य की रूप-रेखा, गीतिकाव्य की रचना-प्रक्रिया, नारी की आत्मकथा (सभी आलोचनाएं)। निधन : 28 नवंबर 1998।

शिंजनी पुरस्कार

'शिंजनी पुरस्कार' श्रद्धेय श्री राकेश चक्र (मुरादाबाद) को प्रदान किया जाएगा। सुन्दर विचारों के नायक चक्र जी का जन्म 14 नवम्बर 1955 को ग्राम सजाबाद-ताजपुर, जनपद-अलीगढ़ (उ.प्र.) में हुआ। शिक्षा : स्नातकोत्तर (समाजशास्त्र), एल.एल.बी, एक्यूप्रेशर एवं योग। आप 1973 से लेखन कर रहे हैं और आपकी प्रथम कविता ‘‘जन्म सिद्ध अधिकार है"लखनऊ के स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई थी। अब तक आपकी लगभग पांच दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी बाल साहित्य पर लिखी कई पुस्तकें कई विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मलित की जा चुकी हैं। आपकी लघुकथाओं का कश्मीरी और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हो चुका है। प्रकाशित कृतियाँ : अमावस का अंधेरा (लघुकथा-संग्रह), मेरी गजलें मेरा प्यार (गजल-संग्रह), आपका जीवन आपके हाथ, वृक्ष और बीज (लघुकथा-संग्रह), एकता के साथ हम (गीत-संग्रह), राकेश चक्र’ की लघु कथाएँ, आजादी के दीवाने (कथा-संग्रह), कंजूस गोंतालू (बाल उपन्यास-संग्रह), राकेश ’चक्र’ की श्रे’ठ कहानियाँ, उत्तरांचल की लोककथाएँ, आओ भारत नया बनाएँ (गीत-संग्रह), वीर सुभाष, साक्षरता अनमोल रे (गीत-संग्रह), आओ पढ़ लें और पढ़ाएँ (गीत-संग्रह), सपनों को साकार करेंगे (बच्चों के मनोविज्ञान पर श्रे’ठ कृति), माटी हिन्दुस्तान की (गीत-संग्रह), राकेश चक्र’ की एक सौ इक्यावन बाल कवितायें, लट्टू-सी ये धरती घूमे, बाल कवितायें,  धीरे-धीरे गाना बादल (बालगीत-संग्रह), याद करेगा हिन्दुस्तान (बालगीत-संग्रह), पौधे रोपें (बालगीत-संग्रह), मेढ़क लाला चक्र निराला (बालगीत-संग्रह), बालक, सूरज और संसार, पशु-पक्षियों के मनोरंजक बालगीत, भरत का भारत (बालगीत-संग्रह), मात्रृभूमि है वीरों की (बालगीत-संग्रह), मीठी कर लें अपनी बोली (बालगीत-संग्रह), टीवी और बचपन (बालगीत-संग्रह), चाचा कलाम (बालगीत-संग्रह), सात घोड़े (बालगीत-संग्रह), पुच्छल तारे (विज्ञान-लेख), अन्यायी को दण्ड (बालगीत-संग्रह), साक्षरता अनमोल रे (बालगीत-संग्रह), बिच्छू वाला दीवान (बालकथा), रोबोट का आविष्कार (बाल कहानियाँ), वीर शिवाजी (शिशु गीत-संग्रह), ऊँचा देश उठाएँगे (शिशु गीत-संग्रह), था-था- थइया गाएँगे (शिशु गीत-संग्रह), चाचा चक्र के सचगुल्ले (कुण्डलियाँ) आदि। हाल ही में आपकी पुस्तक 'आपका जीवन आपके हाथ'उ प्र हिंदी संस्थान, लखनऊ से पुरस्कृत। आपको उ. प्र. कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ द्वारा सुमित्रानन्दन पंत पुरस्कार (51,000/-) सहित लगभग दो दर्जन पुरस्कार / सम्मान प्रदान किये जा चुके हैं। वर्त्तमान में आप उत्तरप्रदेश पुलिस (अभिसूचना विभाग) में सेवारत हैं। 

'शिंजनी पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया की स्मृति में दिया जायेगा। उ प्र हिन्दी संस्थान से साहित्य भूषण से अलंकृत भदौरिया जी का जन्म 15 जुलाई 1927 को जनपद रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव धन्नीपुर (लालगंज) में हुआ था। 'हिंदी उपन्यास सृजन और प्रक्रिया'पर कानपुर विश्वविद्यालय से पी एच डी की उपाधि। वैसवारा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य के पद से 1988 में सेवानिवृत। आप 'नवगीत दशक'तथा 'नवगीत अर्द्धशती'के नवगीतकार रहे। आपका प्रथम गीत संग्रह ‘शिजिंनी’ 1953 में प्रकाशित हुआ था। और जब ‘धर्मयुग’ में ‘पुरवा जो डोल गयी’ प्रकाशित हुआ तो इस गीत ने गीत विधा को एक क्रांतिकारी परिवर्तन की दिशा प्रदान की। प्रकाशित कृतियाँ: 'शिन्जनी' (गीत-संग्रह), 'पुरवा जो डोल गई' (गीत-कविता संग्रह), 'ध्रुव स्वामिनी (समीक्षा) ', 'नदी का बहना मुझमें हो' (नवगीत संग्रह), 'लो इतना जो गाया' (नवगीत संग्रह), 'माध्यम और भी' (मुक्तक, हाइकु संग्रह), 'गहरे पानी पैठ' (दोहा संग्रह)। ‘ध्रुवस्वामिनी’ आपका समीक्षात्मक ग्रंथ हैं। ‘राष्ट्रचिंतन’, ‘मानस चन्दन’, ‘ज्योत्सना’ आदि पत्रिकाओं का आपने सम्पादन किया। आप महामहिम राज्यपाल द्वारा जिला परिषद, रायबरेली के नामित सदस्य भी रहे। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित 'राघव राग'पुस्तक प्रकाशित। निधन : 07 अगस्त 2013।

गीत विहग पुरस्कार

'गीत विहग पुरस्कार' श्रद्धेय डॉ जगदीश व्योम जी (दिल्ली) को प्रदान किया जाएगा। व्योम जी का जन्म 01 मई 1960 शंभूनगला¸ फर्रुखाबाद¸ उ .प्र . में हुआ। शिक्षा : एम .ए .हिंदी साहित्य में¸ एम .एड.¸ पीएच .डी. आपने लखनऊ विश्वविद्यालय से 'कनउजी लोकगाथाओं का सर्वेक्षण और विश्लेषण'पर शोध कार्य किया।प्रकाशित कृतियां :  इंद्रधनुष¸ भोर के स्वर (काव्य संग्रह), कन्नौजी लाकोक्ति और मुहावरा कोश, नन्हा बलिदानी¸ डब्बू की डिबिया (बाल उपन्यास), सगुनी का सपना (बाल कहानी संग्रह), आज़ादी के आस–पास¸ कहानियों का कुनबा (संपादित कहानी संग्रह)। आप हाइकु दर्पण और बाल प्रतिबिंब एवं कई वेब पत्रिकाओं/चिट्ठों का सम्पादन कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त देश की तमाम पत्र पत्रिकाओं में आपके शोध लेख¸ कहानी¸ बालकहानी¸ हाइकु¸ नवगीत आदि का अनवरत प्रकाशन। आकाशवाणी दिल्ली¸ मथुरा¸ सूरतगढ़¸ ग्वालियर¸ लखनऊ¸ भोपाल आदि केंद्रों से कविता¸ कहानी¸ वार्ताओं का प्रसारण।  आपकी कृति 'नन्हा बलिदानी'बाल उपन्यास के लिए आपको पांच पुरस्कार प्रदान किये गए। हाल ही में आपको 'निराला सम्मान' (निराला संस्थान, डलमऊ-रायबरेली) से  अलंकृत किया गया। वर्त्तमान में आप दिल्ली प्रशासन के अन्तर्गत शिक्षा विभाग में अधिकारी हैं।

'गीत विहग पुरस्कार' ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व रमेश रंजक की स्मृति में दिया जायेगा। रमेश रंजक जी का जन्म 02 सितंबर 1938 को नदरोई, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश, भारत में हुआ। प्रकाशित कृतियाँ : किरण के पाँव, गीत विहग उतरा, हरापन नहीं टूटेगा, मिट्टी बोलती है, इतिहास दुबारा लिखो, रमेश रंजक के लोकगीत, दरिया का पानी, अतल की लय, पतझर में वसंत की छवियाँ (सभी गीत संग्रह), नये गीत का उद्भव (आलोचना)। निधन : 08 अप्रैल 1991

ढाई आखर पुरस्कार

'ढाई आखर पुरस्कार' अग्रज श्री रमाकांत (रायबरेली) को प्रदान किया जाएगा। युवा कवि, सम्पादक रमाकांत जी का जन्म 20 अक्टूबर 1964 को पूरे लाऊ, बरारा बुजुर्ग, जनपद रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ।  शिक्षा : एम.ए., एम.फिल. एवं पत्रकारिता में पी.जी डिप्लोमा। प्रकाशित कृतियां : नृत्य में अवसाद' (हाइकु संग्रह),  'सड़क पर गिलहरी' (कविता संग्रह) और 'जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ' (नवगीत संग्रह)।  आपने 'जमीन के लोग' (नवगीत), 'वाक़िफ रायबरेलवी: जीवन और रचना' (रचना संचयन), हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ हाइकु'का सम्पादन किया। आप त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'यदि'के सम्पादक है। आपको म.प्र. का 'अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरण' ('सड़क पर गिलहरी'कृति के लिए) सहित अन्य कई विशिष्ट सम्मान प्रदान किये जा चुके हैं। वर्त्तमान में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। 

'ढाई आखर पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व दिनेश सिंह की स्मृति में दिया जायेगा। प्रबुद्ध नवगीतकार एवं नये-पुराने पत्रिका के यशस्वी सम्पादक दिनेश सिंह जी का जन्म 14 सितम्बर 1947 को रायबरेली (उ.प्र.) के एक गाँव गौरारुपई में हुआ। अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’ में आपकी पहली कविता प्रकाशित हुई थी। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज, ललित निबंध तथा समीक्षाएं प्रकाशित। ‘नवगीत दशक’तथा ‘नवगीत अर्द्धशती’ के नवगीतकार तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में गीत तथा कविताएं संकलित। प्रकाशित कृतियां : ‘पूर्वाभास’, ‘समर करते हुए’, ‘टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर’, ‘मैं फिर से गाऊँगा’ (सभी नवगीत संग्रह) ‘परित्यक्ता’ (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना)। निधन : 07 जुलाई 2012।

दिवालोक पुरस्कार

'दिवालोक पुरस्कार' डॉ अवनीश सिंह चौहान को प्रदान किया जाएगा। युवा कवि, अनुवादक एवं सम्पादक डॉ चौहान का जन्म 04 जून, 1979, चन्दपुरा (निहाल सिंह), इटावा (उत्तर प्रदेश) में हुआ। शिक्षा: अंग्रेज़ी में एम०ए०, एम०फिल० एवं पीएच०डी० और बी०एड०। 'शब्दायन'एवं 'गीत वसुधा'आदि समवेत संकलनों में आपके गीत और मेरी शाइन (आयरलेंड) द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह 'ए स्ट्रिंग ऑफ़ वर्ड्स' (2010) में रचनाएं संकलित। आपकी आधा दर्जन से अधिक अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों में पढ़ी-पढाई जा रही हैं। पिछले वर्ष प्रकाशित आपका गीत संग्रह 'टुकड़ा कागज़ का'काफी चर्चित हुआ। आपने डॉ०बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पुस्तक का संपादन किया है। आप वेब पत्रिका पूर्वाभास के सम्पादक और भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'साहित्य समीर दस्तक'के सह- सम्पादक हैं। आपको अंतर्राष्ट्रीय कविता कोश सम्मान, मिशीगन, अमेरिका से बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड, राष्ट्रीय समाचार पत्र 'राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है। वर्त्तमान में आप आइएफटीएम विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। 

'दिवालोक पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व डॉ शम्भुनाथ सिंह की स्मृति में दिया जायेगा। डॉ शम्भुनाथ सिंह जी का जन्म 17 जून 1916 को गाँव रावतपार, जिला देवरिया, उत्तरप्रदेश में हुआ। प्रकाशित कृतियाँ : रूप रश्मि, दिवालोक, समय की शिला पर, जहाँ दर्द नीला है, वक़्त की मीनार पर, माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्या (सभी गीत / नवगीत संग्रह), छायालोक, उदयाचल, माध्यम मैं (गीत और कविताएं), रातरानी, विद्रोह (कहानी संग्रह), धरती और आकाश, अकेला शहर, अदृश्य चम्पा (नाटक), दीवार की वापसी तथा अन्य (एकांकी), छायावाद युग, हिंदी महाकाव्य का स्वरुप- विकास, मूल्य और उपलब्धि, प्रयोगवाद और नई कविता, हिन्दी काव्यों की सामाजिक भूमिका, हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास - 14 वां खण्ड (सभी आलोचनाएं)। नवगीत दशक - एक, नवगीत दशक - दो, नवगीत दशक - तीन, ’नवगीत अर्द्धशती’ एवं नवगीत सप्तक का सम्पादन। निधन : 03 सितम्बर 1991।


कार्यक्रम के कर्ता-धर्ता 


इस कार्यक्रम का आयोजन करने वाले भामाशाह मेरे अग्रज डॉ सत्यवीर सिंह चौहान, उप निदेशक, श्री सत्य ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशंस, हैं। डॉ चौहान न केवल एक सच्चे साहित्यसेवी हैं बल्कि कुशल प्रशासक, शिक्षाविद एवं समाजसेवी भी हैं। डॉ चौहान को इस आयोजन हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।


Srajan Samman evam Kavya Samaroh, Moradabad, U.P.

सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह : कवियों से मिलिए

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मुरादाबाद :श्री सत्य कॉलेज ऑफ हायर एजूकेशन, मुरादाबाद (उ प्र) 29 मार्च 2014 (अपराह्न 2 : 00 बजे) को 'सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह'का आयोजन करने जा रहा है, जिसमें आमंत्रित कवियों को सम्मानित किया जायेगा और काव्य पाठ होगा। 

इस कार्यक्रम में श्रद्धेय डॉ धनञ्जय सिंह (ग़ाज़ियाबाद) को'बंशी और मादल पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) को'राघव राग पुरस्कार'श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक (कानपुर) को'गीतांगिनी पुरस्कार'श्रद्धेय श्री निर्मल शुक्ल (लखनऊ) को'गीतम पुरस्कार'श्रद्धेय श्री कमलेश भट्ट 'कमल' (बरेली) को'भ्रमर पुरस्कार'श्रद्धेय श्री राकेश चक्र (मुरादाबाद) को 'शिंजनी पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ जगदीश व्योम (दिल्ली) को'गीत विहग पुरस्कार', अग्रज श्री रमाकांत (रायबरेली) को'ढाई आखर पुरस्कार'एवं डॉ अवनीश सिंह चौहानको 'दिवालोक पुरस्कार'से अलंकृत किया जाएगा। इसमें सम्मानित कवि को रु 2100/- पुरस्कार राशि के रूप प्रदान किये जाने का प्रावधान है। 

बंशी और मादल पुरस्कार

'बंशी और मादल पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ धनञ्जय सिंहजी (ग़ाज़ियाबाद) को प्रदान किया जाएगा। जाने-माने कवि, संपादक, लेखक डॉ सिंह (जन्म 29 अक्टूबर 1945) ने हिन्दी में एम ए करने के बाद 'महाभारत के उपजीव्य : आधुनिक खंडकाव्यों में पौराणिक सन्दर्भ एवं आधुनिक चेतना'शोध विषय पर पीएच. डी की उपाधि प्राप्त की। आपका काव्य संग्रह 'पलाश दहके हैं'काफी चर्चित रहा है। आपने 20 काव्य संकलन, 2 कहानी संग्रह, 1 जीवनी का विधिवत सम्पादन किया एवं देहरादून से प्रकाशित पत्रिका 'सरस्वती सुमन'का 'गीत विशेषांक'के अतिथि संपादक रहे। आपकी कई रचनाओं का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण हो चुका है। आपने फिल्म 'अंतहीन'हेतु गीत लिखे और डॉक्यूमेंट्री 'चलो गाँव की और'की पटकथा लेखन भी किया। आपको उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ से 'साहित्य भूषण सम्मान'प्रदान किया जा चुका है। मुख्य कॉपी सम्पादक (कादम्बनी पत्रिका) से सेवानिवृत्ति के बाद वर्तमान में आप स्वतन्त्र लेखन कर रहे हैं।

'बंशी और मादल पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व ठाकुर प्रसाद सिंह जी की स्मृति में दिया जायेगा। हिन्दी में नवगीत के एक प्रमुख प्रवर्तक कवि ठाकुर प्रसाद सिंह जी का जन्म 01 दिसम्बर 1924 को ईश्वरगंगी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। इन्होंने हिन्दी तथा प्राचीन भारतीय इतिहास व पुरातत्व में उच्च शिक्षा प्राप्त की। कई वर्षों तक अध्यापन और पत्रकारिता के बाद आप उत्तरप्रदेश के सूचना विभाग में चले गए और वहाँ निदेशक रहे। आपने कई नाटक तथा उपन्यास भी लिखे। आपने बरसों तक 'ग्राम्या'साप्ताहिक और 'उत्तर प्रदेश'मासिक का सम्पादन किया। प्रमुख कृतियाँ : वंशी और मादल (नवगीत संग्रह) 1959, महामानव (प्रबन्धकाव्य) 1946, हारी हुई लड़ाई लड़ते हुए (कविता-संग्रह) 1988 । निधन : अक्तूबर 1994। 

राघव राग पुरस्कार

'राघव राग पुरस्कार'श्रद्धेय डॉ बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) को प्रदान किया जाएगा। हिन्दी और मैथली के लाड़ले कवि डॉ बुद्धिनाथ मिश्र का जन्म 01 मई, 1949 को मिथिलांचल में समस्तीपुर(बिहार) के देवधा गाँव में हुआ। शिक्षा: (अंग्रेज़ी), एम.ए.(हिन्दी), ‘यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत’ शोध विषय पर पी.एच.डी. की उपाधि। 1969 से आकाशवाणी और दूरदर्शन के कई केन्द्रों पर काव्यपाठ, वार्ता, संगीत रूपकों का प्रसारण। बीबीसी, रेडियो मास्को आदि से भी काव्यपाठ, भेंटवार्ता प्रसारित। दूरदर्शन के राष्ट्रीय धारावाहिक ‘क्यों और कैसे?’ का पटकथा लेखन। वीनस कम्पनी से ‘काव्यमाला’ और ‘जाल फेंक रे मछेरे’ कैसेट, मैथिली संस्कार गीतों के दो ई.पी. रिकार्ड और संगीतबद्ध गीतों का कैसेट ‘अनन्या’। ‘जाल फेंक रे मछेरे’ ‘शिखरिणी’ ‘जाड़े में पहाड़’ और 'ऋतुराज एक पल का'आपके अब तक प्रकाशित नवगीत संग्रह हैं। ‘अक्षत’ पत्रिका और ‘खबर इंडिया’ ई-पत्रिका में आपके कर्तृत्व पर केन्द्रित विशेषांक और ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ (सम्पादक : डॉ. अवनीश चौहान) पुस्तक प्रकाशित। आप रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, मारिशस, उज़बेकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, सिंगापुर,यूएई आदि देशों की साहित्यिक यात्रा कर चुके डॉ मिश्र ने न्यूयार्क और जोहान्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। अन्तरराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ से 'साहित्य भूषण सम्मान'सहित कई अन्य सम्मानों से अलंकृत। ओएनजीसी में निदेशक (राजभाषा) के पद से सेवानिवृत्त डॉ मिश्र ‘प्रभात वार्ता’ दैनिक में ‘साप्ताहिक कोना’, ‘सद्भावना दर्पण’ में ‘पुरैन पात’ और ‘सृजनगाथाडॉटकॉम’ पर ‘जाग मछन्दर गोरख आया’ स्तम्भ लेखन कर रहे हैं। 

'राघव राग पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व उमाकांत मालवीय जी की स्मृति में दिया जायेगा। उमाकांत मालवीय जी का जन्म 02 अगस्त 1931 को मुम्बई में हुआ था। शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। इन्होंने कविता के अतिरिक्त खण्डकाव्य, निबंध तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। काव्य-क्षेत्र में मालवीय जी ने नवगीत विधा को अपनाया। प्रकाशित कृतियाँ : मेंहदी और महावर, एक चावल नेह रींधा, सुबह रक्त पलाश की, रक्तपथ (सभी नवगीत-संग्रह), देवकी, रक्तपथ (सभी कविता संग्रह), राघवराग (रामायण के पात्रों पर केंद्रित काव्य संग्रह)। निधन: 11 नवम्बर 1982 ।

गीतांगिनी पुरस्कार

'गीतांगिनी पुरस्कार'श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक (कानपुर) को प्रदान किया जाएगा। चर्चित कवि, सम्पादक एवं आलोचक वीरेंद्र आस्तिक जी का जन्म 15 जुलाई 1947 को कानपुर (उ.प्र.) के एक गाँव रूरवाहार में हुआ। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। 1980 में आपका पहला गीत संग्रह 'वीरेंद्र आस्तिक के गीत'नाम से प्रकाशित हुआ। अब तक आपके पांच गीत संग्रह- 'परछाईं के पाँव', 'आनंद! तेरी हार है', 'तारीख़ों के हस्ताक्षर', 'आकाश तो जीने नहीं देता',  'दिन क्या बुरे थे'प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त काव्य समीक्षा के क्षेत्र में भी आप विगत दो दशकों से सक्रिय हैं जिसका सुगठित परिणाम है- धार पर हम (एक और दो) जैसे आपके द्वारा किये गये सम्पादन कार्य। आपकी कृति 'तारीख़ों के हस्ताक्षर'को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ से आर्थिक सहयोग प्रदान किया गया। इसी संस्थान से आपके चर्चित गीत संग्रह 'दिन क्या बुरे थे'को सर्जना पुरस्कार मिला।  आपकी कई रचनाओं का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण हो चुका है। 2013 में मासिक पत्रिका संकल्प रथ (भोपाल) ने आपकी रचनाधर्मिता पर एक विशेषांक प्रकाशित किया जोकि काफी चर्चित रहा। भारत संचार निगम लि. से सेवानिवृत्त आस्तिक जी वर्त्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 


'गीतांगिनी पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व राजेन्द्र प्रसाद सिंह जी की स्मृति में दिया जायेगा। हिन्दी में नवगीत के एक प्रमुख प्रवर्तक कवि स्व राजेन्द्र प्रसाद सिंह जी का जन्म 1930 में मुजफ्फरपुर, बिहार में हुआ। प्रकाशित कृतियां : आओ खुली बयार, भरी सड़क पर, रात आँख मूंदकर जगी है, लाल नील धारा (नवगीत संग्रह), भूमिका, मादिनी, दिग्वधू, सजीवन कहाँ, उजली कसौटी, डायरी के जन्म दिन (कविता संग्रह), अमावस और जुगनू, जुगनू और चांदनी (उपन्यास), सो हीयर आई स्टैंड (अंग्रेजी में अपनी कविताओं का स्वानुवाद), दीप-युद्ध (चीनी कविताओं का अनुवाद)। नवगीत का पहला समवेत संकलन 'गीतांगिनी'का संपादन। निधन : 07 नवंबर 2007। 

गीतम पुरस्कार

'गीतम पुरस्कार'श्रद्धेय श्री निर्मल शुक्ल (लखनऊ) को प्रदान किया जाएगा। अथक हिंदी सेवी निर्मल शुक्ल जी का जन्म 03 फरवरी 1948 को पूरब गाँव, बक्‍शी का तालाब, लखनऊ, उ.प्र. में हुआ। अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्‍य काल, नील वनों के पार, नहीं कुछ भी असम्भव आपके चर्चित नवगीत संग्रह हैं। आप उत्तरायण पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन कर रहे हैं। आपके द्वारा सम्पादित गीत संकलन 'शब्‍दपदी'और 'शब्दायन'काफी चर्चित रहे। देश के महत्‍वपूर्ण समवेत काव्‍य संकलनों में आपकी रचनाएं संकलित। हिन्‍दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी-केन्‍द्र, साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक मंचो के माध्‍यम से आपकी अनेक रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण। 'अब तक रही कुंवारी धूप'पुस्तक उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ से पुरस्कृत। आप विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, उज्जैन से 'विद्यावाचस्पति उपाधि'सहित कई अन्य सम्मानों से विभूषित किये जा चुके हैं। भारतीय स्‍टेट बैंक से सेवानिवृत्ति के पश्‍चात आप स्‍वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 

'गीतम पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व वीरेंद्र मिश्र जी की स्मृति में दिया जायेगा। मिश्र जी का जन्म 01 दिसंबर 1927 को मुरैना, म प्र में हुआ। आपकी प्रकाशित कृतियां : गीतम, लेखनी बेला, अविराम चल मधुवंती, झुलसा है छायानट धूप में, धरती गीताम्बरा, शांति गन्धर्व, कांपती बांसुरी, गीत पंचम, चन्दन है माटी मेरे देश की, उत्सव गीतों की लाश पर, मुखरित संवेदन, बरसे रस की फुहारी, वाणी के कलाकार, जलतरंग, अंतराल (सभी गीत संग्रह), तथा 'वीरेंद्र मिश्र की गीत यात्रा (पांच खण्डों में)। सांध्यमित्रा पत्रिका का सम्पादन। निधन : 01 जून, 1995 । 



भ्रमर पुरस्कार

'भ्रमर पुरस्कार' श्रद्धेय श्री कमलेश भट्ट 'कमल' (बरेली) को प्रदान किया जाएगा। साहित्य रत्न कमल जी का जन्म 13 फरवरी 1959 को सुल्तानपुर (उ॰प्र॰) की कादीपुर तहसील के ज़फरपुर नामक गाँव में हुआ। शिक्षा: एम॰एस-सी॰ (साँख्यिकी)। आप ग़ज़ल, कहानी, हाइकु, साक्षात्कार, निबन्ध, समीक्षा एवं बाल-साहित्य आदि विधाओं में लेखन करते हैं। प्रकाशित कृतियाँ : त्रिवेणी एक्सप्रेस (कहानी संग्रह), चिट्ठी आई है (कहानी संग्रह), नखलिस्तान (कहानी संग्रह), सह्याद्रि का संगीत (यात्रा वृतान्त), साक्षात्कार (लघुकथा पर डॉ॰ कमल किशोर गोयनका से बातचीत), मंगल टीका (बाल कहानियाँ), शंख सीपी रेत पानी (ग़ज़ल संग्रह), अजब गजब ( बाल कविताएँ), तुर्रम (बाल उपन्यास), अमलतास (हाइकु संग्रह)।  साथ ही 'आपने शब्द साक्षी' (लघु कथा संकलन), हाइकु - 1989 (हाइकु संकलन), हाइकु-1999 (हाइकु संकलन), हाइकु 2009 (हाइकु संकलन) का संपादन किया। आपको उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा 'मंगल टीका'एवं 'शंख सीपी रेत पानी'कृतियों पर 20-20 हजार रुपए का नामित पुरस्कार तथा नखलिस्तान के लिए सर्जना पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है । परिवेश सम्मान, आर्य स्मृति साहित्य सम्मान सहित कई अन्य सम्मानों से अलंकृत। वर्त्तमान में आप उ॰प्र॰ के बिक्री कर विभाग में ज्वाइंट कमिश्नर पद पर आसीन हैं

'भ्रमर पुरस्कार' ख्यातिलब्ध साहित्यकार  स्व रवीन्द्र भ्रमर जी की स्मृति में दिया जायेगा। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफ़ेसर रहे भ्रमर जी का जन्म 06 जून 1934 को जौनपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ। प्रकाशित कृतियाँ : रवीन्द्र भ्रमर के गीत, सोनमछरी मन बसी, धूप दिखाये आरसी, गीत रामायण (सभी गीत संग्रह), कविता- सविता, प्रक्रिया (दोनों कविता-संग्रह)। पद्मावत में लोकतत्व, हिन्दी के आधुनिक कवि, हिन्दी भक्ति साहित्य में लोक-तत्व, छायावाद : एक पुनर्मूल्यांकन, समकालीन हिन्दी कविता, लोक साहित्य की रूप-रेखा, गीतिकाव्य की रचना-प्रक्रिया, नारी की आत्मकथा (सभी आलोचनाएं)। निधन : 28 नवंबर 1998।

शिंजनी पुरस्कार

'शिंजनी पुरस्कार' श्रद्धेय श्री राकेश चक्र (मुरादाबाद) को प्रदान किया जाएगा। सुन्दर विचारों के नायक चक्र जी का जन्म 14 नवम्बर 1955 को ग्राम सजाबाद-ताजपुर, जनपद-अलीगढ़ (उ.प्र.) में हुआ। शिक्षा : स्नातकोत्तर (समाजशास्त्र), एल.एल.बी, एक्यूप्रेशर एवं योग। आप 1973 से लेखन कर रहे हैं और आपकी प्रथम कविता ‘‘जन्म सिद्ध अधिकार है"लखनऊ के स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई थी। अब तक आपकी लगभग पांच दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी बाल साहित्य पर लिखी कई पुस्तकें कई विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मलित की जा चुकी हैं। आपकी लघुकथाओं का कश्मीरी और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हो चुका है। प्रकाशित कृतियाँ : अमावस का अंधेरा (लघुकथा-संग्रह), मेरी गजलें मेरा प्यार (गजल-संग्रह), आपका जीवन आपके हाथ, वृक्ष और बीज (लघुकथा-संग्रह), एकता के साथ हम (गीत-संग्रह), राकेश चक्र’ की लघु कथाएँ, आजादी के दीवाने (कथा-संग्रह), कंजूस गोंतालू (बाल उपन्यास-संग्रह), राकेश ’चक्र’ की श्रे’ठ कहानियाँ, उत्तरांचल की लोककथाएँ, आओ भारत नया बनाएँ (गीत-संग्रह), वीर सुभाष, साक्षरता अनमोल रे (गीत-संग्रह), आओ पढ़ लें और पढ़ाएँ (गीत-संग्रह), सपनों को साकार करेंगे (बच्चों के मनोविज्ञान पर श्रे’ठ कृति), माटी हिन्दुस्तान की (गीत-संग्रह), राकेश चक्र’ की एक सौ इक्यावन बाल कवितायें, लट्टू-सी ये धरती घूमे, बाल कवितायें,  धीरे-धीरे गाना बादल (बालगीत-संग्रह), याद करेगा हिन्दुस्तान (बालगीत-संग्रह), पौधे रोपें (बालगीत-संग्रह), मेढ़क लाला चक्र निराला (बालगीत-संग्रह), बालक, सूरज और संसार, पशु-पक्षियों के मनोरंजक बालगीत, भरत का भारत (बालगीत-संग्रह), मात्रृभूमि है वीरों की (बालगीत-संग्रह), मीठी कर लें अपनी बोली (बालगीत-संग्रह), टीवी और बचपन (बालगीत-संग्रह), चाचा कलाम (बालगीत-संग्रह), सात घोड़े (बालगीत-संग्रह), पुच्छल तारे (विज्ञान-लेख), अन्यायी को दण्ड (बालगीत-संग्रह), साक्षरता अनमोल रे (बालगीत-संग्रह), बिच्छू वाला दीवान (बालकथा), रोबोट का आविष्कार (बाल कहानियाँ), वीर शिवाजी (शिशु गीत-संग्रह), ऊँचा देश उठाएँगे (शिशु गीत-संग्रह), था-था- थइया गाएँगे (शिशु गीत-संग्रह), चाचा चक्र के सचगुल्ले (कुण्डलियाँ) आदि। हाल ही में आपकी पुस्तक 'आपका जीवन आपके हाथ'उ प्र हिंदी संस्थान, लखनऊ से पुरस्कृत। आपको उ. प्र. कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ द्वारा सुमित्रानन्दन पंत पुरस्कार (51,000/-) सहित लगभग दो दर्जन पुरस्कार / सम्मान प्रदान किये जा चुके हैं। वर्त्तमान में आप उत्तरप्रदेश पुलिस (अभिसूचना विभाग) में सेवारत हैं। 

'शिंजनी पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकारस्व डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया की स्मृति में दिया जायेगा। उ प्र हिन्दी संस्थान से साहित्य भूषण से अलंकृत भदौरिया जी का जन्म 15 जुलाई 1927 को जनपद रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव धन्नीपुर (लालगंज) में हुआ था। 'हिंदी उपन्यास सृजन और प्रक्रिया'पर कानपुर विश्वविद्यालय से पी एच डी की उपाधि। वैसवारा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य के पद से 1988 में सेवानिवृत। आप 'नवगीत दशक'तथा 'नवगीत अर्द्धशती'के नवगीतकार रहे। आपका प्रथम गीत संग्रह ‘शिजिंनी’ 1953 में प्रकाशित हुआ था। और जब ‘धर्मयुग’ में ‘पुरवा जो डोल गयी’ प्रकाशित हुआ तो इस गीत ने गीत विधा को एक क्रांतिकारी परिवर्तन की दिशा प्रदान की। प्रकाशित कृतियाँ: 'शिन्जनी' (गीत-संग्रह), 'पुरवा जो डोल गई' (गीत-कविता संग्रह), 'ध्रुव स्वामिनी (समीक्षा) ', 'नदी का बहना मुझमें हो' (नवगीत संग्रह), 'लो इतना जो गाया' (नवगीत संग्रह), 'माध्यम और भी' (मुक्तक, हाइकु संग्रह), 'गहरे पानी पैठ' (दोहा संग्रह)। ‘ध्रुवस्वामिनी’ आपका समीक्षात्मक ग्रंथ हैं। ‘राष्ट्रचिंतन’, ‘मानस चन्दन’, ‘ज्योत्सना’ आदि पत्रिकाओं का आपने सम्पादन किया। आप महामहिम राज्यपाल द्वारा जिला परिषद, रायबरेली के नामित सदस्य भी रहे। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित 'राघव राग'पुस्तक प्रकाशित। निधन : 07 अगस्त 2013।

गीत विहग पुरस्कार

'गीत विहग पुरस्कार' श्रद्धेय डॉ जगदीश व्योम जी (दिल्ली) को प्रदान किया जाएगा। व्योम जी का जन्म 01 मई 1960 शंभूनगला¸ फर्रुखाबाद¸ उ .प्र . में हुआ। शिक्षा : एम .ए .हिंदी साहित्य में¸ एम .एड.¸ पीएच .डी. आपने लखनऊ विश्वविद्यालय से 'कनउजी लोकगाथाओं का सर्वेक्षण और विश्लेषण'पर शोध कार्य किया।प्रकाशित कृतियां :  इंद्रधनुष¸ भोर के स्वर (काव्य संग्रह), कन्नौजी लाकोक्ति और मुहावरा कोश, नन्हा बलिदानी¸ डब्बू की डिबिया (बाल उपन्यास), सगुनी का सपना (बाल कहानी संग्रह), आज़ादी के आस–पास¸ कहानियों का कुनबा (संपादित कहानी संग्रह)। आप हाइकु दर्पण और बाल प्रतिबिंब एवं कई वेब पत्रिकाओं/चिट्ठों का सम्पादन कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त देश की तमाम पत्र पत्रिकाओं में आपके शोध लेख¸ कहानी¸ बालकहानी¸ हाइकु¸ नवगीत आदि का अनवरत प्रकाशन। आकाशवाणी दिल्ली¸ मथुरा¸ सूरतगढ़¸ ग्वालियर¸ लखनऊ¸ भोपाल आदि केंद्रों से कविता¸ कहानी¸ वार्ताओं का प्रसारण।  आपकी कृति 'नन्हा बलिदानी'बाल उपन्यास के लिए आपको पांच पुरस्कार प्रदान किये गए। हाल ही में आपको 'निराला सम्मान' (निराला संस्थान, डलमऊ-रायबरेली) से  अलंकृत किया गया। वर्त्तमान में आप दिल्ली प्रशासन के अन्तर्गत शिक्षा विभाग में अधिकारी हैं।

'गीत विहग पुरस्कार' ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व रमेश रंजक की स्मृति में दिया जायेगा। रमेश रंजक जी का जन्म 02 सितंबर 1938 को नदरोई, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश, भारत में हुआ। प्रकाशित कृतियाँ : किरण के पाँव, गीत विहग उतरा, हरापन नहीं टूटेगा, मिट्टी बोलती है, इतिहास दुबारा लिखो, रमेश रंजक के लोकगीत, दरिया का पानी, अतल की लय, पतझर में वसंत की छवियाँ (सभी गीत संग्रह), नये गीत का उद्भव (आलोचना)। निधन : 08 अप्रैल 1991

ढाई आखर पुरस्कार

'ढाई आखर पुरस्कार' अग्रज श्री रमाकांत (रायबरेली) को प्रदान किया जाएगा। युवा कवि, सम्पादक रमाकांत जी का जन्म 20 अक्टूबर 1964 को पूरे लाऊ, बरारा बुजुर्ग, जनपद रायबरेली (उ.प्र.) में हुआ।  शिक्षा : एम.ए., एम.फिल. एवं पत्रकारिता में पी.जी डिप्लोमा। प्रकाशित कृतियां : नृत्य में अवसाद' (हाइकु संग्रह),  'सड़क पर गिलहरी' (कविता संग्रह) और 'जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ' (नवगीत संग्रह)।  आपने 'जमीन के लोग' (नवगीत), 'वाक़िफ रायबरेलवी: जीवन और रचना' (रचना संचयन), हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ हाइकु'का सम्पादन किया। आप त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'यदि'के सम्पादक है। आपको म.प्र. का 'अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरण' ('सड़क पर गिलहरी'कृति के लिए) सहित अन्य कई विशिष्ट सम्मान प्रदान किये जा चुके हैं। वर्त्तमान में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। 

'ढाई आखर पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व दिनेश सिंह की स्मृति में दिया जायेगा। प्रबुद्ध नवगीतकार एवं नये-पुराने पत्रिका के यशस्वी सम्पादक दिनेश सिंह जी का जन्म 14 सितम्बर 1947 को रायबरेली (उ.प्र.) के एक गाँव गौरारुपई में हुआ। अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’ में आपकी पहली कविता प्रकाशित हुई थी। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज, ललित निबंध तथा समीक्षाएं प्रकाशित। ‘नवगीत दशक’तथा ‘नवगीत अर्द्धशती’ के नवगीतकार तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में गीत तथा कविताएं संकलित। प्रकाशित कृतियां : ‘पूर्वाभास’, ‘समर करते हुए’, ‘टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर’, ‘मैं फिर से गाऊँगा’ (सभी नवगीत संग्रह) ‘परित्यक्ता’ (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना)। निधन : 07 जुलाई 2012।

दिवालोक पुरस्कार

'दिवालोक पुरस्कार'डॉ अवनीश सिंह चौहान को प्रदान किया जाएगा। युवा कवि, अनुवादक एवं सम्पादक डॉ चौहान का जन्म 04 जून, 1979, चन्दपुरा (निहाल सिंह), इटावा (उत्तर प्रदेश) में हुआ। शिक्षा: अंग्रेज़ी में एम०ए०, एम०फिल० एवं पीएच०डी० और बी०एड०। 'शब्दायन'एवं 'गीत वसुधा'आदि समवेत संकलनों में आपके गीत और मेरी शाइन (आयरलेंड) द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह 'ए स्ट्रिंग ऑफ़ वर्ड्स' (2010) में रचनाएं संकलित। आपकी आधा दर्जन से अधिक अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों में पढ़ी-पढाई जा रही हैं। पिछले वर्ष प्रकाशित आपका गीत संग्रह 'टुकड़ा कागज़ का'काफी चर्चित हुआ। आपने डॉ०बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता पुस्तक का संपादन किया है। आप वेब पत्रिका पूर्वाभास के सम्पादक और भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'साहित्य समीर दस्तक'के सह- सम्पादक हैं। आपको अंतर्राष्ट्रीय कविता कोश सम्मान, मिशीगन, अमेरिका से बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड, राष्ट्रीय समाचार पत्र 'राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है। वर्त्तमान में आप आइएफटीएम विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। 

'दिवालोक पुरस्कार'ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्वडॉ शम्भुनाथ सिंह की स्मृति में दिया जायेगा। डॉ शम्भुनाथ सिंह जी का जन्म 17 जून 1916 को गाँव रावतपार, जिला देवरिया, उत्तरप्रदेश में हुआ। प्रकाशित कृतियाँ : रूप रश्मि, दिवालोक, समय की शिला पर, जहाँ दर्द नीला है, वक़्त की मीनार पर, माता भूमिः पुत्रोSहं पृथिव्या (सभी गीत / नवगीत संग्रह), छायालोक, उदयाचल, माध्यम मैं (गीत और कविताएं), रातरानी, विद्रोह (कहानी संग्रह), धरती और आकाश, अकेला शहर, अदृश्य चम्पा (नाटक), दीवार की वापसी तथा अन्य (एकांकी), छायावाद युग, हिंदी महाकाव्य का स्वरुप- विकास, मूल्य और उपलब्धि, प्रयोगवाद और नई कविता, हिन्दी काव्यों की सामाजिक भूमिका, हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास - 14 वां खण्ड (सभी आलोचनाएं)। नवगीत दशक - एक, नवगीत दशक - दो, नवगीत दशक - तीन, ’नवगीत अर्द्धशती’ एवं नवगीत सप्तक का सम्पादन। निधन : 03 सितम्बर 1991।

Srajan Samman evam Kavya Samaroh, Moradabad, U.P.

श्री सत्य कॉलेज ऑफ हायर एजूकेशन में 'सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह'का भव्य आयोजन

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माँ वागीश्वरी के समक्ष मंगलदीप जलाकर
कार्यक्रम का शुभारम्भ करते श्री देवेन्द्र कुमार मालिक।
साथ में सर्वश्री राज सिंह वर्मा, अनुभव सिंह, 
प्रो एस एन सिंह, 

कॉलेज के निदेशक, डॉ सत्यवीर सिंह चौहान,  डॉ धनञ्जय सिंह, 
वीरेंद्र आस्तिक, निर्मल शुक्ल,कमलेश भट्ट कमल एवं अन्य। 

मुरादाबाद : शनिवार, 29 मार्च 2014 श्री सत्य कॉलेज ऑफ हायर एजूकेशन, मुरादाबाद (उ प्र) की ओर से कॉलेज सभागार में 'सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह'का आयोजन किया गया। माँ वागीश्वरी के समक्ष मंगलदीप जलाकर जहाँ मुख्य अतिथि अमरोहा के एडीशनल जज श्री राज सिंह वर्मा, विशिष्ट अतिथि मुरादाबाद के डिप्टी कमिश्नर श्री अनुभव सिंह, अध्यक्ष श्री सत्य ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशन्स के चेयरमैनश्री देवेन्द्र कुमार मलिकने कार्यक्रम का शुभारम्भ किया, वहीं डी एल एड के छात्र-छात्राओं ने सरस्वती वंदना एवं स्वागत गीत प्रस्तुत किया। इस अवसर पर कार्यक्रम के आयोजकडॉ सत्यवीर सिंह चौहानने 'सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह'के प्रयोजन को रेखांकित कर उपस्थित सभी अतिथियों, साहित्यकारों का जोरदार स्वागत एवं अभिनन्दन किया।
आमंत्रित साहित्यकारों को सृजन सम्मान 
कार्यक्रम के प्रथम सत्र में आमंत्रित कवियों को सम्मानित किया गया। साहित्यकार डॉ धनञ्जय सिंह (ग़ाज़ियाबाद) को ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व ठाकुर प्रसाद सिंह जी की स्मृति में 'बंशी और मादल पुरस्कार', श्री वीरेंद्र आस्तिक (कानपुर) को ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व राजेन्द्र प्रसाद सिंह जी की स्मृति में 'गीतांगिनी पुरस्कार', श्री निर्मल शुक्ल (लखनऊ) को ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व वीरेंद्र मिश्र जी की स्मृति में 'गीतम पुरस्कार', श्री कमलेश भट्ट 'कमल' (बरेली) को ख्यातिलब्ध साहित्यकार  स्व रवीन्द्र भ्रमर जी की स्मृति में 'भ्रमर पुरस्कार', श्री राकेश चक्र (मुरादाबाद) को ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया की स्मृति में 'शिंजनी पुरस्कार', डॉ जगदीश व्योम (दिल्ली) को ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व रमेश रंजक की स्मृति में 'गीत विहग पुरस्कार', श्री रमाकांत (रायबरेली) को ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व दिनेश सिंह की स्मृति में 'ढाई आखर पुरस्कार'एवं डॉ अवनीश सिंह चौहान को ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व डॉ शम्भुनाथ सिंह की स्मृति में 'दिवालोक पुरस्कार'से अलंकृत किया गया। इस अवसर पर डॉ बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) समारोह में उपस्थित नहीं हो सके, जिन्हें ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व उमाकांत मालवीय जी की स्मृति में 'राघव राग पुरस्कार' दिया जाना था। 


समारोह के अध्यक्षश्री देवेन्द्र कुमार मलिकने सम्मानित साहित्यकारों एवं अतिथियों के आगमन पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि साहित्य और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए इस तरह के कार्यक्रमों का आयोजन बहुत जरूरी है। साहित्यकार समाज के सच्चे शुभचिंतक होते हैं और समाज को दिशा देते हैं। मुख्य अतिथि श्री राज सिंह वर्माने अपने उद्बोधन में डॉ सत्यवीर सिंह चौहान के साहित्यिक प्रयासों की सराहना की और कहा कि इस कॉलेज के प्राध्यापक एवं छात्र-छात्राओं की विनम्रता और साहित्यप्रेम प्रशंसनीय है। विशिष्ट अतिथि श्री अनुभव सिंहने मुरादाबाद की धरती को प्रणाम करते हुए कहा कि मुरादाबाद की माटी में साहित्य सेवा का जो भाव दिखाई देता है वह श्लाघनीय है। 

दूसरे सत्र में आमंत्रित कवियों ने काव्य पाठ किया।डॉ धनञ्जय सिंह (ग़ाज़ियाबाद) , श्री वीरेंद्र आस्तिक (कानपुर), श्री निर्मल शुक्ल (लखनऊ), श्री कमलेश भट्ट 'कमल' (बरेली), श्री राकेश चक्र (मुरादाबाद), डॉ जगदीश व्योम (दिल्ली), श्री रमाकांत (रायबरेली) एवंडॉ अवनीश सिंह चौहानने अपनी धारदार रचनाओं को प्रस्तुत कर श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया। 

1. डॉ धनञ्जय सिंह ने पढ़ा -

हमने कलमें गुलाब की रोपी थीं 
पर गमलों में उग आयी नागफनी 

समझौतों के गुब्बारे बहुत उड़े 
उड़ते ही सबकी डोर छूट गयी 
विश्वास किसे, क्या कहकर बहलाते 
जब नींद लोरियां सुनकर टूट गयी 
सम्बन्धों से हम जुड़े रहे यों ही 
ज्यों जुडी वृक्ष से हो टूटी टहनी।  

2. श्री वीरेंद्र आस्तिक ने पढ़ा - 

सेक्स उतर आया हिंसा पर 
बालाओं का करता मर्डर। 

और 

बहरों की इस सभागार में 
कहने की आज़ादी 
इसका सीधा अर्थ यही है
शब्दों की बर्बादी।

3. श्री निर्मल शुक्ल ने पढ़ा - 

सीढ़ियां चढ़ती दिखें तो व्योम तक ले जायेंगी 
और जो उतरी दिखें तो गर्त में पहुचाएंगी 
मीत इन पर पॉँव रखना तुम संभलकर देखना 
ये हिलीं तो क्या पता जाने कहाँ ले जाएंगी। 

4. श्री कमलेश भट्ट 'कमल'ने पढ़ा - 

विरोध अपना जताने का तरीका पेड़ का भी है।
जहाँ से शाख काटी थी वहीं से कोपलें निकलीं।।

और 

उन्हें हम कोख में भी चैन से जीने नहीं देते ।
सतायी जा रहीं हैं भ्रूण से ही बेटियां कितनी।।

5. श्री राकेश चक्र ने पढ़ा -

चेहरे पर चेहरे मिलें, अद्भुत इनके जाल।
गैंडे की सी हो गई, मोटी इनकी खाल।।
मोटी इनकी खाल, स्वयं को धोखा देते।
लेते देते खूब, ऐंठ में वे हैं रहते।।
कहें चक्र कविराय हुए हम अंधे बहरे।।
असली चेहरे छिपे आज चेहरे पर चेहरे।।

6. डॉ जगदीश व्योम ने पढ़ा - 

कौन भला किससे कहे, कहना है बेकार।
शकरकंद के खेत के, बकरे पहरेदार।।

और 

बौने कद के लोग हैं, पर्वत से अभिमान।
जुगनू अब कहने लगे, खुद को भी दिनमान।।

7. श्री रमाकांत ने पढ़ा -

महाभारत फिर न हो यह देखियेगा 
फिर वही बातें, वही चालें पुरानी 

राजधानी में लुटी है द्रोपदी फिर 
खेलते रस्साकसी नेकी-बदी फिर 
कौन जीते, कौन हारे देखियेगा 
धर्म ने फिर ओढ़ ली खालें पुरानी। 

8. डॉ अवनीश सिंह चौहान ने पढ़ा - 

पहना चश्मा, कान पर, धर ली तुमने 'लीड'।
नम्बर बांटे झौंक कर, कॉपी सब 'अनरीड'।।
कॉपी सब 'अनरीड', देखते सभी नज़ारे।
फेल हुए हैं पास, पास सब टॉप-सितारे।।
कहें 'अवनि'कविराय, मानिए मेरा कहना।
देख-भाल कर बाँट, गुरू का चोला पहना।।

काव्य समारोह की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ धन्नजय सिंहने कहा-"यह कार्यक्रम इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है कि इस मंच से साहित्यिक गीत-कविताओं का वाचन किया गया और प्रबुद्ध श्रोताओं ने धैर्य का परिचय देते हुए काव्य गंगा का पूरे मनोयोग से रसपान किया। आयोजक मण्डल को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।"

कार्यक्रम का संचालन संजीव आकांक्षी एवं अवनीश सिंह चौहान ने संयुक्त रूप से किया। सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह में उपस्थित सभी अधिकारियों, विद्वानों, साहित्यकारों, प्राध्यापकों, छात्र-छात्राओं के प्रति आभार अभिव्यक्ति डॉ सत्यवीर सिंह चौहान ने की। इस मौके पर बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं, प्राध्यापकगण, अधिकारीगण, बुद्धिजीवी एवं सामजसेवी मौजूद रहे। इनमें प्रमुख हैं - डॉ ए के त्यागी, डॉ एस एन सिंह, डॉ दीप्ती गुप्ता, डॉ वी के वत्स, डॉ वी वी सिंह, डॉ मंदीप सिंह, डॉ सोमेन्द्र सिंह, हिमांशु यादव, डॉ ब्रजपाल सिंह यादव, डॉ मेजर देवेन्द्र सिंह, डॉ हरेन्द्र सिंह, डॉ हरिओम अग्रवाल, डॉ जी के उपाध्याय, डॉ बी के सिंह, डॉ के के मिश्रा, ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग, डॉ महेश्वर तिवारी, डॉ सुधीर अरोड़ा, डॉ मुकेश गुप्ता, डॉ महेश दिवाकर, अनवर कैफी, रघुराज सिंह निश्चल, डॉ अजय अनुपम, डॉ जगदीप भट्ट, आनंद कुमार गौरव, योगेन्द्र वर्मा व्योम, डॉ मीना नकवी, डॉ पूनम बंसल, ओंकार सिंह ओंकार, सतीश सार्थक, जितेन्द्र जोली, अंकित गुप्ता अंक, ब्रजवासी जी, चंद्रप्रकाश पन्त, संजीव चंदेल आदि। 

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पढ़ेंगे : सृजन सम्मान एवं काव्य समारोह : कवियों से मिलिए


ओम धीरज के पाँच गीत

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ओम धीरज

ओम धीरज हिन्दी गीत साहित्य के उन गिने-चुने कवियों में से एक हैं जो प्रशासन में रहते हुए जनता की आवाज़ को बुलन्द कर रहे हैं। लोक भाषा और मुहावरों की चासनी में पगे आपके गीत जन-जीवन के विविध आयामों को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत करते हैं। आपके गीतों में जहाँ प्राकृतिक छटाओं का सुन्दर चित्रण है वहीं गॉँव-गिराँव, खेत-खलिहान, नगर-महानगर, राजनीति-काजनीति के मिश्रित स्वरों को भी महसूस किया जा सकता है। मिलनसार, सहज, मृदुभाषी एवं वैरागी ओम धीरज का जन्म 15 मार्च सन् 1958 को ग्राम भदौरा, पत्रालय मौधिया, जनपद गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। प्रकाशित कृतियां : बेघर हुए अलाव, 2004 एवं सावन सूखे पाँव, 2012 ( दोनों गीत संग्रह) । आपके अनेक गीत रेत में बहता जल, 1997;यादें अतीत की, 2001; पूर्वाचल की मांटी, 2002; गोमती के स्वर, 2004;नवगीत नई दस्तकें, 2009; नवगीत के नये प्रतिमान, 2012; शब्दायन, 2012; गीत वसुधा, 2013 आदि समवेत संकलनों में प्रकाशित हो चुके हैं। प्रो वशिष्ठ अनूप (बीएचयू) की आलोचना पुस्तक गीत का आकाश (2010)के एक प्रतिनिधि गीतकार धीरज जी ने अक्षर सुमन (केराकत जौनपुर के 36 कवियों का संकलन-वर्ष (1996), चन्दौली कल और आज (जनपद महोत्सव 2003 की दस्तावेजी स्मारिका) का संपादन किया है और हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका सबके दावेदार (आजमगढ़) के सलाहकार सम्पादक हैं। आपको उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ का नामित निराला पुरस्कार (धनराशि 40,000/-) सहित कई अन्य सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है। वर्त्तमान में आप उ.प्र. पी.सी.एस. अधिकारी के रूप में सेवारत हैं। संपर्क : 67 / 45, छोटा बगहारा, प्रयाग, इलाहाबाद- 211002 । मोब : 09415270194।

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. अब खोलो स्कूल

अब खोलो स्कूल कि,
शिक्षा भी तो बिकती है 

भवन-पार्क 'गण वेश’
आदि सब सुन्दर भव्य बनाओ,
बच्चो में सपने बसते हैं 
उनको तुरत भुनाओ, 
वस्तु वही बिकती है जो कि
अक्सर दिखती है

गुणवत्ता से भले मुरौव्वत
नहीं दिखावट से, 
विज्ञापन की नाव तैरती 
शब्द सजावट से,
गीली लकड़ी गर्म आँच में 
भी तो सिंकती है 

बेकारों की फौज बड़ी है 
उनमें सेंध लगाओ, 
भूख बड़ी है हर ’डिग्री’ से 
इसका बोध कराओ, 
शोषण की पटकथा सदा ही 
पूँजी लिखती है।

2. तन्त्र की जन्म कुण्डली लिखते

थोड़े बहुत बूथ पर लेकिन
नहीं सड़क पर दिखते, 
सन्नाटों के बीच ’तन्त्र’ की 
जन्म कुण्डली लिखते 

कलम कहीं पर रूक-रूक जाती 
मनचाहा जब दीखे, 
तारकोल से लिपे चेहरे 
देख ईंकं भी चीखे, 
सूर्य चन्द्र-से ग्रह गायब है, 
राहु केतु ही मिलते 

कथनी-करनी बीच खुदी है 
कितनी गहरी खाई, 
जिसे लाँघते काँप रही है 
अपनी ही परछाई, 
अब तो लाल-किताब छोड़कर 
नयी संहिता रचते

चूहा छोटा जाल काटता 
शेर मुक्त हो जाता, 
व्यक्ति बड़ा है ग्रह गोचर से 
यह अतीत बतलाता, 
लोक तंत्र में एक वोट से 
तख्त ताज भी गिरते

’मत चूक्यो चैहान’ कहा था, 
कभी किसी इक कवि ने, 
अंधकार से तभी लड़ा था 
दीपक जैसे रवि ने, 
’साइत नही सुतार’ देखिए 
लोक-कथन यह कहते।

3. महिला ऐसे चलती 

आठ साल के बच्चे के संग 
महिला ऐसे चलती, 
जैसे साथ सुरक्षा गाड़ी 
लप-लप बत्ती जलती 

बचपन से ही देख रही वह 
यह विचित्र परिपाटी,
पुरूष पूत है लोहा पक्का 
वह कुम्हार की माटी , 
’बूँद पड़े पर गल जायेगी’ 
यही सोचकर बढ़ती, 
इसीलिए वह सदा साथ में 
छाता कोई रखती

बाबुल के आँगन में भी वह 
यही पाठ पढ़ पाती, 
भाई लालटेन 
बहना ढिवरी की इक बाती , 
’फूँक लगे पर बुझ जाये’ 
वह इसी सोच में पलती , 
ठोस बड़ी कन्दील सरीखी 
बूँद-बूँद सी गलती 

प्याले शीशे पत्थर के वे, 
वह माटी का कुल्हड़ , 
उसके जूठे होने का 
हर वक्त मनाएँ हुल्लड़ 
सदा हुई भयभीत पुरूष से, 
पुरूष ओट वह रखती , 
सीता-सी, रावण-पुरूषों के
बीच सदा तृण रखती ।

4. मैं समय का गीत 

मै समय का गीत 
लिखना चाहता, 
चाहता मैं गीत लिखना आज भी

जब समय संवाद से है बच रहा
हादसा हर वक्त कोई रच रहा
साथ अपनी छोड़ती परछाईयाँ 
झूठ से भी झूठ कहता सच रहा
शत्रु होते
इस समय के पृष्ठ पर 
’दूध-जल’-सा मीत लिखना चाहता

जाल का संजाल बुनती उलझनें,
नीड़ सपनों के अभी हैं अधबुने
हाथ में हैं हाथ जिनके हम दिये 
गाय की माने बधिक ही वे बने 
अब गुलामी
के बने कानून की 
मुक्ति का संगीत लिखना चाहता 

बाड़ ही जब बाग को है खा रहा
पेड़ आरे का पॅवारा गा रहा
आग लेकर अब हवाएँ आ रहीं
दृश्य फिर भी हर किसी को भा रहा
हट सके गाढ़े
तिमिर का आवरण
आत्मचेता दीप लिखना चाहता 

जब सहोदर रक्त के प्यासे बने
माँ-पिता भी जैविकी खाॅचे बने 
जिदंगी क्लब के जुआघर में बिछी
नेह के रिश्ते जहाँ 'पासे’ बने
मर रहे आँसू 
नयन के कोर में
मैं सजल उम्मीद लिखना चाहता।

5. हम कदम ढूँढे कहीं

उम्र अब अपना असर
करने लगी,
अब चलो,
कुछ हम कदम ढूढ़ें कहीं

साथ दे जो
लड़खड़ाते पाँव को,
अर्थ दे जो
डगमगाते भाव को,
हैं कहाँ ऊँचा
कहाँ नीचा यहाँ,
जो ठिठक कर
पढ़ सके हर ठाँव को,
जब थकें तो साथ दे
कुछ बैठकर,
अब चलो,
यूं हम सफर ढूढ़ें कहीं

जब कभी पीछे
मुड़ें तो देख ले, 
दर्द घुटने की 
हथेली सेक ले,
जब कभी भटके
अंधेरों की गली,
हाथ पकड़े
और राहें रोक लें
दृष्टि धुँधली 
हो तो खोले, याद की 
खिड़कियाँ 
जो हर तरफ, ढूढे कहीं।

स्वार्थ की जो गांठ 
दुबली हो गयी,
मन्द पड़ती
थाप ढपली हो गयी,
माँज लें, उसको
अंगुलियाँ थाम कर,
नेह की
जो डोर पतली हो गयी,
पोपले मुंह 
तोतलों की बतकही
सुन सके, जो व्यक्ति
वह ढूढे कहीं।

Om Dheeraj ke Panch Geet

व्यंग्य : आम आदमी - विभावसु तिवारी

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विभावसु तिवारी

विभावसु तिवारी अपनी पीढ़ी के सशक्त व्यंग्यकार हैं। आपके व्यंग्य हमारे समय का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। और यह भी कि ये व्यंग्य अपनी एक नयी दुनिया बसाते है और इस दुनिया का एक कॉमन पात्र है - शर्माजी। शर्माजी एक आम आदमी का किरदार निभाते हैं। यह किरदार नैतिकता-अनैतिकता के पारंपरिक बोध को नए ढंग से पेश करता हैं। विभावसु तिवारी का जन्म 12 अगस्त, 1951 को दिल्ली में हुआ। आप 36 वर्ष तक दिल्ली के नवभारत टाइम्स समाचार पत्र (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप) में समाचार संकलन, सम्पादन और लेखन कार्य करते रहे। विभिन्न पत्र- प़ित्रकाओं के सलाहकार सम्पादक रहे। सम्पर्क: टी- 8 ग्रीन पार्क एक्स्टेंशन, नई दिल्ली- 110016। ई-मेल: vtiwari12@gmail.com

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
विवार का दिन था। शर्मा जी अपने घर के बड़े से लोहे के गेट के सामने खड़े एक चैड़ी सी लकड़ी की तख्ती टांगने में लगे थे। साथ में एक पेंटर ब्रुश और पेंट का डिब्बा लिए खड़ा था। शर्मा जी इस उधेड़ बुन में थे कि इस तख्ती को ऐसे कोण से लगाया जाए कि घर के सामने से गुजरने वाले हर शख्स को वह दिखाई दे। तभी उनके लंगोटिया मित्र मुसद्दी लाल ने अपनी चमचमाती सिटी हाॅंडा ठीक गेट के सामने लाकर खड़ी कर दी। गाड़ी से उतरते हुए बोले- 'अरे! पंडित जी गेट को पेंट से सजाने में लगे हो। कोई खास मेहमान आ रहा है क्या?' 

मुसद्दी, 'मैं गेट पेंट नहीं कर रहा। यह तख्ती गेट पर लटका रहा हूं। फिर इस पर लिखा जाएगा।' 

शर्मा जी की पहेली जैसी बात को समझने की कोशिश करते हुए वह बोले तख्ती पर क्या लिखा जाएगाा? आप के घर का पता और नाम तो घर के सामने की दीवार पर जड़ा है। अब यह तख्ती किसलिए?' 

शर्मा जी बोले- 'मुसद्दी, इस तख्ती पर लिखा जाएगा- ‘‘आम आदमी निवास।" 

मुसद्दी ने फिर सवाल ठोंका- 'ऐसा क्यों! अभी तक तो आप पत्रकार होने के नाते वीआईपी और आम आदमी सभी के बीच घूमते रहे हो। खुद भी वीआईपी बनकर समारोहों में चमकते रहे हो। अब अचानक से यह ‘‘आम आदमी"की मोहर घर पर लगाने का माजरा क्या है?'

शर्मा जी ने दार्शनिक अंदाज में कहा- 'देखो मुसद्दी, समय का चक्र है। एक समय था लोग वीआईपी होने का तमगा पहन अपने रुतबे का इजहार करते थे। लोग भी उनकी खूब इज्जत करते थे। उन्हें सिर आंखों पर बिठा आगे पीछे रहते थे। आम आदमी की कोई कदर नहीं थी। कहीं भी चले जाओ वीआईपी डिग्री है तो हाथों हाथ काम बन जाता था। आम आदमी धक्के खाता रहता था। किसी काम से सरकारी दफ्तर में जाओ तो पहले चपरासी ही इन्टरव्यू लेते हुए पूछ लेता है कि आप किस सोर्स से यहां तक पंहुचे हैं। कोई वीआईपी रेफरेंस है तो अधिकारी से फौरन मुलाकात हो सकती थी। आम आदमी की क्या औकात कि अधिकारी के कमरे में घुसने की हिमाकत कर सके। अब समय करवट ले रहा है। दस में से आठ आदमी वीआईपी बन गए हैं। इसलिए वीआईपी ‘‘काॅमन"हो गया है। आम आदमी की डिमांड बढ़ गई है। देश भर में आम चुनावों की हवा है। हर जगह आम ही आम है। समता और समरसता की डुगडुगी बज रही है। ‘‘खास"शब्द से नेता लोग परहेज कर रहे है।'

यही वजह है कि ‘‘आम आदमी पार्टी"ने अपने झाड़ू चुनाव चिन्ह को चमकाते हुए वीआईपी कैटिगिरी को जमीन सुघाने की कोशिश की है। आम आदमी जिसे सत्ता के लोग अभी तक मामूली कह कर हल्के में लेते थे अब उसका भाव एकदम से बढ़ गया है। हाल ही की बात है- ‘‘मैं दिल्ली नगर निगम के दफ्तर मकान का नक्शा पास कराने गया था। चीफ इंजीनीयर से समय मांगा तो उनके असिस्टेंट ने कह दिया कि साहब दस दिन तक बिजी हैं। टाइम नहीं दे सकते।'तभी मेरे मुंह से निकल गया कि क्या आम आदमी के लिए इन अधिकारियों के पास वक्त नहीं है! असिस्टेंट ने आम आदमी शब्द सुनते ही कहा- 'ओह! आप आम आदमी है! अरे भाई साहब, अभी आप की बात कराए देते हैं।'असिसटेंट तेजी से अंदर गया और चीफ इंजीनीयर साहब से बोला- 'बाहर एक आदमी खड़ा है। अपने को आम आदमी बता रहा है। मिलना चाहता है।'चीफ इंजीनीयर बोले- आम आदमी है तो बाहर क्यों खड़ा रखा है। फौरन अंदर भेज दो। शर्मा जी ने चहकते हुए बताया- 'आम आदमी के नाम का सिक्का चल पड़ा। मकान का नक्शा बिना दक्षिणा दिए 10 दिन के अंदर स्वीकृत हो गया।'मुसद्दी! मैने यह जो कथा सुनाई है, इससे तुम्हें कुछ समझ आया कि नहीं? मुसद्दी ने भी शर्मा जी पर व्यंग फेंकते हुए कहा- 'कुछ कुछ तो समझ आ रहा है। आप अपने को आम आदमी बनाने में लगे हैं। यानि कि अब आप ‘‘आम आदमी"के नाम को भुनाने के चक्कर में हैं। 

शर्मा जी ने पलट वार करते हुए कहा- 'मुसद्दी! सवाल ‘आम आदमी‘ का नहीं है। सवाल इज्जत को बरकरार रखने का है। वीआईपी की चमक से पिछले कुछ सालों के दौरान दिल्ली की तिहाड़ जेल से लेकर कई गुमनाम जेलें मशहूर हो गई हैं। रोज ही किसी न किसी वीईपी के जेल की शरण में जाने की खबर आती रहती है। हालत यह है कि किसी वीआईपी से टकराव होते ही जहन में सवाल उठता है कि यह खास आदमी है तो किसी चक्कर में जेल जरूर गया होगा। किसी घोटाले से जुड़ा होगा। तभी तो वीआईपी बना है। घोटालों से उछल रही राजनेताओं की टोपियां, प्रशासनिक सिरमौरों की खिसक रही कुर्सियों से लेकर काॅरोपेरट सेक्टर के बड़े बड़े सीओ की घेराबंदी, चारा कांड से लेकर मैच फिक्सिंग, कोयले की खदानों से लेकर रेत की अवैध खनन ने तथाकथित वीआईपी लोगों की राष्ट्रीयता पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। राष्ट्रीय परिदृश्य पर छाये एक के बाद एक घोटालों से घिरे वीआईपी श्रेणी के लोगों नेे वीआईपी शब्द को ही बदनाम कर दिया है।'

आजादी के साठ साल से भी ज्यादा बीत गए पर आज तक आम आदमी की साख पर कोई आंच नहीं आई। वह दृष्टा भी है और भुक्तभोगी भी। जो अभी तक अपने को वीआईपी समझ राष्ट्र निर्माता बन बैठे थे, वे वीआईपी अब अपनी साख बचाने के लिए आम आदमी का ‘सहारा‘ ढ़ूंढने में लगे हैं। आम आदमी चलता सिक्का है। क्यों मुसद्दी! तुम्हारी आईंस्टाईन खोपड़ी में कुछ घुसा। मुसद्दी बोला- 'मतलब यह कि आप आम आदमी हैं और आम आदमी वीआईपी बन चुका है।'शर्मा जी झटके से बोले- 'सही समझा तुमने। इसलिए घर के मुख्य गेट पर ‘‘आम आदमी निवास"की तख्ती लटकाई जा रही है। इज्जत का सवाल है।'इस बार उनके मित्र मुसद्दीलाल के पास शर्मा जी की बात काटने को कुछ नहीं था। बस वह इतना ही बोले - 'मान गए पंडित जी, आप की इस कलियुगी खोपड़ी को। बेचारा आम आदमी!'

by Vibhavasu Tiwari

‘हाशिये उलांघती औरत’ के पांच खंडों का लोकार्पण तथा संगोष्ठी

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नई दिल्ली: आज दिनांक 28 मार्च 2014 को स्कूल ऑफ इंटरनेशनल, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के कमेटी रूम नं 203 में ‘हाशिये उलांघती औरत’ के पांच खंडों तेलुगु, प्रवासी, पंजाबी मराठी और गुजराती का लोकार्पण तथा संगोष्ठी सम्पन्न हुई। यह कार्यक्रम तीन सत्रों में सम्पन्न हुआ। बाकी के दो सत्र कल दिनांक 29 मार्च को हुए।

जे.एन.यू. के उपकुलपति प्रो. एस.के सोपोरी, नया ज्ञानोदय के संपादक लीलाधर मंडलोई, राजेंद्र उपाध्याय तथा तेलुगु लेखिका जे. भाग्यलक्ष्मी के हाथों इन पांच भाषा खंडों एवं वासवी किड़ो की पुस्तक ‘‘भारत की क्रांतिकारी आदिवासी वीरांगनाएं‘‘ तथा राजकुमार कुम्बज के कविता संकलन ‘दृश्य एक घर है’ का लोकार्पण हुआ। प्रो. सोपोरी ने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘‘शायद ही पहले ऐसा हुआ हो कि एक साथ पांच-पांच भाषाओं के अलग-अलग खंडों का लोकार्पण हुआ हो। यह एक बहुत बडा काम है। उन्होंने खुद भी इस रमणिका फाउंडेशन के अभियान में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि रमणिका फाउंडेशन ने 40 भाषाओं की स्त्री मुक्ति पर आधारित कहानियों का अनुवाद हिंदी में करके इस विश्वास को सिद्ध किया है कि भाषाएं जोड़ती हैं और विभिन्न संस्कृतियों के बीच संवाद कायम करती हैं। तेलुगु लेखिका भाग्यलक्ष्मी ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह एक बहुत बड़ा काम है और बहुत गंभीर मुद्दा है। जिसे रमणिका फाउंडेशन ने उठाया है। उन्होंने कहा कि साहित्य अकादमी 24 भाषाओँ तक ही सीमित है और छिटपुट कुछ अन्य भाषाएं लेती है। लेकिन रमणिका फाउंडेशन ने अपना दायरा 40 भाषाओं तक बढ़ाया है। इतने बड़े अनुवाद का कार्य फाउंडेशन ने किया है। फाउंडेशन की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता ने इस पूरे ऋंखला की योजना तथा संपादकीय अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि स्त्री-मुक्ति की अवधारणा और उसके इतिहास को लेकर एक विशेष शोधपरक कार्य है। उन्होंने कुलपति के समक्ष अंग्रेजों की खिलाफत की जिस वीर नंगवा को फांसी की सजा़ दी गई थी, के नाम पर जे.एन.यू. में प्रस्तावित पूर्वोत्तर भाषाओं के केन्द्र का नामकरण करने का प्रस्ताव भी रखा। जिस पर कुलपति ने लिखित प्रस्ताव मांगा और इसपर विचार करने का आश्वासन दिया।’’

उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष लीलाधर मंडलोई ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि ‘‘रमणिका जी ने भाषा को बचाने की कार्रवाई की है। यह खंड एक तरह से आरकाइवल वर्क है।’’ उन्होंने पंजाबी खण्ड की कहानियों पर विस्तार से चर्चा की। तेलुगु खंड के संपादक मंडल में शामिल जे.एल. रेड्डी ने तेलुगु भाषा में चलम द्वारा चलाए गए स्त्री आंदोलन तथा तेलुगु खंड की कई कहानियों का उल्लेख किया और तेलुगु लेखन में मुक्ति की अवधारणा एवं मुस्लिम लेखिकाओं में आई चेतना से अवगत कराया। राजेन्द्र उपाध्याय ने अपने आलेख पाठ के माध्यम से कहा कि रमणिका जी ने ‘‘गागर में सागर भर दिया है।’’ डॉ. अर्चना वर्मा ने इस अभियान के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि ‘‘स्त्री को केवल शरीर और शरीर को केवल काम वस्तु नहीं समझा जाना चाहिए। पुरुष की मुक्ति, स्त्री की मुक्ति में ही है।

‘‘दूसरा सत्र प्रवासी अंक पर केंद्रित था। इस सत्र में प्रवासी लेखिका उषा वर्मा तथा स्वाति सरोज ने अपने विचारों को व्यक्त किया तथा प्रवासी अनुभवों को साझा किया।’’

इस सत्र के अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रोफेसर मैनेजर पांडेय ने कहा कि सबसे पहले यह तय किया जाये कि प्रवासी किसे माना जाए? ‘‘उन्होंने यह भी कहा कि स्त्री-मुक्ति की धारणा और चेतना को व्यापक बनाने की जरूरत है। शरीर का मुक्त होना काफी नहीं मन की मुक्ति की बात भी होनी चाहिए।’’

कार्यक्रम के तीसरे सत्र में पंजाबी अंक की संपादक जसविंदर कौर बिन्द्रा ने अपने अनुभवों को साझा किया। रूपा सिंह ने आलेख पाठ किया। विशिष्ट वक्ता गीताश्री ने पंजाबी समाज के बारे में जानकारी दी और कहा कि भ्रम फैलाया जाता है कि पंजाबी स्त्रियां बहुत मुक्त और आजाद हैं। यह भी पुरुषों द्वारा फैलाया गया भ्रम है। वहीं सबसे ज्यादा अत्याचार होता है औरर औरतों की खरीद बिक्री तथा दहेज हत्याएं होती हैं। कुछ उल्लेखनीय कहानियों पर चर्चा भी की। सत्र के मुख्य अतिथि मंजीत सिंह ने रमणिका फाउंडेशन की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता को इस काम के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि ‘‘रमणिका जी ने हाशिए उलांघती औरत की इमेज को हिंदी भाषा में अनुवाद कराकर बड़ा काम किया है।“

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए, प्रो. सलिल मिश्र ने कहा, ‘‘इस खण्डों का इतिहास से बहुत बड़ा संबंध है। यह सभी खण्ड आने वाली पीढि़यों के लिए एक दस्तावेज़ का काम करेंगे।’’

चौथे सत्र में मैत्रेयी पुष्पा ने अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा कि इससे पहले हिन्दी के तीन खंडों में महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियां पढ़ भी नहीं पाती अगर रमणिका जी ये खंड लेकर नहीं आती। इन पांच खंडों में चार आयु वर्ग में विभाजित कहानियां पढ़ने को मिलेंगी।

मराठी खंड की सम्पादक भारती गोरे ने कहा कि यौन -शुचिता और देह की बात बार-बार हो रही है, जबकि देह हमेशा दोयम वस्तु रही है। पहला वार देह ही सहती है पर केवल देह की बात करना, स्त्री को देह मात्र तक सीमित करने जैसा है। उन्होंने कहा कि अन्य प्रादेशिक भाषाओं की तुलना में मराठी कहानी बहुत आगे निकल चुकी है। इन कहानियों में स्त्री ने अपनी भाषा तथा अपने पात्र गढ़े हैं।“

गुजराती खण्ड की सम्पादक एवं अनुवादक प्रज्ञा शुक्ल ने कहा कि गुजरात में स्त्री-मुक्ति की अवधारण बहुत धीमी गति से चली है।

पांचवें सत्र में गंगा प्रसाद मीणा ने रमणिका फाउंडेशन की कार्ययोजना तथा विभिन्न भाषाओं के खण्डों पर रोशनी डाली।

एन.डी.टी.वी. के निदेशक प्रियदर्शन ने कहा कि ”आज की स्त्रियां बदल गई है। वह अंधेरे में भी कैमरा थामे जिंदगी और मौत से जूझती हुई अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। रमणिका फाउंडेशन ने यह बहुत बड़ा काम किया है दूसरी भाषाओं की कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करवा कर उन्होंने देश को जोड़ा है।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में अशोक वाजपेयी ने कहा कि लोकतंत्र में पहली बार लिखा जाने वाला साहित्य है। जिन्होंने सदियों के बाद अपनी चुप्पी तोड़ी है वह स्त्री बता रही है उसके साथ कैसा व्यवहार हो रहा है। उन्होंने कहा कि आज की स्त्री रचनाकारों को अपनी ही लेखिकाओं से नारी-मुक्ति से सबक लेना चाहिए। मुक्ति के संदर्भ में अशोक वाजपेयी ने कहा कि पुरुषों की मुक्ति भी स्त्री की मुक्ति पर निर्भर है।

पहले सत्र का संचालन इस आयोजन के स्वागताध्यक्ष अजय नावरिया, दूसरे सत्र का ममता किरन, तीसरे सत्र का स्वाति श्वेता, चौथे सत्र का अनिता भारती तथा पांचवे सत्र का संचालन नितीशा खलख़ो ने किया। कार्यक्रम के आयोजन को सफल बनाने में भरत तिवरी और देवेन्द्र गौतम ने महत्वपूर्ण सहयोग दिया। रमणिका फाउंडेशन के कार्यकारी अध्यक्ष जोसेफ बारा तथा फाउंडेशन के ट्रस्टी पंकज शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन दिया। इस अवसर पर लेखक, बुद्धिजीवी और भारी संख्या में विद्यार्थी उपस्थित थे।

New Delhi : Jawaharlal Nehru University

दिवाकर वर्मा को विनम्र श्रद्धांजली

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दिवाकर वर्मा
(25 दिसंबर 1941 - 2 मई 2014 )

आपातकाल के दौरान ग्वालियर केन्द्रीय काराग्रह में रहे मीसाबंदी दिवाकर जी को शायद ही हम कभी भूल पायें | उनकी उन्मुक्त हंसी, हरफनमौला व्यक्तित्व, हर छोटे बड़े के साथ आत्मीयतापूर्ण व्यवहार, सादगी, सरलता सबको अपना बना लेती | दिनांक 01 मई 2014 को दिवाकर जी ने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की | एक सामान्य स्वयंसेवक कितना असामान्य होता है, इसे दिग्दर्शित करता है दिवाकर जी का जीवन वृत्त -पौष शुक्ल सप्तमी संवत १९९८ दिनांक २५ दिसंबर १९४१ को सूकर क्षेत्र सोरों जी में जन्मे दिवाकर वर्मा अपने माता पिता की इकलौती संतान होने के कारण लाड प्यार से पले ! हाई स्कूल तक सोरों में फिर इंटर वृन्दावन से तथा स्नातक परिक्षा मथुरा से उत्तीर्ण की ! मथुरा में रिश्ते के एक बड़े भाई कालेज में प्रोफेसर थे ! शिक्षा पूर्ण होने के बाद सागर जिले के खुरई में संस्कृत शिक्षक बने ! फिर भुसावल में रेलवे की ए.एस.एम. ट्रेनिंग ९ माह की, किन्तु इंस्ट्रक्टर से झंझट हो जाने के कारण बीच में ही छोडकर बापस आ गए ! इसी दौरान विवाह संपन्न हो गया ! विवाह के बाद खुरई मंडी कमेटी में एकाउन्टेंट बने पर ७-८ महीने में ही यह नौकरी भी छोड़ दी ! पोलिटेक्निक खुरई में भी ८-१० माह ही टिके ! किन्तु ए.जी. ऑफिस में लंबे समय तक सेवा में रहे ! जून ६५ से जुलाई ६७ तक भोपाल तथा उसके बाद ग्वालियर ! 

सन १९७४ में भारतीय मजदूर संघ से जुड कर विभागीय जिम्मेदारी संभाली ! आपातकाल के दौरान मीसावंदी रहते पूर्णकालिक बनने का विचार पुष्ट हुआ ! अतः ग्वालियर से पुनः भोपाल ट्रांसफर कराया ! ७९ में भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश मंत्री तथा बाद में प्रदेश उपाध्यक्ष रहे ! ८५ के बाद दायित्व मुक्त और २००१ में सेवानिवृत्त हुए ! ९८ से साहित्य सृजन शुरू हुआ तथा २००२ में साहित्य परिषद से जुड राष्ट्रीय मंत्री बने ! वर्त्तमान में भी प्रदेश उपाध्यक्ष ! साथ ही निराला सृजन पीठ के निदेशक भी ! आपकी अब तक कुल ८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ! ४ गीत संग्रह, १ गजल संग्रह, १ नाटक, १ दोहा संग्रह तथा १ मुक्त छंद कविता संग्रह ! २ गीत संग्रह तथा १ निबंध संग्रह भी शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है !

संस्मरण
• तराणेकर जी की सादगी का प्रभाव अद्भुत था ! एक थैले में रखी डायरी तथा कलम ही उनकी पूंजी थी ! दो धोती तथा दो कुडते उनकी संपत्ति ! कई बार तो एक ही धोती रहती जिसे रोज सुबह धोकर सुखा लेते और धारण कर लेते ! ग्वालियर हाई कोर्ट के सामने स्थित कार्यालय की छत पर अनेक लोगो ने उन्हें गीली साफी लपेटे धोती के एक सिरे को कुछ ऊंचाई पर बांधकर दूसरे सिरे को पकडकर हिलाते और इस प्रकार उसे जल्दी सुखाते देखा है ! कोई आ जाता तो उसी कार्य को करते करते चर्चा भी हो जाती !

• किन्तु व्यक्ति की पहचान करने में अद्भुत पारखी थे तराणेकर जी ! मजदूर संघ के दो कार्यकर्ता – रवीन्द्र झंग और प्रकाश राठौर ! झंग की कार्य पद्धति सहज सरल तो प्रकाश तेज तर्राट और महत्वाकांक्षी ! रवीन्द्र झंग रतलाम से पी.डव्लू.डी. ओवरसियर की अपनी नौकरी छोड़कर केवल मजदूर संघ का कार्य करने की खातिर सिमको की छोटी नौकरी कर रहे थे ! जब किसी ने प्रकाश राठौर को अधिक अधिकार देने की सिफारिश की तो तराणेकर जी ने झंग जी की असंदिग्ध निष्ठा व प्रामाणिकता के महत्व को रेखांकित किया ! 

• केवल वे ही थे जो ग्वालियर के शेजवलकर जी जैसे राजनेताओं पर भी दबाब बनाने में सक्षम थे ! सार्वजनिक जीवन के कुछ सूत्र भी उन्होंने दिवाकर जी को दिए ! बिना नहाये कुछ नहीं खाना तथा चाय नहीं पीना, इन आदतों को संगठन कार्य के प्रतिकूल बताते हुए बदलवाया 

आपके पांच गीत यहाँ प्रस्तुत हैं 

1. आदमी...बौना हुआ है

प्रगति की लंबी छलाँगें मारकर भी
आदमी क्यों इस क़दर बौना हुआ है?

बो रहा काँटे
भले चुभते रहें वे,
पीढ़ियों के
पाँव में गड़ते रहें वे,

रोशनी को छीनकर बाँटें अंधेरा,
राह में अंधा हर एक कोना हुआ है।

मेड़ ही
अब खेत को खाने लगी है
और बदली
आग बरसाने लगी है,

अब पहरुए ही खड़े हैं लूटने को,
मौसमों पर, हाँ, कोई टोना हुआ है।

क्षितिज के
उस पार जाने की ललक में,
नित
कुलाँचें ही भिड़ाता है फलक में,

एक बनने को चला था डेढ़, पर वह
हो गया सीमित कि अब पौना हुआ है।

2. चिठिया बाँच रहा चंदरमा

चिठिया
बाँच रहा चंदरमा
शरद जुन्हैया की।

जोग लिखि श्रीपत्री घर में
कुशल-क्षेम भारी,
आँगन के बूढ़े पीपल पर
चली आज आरी,
रामजनी कर रहीं चिरौरी
किशन-कन्‍हैया की।

चौक-सातिया, बरहा-बाँगन
हो गये असगुनिया,
नहियर-सासुर खुसर-फुसर है
आशंकित मुनियाँ,
बाप-मताई जात कर रहे
देवी मैया की।

गली-मोड़ खुल गयीं कलारीं,
झूमें गलियारे,
ब्‍याज-त्‍याज में बिके खेत
हल बैठे मन मारे,
कोरट सुरसा बनी
आस अब राम-रमैया की।

पिअराये भुट्टे, इतराये
मकई के दाने .. ..
हाट-बाट में लुटी फसल,
कुछ मण्डी कुछ थाने,
साँसें उखडीं उखड़ गयी हैं
कील पन्हैया की।

शेष सभी कुशलात
देश-परदेश दीन-दुनिया,
लिये आँकड़ों की मशाल
यह बता रहे गुनिया,
जगमग रोज दिवाली
जिनकी गली अथैया की।

3. चेहरे से सिद्धार्थ

अर्थातों में
बातें करना
उनकी शैली है।

बात एक पर अर्थ कई
शब्‍दों के जाल बुनें,
कितनी उलटबासियाँ
कितनी उलझी हुई धुनें,
मीठी-मीठी
कनबतियाँ भी
एक पहेली है।

है अनंत-विस्‍तार
मित्र की मीठी बातों का,
किंतु कवच के नीचे
दर्शन गहरी घातों का,
चेहरे से सिद्धार्थ
और मन
निपट बहेली है।

अर्थ और व्याकरण
भले हो दुनिया से न्यारा,
छाछ जड़ों में बोना उनका
पर भाईचारा,
उनकी यह
अठखेली
कैसे-कैसे झेली है।

4. नदी नाव संजोग

नदी नाव
संजोग भेंटना
तुम से आज हुआ।

पान-फूल
अँजुरि में लेकर मन में वृंदावन,
आँख जुड़ाए गैल तकें गलियारे
घर आँगन,
बाट पाहुने की जोहे ज्‍यों
गंगाराम सुआ।

अक्‍सर लगते
सूनसान चौखट-देहरी तुम बिन,
गहरे सन्‍नाटे में डूबे थे मेरे
पल-छिन,
तुम आए जैसे अम्‍बर से
झर-झर झरी दुआ।

पोर-पोर
फगुनाई महकी रस-कचनार खिले,
महुआ-सी गमकी पुरवाई तुम जो
आज मिले,
दर्पण ने दर्पण को जैसे
सहसा आज छुआ।

5. रामजी मालिक

हो रहे
शब्दार्थ बेमानी
प्रहलियों के रामजी मालिक।

उग रहे जलकुंभियों के जूथ
ढँक लिया शैवाल ने सरवर,
मकड़ियों ने बुन लिये जाले
फँस रहे निर्दोष क्षर-अक्षर,
सड़ रहा है
ताल का पानी
मछलियों के रामजी मालिक।

देह फूलों की हुई घायल
वक्‍त के नाखून तीखे हैं,
इस सदी का है करिश्मा यह
बाग में निष्प्राण चीखें हैं,
हो रहा
बदरंग-रंग धानी
ति‍तलियों के रामजी मालिक।

क्षितिज पर तूफान के लक्षण
गगन ने आँखें तरेरी हैं,
रौंदने भू पर रुपा जीवन
छेड़ता वह युद्धभेरी है,
बिजलियों ने
जंग है ठानी
बदलियों के रामजी मालिक।

Diwakar Verma, Bhopal, M.P.

विनोद श्रीवास्तव के तीन नवगीत

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विनोद श्रीवास्तव 

कई वर्ष पहले वरिष्ठ कवि एवं संपादक (स्व) दिनेश सिंह जी के साथ ख्यातिलब्ध साहित्यकार (स्व) डॉ शिव बहादुर सिंह भदौरिया जी के आवास पर लालगंज, रायबरेली जाना हुआ। अवसर भदौरिया जी के सुपुत्र विनय भदौरिया जी की बेटी का विवाह। श्रद्देय दिनेश सिंह जी ने अग्रज कवि विनोद श्रीवास्तव जी से परिचय कराया।  बोले,विनोद जी दैनिक जागरण के साहित्यिक पृष्ठ से जुड़े हुए हैं और एक अच्छे युवा गीतकार हैं।कार्यक्रम संपन्न होने के बाद अगली सुबह विनोद जी को कानपुर प्रस्थान करना था और मुझे इटावा। दोनो लोग एक ही बस से लालगंज से कानपुर रवाना हुए। एक लम्बे अरसे तक विनोद जी से मेरा संवाद नहीं हुआ। कभी-कभार उनके गीत पढने को मिल गये, बस। पिछले वर्ष उनसे फोन पर बात हुई और आपसी संवाद कायम हो गया। तब से अब तक संपर्क बना हुआ है। विनोद जी अपनी पीढ़ी के उन गिने-चुने गीतकारों में से एक हैं जो रचनाओं की विषयवस्तु और उनके प्रस्तुतीकरण दोनों स्तर पर सर्वस्वीकार्य हैं। यह बड़ी बात है। शायद इसीलिये उन्हें पाठकों और श्रोताओं का समान रूप से प्यार और वरिष्ठ साहित्यकारों एवं आलोचकों से आशीष मिला 2 जनवरी 1955 को जन्मे विनोद जी को उत्तर प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक के महामहिम राज्यपाल द्वारा हिन्दी सेवा के लिए सम्मानित किया जा चुका है। शिक्षा : अर्थशास्त्र और हिन्दी में स्नातकोत्तर। देश की छोटी-बड़ी कई पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीतों का प्रकाशन। आकाशवाणी / दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण। कई समवेत संकलनों में गीत प्रकाशित। प्रकाशित गीत संग्रह : भीड़ में बाँसुरी (1987), अक्षरों की कोख से (2001)। संप्रति: प्रतिष्ठित हिन्दी समाचार पत्र दैनिक जागरण के साहित्यिक परिशिष्ट 'पुनर्नवा'के प्रकाशन में सहयोगी एवं दैनिक जागरण समूह के संस्थान 'लक्ष्मी देवी ललित कला अकादमी, कानपुर से संबद्ध। संपर्क : E-695, कृष्ण विहार, आवास विकास, कल्यानपुर, कानपुर, उ प्र। ईमेल : vinod9648644966@gmail.com । आपके तीन नवगीत यहाँ प्रस्तुत हैं :-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
1. फिर हमारे ताल में 

फिर हमारे ताल में 
कोई कमल उभरे खिले 

पंक में होती नहीं 
यदि सूर्यमुख संभावना 
किस तरह से जन्म लेती 
रूप की अवधारणा 

फिर कमल की नाल में 
झलकें सलोने सिलसिले 

रूप की बारादरी में 
गंध की वीणा बजे 
स्नान कर मधुपर्व में 
नीलाम्बरा उत्सव रचे 

फिर सुनहरे थाल में 
झिलमिल किरन कुंकुम मिले 

उत्सवों में भी महोत्सव-
का नयन में घूमना 
एक ही पल को सही 
अनुराग का नभ चूमना 

समर्पित भू-चाल में 
महके स्वरों की छवि हिले।

2. अब न देखते बने 

अब न देखते बने 
आपका बाना और ठिकाना जी 

क्या-क्या दिखा रहे परदे पर 
क्या-क्या सुना रहे 
बेशकीमती लाजवंत की 
इज्जत भुना रहे 

अनावृत हो जाय न सबकुछ 
थोड़ा उसे बचाना जी 

तुमने लिखा और तुम ही क्यों-
पढ़ना भूल गये ?
कौशल कहाँ गँवाया ?
मूरत गढ़ना भूल गये 

कोरे कागज का होता है 
मंजर बड़ा सुहाना जी 

सबकुछ बिखर गया -
अंतर्मन का दुःख दूना है 
कोई स्वर गूंजे 
अदीब का आँगन सूना है 

आओ! आओ! बीन बजाओ 
फिरसे छिड़े तराना जी।

3. तुम कहो तो

एक खामोशी हमारे बीच है
तुम कहो तो तोड़ दूँ पल में

सिरफिरी तनहाइयों का
वास्ता हमसे न हो
जो कहीं जाए नहीं
वह रास्ता हमसे न हो

एक तहखाना हमारे बीच है
तुम कहो तो बोर दूँ जल में

फूल हैं, हैं घाटियाँ भी
पर कहाँ खुशबू गई
क्यों नहीं आती शिखर से
स्नेहधारा अनछुई

एक सकुचाना हमारे बीच है
तुम कहो तो छोड़ दूँ तल में

रूप में वय प्राण में लय
छंद साँसों में भरे
और वंशी के सहारे
हम भुवन भर में फिरें

एक मोहक क्षण हमारे बीच है
तुम कहो तो रोप दूँ कलमें।

Three Hindi Lyrics of Vinod Srivastava

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में लघुशोधप्रबंधों का प्रस्तुतीकरण संपन्न

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हैदराबाद, 29 मई, 2014. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के हैदराबाद परिसर में आज शिक्षा सत्र 2013-14 के दौरान पूर्ण हुए 16 लघुशोध कार्यों का प्रस्तुतीकरण संपन्न हुआ. इस अवसर पर विशेषज्ञ के रूप में उपस्थित अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के भारत अध्ययन विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने संस्थान की सभी शोध योजनाओं के स्तर पर संतोष प्रकट करते हुए कहा कि विशेष रूप से समाजभाषाविज्ञान, अनुवाद समीक्षा, तुलनात्मक साहित्य, शैलीविज्ञान और सौंदर्यशास्त्र के क्षेत्र में अछूते और अभिनव विषयों पर शोध कराने में संस्थान का हैदराबाद परिसर अग्रणी है. उन्होंने संस्थान के अकादमिक वातावरण को प्रेरणापूर्ण और शोधानुकूल बताया.

इस वर्ष संस्थान के आचार्य एवं अध्यक्ष प्रो. ऋषभ देव शर्मा के निर्देशन में कुल पाँच लघुशोध कार्य संपन्न हुए. इनमें शुभदा भास्करराव उमरीकर का ‘पद्मावत और रामचरित मानस में पाकशाला की भाषिक प्रयुक्ति’, गीता पोस्ते का ‘आओ पेपे घर चलें और अंतर्वंशी में चित्रित अमेरिकी परिवेश : तुलनात्मक विश्लेषण’, हरिचरन दास का ‘टोपी शुक्ला और ओस की बूँद का समाजभाषिक विश्लेषण’, रतन सिंह का ‘नीरज के प्रेम गीतों का सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन’ एवं अनामिका उपाध्याय का ‘कर्मेंदु शिशिर के कहानी संग्रह लौटेगा नहीं जीवन में संघर्ष और जिजीविषा’ विषयक लघुशोधप्रबंध शामिल हैं.

‘स्रवंति’ की सह-संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा के निर्देशन में प्रस्तुत किए गए 4 लघुशोधप्रबंधों में टी. उमा दुर्गा देवी का ‘मुदिगोंडा शिवप्रसाद के तेलुगु उपन्यास रेजीडेंसी के हिंदी अनुवाद का मूल्यांकन’, आशा मिश्रा का ‘आंध्र प्रदेश साहित्यिक पत्रकारिता में पुष्पक का योगदान’, शोभा गूंजे का ‘मृदला गर्ग का उपन्यास मिलजुल मन : स्त्री जीवन के विविध संदर्भ’ और के. राहुल का ‘असगर वजाहत के कहानी संग्रह डेमोक्रेसिया में समकालीनता बोध और व्यंग्य’ शीर्षक शोधकार्य सम्मिलित हैं.

इस वर्ष डॉ. मृत्युंजय सिंह के निर्देशन में 3 लघुशोध ‘काशीनाथ सिंह की कहानियों में सामाजिक यथार्थ’ पर आरेवार प्रमोद देवीदास, ‘प्रेम भारद्वाज के कहानी संग्रह इन्तजार पांचवे सपने का में सामाजिक यथार्थ’ पर वर्षा ठाकर तथा ‘राजेंद्र यादव संपादित देहरी भई विदेस में स्त्री विमर्श’ पर प्रियंका कुमारी ने एवं डॉ. बलविंदर कौर के निर्देशन में भी 3 लघुशोध क्रमशः ‘योगेंद्रनाथ शर्मा अरुण कृत काव्य वैदुष्यमणि विद्योत्तमा : परंपरा और आधुनिकता’ पर चव्हाण राजश्री तुलसीराम, ‘परवेज अहमद के उपन्यास मिर्जावाडी में स्त्री विमर्श’ पर नागवेल्ले रमा वेंकटराव तथा ‘उषा प्रियंवदा के उपन्यासों में भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति’ पर लक्ष्मी बाई मीना ने संपन्न किए. इनके अलावा पल्लवी शास्त्री ने ‘संकल्य’ के संपादक-प्रकाशक डॉ. गोरख नाथ तिवारी के निर्देशन में ‘नीलेश रघुवंशी के उपन्यास एक कस्बे के नोट्स में स्त्री विमर्श’ विषय पर लघुशोध ग्रंथ प्रस्तुत किया.

इस अवसर पर संस्थान के अध्यक्ष डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने बताया कि संस्थान का अगला सत्र जुलाई 2014 में आरंभ होगा जिसके लिए भाषा और साहित्य के नए और अछूते विषयों पर शोध की मौलिक योजनाएँ विचाराधीन हैं. उन्होंने कहा कि हिंदीतरभाषी क्षेत्र में हिंदी में शोधकार्य अत्यंत चुनौतीपूर्ण है इसलिए उत्कृष्ट अनुसंधान के लिए संस्थान में शोधार्थी और शोध निर्देशक का परस्पर सौहार्द अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.


Hyderabad

बृजनाथ श्रीवास्तव के सात नवगीत

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बृजनाथ श्रीवास्तव 

हिंदी गीत के विशिष्ट रचनाकार ब्रजनाथ श्रीवास्तव जी का जन्म 15 अप्रैल 1953 को ग्राम भैनगाँव, जनपद हरदोई (उ.प्र.) में हुआ। शिक्षा : एम.ए. (भूगोल)। प्रकाशित कृतियाँ :दस्तखत पलाश के, रथ इधर मोड़िये (दोनों नवगीत संग्रह)। स्नातकोत्तर कक्षाओं हेतु भी आपने तीन पुस्तकें लिखीं हैं - व्यावहारिक भूगोल, उत्तरी अमेरिका का भूगोल, जलवायु विज्ञान। देश के अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, दोहे आदि प्रकाशित हो चुके हैं। सम्प्रति : भारतीय रिजर्व बैंक के प्रबन्धक पद से सेवानिवृत्त। सम्पर्क : 21 चाणक्यपुरी, ई-श्याम नगर, न्यू. पी. ए. सी. लाइंस, कानपुर - 208015, मोबाईल : 09450326930 / 09795111907, ई-मेल : sribnath@gmail.com

1. बुधई
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 

बोलो-
बुधई की घरवाली
भूखे बच्चों को
कब तक डाटें 

तुमने-
सावन के दर्पन में 
प्रतिबिम्ब निहारा
चूमा चाटा
लेकिन-
बुधई के पीपे में 
आज नहीं है
रत्ती भर आटा

बोलो-
बुधई के बच्चे, इन
काली रातों को
कैसे काटें 

तुमने-
ढाली है गिलास में 
ऊष्मायी हाला
सिप खूब लिया
लगता-
बुधई की ऑतों का
तपता-तपता ही
सब खून पिया

बोलो-
बुधई अब अपना दुख
ऎसे लोगों मे
कैसे बॉटे

तुमने-
ए.सी. के कमरों में 
कितनी ही अच्छी
नीदें सोयीं 
लेकिन-
बुधई की ऑखें तो
पॉलीथीन तले
कितना रोयी

बोलो-
बुधई उस दरार को
फटी मोमिया की
कैसे पाटे। 

2. जेठ का महीना

दहक उठे पलाश वन
जल उठी दिशाएँ 
सूरज को लादे सिर
घूमती हवाएँ  

प्यास जिये पर्वत के
माथ पर पसीना
ढूढ रहा छाया को
जेठ का महीना

लिपटी हैं पैरों में 
कृश नदी व्यथाएँ 

छाया मे दुबक रहे
शशक, नकुल ब्याली
थके हुए पशुकुल की
चल रही जुगाली

बाज सुआ बॉच रहे
वैदिकी ऋचाएँ 

कामिनिया बॉध रही
वट तरु मे धागे
सावित्री बनकर के
वर यम से मांगे

पोर-पोर गुंथी हुई
पर्व की कथाएँ। 

3. गंगोत्री निर्मल

ये महकते
पारदर्शी हैं यहॉ के जल

चीड़ वन सुरभित हवाएँ 
पत्थरों के घर

देख छवियाँ ये विदेशी
खुश हुए जी भर

घाट पर हम-
तुम बहे गंगोत्री निर्मल

लोकहित करने
मचल छोड़ा पिता का घर
मौन साधे रह गया बस
देखता गिरिवर

और फैलाया
समुन्दर तक भरा ऑचल

दाहिने मन्दिर
मुखर है आरती की धुन
गा रहा जल देवता के
भक्तकुल सदगुन 

भर रहे गंगा-
जली में भक्त गंगाजल। 

4. घुंघुरू बाजे पॉव के

कैसे हैं अब
हाल-चाल प्रिय
बन्धु आपके गॉव के

अखबारो में 
छपा, पढा था
खेला गया महाभारत
आयी टीम
राजधानी से
लेकर लम्बी सी गारद

नाच रही थी.
शोख कलायें 
घुंघुरू बाजे पॉव के

खूब चली
जी भर छका सभी ने
लगे नाचने मिलकर
अपने मंतर
अपने सुर मे
सब लगे हॉकने डटकर

जान बचाकर
लोग भगे थे
अपने-अपने ठॉव के

नौकरशाही
तो नौकर है
करती भी तो क्या करती
लोकराज के
नंग-नाच में 

फूँक-फूँक कर पग धरती
दोनो ओर
पॉव लटके हैं
राजा, परजा नाव के। 

5. मेरी किताब था

ऑगन में 
जो खड़ा हुआ था
बूढा पेड़ ढहा
घर भर ने दुख सहा

यह पेड़ नही था,
घर था
दरवाजे, छानी, छप्पर था
धूप न लगेगी
कभी इस घर को
ताने वितान सिर पर था

मिलकर रहना
सभी प्यार से
कितनी बार कहा

सच मानो
यह अम्मा और पिता था¸
अपना भाई था
मेरा वेदमंत्र,
मेरी किताब था
गुरू, पढाई था

बांटी छॉव
उमर भर उसने
मेरा हाथ गहा

सब रोगों की
एक दवा
था घर भर का रोटी-पानी
सांस-सांस में 
घुली हवा
था जीवन की खुली कहानी

सदा आंधियों 
उत्सव में 
वह मेरे साथ रहा। 

6. अखबार

सुबह-सुबह ही
हाल-चाल सब
बता गया अखबार

उजले चेहरों द्वारा
छाया का रेप हुआ
दूरभाष अनचाहे
लोगों का टेप हुआ

धर्म-जाति की
गणना में ही
मस्त हुआ दरबार

पेन्शन की दौड़ धूप में 
बुधिया वृद्ध हुई
बढता बोझ करों का
सरकारें गिद्ध हुई

अनशन करते
लोग झेलते
मँहगाई की मार

मरा दिखाकर घर से
बेदखल हुआ होरी
लखपति के घर डाका
लिखी रपट में चोरी

पँचतारे में 
चुस्की लेकर
ढूढ रहे उपचार

लोकवित्त को लीले
बड़े-बड़े घोटाले
क्लीन चिटों की मानद
बॉट रहे रखवाले

जोड़-तोड़ के
करतब से कब
मुक्त हुई सरकार। 

7. मेघ तुम

मेघ !
हमने सुना था
तुम पुष्करावर्तक
सजल मन
उच्च कुल के

रामगिरि से
यक्षगृह तक
बन्धु बरसोगे बराबर
प्यास भर
पानी पियेंगे 
मोर, नदिया, खेत, सागर

किंतु
भाई-भतीजों के सिवा
तुम बरसे कहॉ पर
कभी खुल के

नर्मदा
प्यासी पड़ी नत
विन्ध्यपद सकुची अभी भी
आम, जामुन
तक नही मुक्ता लड़ी 
पहुँची अभी भी

किंतु
तजकर बोझ मन का
हो न पाये तुम
अभी भी यार हलके

नभ अटारी
यक्षबाला
ही तुम्हारे अभिप्रेत हैं
है फसल सूखी
खेत-बंजर
जन विकल अनिकेत हैं

याद आया
इन्द्र जैसे
पल जिये तुमने बराबर
कपट छल के। 

Hindi Poems of Brajnath Srivastava on www.poorvabhas.in

सृजन और उसका क्रमिक विकास (विशेष सन्दर्भ निराला) - वीरेन्द्र आस्तिक

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वीरेंद्र आस्तिक 

वीरेंद्र आस्तिक का जन्म कानपुर (उ.प्र.) जनपद के एक गाँव रूरवाहार में 15 जुलाई 1947 को हुआ। आस्तिकजी हिंदी गीत-नवगीत के प्रसिद्ध हस्ताक्षर हैं। इनके गीत, नवगीत, कविताएँ, रिपोर्ताज, ग़ज़ल, ललित निबंध, समीक्षाएँ आदि श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन, समकालीन गीत: अन्तः अनुशासनीय विवेचन, शब्दपदी, गीत वसुधा, दैनिक जागरण, जन सन्देश टाइम्स, मधुमती, अलाव, साहित्य समीर, कविताकोश, अनुभूति, पूर्वाभास आदि ग्रंथों, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। 

जीवन वृत्त
कानपुर (उ.प्र.) के एक गाँव रूरवाहार में 15 जुलाई 1947 को जन्मे वीरेंद्र आस्तिक के पिता घनश्याम सिंह सेंगर बड़े गुणी व्यक्ति थे, माता राम कुमारी परिहार कुशल गृहिणी थीं। आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील भावुक-चिन्तक एवं मिलनसार रहे हैं। आपने 1964 से 1974 तक भारतीय वायु सेना में कार्य किया। तत्पश्चात भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएं दीं। वर्त्तमान में सेवानिवृत्त। काव्य-साधना के शुरुआती दिनों में आपकी रचनाएँ वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से भी छपा करती थीं। 

साहित्यिक यात्रा
आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में उन दिनों नई कविता का दौर चल रहा था। सो आपने कविता और गीत साथ-साथ लिखे। 1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद आप कानपुर आ गए। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। यहाँ आप गीत के साथ-साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आपका पहला गीत संग्रह 'वीरेंद्र आस्तिक के गीत'नाम से प्रकाशित हुआ। 1982 में 'परछाईं के पाँव'एवं 1987 में 'आनंद ! तेरी हार है' (नवगीत संग्रह) प्रकाशित। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से आर्थिक सहयोग मिलने पर 'तारीख़ों के हस्ताक्षर' (1992 ) में प्रकाशित हुआ। इन्हीं दिनों दैनिक जागरण में आलेख आदि और मधुमती (राज. ) में समीक्षा प्रकाशित, गद्य लेखन प्रारम्भ। 2013 में मासिक पत्रिका संकल्प रथ (भोपाल) ने वीरेंद्र आस्तिक की रचनाधर्मिता पर अंक प्रकाशित किया।

प्रकाशित कृतियां : 1. नवगीत संग्रह : परछाईं के पाँव, आनंद ! तेरी हार है, तारीख़ों के हस्ताक्षर, आकाश तो जीने नहीं देता, दिन क्या बुरे थे। 2. आलोचना/ सम्पादन : धार पर हम , धार पर हम (दो) 

सम्मान : 2012 : आखिल भारतीय साहित्य कला मंच (मुरादाबाद) से सम्मानित। 2013 : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (लखनऊ) से 'दिन क्या बुरे थे'को सर्जना पुरस्कार। 

साहित्यिक वैशिष्ट्य
आस्तिक जी की कविताएँ किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। उनकी रचनाओं से गुजरने पर लगता है जैसे आज़ादी के बाद के भारत का इतिहास सामने रख दिया गया हो, साथ ही सुनाई पड़तीं हैं वे आहटें भी जो भविष्य के गर्त में छुपी हुईं हैं। इस द्रष्टि से उनकी कविताएँ- गीत भारतीय आम जन और मन को बड़ी साफगोई से प्रतिबिंबित करते हैं, जिसमें नए-नए बिम्बों की झलक भी है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी। और यह व्यंजना जहां एक ओर लोकभाषा के सुन्दर शब्दों से अलंकृत है तो दूसरी ओर इसमें मिल जाते है विदेशी भाषाओं के कुछ चिर-परिचित शब्द भी। शब्दों का ऐसा विविध प्रयोग भावक को अतिरिक्त रस से भर देता है। 
  • वर्तमान परिवेश की जितनी नोंक नुकनी त्रासद अभिशप्त व्यथाएं हैं वे कहीं न कहीं इनके गीतों में अक्स हैं. माधवधर्मी इस गीतनिष्ठां में कालबोध बाँसुरी-शंख सा थरथराता है. ये थरथराहटें , थरथराहटें न रहकर अंतर्मन की लय-ताल से जुड़ जाए, कवि का यही प्रयत्न है. - डॉ. सुरेश गौतम (दिल्ली)
  • वीरेंद्र आस्तिक 'चुटकी भर चांदनी'और 'चम्मच भर धूप'तक सीमित नहीं हैं. उनके कुछ गीतों में आज की त्रासद और भयावह स्थितियों से सीधी मुठभेड़ है. उनका मुहावरा जनगीत के बहुत निकट का है. आम आदमी के समानांतर समता, स्वतंत्रता, सामजिक न्याय आदि जनतांत्रिक मूल्यों के संकट में पड़ जाने की विडम्बना पर उनकी सीधी नजर है. यही वजह है कि उनका परिवेश-बोध जितना प्रासंगिक है, उतना ही उनका मूल्य-बोध विचारोत्तेजक और सार्थक है. सम्प्रेषण के स्तर पर उलझाव और जटिलता से परे रहकर सहज अभिव्यक्ति का प्रयास उनके गीतों को संवेद्य और ग्राह्य बनाता है. - डॉ. वेद प्रकाश 'अमिताभ' (अलीगढ़, उ.प्र.)
  • वीरेंद्र आस्तिक के कवि से हिन्दी संसार सुपरिचित है. उनकी रचनाओं में जहां रचनाकार के मानवीय और सामाजिक सरोकार अभिव्यंजित हैं वहीं जीवनराग और निसर्ग-प्रेम से उनकी रचनाएँ लबालब भरी हुईं हैं. भूमंडलीकरण और बाजारवाद के इस ऊसर भाव-भूमि पर आस्तिक के रचनाकार ने जीवन और जगतराग की जो सरिता बहाई है, उसके रस से मानवीय सृजन संसार रसमय रहेगा. - डॉ. विमल (वर्धमान, प.बं)
संपर्क : एल-60, गंगा विहार, कानपुर-208010, संपर्कभाष: 09415474755 

गीत-कविता करना मूलतः एक सृजन प्रक्रिया है। सृजन शब्द आर्ट शब्द का पर्यायवाची माना गया है। आर्ट मूलतः लैटिन शब्द है। सृजन शब्द का प्रादुर्भाव यूरोपीय पुनर्जागरण काल से हुआ था। सृजन उस युग का एक क्रांतिकारी द र्शन है जिसके द्वारा मनुष्य ने स्वयं को प्रकृति से मुक्त किया, अर्थात् सृजन का धर्म मुक्त होने के अर्थ में है। जिस प्रकार सृजन सृष्टिगर्भा है, सृष्टि की उत्पत्ति हैं। ठीक उसी प्रकार सर्जना सर्जनाकार के अभ्यंतर की अभिव्यक्ति है। सृजित वस्तु मुक्ति के रूप में हमें प्राप्त होती है। इस तथ्य को गहराई से समझना होगा। सृजन करना अर्थात् ऐसी मौलिकता की खोज करना है जिससे मानवीय मूल्यों में कुुछ नया जुड़ सके ताकि निरर्थक हो चुकी नैतिकताओं के प्रति मनुष्य का मोह भंग हो, उनसे मुक्ति मिले। डॉ0 विमल के शब्द हैं- ‘‘सृजन की अवधारणा उस मूल्यवान रिक्थ के रूप में हैं, जिसके लिए परम्पराओं, सिद्धांतों आदि के बरवक्स मानव हित सर्वोपरि है।’’ यही मानव हित साहित्य के केन्द्र में है।

इस तरह साहित्य की यात्रा अभिव्यक्ति की आजादी की यात्रा है। नए मानवीय मूल्यों के अन्वेषण में अक्सर भाषा के खतरे उठाने पड़े हैं। भाषा जो झूठ के आवरण से आच्छादित होती जाती है। उसकी आजादी एक अहम मुद्दा रहा है और आज भी है। इतिहास में अनेक ऐसे पड़ाव हैं जहाँ आजादी को निर्बाध रखने हेतु जड़ हो चुके अलंकारों और कला सिद्धांतों के विरूद्ध भाषा के खतरे उठाने पड़ते रहे हैं। ये खतरे आज भी उठाए जा रहे हैं। हमें यह सूूत्र कथन हमेशा याद रखना होगा कि सृजन का धर्म मुक्त होने के अर्थ में है तथा मुक्ति भी स्वेच्छाकारी नहीं बल्कि सार्थकता के अर्थ में है।

सृजन की अवधारणा के संबंध में ऊपर जो कहा गया है, उसके प्राचीनतम और सर्वोत्तम उदाहरण हैं हमारे वेद। सृजन-प्रक्रिया के प्रसंग में यहांँ वेदों का सन्दर्भ प्रासंगिक होगा। वेद भाषा की समृद्धता और वैज्ञानिकता के ही प्रमाण नहीं अपितु आदिम स्मृतियों और प्रतीतियों के परिवर्तित स्वरूप भी हंैं। परिवर्तन की मौलिकता वेदों की सृजनात्मकता में दिखाई पड़ती है, क्योंं कि तब वहाँ न तो कोई सिद्धांत था, न ही किसी आलोचना पद्धति का साँचा और न ही कोई भय था। वहाँ लय भाषा में पहली बार जन्म लेती है। ध्यातव्य यह भी है कि तब न छन्द शास्त्र था, न अंत्यानुप्रास और न टेक पद्धति ही थी। वहाँ पंक्तियां छोटी भी हैं और बड़ी-बड़ी भी। जिन्हें ऋचा या श्लोक कहा गया है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि सिर्फ लय के आलम्बन पर ऋचाओं का एक रूपाकार है और उस रूपाकार में पूरा भारतीय वाड.मय समा जाता है। कल्पना की जा सकती है कि हजारों-हजारों वर्षों तक साहित्य जगत में सिर्फ लय का एकाधिकार रहा होगा। उस समय काव्य का या गीत का एक ही घटक था, वह घटक था लय। वेदों को ही सर्वप्रथम गीत कहा गया और गीत-पाठक को उद्गाता। तब वहाँ गद्य की बात कल्पना में भी नहीं थी। वहाँ भाषा का विकास लय का विकास है। यानी मूलाधार लय ही है। छन्द शास्त्र व्याकरणों के रूप में, महाकाव्यों के रूप में और वैचारिक काव्यों के रूप में विकास पाते हैं। गीत की नई अवधारणाएं छन्द-संगीत के विकास के साथ ही शुरू होती हैं।

गीत गोविन्द के गीत उल्लेखनीय हैं। गीत गोविन्द की भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है। वह अपभ्र्रंश और खड़ी बोली का प्रभाव लिए हुए हैं। वहाँ गीत अपने घटकों का विस्तार करता है। उसी काल में 7वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में सिद्धों के काव्य मेंे दोहा का प्रादुर्भाव होता है, जिसमें छन्द को विशेष प्रकार का आकार मिलता है तथा जिसमें तुकांत मिलाने का पहली बार प्रयास किया गया। बौद्ध धर्मी एक सिद्ध हुए हैं, नाम था सरहपा जो पहले दोहाकार माने जाते हैं, उन्हीं के समकालीन है देवसेन जिनका मुकम्मल दोहा उदाहरण के रूप में यहाँ प्रस्तुत है-
काहि बहूतहि संपदहि यदि कृपणहि घर होइ
उदधि नीर खारे भरेउ पानिउ पियै न कोइ

मध्य युग में संगीत की राग-रागनियों का प्रवेश भक्ति-संगीत में शुरू होता है। फलस्वरूप संत कवियों ने गान पद्धतियों की सुविधा हेतु टेक का प्रयोग किया। टेक संगीत की देन है। इस तरह पद के रूप में गीत के घटक हो जाते हैं लय तुकांत और टेक। कबीर के गीत प्राचीनतम गीत माने जाते हैं। कबीर पहले प्रयोगकर्ता है, उनकी भाषा में ओज सर्वाधिक है किन्तु भाषा उतनी परिमार्जित नहीं। भाषा सतत् प्रयोगों से मजती हैं यही कारण है कि बाद के मीरा, सूर और तुलसी की भाषा में मार्जन का निखार अधिक दिखाई देता है।

आधुनिक काल मंें गीत के विकास की परिणति छायावाद है। छायावाद को हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग माना जाता है किन्तु इसी काल में अनेक विधाओं के विस्फोट में वह स्वर्ण युग ज्यादा दिन ठहर नहीं सका। छायावाद का पर्यवसान छायावादोत्तर गीत में हुआ जो ‘मंचीय गीत’ तक आते-आते अस्त हो गया। यथार्थ और समय को महत्व देने वाली नई कविता ने गीत को उखाड़ कर हाशिए पर फेंक दिया। यह सब अकारण नहीं था। स्वतंत्रता संग्राम में आधुनिक क्रांति जो आई तो उसने छायावाद की आयु को कम कर दिया, क्योंकि जब समय तेजी से बदलता है तब अभिव्यक्ति है, के औजार भी बदल जाते हैं।

छायावाद एक तरफ गीत के विकास की पराकाष्ठा है तो दूसरी तरफ उसके कथ्यात्मक और कलात्मक उपकरणों, प्रतिमानों और भाषा शैली के औजारों का घूर्णन भी कम नहीं है। जब कोई भाषा, कोई विचारधारा व्याकरणीय अलंकरणों और नियमों में कस जाती है तो आगे उसका विकास मुश्किल में पड़ जाता है। फिर वह अपने परिनिष्ठित संस्कारों से छूट कर आदिम लोक की ओर दौड़ती है। फिर पूरा रचना प्रवाह दौड़ता है, ताजगी प्राप्त करने के लिए। यही है सर्जना का वह तथ्य जिस पर 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में सर्वप्रथम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की दृष्टि गई। नव जागरण काल से प्रभावित होने वाले पहले साहित्यकार हैं निराला। इसलिए मैं निराला को पहला क्रांतिकारी आधुनिक कवि मानता हूँ।

वे निराला ही थे जिन्होंने साहित्य के प्राचीन कोश से अनेक चिनगारियों को निकाल कर भविष्य के लिए सुरक्षित कर दिया। उन्होंेने अभिव्यक्ति की मुक्ति और शैली-शिल्प के अंर्तसम्बन्धों को आत्मसात किया। बताने की आवश्यकता नहीं कि उनका समग्र काव्य-कर्म उपर्युक्त तथ्य का प्रमाण है। निराला ने वेदों की रचना प्रक्रिया को गहराई से समझा और कहा- ‘‘वेदों में काव्य की मुक्ति के हजारों उदाहरण हैं, बल्कि पिच्चानवें प्रतिशत मंत्र इसी प्रकार मुक्त-ह्नदय के परिचायक हो रहे हैं।’’ यह कहना तर्कसंगत होगा कि वेदों में कथ्यानुसार ऋचाएं ढाली गई हैं यानी जो आज लय नवगीत में कथ्य-आधारित हो रही है यह तथ्य साहित्य के प्रारम्भिक दौर में मान्य हो चुका था। वेदों की छाया निराला की मुक्त छन्द की कविताओं में ही नहीं बल्कि छन्दबद्ध कविताओं में भी उसी छाया की दीप्ति दिखाई पड़ती है। निराला ने आगे कहा- ‘‘मुक्त छन्द तो वह है जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है।’’ यहाँ निराला का मंतव्य स्पष्ट हो जाता है कि हम विरासत में मिले छन्दों पर प्रयोग करके उनको अनेक प्रकार की लय पद्धतियों में परिवर्तित कर सकते हैं। उनकी ‘जूही की कलीं’ और ‘पंचवटी’ आदि सैकड़ो रचनाएं है जो बन्दिशो में होते हुए भी बन्दिशों से मुक्त हैं। उदाहरण के लिए उनकी एक कविता जिसका शीर्षक है ‘जागो फिर एक बार’ को देखा जा सकता है। ‘जागो फिर एक बार’ टेक पंक्ति है। पूरी रचना कहने को तुकांत शैली में है। किन्तु तुकांतों की आवृत्ति में कोई नियम नहीं, कोई समेकता भी नहीं। इस शैली-शिल्प के पीछे वेदों और संस्कृत शैली की अतुकांतता ही अंतर्निहित है। इस कविता में पंक्तियां छोटी भी हैं और बड़ी-बड़ी भी। सभी पंक्तियाँ हम वजन भी नहीं है। अन्तरा कोई तो सात सतरों का है, कोई ग्यारह का और कोई सत्रह सतरों तक फैलता चला गया है। अन्तिम पंक्ति के साथ तुकांत आता है तो कोई जरूरी नहीं कि वह हम मात्रिक ही हो, जैसे रचना का पहला बन्द देखें-

प्यारे जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरूण-पंख तरूण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार
जागो फिर एक बार (निराला रचनावली एक से)

दूसरा उदाहरण लें ‘राम की शक्ति पूजा’ का। इस रचना का कथ्य प्रवाह इतना सशक्त है कि शेष रचना-प्रक्रिया गौण हुई -सी दिखती है, जब कि प्रयुक्त छन्द चैबीस मात्राओं का हैं अर्थ साम्य की दृष्टि से दो-दो पंक्तियां सतुकंात हैं किन्तु लय प्रवाह पर बात की जाए तो कहीं चैपाई छन्द का विस्तार है तो कहीं कवित्त छन्द का प्रभाव। कहीं-कहीं दोनों प्रकार के छन्दों का घालमेल है, जैसे ये पंक्तियां-

साधु-साधु साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम

यहां सिर्फ निराला का कथन पर्याप्त होगा। उन्हंोनें ‘पारिमल’ की भूमिका में कहा है- ‘‘केवल शब्द योजनाओं का जो प्रवाह है वहीं उन्हें छन्द सिद्ध करता है।’’ वे लय को प्रवाह की संज्ञा से अभिहित करते हैं। यहां यह ध्यान में रखना होगा कि लय मुक्त है जबकि लय का अनुशासन ही छन्द होता है, अर्थात् निराला ने छन्द को पुनः लय में बदलने का जो जोखिम उठाया था, उसके पीछे उनकी दृष्टि दो स्तरों पर कार्य कर रही थी। एक तो वह भाषा जो छायावादी और उसके परवर्ती स्वरूपों की जो अलंकरणों की आवृत्तियों से लदफद गई थी। दूसरे उन्हें भविष्य में आने वाले जटिल कथ्यों का आभास था।

निराला के काव्य-कर्म में मुक्त छन्द, छन्दबद्ध और गीत, तीनों प्रकार की रचना प्रक्रियाओं का अध्ययन मिलता है। सर्वविदित तथ्य है कि गीतांगिनी (राजेन्द्र प्रसाद सिंह संपादित गीत संकलन) के बाद के गीतों और नई कविता के प्रचार-प्रकाशन में निराला-समय का ताप-तेवर ही केन्द्रस्थ हैं। यहाँ यह भी स्मरण में रखना होगा कि नई कविता और कविता की रचना प्रक्रिया जो लय-छन्द विमुख होकर गद्य में पर्यवसित हुई, उसके प्रवर्तक अज्ञेय और उनके अनुयायी हैं, निराला नहीं। निराला ने आजीवन कथित गद्यात्मकता का तो विरोध ही किया। नवगीत के प्रारम्भिक काल में और उसकी स्थापना में जिस प्रकार की रचना प्रक्रिया और कथ्यगत भाषा अपनाई गई वह पुराने और रूढ़बद्ध कथ्यों-अलंकरणों से मुक्ति के स्वरूप में थी।

यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि साहित्य में जब कोई नया बदलाव आता है तो उसका विकास एक लक्ष्यीय न हेाकर गुणात्मक होता है। नवगीत के क्षेत्र में भी पूर्वाग्रहों से मुक्ति और अभिव्यक्ति की मुक्ति का दौर चला। इस दृष्टि से उस काल में कई नवगीत संग्रह चर्चा में रहे तथा उनके समीक्ष्य निकषों पर नवगीत परिभाषित किया जाता रहा। ठाकुर प्रसाद सिंह कृत ‘वंशी और मादल’, वीरेन्द्र मिश्र का ‘झुलसा है छायानट धूप में’ शिव बहादुर सिंह भदौरिया कृत पुरवा जो डोल गई और उमाकांत मालवीय कृत ‘सुबह रक्त पलाश की’ आदि। इनमें से वंशी और मादाल’ तथा सुबह रक्त पलाश की’ पर बात करना पर्याप्त होगा।

वंशी और मादल के बारे में पहला महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वहाँ गीतों की रचना प्रक्रिया भय मुक्त है। यह भयमुक्ति हमें वैदिक कालीन रचना प्रक्रिया तथा बाद के निराला के काव्य कर्म में प्रयुक्त शिल्प से जोड़ देती है। इस संग्रह में शिल्पगत संभावनाओं का विस्तार है, जो परम्परागत और नवीन परिवर्तनों पर एक साथ विचार करने को बाध्य करता है। वंशी और मादल में कथ्यात्मक भाषा सीधे-सीधे लोक जीवन (संथाली जीवन) से उठाई गई है, जो पूर्ववर्ती काल में कहीं दिखाई नहीं देती। इनकी रचना प्रक्रिया में मुझे न तो किसी आलोचना पद्धति का आदेश और न ही किसी मानकी का सहारा दिखाई देता है। इनमें गाँव और प्रकृति व्यापारों के मनोसंवेगों की निश्छल कथा है। ये गीत पारम्परिक बन गए तो ठीक अन्यथा अनगढ़ ही रहे। यही इनकी मौलिकता हैं। तुकान्तों की भी नई योजनाएं हैं। अन्तरा दो पंक्तियों का भी किन्तु उसी गीत में चार पंक्तियों का भी हो गया है। कुल मिलाकर यही इनका शिल्पबोध है। पूरे संग्रह में एक ही प्रकार का लय-छन्द है जो पारम्परिक नहीं कहा जा सकता। पहले ही गीत में ‘आखिरी’ का तुकान्त बाँसुरी मिलाया गया अर्थात् ‘री’ से साधा गया। ‘आ’ और ‘बॉ’ को भी सहयोगी माना जा सकता है किन्तु ‘खि’ और ‘सु’ का तो कोई तुक नहीं। आज ऐसे तुकांत नवगीत में सामान्य हो चुके हैं। ‘सातवाँ’ गीत यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है -

उत्तर से आ रही हवाएं
बूंदों की झालर पहिने
दक्षिण में उठ-उठ कर छा रहे
पागल बादल गहिरे

यहाँ ‘ए’ स्वरांत है और यही तुक है। ऐसे स्वरांत अधिकांश है संग्रह में। कहीं केवल पदांत से ही साध लिया गया, जैसे यह गीत-

जंगल से जंगल के बीच
दिए-सा आँगन
पास बुलाते तुमको
द्वार दिए, घर-आँगन

ऐसा लगता है जैसे गज़ल की तुकांत शैली को हिन्दी गीत में शामिल करके तुकांत शैली का विस्तारीकरण किया गया है।

यहाँ महत्व की बात यह है कि गीत ही एक ऐसी विधा है जो अपने रुपाकार में कमोबेश सभी काव्य विधाओं को आत्मसात किए हुए हैं। गीत की तुलना में अन्य विधाएं अपने कद-काठी में हद तक रूढ़ है। गीत अपने कमनीय गुणों के कारण प्रशंसित भी होता है और प्रताड़ित भी। प्रताड़ित इसलिए क्योंकि आलोचना की दकियानूस शैली हरदम हावी रहती है उस पर। मेरे विचार से आलोचना विधा को सभी छन्दबद्ध विधाओं को समग्रता में देखना-परखना चाहिए। ठाकुर प्रसाद सिंह जैसे वरिष्ठ रचनाकारों ने तुकांत शैलियों को समग्रता में अपनाकर उस भेदभाव को समाप्त किया जिसके चलते गीत कवि गजल से अलगाव बनाए रखते हैं।

प्रसंग का दूसरा उदाहरण उमाकांत मावलीय कृत ‘सुबह रक्त पलाश की’ है। मालवयी जी के गीतों के बारे में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने कहा है कि इनके गीत निराला जी के नए गीत संग्रहों में जो नवीन विन्यास है उससे प्रभावित होकर भी नवीन अलगाव जताते हुए समकालीनता पर केन्द्रित हैं (उमाकांत मालवीय : स्मृतियों के गवाक्षः 1985)।’’ इस कसौटी पर उनका पूरा संग्रह उद्धृत किया जा सकता है। एक गीतांश यहां प्रस्तुत है-

सूर्य
कभी कौड़ी का तीन नहीं होगा
जन्म से मिली जिसको
कठिन अग्नि परीक्षा
उसको क्या है
संकट, चुनौती, परीक्षा
सोना तो सोना है, टीन नहीं होगा

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उक्त छन्द मात्रिक होते हुए भी लय बहुत कुछ कवित्त छन्द की-सी हो गई है। ये लय वही है जो निराला के मुक्त छन्दों से विस्फूर्जित और परिमार्जित की हुई लगती है। मालवीय जी के गीतों पर टिप्पणी करते हुए श्री माहेश्वर तिवारी का कथन है- ‘‘मात्रा और वर्ण गिन कर शुद्ध कविता का रूढ़िवादी शव ढोने वालों को इस संकलन की रचनाओं में दोष ही दोष भायेंगे, किन्तु नए मनुष्य के लिए ये गीत एक सुखद संतुष्टि देंगे। गीत की नियति मात्र गाने-गुन गुनाने तक ही सीमित नहीं की जा सकती, बल्कि उसमें गुुनने के लिए भी कुछ होना चाहिए, इस दृष्टि से विरल कोटि के ये गीत, संपन्नता से लैस है (वही)।’’

उपर्युक्त विवेचन से यह तथ्य उजागर हो जाता है कि निराला ने छन्द का त्याग नहीं किया बल्कि छन्द का विस्तारीकरण किया। निराला निर्मित वह थाट ही है जिस पर भविष्य के गीत का आधुनिकीकरण संभव हो सका। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि काव्य के विकास के साथ-साथ उसकी शास्त्रीयता का भी विकास होता है। विकास के लिए परिवर्तन जरूरी है तो परिवर्तन के लिए प्रयोग। साहित्य में प्रयोग एक अनुभवी साधक साधिकार करता है। यह भी अवगत होना चाहिए कि रचनाकारों की रचनात्मकता ही नया शास्त्र गढ़ती है और आलोचक उसे मान्य ठहराता है। श्रेष्ठता के मानकों पर विचार करने की संभावनाएं कभी खत्म नहीं होती।

यहाँ रचनाकार की उस प्रवृत्ति की ओर भी इंगित करना जरूरी होगा जिसके कारण रचना प्रक्रिया में कथ्य की केन्द्रीयता तो प्रत्यक्ष रहती है किन्तु जाने-अनजाने कलात्मक निखार भी परवान चढ़ता रहता है, जो धीरे-धीरे कथ्य को रूढ़ करते हुए खुद भी जड़वत हो जाता है। कहना चाहता हूँ कि आज पुनः अपनी विरासत से ऊर्जा ग्रहण करने का समय आ गया है। समय की क्रूरता की पराजय के लिए केवल परम्परागत प्राप्त उपकरण काफी नहीं होते, अतः हमें सामयिक और आधुनिक उपकरण तलाशने होंगे। तभी हम मनुष्यता और संवदेना जैसे मूल्यों के स्थायित्व की रक्षा कर पाएंगे

An Article by Virendra Astik

राकेश चक्र की तीन पुस्तकों का लोकार्पण संपन्न

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गाजियाबाद : 26 जून 2014 : गीताभ के तत्वावधान में प्रबुद्ध साहित्यकार श्री राकेश चक्र की तीन पुस्तकों का लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया। इस अवसर पर आयोजन के मुख्य अतिथि श्री यात्री सहित प्रसिद्ध गीतकार श्री धनंजय सिंह, वीर रस के प्रख्यात गीतकार श्री कृष्ण मित्र, सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रमा सिंह, गीतकार मधु भारतीय आदि ने शिरकत की। 

श्री चक्र के लघुकथा संग्रहवृक्ष और बीज,चाचा चक्र के हंसगुल्लेकुंडलियां संग्रह एवं योग एवं एक्यूप्रेशर नामक पुस्तकों के विमोचन में बोलते हुए श्री धनंजय सिंह ने कहा कि श्री चक्र का लघुकथा संग्रह में व्यंग्य की प्रधानता के साथ-साथ प्रेरक प्रसंगों को प्रमुखता दी गई है। केवल शब्द जाल नहीं बुना। श्री धनंजय ने इस अवसर पर साहित्य और पाठक के बीच बढती दूरी पर भी चिंता जताई। तत्पश्चात श्रीमती रमा सिंहने श्री चक्र के कुंडली संग्रह के बाबत बोलते हुए कहा कि वर्तमान में कविता तुकांत से अतुकांत की ओर जा रही है ऐसे में वीर गाथा काल के समय की विधा कुंडली का संग्रह सामने आना निश्चित ही हर्षित करता है। उन्होंने कहा कि इस संग्रह में 400 कुंडलियां हैं और उनमें सभी विषयों को समेटने का प्रयत्न किया गया है। श्रीमती रमा सिंह ने कहा कि श्री चक्र ने यथार्थ को रसगुल्ले का मीठा व्यंजन बनाकर परोसा है। उन्होंने कहा कि कवि कर्म कोई खेल नहीं है वरन अभावों में भावों की बात है। 

गीताभ के अध्यक्ष श्री ओमप्रकाश चतुर्वेदी पराग जीने इस अवसर पर श्री राकेश चक्र को बधाई दी और उनके साहित्यिक भविष्य के लिए मंगलकामनाएं प्रेषित कीं। आयोजन के अध्यक्षश्री यात्री जीने इस अवसर पर लेखक को बधाई देते हुए कहा कि श्री चक्र जी की पुस्तकें सार्थक पुस्तकें हैं। यात्री जी ने कहा कि श्री चक्र की लघुकथाओं में संवेदना प्रखर है। साहित्य, संस्कृति, मूल्य व पंरपराओं की बात की गई है। 

आयोजन में विमोचन के अतिरिक्त काव्य गोष्ठी का आयोजन भी मुख्य आकर्षण रहा। काव्य गोष्ठी में श्री धनंजय जी के गीत, ’’ मन की गहरी घाटी में क्या उतरेगा कोई, जो उतरेगा वह फिर इससे निकल न पाएगा।’’ ने सभी को भावविभोर कर दिया। डॉ. रमा सिंह के गीत, "ये गीत मेरे बंजारे हैं, पर्वत, नदिया, झरना और सागर को प्यारे हैं, की मधुरता में सभी खूब बहे और खूब झूमे। प्रख्यात साहित्यकार श्री कृष्ण मिश्र जी के गीत, इंद्रप्रस्थ के राजभवन को पा तो गए हो कुंती पुत्रों, गांधारी की संतानों की दुष्प्रवृत्तियां अभी भी जारी हैं।’’

गीताभ के अध्यक्ष श्री पराग जी अपनी गजल "यहां तो जीतकर भी लोग हारों की तरह बैठे, कभी जीता था सबकुछ हारकर पोरस सिकंदर से", सुनाई तो सभी वाह-वाह कर उठे। गीताभ की महासचिव श्रीमती मधु भारतीय जी के मधुर गीत को भी खूब वाहवाही मिली। गीताभ की सचिव श्रीमती तारा गुप्ता ने, "तुम सुनो ना सुनो हम कहें न कहें, इस तरह से मगर बात होती नहीं। शब्दमाला सजाना जरूरी नहीं, शब्द से इतर हम कोई भाषा चुनें। प्रसिद्ध गजलकार श्री कमलेश भट्ट कमल ने वर्तमान में पांव पसारती फ्लैट संस्कृति पर तंज कसते हुए कहा - "कहीं भीतर ही भीतर खाए जाता है, उसे यूं कर्ज का घर खाए जाता है। सुकून अब फलैट में भी तो नहीं मिलता, कि ई,एम, आई का डर खाए जाता है।’’ इसके अलावा गोष्ठी में डॉ. अंजु सुमन, मिथिलेश दीक्षित, वेद शर्मा वशिष्ठ, वीना मिततल, जयप्रकाश मिश्र, अरूण सागर, अल्पना सुहासिनी, विनोद वर्मा आदि ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया।


चित्रांश वाघमारे के पाँच गीत

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चित्रांश वाघमारे

भोपाल की धरती पर जिस युवा गीतकवि ने अपनी विशेष पहचान बनायी है और जिसे लगभग सभी अग्रज रचनाकारों का स्नेह-आशीष मिल रहा है वह हैं चित्रांश वाघमारे। लगभग बीस बरस की आयु। शरीर से अशक्त  किन्तु मन-मष्तिस्क से ऊर्जावान। लिखने-पढने की ललक। साहित्यकारों की संगत करने का मनोभाव। एक संभावनाशील रचनाकार। जन्म : 19 जनवरी 1994 । शिक्षा : बी.कॉम (अर्थशास्त्र ) द्वितीय वर्ष में। कृतियाँ : माँ (काव्य संग्रह ) प्रकाशित एवं मृत्यु के बाद वध (काव्य संग्रह ), छत्रपति शिवाजी पर केन्द्रित महाकाव्य (दोनों प्रकाशनाधीन )। संपर्क :  एम 329, गौतम नगर, (गोविन्दपुरा), भोपाल (मध्य प्रदेश ) - 462023 । मोबाइल : 09993232012, 09165105892 ईमेल : chitranshw1994@gmail.com

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
1. मिला नहीं संवाद

कई दिनों से मिला नहीं है
मित्र मुझे संवाद तुम्हारा

नकली पहचानॉ का बोझा
धरे हुए हो अपने काँधे,
या फिर चलते अलग राह पर
अनुभव की गाँठों को बाँधे

कुछ मौलिकता बची हुई है,
या कि हुआ अनुवाद तुम्हारा

क्या धुंधली अभिलाषा लेकर
महाशून्य में ताक रहे,
या फिर बढ़कर किसी शिखर की
ऊँचाई को आँक रहे 

मन में चिडिया चहक रही है,
या साथी अवसाद तुम्हारा 

क्या मन हुआ तुम्हारा शहरी
या गाँवों में रचे- बसे हो,
गाँवों - से उन्मुक्त बने या
शहरों जैसे कसे - कसे हो 

क्या शहरों ने छीन लिया है,
मिसरी जैसा स्वाद तुम्हारा 

अंतर्मन में अपनेपन के
क्या अब भी सन्दर्भ बचे है ?
अंतर के मंगल घट पर क्या -
नेह-भरे साँतिए रचे है ?

याकि प्रेम करना लगता है,
तुमको ही अपराध तुम्हारा 

2. छंद गिरवी रख दिए है

आओ कलमकारों उठो अब
गीत की गरिमा बचाओ,
भूख से टूटी कलम ने
छंद गिरवी रख दिए है 

है कहाँ अवकाश अब
कवि क्यों समय से द्वंद्व ठाने,
ढूँढ़ते है अब सभी जन -
कोष भरने के बहाने 

बुझने लगे है वे दिए जो
पूर्व में बाले हुए है,
और हमने पूर्व के -
अनुबंध गिरवी रख दिए है 

अब निराला भी नहीं है
है नहीं दिनकर कही पर,
मंद पड़ती काव्यधारा -
ढल रहे है कोकिला स्वर  

झरने लगे है पुष्प सारे
वाटिका मिटने लगी है,
और हमने पूर्व के -
मकरंद गिरवी रख दिए है  

शब्द बोझिल अर्थवाली
उलझनों में खो गए है,
शब्द है बोझिल यहाँ या -
अर्थ बोझिल हो गए है ?

अर्थ छीने, भाव छीने
शब्द से पर्याय छीने,
मूल्य देकर शोक का -
आननद गिरवी रख दिए है 

लेखनी यदि उठ खड़ी हो
और अपना मर्म समझे,
शब्द के पर्याय को -
जीवंत करना धर्म समझे 

शब्द तब ही बच सकेंगे
अर्थ जीएंगे तभी जब,
शब्द ने ही अर्थ के -
संबंध गिरवी रख दिए है 

3. मेरी माँ

नटनी सी , पतली रस्सी पर
चलती रहती मेरी माँ

उसको ध्यान रहा करता है
छोटी छोटी बातों का
उसमे बसता है सोंधापन
सारे रिश्ते नातों का,

बुआ ,बहन, भौजाई सब में-
ढलती रहती मेरी माँ

मिसरी बनकर वही घुली है
खारी सी तकरारों में
भरती अपनेपन की मिट्टी
उभरी हुई दरारों में,

घर भर के घावों पर मरहम
मलती रहती मेरी माँ 

आँचल के बरगद के नीचे
तपती धूप नहीं आती
सारे जगभर की शीतलता
माँ की गोदी की थाती,

झीने से आँचल से पंखा
झलती रहती मेरी माँ 

आशय बदल रहे है अपने
सचमुच नेकी और बदी
हर सच्चाई झुठलाती है 
ऐसी अंधी हुई सदी,
जग के झूठेपन में सच्ची
लगती रहती मेरी माँ 

सुनती है माँ नयी हवा के
चाल चलन कुछ ठीक नहीं
जिसपर बढ़ते पाँव समय के
कोई अच्छी लीक नहीं ,

सोता है संसार रातभर
जगती रहती मेरी माँ 

बसती है मेरी माँ मेरी -
अपनी हंसी ठिठोली में
चौखट के वंदनवारों में
आँगन की रंगोली में,

आँगन के दीये सी दिप-दिप
जलती रहती मेरी माँ 

4. गुनगुनाना तक मना है

तार वीणा के कसो मत
गुनगुनाना तक मना है 

भीड़ में अनुयायियों की
हो सको शामिल तो ठीक
चुप खड़ी परछाईयों में
हो सको शामिल तो ठीक

है कठिन पहरा अधर पर
शब्द लाना तक मना है 

मूल है कोई नहीं बस -
मूल के पर्याय हम
ग्रंथ के रसवंत लेकिन
अनसुने अध्याय हम

कौन उच्चारण करे जब
बुदबुदाना तक मना है 

ज्योति की उजली सभा में
तिमिर अभ्यागत बने
खुद यहाँ आकर, अमा का -
सूर्य शरणागत बने

है गहन तम,पर दियों का
टिमटिमाना तक मना है 

हो भला कैसे यहाँ
दो चार बातें चैन की
कुछ कथाएँ शोक,सुख की
कुछ व्यथा दिन रैन की

अट्टहासों के नगर में
मुस्कुराना तक मना है 

5. अच्छा लगता है

अच्छा लगता है अपने से
बातें करना भी

हाल पूछना अपना ही
बतलाओ कैसे हो ?
कुछ बदले हो या अब भी
वैसे के वैसे हो ?

अच्छा है अपने ही भीतर,
ज़रा उतरना भी 

अच्छा है मन की नदिया की
आवाज़े सुनना,
औ'नदिया के छोर बैठकर
अपने को गुनना 

भूली-बिसरी गलियों से
इक बार गुज़रना भी 

अच्छा है अपने को ही
अखबारों सा पढ़ना,
खुद से सबक सीखकर खुद ही
अपने को गढ़ना 

देख-देख मन के दर्पण में
ज़रा सवारना भी 

कभी गुज़रना अपने मन की
संकरी गलियो से,
बातें करना ज्यों अपनी ही
वंशावलियों से 

चलते चलते सुस्ताना भी -
ज़रा ठहरना भी 

Chitransh Vaghmare, Bhopal

जन्म दिन पर विशेष : अनिल जनविजय की सात कविताएँ

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अनिल जनविजय

28 जुलाई 1957, बरेली (उत्तर प्रदेश) में जन्मे हिन्दी और हिन्दी साहित्य के प्रति जी-जान से समर्पित कविता कोशऔर गद्य कोशके पूर्व संपादक एवं रचनाकोशके संस्थापक-संपादक अनिल जनविजय जी सीधे-सरल स्वभाव के ऊर्जावान व्यक्ति हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.कॉम और मॉस्को स्थित गोर्की साहित्य संस्थान से सृजनात्मक साहित्य विषय में एम. ए. करने के बाद आपने मास्को विश्वविद्यालय (रूस) में ’हिन्दी साहित्य’ और ’अनुवाद’ का अध्यापन प्रारम्भ कर दिया। तदुपरांत आप मास्को रेडियो की हिन्दी डेस्क से भी जुड़ गये। 'कविता नहीं है यह' (1982), 'माँ, बापू कब आएंगे' (1990), 'राम जी भला करें' (2004) आपके अब तक प्रकाशित कविता संग्रह हैं; जबकि 'माँ की मीठी आवाज़'(अनातोली पारपरा), 'तेरे क़दमों का संगीत' (ओसिप मंदेलश्ताम), 'सूखे होंठों की प्यास' (ओसिप मंदेलश्ताम), 'धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा' (येव्गेनी येव्तुशेंको), 'यह आवाज़ कभी सुनी क्या तुमने' (अलेक्जेंडर पुश्किन), 'चमकदार आसमानी आभा' (इवान बूनिन) रूसी कवियों की कविताओं के अनुवाद संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। छपास की प्यास से कोसों दूर और अपने बारे में कभी भी बात न करने वाला यह अद्भुत हिन्दी सेवी हिन्दी और हिन्दी साहित्य की पताका इंटरनेट पर पूरे मनोयोग से सम्पूर्ण विश्व में फहरा रहा है। कभी किसी ने स्वतः ही अपनी पत्र-पत्रिका में आपको 'स्पेस'दे दिया तो ठीक, न दिया तो भी ठीक; किसी ने पूछ लिया तो ठीक, न पूछा तो भी ठीक; किसी ने मान दे दिया तो ठीक, न दिया तो भी ठीक- कभी किसी से कोई अपेक्षा नहीं की इस भले आदमी ने। ई-पत्रकारिता के जरिए बस इनका ध्येय रहा कि हिन्दी साहित्य के न केवल स्थापित, बल्कि वे सभी रचनाकार विश्व-पटल पर आएं, जो हिन्दी साहित्य में अच्छा कार्य कर रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है आपके द्वारा संपादित उक्त वेब पत्रिकाएं। इतना ही नहीं हिन्दी, रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य की गहरी समझ रखने वाला यह बहुभाषी रचनाकार न केवल उम्दा कविताएँ, गीत-नवगीत, कहानियां, आलेख आदि लिखता है बल्कि विभिन्न भाषाओँ की रचनाओं को हिन्दी और रूसी भाषा में सलीके से अनुवाद भी करता है। यह भी कहना चाहूंगा कि ऐसे लोग कम ही हैं, जो बहुत अच्छा लिख तो देते हैं, किन्तु वास्तविक जीवन में उस पर अमल नहीं करते। अनिल जी की यह खूबी ही है कि वे जो कहते हैं वही करते हैं और वैसा ही दिखाते भी हैं। यदि मैं हिन्दी और हिन्दी साहित्य के लिये महायज्ञ करने वालों की संक्षेप में बात करूँ, तो अज्ञेय जी, डॉ धर्मवीर भारती जी, डॉ शम्भुनाथ सिंह जी आदि आधुनिक भारत के विलक्षण हिन्दी सेवियों की सूची में अनिल जनविजय जी का नाम भी जोड़ा जा सकता है। मुझे ऐसा कहने में गर्व महसूस होता है, अन्य लोग क्या सोचते हैं यह उनकी व्यक्तिगत समझ पर निर्भर करता है। मैं यह भी कहना चाहूंगा कि अपनी माटी- अपनी जड़ों से अगाध प्रेम तथा भारत-रूस के बीच मजबूत पुल का कार्य करते हुए यह साहित्य-मनीषी हिन्दी के लिए विशिष्ट कार्य अपने ढंग से कर रहा है। जब कभी भी साहित्यिक ई-पत्रकारिता का इतिहास लिखा जायेगा, वहाँ इस महानायक का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जायेगा- ऐसा मेरा विश्वास है। कल आदरणीय अनिल जी का जन्म दिन है। पूर्वाभास की ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ !


1. एक रात में कवि ...
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 

एक रात में कवि
कितनी कविताएँ लिख सकता है

एक रात में कवि
कितनी बातें सोच सकता है

एक रात में कवि
कितने गाँवों, कितने शहरों, 
कितने देशों, कितनी दुनियाओं
के चक्कर लगा सकता है

एक रात में कवि
किन-किन लोगों को 
किस-किस तरह के पत्र लिख सकता है

एक रात में कवि
किस-किस के विरूद्ध 
किस तरह लड़ सकता है

क्या-क्या कर सकता है कवि
एक रात में ?

2. कमरे में ...

कमरे में एकान्त है
फूल है
उदासी है
अंधेरा है
बेचैनी है कमरे में
क्या नहीं है
क्या है कमरे में
रात है धूप नहीं है

सुबह होगी
निकलेगा सूरज
कमरे में छिटकेगी धूप
फूल से गले मिलेगी
धूप को चूमेगा फूल
शोर होगा
ख़ुशी होगी
गूँजेंगी किलकारियाँ
हँसी होगी
रोशनी होगी
कमरे में। 

3. धीरे से मैं ...

धीरे से मैं
दीवार की खाल खुरच देता हूँ
जहाँ कभी लिखा गया था
तेरा नाम। 

4. याद हैं मुझे ...

याद हैं मुझे
तुम्हारे वे शब्द
तुमने कहा था--

एक दिन आएगा
जब आदमी
आदमी नहीं रह पाएगा
वह बंजर ज़मीन हो जाएगा
या ठाठें मारता समुद्र। 

5. माँ का आँचल ...

माँ का आँचल पकड़कर
पेड़ का नाम पूछता बच्चा
गुम हो जाता है
अपने छोटे से आकाश में
स्वर्ग से उतरे फलों के साथ
कुछ देर के लिए

6. क्षण भर को ...

क्षण भर को
धुएँ में से सूरज का चमकना
और उस पर तत्काल
रूई से सफ़ेद बादल का तैर जाना
मुझे याद है तेरा उदास रहना। 

7. मैं ही तुम्हें ...

मैं ही तुम्हें
ले गया था पहली बार
समुद्र दिखाने
तुम परेशान हुई थीं उसे देखकर

चुप गुमसुम खड़ी रह गई थीं
ख़ामोश बिल्ली की तरह तुम
और समुद्र बेहद उत्साह में था

बार-बार
आकर छेड़ता था वह
आमंत्रित करता था तुम्हें
अपने साथ खेलने के लिए
तुमसे बात करना चाहता था देर तक
नंगी रेत पर तुम्हें बैठाकर
अपनी कविताएँ सुनाना चाहता था
और तुम्हारी सुनना

वह चाहता था
तुम्हारे साथ कूदना
उन बच्चों की तरह
जो गेंद की तरह उछल रहे थे
समुद्र के कंधों पर

सीमाएँ तोड़कर
एक सम्बन्ध स्थापित 
करना चाहता था तुमसे
परिवार सुख के लिए

साप्ताहिक अवकाश का दिन था वह
आकाश पर लदी सफ़ेद चिड़ियाँ
उदासी की शक्ल में नीचे उतर आई थीं
और हम भीग गए थे

कितना ख़ुश था उस दिन समुद्र
तुम्हारे नन्हे पैरों को 
स्पर्श कर रहा था
तुम्हारी आँखों में उभर रहे 
आश्चर्य को देख रहा था
अनुभव कर रहा था
अपने व्यक्तित्व का विस्तार

वह व्याकुल हो गया था
वह तरंग में था
नहाना चाहता था तुम्हारे साथ
बूँदों के रूप में छिपकर
बैठ जाना चाहता था तुम्हारे शरीर में

आँकने लगा था वह
अपने भीतर उमड़ती लहरों का वेग
उसके पोर-पोर में समा गई थी
शिशु की खिलखिलाहट

अपने आप से अभिभूत वह बढ़ा
बढ़ा वह
और सदा के लिए
तुम्हें अपनी बाहों के विस्तार में
समेट लिया था उसने

और आज मैं
अकेला खड़ा हूँ
उसी जगह
समुद्र के किनारे
जहाँ मैं ले आया था तुम्हें
पहली बार। 


Seven Hindi Poems of Anil Janvijay, Moscow, Russia

मंतव्य का प्रवेशांक - एक अद्भुत दस्तावेज

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मंतव्य का महत्वपूर्ण प्रवेशांक आया है जिसके संपादक हैं हमारे चहेते युवा रचनाकार, पत्रकार श्री हरेप्रकाश उपाध्याय। पत्रिका की टैगलाइन 'जनतांत्रिक रचनाशीलता की समग्र प्रस्तुति'से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह पत्रिका जन-मन के समग्रभाव को केंद्र में रखकर प्रस्तुत की गयी है। कथा, कविता, मर्म मीमांसा, खास किताब, मील का पत्थर, भूली-बिसरी, रंग-भूमि, जीवन की राहों में आदि खंड अपनी नवीनता, सहजता, गंभीरता और समसामयिकता की बानगी प्रस्तुत करते हैं। पत्रिका का कलेवर आकर्षक एवं सम्पादन बेजोड़ है। श्रद्धेय स्व दिनेश सिंह जी, ज्ञानरंजन जी और अखिलेश जी के सम्पादकत्व में निकलने वाली पत्रिकाओं की याद दिलाते इस प्रवेशांक में ऐसा बहुत कुछ है जिसे पढ़ा और गुना जा सके। इस पत्रिका का प्रकाशन निरंतर चलता रहे इसी शुभकामना के साथ संपादक जी को हार्दिक बधाई। 

पत्रिका : मंतव्य 
संपादक : हरे प्रकाश उपाध्याय 
पृष्ठ : 236
मूल्य : 100/- 
संपर्क : ए 935 / 4, इंदिरा नगर, लखनऊ - 16 
ई-मेल : mantavyapatrika@gmail.com

Mantavya Patrika, Editor : Hareprakash Upadhyay

कुछ बेक्ड कविताएँ : मर्मस्पर्शी संवेदनाओं के चित्र उकेरती कविताएँ

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[समीक्षित पुस्तक : कुछ बेक्ड कविताएँ (कविता संग्रह)। लेखक : मोनालिसा मुखर्जी।
प्रकाशक : अभिनन्दन बनर्जी, 19 राजा राम मोहन राय मार्ग,
पोस्ट - नवपल्ली, कलकत्ता - 700126 ।
प्रथम संस्करण : 2014 । पृष्ठ - 52 । मूल्य : 100 /- ]

माँ के पुनर्जन्म की मृदुल आस के जुगनू से प्रारम्भ होकर नोटों की गड्डियां गिनवाकर देवताओं को पाने पर संपन्न "कुछ बेक्ड कवितायेँ "की कविता यात्रा में "मोनालिसा मुखर्जी"ने जीवन से जुड़ी हर संवेदना के मर्मस्पर्शी पहलू को अपने अन्तर्मन से जिया है। यह आपकी प्रथम कृति है, किन्तु कविताओं का प्रवाह, लयात्मकता और संप्रेषणीयता बस देखते ही बनती है - "मैं खेल रही थी /सोचा था चाल मेरी है /अपने समय से चलूंगी /मैं पसर गई थी पेड़-तले/ कछुआ फिर जीत गया /उन नन्हे हाथों को थामने का सपना /जन्मा /और मुझमें ही जम गया।" नई कविता की भावात्मक संवेग-क्षमता की अनुपमता इन पंक्तियों में महसूस करें- "जाने से पहले /मुझे बनानी है/ एक दीवार /जुटाने हैं दो हाथ /फ़ूलों का हार /और छोड़ जाना है /एक फ्रेम-बस इतना ही करना है मुझे /ख़ुद को लावा रिस न कहलवाने के लिये।"

मोनालिसा जी की कविताएं, जहां उस नदी की खोज में हैं जो अभिव्यक्ति को स्वयं में सहेज - संवार कर उसे अपना ले, वहीं वे ईश्वर से खिन्नता व्यक्त करते हुए चुप्पी में समाहित पीर की चीख़ को ले पाने की चुनौती भी देती हैं। आपकी कविताएं भाव-विभोर कर देती हैं जब वे मम्मी के टूटे चश्मे, माँ की साड़ियों में छुपी माँ के बदन की खुशबू, डबडबाती आँखों से ताकती कविता, सर पर पैर रख बदहवास दौड़ते मन, चूल्हे की आग में झुलसती कविता, बहने दो लहरों को अनमने, चांदनी ना सही रात तो है जैसे प्रतीकों को प्रवाह देती हैं - 
"मानवता के प्रगतिवाद का पेड़ सदियों से, ठूंठ सा खड़ा है, जैसे उसे किसी अक्षम्य अपराध की सजा मिली हो   या डरा हुआ हो उन शक्तियों से जो प्रगतिवाद को वास्तविकता के धरातल पर नहीं अपितु काग़जों मात्र पर अंकित रखने की चेतावनी देते रहे हैं --- या फिर संभवतः उसे आत्मविशवास और अपनत्व की अनुभूति देकर अपनी उँगली थमा कर किसी ने चलना ही नहीं सिखाया", ऐसी भावाभिव्यक्ति, यह न मानने को विवश करती है कि यह "मोनालिस"जी की प्रथम कृति है। 

शाश्वत सत्य है कि बिखरने में एक पल नहीं लगता और संवारने में युग लग जाते हैं। इस सच्चाई को यूं कहन दी है कविमन ने -"कुछ भी नहीं संभलता /एक बार बिखरने के बाद /रेत हो जाता है सब /बनते जाते हैं मरुथल /और भटकता रहता है ख़ानाबदोश /उसी में /समेटे ऊँट पर अपना सारा कुछ .!"

वर्त्तमान विसंगतियों /विद्रूपताओं की पीर को मोनालिसा जी ने अपनी कविता में कुछ यूं जिया है - "प्रशान्त /शांत रहो /बहुत बोलते हो चुप भी करो /तुम बोलते ही क्यों हो आखिर ?/क्यों मान लेते हो कि /सब तुम्हारा दुःख समझ ही लेंगे ?/उन्हें फुर्सत नहीं अपने पचड़ों से /फिर कैसे तुम्हारे आंसू थाम सकेंगे !/इसलिये अब बस करो / अपने नदी पहाड़ और झरने / तुम्हें खुद ही ढोने होंगे "प्रशांत से शांत रहने को कहती यह कविता सही मानों में 
कविता की चीख़ है, जिसे सुनना समझना और महसूस करना आज की महती आवश्यकता है । 

माँ पर मैंने स्वयं भी रचनाएँ की हैं और बहुत सी पढ़ी ,सुनी भी हैं -गीतों में,ग़ज़लों में भी लेकिन माँ पर मोनालिसा की यह पूरी की पूरी रचना हृदय को गहराइयों तक छूने की क्षमता रखने वाली एक सम्पूर्ण और सशक्त कविता है जिसके लिये मेरा कवि उन्हें मन से बधाई देता है - "माँ /एक शब्द और ढेरों परछाइयाँ यादों की /उसकी पुचकार ,डांट फटकार /और ढेरों दुलार/------- मेरा 'मैं'और मेरा 'सब'वही है /'उसकी बिटिया वाला परिचय ही /मेरा परिचय है /मेरी हँसी /मेरे चेहरे में उसकी झलक का होना ही /मेरा 'होना'है /बाकी सब वृथा है / व्यथा है। "

आगे बढ़-बढ़कर शंकाओं में इज़ाफ़ा करती घटनाओं, पल-पल के डर, कहीं से बटोरी थोड़ी सी आशा पर निर्भर 
जीवन, न होने से होने की संभावनाओं का बनना बिगड़ना, रिश्तों का टूटना-जुड़ना, बंजारावाद, दुर्बल-समर्पण, पाने की चाह और खोने का भय, ठंडी बयार की वेदनायुक्त-मुस्कान, दो कमरों के फ्लैट और घर को छत मानने की विवशता, घुटन को विवश जीवन, कोल्हू जुते बैलों सा जीवन-प्रलोभन, परिस्तिथियों-वश बार-बार विश्वाश का टूट जाना, बेरोज़गार युवाओं का दर्द, पेड़ की छाँव की पीर, जातिवाद का विरोध, समुद्र और पृथ्वी की खींचातानी के चक्रवात, मुस्कान का मूल्य,पूजा के दो फूल हथेली पर पे रखकर मठ के किसी अन्तरकक्ष में घुल गया सा वसंत, चीख़ती रह गईं लिहाफ़ की सलवटें,निगोड़ी सुबह,अपलक अपनत्व के मुड़ आने की प्रतीक्षा, बौना अभिमान, गुणा भाग में उलझे सुर-तार,खतों की सियाही सी लिफाफों में बंद क़स्में,बदनाम आवारा नदी के किनारे,एकांतवासिता लता की मरीचिका,स्वर्ग,नर्क और मोक्ष के मायाजाल,उल्लू सीधा करने की व्यवस्थाएं,जड़-प्राणहीन काला लिबास सा शरीर, संसारी झोले उठाये लौटते कदम,पारम्परिक संज्ञाओं और विशेषणों को उतार फेंकने का मन,किनारा छूकर लौट आने का अभिशाप, अक्वेरियम के बाहर का चीखता समंदर जैसे उल्लेख्य अनूठे उपमानों से आलोकित यह कृति अंत में प्रश्न छोड़ती है "क्या गांधी बम बनाता है?/नहीं ना ?/तो फिर --------

मोनालिसा जी की कवितायेँ निःसंदेह कविता-जगत के लिये सार्थक और संग्रहणीय है। आपकी सुखी, स्वस्थ, संपन्न, यशवान, दीर्घायु की माँ शक्ति से कामना के साथ मैं आपको इस कृति के लिए साधुवाद कहता हूँ, जिसे कविता-जगत में पर्याप्त सम्मान मिलना स्वाभाविक है। 

समीक्षक : आनन्द कुमार 'गौरव'
ई-8-ए, हिमगिरि कॉलोनी [कांठ रोड ]
मुरादाबाद -244001 
मोबा-09719447843 
सामान्य पत्राचार- पो०बॉक्स-311 
मुख्य डाकघर, मुरादाबाद- 244001 
ईमेल-akgaurav2@gmail.com

KUCCH BAKED KAVITAYEN BY MONALISA MUKHARJI

शचीन्द्र भटनागर के पांच नवगीत

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शचीन्द्र भटनागर

मुरादाबाद के वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय शचीन्द्र भटनागर जी हिंदी के ऐसे साहित्यकार हैं जिनका अब तक समुचित मूल्यांकन नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण उनकी स्वयं की उदासीनता और आलोचकों की उनके साहित्य के प्रति अनिभिज्ञता रहा है। लेकिन इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि उनका साहित्य जहाँ अपने आप में विशिष्ट है, वहीं हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि भी है। समाज, संस्कृति और अध्यात्म के प्रति गहरे लगाव से रचे गए उनके गीत-नवगीत, ग़ज़ल, महाकाव्य, मुक्तक, निबंध, आलेख आदि आज भी अपनी ताजगी एवं समरसता से लैस हैं। वे हमें जीवन को समग्र दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित करते हैं।शचीन्द्र भटनागर जी का पूरा नाम महेन्द्र् मोहन भटनागर है। आपका जन्म 28 सितम्बर 1935 ई. को फैजाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। प्रकाशित साहित्य :खंड-खंड चाँदनी (गीत-नवगीत संग्रह 1973), क्रान्ति के स्वर (गीत संग्रह 1999), करिष्ये वचनं तव (गीत संग्रह 2003, पुनर्मुद्रण 2011), हिरना लौट चलें(नवगीत संग्रह 2003), तिराहे पर (ग़ज़ल संग्रह 2006), ढाई आखर प्रेम के (गीत-नवगीत संग्रह 2007, पुनर्मुद्रण 2010), अखण्डित अस्मिता (मुक्तक संग्रह 2008, पुनर्मुद्रण 2010), प्रज्ञावतार लीलामृत (महाकाव्य 2011)। पुरस्कार/ सम्मान : वर्ष 1963 में कादम्बिनी पत्रिका द्वारा कादंबिनी गीत पुरस्कार, वर्ष 1988 में अखिल भारतीय व्रजसाहित्य संगम, आगरा द्वारा व्रज विभूति की उपाधि, वर्ष 1988 में हिंदी प्रकाश मंच संभल द्वारा काव्य मर्मज्ञ की उपाधि से अलंकृत, वर्ष 1998 में अमृत महोत्सव भिंड, मध्य प्रदेश में आचार्य श्रीराम शर्मा शक्तिपीठ पुरस्कार, वर्ष 2006 में हिंदी साहित्य संगम, मुरादाबाद द्वारा महाकवि दुर्गादत्त त्रिपाठी जन्मशताब्दी साहित्य सम्मान, वर्ष 2009 में आर्य समाज मुरादाबाद द्वारा आर्य भूषण सम्मान, वर्ष 2010 में साहित्यिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संस्था परमार्थ द्वारा साहित्य एवं कला विभूति की मानद उपाधि प्रदत्त, वर्ष 2010 में स्व. राजेश दीक्षित स्मृति साहित्य सम्मान, वर्ष 2011 में विप्रा-कला साहित्य मंच द्वारा साहित्यार्जुन सम्मान, वर्ष 2012 में अखिल भारतीय साहित्य कला मंच द्वारा मंदाकिनी साहित्य सेवा सम्मान, वर्ष 2012 में सरस्वती परिवार मुरादाबाद द्वारा काव्य सिंधु उपाधि, वर्ष 2013 में तूलिका साहित्यिक संस्था, एटा द्वारा साहित्यश्री उपाधि, वर्ष 2014 में अखिल विश्व गायत्री परिवार मुख्यालय शांतिकुंज हरिद्वार द्वारा युग साहित्य-सृजन सम्मान से विभूषित। अन्य साहित्यिक उपलब्धियाँ : (क) अनुवाद :अनेकानेक गीतों का तमिल, तेलुगु, मलयालम, बांगला, गुजराती, मराठी, ओडिया, पंजाबी तथा अंग्रेजी में अनुवाद हो चुका है। (ख) शोधपरक ग्रंथ : 1. भक्तिगीत परम्परा और शचीन्द्र भटनागर के भक्ति गीत - संपादक डॉ. नंदकिशोर राय, लखनऊ। 2. शचीन्द्र भटनागर:व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डॉ. कंचनलता, बरेली। 3. शचीन्द्र भटनागर के काव्य की अंतर्यात्रा- डॉ. सुनीता सक्सेना, एटा। 4. उत्तरोत्तर- अमृत वर्ष पर प्रकाशित समीक्षात्मक ग्रंथ- संपादक डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल, बिजनौर। संपर्क सूत्र : शचीन्द्र भटनागर, द्वारा-श्री अमित भटनागर, वरिष्ठ सहायक, जिला विद्यालय निरीक्षक कार्यालय, कचहरी रोड, मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश), पिन संख्या- 244001; शचीन्द्र भटनागर, 13 जनक भवन, शांतिकुंज, हरिद्वार (उत्तराखण्ड) - 249411, मोबाइल-09319836707। इस बार पूर्वाभास (http://www.poorvabhas.in) पर प्रस्तुत उनके पांच गीत उनकी रचनात्मकता की बानगी पेश करते हैं। 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
1. क्षमादान 

जी, हम हैं पंडे पुश्तैनी

दर्ज बही में अपनी
देखो परदादा का नाम तुम्हारे
संस्कार करवाने आते
पूर्वज यहीं तुम्हारे सारे
हमें ज्ञान है हर निदान का
पाप- ताप के क्षमादान का

तभी यहाँ आते रहते हैं
बौद्ध, समाजी, वैष्णव, जैनी

हमें पता हर सीधा रस्ता
हम हैं ईश्वर के अधिवक्ता
ऐसा सुगम उपाय पुण्य का
कोई तुमको बता न सकता
कई पीढिय़ों को है तारा
करना यह विश्वास हमारा

कुछ भी करो साल भर चाहे
मन में मत लाना बेचैनी

क्यों चिंता में डूबे रहते हो यजमान
जागते- सोते
थोड़ा जीवन शेष
बिताते क्यों उसको यूँ रोते- धोते
हम ऐसा विनियोग करेंगे
दूर दोष- भय- रोग करेंगे

वहाँ न काम करेगी
गीता, रामायन या कथा, रमैनी

पिछले- अगले कई जन्म का
ऐसा समाधान है हम पर
शांति उन्हें भी हम दे सकते
जिनका है उपचार न यम पर
हम ब्रह्मास्त्र चला सकते हैं
भवनिधि पार करा सकते हैं 

काम न भारी बुलडोजऱ का
करती कभी हथैड़ी-छैनी

कृपा- प्राप्ति के लिए
त्याग भी कुछ करना पड़ता है साधो!
सबकुछ यहीं पड़ा रह जाना
फिर क्यों सिर पर गठरी लादो
जब चाहो गंगातट आना
श्रद्धा से कुछ भेंट चढ़ाना 

पा जाओगे
पुण्य- लाभ की हम से सीधी- सुगम नसैनी। 

2. तीर्थाटन

अबकी बार हुआ मन
हम भी तीर्थाटन करने जाएँगे

गंगाजी के तट पर
होटल कई - कई मंजि़ल वाले हैं
एयरकंडीशंड कक्ष में
टी.वी. हर चैनल वाले हैं
हर प्रकार की सी.डी.मिलतीं
जो कुछ चाहेंगे, देखेंगे,
घूमेंगे, दृश्यों का पूरा हम आनंद वहाँ पर लेंगे

इस अवसर का लाभ उठाकर
हल्का मन करने जाएँगे

कमरों में
हो जाता हैं उपलब्ध वहाँ पर हर सुख- साधन
एक कॉल पर
आ जाता है सामिष तथा निरामिष भोजन
मनचाहा खाने - पीने को
हम होंगे स्वच्छंद वहाँ पर
शब्द स्पर्श रस रूप गंध का
होगा हर आनंद वहाँ पर

इस जीवन पर नए सिरे से
हम मंथन करने जाएँगे

यहाँ दृष्टि में दकियानूसी लोगों की
रहता है संशय
माँ गंगा की सुखद गोद में
बिता सकेंगे जीवन निर्भय
कुछ भी पहनेंगे- ओढ़ेंगे
वहाँ न कोई बंधन होगा
वहाँ पहुँचने पर
हम दोनों वही करेंगे जो मन होगा

मन का भार उतार
वहाँ हम मनरंजन करने जाएँगे

गंगास्नान करेंगे
भीतर वही चेतना भी भर देंगी
वह तो पतित पावनी माँ हैं
हर अपराध क्षमा कर देंगी
जब मंदिर जाकर
श्रद्धा से शीश नवाएँगे हम दोनों
तीर्थाटन का लाभ
सहज ही फिर पा जाएँगे हम दोनों

मनरंजन के संग
सफल हम यह जीवन करने जाएँगे। 

3. कथावाचिका 

रामकथा करने आई हैं 
कथावाचिका मथुरावासी

वह उपवास-निरत रहती हैं
अन्न-त्याग का तप करती हैं
केले, सेब, अनार, आम हों
काजू, किशमिश हों, बदाम हों
दुग्ध संग में हो तो उत्तम
रहती हैं वह सदा उपासी
कथावाचिका मथुरावासी

गंगाजल से स्नान करेंगी
तदुपरांत वह ध्यान करेंगी
जल में दूध-दही मिश्रित हो
पुष्पसार से वह सुरभित हो
ऐसा है व्यक्तित्व
कि लगती हैं पूनम की चंद्रकला-सी
कथावाचिका मथुरावासी

एक पहर में
तीस मिनट की ही केवल वह 
कथा सुनातीं
शेष समय में स्वर-लहरी से
हाव-भाव से रस बरसातीं
भीग-भीगकर जनता फिर भी 
रह जाती प्यासी की प्यासी 
कथावाचिका मथुरावासी

समझाती हैं- कर्म तुम्हारे
ईश्वर आठों याम निरखता
कृपा-अनुग्रह से पहले
वह भक्तों की पात्रता परखता
फिर कहती हैं-
हुई आजकल दुनिया 
धन साधन की दासी 
कथावाचिका मथुरावासी

धन-आभूषण
उन्हें भेंट-में जब कोई देता श्रद्धा से
उसे ग्रहण कर मुस्काती हैं
वह आशीर्वाद-मुद्रा से 
एक पहर सेवा को
उत्सुक रहते ऊँचे भवन-निवासी
कथावाचिका मथुरावासी। 

4. पुण्य पर्व

आने वाली शिवतेरस है

शिव के श्रवणकुमार जा रहे
सजी सुगढ़ काँवड़ काँधे हैं
शॉर्ट कैपरी हैं केसरिया
पाँवों में घुँघरू बाँधे हैं
मुँह में रखे भाँग के गोले
बोल रहे हैं बम बम भोले
कभी नाचते हैं मस्ती में
चलते में लेते हिचकोले

बरस रहा नभ से
बादल बन शिव की 
सरस भक्ति का रस है

भक्तिभाव से
गंगातट पर आकर वे 
जल भर ले जाते
किंतु पुरानी काँवड़, कपड़े
गंगाजी के बीच सिराते
पतितपावनी गंगा मैया
इनका भी उद्धार करेंगी
नहीं सोचते
जल में वे सब कितना 
अधिक विकार भरेंगी

नासमझी से
मिलता गंगामाता को 
कितना अपयश है

भक्त वहाँ कुछ ऐसे भी हैं
जो मन बहलाने को आते
जगह-जगह सत्कार देखकर
मस्ती करते, मौज मनाते
एक जेब में पव्वा रखते
एक जेब में पिसी भाँग है
काँवड़ या केसरिया कपड़े
केवल नाटक और स्वाँग है

तप का भाव नहीं है मन में
करनी उनकी
जस-की-तस है

यह श्रावण का पुण्य पर्व है
चाहो अगर परमपद पाना,
विल्वपत्र के संग-संग तुम
आधा कुंतल दूध चढाऩा
रोगी बच्चा
झोंपड़पट्टी में चाहे भूखा मर जाए
या श्रम करती माँ का
बेटा एक घूँट पय को ललचाए

सबकी अपनी-अपनी किस्मत
नहीं नियति पर चलता वस है। 

5. गुरु - दीक्षा

सद्गुरु गंगातट आए हैं
आओ जीवन धन्य बना लो

जिन्हें न गुरु मिल पाता
उनको कहते हैं सब लोग निगोड़े
ऊपर जाकर सहने पड़ते
उनको यमदूतों के कोड़े

गहकर गुरु की शरण
स्वयं को महादंड से आज बचालो

अहोभाग्य गुरु स्वयं आ गए
करने को कल्याण तुम्हारा
किसे पता है
मिले ना मिले यह अवसर फिर तुम्हें दुबारा

गया समय फिर हाथ न आता
दीक्षा लेकर पुण्य कमालो

देख-देख हर कर्मकांड में
प्रतिदिन होती लूट यहाँ पर
कृपासिंधु गुरु जी ने
दीक्षा में दी भारी छूट यहाँ पर

मिली छूट का
समझदार बन इसी समय शुभ लाभ उठा लो

एक नारियल,
पंचवस्त्र के संग पंचमेवाएँ लेकर
और पंच मिष्ठान्न, पंचफल,
पंचशती मुद्राएँ लेकर 

सद्गुरु के श्रीचरणों पर

अर्पित कर कृपा-अनुग्रह पा लो

शरणागत पा तुम्हें
कान में मंत्र तुम्हारे वह फूकेंगे
तीन लोक में
सात जन्म तक वह तुमको संरक्षण देंगे

सद्गुरु तथा शिष्य का नाता
अपने हित के लिए निभा लो

डरो नहीं
जीते हो जैसे जीवन वैसे ही जी लेना
शिष्यों की जीवनशैली से
उन्हें नहीं कुछ लेना-देना

विगत-अनागत दोनों के ही
सभी कर्मफल क्षमा करालो। 


Five Hindi Lyrics of Shacheendra Bhatnagar
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