Quantcast
Channel: Poorvabhas
Viewing all 488 articles
Browse latest View live

'सारस्वत सम्मान' हेतु प्रविष्टिया आमंत्रित

$
0
0


मुरादाबाद: सार्थक साहित्य और रचनाधर्मिता को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान ने हिन्दी की किसी भी विधा (गद्य-पद्य) में रचनाकार को श्रेष्ठ साहित्य सृजन के लिए 'सारस्वत सम्मान' से सम्मानित करने का निर्णय लिया है।

साहित्यकार विगत दो वर्ष 2011-2013 में प्रकाशित पुस्तकों की 3-3 प्रतियाँ दिनाँक 30 सितम्बर, 2013 तक नीचे दिये गये संस्थान के पते पर प्रेषित करने की कृपा करें।

अखिल भारतीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान
डी-12, अवंतिका कालोनी, एम.डी.ए. मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)

अशोक विश्नोई (09411809222), राजीव सक्सेना (09412677565), शिशुपाल 'मधुकर' (09412237422)

Saraswat Samman

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी संगोष्ठी काठमाण्डू (नेपाल) में सफलतापूर्वक सम्पन्न

$
0
0

काठमाण्डू (नेपाल): (8 जून, 2013 से 11 जून, 2013 ): अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य कला मंच, मुरादाबाद (उ.प्र.)भारतवर्ष द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी संगोष्ठी का आयोजन नैपाल की राजधानी काठमाण्डू स्थित शंकर होटल के विशाल सभागार में किया गया जिसका मुख्य विषय था- ‘हिन्दी का वैश्विक परिदृश्य’ इस संगोष्ठी में भारत से सौ से अधिक शिक्षाविदों, आचार्यो, प्राचार्यो और साहित्यकारों ने सीधे सहभागिता की और 50 से अधिक शोधालेख इस संगोष्ठी में प्रस्तुत किए गये। यही नहीं, भारत के अतिरिक्त अमेरिका, इंग्लैण्ड, सिंहापुर, नॉर्वे, नैपाल, मॉरिशस आदि देशों के प्रतिनिधियों एवं साहित्यकारों ने भी इसमें सहभागिता की।

शंकर होटल के विशाल सभागार में आज ठीक 9:00 बजे प्रातः अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारम्भ सरस्वती वन्दना के साथ हुआ जिसे प्रस्तुत किया डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी (बरेली) ने और श्री गणेश वन्दना को कत्थक नृत्य के साथ प्रस्तुत किया कु सुरम्या शर्मा (नई दिल्ली) ने। इससे पूर्व कार्यक्रम के मुख्य अतिथि- प्रो आर के मित्तल कुलपति- तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद (भारतवर्ष) और कार्यक्रम अध्यक्ष प्रोफेसर- हरिराज सिंह ‘नूर’, पूर्व कुलपति- इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (भारतवर्ष) तथा डॉ शेर बहादुर सिंह (अमेरिका), डॉ सावित्री वशिष्ठ (सिंहापुर), डॉ जयवर्मा (इंग्लैण्ड), श्री शरद आलोक (नार्वे), माननीय भारतीय राजदूत श्री जयन्त प्रसाद (नैपाल), प्रोफेसर हीराबहादुर महाराजन कुलपति, त्रिभुवन विश्वविद्यालय (नैपाल), श्री गोविन्द राम अग्रवाल (नैपाल) श्री त्रिलोक चन्द्र अग्रवाल (नैपाल), डॉ आनन्दसुमन सिंह (उत्तराखण्ड), डॉ विनय पाठक (भारत), डॉ गिरिराजशरण अग्रवाल (भारत) डॉ राजेन्द्रनाथ मेहरोत्रा (भारत) आदि ने सरस्वती  के समक्ष दीप प्रज्वलन करके पुष्पार्चन किया। कुछ समय के लिए सारा सभागार भक्तिमय हो गया। 

तत्पश्चात्, मंच की ओर से मुख्य अतिथि, कार्यक्रम अध्यक्ष, विशिष्ट अतिथियों विशिष्ट आमंत्रित अतिथियों को बैज लगाकर स्वागत किया गया, साथ ही सभागाार में उपस्थित सभी साहित्यकारों, प्रतिभागियों और हिन्दी सेवियों को भी बैज लगाकर स्वागत अभिनदन किया गया। मुख्य अतिथि, कार्यक्रम अध्यक्ष, विशिष्ट अतिथियों और आमंत्रित अतिथियों को पुष्पगुच्छ भेंट करके सभी का भावभीना स्वागत एवं अभिन्दन किया गया। डॉ बाबू राम (कुरूक्षेत्र), डॉ राम सनेही ‘यायावर’ (फीरोजाबाद), डॉ करूणा पाण्डेय (बरेली), डॉ मीना कौल (मुरादाबाद), डॉ अभय कुमार (चान्दपुर), डॉ मयंक पंवार और श्री विवेक ‘निर्मल’ (मुरादाबाद), ने बैज, लगाकर पुष्पगुच्छ भेंट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

मंच के महासचिव डॉ राम गोपाल भारतीय ने मंच के कार्यो का जहाँ विवरण प्रस्तुत किया, वही मंच के संस्थापक अध्यक्ष ‘डॉ महेश ‘दिवाकर’ ने सभागार में उपस्थित सभी अतिथियों और साहित्यकारों का स्वागत एवं अभिन्दन किया। डॉñ मीना कौल ने मंच की उपलब्धियों एवं इतिहास पर संक्षेप में प्रकाश डाला। 

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी संगोष्ठी के उद्घाटन-सत्र में बोलते हुए कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो आर. के. मित्तल ने इस अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के नैपाल में आयोजन करने हेतु मंच परिवार को बधाई एवं शुभकामनाएँ देते हुए कहा कि अब वह दिन दूर नही है, जब हिन्दी महाशक्तियों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय संवाद की भाषा का उच्च स्थान ग्रहण करेगी। प्रो आर. के. मित्तल ने कहा कि वर्तमान युग टैकनॉलॉजी एवं विज्ञान का महान युग है। और यह हर्ष का विषय है कि अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश एवं विश्व बाजार हिन्दी की महत्ता एवं उपादेयता को सहज रूप से सवीकार कर रहा है। फलतः विश्व क्षितिज पर हिन्दी का फलक बढ़ता जा रहा हैं। उन्होंने हिन्दी के स्वर्णिम भविष्य की कामना करते हुए ‘अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य कला मंच परिवार की इस आयोजन के लिए भूरि-भूरि प्रशंसा की और शुभकामनाएँ दीं। इसी के साथ-साथ अतिथियों ने हिन्दी का वैश्विक परदिृश्य शीर्षक से प्रकाशित सम्पादित विशाल ग्रंथ का लोकार्पण किया जिसका सम्पादन, ‘डॉ महेश ‘दिवाकर’, डॉ मीना कौल और डॉñ करूणा पाण्डेय द्वारा मिलकर किया गया है।

अमेरिका से पधारे महान हिन्दी सेवी डॉñ मेजर शेर बहादुर सिंह, सिंहापुर की डॉñ सावित्री वशिष्ठ, इंग्लैण्ड की डॉ जयवर्मा, श्री शरद आलोक (नार्वे), नैपाल में भारत के राजदूत श्री जयन्त प्रसाद, त्रिभुवन विश्व विद्यालय, नेपाल के कुलपति प्रोफेसर हीराबहादुर महाराजन और विशिष्ट अतिथि श्री गोविन्द राम अग्रवाल (नैपाल) डॉñ आनन्द सुमन सिंह (उत्तराखण्ड) ने भारत- नैपाल सम्बंधों के उन्नयन एवं संवद्र्धन में हिन्दी भाषा और नैपाली भाषा की प्रासंगिकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालते हुए, इस आयोजन के लिए अपनी शुभकामनाएँ दीं।

इसके उपरान्त डॉ विनय पाठक (छत्तीसगढ़) ने हिन्दी की दशा, दिशा एवं अन्र्तराष्ट्रीय महत्व पर अपना बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया तथा हिन्दी की भावी विश्व के निर्माण में बहुआयामी भूमिका को इंगित किया। इसी के साथ संगोष्ठी में पधारे शिक्षाविदों, आचार्यों, प्राचार्यों और साहित्यकारों तथा हिन्दी प्रेमियों ने अपने-अपने शोधालेख प्रस्तुत किये। संगोष्ठी में जिन विद्वानों ने अपने-अपने शोधालेख प्रस्तुत किए, उनमें उल्लेखनीय हैं- डॉ बाबू राम, डॉ धनंजय सिंह, डॉ रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’, डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ किश्वर सुलताना, डॉ ए. के. रुस्तगी, डॉ विजय वेदालंकार, डॉ वन्दना रानी गुप्ता, डॉ बीना रुस्तगी, डॉ मिर्जाहाशम बेग, डॉ रणधीर सिंह, डॉ ऋषिपाल, डॉ मीना अग्रवाल, डॅ0 अनुराधा मृग्नेय, डॉ मंयक पंवार, डॉ ईश्वर सिंह सागवाल, डॉ जय कुमार, डॉ अनुराधा, डॉ अरूण रानी, डॉ मीना कौल, डॉ करूणा पाण्डेय, डॉ राकेश कुमार अग्रवाल, डॉ सतीश कदम, डॉ काजी शौकत, डॉ अशोक मर्डे, डॉ धन्य कुमार, डॉ चन्द्रकान्त मिशाल, डॉ सुभाष शास्त्री, डॉ आशा पाण्डेय, डॉ महेश ‘दिवाकर’, डॉ राम कठिन सिंह, डॉ विनय कुमार शर्मा, डॉ कमलेश राय, डॉ सावित्री कुमारी, डॉ राजकुमार शर्मा, डॉ विनय कुमार चैधरी, डॉ रवि शर्मा, डॉ वन्दन जाधव, डॉ मुरलीधर लहादे, डॉ पोलकार्तिक, डॉ अभय कुमार, (सभी भारत), और डॉ मेजर शेरबहादुर सिंह (अमेरिका), डॉ जयवर्मा (यूके) डॉ सावित्री वशिष्ठ (सिंहापुर), डॉ गोविन्दराम अग्रवाल (नैपाल), डॉ प्राण जग्गी, (अमेरिका), डॉ महीपाल सिंह वर्मा, (यूके), शरद आलोक (नार्वे), डॉ आनंद सुमन सिंह (उत्तराखण्ड), ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग (मुरादाबाद) आदि ने भी अपने विचार प्रकट करते हुए हिन्दी संगोष्ठी को सफलता के उच्च सोपानों पर पहुँचाया।

अन्त में डॉ ओमप्रकाश सिंह और डॉ मीना कौल द्वारा तैयार की गयी संगोष्ठी आख्या की प्रस्तुति डॉ ओम प्रकाश सिंह ने की। विषय प्रवर्तन का कार्य डॉ बाबू राम (कुरूक्षेत्र), और संगोष्ठि संचालन डॉ रवि शर्मा (नई दिल्ली), और डॉ राकेश कुमार अग्रवाल (हापुड़) ने संयुक्त रूप से किया। डॉ मीना कौल ने धन्यवाद ज्ञापित किया।


27वाँ वार्षिक सम्मान-समारोह

काठमाण्डू (नैपाल)-9 जून, 2013 अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य कला मंच, मुरादाबाद (उप्र) भारतवर्ष का 27वाँ वार्षिक सम्मान-समारोह-2013 काठमाण्डू (नैपाल) स्थित शंकर होटल के विशाल सभागार में आज दिनॉक 9 जून, 2013 को 2:30 बजे से शुभारम्भ हुआ जिसमें डॉ आशा पाण्डेय (राजस्थान) ने सरस्वती की वन्दना प्रस्तुत की तो मुख्य अतिथि प्रो आर. के. मित्तल कुलपति- तीर्थकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद, कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रोफेसर- हरिराज सिंह ‘नूर’, पूर्व कुलपति- इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, विशिष्ट अतिथि- डॉ राजेन्द्र नाथ मेहरोत्रा (ग्वालियर) डॉ शेर बहादुर सिंह (अमेरिका), डॉ जयवर्मा (इंग्लैण्ड), डॉ सावित्री वशिष्ठ (सिंहापुर), श्री शरद आलांक (नार्वे), डॉ राम कठिन सिंह (लखनऊ), डॉ रजनी पाठक (छत्तीसगढ़) डॉ गिरिराजशरण अग्रवाल (गुड़गॉव) डॉ धनजय सिंह (भारत), महाकवि अनुराग गौतम (मुरादाबाद) डॉ ओमप्रकाश सिंह (रायबरेली), डॉ गोविन्द राम अग्रवाल (नैपाल), डॉ बाबू राम (कुरूक्षेत्र), डॉ राम सनेही शर्मा ‘यायावर’ (फीरोजाबाद), डॉ आन्नद सुमन सिंह (भारत), डॉ प्राण जग्गी, (अमेरिका), आदि ने सरस्वती को पुष्पार्पित किए तथा दीप प्रज्जवलन मुख्य अतिथि ने किया।

तत्पश्चात् देश-विदेश मेंहिन्दी के उन्नयन एवं संवद्र्धन हेतु विशिष्ट सेवा कार्य करने हेतु साहित्यकारों को सम्मानित किया गया। इस क्रम में डॉ आर के मित्तल (महाकवि हरिशंकर आदेश साहित्य सिन्धु सम्मान), डॉ बाबूराम (महाकवि हरिशंकर आदेश साहित्य-चूडामणि-सम्मान), डॉ गिरि राज शरण अग्रवाल (प्रवासी साहित्कार शरद आलोक साहित्य सुमन सम्मान), डॉ हरिराज सिंह (प्रवासी साहित्कार शरद आलोक साहित्य भूषण सम्मान), डॉ राजेन्द्रनाथ मेहरोत्रा (विश्व हिन्दी सेवी सम्मान), डॉ गोविन्द राम अग्रवाल (अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य सेवी सम्मान), को नामित सामानों से अलंकृत किया गया।

विशिष्ट सम्मानों के अंतर्गत श्री लक्ष्मी खन्ना ‘सुमन’ (गुड़गॉव) और श्री सत्यराज (धामपुर) को (स्व सतीश चन्द्र अगंवाल स्मृति साहित्य श्री सम्मान), डॉ नथमल भंवर (छत्तीसगढ़), और श्री देवेन्द्र ‘सफल’ (कानपुर), को (स्व राम किशन दास स्मृति साहित्य सम्मान), डॉ अजय जनमेजय (बिजनौर), को (स्व कृपाल सिंह पंवार स्मृति साहित्य सेवी सम्मान), महाकवि अनुराग गौतम को (श्री लक्ष्मण प्रसाद अग्रवाल साहित्य गौरव सम्मान ) डॉ विनय पाठक (छत्तीसगढ़) को (डॉ महेन्द्र सागर प्रचण्डिया स्मृति साहित्यवारिधि सम्मान), डॉ राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ को (शब्द साधना सम्मान), डॉ मिर्जा हाशम बेग (शोलापुर), डॉ चन्द्रकान्त मिशाल (पुणे) और डॉ शेर बहादुर सिंह (अमेरिका) को (स्व किशन स्वरूप खन्ना स्मृति साहित्य सम्मान), 
डॉ सावित्री वशिष्ठ (सिंहापुर), डॉ जयवर्मा (यूके), को (स्व राजकुमारी खन्ना स्मृति संस्कृति, साहित्य सेवा सम्मान), डॉ मीना अग्रवाल (गुड़गॉव), को (स्व मनोरंजिनी प्रचण्डिया ‘देवी जी’ स्मृति हिन्दी सम्मान), डॉ राम कठिन सिंह (लखनऊ), डॉ बृजेश सिंह (छत्तीसगढ़) को (स्व मदन मोहन सिंह परिहार स्मृति हिन्दी सम्मान) श्री सुमन अग्रवाल (चैन्नई) को (स्व राजेन्द्र कुमार अग्रवाल स्मृति हिन्दी सेवी सम्मान) डॉ करूणा पाण्डेय (बरेली), डॉ आशा पाण्डेय (राजस्थान) को (स्व हरिशंकर पाण्डेय स्मृति हिन्दी भूषण सम्मान) डॉ मीना कौल (मुरादाबाद) को (शारदा सम्मान), डॉ बीना रुस्तगी (अमरोहा) और डॉ अशोक कुमार रुस्तगी (अमरोहा) को (स्व विद्यादेवी हिन्दी स्मृति सम्मान), डॉ अभय कुमार (चाँदपुर) को (श्री वीरेन्द्र गुप्त साहित्य रत्न सम्मान), डॉ जसवीर सिंह चावला (चण्डीगढ़) को (प्रो राम प्रसाद गोयल साहित्य शिरोमणि सम्मान), डॉ विवेक ‘निर्मल’ को (डॉ परमेश्वर गोयल साहित्य शिखर सम्मान), डॉ विजय कुमार वेदालंकार को (डॉ बद्री प्रसाद कपूर स्मृति साहित्य भूषण सम्मान), डॉ रामस्वरूप उपाध्याय ‘सरस’, अम्वाह (म प्र) को (स्व बृजपाल सरन स्मृति साहित्य सम्मान), डॉ वन्दना रानी गुप्ता (अमरोहा) का (स्व मधुर ताज स्मृति साहित्य अलंकार सम्मान), श्री चरण सिंह सुमन (धामपुर) को (स्व भगवती देवी परिहार स्मृति हिन्दी रत्न सम्मान), डॉ रवि शर्मा (नयी दिल्ली) को (स्व माता चाण्णनदेई वासु स्मृति सुरभि सम्मान), और डॉ महेश ‘दिवाकर’ (मुरादाबाद) को लाला जयनारायण चेरि ट्रास्ट, चेन्नै की और से विशिष्ट हिन्दी सेवा के लिए (लाला जय नारायण अग्रवाल स्मृति विश्व हिन्दी सेवी सम्मान) से विभूषित किया गया। इसके अन्र्तगत सभी सम्मानीय साहित्यकारों को कुछ सुनिश्चिित पर्ण भारतीय मुद्राओं के साथ-साथ शॉल, सम्मान पत्र, प्रतीक चिन्ह और रूद्राक्ष की मालाएँ भेंट की गयीं।

विशिष्ट सम्मान श्रंखला के अन्र्तगत साहित्य श्री सं. 45 साहित्यकारों को सम्मानित किया गया, जिसके अन्र्तगत प्रत्येक साहित्कार को शॉल, सम्मानपत्र और प्रतीक चिन्ह तथा रूद्राक्ष की मालाएँ भेंट की गयीं । इन साहित्यकारों के नाम- डॉ किश्वर सुल्ताना, डॉ धन्य कुमार, डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ सुभाष शास्त्री, डॉ ओम प्रकाश सिंह, श्री इन्द्र प्रसाद अकेला, डॉñ शौकत अली, श्री सूर्यकान्त सुमन, डॉ राम गोपाल भारतीय, डॉ पोलकार्तिक, डॉ धनंजय सिंह, श्री योगेन्द्रपाल सिंह विश्नोई, डॉ अनुराधा मृग्नेय, डॉ अरूण रानी, डॉ वन्दन जाधव, डॉ सुरम्या शर्मा, डॉ मुरलीधर लहादे, डॉ राजकुमार शर्मा, श्रीमति नीरजा कुमारी, डॉ कमलेशलता, डॉ मधुबाला सक्सेना, श्रीमति रेखा अग्रवाल, डॉ रणधीर सिंह, डॉ ऋषिपाल, डॉ राकेश कुमार अग्रवाल, डॉ ईश्वर सिंह सागवाल, डॉ संयुक्ता देवी चैहान, डॉ कमलेश राय, डॉ सतीश कदम, डॉ अशोक मर्डे, डॉ मनोज कुमार ‘मनोज’, डॉ काजी सत्तार, डॉ सुधा शर्मा पुष्प, डॉ रजनी पाठक, डॉ सावित्री कुमारी, डा विनय कुमार चैधरी, श्री राम सिंह ‘निःशक’, डॉ आन्नद सुमन सिंह, डॉ विनय कुमार शर्मा, डॉ त्रिलोक अग्रवाल, प्रो जय कुमार, श्री प्राण जग्गी, श्री शरद आलोक (नार्वे) आदि साहित्यकारों को साहित्य श्री सम्मान से विभूषित किया गया। सम्मान कार्यक्रम के उपरान्त डॉ महेश ‘दिवाकर’ ने सभी के प्रति धन्यवाद एवं आभार ज्ञापित किया।

मंच के तृतीय सत्र का शुभारम्भ‘काव्य गोष्ठी’ के रूप में ठीक 4:30 बजे हुआ। मंच को सुशोभित किया- डॉ आर. के. मित्तल, डॉ हरिराज सिंह (अध्यक्ष), ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग, डॉ रामसनेही लाल शर्मा यायावर, डॉ बाबूराम, डॉ ओमप्रकाश सिंह, डॉ रजनी पाठक, डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल, डॉ राम कठिन सिंह, डॉ शेर बहादुर सिंह, (अमेरिका), डॉ जयवर्मा (यूक), श्री शरद आलोक (नार्वे), डॉ आनंद सुमन सिंह, डॉ धनंजय सिंह, श्री प्राण जग्गी ने सरस्वती को माल्यार्पण किया। मुख्य अतिथि ने दीप प्रज्जवलन किया।

तत्पश्चात् काव्य पाठ। सरस्वती वन्दना श्री विवेक निर्मल (मुरादाबाद) ने प्रस्तुत की और संचालन किया श्री मनोज कुमार ‘मनोज’ ने। काव्य पाठ में करने वालों में उल्लेखनीय हैं- डॉ अजय जनमेजय, डॉñ रामगोपाल भारतीय, श्री सुमन अग्रवाल, डॉ रवि शर्मा ‘मधुप’ डॉ सुधा शर्मा ‘पुष्प’, डॉ सैयद शौकत, डॉ रजनी पाठक, डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी, श्री मति रेखा अग्रवाल, डॉ कमलेश रानी, श्री मति नीरजा सिंह, देवेन्द्र ‘सफल’, मनु स्वामी, डॉ नथमल झंवर, डॉ आशा पाण्डेय, लक्ष्मी खन्ना ‘सुमन’ डॉ योगेन्द्र पाल सिंह, डॉ राज कुमारी शर्मा, डॉ राम कठिन सिंह, डॉ जसवीर चावला, डॉ रामस्वरूप ‘सरस’ प्रो बाबू राम, डॉ मीना कौल, डॉ अशोक मर्डे, डॉ मिर्जा हाशमबेग, डॉ सतीश कदम, डॉ इन्द्र प्रसाद, डॉ महेश ‘दिवाकर’, आदि ने अपना काव्य पाठ किया। धन्यवाद डॉ महेश ‘दिवाकर’ ने किया

मॉरिशस की साहित्यिक यात्रा: डॉ महेश दिवाकर

$
0
0
डॉ महेश दिवाकर
सरस्वती भवन 
मिलन विहार
मुरादाबाद (उ0प्र0)
09927383777
09837689554

मैं एयर मॉरिशस की फ्लाईट नं.-टङ745 से नई दिल्ली, इन्दिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट से मॉरिशस के सर सिंह फादर एस.एस. राम गुलाम इन्टरनेशनल एयरपोर्ट को प्रात: 5:20 बजे उड़ान भरनी है। प्रात: के ठीक 5:35 बजे हमारे विमान ने अपने रनवे से मॉरिशस के लिए उड़ान भरी और कुछ ही देर में वह बादलों को चीरकर नीलवर्णी आकाश में अपने लक्ष्य की ओर दौड़ने लगा।

उधर प्राची की दिशा में बाल सूर्य भी अपनी यात्रा पर निकल रहा था। आकाश में दौड़ता विमान और विश्व-यात्रा पर निकलते सूर्य का बाल सौन्दर्य आकाश में अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रहे हैं। इसी बीच, प्रात: का जलपान लेकर विमान-परिचारिकाएं आ गयीं। जलपान करने के पश्चात् मुझे नींद आ गयी। कल दिनभर की थकान और रात्रिभर का जागरण हो चुका था, अत: ज्यों ही नैन बन्द किए, कब गहरी निद्रा ने जकड़ लिया, कुछ पता ही नहंीं चला। हां, जब आंख खुली तो उद्घोषणा हो रही थी कि आप सब अपनी-अपनी बैल्ट बांध लें, मॉरिशस के अन्तर्राष्टÑीय एयरपोर्ट पर आपका विमान शीघ्र उतरने वाला है।

इस समय मॉरिशस में मध्यान्ह के 12:00 बजे हैं। भारत और मॉरिशस के समय में 1:30 घण्टे का अन्तराल है। 28 अक्टूबर 2012 रविवार की अपरान्ह 1:30 बजे भारतीय समयानुसार हमारा विमान सरसिंह फादर एस.एस. रामगुलाम अन्तर्राष्टÑीय एयरपोर्ट मॉरीशस के रनवे पर उतरा और वहां लगी वातानुकूलित बस मे बैठकर हम सब लोग एयरपोर्ट के प्रतीक्षालय मे गये तथा कस्टम व इमिग्रेशन चैकिंग के उपरान्त अपना-अपना सामान लेकर बाहर निकलने में हमें 2:30 बजे हैं। मॉरिशस का यह अन्तर्राष्टÑीय एयरपोर्ट समुद्र तट पर पूर्वी किनारे पर बना है। इसकी साज-सज्जा सादगीपूर्ण है, साफ-सुथरा है। मॉरिशस खूबसूरत समुद्री द्वीप है। यही नहीं, यहां का एयरपोर्ट भी दीपनुमा आकार में आकर्षक साज-सज्जा के साथ बनाया गया है। यहां के कर्मचारी और अधिकारी व्यवहार कुशल हैं। मुस्कराकर बात करते हैं। भारत और भारतीयों के प्रति इनकेह्रदय में सम्मान का भाव है। नमस्ते-नमस्ते, स्वागतम् कहकर उन्होंने हमारे प्रति मॉरिशस की भारत-भावना को प्रकट किया। मन को बहुत अच्छा लगा। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में यहां पर बातचीत हुई। एयरपोर्ट पर हमारा यह अनुभव बहुत अच्छा है।

एयरपोर्ट के बाह्य-परिसर मेंहमें लेने के लिए दो वातानुकूलित बसें आ चुकी हैं। जिस बस में हमें बैठाया गया है, उसकी गाईड श्रीमती लीना हैं। यह भारतीय मूल की प्रवासिनी हैं और हिन्दी व अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में भली-भांति बोल लेती हैं। वातानुकूलित बस में बैठकर हम लोगों को होटल पर्ल बीच पहुंचाना है। यह होटल मॉरिशस के पश्चिमी समुद्री किनारे पर बसा है। इसी होटल में हमारे रहने की व्यवस्था की गयी है। होटल पर्ल बीच फ्लिक एन फ्लैक एरिया मे बना है। होटल के परिसर से लगभग 15-20 मीटर की दूरी पर समुद्र का नीला जल किलोलें कर रहा हैं। बड़ा ही अद्भुत दृश्य है। दूर-दूर तक समुद्र फैला है। समुद्र के अन्दर जहाज आते-जाते दिखायी दे रहे हैं। हमारे कक्ष की बॉलकनी से समुद्री-सौन्दर्य देखते ही बनता है। संध्या हो चली है। बिजली की दूधिया रोशनी में समुद्री तट जगमगा रहा है। प्राकृतिक सौन्दर्य और विद्युत प्रकाश दोनों के समन्वय से अद्वितीय मनोरम छटा फैल रही है। मौरिशस सरकार ने व्यावसायिक दृष्टि से अपने यहां पर्यटन को प्रमुख स्थान दिया है। समुद्री तट को विविध वृक्षावलियों से सजाया है। सुन्दर-सुन्दर सड़कें हैं। जिनकें किनारे छायादार और फूलदार वृक्षावलियां लगायी गयीं है। एयरपोर्ट से होटल पर्ल बीच को आते समय अनेकानेक महत्वपूर्ण बातों की जानकारी हमें गाइड श्रीमति लीना से मिली। होटल पर्ल बीच में अपने कक्ष में दो घण्टे विश्राम करने के पश्चात् हमने रात्रि का भोजन 8:30 बजे प्राप्त किया। 

यों तो इस होटल का भोजन कक्ष प्राकृतिक वातावरण को आत्मसात किए हैं। सामने ही समुद्र प्रवाहित हो रहा है। भोजन कक्ष की कुर्सी पर बैठे-बैठे ही समुद्री-सौन्दर्य भली -भांति दृष्टिगोचर हो रहा है। यहां बैठकर भोजन करने का आनन्द ही कुछ अलग है। भोजन में विविध प्रकार के फलों के रस, फलों की चांट, सलादें और शाकाहारी व मांसाहारी दोनों ही प्रकार का भोजन है। शाकाहारी भोजन में पराठा, आलू, गोभी, चावल, दाल, दही, मिष्ठान, पकवान, मक्खन और मांसाहारी भोजन में चिकन तथा मछलियों के व्यंजन हैं। बै्रड्स और उसकी कई प्रकार की निर्मित भोजन सामग्रियां है। यदि आप शाकाहारी हैं तो विदेश में आपको वेटर से पूछकर ही कोई सामग्री अपनी प्लेट में खाने हेतु उठानी चाहिए, वरना आपको धोखा अवश्य हो जायेगा। देखने में तो कई भोज्य सामग्रियां शाकाहारी जैसी लगती है, लेकिन उनमें मांसाहार शामिल रहता है। मॉरिशस-पर्यटन, साज-सज्जा का देश है। प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच रचा-बसा है, अत: यहां पर पर्यटक प्रचुर संख्या में आते हैं। यही कारण है कि यहां के प्रत्येक होटल में सामिष-निरामिष दोनों ही प्रकार का भोजन रहता है। विश्व के अनेकश: देशों के यात्री यहां आते हैं। होटलों में कई-कई दिन ठहरते हैं। अत: यहां के होटलों में चाहे दोपहर का भोजन हो, या रात्रि का भोजन, दोनों में ही मांशाहार प्रधान रूप से रहता है। साथ ही, रात्रि के भोजन के समय संगीत का भी विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित रहता है। रात्रि भोजन के उपरान्त हम लोग लगभग 10 बजे अपने-अपने शयन कक्षों में आ गये। अगली सुबह नित्य-कर्म के बाद टहलते-टहलते मैं लगभग एक किलोमीटर निकल गया। फिर मुझे ध्यान आया कि बहुत दूर आ गया हूं। फिर वापस लौटने लगा। वहीं लहरों से अठखेलियां करता मन रोमांच से भर उठता। समुद्र से अकेले में यह मुलाकात अच्छी लगी। होटल के पास आकर समुद्री तट पर बिछी आराम कुर्सी पर मैं बैठ गया और उसके सौन्दर्य को निहारने लगा। देखा तो प्रात: के 8:00 बजे हैं, जलपान के लिए होटल के जलपान-कक्ष की ओर चल दिया। वहीं रोजाना की तरह थोड़ा जूस लिया। फलों की चांट खायी। मक्खन टोस्ट लिया और चाय पीकर होटल के बाह्य-परिसर में आ गये। यहां पर लीना जी दोनों गाड़ियां लेकर आ चुकी थीं, और हम सबकी प्रतीक्षा कर रहीं थीं।

ठीक 9:00 बजे हम सब अपनी-अपनी बस में बैठकर भ्रमण हेतु चल पडेÞ। आज मॉरिशस के दक्षिणी समुद्री भाग पर स्थित पर्यटक स्थलों का भ्रमण करना सुनिश्चित था। लीना जी का यह प्रयास रहता है कि वे हमें अधिक से अधिक पर्यटक स्थलों का भ्रमण करायें और मॉरिशस के बारे में अधिक से अधिक जानकारी दें।

आज हमें सबसे पहले सिटाडेल फोर्टदेखना है तथा मॉरिशस के कुछ आन्तरिक भागों का भी अवलोकन करना है। लगभग एक घण्टा हमें वहां पहुंचने में लगेगा।
इस समय को मनोरंजक बनाने के लिए लीना जी ने अन्त्याक्षरी का प्रस्ताव रखा। तय हुआ कि महिलाएं एक ओर और पुरूष वर्ग दूसरी ओर रहेगा। बस अपनी 40-50 किलोमीटर की गति पर चली जा रही थी और इधर अन्त्याक्षरी हो रही थी। राजधानी पोर्ट लुइस को देखते हुए हम लोग उच्च पर्वतीय चोटी पर स्थित सिटाडेल फोर्ट की ऊंची चोटी पर पहुंच गये। यहां पर खूब फोटोग्राफी हुई। मॉरिशस और समुद्र का सुन्दर दृश्य हम सबने देखा। लौटते समय कॉडन वाटर फ्रंट-ड्राप देखा तथा समारन विलेज और कालापानी के स्थल भी देखे। यहां पर फ्रांसिसियों की कालोनी भी देखी और नमक बनाने की क्यारियों का भी अवलोकन किया। यहीं पर इमली गांव भी देखा। रावनी लकड़ी के बने बिजली के खम्भों को देखा जो वर्षों से मॉरिशस में खड़े बिजली-सप्लाई कर रहे हैं। यह बड़ी मजबूत और टिकाऊ लकड़ी होती है। यहीं पर इमली, इंवौली और वाकुआ की वृक्षावलियों का मनोहर दृश्य भी देखने को मिला। एक ही स्थान पर समुद्र के जल का नीला, श्वेत , हरा, काला, पीला, और आसमानी, रंग देखने को मिला। यहां पर पर्वतीय चोटियों से समुद्र के विविध दृश्य बड़े ही मनोहरी लगते हैं। इसी रास्ते में एक तालाब में वर्षा का पानी देखा, जिसे यहां के लोग पीने के काम में लेते हैं। इसे क्रियोली भाषा में माहोवाकुवा (पानी का तालाब) कहते हैं। मॉरिशस के विभिन्न पर्यटक स्थलों को दिखाती हुई सुश्री लीना जी हमें दोपहर के भोजन के वास्ते नमस्ते रैस्टॉरैण्ट मे ले आयीं। यहां पर आते-आते हमें दो बजे थे। शीघ्र ही हमने नमस्ते रैस्टॉरैण्ट में दोपहर का भोजन लिया और ठीक 2:30 बजे बस से हिन्दी प्रचारिणी सभा हिन्दी भवन लॉग माउण्टेन, मॉरिशस के लिए प्रस्थान कर गये।

हिन्दी प्रचारिणी सभा के हिन्दी भवन में मॉरिशस के सहित्यकारो ने हमारे सम्मान में परिचय-गोष्ठी और जलपान का अयोजन किया है। ठीक 3:30 बजे हमारी बसें हिन्दी प्रचारिणी सभा के परिसर में पहुंचा गयीं। मॉरिशस की हिन्दी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष श्री अजामिल माताबदल ने हम सभी भारतीय साहित्यकारों का स्वागत करते हुए हिन्दी प्रचारिणी सभा की उपलब्धियां की चर्चा की। हिन्दी प्रचारिणी सभा की ओर से भारतीय साहित्यकारों के सम्मान में सूक्ष्म जलपान कराया गया और सबको सभा की स्मारिका भेंट की। अन्तत: ठीक 5:20 बजे हम लोग हिन्दी प्रचारिणी सभा के सदस्यों और पदाधिकारियों से विदा लेकर अपने होटल के लिए प्रस्थान कर गये और लगभग 7:00 बजे अपने होटल पर्ल बीच में आ गये। और उसके बाद हम भारत के लिए रवाना हुए ।

Mauritius Ki Sahityik Yatra- Dr Mahesh Diwakar

विमल रचनावली का लोकार्पण तथा एकदिवसीय साहित्योत्सव

$
0
0

दुर्गापुर:‘जन संवाद’ (जोधपुर तथा दुर्गापुर), ‘चंद्रा बाल मुकुंद द्विवेदी शोध संस्थान, कानपुर एवं ‘सहयोगी प्रकाशन कानपुर’ जैसी संस्थाओं के संयुक्त तत्वावधान में विगत दिनांक 16-06-2013 (रविवार) को दुर्गापुर (पं0 बगाल) में एक्स्पर्ट हास्टल के सभागार में डॉ0 विमल विस्तार व्याख्यान माला और काव्य-गोष्ठी का एक दिवसीय आयोजन संपन्न हुआ।

आमंत्रित विद्धानों के स्वागतोपरांत प्रथम सत्र में दो पुस्तकों- ‘चिंता के चरण’ (विमल रचनावली) भाग तीन, संपादिका डॉ0 कंचन शर्मा तथाडॉ0 कृष्ण कुमार श्रीवास्तव कृत ‘हिन्दी आलोचना की प्रगतिशील परम्परा’ का लोकार्पण- अमृतसर से पधारे हिन्दी के शिखर आलोचक, भाषा शास्त्री तथा शिक्षा शास्त्री और व्याख्यान माला के मुख्य वक्ता डॉ0 पाण्डेय शशि भूषण ‘शीतांशु’ के कर कमलों से सम्पन्न हुआ, साथ में थे, अध्यक्षता कर रहे बनारस हिन्दु यूनिवर्सिटी से पधारे डॉ0 चैथी-राम यादव, डॉ0 विमल, और डॉ0 कंचन शर्मा। इसके बाद लोकार्पित पुस्तकों की रचनाप्रक्रिया को केन्द्र में रखते हुए डॉ0 कंचन शर्मा और डॉ0 कृष्ण कुमार श्रीवास्तव ने सारगर्भित वक्तव्य दिए।

द्वितीय सत्र था व्याख्यान माला का प्रमुख विषय था-‘हिन्दी आलोचना का वर्तमान संकट’। विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ0 विमल ने कहा-आज हिन्दी आलोचना केवल वस्तु की आलोचना रह गई है। रचना तब बनती है जब वस्तु और रूप दोनों में सामंजस्य हो। हिन्दी आलोचना साहित्यिक आलोचना नहीं रह गई है। मुख्य वक्ता के रूप में डॉ0 शीतांशुने एक लम्बा अकादमिक व्याख्यान देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध ही नहीं बल्कि उन्हें प्रश्न करने को उत्साहित भी किया। उन्होंने अनेक प्रश्नों के उत्तर देकर श्रोताओं की जिज्ञासाओं को शांत किया। 

डॉ0 शीतांशुका कहना था कि समकालीन हिन्दी आलोचना भारतीय काव्य शास्त्र की परम्परा से अर्जित स्थापनाओं और मूल्यों से कट गई है। आचार्य शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और नंद दुलारे बाजपेयी के बाद हिन्दी आलोचना ने अपना मौलिक धरातल खो दिया और वह पाश्चात्य विशेषकर माक्र्स के प्रभाव में आकर विभिन्न प्रकार की विचार-धाराओं से प्रभावित हुई है। इसी कारण हिन्दी आलोलचना न केवल संकट में है बल्कि वह आत्महंता व विराट शून्यता में चली गई है, जबकि उसे व्यक्तित्व प्रभुत्व में जाना था। इस तरह वह प्रभावक के बजाय प्रभावित हो गई है। आगे उन्होंने कहा कि अब हमें हिन्दी आलोचना को पुनर्जीवित करने के लिए वहीं से प्रारम्भ करना पड़ेगा जहां से उसे छोड़ा गया था। उन्होंने यह भी कहा कि आलोचना को विज्ञान व तकनीकी विकास से जुड़ना होगा।

इसके बाद व्याख्यान माला के अध्यक्ष डॉ0 चैथीराम यादवउत्तेजित हो उठे। उनका कहना था कि हिन्दी आलोचना का संकट वास्तव में विचारधारा का संकट है। उनका मानना था कि परम्परागत भारतीय काव्यशास्त्र वैचारिक संकट से मुक्त नहीं है अर्थात जाति-धर्म, वर्ग, स्त्री व दलित और आदिवासी समाज के सामाजिक सरोकारों से अलग हट कर आधुनिक काव्य शास्त्र नहीं गढ़ा जा सकता। भारतीय काव्य शास्त्र के पक्ष में समकालीन भारतीय समाज की अवहेलना हिन्दी आलोचना को और संकट में डाल देगी। अपने लम्बे वक्तव्य में उन्होंने यह भी जोड़ा कि भारतीय नवजागरण को गौतम बुद्ध के काल से माना जाना चाहिए। इस सत्र का सफल संचालन किया डॉ0 मनोज कुमार शुक्ल ने।

भोजनोपरान्त तृतीय सत्रथा काव्यगोष्ठी का। कानपुर से पधारे वरिष्ठ गीतकवि एवं समीक्षक श्री वीरेन्द्र आस्तिक और उन्नाव जनपद से पधारे जनप्रिय कवि श्री दिनेश प्रियमन की कविताओं को श्रोताओं ने मंत्रमुग्ध होकर सुना। कवि आस्तिक ने जब अपनी ‘मॉ’शीर्षक गीत का पाठ किया तो अनेक श्रोताओं की आँखें नम हो उठीं। गीत था- ‘‘मॉ तुम्हारी जिन्दगी का गीत गा पाया नहीं।" कवि दिनेशने पढ़ा- ‘‘अपने पास न नकली चेहरा और न टंगी हुई मुस्कानें’’ ख्यात कवयित्री और आलोचक डॉ0 कंचन शर्माका अंदाज इस तरह था- ‘‘आतंक का गुब्बारा/मैं फोड़ूंगी/तुम्हारे भय से/डरती नहीं मै/एक दस्तक हूँ/ मैं-एक पहल, तुम्हारे तालाब में एक कंकड़।’’ इसके अलावा मंचनीय कवि महेन्द्र मेंहदी, डॉ0 रवि शंकर सिंह और वीना क्षेत्रियआदि कवियों के काव्य पाठ का प्रबुद्ध श्रोताओं ने आनंद उठाया। अन्त में अध्यक्षता कर रहे डॉ0 शीतांशु ने गोष्ठी को यह कहकर स्थगित किया कि निश्चित ही यह एक सफल काव्य गोष्ठी रही। हम कवियों के अनुरोध पर उन्होंने  प्रसन्नमुद्रा में गोपाल सिंह नेपाली को याद करते हुये उनके ही दो मुक्तक पढ़े। कवि गोष्ठी का सफल संचालन किया डॉ0 रवि शंकर सिंह ने। भारी संख्या में उपस्थित श्रोताओं की दृष्टि में यह एक यादगार गोष्ठी रही। 
प्रस्तुति
डॉ0 रवि शंकर सिंह

Dr Vimal; Vimal Rachanavali

वसुन्‍धरा पाण्‍डेय निशी की पाँच प्रेम कविताएँ

$
0
0
वसुन्‍धरा पाण्‍डेय निशी 

संभावनाशील रचनाकार वसुंधरा पाण्डेयका जन्म 2 जून 1972 को जनपद देवरिया में हुआ। आपने हिन्दी साहित्य में एम. ए.गोरखपुर विश्वविद्यालय से किया। अपने बारे में वसुंधरा जी कहती हैं: "बचपन से डायरी लिखने का शौक रहा, पर सहेजी एक भी नही...फिलहाल फेसबुक और ब्लाग जैसे सोसल नेटवर्क और यहीं जुड़े मित्रों का हौसला अफजाई ने साथ दिया, बचपन से ना सहेजे हुए शब्दों को सहेजने लगी हूँ...फ़िलहाल उपलब्धि के नाम पर दो कवितायेँ 'स्त्री होकर सवाल करती है' में छपी है, एकाध पत्र-पत्रिका में, एक संकलन प्रकाशनार्थ तैयार है, शीघ्र हीं आप सबके बीच होगा।"वर्त्तमान में आप इलाहाबाद में रहती हैं। सम्‍पर्क: vasundhara.pandey@gmail.com। आपकी पाँच प्रेम कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं:-

1. जब फूल सा दिल
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

‘जब फूल सा दिल
हो जाए पत्थर
तो कोई क्या करे ?’

--मैंने पूछा

‘प्यार में
पिघल जाते हैं पत्थर भी’

--उसने टोका

शायद
उसे मालूम ना था
फूल
मिट्टी हवा पानी में खिलते हैं

पत्थर
लावे में उबल कर निकलते हैं !

2. उसने कहा 

उसने कहा-
जीवन ...संघर्ष है 
मुझे लगा जीवन प्रेम है

और हम
निकल पड़े
अपनी-अपनी डगर...

उसे क्या मिला 
मुझे नहीं मालूम 

मुझे मिली आँखें
और तुम और यह पंख...! 

3. एक जन्म और सही

काश रब ऐसा किये होते
ये जनम हमारा
एक दुसरे के लिये हुआ होता

कोई बात नहीं
तुम तो मेरी
जन्म-जन्म की तलाश हो
एक जन्म और सही..!

4. हम तो थे ही पत्थर

हम तो थे ही पत्थर
सनम भी पत्थरदिल

जब भी मिले...गरजे
खूब गरजे...फिर बरसे
खूब बरसे...फिर तरसे
और यों...तरसना
जिंदगी का हासिल हुआ

5. तुम्हारे भीतर है कहीं

प्यार चीता है यहाँ
वनदेवी का रति सुख
कभी भी कहीं से भी
कोई हिरनी का छौना कपि-मृग शावक
कोई छवि.. कोई खिलौना
इस चीते की मूछ के बाल खींच कर
इसे सम्मानित कर देता है
और इसकी गुर्राहट में
वसंत झरने लगता है बेहिसाब

ना ना ना
यहाँ से नहीं दिखता
बहुत दूर बहुत दूर
तुम्हारे भीतर है कहीं !

Five Hindi Poems of Vasundhara Pandey Nishi

रजनी मोरवाल के तीन गीत

$
0
0
रजनी मोरवाल

चर्चित रचनाकार रजनी मोरवालका जन्म 1 जुलाई 1967 को आबूरोड़ (राजस्थान) में हुआ था। शिक्षा:बी.ए.(हिन्दी), बी.कॉम, एम.कॉम, बी.एड.। प्रकाशित कृतियाँ: (1) काव्य-संग्रह- “सेमल के गाँव से” (2) गीत-संग्रह- “धूप उतर आई” (3) गीत‌‌-संग्रह-“अँजुरी भर प्रीति”। प्रकाशन: विभिन्न प्रतिष्टित पत्र-पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, कविता, लघुकथा, लेख आदि का निरन्तर प्रकाशन। प्रसारण: जयपुर एवं अहमदाबाद दूरदर्शन से गीत प्रसारित एवं जयपुर, उदयपुर तथा अहमदाबाद आकाशवाणी से गीत प्रसारित। सम्मान: वाग्देवी पुरस्कार, रामचेत वर्मा गौरव पुरस्कार, हिन्दी साहित्य परिषद, गुजरात द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्ति स्वरूप रजत पदक एवं प्रशस्ति-पत्र से महामहिम श्रीमती (डॉ.) कमला बेनीवाल, राज्यपाल, गुजरात द्वारा हिन्दी पर्व पर पुरस्कृत, अस्मिता साहित्य सम्मान आदि। आपने विभिन्न राष्ट्रीय कवि-सम्मेलनों, मुशायरों एवं कवि-गोष्टियों में गीत-गान एवं गज़ल-पठन तथा कवि-शिविरों में पत्र-वाचन किया है। संप्रति:केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका के पद पर कार्यरत। सम्पर्क:सी‌- 204, संगाथ प्लेटीना, साबरमती-गाँधीनगर हाईवे, मोटेरा, अहमदबाद -380 005। दूरभाष: 079-27700729, मोबा.09824160612. 


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. देह खाली पोंगरी 

देह खाली पोंगरी 

औ' ज़िन्दगी बाँसों भरा वन 
साँस की लय-तान छेड़े 
बाँसुरी बन जाय तन-मन 

साधना का सुर सजाकर 

छंद गीतों में पिरों लूँ, 
प्राण की धूनी रमाकर 
चित्त अनहद में डुबो लूँ, 

भक्तिमय संसार हो 
हर साँझ फिर गूँजे भजन

पर्वतों - सी वेदनाएँ 
व्योम तक फैली हुई हैं, 
सागरों - सी कामनाएँ 
तीर पर मैली हुई हैं, 

देह की चादर समेटूँ 

मुक्त कर सारे प्रबंधन

मोहमय संसार सारा 
लोभ रेतीला बवंडर, 
रूप का व्यापार सारा 
ज्वार चढ़ता ज्यों समंदर, 

पाँव में घुँघरू सजा लूँ 
ज़िन्दगी हो जाए नर्तन

साँस थमती जा रही है 
उम्र के पिछले पहर में, 
देह धँसती जा रही है 
स्वार्थ के गहरे ज़हर में, 

धुप-बाती अब लगा लूँ 

बाँसुरी बन जाए प्रवचन

2. बदलती संस्कृति

अधरों पर झूठी मुस्कानें, 
आँखों में तन्हाई है 
जाने उड़कर कौन दिशा से, 
यह संस्कृति घर आई है 

हृदय हुए हैं रिक्त मेघ से
संवेदन सूने- सूने, 
सस्ती महिमा ओढ़े बैठे 
भाव चढ़े दूने- दूने

विज्ञापित चेहरों के पीछे,
झाँक रही सच्चाई है 

मूँछ तान कर सीना ठोके 
बगुले भगत सयाने हैं, 
श्वेत वस्त्र धारण करके भी 
लगते चोर पुराने हैं

नेताओं की सौदेबाजी, 
वोट कहाँ ले पाई है? 

बाज़ारू सम्मान हुए हैं 
पुरस्कार मानो चंदा, 
मोल-भाव हो जाता पहले 
मकड़जाल – सा है फंदा

रुपयों ले गोरखधंधे में 
रिश्तों की भरपाई है।

3. आँधियाँ बदलाव की

मौन टूटी आह लेकर
बस्तियों में सो रहा है

ये तनावों के बगीचे
बीज रिश्तों के सड़े हैं, 
क्या करें उम्मीद फल की 
पेड़ जब सूखे पड़े हैं? 

बेरुखी का खेत सन्नाटे
निरंतर बो रहा है

झर गई ख़ुशियाँ छिटककर
शाख ने काँटे सजाए, 
रिक्त्तता की फुनगियों पर 
सुर हवाओं ने बजाए, 

शोक में डूबा हुआ हर घर
परेशां हो रहा है

गाँव की मिट्टी बिछुड़कर
आ रही है अब शहर में, 
आँधियाँ बदलाव की अब 
छा रही है हर पहर में, 

गीत पनघट पर अकेला 
सिसकियों में रो रहा है।

Hindi Poems of Rajni Moraval

कहानी: पुअर लेनिन! हिटलर को डिनर पर बुलाओ! - डॉ. मनोज श्रीवास्तव

$
0
0
डॉ. मनोज श्रीवास्तव

ऊर्जावान रचनाकार डॉ. मनोज श्रीवास्तव का जन्म 8 अगस्त 1 9 7 0 को वाराणसी, उत्तरप्रदेश, भारत में हुआ। शिक्षा:काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. एवं पीएच.डी.। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह- पगडंडियाँ, चाहता हूँ पागल भीड़, एकांत में भीड़ से मुठभेड़। कहानी संग्रह- धर्मचक्र राजचक्र और पगली का इन्कलाब। व्यंग्य संग्रह- अक्ल का फलसफा। अप्रकाशित कृतियाँ: दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), परकटी कविताओं की उड़ान (काव्य संग्रह) सम्मान: 'भगवत प्रसाद स्मृति कहानी सम्मान-२००२' (प्रथम स्थान), रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान-2012, ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक घोषित, राजभाषा संस्थान द्वारा सम्मानित। लोकप्रिय पत्रिका "वी-विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक और दिग्दर्शक। नूतन प्रतिबिंब, राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक। आवासीय पता:सी-६६, नई पंचवटी, जी०टी० रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत। सम्प्रति: भारतीय संसद (राज्य सभा) में सहायक निदेशक (प्रभारी- सारांश अनुभाग) के पद पर कार्यरत। मोबाईल नं: ०९९१०३६०२४९। ई-मेल पता: drmanojs5@gmail.com

रेड लाइट पर घोंघे की चाल से ट्रैफ़िक के सरकने की वज़ह से मिसेज़ भंडारी की नाक पर बैठा गुस्सा उनकी ज़ुबान पर उतर आया। ट्रैफिक पुलिस को चुन-चुनकर गालियाँ देते हुए वह बुरी तरह स्टीयरिंग पर अपने हाथ पटक रही थीं। जैसे ही इंजन बंद कर, उन्होंने बाहर का सूरते-हाल लेना चाहा, उनका मोबाइल बज उठा। वह वापस सीट पर बैठते हुए भन्ना उठीं, "किस हरामी के पिल्ले ने....।" 
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

बहरहाल, फोन उनके पति का था जो यह जानना चाह रहे थे कि आख़िर उनके वापस घर लौटने में और कितना समय लगेगा। मिसेज़ भंडारी ट्रैफिक पुलिस के बजाय अपने पति पर ही भौंक उठीं, "हाँ, सेमीनार से घंटे-भर पहले ही छूट चुकी हूँ; अब यहाँ मंडी हाउस की रेड लाइट पर आधे घंटे से मर रही हूँ। ट्रैफिक खुलते ही घर पहुंचूंगी। अब बार-बार फोन करके मुझे टॉर्चर मत करो।" 

जैसे ही उन्होंने मोबाइल बंद किया और कुछ मिनट बेचैनी में गुजारे, वैसे ही दोबारा रिंग बजने लगी। लेकिन तब तक ट्रैफिक खुल चुकी थी। इसलिए, उन्होंने एक हाथ से गेयर और दूसरे हाथ से स्टीयरिंग सम्हालते हुए कंधे और सिर के बीच मोबाइल को दबा दिया, "हैलो।" 

उधर से अपने पति मिस्टर आरके की आवाज़ दोबारा सुनकर उन्होंने बड़ी बेचैनी में अपनी नाक-भौंह सिकोड़ी। 

"आपको अभी घर आने की ज़रूरत नहीं है। जोशी जी का अभी-अभी फोन आया था। कह रहे थे कि मिसेज़ भंडारी इतनी ज़ल्दी घर कैसे चल गईं। शायद, आपका मोबाइल स्विच्ड आफ़ जा रहा था। इसलिए उनसे आपकी बातचीत नहीं हो सकी। बहरहाल, मंडी हाउस में पत्रकार आपका इंतजार कर रहे हैं। क्या जोशीजी ने बताया नहीं कि सेमीनार के बाद आपको प्रेस कान्फ्रेंस में भी शिरकत करनी है?" उनके द्वारा दिया गया आदेशात्मक निदेश मिसेज़ भंडारी को अच्छा नहीं लगा। 

उनकी बात खत्म होने से पहले ही मिसेज़ भंडारी ने मोबाइल बंद कर दिया और अपनी कार को एम.जी. रोड पर हवा से बात करने के लिए उड़ा दिया। उन्हें लग रहा था कि अगर वह प्रेस कान्फ्रेंस में शामिल न हो सकी तो न जाने क्या ग़ज़ब हो जाएगा। वह मन ही मन कोहली साहब को कोसती जा रही थी, 'आख़िर, उन्होंने मुझे बताया क्यों नहीं कि सेमीनार के बाद प्रेस कान्फ्रेंस भी आर्गनाइज़ किया जा रहा है। शायद, ईर्ष्यावश ही, उन्होंने मुझे नहीं बताया होगा। कोहली को तो बस, अखबारों में अपना ही नाम सूर्खियों में पढ़ने की आदत पड़ी हुई है। मिसेज़ भंडारी के नाम और शक़्ल तक से उन्हें नफ़रत है। तभी तो वह मंच पर खड़े होने के बाद उनकी हर बात को निगेटिव लॉज़िक से काटने की कोशिश कर रहे थे। लिहाजा, उनकी लॉज़िक पर तो विरले ही लोगों ने ताली बजाई। हाँ, कुछेक मर्दों के साथ-साथ वर्मा जी उनकी हाँ में हाँ मिलाते जा रहे थे। चमचागिरी की भी कोई हद होती है। बड़े चले हैं नारी-विमर्श पर सेमीनार आर्गनाइज़ करने। टुच्चे स्साले मर्द...कुत्ते कहीं के...।' 

प्रेस हॉल में कदम रखते हुए मिसेज़ भंडारी ने बड़ी मुश्किल से अपने तमतमाए चेहरे पर बनावटी मुसकराहट बिखेरी। सामने कोहली जी उन्हें प्रेस कान्फ्रेंस के लिए तैयार देख, आश्चर्य में गोते लगा रहे थे जबकि मैडम ने चुटकी ली, "कोई बात नहीं, कोहली सा'ब। आपके नाम के नीचे अगर मेरा भी नाम आ जाए और आपकी फोटो के साथ एक कोने में मेरी भी फोटो छप जाए तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं होगा।" 

कोहली मिसेज़ भंडारी का कटाक्ष नहीं पचा सके। 

"मिसेज़ भंडारी! आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं कि मैं आपको नज़रअंदाज़ कर रहा हूँ? मैं भले ही औरत नहीं हूँ; पर, औरतों के हक़ और उनके मुद्दों की मैं जितनी तरफ़दारी करता हूँ, उतना इस देश का कोई मर्द नहीं कर सकता...।" 

कोहली की बात अधूरी रह गई क्योंकि जोशीजी बीच में ही टपक पड़े। 

"मिसेज़ भंडारी! कहाँ चली गई थीं, आप? आपका मोबाइल भी स्विच्ड ऑफ़ जा रहा था। अगर आरके का नंबर नहीं मिला होता तो बेशक, आपके सभी किए-कराए पर पानी फिर जाता। जानती हैं आपके जाने के बाद यहाँ सबकी जुबान पर बस! आपका नाम था? वाह! औरतों की आज़ादी की हिमाकत में आपकी कही गई हर बात पर चर्चाओं का बाजार गर्म था। सारे पत्रकार तो आपको ढूंढ रहे थे। मैंने उन्हें बताया कि आप किसी ज़रूरी काम से बाहर गई हुई हैं। बस, आती ही होंगी। ख़ैर, आप आ गई हैं तो कान्फ्रेंस हॉल में तशरीफ लाइए..." 

जोशीजी के आमंत्रण पर मिसेज़ भंडारी कोहली साहब की बात अनसुनी करते हुए कान्फ्रेंस हॉल में मुखातिब हुईं जबकि कोहली के चेहरे पर अपराध-बोध के साथ-साथ हवाइयां साफ उड़ती नज़र आ रही थीं। हॉल में तो सारा माज़रा ही अलग था। स्टेज़ पर सारे कैमरों का मुँह मिसेज़ भंडारी की ओर था। सेमीनार के बाकी वक्ता एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे। कोहली साहब मन ही मन भुनभुनाते जा रहे थे--'ईट्स ऑल ए वन मैन शो। आइंदा मिसेज़ भंडारी को टोटली अवायड कर दूंगा..." 

'नारी चेतना न्यास' में हर तरह से फ़िसड्डी रहने वाले कॉमरेड यादव के लिए यह अच्छा मौका था। उन्होंने धीरे से कोहली साहब के कंधे पर हाथ रखते हुए कुछ फ़ुसफ़ुसाकर कहा और दोनों ही, पत्रकारों की आँख बचाकर बाहर खिसक लिए। किसी ने उन्हें जाते हुए देख, कटाक्ष किया, "जाओ, जाओ, यहाँ जिसकी तूती बोल रही है, वही रहेगा।" कोहली ने बार-बार अपना सिर घुमाकर उस शख्स को ढूंढने की कोशिश की जो उनके खिलाफ़ ऐसे फ़ितरे कस रहा था। 

बाहर पार्क में यादव और कोहली मिसेज़ भंडारी की निजी ज़िंदगी की बखिया उधेड़ने और उनके विरुद्ध बवंडर उठाने के लिए अपनी निर्माणाधीन टीम को बहुमत में लाने की चेष्टा कर रहे थे। यकीनन, कोई चार-पाँच आदमी भी, जो न्यास के ही सदस्य थे और मिसेज़ भंडारी को किन्हीं कारणों से नापसंद करते थे, उनके पीछे-पीछे आ गए। वे उनकी टीम में शामिल होने के लिए उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए उनके वफ़ादार पिट्ठू होने की जी-तोड़ कोशिश में लगे हुए थे। 

कोहली ने गुलमोहर के तने से अपनी पीठ सटाते हुए अपनी आँखें यादव जी समेत सभी के चेहरे पर टिका दीं, "मिसेज़ भंडारी को औरतों के वेलफेयर से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वह तो 'नारी चेतना न्यास' की सदस्य इसलिए बनी क्योंकि वह अपने शौहर की सताई हुई है। दरअसल, उसकी मानसिकता मर्दों के ख़िलाफ़ है।" 

कॉमरेड यादव ने चुटकी ली, "अरे कोहली सा'ब! वो अपने पति की सताई हुई नहीं है, बल्कि उसका पति उसका सताया हुआ है। अब तुम्हें क्या बताऊं? उसके बदमिज़ाज़ रवैये के चलते उसके बेटे-बेटियों ने भी उससे हमेशा के लिए अपना पल्ला झाड़ लिया है। शर्मा जी तो कह रहे थे कि वह अपने पति के ख़िलाफ़ तलाक़नामा भी फाइल कर चुकी है। कुछ ही महीने में दोनों अलग होने वाले हैं।" 

शर्मा जी का नाम आते ही कोहली की आँखों में शरारत तिरने लगी, "अच्छा, अच्छा, अब समझा कि शर्मा उसका हमदर्द बना, उसके आगे-पीछे क्यों मंडराता रहता है। क्योंकि तलाक के बाद वही उसका ख़ैरख़्वाह बनने वाला है..." 

"अरे सा'ब! इस पूरे कारनामे के पीछे शर्मा का ही हथकंडा काम कर रहा है। उसी वाहियात आदमी ने तो पहले मिसेज़ भंडारी और आरके के बीच नफ़रत की दीवार खड़ी की। फ़िर, उनके बीच मन-मुटाव यहाँ तक बढ़ा दिया कि मिसेज़ भंडारी आरके को अपना पूर्व-जन्म का दुश्मन मानने लगी है और उसे यानी शर्मा को इस जन्म का अपना वफ़ादार फरिश्ता। वही तो उसे खींचकर यहाँ 'नारी चेतना न्यास' तक लेकर आया। आख़िर, शर्मा है भी तो एफीमिनेट, आशिक-मिज़ाज़।" कॉमरेड यादव मिसेज़ भंडारी की धज्जी-धज्जी उड़ा देना चाह रहा था। 

"यादव! मैंने तो सुन रखा है कि मिसेज़ भंडारी के दोनों बच्चे टेस्ट-ट्यूब के जरिए पैदा हुए थे," कोहली ने माहौल सूंघते हुए आरके की नामर्दी का सनद पेश करने के अंदाज़ में हर शब्द को चबा-चबा कर कहा। 

"हाँ, तभी तो उसके दोगली नस्ल के बेटे-बेटियों का मिज़ाज़ उनसे बिल्कुल नहीं मेल खाता। एक अंटापुर में तो दूसरा संटापुर में। सालों हो गए उन्हें आपस में मिले हुए। कहने को भंडारी दंपती पंडित हैं; लेकिन, उनके कर्म इतने गिरे हुए हैं कि कुछ कहते हुए जबान लड़खड़ा जाती है। अब देखो, बेटा यहाँ से अमेरिका कुआंरा गया था और वहीं किसी अंग्रेज़ भंगिन से ब्याह रचा बैठा। माँ-बाप को पूछा तक नहीं।" यादव ने भंडारी के घर का सारा काला चिट्ठा ही खोलकर रख दिया। 

"एक ऐसी औरत को 'नारी चेतना ट्रस्ट' का मेम्बर होने का कोई हक़ नहीं है, जिसका कोई कैरेक्टर ही नहीं है। अरे, उसकी तो अपनी बेटी तक से नहीं बनी। बात-बात में यह जुमला फेंकती है कि औरत ही औरत का दर्द जान सकती है, उसकी ख़ैर-ख़्वाह हो सकती है। पर, वह तो अपनी बेटी की ही गृहस्थी उजाड़ने पर तुल गई थी। अपने दामाद से कभी भी अपने बेटे की तरह पेश नहीं आई। शी इज़ ऐन इन्सेस्टुअस लेडी। तभी तो उसे उसके दामाद के साथ देखकर, आरके का मुंह हमेशा फुटबाल की तरह सूजा रहता था।" कोहली के मुंह में घृणा से थूक भर आया। 

"अब, देखो! सेमीनार में औरतों के लिए इतनी आज़ादी की तरफ़दारी करना जितना कि पच्छिम के मर्द भी नहीं कर सकते, किसी भी प्रकार से अच्छा लगता है क्या?" यादव उत्तेजित-सा हो गया। 

"वह ख़ुद भी पब्लिक के सामने कैसे बहुरुपिए की शक्ल में अधटंगी पोशाक में रू-ब-रू होती है। अरे, औरत के हक के लिए लड़ने आई हो तो सामने औरत के रूप में आओ। औरत की तहज़ीब और दस्तूर का ख़्याल रखो।" 

"अरे, कोहली सा'ब! मिसेज़ भंडारी तो एकदम नंगी औरत है और दुनियाभर की औरतों को नंगी बनाने पर तुली हुई है।" 

"ठीक कहते हैं।" 

"उसकी ग़ैर-मौज़ूदगी में उसके लैपटॉप पर एक बार यूं ही मैंने माउस घुमाया तो मेरा जी मतला गया। अरे, मुझे आश्चर्य हुआ। उस पर लाइव ब्लू फिल्म चल रही थी। तौबा-तौबा! नारी-विमर्श पर इतने जोश-खरोश से शिरकत करने वाली औरत की ऐसी फ़ितरत! उसके पर्स को खोलकर देखो, उसमें किस्म-किस्म के कंट्रासेप्टिव्ज़ मिल जाएंगे..." 

"खास तौर से तब जबकि वह शर्मा के साथ कहीं जा रही हो--किसी बुद्धा गार्डेन में या ताल कटोरा पार्क में।" कोहली ने सीना चौड़ा करते हुए यादव की अधूरी रह गई बात पूरी की। 

इसी बीच उनकी बात में हाँ में हाँ मिलाने वाले पाँचों आदमी गेट से बाहर आती भीड़ को देख, जिसमें मिसेज़ भंडारी और सारे पत्रकार थे, अचानक जाने लगे तो कोहली और कॉमरेड यादव भी सिर के बाल खुजलाते हुए अलग-अलग दिशाओं में बढ़ गए। जोशी जी ने आगे-आगे तेज गति से दोनों को पकड़ लिया। 

"अरे, आप लोग कहाँ गुम गए थे? कान्फ्रेंस हॉल में सारे पत्रकार मिसेज़ भंडारी के बारे में न्यास के वरिष्ठ सदस्यों की राय लेना चाह रहे थे।" 

कोहली ने कहा, "कोई बात नहीं, उनसे कह दो कि वे इंटरनेट चेक कर लेंगे। मैं अपनी राय सभी अख़बारों में इ-मेल कर दूंगा और फ़ेसबुक पर भी डाल दूंगा।" 

"मैं भी..." यादव ने भी कोहली के नक्शे-कदम पर चलते हुए प्रतिक्रिया की। 

कोहली और यादव तेज कदमों से अपनी-अपनी कारों की तरफ़ बढ़ गए। 

रात के कोई ग्यारह बजे मिसेज़ भंडारी ने अपने घर में कदम रखा तो उनका पालतू कुत्ता--हिटलर उनके पैरों से लिपटकर उनका जींसपैंट चाटने लगा। वह सीधे ड्राइंग रूम में दाख़िल हुई--टेबल पर अपना पर्स फेंकते हुए। उन्हें ताज़्ज़ुब हुआ कि बेडरूम से आरके अपने बेटे मुसोलिनी से बातें कर रहे थे और उसके परसों अमेरिका से इंडिया लौटने के कार्यक्रम पर खुशी का इज़हार कर रहे थे। 

मिसेज़ भंडारी ड्राइंगरूम से ही लगभग चींखती हुई बोल उठीं, "अरे ओ लेनिन! देखो, मैं कितनी थक गई हूँ-- मुसोलिनी से बातें बाद में करना। पहले, मुझे पानी पिलाओ!" 

वह अपने पति को आमतौर से लेनिन ही कहकर पुकारती है। दरअसल, उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों के नाम ख़ासतौर से तानाशाहों के नाम पर रखे है क्योंकि उन तानाशाहों के नाम से अपने घर के सदस्यों को पुकारकर उन्हें एक ख़ास किस्म का सुकून मिलता है। 

कुछ पल बाद आरके गिलास लिए हाजिर हुए, "डार्लिंग! अपना बेटा मुसोलिनी परसों घर आ रहा है। यह तो एक चमत्कार जैसा है। अभी दो माह पहले ही तो वह यहाँ से स्टेट्स गया था। अब भला! इतनी जल्दी-जल्दी इंडिया आएगा तो उसके बज़ट का क्या होगा?" 

"कोई बात नहीं। अपना बेटा हमसे इतना प्यार करता है तो यह हमारे लिए कितनी अच्छी बात है। वरना, विदेश जाकर वहाँ के ऐशो-आराम में बच्चे तो अपने माँ-बाप को भूल ही जाते हैं।" मिसेज़ भंडारी ने पूरी तन्मयता से अपनी आवाज़ में मिठास घोलने का प्रयास किया। 

"कह रहा था कि इस बार हम दोनों को भी कुछ समय के लिए अमेरिका ले जाएगा।" आरके ने उनसे झिझकते हुए आँखें मिलाईं। 

"अच्छा, ये बताओ, मिस्टर लेनिन! आज क्या-क्या किया?" मिसेज़ भंडारी ने कड़क अंदाज़ में बात बदलते हुए अपनी आँखें उन पर जमा दीं। 

आरके ने बड़ी गहरी सांस ली जैसेकि गहरी साँस लेने से उसकी सारी थकावट मिट जाएगी।। 

"मैडम, आफिस में बहुत थक गया था। टाइपिस्ट और स्टेनो को छोड़ सारे असिस्टेंट सी.एल. पर थे। सो, खुद मैंने सारी फाइलों पर नोटिंग-ड्राफ्टिंग की और उन्हें प्रोसेस किया। स्टेनो ने डिक्टेशन लेने से मना कर दिया और टाइपिस्ट भी दोपहर बाद हाफ़ सी.एल. लेकर घर चला गया। क्या जमाना आ गया है? अफ़सर नाम का जीव अब सबार्डिनेट के तलवे चाटने लगा है। लिहाजा आफ़िस से घर लौटकर पहले मैंने किचेन की सफाई की और बर्तन मांजे। फिर, एक कप चाय बनाई और पी। उसके बाद, ड्राइंगरूम से बेडरूम तक झाड़ू लगाया। गंदे कपड़े वॉशिंग मशीन में डाले और तुम्हारे कपड़ों पर इस्तरी की। कोई आठ बजे, किचेन में घुसा और मूली के पराठे और गोभी-आलू की रस्सेदार सब्जी बनाई। उसके बाद, मैंने आपको फोन किया; तब आप ट्रैफ़िक में फंसी हुई थी। ईश्वर का शुक्रिया अदा करो कि जब आप मंडी हाउस से बहुत दूर नहीं गई थी कि तभी मुझे जोशी जी ने फोन किया और उन्होंने तुरंत आपको पत्रकार सम्मेलन में बुलाया।" 

आरके द्वारा एक सांस में दिए गए काम के ब्योरे को सुनकर मिसेज़ भंडारी ने मुंह बिचकाया, "डियर लेनिन! तुम कितने काहिल हो गए हो? मैंने सुबह जाते समय तुम्हें हिदायत दी थी की तुम आफिस से लौटते ही घर के सभी परदे उतारकर साफ़ कर देना। लेकिन, तुम्हें तो कुछ याद ही नहीं रहता। बिल्कुल कुंजेहन हो गए हो। साठ से पहले ही सठिया गए हो। तुम्हारा मगज़ तो कुछ काम ही नहीं करता। अच्छा! जो कपड़े तुमने वॉशिंग मशीन में डाले हैं, उन्हें साफ किया या नहीं..." 

आरके ने बड़ी मायूसी से अपना सिर नकारात्मक में हिलाया, "नो, मैडम!" 

मिसेज़ भंडारी अपना सिर पीटते हुए बिफ़र उठीं, "क्या करते हो, लेनिन? एक अदद यह भी काम नहीं कर सके? अच्छा, हिटलर को भी न तो नहलाया, न उसके बालों में कंघी की। बाहर जब वह मुझसे लिपटकर मेरा वेलकम कर रहा था तो उसके बदन से इतनी बदबू आ रही थी कि उसे प्यार करने का जी ही नहीं किया। उसे प्यार न कर पाने का कोफ़्त मुझे कितना हो रहा है, यह तुम जैसे संवेदनशून्य आदमी को क्या पता?" 

आरके बड़े अपराध-बोध से अपना सिर झुकाकर कान खुजलाने लगे, "ठीक है मैडम! कल से इस बात का पूरा ध्यान रखूंगा।" 

बेचैनी और तनाव से पीड़ित, मिसेज़ भंडारी सिर पकड़कर सोफ़े पर पसर गई। आरके सोफ़े के नीचे पड़ी उनकी शूज़ ड्राइंग रूम के बाहर शू-रैक में रखकर वापस आए और उनके सिरहाने बैठ गए। 

"डार्लिंग! कहो तो सिर दर्द के लिए कोई एनालजेसिक दे दूं!" उन्होंने पूरी हमदर्दी से उनका सिर सहलाया। 

"नो,नो, कोई एनालजेसिक नहीं। बस, थोड़ा-सा सिर दबा दो।" उसके आदेश में निवेदन की बू तक नहीं थी। 

आरके ने पूरी तन्मयता से सिर दबाते हुए अपना मुंह उनके कान से सटा दिया, "डार्लिंग! कुछ उखड़ी-उखड़ी सी लग रही हो। आज दिन-भर का प्रोग्राम कैसा रहा?" 

"कुछ खास नहीं रहा, लेनिन।" वह बुदबुदाकर रह गई। 

"कहीं आज फिर आपको कोहली ने हर्ट तो नहीं किया? उस उल्लू के पट्ठे को आपसे जलन होना स्वाभाविक है। आखिर, आप हिंदुस्तानी नारी की एक नायाब मिसाल जो ठहरी। देश-भर को बस आपकी तरह होना चाहिए। जब आप मंच पर औरतों के मुद्दों पर बोलना शुरू करती हो तो अच्छे-अच्छों के होश उड़ जाते हैं। आपके डायनेमिक आचार-विचार के तो हम भी बेहद कायल हैं। भगवान ने आपको औरतों की किस्मत का कायाकल्प करने के लिए ही इस धरती पर भेजा है।" 

मिसेज़ भंडारी ने अपने भाव-शून्य चेहरे के साथ करवट बदली, "कॉमरेड यादव और कोहली दोनों के पागल होने में अब ज़्यादा दिन नहीं लगेंगे। कोहली को तो अपना सारा तिगड़म लगाकर, मुझे नीचा दिखाने में ही मज़ा आता है। पता नहीं, वह किस मिट्टी का बना है? और यादव? अरे, वो स्साला तो उसका एक नंबर का चमचा है। मुझे लगता है कि पिछले जन्म में वह कोहली की वाईफ़ रहा होगा। वो शिखंडी का बच्चा, कोहली की खुशामद करके 'नारी चेतना न्यास' के बैनर तले अपनी तूती बोलवाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है।" 

आरके के नथुने गुस्से में फड़फड़ाने लगे, "किसी दिन आप मुझे उनके पास ले चलो। उन हरामियों को ऐसा सबक सिखाऊंगा कि उन्हें छट्ठी का दूध याद आ जाएगा। मैं अपनी देवी जैसी बीवी की तौहीनी करने वालों को पल-भर के लिए बरदाश्त नहीं कर सकता।" 

मिसेज़ भंडारी फ़िस्स से हंस पड़ी, "पुअर लेनिन! तुमसे एक छोटी-सी गृहस्थी तो सम्हलती नहीं, उन बेशऊर, ढीठ शातिरों को कैसे सबक सिखाओगे?" 

आरके का चेहरा एकदम से उतर गया। उन्हें मिसेज़ भंडारी से ऐसी प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी, क्योंकि वह लगातार उनकी चंपी-मालिश कर रहे थे। 

कुछ मिनट सन्नाटा पसरा रहा। फिर, वह अचानक बोल उठे। 

"डार्लिंग! हाथ-मुंह धो लो तो खाना लगा दूँ।" उन्होंने उनकी खुशामदी लहज़े में बदन छुआ। 

इसी बीच वह बड़ी तत्परता से बाथरूम में तौलिया, सोप केस, हेयर ऑयल आदि रख आए। 

फिर, वह डाइनिंग टेबल पर खाना लगाकर काफ़ी देर तक तसल्ली से इंतज़ार करते रहे। बड़ी देर बाद मिसेज़ भंडारी सोफ़े से उठी और बाथरूम में घुस गईं। कोई आधे घंटे तक बाथरूम में ही रहीं। जब वह आई तो आरके ने उनके आगे आहिस्ता से खाने की थाली सरका दी। उन्हें शांत बैठा देख, वह बोल उठे, "आज ज़्यादा कुछ तो नहीं बना सका..." 

"क्या बनाया, क्या नहीं बनाया, इस बारे में तो मैं कुछ पूछ नहीं रही हूँ।" वह चिड़चिड़ा उठीं। 

"तो?" आरके के चेहरे पर से खुशामदी मुसकराहट की लकीरें मिटने का नाम नहीं ले रही थीं। 

वह झौंझिया उठी, "डायनिंग टेबल का गुलदस्ता कहाँ खा गए? लेनिन! तुम्हें तो पता ही है कि जब तक डाइनिंग टेबल पर करीने से गुलदस्ता न सजाया गया हो, मैं खाने का एक कौर तक मुंह में नहीं डाल सकती..." 

आरके हड़बड़ा उठे। "अरे, हाँ, गुलदस्ता धो-धाकर आँगन में ही छोड़ दिया।" बहरहाल, उनके द्वारा टेबल पर गुलदस्ता रखे जाने के बाद भी जब मिसेज़ भंडारी ने खाने को हाथ नहीं लगाया तो वह कुछ याद करते हुए बोल उठे, "ओह, हिटलर को तो खाने पर बुलाना ही भूल गया।" 

वह बेतहाशा चींख उठीं, "पुअर लेनिन! तुम्हारे पत्थर-दिल में जानवरों के लिए ज़रा-सा भी दर्द नहीं है। बेचारा हिटलर! च्च,च्च, च्च, कहीं भूखों न मर जाय। हिटलर को तत्काल डिनर पर बुलाओ!" 

हिटलर का नाम लेने से पहले ही वह दुम हिलाता हुआ सामने अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा था। आरके की नज़रें जैसे ही हिटलर से मिलीं, अपराध-बोध से उनका चेहरा मुरझा गया, "सॉरी यार, अब सठिया रहा हूँ ना। अरे, तुम तो जवान हो। जब मुझसे कोई चूक हो तो मुझे याद दिला दिया करो।" 

हिटलर ने अपनी आँखें मिचमिचाई जैसेकि उसे सब कुछ समझ में आ गया हो। 

मिसेज़ भंडारी से रहा नहीं गया, "स्टुपिड लेनिन! हिटलर तुमसे कहीं ज़्यादा समझदार है। आख़िर, तुम आफ़िस में अपने सबआर्डिनेट से किस तरह पेश आते होगे?" 

आरके ख़ामोश रहे। उन्होंने कभी मिसेज़ भंडारी से ज़बानज़दगी की ही नहीं। लिहाजा, डिनर के बाद, हिटलर बरामदे में चला गया जबकि आरके पीछे किचेन गार्डेन में आकर टहलने लगे। बेडरूम से मिसेज़ भंडारी के खाँसने की आवाज़ बार-बार आ रही थी। आरके को अच्छी तरह एहसास हो रहा था कि मिसेज़ भंडारी को नींद क्यों नहीं आ रही है। वह उन्हें बेड पर बुलाने के लिए तब तक खाँसती रहेंगी जब तक कि वह वहाँ चले नहीं जाएंगे। पर, आरके का मन जुगुप्सा से भरा हुआ था। कुछ भी करने का जी नहीं कर रहा था। वह तो ड्राइंगरूम में ही सोने का मन बना रहे थे। लेकिन, जब मिसेज़ भंडारी डाँटने के अंदाज़ में खाँसने लगीं तो आरके के मन में डर समाने लगा। वह ख़ुद से ही भुनभुनाने लगे, "बहादुर लेनिन! बच्चू अब तेरी ख़ैर नहीं। जंग लड़ने के लिए तैयार हो जा।" 

वह एक झटके से लाइट बुझाते हुए बेडरूम में घुस गए। बेड की चरर-मरर उनके भीतर की बूढ़ी होती हड्डियों की चरमराहट बयां कर रही थी। 

तीसरे दिन। 

आरके के चेहरे पर सारी रात जगने की थकान के निशान साफ़ नज़र आ रहे थे। मिसेज़ भंडारी अमेरिका से आई अपनी बहू मार्ग्रेट थैचर के साथ सुबह से ही ड्राइंग रूम में बैठी निहायत ज़रूरी गप्पशप्प कर रही थीं। आरके घर्र-घर्र चल रही वॉशिंग मशीन में धुलते हुए कपड़ों की निगरानी करते हुए बार-बार किचेन में से आ-जा रहे थे। मुसोलिनी के दोनों बच्चे--बेटा हाउन्ड और बेटी टाइग्रेस आरके की पीठ पर उछल-उछल कर उनसे पिठकुइयां घुमाने के लिए ज़िद कर रहे थे। आरके बार-बार दोनों को तसल्ली देते जा रहे थे, "अभी ज़रूरी काम से फ़ारिग हो जाऊँ तो तुम दोनों को अपने कंधे पर बैठाकर सारे बाज़ार की सैर करा दूंगा।" 

तभी ड्राइंगरूम से मिसेज़ भंडारी की तड़क आवाज़ से आरके स्तब्ध हो गए। 

"अरे, लेनिन! अभी नाश्ते में और कितना टाइम लगेगा?" 

"बस, मैडम! आप डाइनिंग रूम में तशरीफ़ लाइए, मैं नाश्ता लगाने जा रहा हूँ।" 

कुछ देर बाद, डाइनिंग रूम शोरगुल से भर गया। मुसोलिनी बार-बार आरके से डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाने के लिए आग्रह कर रहा था, "डैड! आप भी साथ आ जाओ ना।" लेकिन, आरके कहते जा रहे थे, "आज, तो मैं सी.एल. ले लूंगा क्योंकि अभी तो मैडम को ताज पैलेस के लिए रुख्सत करना है।" 

मिसेज़ भंडारी की निग़ाहें आरके के साथ-साथ टहल रही थीं। आरके को देखते हुए वह बिल्कुल सहज नहीं हो पा रही थी। 

"लेनिन! तुम्हें कोई सी.एल. वी.एल. लेकर मस्ती मारने की ज़रूरत नहीं है। पहले, मेरा काम निपटाओ और कार से मुझे मेट्रो स्टेशन तक लिफ़्ट दो और वापस आकर आफ़िस को निकलो। हाँ, आफ़िस जाते हुए मुसोलिनी, हाउन्ड और टाइग्रेस को भी साथ लेते जाना। अपने सबआर्डिनेट को घुड़क देना कि वे तुम्हारे मेहमानों का ख़्याल रखें वरना मैं तुम्हारी सी.आर. खराब कर दूंगा। वे मेरे बच्चों को दिल्ली का सैर-सपाटा करा देंगे और तब तक तुम वापस घर आकर रात के डिनर की तैयारी कर देना..." 

आरके पल-भर को सोचने के बाद गिड़गिड़ाने लगे, "डार्लिंग! एक गुजारिश है। घर के काम के लिए एक फुल टाइम मेहरी रख लो तो तुम्हारी और बढ़िया ख़िदमत हो जाएगी।" 

"अरे, लेनिन! तुम मर्दों की फ़ितरत मैं अच्छी तरह समझती हूँ। उधर मैं बाहर खून-पसीना एक करूं और इधर तुम आफ़िस से शार्ट लीव लेकर घर में मेहरी के साथ गुलछर्रे उड़ाओ।" मिसेज़ भंडारी गुस्से में चूर हुई जा रही थीं। 

आरके झेंप गए। पल-भर के लिए उन्होंने बहू मार्ग्रेट को देखा। फिर, हँसते हुए खुद को संयत किया--'हि-हि, हि-हि। मैं तो यूं ही मजाक कर रहा था।" 

"मजाक भी सामने वाले की औक़ात देखकर किया जाता है। अच्छा! मेरे पर्स में कुछ हजार-पाँच सौ के रुपए डाल दो। आज मेरे साथ मार्ग्रेट भी रहेगी। भले ही वह बिलायती लड़की है, मुझे उसे आदर्श हिंदुस्तानी औरत के सारे गुर सिखाने हैं।" 

"आपने तो मेरी मुंह की बात छीन ली। अगर मार्ग्रेट जूनियर मिसेज़ भंडारी बन जाए तो इससे अच्छी बात क्या होगी?" आरके मिसेज़ भंडारी के जाते-जाते उन्हें खुश करने में कोई कसर बाकी छोड़ना नहीं चाहते थे। 

वह फिर, बोल उठे, "जब मैं किचेन में रोटियाँ सेंक रहा था तो उस नामुराद शर्मा का फोन आया था। पूछ रहा था कि आज मैडम का कहाँ अप्वाइंटमेंट है। मैंने बता दिया कि आज ताज पैलेस में 'तलाक में पत्नियों की निर्दोषिता' विषय पर मैडम बोलने वाली हैं।" 

"लेनिन, तुम कितने भोले इंसान हो! मेरे बारे में सभी को सब कुछ साफ़-साफ़ बता देते हो। यह भी नहीं सोचते कि इससे तुम्हारी बीवी के लिए खतरा भी पैदा हो सकता है। ख़ैर, शर्माजी तो अपने आदमी हैं। उनसे डरने की कोई बात नहीं है। लेकिन, जब कोहली का फोन आए तो उन्हें बता देना कि वे फ़िज़ूल में हमारे खिलाफ़ अफ़वाहें न फैलाएं। बेचारे शर्माजी को भी वह नहीं बख्श रहे हैं।" 

"डार्लिंग! अब क्या कहें? दुनिया कितनी बुरी है! आखिर, भले-मानस लोग जाएं तो कहाँ जाएं?" आरके उनके प्रति हमदर्दी जताते हुए कार की ओर बढ़ने लगे। कार का दरवाज़ा खोलकर उन्होंने पहले मैडम को लिफ़्ट दी, फिर मार्ग्रेट थैचर को; फिर, खुद आकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गए। जैसे ही उन्होंने कार स्टार्ट की, उनका मोबाइल बज उठा। 

फोन पर शर्माजी थे। 

"आरके! यहाँ ताज पैलेस में सेमीनार का सारा इंतज़ाम हो रखा है। मैडम को तत्काल यहाँ तक पहुंचने का बंदोबस्त कर दो।" 

तभी मैडम का भी मोबाइल घनघना उठा, "मैडम भंडारी! आपका सेमीनार कहाँ होने जा रहा है? यहाँ मैं कॉमरेड यादव के साथ ताज पैलेस के जी.एम. से पूछ चुका हूँ। ऐसा कोई भी कार्यक्रम यहाँ आज नहीं होने जा रहा है।" 

कोहली की छानबीन पर, मैडम झुंझला उठी, "अरे, उल्लू के पट्ठों! अब तुम्हें क्या बताऊं--यह सेमीनार बुद्धा गार्डेन में होने जा रहा है--जहाँ बस, मैं होऊंगी और शर्माजी।" 

मैडम गुस्से में क्या कह गईं, इसका उन्हें खुद ख्याल नहीं रहा। गुस्से में उनके मुंह से सच बात फूट जाती है। पर, आरके उन्हें टुकर-टुकुर देखते हुए ऐसी भाव-भंगिमा बना रहे थे जैसेकि उन्होंने कुछ सुना ही नहीं या सुना भी तो उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। पर, सच्चाई यह है कि जब मैडम बहुत गुस्से में उन्हें डाँट पिलाती हैं तो उन्हें उनकी बात बिल्कुल सुनाई नहीं देती। वह नाक पर अपनी ऐनक ऐडजस्ट करते हुए बस उनका चेहरा देखते रह जाते हैं। मैडम की बात समाप्त होने के बाद, आरके कुछ समय बाद फ़ुरसत में उनसे पूछते हैं, "मैडम, उस वक़्त आप नामुराद कोहली से क्या फ़रमा रही थीं, ज़रा फ़िर से तो कहना।" 

"आरके! कभी तो अपनी ज़बान को लगाम दिया करो! बेवज़ह के बकवास में अपना सिर क्यों खपा रहे हो?" 

उनकी घुड़की सुनकर आरके ने बड़ी मासूमियत से अपने सिर को अपने कंधों में गड़ा दिया, "हि-हि-हि-ही! कोई बात नहीं, कोई बात नहीं..." 

बहरहाल, नारी चेतना ट्रस्ट के शर्माजी भंडारी दंपती के खिलाफ़ लाख अफ़वाहें फैलाते रहें, उनका दाम्पत्य जीवन खूब फल-फूल रहा है क्योंकि वे बने ही एक-दूजे के लिए हैं।  


A Hindi Story of Dr Manoj Sreevastav

समीक्षा: सत्य से साक्षात्कार करवाते गीतों का संग्रह - टुकड़ा कागज़ का

$
0
0

शिल्पकार जब अपने शिल्प को तराशता है तो वह एक ही समय में दो सृजन करता है, एक अन्तस की गहराइयों में सृजित होता है तो दूसरा स्थूल-जगत में मूर्तिमान हो उठता है। स्थूल-जगत में आकारबद्ध होने वाली प्रत्येक वस्तु नश्वर है। किन्तु हृदय के सूक्ष्मतम में होने वाला सृजन अविनाशी है। क्योंकि सृष्टि का चिरतंन सत्य ‘स्पन्दन’ है। पायल की छनछन हो, शिशु की किलकन हो, बछड़े की रंभन हो! जब तक स्पन्दन है, कविता का मरना निष्चित ही असंभव है। डॉ. अवनीश सिहं चौहान का नवगीत संग्रह ‘टुकड़ा कागज का’ ऐसे ही चिरंतन सत्य से साक्षात्कार करवाती रचनाओं का संग्रह है। 

संग्रह में अंतर-जगत की गहराइयों को छूता मन है तो, बाह्य-जगत की विषमताओं से परिचय करवाती मनःस्थिति है। टुकड़ा कागज का, एक तिनका हम, केशव मेरे, असंभव है, नदियॉं की लहरे, आदि गीत गहनतम अनुभूतियॉं हैं, तो अपना गॉव समाज, चिड़िया और चिरोटे, गली की धूल, रिसते हुए रिश्तों की कहानी कहते नवगीत हैं। वक्त की ऑंधी, पंच गॉंव का, सर्वोत्तम उद्योग, चुप बैठा धुनिया, श्रम की मंडी जैसे कई गीत समय की नब्ज में कंपकपाती ध्वनि के संग रिदम बिठाते नवगीत है। समाज की रगों में उठती गिरती धड़कनों को न केवल अवनीश गिन सकते हैं वरन् पाठक वर्ग भी उसके नाद को बखूबी आत्मसात करता है और जब पाठक और कवि की आत्मा द्वैत से अद्वैत हो जाती है समझईये कवि की साधना सफल हो गई।

जहॉं तक गीतों के शिल्प का प्रश्न है नवगीत रचने में अवनीश जी सफल हुये हैं। आधुनिक समय में भाषा भी विदेशी संक्रमण से बच नहीं पाई है। यद्यपि संग्रह के गीतों में विषय की दरकार के अनुसार ही विदेशी शब्दों का उपयोग हुआ है फिर भी वह गीत की मधुरता कम करने का कारण तो बने ही हैं। जिन गीतों में ऑंचलिकता का अपनत्व समाया है उनमें रसात्मकता सहज ही शामिल हो गई है।


विविधवर्णी इस गीत संग्रह का मूल स्वर असत्य के प्रति सत्य आग्रह और विषम को सम करने का प्रयत्न है। अहं की अकड़ विनाश का कारण बनती है इस शाश्वत सत्य को अवनीश जी ने बड़े ही नवीन प्रतीक के माध्यम से कहा है.....
‘अकड गई जो टहनी मन की उसको तनिक लचा दे’विनयशील मन का विनय के महत्व को प्रतिपादित करता सुन्दर प्रयोग। ऐसे कई प्रयोग हैं जो सहज ही आकर्षित करने के साथ सहज ही अंतस को छू जाते हैं। यथा.......सोच रहे अपने सपनों की पैंजनिया टूट गई........या तोड़ दिया है किसने आपसदारी का वह साज..’ ‘गुमसुम गुमसुम-सी तू /भीतर भीतर तिरती है.’...स्त्री की वेदना, तरलता कुछ ही शब्दो में व्यक्त हो गई। रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून को स्मरण कराती पंक्तियॉं ‘जब जब मरा ऑंख का पानी / आई हैं तब तब विपदाएँ'सम्मान और शर्म को बचाये रखने की सीख देती है।

संग्रह का प्रतिनिधि गीत
'टुकड़ा कागज़ का’ असीमित संभावनाओ का गीत है। गीत की अंतिम पंक्ति ‘चलता है हल गुड़ता जाए/ टुकड़ा कागज का’में अवनीश जी प्रसि़द्ध कवि उमाशकर जोशी जी की कविता ‘‘छोटा मेरा खेत’’ की तरह कागज के टुकड़े को चौकोर खेत की तरह प्रस्तुत कर भावों के बीज रोपकर शब्दों की खेती करते दिखाई देते हैं।

‘तकली में अब लगी रूई है, कात रही है, समय सुई है/ कबिरा सा बुनकर बनने में लगते कितने साल ? नवगीत संग्रह की सबसे उत्कृष्ट पंक्तियॉं हैं। छोटी वय में ही कवि का मन जिन्दगी को कबीर की तरह बुनना चाहता है, ऐसा दार्शनिक चिंतन कवि के व्यक्तित्व की गहराईयों को दर्शाता है। अवनीश के गीतों में संतों-सा दर्शन है, परिस्थितियों का चिंतन है, और सर्वहित में प्रयत्नरत मन है।

कथ्य की परिपूर्ण संप्रेषणीयता के बीच जब भाव का आशावादी जल हिलोरे लेता है तो वहॉं आत्मा की शुद्धि का सरोवर बन जाता है। निश्चित ही नवगीत के इस सरोवर में अवगाहन कर सुधि पाठक स्वयं को र्स्फूत अनुभूत करेगें। अवनीश जी को मननशील संग्रह के लिये बधाई और शुभकामनायें।


(पुस्तक : टुकड़ा कागज़ का (गीत-संग्रह)। ISBN 978-81-89022-27-6। कवि : अवनीश सिंह चौहान। प्रकाशन वर्ष : प्रथम संस्करण-2013। पृष्ठ : 119, मूल्य : रुo 125/-। प्रकाशक : विश्व पुस्तक प्रकाशन, 304-ए,बी.जी.-7, पश्चिम विहार, नई दिल्ली-63 )      

समीक्षक:
डा.साधना बलवटे

सम्पर्क : ई-2 / 346, अरेरा कॉलोनी, भोपाल 
दूरभाष: 0755-2421384, 9993707571
ईमेल:dr.sadhnabalwate@yahoo.in

Tukada Kagaj Ka (Hindi Lyrics) by Dr Abnish Singh Chauhan, Etawah, U.P.

समीक्षा: जीवन के प्रति अगाध आस्था का आचमन करते गीत- डॉ साधना बलवटे

$
0
0


ये हवा से बोल देना 
आसमॉं बौना बहुत है / आज मेरे हौंसलो से
बिजलियॉं भी कॉंपती हैं,/ स्वप्न के इन घोंसलों से
ऑंधियॉं तक चाहती हैं,/ इस दिये का मोल देना
भागता हूँ तेज मैं भी /ये हवा से बोल देना।

स्वयं पर अटूट विश्वास,जीवन के प्रति अगाध आस्था का आचमन करती आवाज है ‘ये हवा से बोल देना’ के गीत। प्रेम निश्चित रुप से सार्वभोमिक सत्य है किन्तु सामाजिक विद्रूपताएँ उससे भी बड़ा कड़वा सच, कोई भी संवेदनशील मन उससे अछूता नहीं रह सकता। ‘ये हवा से बोल देना’ उसी संवेदनशील उर्वरा धरती पर खिला शिरीष का फूल है। दिनेश प्रभातजी मूलतः प्रकृति, प्रेम और श्रृंगार के कवि है। ये मालवा की मिट्टी की मिठास का ही असर है कि चुनौतियों को स्वीकारते, ऑंधियों से लड़ते हुए भी ये हवा से बोल देना के गीत अपनी मधुरता नहीं छोड़ते। विषय पर्वत से कठोर हो या रेगिस्तान से रेतीले, प्रभातजी के गीत अपने अंतर की नमी को बनायें रखते हैं। कोमल भावनाओं की नम जमीन,माधुर्य के निर्झर को सूखने नहीं देती। 

जहॉं तक विषय वैविध्य का प्रश्न है, दो चार शिकायती गीतों को छोड़ दें तो उनकी कलम समस्त सामयिक विषयों पर संचालित हुई है। स्वार्थी सियासत हो, सामंती सत्ता, दहलती दिल्ली, या मरती मुम्बई, सुप्त संवेदनायें, या विकृत विभिषिकाएँ, प्रभात जी ने सभी विषय ‘ये हवा से बोल देना की गीत गागर में भरे हैं। बात बेटी की सुरक्षा की हो या हिन्दी की, दोनों ही के दर्द प्रभातजी ने छुये हैं। 

रहों तुम व्यस्त चौके में
मगर ऑंगन न ओझल हो
अगर हैं बेटियॉं घर में 
सुरक्षा भी मुकम्मल हो।

या 

आज निराला के बेटो ने
कांवेट की राह पकड़ ली
हिन्दी की कोमल टांगे
अंग्रेजी ने आज जकड़ ली।

प्रभात जी की कलम जहॉं गोधरा बड़ोदरा कांड जैसे विषय पर मुखर हो उठती है तो रिश्तों की रिसन भी उतनी ही तीव्रता से महसूस करती है।

दीवारों से ज्यादा शायद
पानी बैठ गया रिश्तों में।

दिन ब दिन कायर होते मनुष्य जीवन के लिये ठंड को प्रतीक बना कर रचा गया गीत ‘ठंड के आगोश में’ बहुत ही सटीक है। प्रभात जी के गीतों के काव्यशिल्प पर उंगली उठाना, शिल्प की विषेषताओं पर उंगली उठाना है। संग्रह के समस्त गीत अपने कलापक्ष में चन्द्रमा की सोलह कलाओं से भी अधिक सम्पन्न हैं। संग्रह का एक गीत मुझे सबसे उत्कृष्ट जान पड़ता है ‘दर्द नहीं चुप रहने वाला’ इस गीत की प्रत्येक पंक्ति अपने आप में विशिष्ट है। पीड़ा के लिये उपयोग में लाये गये प्रतीक एकदम नये व मर्मस्पर्शी हैं ‘जितना मॉंज रही है पीड़ा, उतना उजला निकल रहा हूँ । इस गीत में दर्द के साथ कर्मयोग की बात कही गई हैं, जिसमें पीड़ा उभरती तो है किन्तु स्वाभिमान के साथ।‘ संचय कर के जल रखता हूँ / अपने पॉंवों के छालों में, एक ही पंक्ति में जीवन के दो यथार्थ प्रस्तुत किये हैं । एक तो कि कर्म प्रर्वृत्त व्यक्ति के पॉंवो में ही छाले हो सकते हैं और दूसरा ये कि वही जीवन में नम्रता रुपी जल के महत्व को भी समझ सकता है। अद्भुत प्रयोग है। इसी तरह के कुछ और भी गहन और सटीक प्रयोग संग्रह में देखने को मिलते हैं। जैसे-विकास के नाम पर की जाने वाली राजनीति को दर्शाती हुईं ये पंक्तियॉं ‘छावॅं से ज्यादा जरूरत/ आज सबकों है सड़क की/छातियॉं तक चीर देंगे/ देखना पर्वत तलक की/ वोट का चौड़ीकरण है/ रास्ते से सब हटेंगें। आत्मअवलोकन कराती ये पंक्तियॉं कि ‘खुद को कोई नहीं देखता रोटी जैसा उलट-पुलट कर या संस्कारों की क्षति दर्शाती ये पंक्ति ‘पॉंवो मे झुक जाने वाली/ पावन रीत कहीं पर गुम है या पीड़ा के लिये किया गया ये प्रयोग, कि जितनी धीमी ऑंच मिली है उतने अच्छे, घाव सिकें है एकदम नया प्रयोग है। 

‘ये हवा से बोल देना’ का अंतिम गीत हम समीक्षकों के नाम किया गया है। प्रभात जी समीक्षकों को निशाना बनाते हुए कहते हैं कि ‘आकलन के नाम पर/ कविता पड़ी है उलझनों में’ या वाणियों में कथ्य की तो/ दूर तक चर्चा नहीं है, या ये कि सत्य फंस कर रह गया है झूठ के आलिंगनों में, आदरणीय दिनेश प्रभात जी से मैं कहना चाहती हूँ कि समीक्षक की आसंदी पर बैठतें ही अंतरआत्मा में पंच परमेश्वर जागृत हो जाता है तब सिर्फ सत्य का संवरण किया जाता है झूठ का आलिंगन नहीं। आपके इसी गीत की पंक्तियॉं आपको समर्पित करते हुए अपनी बात को विराम देती हूँ कि-

शक्ल की मासुमियत से / दिग्भ्रमित होते नहीं हम
पत्थरों का बोझ सिर पर/ देर तक ढोते नहीं हम
क्या रखा है,जानते हैं कांच के इन बर्तनों में। 

प्रभात जी को बहुत बहुत बधाइयॉं।

समीक्षक:

डा.साधना बलवटे

सम्पर्क : ई-2 / 346, अरेरा कॉलोनी, भोपाल 
दूरभाष: 0755-2421384, 9993707571
ईमेल:dr.sadhnabalwate@yahoo.in

Ye Hawa Se Bola Dena- Dinesh Prabhat, Bhopal, M.P.

पुस्तक: बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता (सम्पादक : अवनीश सिंह चौहान)

$
0
0


पुस्तक: बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता  
ISBN 81-7977-500-4
सम्पादक : अवनीश सिंह चौहान 
प्रकाशन वर्ष : प्रथम संस्करण-2013 
पृष्ठ : 200 
मूल्य : रुo 150 /-
प्रकाशक : प्रकाश बुक डिपो 
बड़ा बाज़ार, बरेली, उ.प्र.- 243003
दूरभाष: 0581-2572217


Dr Buddhinath Mishra ki Rachanadharmita edited by Abnish Singh Chauhan

प्राण: हिंदी फ़िल्मों के महान कलाकार

$
0
0


प्राण (जन्म: 12 फरवरी 1920; मृत्यु: 12 जुलाई 2013) का वास्तविक नाम प्राण किशन सिकन्द है। प्राण हिन्दी फ़िल्मों के एक प्रमुख चरित्र अभिनेता थे जो मुख्यतः अपनी खलनायक की भूमिका के लिये जाने जाते हैं। कई बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार तथा बंगाली फ़िल्म फ़िल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन अवार्ड्स जीतने वाले इस भारतीय अभिनेता ने हिन्दी सिनेमा में 1940 से 1990 के दशक तक दमदार खलनायक और नायक का अभिनय किया। उन्होंने प्रारम्भ में 1940 से 1947 तक नायक के रूप में फ़िल्मों में अभिनय किया। इसके अलावा खलनायक की भूमिका में अभिनय 1942 से 1991 तक जारी रखा। उन्होंने 1948 से 2007 तक सहायक अभिनेता की तर्ज पर भी काम किया।

प्राण साहब 


90 वर्ष की आयु में प्राण
जन्मप्राण कृष्ण सिकन्द
12 फ़रवरी 1920
पुरानी दिल्ली, ब्रिटिश भारत
मृत्यु12 जुलाई 2013 (उम्र 93)
मुम्बई, महाराष्ट्र, भारत
निवासमुम्बई, महाराष्ट्र, भारत
व्यवसायचरित्र अभिनेता
सक्रिय वर्ष1940–2007
जीवनसाथीशुक्ला सिकन्द (1945–2013, निधन तक)
बच्चेअरविन्द सिकन्द
सुनील सिकन्द
पिंकी सिकन्द

प्राण का सफ़रनामा

  • 1940 में पंजाबी फिल्म यमला जट से शुरुआत
  • 1967- सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का पुरस्कार (उपकार)
  • 1969- सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का पुरस्कार (आसूँ बन गए फूल)
  • 1972- सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का पुरस्कार (बे-ईमान)
  • 2013- दादा साहेब फाल्के अवार्ड
  • प्रमुख फिल्में- ज़िद्दी, मधुमति, राम और श्याम, मेरे सनम, शहीद,कश्मीर की कली, बॉबी, शराबी, परिचय, डॉन, ज़ंजीर, सनम बेवफ़ा
Website
pransikand.com
अपने उर्वर अभिनय काल के दौरान उन्होंने 350 से अधिक फ़िल्मों में काम किया। उन्होंने खानदान (1942), पिलपिली साहेब (1954) और हलाकू (1956) जैसी फ़िल्मों में मुख्य अभिनेता की भूमिका निभायी। उनका सर्वश्रेष्ठ अभिनय मधुमती (1958), जिस देश में गंगा बहती है (1960), उपकार (1967), शहीद (1965), आँसू बन गये फूल (1969), जॉनी मेरा नाम(1970), विक्टोरिया नम्बर २०३ (1972), बे-ईमान (1972), ज़ंजीर (1973), डॉन (1978) और दुनिया (1984) फ़िल्मों में माना जाता है।

प्राण ने अपने कैरियर के दौरान विभिन्न पुरस्कार और सम्मान अपने नाम किये। उन्होंने 1967, 1969 और 1972 में फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार और 1997 में फिल्मफेयर लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड जीता। उन्हें सन् 2000 में स्टारडस्ट द्वारा 'मिलेनियम के खलनायक' द्वारा पुरस्कृत किया गया। 2001 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया और भारतीय सिनेमा में योगदान के लिये 2013 में दादा साहब फाल्के सम्मान से नवाजा गया। 2010 में सीएनएन की सर्वश्रेष्ठ 25 सर्वकालिक एशियाई अभिनेताओं में चुना गया।

12 फरवरी 1920 को दिल्ली में पैदा हुये प्राण ने सैकड़ों फिल्मों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। प्राण के पिता लाला केवल कृष्ण सिकन्द एक सरकारी ठेकेदार थे, जो आम तौर पर सड़क और पुल का निर्माण करते थे। देहरादून के पास कलसी पुल उनका ही बनाया हुआ है। अपने काम के सिलसिले में इधर-उधर रहने वाले लाला केवल कृष्ण सिकन्द के बेटे प्राण की शिक्षा कपूरथला,उन्नाव, मेरठ, देहरादून और रामपुर में हुई।

बतौर फोटोग्राफर लाहौर में अपना कैरियर शुरु करने वाले प्राण को 1940 में ‘यमला जट’ नामक फिल्म में पहली बार काम करने का अवसर मिला। उसके बाद तो प्राण ने फिर पलट कर नहीं देखा।

रविवार के अनुसार उन्होंने लगभग 400 फिल्मों में काम किया। एक तरफ उनके नाम ‘राम और श्याम’ के खलनायक की ऐसी तस्वीर रही है, जिससे लोगों ने परदे के बाहर भी घृणा शुरु कर दी थी, वहीं उनके नाम ‘उपकार’ के मंगल चाचा की भूमिका भी है, जिसे दर्शकों का बेइन्तहा प्यार और सम्मान मिला। 1968 में उपकार, 1970 आँसू बन गये फूल और 1973 में प्राण को बेईमान फिल्म में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिये फिल्म फेयर अवार्ड दिया गया। इसके बाद मिले सम्मान और अवार्ड की संख्या सैकड़ों में है।
1945 में शुक्ला से विवाहित प्राण भारत-पाकिस्तान बँटवारे के बाद बेटे अरविन्द, सुनील और एक बेटी पिंकी के साथ मुम्बई आ गये। आज की तारीख में उनके परिवार में 5 पोते-पोतियाँ और 2 पड़पोते भी शामिल हैं। खेलों के प्रति प्राण का प्रेम भी जगजाहिर है। 50 के दशक में उनकी अपनी फुटबॉल टीम ‘डायनॉमोस फुटबाल क्लब’ बहुचर्चित रहा है।
"मेरे प्रिय दोस्त प्राण को मुझसे फ़ोन पर बात करना पसंद था. हम जब मिलते थे तो पंजाबी चुटकुलों पर ख़ूब हँसा करते थे. मैं कभी नहीं भूल सकता कि प्राण कैसे ख़राब मौसम के बावजूद शादी में शिरकत करने के लिए श्रीनगर से बंबई पहुँचे थे. उन्होंने श्रीनगर से दिल्ली और फिर बंबई की फ्लाइट ली ताकि मेरे निकाह से पहले मुझे गले लगा सकें." - दिलीप कुमार 

इस महान कलाकार ने 12 जुलाई 2013 को मुम्बई के लीलावती अस्पताल में अन्तिम साँस ली। 

राजस्थान साहित्य अकादमी का मीरा समारोह सम्पन्न- 2013

$
0
0

उदयपुर: 23 जून, 2013।   राजस्थान साहित्य अकादमी का मीरा समारोह-2013 सम्पन्न हुआ। समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में प्रख्यात राष्ट्रीय कवि श्री बालकवि बैरागी ने कहा कि भारत देश ‘श्रुति’ का देश है, ‘श्रुति के देश’ को पाठक के देश में बदलने का प्रयास फलीभूत नहीं होगा। साहित्यकारों को ऐसा साहित्य रचना चाहिए जिससे समाज, साहित्य और देश को दिशा मिले। श्री बैरागी ने कहा - कविता के पास जब तक सम्प्रेषणीयता नहीं होगी, जब तक वह कण्ठ में नहीं बसेगी, तब तक वह कविता जीवित नहीं रहेगी। उन्होंने कहा कवि होना अत्यन्त कठिन कर्म है। श्री बैरागी ने अकादमी द्वारा बेटियों को पुरस्कृत किए जाने को साहित्य के लिए शुभ बताया और अकादमी द्वारा क्रान्तिचेता विजयसिंह पथिक के नाम पर साहित्यिक एवं रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार प्रारम्भ किए जाने को महत्वपूर्ण कार्य बताया। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि प्रख्यात आलोचक और साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय, गाजियाबाद ने उत्तराखण्ड में आए प्राकृतिक प्रकोप को जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ के प्रारम्भ के सन्दर्भ को उदधृत करते हुए कहा कि जिसके लिए प्रकृति वर्जना करती है, उस विलास का ध्वंश अश्वम्भावी होता है। हमारी संस्कृति में प्रकृति की पूजा की जाती है। मनुष्य और प्रकृति में प्रेम का संबंध रहा है, लेकिन आज विज्ञान प्रकृति से स्पर्धा कर रहा है। आज हमारे देश में बाजारवाद हावी है। बाजारवाद सुबह अखबार के साथ शुरू होता है और रात को टी.वी. के साथ खत्म होता है। हमारा अंतः प्रकृति का हिस्सा है लेकिन आज हम प्रकृति को समाप्त कर असंतुलित कर रहे हैं इस देश की संस्कृति इसलिए महान् है क्योंकि इसका सारा संबंध हमारी प्रकृति और महाकाव्य से है। बाजारवाद ने संस्कृति और प्रकृति को ग्रहण लगा दिया है। अकादमी के मीरा समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में उद्बोधन देते हुए प्रख्यात साहित्यकार डाॅ. केशुभाई देसाई, गुजरात ने कहा कि भारतीय भाषाएं मजबूत होने के बावजूद वे विश्व स्तर पर अपना स्थान नहीं बना पायी हैं। जबकि विश्व को सबसे पहले कविता भारत देश ने दी है। उन्होंने कहा कि कवि, साहित्यकार कभी मरता नहीं है, वह जन्म लेता है। मीरा, तुलसी, रैदास, सूर ने जन्म लिया है, वे आज भी जिन्दा हैं। तुलीसी, कबीर, मीरा नहीं होते तो आज हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान नहीं होता। समय और समाज के साथ कवि का अपना संबंध होता है। लेखक को स्वयं सिद्ध नेता होकर लिखना पड़ता है और समाज की पीड़ा को भोगना पड़ता है। अकादमी द्वारा साहित्यकारों का सम्मान किया जाना हमारे लिए गौरव और प्रसन्नता की बात है। राजस्थान साहित्य अकादमी अध्यक्ष श्री व्यास ने अध्यक्षीय स्वागत उद्बोधन में कहा कि आज साहित्य, समाज और समय पर अपनी बात कहने की आवश्यकता है। जीवन में साहित्य होगा तो ही शब्द में साहित्य होगा। आज साहित्य के क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र विकसित हो गया है, जो दुख की बात है। उन्होंने शब्द की सत्ता स्थापित होने पर जोर दिया। उन्होने कहा कि इस कठिन दौर में भी राजस्थान साहित्य अकादमी संवेदनशीलता, पारदर्शिता, जवाबदेही और ईमानदारी के साथ साहित्य को समर्पित है। अकादमी अध्यक्ष महोदय द्वारा इस अवसर पर समस्त पुरस्कृत और सम्मानित साहित्यकारों को शुभकामनाएं व बधाई दी तथा इस अवसर पर मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे साहित्यकारों का आभार प्रकट किया। अकादमी की ‘विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’ योजना में-  रणवीर सिंह (जयपुर), मदन केवलिया (बीकानेर), सुदेश बत्रा (जयपुर), क्षमा चतुर्वेदी (कोटा), श्री मुरलीधर वैष्णव (जोधपुर), श्री भागीरथ (उदयपुर), श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी (अजमेर) और सत्यनारायण व्यास (चित्तौड़गढ़) को ‘विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’ राशि 51,000/-रु., सम्मान, प्रशस्ति-पत्र, प्रतीक चिह्न आदि भेंट कर सम्मानित किया गया। अकादमी की पुरस्कार योजना में सर्वोच्च ‘मीरा पुरस्कार’ राशि 75,000/-रु. श्री भवानी सिंह (जयपुर) को, कविता विधा का सुधीन्द्र पुरस्कार श्री हरीश करमचंदानी (जयपुर) को, कथा उपन्यास विधा का रांगेय राघव पुरस्कार श्रीमती सावित्री रांका (जयपुर)को, आलोचना विधा का देवराज उपाध्याय पुरस्कार रेणु शाह (जोधपुर)को, विविध विधाओं का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार डाॅ. अतुल चतुर्वेदी (कोटा), आलमशाह खान अनुवाद पुरस्कार श्रीमती इन्दु शर्मा (जयपुर), मरुधर मृदुल युवा लेखन पुरस्कार श्री अंजीव अंजुम (दौसा), विजयसिंह पथिक साहित्यिक एवं रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार श्री ईशमधु तलवार (जयपुर)को प्रदान किया गया। ये सभी पुरस्कार 31,000/-रु. के हैं। प्रथम प्रकाशित कृति का सुमनेश जोशी पुरस्कार राशि 15,000/-रु. श्रीमती शारदा शर्मा (सांगरिया)को और बाल साहित्य का शम्भूदयाल सक्सेना पुरस्कार राशि 15,000/-रु. श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला (आबू रोड) को प्रदान किया गया। अकादमी की नवोदित पुरस्कार योजना महाविद्यालय स्तरीय के अन्तर्गत ‘चन्द्रदेव शर्मा पुरस्कार’ (कविता) सुश्री खुशबू शर्मा (उदयपुर) को, (कहानी विधा) का सुश्री पायल कंवर (जयपुर) को, (निबन्ध विधा) का श्री प्रियांक ओझा (सिरोही) और सुश्री निकिता शर्मा (जयपुर)को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। इसी प्रकार महाविद्यालय स्तरीय 'डॉ सुधा गुप्ता पुरस्कार’ कहानी विधा का सुश्री ज्योति चांदसिन्हा (कोटा) को प्रदान किया गया और विद्यालय स्तरीय ‘परदेशी पुरस्कार’ कहानी विधा का सुश्री निष्ठा सक्सेना (जयपुर) को, निबन्ध विधा का सुश्री मोनिका सोलंकी (जयपुर) और लघुकथा विधा का श्री गिरीश कुमार, सुमेरगंज, (पाली) को प्रदान किया गया। ये सभी पुरस्कार 5000-5000/-रु. के हैं। कार्यक्रम का संचालन मुकेश चतुर्वेदी ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन अकादमी उपाध्यक्ष श्री आबिद अदीब द्वारा दिया गया। सम्मान समारोह में राज्य व शहर के जाने-माने प्रख्यात साहित्यकार व गणमान्य नागरिक उपस्थित थे

त्रिलोक सिंह ठकुरेला को अकादमी पुरस्कार

इस अवसर पर सुपरिचित साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला को बाल साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा शम्भूदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार प्रदान किया गया। यह पुरस्कार उनकी चर्चित बाल साहित्य कृति 'नया सवेरा' के लिए दिया गया है। राजस्थान राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, उदयपुर के सभागार में आयोजित साहित्य पर्व -2013 एवं मीरा समारोह में श्री ठकुरेला को इस पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया .अकादमी के उपाध्यक्ष श्री आबिद अदीव ने श्री ठकुरेला का माल्यार्पण कर स्वागत किया। अकादमी अध्यक्ष श्री वेद व्यास ने शॉल, सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री बालकवि बैरागी ने सम्मान -पत्र ,वरिष्ठ साहित्यकार डॉ ,प्रभाकर श्रोत्रिय ने स्मृति -चिन्ह, अकादमी सचिव डॉ प्रमोद भट्ट ने पुरस्कार राशि ( 15000 /= रुपये ) एवं गुजराती के चर्चित साहित्यकार डॉ .केशुभाई देसाई ने पुष्पगुच्छ भेंट किया।  इस अवसर पर राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य की विविध विधाओं में किये गए उल्लेखनीय कार्य के लिए कुल 26 साहित्यकारों को पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया।

सुशील कुमार की सात कविताएँ

$
0
0


संभावनाशील युवा कवि सुशील कुमार का जन्म 1978, झारखण्ड के हजारीबाग में हुआ शिक्षा- समाज सेवा में स्नातकोत्तर। अपनी कविताओं के बारे में आप कहते हैं: "लिखता हूँ कविता, बेचता नहीं हूँ/ इसलिए मौकापरस्त नहीं बल्कि/ ज़ुल्मों सितम की काली कोठरी में/ बग़ावत का चिराग़ हैं कवितायें मेरी।" आप वर्षों से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्यरत हैं लम्बे समय तक एच.आई.वी. / एड्स जागरूकता के लिए उच्य जोखिम समूह (यौन कर्मियों, समलैंगिकों व ट्रकर्स) के साथ कार्य का विशेष अनुभव रखने वाले सुशील जी जन सरोकार के मुद्दों के साथ सक्रियता से जुड़कर काम करते रहे हैं वर्तमान मेंदिल्ली स्थित एन. जी.ओ. कंसल्टेंसी कंपनी गोल्डेन थाट कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड के साथ चीफ कंसल्टेंट के रूप में कार्यरत है और कई सामाजिक, सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं (जैसे नाको, यूनिसेफ, वी.वी.गिरी राष्ट्रीय श्रम संस्थान आदि) के साथ प्रशिक्षक, मूल्यांकनकर्ता व सलाहकार के रूप में सक्रिय जुडाव बना हुआ है 

संपर्क: ए-26 / ए, पहली मंजिल, पांडव नगर, 
मदर डेरी के सामने, दिल्ली-110092  
 ई-मेल:goldenthoughtconsultants@gmail.com  

1. गुंजाइशों का दूसरा नाम
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

लो वह दिन भी आ गया
जब हमारा खून गर्म तो होता है
लेकिन
उबलता नहीं है

सूख कर कड़कड़ाई हुई साखों में
रगड़ तो होती है मगर
अब वो चिंगारी नहीं निकलती
जिससे धू-धू कर
जंगल में आग लग जाती थी

आयरन की कमीं वाले हमलोगों नें
अपने खून में लोहे की तलाश भी छोड़ दी है
जिससे बनाए जाते थे खंजर

यह
उबाल रहित खून
आग रहित जंगल और
खंजर रहित विद्रोह का नया दौर है

फिर भी मजे की बात तो यह है कि
यहाँ समाजवाद
अजय भवन के मनहूस सन्नाटे में
आगंतुकों की बाट जोहती
कामरेड अजय घोष की मूर्ति नहीं
बल्कि
छांट कर रखी गयीं
पुस्तकालय की किताबों के चंद मुड़े हुए पन्नों में
बची गुंजाइशों का दूसरा नाम है 


2. सलीब

दिशाओं के अहंकार को ललकारती भुजाएं
और
चीखकर बेदर्दी की इन्तहां को चुनौती देतीं
हथेलियों में धसीं कीलें

एक-एक बूंद टपकता लहू
जो सींचता है उसी जमीन पर
लगे फूल के पौधों को
जहाँ सलीब पर खड़ा है सच
जब भी लगता है कि
हार रहा है मेरा सच
सलीब को देखता हूँ

लगता है कोई खड़ा है मेरे लिए
झूठ के खिलाफ 

3. कई बार लगा

कई बार लगा 
मैनें लाँघ दी सीमाएँ

कई बार लगा
हैसियत से ज्यादा बोल गया

कई बार लगा
मैं दायरों से बाहर निकल रहा हूँ

कई बार लगा
मैं खडा हूँ वहीं 
और दायरे मुझसे बाहर निकल रहे हैं  

4. गिरफ्त

तुम गिरफ्त में लेते हो
कुछ इस तरह
जैसे आकाश
पंक्षी को कैद करता है

उन्मुक्त रहने का
भ्रम भी रहे
और
बहार न निकल पाने की
असमर्थता भी।

5. पर्दा

न रौशनी रूकती है
न ठंढी हवाएं

अब तो इन
पर्दों को बदल डालो।

6. शहर में चांदनी

भागो कि सब भाग रहे हैं
शहर में
कंकड़ीले जंगलों में
मुंह छिपाने के लिए

चाँद
ईद का हो या
पूर्णिमा का
टी.वी. में निकलता है अब
रात मगर क्या हुआ

मेरी परछाई के साथ
चांदनी चली आई
कमरे में
शौम्य, शीतल,
उजास से भरी हुई

लगा मेरा कमरा
एक तराजू है
और
मै तौल रहा हूँ
चांदनी को
एक पलड़े में रख कर
कभी खुद से
कभी अपने तम से

लगा रहा हूँ हिसाब
कितना लुट चुका हूँ
शहर में !

7. मन का कारोबार

मन के कारोबार में
प्यार की पूंजी
दाव पर होती है

कोई बही-खाता नहीं होता
इसलिए
तुम्हारी शर्तें
सूद की तरह
चढ़ती गयीं मुझपर
जिसे चुकाते-चुकाते
अपने मूलधन को
खो रहा हूँ

तमाम मजबूरियों के बावजूद
मैं कारोबारी हो रहा हूँ 

Five Poems of Susheel Kumar

सरस्वती माथुर की तीन कविताएँ

$
0
0
डॉ सरस्वती माथुर 


डॉ सरस्वती माथुर का जन्म 5 अगस्त, 1 9 53 को हुआ। शिक्षा:एम.एस .सी (प्राणिशास्त्र ) पीएच .डी, पी. जी. डिप्लोमा इन जर्नालिस्म ( गोल्ड मेडलिस्ट )। डॉ माथुर कहती हैं: मेरे लिये जीवन ह़ी कविता है, कविता ह़ी जीवन है. कविता की लाखों परिभाषाएं हैं क्युंकि उसके आयाम अनेकों हैं, नींद में साँस चल रही है वह भी लयात्मक कविता है , जहाँ गति है वहाँ कविता है ...कविता एक साधना है, भावना है। कविता ... सृष्टि, देश, समाज, परिवार, प्रकृति, अहसास- अनुभूति और अभिव्यक्ति का कलात्मक आकलन है, साक्षात् ईश्वर से बातचीत का माध्यम है ! शायद इसलिए मेरी अभिव्यक्ति की केंद्रीय विधा भी कविता ह़ी है।  प्रकाशित पुस्तकें: एक यात्रा के बाद (काव्य संग्रह), मेरी अभिव्यक्तियाँ,मोनोग्राम : राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी: मोनोग्राम हरिदेव जोशी,  विज्ञान: जैवप्रोधोयोगिकी। कविता, कहानी, पत्रकारिता, समीक्षा, फ़ीचर लेखन के साथ-साथ समाज साहित्य एवं संस्कृति पर देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। शिक्षा व सामाजिक सरोकारों में योगदान, साहित्यिक गोष्ठियों व सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी, विभिन्न साहित्यिक एवं शिक्षा संस्थाओं से संबद्ध, ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, पब्लिक रिलेशंस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया तथा राजस्थान चैप्टर की सदस्य।संपर्क: ए -२ ,सिविल लाइन, जयपुर। ई मेल:jlmathur@hotmail.com


1. यह घर-अंगना
Art by  Vishal Bhuwania 

दूधिया भोर में
चंपा के झरे फूल
जब मैं आँगन के
तरु से रोज उठाती हूँ
तो ना जाने क्यों
अम्मा उसमें से
तुम्हारी महक आती है
घर भर में मंडराती है

याद है मुझको 
बड़े दादा सा. ने 
आँगन में यह पेड़
चंपा का रोपा था 
पर इसका तो
लुत्फ़ तुमने 
जी भर के उठाया था 
मूंज की खटिया लगा
वहां आसन अपना
जमाया था 

महाराजिन के संग वहां 
तुम दिन भर बतियाती थी
मैथी-चौलाई चुटवातीं 
सब्जियां कटवाती थीं
अमिया करौंदे का
अचार भी हल्दी में लगा
वहीँ बनवातीं थीं 

रमैया की अम्मा से
साँझ को रामायण की
चौपाइयां गंवाती 
आरती करके
हम सब को उसी 
चम्पई हवा में अक्सर 
तुम मोहल्ले भर की
कुछ कच्ची 
कुछ सच्ची कहानियां
चटकारे ले-लेकर सुनातीं थीं

साँझ आरती के लिए
चंपा के फूल तुडवातीं 
गजरा बना
राधा जी को चढ़वातीं
फिर साँझ गीत गातीं थीं

अम्मा, अब न तुम रहीं
न वो रसीली कहानियां 
पर देखों न अम्मा 
चंपा के फूल 
अब कुछ ज्यादा 
महकते हैं और 
अम्मा एक गौरैया तो 
रोज नियम से आती है
मधुर स्वर में
संध्या को जब वो गाती है
तो लगता है
वो गौरैया 
तुम हो अम्मा

तुम, जो कहा करतीं थीं कभी कि
जन्म मिले दुबारा तो
चाहूँ मैं कि बनूँ 
मैं एक गौरैया ताकि
छूटे मुझसे कभी न
मेरा चम्पई फूलों से महकता
यह घर-अंगना !

2 . याद के समुंद्र में

उतारूंगी एक मौसम
याद के समुंद्र में
गोता लगाने को
उतारूंगी एक मौसम
मन की आँखों में
फिर एक गीत लिखूंगी
तब गाना तुम उन
गीतों को सुर में
शब्द तुम्हें 
मुखरित कर लेंगे
फिर उन स्पन्दनों में
तलाश कर मुझे
एक रास्ता तुम पा लोगे
तब मैं नयी राह चलूंगी
एक नये गीत के साथ
नयी-नयी प्रीत के साथ
एक राह मिलते ही
मौसम बदल जायेंगे
तब हम मिलकर
साजों के संग
एक नया गीत गायेंगे ।

3. लय

मैं समुद्र की तरह
उठती हूं विस्तरित होती हूं
लहरों की तरह-फेन उडेल
उफनती-थमती हूं
ज्वारभाटों से नहीं घबराती
सपनों की, आशाओं की
चट्टानों से टकराती भी हूं
तो उसमें भी ढूंढ लेती हूं
लय, उस लय में कभी कभी
ध्वनि नहीं होती
शब्द नहीं होते
शीर्षक नहीं होता 
लेकिन
अलग-अलग रंग लिये
मधुर गीत होते हैं जो
एकबद्ध होकर
सपनों का अर्थ
लिख जाते हैं
उडने को एक आकाश
सौंप जाते हैं

Dr Saraswati Mathur ki Hindi Kavitayen

अशोक शर्मा की एक कविता

$
0
0
अशोक शर्मा 

युवा रचनाकार अशोक शर्मा का जन्म 2 फरवरी 1 9 8 3 को दनकौर, गौतमबुद्ध नगर, उ प्र में हुआ। शिक्षा:एम एससी (आई टी) आपके दो उपन्यास- बी प्रेक्टीकल (अंग्रेजी) और राजपथ पर साधु (हिंदी) प्रकाशित हो चुके है। सम्प्रति: नॉएडा की एक सॉफ्टवेर कंपनी में कार्यरत। संपर्क:ए-38/6, अमर विहार, करावल नगर, दिल्ली-110094, मोब- 09971801807, ईमेल- aksharma0202@live.in

Art by  Vishal Bhuwania 
रुई के इंसान

जल, वायु, अग्नि, प्रथ्वी और आकाश
इन पांच तत्वों से भगवान् ने इंसान को रचा है
लेकिन अपनी तासीर के हिसाब से इंसान
पारे , पीतल, लोहे, तांबे और रुई के हॊते है

पारे के इंसान वो है
जो अपने गुणों के बावजूद 
अपने को किसी भी रूप में ढाल लेते है
जिनका व्यक्तित्व भारीपन के बावजूद 
पानी सा सरल होता है
लेकिन अपनी सरलता को बनाये रखते हुए भी 
ये किसी के हाथ नहीं आते!

पीतल के इंसान वो है
जिनकी बाते वजनदार, इरादे मजबूत है
और जिनका व्यक्तित्व समाज में 
 अपने आकर्षण की चमक बिखेरता है
लेकिन अपने आकर्षण के बावजूद 
ये सबको ग्रहण नहीं करते !

लोहे के इंसान वो है
जिनकी बाते वजनदार, इरादे मजबूत है
लेकिन उनके लिए किसी को आकर्षण नहीं है
अपनी सारी क्षमताओ के बावजूद
इन्हें अपने वजूद के लिए लड़ना पड़ता है!

ताम्बे के इंसान वो है
जिनकी बाते भली और गुणकारी है
लेकिन उनमें मजबूती नहीं है
मुश्किलों की ज़रा सी नमी 
उनकी चमक को धुन्दला कर देती है

बचे हुए सब इंसान रुई के होते है
उनका ईमान-धर्म, वादे-इरादे 
सब सुंदर लेकिन दिखावटी होते है
जरा सी
विरोध की हवा, मुश्किलों की आंच, दुःख की लहरे
उनका सब कुछ उड़ा, जला और बहा देती है!
इनका आकार कितना भी बड़ा क्यों ना हो
लेकिन ये कभी किसी के लिए 
एक कदम का भी आधार नहीं बन सकते

इंसान तो वो है जिसका ईमान 
पारे की तरह भारी हो
जिसकी बातें 
पीतल की ठोस और तांबे की तरह गुणकारी हो
व्यक्तित्व का आकर्षण भले ही लोहे की तरह कम हो
ना कि रुई की तरह हल्का, बनावटी और बाजारी हो !

इंसान के रुई का होने की शुरुवात घर से होती है
यहीं उसे व्यक्तित्व के भारी, ठोस, मजबूत, गुणकारी
या रुई का हॊने की शिक्षा मिलती है !

आज
घर से बाजार तक
सड़क से दरबार तक
हर तरफ "धुनी" लगी हुई है
और सब दिखावटी सुन्दरता का
प्रचार, प्रसार, व्यापार और व्यवहार कर रहे है !
घर की, समाज की,
व्यक्तित्व के विकास की
धातु को तपा पर कुंदन बनाने की
भट्टी कहीं नहीं दिखती !

रिश्ते, प्यार, आदर और व्यवहार को
रुई की तरह दिखावटी और हल्का कर देने के बाद
हम उनसे ठोस परिणाम की आशा कैसे कर सकते है

ठोस परिणाम तपती भट्टी से निकलते है
गीत गाती "धुनी" से नहीं!
"धुनी" से तो सिर्फ रुई की तरह
हल्का व्यक्तित्व,
हल्का विश्वास
और हलके रिश्ते ही
पनपेंगे !


A Hindi Poem of Ashok Sharma

जन्मदिवस पर विशेष: वीरेन डंगवाल की कविताएँ

$
0
0
वीरेन डंगवाल 

आज आदरणीय वीरेन डंगवाल जीका जन्मदिन है। उन्हें हमारी ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। पूर्वाभास के पाठकों के लिए उनकी कुछ कविताएँ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। साथ में उनका परिचय भी। कहा जाता है कि डंगवाल जी ने बाईस वर्ष की उम्रमें पहली रचना लिखी थी और लगभग तीस वर्ष की आयु में ही वे हिन्दी जगत में चर्चित हो गए थे।उनकी रचनाओं से जहाँ पढ़े-लिखे कलमकार की छवि उभरती है, वहीं इनकी सहजता एवं स्पष्टता सहृदय पाठकों को कविता का मर्म समझने में मदद करती है। 

5 अगस्त 1947 को कीर्तिनगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में जन्मे डंगवाल जी ने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा (हिन्दी में एम ए, डी फिल)प्राप्त की। 1971 सेबरेली कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर; पत्रकारिता से गहरा रिश्ता। ह्रदय से कवि एवं लेखक। एक अच्छे- सच्चे इंसान। पत्नी रीता जी भी शिक्षक। आपके दो बेटे प्रशांत और प्रफुल्ल कारपोरेट अधिकारी हैं। 

आपने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमतके अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। आपकी स्वयं की कविताएँ बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया मेंअनूदितहो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह- 'इसी दुनिया में', दुष्चक्र में सृष्टा तथा स्याही ताल पुरस्कार व सम्मान: रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (१९९२), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994), 'शमशेर सम्मान' (2002), साहित्य अकादमी सम्मान (2004)

Art by  Vishal Bhuwania 
1. कुछ कद्दू चमकाए मैंने 

कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दीं तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया

अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जीं हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफ़ोन की बग़ल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ

जो न होना था वही सब हुवाँ-हुवाँ
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ

तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं

हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :
" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी "
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन दो मज्जा परेसानी क्या है "

अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।

2. अकेला तू तभी 

तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोडों इसी देश में तुझ जैसे

धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरू-गूँ कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के ह्रदय का पानी है

तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीडा की कठिन अर्गला को तोडें कैसे!

3. पत्रकार महोदय

'इतने मरे' 
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर 
छापी भी जाती थी 
सबसे चाव से 
जितना खू़न सोखता था 
उतना ही भारी होता था 
अख़बार। 

अब सम्पादक 
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी 
लिहाज़ा अपरिहार्य था 
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय। 
एक हाथ दोशाले से छिपाता 
झबरीली गरदन के बाल 
दूसरा 
रक्त-भरी चिलमची में 
सधी हुई छ्प्प-छ्प। 

जीवन 
किन्तु बाहर था 
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली 
चीख़ के बाहर था जीवन 
वेगवान नदी सा हहराता 
काटता तटबंध 
तटबंध जो अगर चट्टान था 
तब भी रेत ही था 
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !

4. प्रेम कविता 

प्यारी, बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
अटपटे और ऊल-जुलूल 
बेसर-पैर कहाँ से कहाँ तेरे बोल !

कभी पहुँच जाती है अपने बचपन में 
जामुन की रपटन-भरी डालों पर 
कूदती हुई फल झाड़ती 
ताड़का की तरह गुत्थम-गुत्था अपने भाई से 
कभी सोचती है अपने बच्चे को 
भाँति-भाँति की पोशाकों में 
मुदित होती है 

हाई स्कूल में होमसाइंस थी 
महीने में जो कहीं देख लीं तीन फ़िल्में तो धन्य ,
प्यारी 
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना 
फूले मुँह से उसाँसे छोड़ती है फू-फू 
कभी-कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हँसी-खेल नहीं 
आदमी लोग को क्या पता 
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती ऑंखें 
बिना मुझे छोटा बनाए हल्का-सा शर्मिन्दा कर देती है 
प्यारी 

दोपहर बाद अचानक उसे देखा है मैंने 
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर 
अलसाए 
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है 
शोक की लौ जैसी एकाग्र 

यों कई शताब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी 
मेरी प्यारी !

HINDI POEMS OF VIREN DANGAWAL

विनम्र श्रृद्धांजलि: वरिष्ठ गीतकार डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया नहीं रहे

$
0
0
 डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया
समय : 1 5 जुलाई 1 9 2 7 - 0 7 अगस्त 2 0 1 3

रिष्ठ नवगीतकार डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया का पी जी आई, लखनऊ में उपचार के दौरान बुधवार की सुबह निधन हो गया। वे कई दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। डॉ शिव वहादुर सिंह भदौरिया का जन्म १५ जुलाई १९२७ को जनपद रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव धन्नीपुर (लालगंज) में हुआ। 'हिंदी उपन्यास सृजन और प्रक्रिया' पर कानपुर विश्व विद्यालय से पी एच डी की उपाधि। पुलिस विभाग की नौकरी छोड़ शिक्षक बने।  प्रारंभ में कुछ दिन पुलिस विभाग में अपनी सेवा अर्पित करने के बाद १९६७ से १९७२ तक वैसवारा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी प्रवक्ता से लेकर विभागाध्यक्ष तक के पद पर कार्य किया। तत्पश्चात प्राचार्य के पद से १९८८ में सेवानिवृत।सन १९४८ से आपने कविता करना प्रारंभ कर दिया था। लालगंज में निवास करते हुए अंतिम समय तक साहित्य साधना में लगे रहे। आप 'नवगीत दशक' तथा 'नवगीत अर्द्धशती' के नवगीतकार रहे तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में आपके गीत तथा कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 'शिन्जनी' (गीत-संग्रह), 'पुरवा जो डोल गई' (कविता संग्रह), 'ध्रुव स्वामिनी (समीक्षा) ', 'नदी का बहना मुझमें हो' (नवगीत संग्रह), 'लो इतना जो गाया' (नवगीत संग्रह), 'माध्यम और भी' (मुक्तक, हाइकु संग्रह), 'गहरे पानी पैठ' (दोहा संग्रह) आदि आपके ग्रन्थ प्रकाशित। वे महामहिम राज्यपाल द्वारा जिला परिषद, रायबरेली के नामित सदस्य भी रहे। हाल ही में आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित 'राघव राग' पुस्तक प्रकाशित। आप मेरे परम पूज्य गुरुदेव स्व दिनेश सिंह जी के गुरूजी रहे। नवगीत के इस महान शिल्पी को पूर्वाभास की ओर से विनम्र श्रृद्धांजलि!

1. नदी का बहना मुझमें हो
Art by Vishal Bhuvania

मेरी कोशिश है कि 
नदी का बहना मुझमें हो 

तट से सटे कछार घने हों 
जगह -जगह पर घाट बनें हों 
टीलों पर मंदिर हों जिनमें 
स्वर के विविध वितान तनें हों 

भीड़ 
मूर्छनाओं का 
उठाना -गिरना मुझमें हो 

जो भी प्यास पकड़ ले कगरी 
भर ले जाये खाली गगरी 
छूकर तीर उदास न लौटें 
हिरन कि गाय कि बाघ कि बकरी 

मच्छ -मगर 
घड़ियाल 
सभी का रहना मुझमें हो 

मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में 
मेरा बदन काट कर नहरें 
ले जाएँ पानी ऊसर में 

जहाँ कहीं हो 
बंजरपन का 
मरना मुझमें हो। 

2. इंद्रधनुष यादों ने ताने

इंद्रधनुष 
यादों ने ताने
क्या क्या होगा आज न जाने

सिरहाने चुपचाप आ गया
झोंका मिली जुली गंधों का
अनुगूँजों ने चित्र उकेरा
सटे पीठ से अनुबंधन का

खिड़की से 
गुलाब टकराया
किसने छेड़ा साज न जाने

आकारों से रेखाओं को 
कितना दूर किये देती है
संबंधों के शीश महल को
चकनाचूर किये देती है

अर्थ देह का 
बदले देती
किसकी है आवाज न जाने।

3. पुरवा जो डोल गई

पुरवा जो डोल गई
घटा घटा आँगन में 
जूड़े-सा खोल गई

बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम रंग परियों से अंतर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ

मइया के मंदिर में
अम्मा की मानी हुई
डुग डुग डुग डुग डुग 
बधइया फिर बोल गई

बरगा की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे
बिरहा की तालों में विरहा सब भूल रहे
अगली सहालग तक ब्याहों का बात टली
बात बहुत छोटी पर बहुतों को बहुत खली

नीम तले चौरा पर
मीर की बार बार
गुड़िया के ब्याह वाली 
चर्चा रस घोल गई

खनक चुड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने
कलियों पर रंग फेरा मालिन की बातों ने
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है
चिड़ियों की आँखों में ममता का सेहरा है

नदिया से उमक उमक
मझली वह छमक छमक
पानी की चूनर को 
दुनिया से मोल गई

झूले के झूमक हैं शाखों के कामों में
शबनम की फिसलन केले की रानों में
ज्वार और अरहर की हरी हरी सारी है
सनई के फूलों की गोटा किनारी है

गाँवों की रौनक है
मेहनत की बाँहों में
धोबन भी पाटे पर 
हइया हू बोल गई। 

Dr Shivbahadur Singh Bhadauriya

दीप्ति शर्मा की चार कविताएँ

$
0
0
दीप्ति शर्मा 

ताजमहल के शहर की युवा रचनाकार दीप्ति शर्मा का जन्म 20 फरवरी 1989 को आगरा, उ. प्र. में हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा पिथौरागढ़ और भीमताल से हुई। आपने 2012 में आनंद इंजीनियरिंग कॉलेज, आगरा से बी.टेक.किया। आप छोटी आयु से ही लेखन करने लगीं थी। इंटरनेट की कई पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित भी हो चुकी हैं। आपका ब्लॉग: deepti09sharma.blogspot.com। संपर्क:deepti09sharma@facebook.com। आपकी चार कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं:-

१. आवाज़
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

आवाज़ जो
धरती से आकाश तक
सुनी नहीं जाती
वो अंतहीन मौन आवाज़
हवा के साथ पत्तियों
की सरसराहट में
बस महसूस होती है
पर्वतों को लांघकर
सीमाएं पार कर जाती हैं
उस पर चर्चायें की जाती हैं
पर रात के सन्नाटे में
वो आवाज़ सुनी नहीं जाती
दबा दी जाती है
सुबह होने पर
घायल परिंदे की
अंतिम साँस की तरह
अंततः दफ़न हो जाती है
वो अंतहीन मौन आवाज़

२. दंश

स्त्री होने का दर्द
कचोटता है
कचोटता है मन के भीतर
अनगिनत तारों को
वो रो नहीं सकती
कुछ कह नहीं सकती
बाहर निकली तो
मर्यादा का डर,
सबसे ज्यादा घर से मिले
संस्कारों का डर
तो कभी
आलोचना का डर,
नियमों का डर,
कायदों का डर
जो डगमगा देता हैं आत्मविश्वास
फिर भी हँसती है
वो छटपटाती है और
अपने ही सवालों से घिर जाती है
हर एक दायित्व बस
उसी से जोड़कर देखा जाता है
कहा जाता है
मर्यादा में रहो
समाज की सुनो
प्रेम ना करो
किया तो मार दी जाओगी
बस आँख बंद कर
इस सो कॉल्ड समाज की
मर्यादा का पालन करो
और ये न भूलो कि
तुम एक स्त्री हो
ये समाज के रखवाले
ठेकेदार बन
चूस लेंगे खून
जीने नहीं देंगे
और कहेंगे
सहना पड़ेगा ये दंश
तुम्हें उम्रभर
क्योंकि तुम एक स्त्री हो ।

३. ख़ामोशी

मांग करने लायक
कुछ नहीं बचा
मेरे अंदर
ना ख्याल, ना ही
कोई जज्बात
बस ख़ामोशी है
हर तरफ अथाह ख़ामोशी
वो शांत हैं
वहाँ ऊपर
आकाश के मौन में
फिर भी आंधी, बारिश
धूप ,छाँव में
अहसास करता है
खुद के होने का
उसके होने पर भी
नहीं सुन पाती मैं
वो मौन ध्वनि
आँधी में उड़ते
उन पत्तों में भी नहीं
बारिस की बूंदों में भी नहीं
मुझे नहीं सुनाई देती
बस महसूस होता है
जैसे मेरी ये ख़ामोशी
आकाश के मौन में
अब विलीन हो चली है ।

४. इच्छाएँ

अक्सर खाक होकर भी
पनपती हैं इच्छाएँ
जो अन्दर ही
खोज लेती हैं राह
और कभी अपने
छुपने की जगहें भी ।

Four Hindi Poems Of Deepti Sharma

साधना बलवटे की तीन गज़लें

$
0
0
साधना बलवटे 

भोपाल के अरेरा पहाड़ी पर स्थापित बिड़ला मंदिर वर्षों से आस्था का केन्द्र रहा है। अरेरा कॉलोनी में रहने वाली चर्चित लेखिका डॉ साधना बलवटे का जन्म 13 नवम्बर 1969 को जोबट, जिला झाबुआ,म. प्र. में हुआ। आपने देवी अहिल्या विश्वविघालय, इंदौर से स्नातकोत्तर (हिंदी) एवंपी.एच.डी.की। लेखन, नृत्य, संगीत, हस्थशिल्प में रुचि रखने वाली साधना जी 12 वर्ष की उम्र से ही रचनात्मक कार्य करने लगी थीं। आपने मालवी व निमाड़ी बोली में भी लेखन किया है। पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, नई दुनिया आदि पत्र पत्रिकाओ में आपकी रचनाओं का प्रकाशन एवं आकाशवाणी इंदौर से प्रसारण हो चुका है। सम्मान:निर्दलीय प्रकाशन का 'संचालन संभाषण श्रेष्ठता अंलकरण'। वर्तमान में आप अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की महासचिवहैं।सम्पर्क : ई-2 / 346, अरेरा कॉलोनी, भोपाल,दूरभाष: 0755-2421384, 9993707571। ईमेल:dr.sadhanabalvate@yahoo.com। आपकी तीन रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं:-

(1) हम भीड़ से हटे तो 
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

शौहरत में हम तो गुम थे, ज्यों ही ख़याल आया,
हम भीड़ से हटे तो तन्हाइयों में पाया ।

कितनी ही बार फिसला ये वक्त उंगलियों से,
ऐसा नहीं कि इसने फिर हाथ न मिलाया।

हमने वफा के ढेरों दे डाले इम्तहां पर,
पीछे चला है हरदम इन आसुंओं का साया।

निकले यकीन झूठे, उलझे मुसीबतों से,
जब भी रवायतों को इस शीश पर बिठाया।

जोड़ा है हमने कितना उस टूटे आइने को,
उसने हरेक चेहरा बिखरा हुआ दिखाया।

बुलबुल को कैद करके पिंजरा सजाया हमने,
इतने बड़े चमन ने खामोशियों को गाया ।

(2) बदल कर देखो

उम्र हर दौर में बचपन है मचल कर देखो,
वक्त तालीम है अपने को बदल कर देखो।

बेवफा ख्वाब का जीवन में कभी गम न करों,
फिर से उम्मीद की बाहों में मचल कर देखो।

दर्द भी फूल की खुशबू-सा महक जायेगा,
तुम कभी गीत के आगोश में ढल कर देखों।

रश्क कर जायेगी कितनी ही निगाहें तुम पर,
सिर्फ ईमान की गलियों में टहल कर देखों ।

जिंदगी जेठ की तपती है दुपहरी, माना,
इसमें सावन की घटा भी है संभल कर देखो।

मौत पतझर की तरह है जो हमें क्या देगी
जिन्दगी फूल की खुशबू है मसल कर देखो।

(3) तुझसे लगा के लौ 

जीवन में कभी ऐसे न मजबूर हुए हम, 
चाहत की नजर से न कभी दूर हुए हम।

थे शक्ल से कुछ भी मगर मन से थे समन्दर,
सीरत पे कभी भी नहीं मगरूर हुए हम।

मन की हरेक पंखुरी देकर हुए अमीर,
बेगाने तकल्लुफ से मगर चूर हुए हम ।

तकते रहे हैं दूर से एकलव्य की तरह,
फिर भी तेरी आँखों को न मंजूर हुए हम।

रहते थे अपने घर में भी अनजान की तरह,
तुझसे लगा के लौ बहुत मशहूर हुए हम ।


Three Hindi Poems of Sadhana Balvate

दूसरी दुनिया यानी औरत की दुनिया- डॉ. संवेदना दुग्गल

$
0
0
डॉ. संवेदना दुग्गल

"कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो"- दुष्यंत कुमारकी इन पंक्तियों से प्रेरणा लेने वाली डॉ संवेदना दुग्गलने साहित्य और समाज का फ़लसफ़ा अपने पिता दिनेश पालीवालसे जाना-समझा। पिता जाने-माने कथाकार एवं लेखक और माँ समझदार गृहणी। संवेदना जी का जन्म 25 अक्टूबर 1 9 6 9 को इटावा, उ प्र में हुआ। आपने आगरा विश्विद्यालयसे पीएच डी की। शीर्षक था "सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में शिल्प, भाषा और कथ्य।"वर्तमान में आप दिल्ली पब्लिक स्कूल, द्वारका, दिल्ली में हिन्दी की प्रवक्ता हैं। फेसबुक: http://www.facebook.com/samvedna.duggal

1. हम दोयम दर्जे की नागरिक

इस पुरुष प्रधान दुनिया में आधी आबादी स्त्रियों की है। लेकिन इस आधी आबादी को क्या वाकई आधे हक भी मिल पाए हैं? फ्रेंच लेखिका और महान अस्तित्ववादी दार्शनिक सार्त्र की महबूबा, लिविंग इन रिलेशनशिप में आजीवन सार्त्र के संग रहने वाली, सायमन द बोउवार की स्त्रियों के अस्तित्व को ले कर लिखी गई आधी दुनिया पर पहली और अत्यंत महत्वपूर्ण किताब--‘द सेकिंड सेक्स’ है, जिसका हिन्दी में अनुवाद प्रभा खेतान जी ने ‘स्त्री उपेक्षिता‘ के नाम से किया है, जिसमें उन्होंने स्त्रियों की उपेक्षा को लेकर बहुत गंभीरता से विचार किया है। हिन्दी साहित्य में और मानवाधिकारों में भी, आजकल महिलाओं को ले कर बहुत कुछ लिखा और कहा जा रहा है। सवाल उठता है, इतना हो-हल्ला मचने के बावजूद क्या हम स्त्रियों मां के गर्भ से ले कर चिता या कब्र में जाने तक सुरक्षित हैं? समाज का हमारे प्रति नजरिया बदला हुआ है? क्या हमें मानवी मान कर चला जा रहा है? हमें हमारे अधिकार और हक दिए जा रहे हैं? हमें दोयम दर्जे का नागरिक क्या अभी भी नहीं माना जा रहा?

हमारी अपनी दुनिया है। जिसे मैं इस कॉलम में ’दूसरी दुनिया’ नाम दे रही हूं। हम महिलाओं की सर्वथा उपेक्षित दुनिया। जिस दुनिया में हमें अपना कहीं कोई नजर नहीं आ रहा। हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं। न मां के पेट में, न मां की गोद में, न मां के संग बिस्तर पर उनकी सुरक्षित बाहों में, न बालिका के रूप में, न किशोरी, न नव यौवना के रूप में, न नवेली वधू के रूप में और न मां बनने के बाद भी। न प्रौढ़ा और वृद्धा होने पर भी। हम सारी जिंदगी असुक्षित रह कर ही जीती हैं। यह असुरक्षा हमें सदैव घेरे रहती है। डर हमारा स्थाई भाव है। हम दोयम दर्जे की नागरिक हैं, यह भाव हमारे दिल-दिमाग पर हमेशा तारी रहता है। आत्मछलना, आत्मप्रवंचना, आत्महीनता और आत्मदमन के साथ जीती हमारी पूरी स्त्री जाति, हमारी पूरी औरत जमात गांव से लेकर कस्बों तक, कस्बों से लेकर नगरों और महानगरों तक, पहाड़ों से लेकर रेगिस्तानी इलाकों तक, जंगल वासी, आदिवासी महिलाओं से ले कर पिछड़ी, दलित, दमित स्त्रियों तक हमारी विशाल दुनिया की अपनी अगणित समस्याएँ हैं। अपने दुख, अपनी त्रासदियां हैं। उन सबका जिक्र मैं अपने इस कॉलम में समय-समय पर करती रहूंगी। ऐसा न समझा जाए कि हम कोई पुरुष विरोधी मुहिम छेड़ रहे हैं। हम विचार के लिए कुछ समस्याएं, कुछ सूक्तियां, कुछ बातें निरंतर आपके सामने रखना चाहेंगे। आशा है, वेब पत्रिका पूर्वाभास के पाठकों को यह सब पसंद आएगा और उन विचारों पर आप सब सुधी पाठक गंभीरता से विचार करेंगे। 

2. दरद न जाने कोय !
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

औरत आज ही नहीं सताई जा रही। सिंधु घाटी सभ्यता, मेसापोटामियन, मिडिल ईस्ट, मिश्र, यूनानियन, मायन, रोमन और चीनी सभ्यता जैसी प्रचीनतम सभ्यताओं के जमाने से स्त्री को यह निर्दयी समाज सताता आ रहा है। समय-समय पर स्त्री के इस दमन और दलन के खिलाफ अनेक महापुरुषों और महान स्त्रियों ने आवाजें उठाई हैं। विरोध किया है। आन्दोलन किए हैं। लेकिन क्या तब से अब तक कहीं कुछ बदला है?

बाल विवाह, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, सती प्रथा को लेकर तो हमारे देश में ही महापुरुषों ने लड़ाइयां लड़ीं। आन्दोलन किए। स्थितियों को बदलने का प्रयास किया। संविधान के रचयिता डॉ अंबेडकर ने दलित स्त्रियों की ही समस्याएं नहीं उठाईं, समूची स्त्री जाति की अस्मिता का प्रश्न उठाया। उनके कानूनी हकों को संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए घोर संघर्ष किया। गांधी और नेहरू का भी उन्हें समर्थन हासिल हुआ। सवाल उठता है, इस सबके बावजूद क्या इस आधुनिक, वैज्ञानिक और तकनीकी समाज में स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष अंतर आया? उनका दमन, उनका दलन, उन पर अत्याचार, दुराचार, उनके प्रति हिंसा, नित्य होते अपमान, छेड़छाड़, हमले, एसिड फैंकना, कन्या भू्रण हत्याएं, बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं से ले कर उनके अंग-भंग करना और हत्याएं जैसे अपराध क्या अब तक बंद हुए? जितने कानून बने, जितने रोकने के प्रयत्न किए गए, उतनी ही ये घटनाएं बढ़ीं। इसका मतलब हुआ, हमारे समाज का नजरिया ही स्त्रियों के प्रति अनुदार है। क्रूर और अपराध युक्त है। मानसिक रूप से बीमार समाज की पहचान है यह।

डॉ अंबेडकर ने संविधान में विशेष रूप से दो धाराएं स्त्रियों की सुरक्षा के लिए रखीं--धारा 14 तथा 15 जिनमें स्त्रियों को कानून की नजर में समानता का अधिकर दिया गया है। पन्द्रहवीं धारा में स्पष्ट उल्लेख किया गया है--राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान अथवा इनमें से किसी के भी आधार पर उनमें विभेद नहीं करेगा। राज्य में सबको समान माना जाएगा।

प्राचीन काल में भले भारतीय नारियों की स्थिति कुछ बेहतर रही हो पर मनुस्मृति के संरचना के बाद स्त्रियों के दमन का जो इतिहास भारत में चला, वह अत्यंत दुखद है। महाकाव्यों के काल में भी स्त्री के प्रति मनुष्य का भोगवादी दृष्टिकोण रहा। अग्नि परीक्षाएं लेने के बाद भी स्त्रियों को निर्दोष नहीं माना गया। घर से निकाल कर जंगलों भटकने के लिए छोड़ दिया गया। जुएं में स्त्रियों को पुरुष वस्तु की तरह हार गए। भरी सभा में उन्हें निर्वस्त्र किया गया और सारे आदरणीय, माननीय महापुरुष, सत्ताधीश सिर झुकाए वह सब होता देखते रहे!

इन सब बातों को लेकर मैंने बहुत बार ट्वीट किया- तकलीफदेह बातें हम जितनी जल्दी हो सके, भुला दें। जिससे अच्छी और खुशी देने वाली बातों के लिए दिमाग में जगह खाली हो जाए। लिखा कि कविताओं-कहानियों में ही हम सपनों की रानी न बनें। जिंदगी में भी हम उम्मीदों की किरन बनें। हम दिन-रात सड़कों पर आंखें झुकाए, कंधे डाले, सिर नीचा किए न चलें। सिर उठा कर समाज में हर किसी की आंखों में आंखें डाल कर अपने अस्तित्व की धमक का एहसास कराएं! हम जिंदगी को भार की तरह न जिएं। भरे-पूरे तरीके से, हंसी-खुशी और उत्साह से पूर्ण जिएं। अपने पति या पुरुष साथी का आसमान बनने की कीमत पर हम धरती की धूल न बनें। हम अपने को दमित, दलित, असहाय, निर्बल-दुर्बल मान कर शहीदाना अंदाज न अपनाएं। तन कर खड़े होने का साहस दिखाएं।

सवाल तमाम हैं। समस्याएँ अनेक हैं। चौतरफा षडयंत्रों के चक्रव्यूहों मे हम अभिमन्यु की तरह घिरी स्त्रियां अपने जीवन-मरण का संघर्ष कर रही हैं। क्या समाज हमारे इस दर्द को समझेगा? या हम आजीवन मीरा की तरह करुण गीत गाती रहेंगी--मेरा दरद न जाने कोय!

The Present Condition of Women by Dr Samvedana Duggal
Viewing all 488 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>