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डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया की रचनाधर्मिता: 'नदी का बहना मुझमें हो‘ के सन्दर्भ से - लेखक- अवनीश सिंह चौहान

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 डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया
समय : 1 5 जुलाई 1 9 2 7 - 0 7 अगस्त 2 0 1 3

वरिष्ठ नवगीतकार डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया का पी जी आई, लखनऊ में उपचार के दौरान बुधवार की सुबह निधन हो गया। वे कई दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। डॉ शिव वहादुर सिंह भदौरिया का जन्म १५ जुलाई १९२७ को जनपद रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव धन्नीपुर (लालगंज) में हुआ। 'हिंदी उपन्यास सृजन और प्रक्रिया' पर कानपुर विश्व विद्यालय से पी एच डी की उपाधि। पुलिस विभाग की नौकरी छोड़ शिक्षक बने।  प्रारंभ में कुछ दिन पुलिस विभाग में अपनी सेवा अर्पित करने के बाद १९६७ से १९७२ तक वैसवारा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी प्रवक्ता से लेकर विभागाध्यक्ष तक के पद पर कार्य किया। तत्पश्चात प्राचार्य के पद से १९८८ में सेवानिवृत।सन१९४८ से आपने कविता करना प्रारंभ कर दिया था। लालगंज में निवास करते हुए अंतिम समय तक साहित्य साधना में लगे रहे। आप 'नवगीत दशक' तथा 'नवगीत अर्द्धशती' के नवगीतकार रहे तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में आपके गीत तथा कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। 'शिन्जनी' (गीत-संग्रह), 'पुरवा जो डोल गई' (कविता संग्रह), 'ध्रुव स्वामिनी (समीक्षा) ', 'नदी का बहना मुझमें हो' (नवगीत संग्रह), 'लो इतना जो गाया' (नवगीत संग्रह), 'माध्यम और भी' (मुक्तक, हाइकु संग्रह), 'गहरे पानी पैठ' (दोहा संग्रह)आदि आपके ग्रन्थ प्रकाशित। वे महामहिम राज्यपाल द्वारा जिला परिषद, रायबरेली के नामित सदस्य भी रहे। हाल ही में आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित 'राघव राग' पुस्तक प्रकाशित। आप मेरे परम पूज्य गुरुदेव स्व दिनेश सिंह जी के गुरूजी रहे। नवगीत के इस महान शिल्पी को पूर्वाभास की ओर से विनम्र श्रृद्धांजलि!

रिष्ठ कवि डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया मानवीय मन एवं व्यवहार के विभिन्न आलम्बनों और आयामों को बड़ी बारीकी, निष्पक्षता और दार्शनिकता के साथ अपनी गीत-संग्रह ‘नदी का बहना मुझमें हो‘ में प्रस्तुत करते हैं। उनकी यह प्रस्तुति उनके जीवन के गहन चिन्तन, संवेदनात्मक मंथन और सामाजिक सांस्कृतिक संचेतना को मुखरित करती है। मंच पर उनकी वाणी में उत्साह एवं उमंग, उनके मन की गतिमान विविध तरंगों और रचनाओं के वातानुकूलित प्रसंगों को देख बरबस ही सबका मन मोह जाता, और जब उनकी इस जीवन्त मेधा को पाठक लिपिबद्ध पाते तो वे ‘वाह‘-‘वाह‘ की अन्तध्र्वनि से रोमान्चित हो जाते। उनकी विषयवस्तु का दायरा बड़ा ही व्यापक है-चाहे गांव की माटी हो, खेतों की हरियाली, ‘शहरों की कंकरीट, आसमान में उमड़ती-घुमड़ती घटायें हों या हों जीवन के आधुनिक संदर्भ-सब कुछ बड़ी ही सहजता से गीतायित हो जाता है, उनकी रचनाओं में। देखा जाय तो इस कवि का साहित्य जीवन के सतरंगी अनुभवों का अद्भुत गुलदस्ता है।

डॉ. भदौरिया के इस संग्रह के गीतों में कभी तो हृदय के टूटते तारों की संताप भरी कराह का मर्मस्पर्शी चित्रांकन दिखाई पड़ता है तो कभी परिलक्षित होती है फूल-पाती से बनी सावनी-सुकून भरी छांव, जिसके तले न केवल कवि स्वयं, बल्कि पाठक भी कुछ पल चैन से ठहर-बसर कर भाव विभोर हो जाते हैं और कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि मानों कवि एक कुशल किसान की भांति क्रांति के बीज बो रहा हो तथा समाज एवं राष्ट्र के विच्छिन्न होते सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, नैतिक और राजनैतिक ढांचे की ओर संकेत कर सोये हुये पतनोन्मुख मानवों को सजग कर रहा हो। जो भी हो कवि की प्रखर संवेदना एवं प्रोत्कंठ भावुकता पाठकों-श्रोताओं को आल्हादित एवं सचेत करने के साथ-साथ उन्हें नीतिपरक और खुशहाल समाज तथा राष्ट्र के निर्माण में जुट जाने की प्रेरणा भी प्रदान करती है।.

डॉ. भदौरिया अपने गीत संग्रह ‘‘नदी का बहना मुझमें हो‘‘ में ऋषि दधीचि की तरह अपना सम्पूर्ण मनोधन मानव मात्र के कल्याण हेतु समर्पित करने को संकल्परत लगते हैं। वह बाबा तुलसीदास की अमर पंक्ति-‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई‘ को जीवन में उतारते प्रतीत होते हैं। नदी बन कर जहां एक ओर वे आध्यात्मिक संवादों से हृदय को हृदय से जोड़ने का प्रयास करते हैं, वहीं सौहार्द, सहयोग, समानता और बन्धुत्व को बढ़ाने और अभावग्रस्त परित्यक्त और पीड़ित मानवों को सुखी करने के लिए अपनी वैचारिक आहुति देते दिखाई पड़ते हैं, ‘‘ध्येय है/ हर एक प्यासे कंठ को/परितृप्त करना‘‘।

कवि चाहता है कि नदी की भांति ही उसकी वैचारिकता का प्रवाह धरा-धाम पर होता रहे, और उसकी चेतना एवं संजीवनी प्रभाव मानव मात्र को स्फूर्ति एवं उत्साह का संचार करती रहे। कवि की यह लोक हितकारी संकल्पना उसकी मानवीय सोच, सामाजिक प्रवृत्ति, सांस्कृतिक भागीदारी, स्वस्थ एवं सुन्दर हरे-भरे वातावरण को बनाने की चाह तथा थके-हारे मन को ऊर्जा देने की उत्कंठा पर टिकी है। यह उसकी एक कोशिश है-एक बहुत बड़ी कोशिश-जोकि उसके बुलन्द इरादे, दृढ़ इच्छा‘शक्ति एवं दायित्वबोध का रूपायन करती है। वह परम सत्ता में अटूट विश्वास रखते हुए सच्ची आस्था एवं धार्मिक सहिष्णुता के प्रचार-प्रसार में अपनी सम्पूर्ण ‘शक्ति को खपा देने की चाहत भी रखता है। तभी तो उल्लासित हो वह अतुलनीय कोशिश करता है।

मेरी कोशिश है
कि/ नदी का बहना मुझमें हो।

तट से सटे कछार घने हों
जगह जगह पर घाट बने हों
टीलों पर मंदिर हों जिनमें
स्वर के विविध वितान तने हो
भीड़/ मूच्र्छनाओं का
उठना-गिरना मुझमें हो। 

कवि भदौरिया जी का मानना है कि संसार में जीव-जन्तु, अच्छाई-बुराई, सुख-दुःख, गरीबी-अमीरी, सबलता-निर्बलता, आदि का अपना-अपना महत्व है। सो इन सबके प्रति उनकी दृष्टि विलक्षण है। वह उक्त सभी को सहृदयता से स्वीकारते हुए उनमें समायोजन, सन्तुलन, सद-संपर्क एवं अच्छे संस्कार स्थापित करने में अपने आपको एक कड़ी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। साथ ही वह समान भाव से सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं को सहारा देने की कामना भी रखते हैं। यथा-

जो भी प्यास पकड़ ले कगरी
भर ले जाये खाली गगरी
छूकर तीर उदास न लौटें
हिरन कि गाया कि बाघ कि बकरी

मच्छ, मगर/घड़ियाल
सभी का रहना मुझमें हो।

यह कवि पर-पीड़ा को भलीभांति समझता है। वह तो जीव मात्र की पीड़ा दूर करने हेतु अपने आपको होम कर देना चाहता है। उसे अपनी चिन्ता नहीं, उसे तो दुखियों पीड़ितों की चिन्ता सालती है। वह तो बीमार, शोषित, भूखे-प्यासे, निरीह एवं व्याकुल प्राणियों को सुखी देखना चाहता है। इस सद एवं शोभनीय कार्य के लिए वह अपने आपको एक बलिदानी सेवक के रूप में प्रस्तुत करता है:-

मैं न रुकूं संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काट कर नहरें
ले जायें-पानी ऊसर में

जहां कहीं हो/ बंजरपन का
मरना मुझमें हो।

डॉ. भदौरिया के गीत समकालीन जीवन और उसके कटु सत्य को आकार देते हैं, मानव और प्रकृति के बीच यंत्रवत होते रिश्तों के कारणों के साथ प्रकृति की मनोहर झांकियों को प्रस्तुत करते हैं, आपसी स्नेह, आत्मदान और पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों की भावना को जाग्रत करते हैं, और अपनी मातृभूति, अपनी संस्कृति, अपनी विरासत और अपनी मूल्यों को पूरी निषठा से व्यंजित प्रतीत होते हैं। तभी तो ये गीत कालजयी बन गये।

गीतकार भदौरिया जी के गीत ‘‘एक अनुग्रह‘‘ में जॉन मिल्टन एवं निराला जी सरीके महान साहित्यकारों की भांति ज्ञान की देवी सरस्वती से सत्य को जानने, ज्ञानानन्द को पाने और अपने अन्दर की रिक्तता को भरने की सरस याचना की गयी है-

साज मिलाते, स्वर संभालते
जो गाना था/ वह न गा सके
सृजन नृत्य-गति, लय अखण्ड अति
जो पाना था वह न पा सके

उस आनन्द/ नृत्य से छिटका
घुंघरू, पुनः नियोजित कर दे

गीतकार का मानव जीवन के प्रति नजरिया सन्तुलित, पारदर्शी एवं सटीक है। वह जीवन की विभिन्न लयों को गंभरीता से पिरोता है। उसका मानना है कि जीवन जीने का नाम है और इसके लिए जीने की कला को जानना निहायत जरूरी है। अन्यथा जीवन में सफल हो पाना इतना आसान नहीं। वह यह भी जानता है कि जीने में कई बार मरना पड़ता है आदर्शो को ताक पर रखना पड़ता है और अनचाहे समझौते करने को विवश होता है आदमी। भौतिक संसाधन उसे पूरी तरह से तृप्त नहीं कर पाते और यह भी सच है कि बिना उपयोगी एवं जरूरी संसाधनों के चल पाती है किसी विरक्त-संन्यासी की जीवन नौका। इससे कवि कहने को विवश हो उठता है-
जीकर देख लिया
जीने में
कितना मरना पड़ता है।

अपनी शर्तों पर जीने की
एक चाह सबमें रहती है
किन्तु जिन्दगी अनुबंधों के
अनचाहे आश्रय गहती है

क्या-क्या कहना
क्या-क्या सुनना
क्या-क्या करना पड़ता है।

सच है कि जीने में मरना पड़ता है। किन्तु कभी-कभी जीने मरने के बीच का द्वन्द्व, कई मुश्किलें भी खड़ा कर देता है। ये द्वन्द्व, ये संघर्ष मानव को कई बार दुविधा में भी डाल देता है और तब वह सोचता रह जाता है कि आखिर क्या करे? ऐसी स्थिति में उसका मार्गदर्शन करने वाले, हौसला बढाने वाले विरले ही हैं और उन विरलों में एक नाम इस गीतकार का भी जोड़ा जा सकता है। उसका आग्रह देखिए-

गुनगुनाती जिन्दगी की
लय न टूटे देखियेगा

यह न हो, लोहा हमारे
सगे रिश्ते तोड़ दे
भूमि की हरियालियों को
मरुस्थलों में छोड़ दें

रंग रस मय
मधुर वृन्दावन
न छूटे देखियेगा।

आज का आदमी भैतिक उपलब्धियां अर्जित करने में इतना व्यस्त है कि अच्छा बुरा सोचने का भी उसके पास समय नहीं है। वह तो बिना सोचे-समझे तथा ‘ऐन केन प्रकारेण‘ अपना कार्य सिद्ध कर लेना चाहता है। उसके लिए अवसरवादिता, लाभेच्छा, कपट, छल, छद्म आदि जीवन में सफलता की कुंजी बन गये हैं। वह तो दुहरा-तिहरा जीवन जी रहा है-

आंखों पर पट्टियां बंधी हैं
कोल्हू की हैं परिक्रमायें
अजर्फन आवेशों के मुख पर
वृहन्नला कत्थक मुद्रायें

सिर्फ मुखौटे मृगराजों के
सीना-टांगे हैं भेड़ों की।

कवि भदौरिया जी इन बदली स्थितियों में आदमी का सटीक खाका खींचने के साथ-साथ उसके पतन के कारणों का भी विश्लेषण करते हैं। उनकी दृष्टि में वर्तमान व्यवस्था से उपजी विद्रूपताओं-विसंगतियों, गुण्डई, कर्ज, कमीशन, भ्रष्टाचार, कुशासन आदि ने समाज-राष्ट्र को कोढ़ी बना दिया है। वह व्यंग्यात्मक लहजे में कह उठते हैं-
नयी व्यवस्था तुझे बधाई
नस्ल दबंगों की उपजाई
तेरी पुण्य कोख से उपजे
कर्ज कमीशन जुड़वा भाई

सुविधा-शुल्क
लिए बिन दफ्तर
करें न मुंह से बात

अनुदानों के छत्ते काटे
आपस में अमलों ने बांटे
ग्राम विकास वही खाते में
दर्ज हुए घाटे ही घाटे

थोड़ा उठे
गिरे फिर ‘होरी‘
धंसे उठारह हाथ।

इसके बावजूद भी कवि मन भविष्य के प्रति आशान्वित है-

पूरब दिशा कन्त कजरायी
फिर आसार दिखे पानी के

पूरा जिस्म तपन का टूटा
झुर-झुर-झुर ढुरकी पुरवइया
उपजी सोन्धी गन्ध धूल में
पंख फुला लौटी गौरइया

सूखे ताल दरारों झांके
लम्बे हाथ दिखे दानी के।

कवि का सकारात्मक दृष्टिकोण हमें प्रकृति के मध्य ले जाता है और प्रतीकों-प्रतिमानों से हमें गुदगुदाने-हंसाने और तनावमुक्त करने की चेष्टा करता है-

भर हथेली में हथेली राग से
कसते हुए दिन आ गये।

फूल-पत्तों के नये श्रंगार ये
प्यार के पावों पड़े उपहार ये
खिलखिलाते खेत, हिलती डालियां
बाग से हंसते हुए दिन आ गये।

चूंकि आज आदमी न केवल प्रकृति से बल्कि अपने राष्ट्र से समाज से और कभी-कभी तो अपने आप से इतना कटता चला जा रहा है कि कवि मन इससे बहुत दुखी हो उठता है। इसीलिए, आपसी प्रेम-स्नेह बनाये रखने और बीच की दूरियां पाटने के लिए उसका सुझाव है कि-

बैठ लें कुछ देरी आओ
झील तट पत्थर-शिला पर।

लहर कितना तोड़ती है
लहर कितना जोड़ती हैं
देख लें कुछ देर आओ
पांव पानी में हिलाकर।

मौन कितना तोड़ता है
मौन कितना जोड़ता है
तौल लें औकात अपनी
दृष्टियों को फिर मिलाकर।

श्रद्देय भदौरियाजी के गीतों में समकालीन समय की संवेदनाओं को बखूबी संजोया गया है। वे शिल्प और कथ्य दोंनों ही स्तर पर पाठकों का मन मोह लेते हैं। कुल मिलाकर, उनकी गीत-रचनाएं मानवीय चिन्ताओं की लयात्मक अभिव्यक्तियां हैं और लोकमन, लोक संस्कृति एवं अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य की मधुर व्याख्याएं।

प्रबुद्ध गीतकार डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनके गीत, उनका साहित्य सदैव हमें ऊर्जा एवं प्रेरणा देता रहेगा- ऐसा मेरा विश्वास है। 

 चित्र में दाएँ से- अशोक वाजपेयी (आकाशवाणी के तत्कालीन समाचारवाचक), देवेन्द्र कुमार, माहेश्वर तिवारी, श्रीकृष्ण (प्रकाशक), उमाकन्त मालवीय, श्रीमती श्रीकृष्ण, शम्भुनाथ सिंह, सुरेश, शम्भुनाथ सिंह जी की साली, इन्दिरा गांधी, यशपाल जैन, राजेन्द्र गौतम, खंडेलवाल (सांसद), सोम ठाकुर, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, तथा पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर।

An Article on renowned Hindi poet Dr Shivbahadur Singh Bhadauriya by Dr Abnish Singh

यारों का यार अनिल जनविजय - भारत यायावर

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अनिल जनविजय एवं भारत यायावर 

बचपन से ही कठोर परिश्रम कर अपने को जीवंत बनाये रखने की कला में निपुण एवं वैश्विक ख्याति के श्रेष्ठ रचनाकार भारत यायावर का जन्म आधुनिक झारखंड के हजारीबाग जिले में 29 नवम्बर 1954 को हुआ। 1974 में आपकी पहली रचना प्रकाशित हुई थी, तब से अब तक देश-विदेश की छोटी-बड़ी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।'झेलते हुए' और 'मैं हूँ यहाँ हूँ' (कविता संग्रह), नामवर होने का अर्थ (जीवनी), अमर कथाशिल्पी रेणु, दस्तावेज, नामवर का आलोचना-कर्म (आलोचना)इनकी चर्चित पुस्तकें हैं। इन्होंने हिन्दी के महान लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवंफणीश्वरनाथ रेणुकी खोई हुई और दुर्लभ रचनाओं पर लगभग पच्चीस पुस्तकों का संपादन किया है। 'रेणु रचनावली', 'कवि केदारनाथ सिंह', 'आलोचना के रचना-पुरुष: नामवर सिंह'आदि का सम्पादन। रूसी भाषा में इनकी कविताएँअनूदित। नागार्जुन पुरस्कार (1988), बेनीपुरी पुरस्कार (1993), राधाकृष्ण पुरस्कार (1996), पुश्किन पुरस्कार- मास्को (1997), आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान- रायबरेली (2009) से अलंकृतसम्प्रति:विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में अध्यापन।संपर्क:यशवंत नगर, मार्खम कालेज के निकट, हजारीबाग, झारखण्ड, भारत। 

निल ! दोस्त, मित्र, मीत, मितवा ! मेरी आत्मा का सहचर ! जीवन के पथ पर चलते-चलते अचानक मिला
Art by Vishal Bhuwania
एक भिक्षुक को अमूल्य हीरा। निश्छल - बेलौस - लापरवाह - धुनी - मस्तमौला - रससिद्ध अनिल जनविजय ! जब उससे पहली बार मिला, दिल की धड़कने बढ़ गईं, मेरे रोम-रोम में वह समा गया। क्यों, कैसे? नहीं कह सकता। यह भी नहीं कह सकता कि हमारे बीच में इतना प्रगाढ़ प्रेम कहाँ से आकर अचानक समा गया? अनिल को बाबा नागार्जुन मुनि जिनविजय कहा करते थे। उन्होंने पहचान लिया था कि उसके भीतर कोई साधु-सन्यासी की आत्मा विराजमान है। वह सम्पूर्ण जगत को प्रेममय मानकर एक अखंड विश्वास और निष्ठा के साथ उसकी साधना करता है, जिस तरह तुलसीदास इस जगत को राममय मानकर वंदना करते थे -
जड़ चेतन जग जीव जल - सकल राममय जानि
बंदऊँ सब के पद कमल, सदा जोरि जुग पानि

वह प्रेम का राही है ! जो भी प्यार से मिला, वह उसी का हो लिया। इसके कारण उसने जीवन में बहुत दुख-तकलीफ उठाई है, काँटों से भरी झाड़ियों में भी कभी गिरा है, कभी अंधेरी खाइयों में। कई बार वह बेसहारा हुआ है। धोखा खाया है, ठगा गया है - पर कभी किसी को आघात नहीं पहुँचाई है, किसी का नुकसान नहीं किया है। ठोकर खाकर भी फिर ठोकर खाने के लिए तैयार खड़ा रहता है। वह अक्सर शमशेर बहादुर सिंह का यह शेर गुनगुनाता रहता है -

Uday Prakash ji, Kumkum ji and 
Anil Janvijay ji with his wife and younger son
जहाँ में और भी जब तक हमारा जीना होना है
तुम्हारी वारें होनी है, हमारा सीना होना है

28 जुलाई, 2013 को वह छप्पन साल का हो गया, तो मुझे आश्चर्य हुआ। पचपन साल की उम्र कम नहीं होती। आदमी बूढ़ा हो जाता है। तन और मन शिथिल। पर उसका तन अब भी जवान है और मन एक बालक की तरह तरल, सरल, विकार रहित। उसमें अब भी एक भोलापन है वह बेपरवाह है। झूठ-बेईमानी से वह कोसो दूर रहता है।

बचपन उसका अभावों से भरा था। असमय माँ की मृत्यु हो जाने से मानो उसकी हरी-भरी दुनिया ही लुप्त हो गई। एक बंजर और बेजान मनोभूमि में लम्बे समय तक रहकर भी उसने अपनी पढ़ाई को जारी रखा। फिर पढ़ाई करते हुए वह कविताएँ लिखने लगा। कविता ने उसे संबल दिया और एक जीवन-दृष्टि दी। 1977 में बीस वर्ष की उम्र में उसने एक कविता लिखी - ‘मैं कविता का अहसानमंद हूँ’। यह एक युवा कवि की अद्भुत कविता है। इसे आप भी पढ़िए - “यदि अन्याय के प्रतिकार स्वरूप तनती है कविता, यदि किसी आनेवाले तूफान का अग्रदूत बनती है कविता, तो मैं कविता का अहसानमंद हूँ।“ 
अनिल जी की बेटी 

उसकी कविताएँ पहली बार 1977 ई॰ में ‘लहर’ में छपीं और 1978 ई॰ में ‘पश्यंती’ के कविता-विशेषांक में। वह दिल्ली से प्रकाशित उस समय की ‘सरोकार’ नामक पत्रिका से जुड़ा था और उसमें पहली बार उसके द्वारा अनूदित फिलीस्तीनी कविताएँ छपी थीं। यहीं से उसकी कविता और काव्यानुवाद का सिलसिला शुरू हुआ और साथ ही साथ 1978 ई॰ के प्रारम्भ से ही मेरे से पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। मैं भी तब नवोदित था और हजारीबाग से ‘नवतारा’ नामक एक लघु-पत्रिका निकालता था। अनिल ने दिल्ली में हुई एक साहित्यिक गोष्ठी की रपट मुझे भेजी थी, जिसे मैंने प्रकाशित किया था। फिर उसकी कुछ लघुकथाएँ भी मैंने ‘नवतारा’ में प्रकाशित की थी। हमलोगों में पत्राचार के द्वारा जो संवाद शुरू हुआ वह बाद में प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गया। उससे पहली बार भेंट 1980 ई॰ के अक्टूबर महीने में हुई जब मैं रमणिका गुप्ता (जी) के साथ दिल्ली गया था और कस्तूरबा गांधी रोड में उनके पति के निवास पर ठहरा था। तब अनिल का पता था - 4483, गली जाटान, पहाड़ी धीरज, दिल्ली - 6, इसी पते पर वह पत्राचार करता था। यहाँ उसकी बुआ रहती थी, जो अनिल को अपने बेटे की तरह मानती थीं। मैं खोजते-खोजते जब वहाँ पहुँचा तो अनिल तो नहीं मिला, किन्तु उसकी बुआजी अनिल के नाम लिखे मेरे पत्रों को पढ़ती रहती थीं और मुझे बखूबी जानती थीं। जब मैंने अपना नाम बताया, तब उन्होंने मुझे नाश्ता-चाय करवाई और देर तक बातचीत की। अनिल ने तब जे॰एन॰यू॰ के रूसी भाषा विभाग में अपना दाखिला ले लिया था और सप्ताह में एक दिन अपनी बुआ से मिलने आता था। मैंने अपना दिल्ली-प्रवास का पता वहाँ लिखकर छोड़ दिया। उस समय राजा खुगशाल से भी मेरा पत्राचार होता था। वह नेताजी नगर में रहता था। वहाँ पहुँचा तो मालूम हुआ कि शकापुर में नया किराये का आवास ले लिया है और वहीं चला गया है। पड़ोसी ने बताया कि अभी कुछ सामान ले जाना बाकी है, इसलिए वे फिर आएँगे। मैंने राजा के नाम भी एक पत्र वहाँ छोड़ दिया। कुछ ही दिनों बाद अनिल और राजा दोनों मेरे से मिलने आए। अलग-अलग। अनिल मुझसे मिला और मुझे अपने साथ जे॰एन॰यू॰ ले गया। उसी समय हमने केदारनाथ सिंह का इण्टरव्यू लिया। मैंने तब एक लम्बी कविता लिखी थी - ‘झेलते हुए’। अनिल ने ही उसे शाहदरा से तीन-चार दिनों के भीतर छपवा दी थी और उस कविता पर एक छोटी-सी टिप्पणी भी लिखी थी जो इस प्रकार है: 

“1980 कविता के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। एक तरह से इस वर्ष कविता पुनः साहित्य की मुख्य विधा के रूप में उभर कर आयी है। न केवल आज के प्रमुख कवियों की कविताएँ बल्कि अनेक पुराने और बेहद पुराने कवियों के संग्रह भी इस वर्ष आये हैं। कविता के ऐसे समय में किसी नये कवि के लिए अचानक उभरना और साहित्य में अपना स्थान बना लेना बेहद कठिन है।"

भारत यायावर अपनी कविताओं की प्रखरता की बजह से इस संघर्षविपुल वर्ष में ही उभर कर आये हैं। यायावर ने बहुत कम लिखा है; पर जो भी लिखा है, जितना भी लिखा है, उसमें उनकी चेतनासम्पन्न संवेदनशीलता के चलते वे सभी स्थितियाँ उजागर होती हैं, जिनसे आज का आम आदमी जूझ रहा है। हमारे देश का तथाकथित जनतंत्र और निठल्ली व्यवस्था किस तरह व्यक्ति को सामर्थ्यहीन और दुर्बल बना देती है, इसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति वे अपनी कविताओं में कर पायें हैं।

भारत यायावर की कविता ‘झेलते हुए’ उनके उन दिनों की उपलब्धि है, जब वे भयानक मानसिक तनावों से जूझ रहे थे। हो सकता था इन तनावों के रहते वे अन्तर्मुखी होकर निस्संग निजता की रचनाएँ भी रचने लग जाते पर अपने मानवीय बोध की सम्पन्नता, सहजता और निरन्तरता के कारण उनकी दृष्टि आत्मनिष्ठता की न होकर आत्मनिष्ठ वस्तुनिष्ठता की रही, जिसके चलते वे इतनी सार्थक कृति देने में सक्षम हो सके।“
इतना प्रांजल और सधा हुआ गद्य अनिल जनविजय उस समय लिखता था। मुझे याद है 1982 ई॰ की गर्मियों में मैं जब उसके साथ लम्बे समय तक जे॰एन॰यू॰ के पेरियार हॉस्टल में था, तब उसने अज्ञेय के कविता-संग्रह ‘नदी की बाँक पर छाया’ पर एक अद्भुत समीक्षा लिखी थी, जो ‘आजकल’ में छपी थी और जिसे अज्ञेय ने बड़ी ही रुचि लेकर पढ़ी थी। और लोगों से इसकी चर्चा भी की थी। अनिल ने छिटपुट गद्य-लेखन किया है, कविताएँ भी कम लिखी हैं, पर बहुत ज्यादा संख्या में विदेशी कविताओं के हिन्दी अनुवाद किए हैं।

अनिल और राजा से मेरी दोस्ती का सिलसिला तब से अब तक बरकरार है और ताउम्र यह चलता रहेगा।
अनिल जनविजय जी अपने पिताजी और छोटे बेटे के साथ 
जीवन के अनेक प्रसंग हैं, जिन्हें यदि लिपिबद्ध किया जाए तो एक मोटा ग्रंथ बन जाए। उन्हें छोड़ रहा हूँ। अनिल के साथ मैं जितना भी रहा हूँ, वे मेरे प्रेम और हरियाली के क्षण हैं, जिन्हें भुलाना मेरे लिए मुश्किल है।
1981 ई॰ के दिसम्बर महीने में अनिल पहली बार हजारीबाग आया था। करीब एक सप्ताह के बाद हमदोनों रमणिका गुप्ता के साथ पटना गए थे। वहाँ नंदकिशोर नवल, अरुण कमल से भेंट हुई थी। 1981 ई॰ में ही पटना से प्रकाशित ‘प्रगतिशील समाज’ (जिसका मैं हंसराज के साथ संपादन करता था) के दो अंक कवितांक के रूप में निकले थे, जिसकी सामग्री अनिल की ही संयोजित की हुई थी। हंसराज का असली नाम श्यामनंदन शास्त्री था और वे पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक थे। हम उनसे भी मिले थे। उनसे कवितांक के अतिथि संपादक के रूप में जो उसने काम किया था, पारिश्रमिक के रूप में दो सौ रुपये अनिल को मिले। इस राशि से राजकमल प्रकाशन के पटना शाखा से उसने किताबें खरीदी थीं और एक नवोदित कवि को भेंट कर दी थी। पटना से हम भोपाल गए थे और राजेश जोशी के घर ठहरे थे। वहाँ उदय प्रकाश से पहली बार भेंट हुई थी। भोपाल से फिर जबलपुर गए थे और ज्ञानरंजन जी के यहाँ पहली बार हमारा जाना हुआ था। उसी समय हरि भटनागर और लीलाधर मंडलोई से पहले-पहल मिलना हुआ था। वहाँ से हम इलाहाबाद आ गए थे। उसी यात्रा के दौरान अनिल और मैंने विपक्ष-सीरीज में वैसे युवा कवियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना बनाई थी, जिनके संग्रह प्रकाशित नहीं हुए थे। इसी सीरीज के अन्तर्गत मैंने मार्च, 1982 ई॰ में स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता-पुस्तिका ‘ईश्वर एक लाठी है’ प्रकाशित की थी। 1982 के जून महीने में मैंने अनिल जनविजय का कविता-संग्रह ‘कविता नहीं है यह’ प्रकाशित किया था। यहाँ यह भी बता दूँ कि इस सीरीज के अन्तर्गत बाद में राजा खुगशाल, श्याम अविनाश, उमेश्वर दयाल और हेमलता के संग्रह मैंने प्रकाशित किए थे। इसी के अन्तर्गत ‘समकालीन फिलीस्तीनी कविताएँ’ नामक पुस्तक भी छपी थी, जिसका अनुवाद अनिल ने ही किया था।

अनिल को रूसी भाषा और साहित्य में उच्च अध्ययन के लिए सोवियत सरकार की फेलोशिप मिली ओर अगस्त, 1982 ई॰ में मास्को विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वह मास्को चला गया। वहाँ उसने 1989 में मास्को स्थित गोर्की लिटरेरी इंस्टीट्यूट से सर्जनात्मक लेखन में एम.ए. की डिग्री हासिल की। वह 1984 ई. में वहीं की एक लड़की नाद्या के साथ विवाह-बंधन में बंध चुका था। 1985 ई. में उसकी बेटी रोली का जन्म हुआ, जो जापानी भाषा में एम.ए. कर टोक्यो विश्वविद्यालय में जापानी भाषा-साहित्य की प्राध्यापक है। 1996 ई॰ में उसने स्वेतलाना कुज़मिना नामक एक लड़की से शादी की, जिससे उसके तीन बेटे हैं - विजय, वितान और विवान। तीनों बेटे अभी पढ़ रहे हैं। नाद्या से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है। 

वह घर-गृहस्थी में रमा हुआ है। पर उसके हृदय में सबसे अधिक प्यार कविता के प्रति है। यह प्यार ऐसा है जो उसके दिल में इतना रचा-बसा है कि निकलने का नाम ही नहीं लेता। उसने अपनी लाखों की राशि खर्च कर अन्तर्जाल पर हिन्दी-कविता के लिए ऐतिहासिक महत्त्व का काम करवाया - ‘कविता-कोश’। वह रोज कविता लिखना चाहता है, पर बहुत कम लिख पाता है। अपनी पचपन वर्ष की उम्र में अब तक उसने संख्या में सौ कविताएँ भी नहीं लिखी हैं। वह कविता लिखने बैठता है, तो अनुवाद करने लग जाता है। इसलिए वह कवि बनते-बनते रह गया और एक सफल तथा अच्छा अनुवादक बन गया। ‘कविता नहीं है यह’ में उसकी 1982 तक की कविता है। 1990 तक की लिखी कुछ और कविताएँ जोड़कर 1990 ई॰ में उसका दूसरा कविता-संग्रह छपा ‘माँ बापू कब आएँगे’ इसे उसने उदय प्रकाश के आग्रह पर छपवाया और 2004 में कुछ कविताओं की और इजाफा हुई तो उसका तीसरा संग्रह आया ‘रामजी भला करें’। यह उसकी एक लघु कविता है किन्तु बेहद अच्छी -
ऐसा क्यों हुआ है आज
हिंदू से मुस्लिम डरें
कैसा जमाना आ गया
रामजी भला करें

अब भी वह इस तरह की छोटी मगर सार्थक कविताएँ लिख लेता है, पर कभी-कभार। कभी-कभी वह तुक-बंदियाँ भी कर लेता है। तुक मिलाने में वह आधुनिक कविता का मैथिलीशरण गुप्त है। एक तुकबंदी उसने मुझको भी लेकर लिखी है। इस कविता में मेरे से उसके असीम लगाव के साथ-साथ अपनी धरती से विलग होने की मर्मांतक पीड़ा भी है:
भारत, मेरे दोस्त ! मेरी संजीवनी बूटी
बहुत उदास हूँ जबसे तेरी संगत छूटी
संगत छूटी, ज्यों फूटी हो घी की हांडी
ऐसा लगता है प्रभु ने भी मारी डांडी
छीन कविता मुझे फेंक दिया खारे सागर
औ’ तुझे साहित्य नदिया में, भर मीठा गागर
जब-जब आती याद तेरी मैं रोया करता
यहाँ रूस में तेरी स्मृति में खोया करता
मुझे नहीं भाती सुख की यह छलना माया
अच्छा होता, रहता भारत में कृशकाया
भूखा रहता सर्दी-गर्मी, सूरज तपता, बेघर होता
अपनी धरती अपना वतन अपना भारत घर होता
भारत में रहकर, भारत, तू खूब सुखी है
रहे विदेस में देसी बाबू, बहुत दुखी है।

अपनी धरती, अपने यार-दोस्त से कटकर मास्को में रहता हुआ वह बेचैन रहता है। इसलिए जब भी आर्थिक स्थिति होती है वह दिल्ली आ जाता है। साल में एक-दो बार। यहाँ उसे चाहने वालों की भरमार है, पर वह सबसे नहीं मिल पाता। वह चाहता है सब दोस्तों से मिले - गले लगकर और जी भर कर बतियाये, हँसी-मजाक करे, लड़े-झगड़े, मौज-मस्ती करे। मुझसे तो मिले बरसों हो जाते हैं। मैं दिल्ली से दूर रहता हूँ और दूर के मित्रों से मिलना थोड़ा मुश्किल होता है। पर अनिल एक नम्बर का गप्पी है। बतरस में उसे बहुत मजा आता है। खाना मिले या नहीं, बतरस का सुख होना चाहिए। वह नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन से बराबर मिलता था, पर उसे बतरस का मजा त्रिलोचन के साथ मिलता था। 1980 ई॰ में उसने संभावना प्रकाशन के लिए त्रिलोचन का कविता-संग्रह ‘ताप के तापे हुए दिन’ शाहदरा में छपवाया था, जिसका संपादन राजेश जोशी के द्वारा किया गया था। 28 जुलाई 1980 को जब अनिल का चौबीसवाँ जन्मदिन था, किताब छपकर आई और वह उसकी एक प्रति त्रिलोचन को देने उनके पास पहुँचा। किताब देखकर त्रिलोचन खुश हुए और वह प्रति उन्होंने अनिल को इन शब्दों में समर्पित कर दी - “अनिल जनविजय को, जो कवि तो हैं ही, बतरस के अच्छे साथी भी हैं।“ अनिल ने उस किताब के अंत में एक तुकबंदी लिख दी, जो उसके कविता-संग्रह में नहीं है -
हिंदी के संपादक से मेरी बस यही लड़ाई
वो कहता है मुझसे, तुम कवि नहीं हो भाई
तुम्हारी कविता में कोई दम नहीं है
जनता की पीड़ा नहीं है, जन नहीं है
इसमें तो बिल्कुल भी अपनापन नहीं है
नागार्जुन तो हैं पर त्रिलोचन नहीं है

पर अनिल जनविजय, जो कवि तो हैं ही - जो कहता है वह मूर्ख है कि वह कवि नहीं है। कविता तो उसकी आत्मा में रची-बसी है। उसके भीतर यदि नागार्जुन है तो शमशेर भी और बतरस में तो वह त्रिलोचन का पक्का शिष्य है।

मुझे याद आता है, 5-6 जून, 1982 में इन्दौर में प्रगतिशील लेखक संघ के द्वारा ‘महत्त्व त्रिलोचन’ नामक एक आयोजन हुआ था। तब मैं अनिल के साथ ही जे.एन.यू. में ठहरा हुआ था। दिल्ली से उस समारोह में भाग लेने नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, राजकुमार सैनी, दिविक रमेश के साथ हम दोनों भी एक ही रेलगाड़ी के एक ही कोच में बैठकर गए थे। बाबा नागार्जुन और केदार जी ऊपर के बर्थ पर जल्दी ही सोने चले गए थे। बाकी लोग त्रिलोचन के साथ बतरस में जुट गए। चर्चा के बीच में त्रिलोचन ने बताया कि दिविक रमेश में ‘दिविक’ का अर्थ है - दिल्ली विश्वविद्यालय कवि। मैंने कहा कि इसका दूसरा अर्थ है - दिशा विहीन कवि ! अनिल जनविजय ने तुरत तुक जोड़ दिया - और दिमाग विहीन कवि। दिविक रमेश मुस्कुराते रहे, गुस्सा नहीं हुए - यह उनका बड़प्पन था। फिर त्रिलोचन ने कवित-सवैयों की चर्चा शुरू की। यह विषय राजकुमार सैनी का प्रिय था। मैंने भी तब मध्यकालीन ब्रजभाषा काव्य के कई सवैये सुनाए। त्रिलोचन के पास तो कवित-सवैयों का अपार भण्डार था। उन्हें वे सहज भाव से धाराप्रवाह सुना रहे थे। बाबा नागार्जुन ऊपर के बर्थ पर सोये-सोये इस काव्य-चर्चा का आनंद ले रहे थे। और लगभग साढ़े ग्यारह बजे रात्रि से त्रिलोयन की सॉनेट-चर्चा शुरू हुई। आधा घंटा तक वे अनवरत सॉनेट की शास्त्रीय चर्चा करते रहे, तभी अचानक बाबा नागार्जुन ने तमतमाये चेहरे के साथ नीचे झाँका और त्रिलोचन को डाँटा - “सॉनेट-सॉनेट सुनते-सुनते कान पक गए। बहुत हो गया सॉनेट ! त्रिलोचन, अब छोड़ो इस सॉनेट की चर्चा, सोने दो !!“ त्रिलोचन चुपचाप सिकुड़कर चादर ओढ़कर सो गए और हम भी सो गए।

हम सुबह भोपाल पहुँचे। वहाँ राजेश जोशी, भगवत रावत आदि कई कवि अगवानी के लिए मौजूद थे। वहाँ चाय पीकर, सड़क मार्ग से हम लोग इन्दौर गए। ‘महत्त्व त्रिलोचन’ में शमशेर जी भी पहुँच गए थे। दोनों दिनों की गोष्ठी काफी अच्छी रही थी। उस गोष्ठी में उदय प्रकाश भी पहुँच गए थे और मुझे अपने साथ एक घंटे के लिए ले गए थे। अनिल ने पूरी गोष्ठी की रपट मोती जैसे अक्षरों में लिखकर ‘साक्षात्कार’ में छपने दिया था। उसने ‘साक्षात्कार’ के संपादक सुदीप बनर्जी को एक पत्र लिखकर दिया था कि इस पर मिलने वाला मानदेय छपने के बाद भारत यायावर को दे दिया जाए। मुझे याद है, अगस्त, 1982 के अन्त में वह आगे के अध्ययन के लिए मास्को चला गया था, उसके बाद उसकी लिखी रपट का पारिश्रमिक पचास रुपये का मनिऑर्डर मुझे मिला था।
अनिल का ऐसा ही व्यक्तित्व है। बेहद मेहनती। कमाऊ। पर संग्रह करने की उसकी प्रवृत्ति नहीं है। जो भी मिला, उसे घर-परिवार में खर्च कर दिया। और बचा तो मित्रों में बाँट दिया। इतना शाहखर्च मैंने किसी और को नहीं देखा। वह यारों का यार है। सैकड़ों ही नहीं, उसके हजारों मित्र हैं। उस जैसा यारबाज आदमी इस दुनिया में मिलना मुश्किल है। मेरी और उसकी यारी नैसर्गिक है। हमारा दिल का रिश्ता है। इसीलिए मैंने अपना पहला कविता-संग्रह ‘मैं हूँ, यहाँ हूँ’ उसे ही समर्पित किया है। उसने मुझपर कई कविताएँ लिखी हैं और मैंने भी उसपर जम कर लिखा है। मेरे दूसरे कविता-संग्रह ‘बेचैनी’ में उस पर दो कविताएँ हैं - ‘दोस्त’ और ‘दोस्त ऐसा क्यों हुआ’ ? ‘दोस्त’ कविता की प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं -
“दोस्त हजारों मील दूर/विदेश में है/लिखता है हर सप्ताह पत्र/ दुनिया के एक बड़े महानगर में रहता हुआ/ मेरे गाँव की पूरी तस्वीर देखता है -/ मेरे घर की गोबर लिपी धरती की गंध को/ मेरे खतों में पाता है/ और भावुक हो उठता है।“
‘दोस्त, ऐसा क्यों हुआ ?’ नामक कविता में मैंने लिखा था - “दोस्त, ऐसा क्यों हुआ/ कि तुम हमेशा सोचते पागल हुए मेरे लिए/ मैं तुम्हारे हेतु क्यों बेचैन घूमता ही रहा ? ... दोस्त, ऐसा क्यों हुआ/ कि अपने मस्तक पर लिये/ पत्थर तनावों के चले हम/ फिर भी हँसते ही दिखे चेहरे हमारे !/ दोस्त, कब तुमसे कहा?/ तुमने कब मुझसे कहा?/ फिर भी हमने तो सुनी बातें हृदय की/ बातों में उलझी हुई साँसें समय की/ समय की आँखों से बहते अश्रुओं को/ हाथ में रखकर चले हम साथ-साथ!”

अनिल और मेरा प्रारम्भिक जीवन बेहद अभाव और दुख-तकलीफ से भरा रहा है। पर हममें कर्मठता है, क्रियाशीलता है, लगन है, जो हमें जीवंत बनाए रहता है। वह बेलौस आदमी है। निखालिस आदमी - जो किसी से ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता, जिसके मन में किसी के प्रति गाँठ नहीं है। वह भोला-भला इन्सान है; ठीक रेणु के हीरामन की तरह। भावुक, संवेदनशील और प्रेमी इन्सान ! वह पूरी तरह प्रेम से पगा है। जो भी उससे प्रेम से मिलता है, प्रेम से बातें करता है, वह अपना प्यार भरा दिल उसे सौंप देता है और मुस्कुराता रहता है। इसलिए आज की लाभ-लोभ भरी दुनिया में वह अजब, अलबेला, अनोखा और निराला लगता है। उसे अतीत की परवाह नहीं, भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं सोचता - सिर्फ वर्तमान में जीता है। पचपन की उम्र में भी इसीलिए वह जवान है, जिंदादिल है।

Yaron ka Yar Anil Janvijay- Bharat Yayavar

डा. शंकर दयाल सिंह जन भाषा सम्मान के लिए नामांकन प्रक्रिया

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स्व. डा. शंकर दयाल सिंह

गाज़ियाबाद: डा० शंकर दयाल सिंह जन भाषा सम्मान २०१३ के लिए नामांकन प्रक्रिया आरम्भ हो गई है. नामांकन-पत्र पारिजात की वेब साईट (www.parijat.co.in)पर उबलब्ध है. पूर्ण तौर पर भरे हुए नामांकन-पत्र सचिव, डा० शंकर दयाल सिंह जन भाषा सम्मान समिति, १४०२ त्रिशूल, कौशाम्बी, गाजियाबाद – २०१०१० पर १५ नवम्बर २०१३ तक भेजे जा सकते हैं. इस तिथि के बाद आने वाले नामांकन-पत्रों पर विचार नहीं किया जा सकेगा. नामांकन सादे कागज़ या लैटर पैड पर भी भेजे जा सकते हैं. 

कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था जो कम से कम तीन वर्षों से हिन्दी भाषा के विकास में संलग्न हो, इस सम्मान के योग्य समझा जायेगा. हिन्दी भाषा के विकास का अर्थ उसके प्रचार-प्रसार के अलावा उसे लोकप्रिय, वैज्ञानिक एवं अर्थवान बनाने की दिशा में किया गया कोई भी प्रयास माना जाएगा, चाहे उसका माध्यम साहित्य, सिनेमा, नाटक, शोध, शिक्षण, प्रकाशन प्रशासन या कुछ और रहा हो. 

यदि इस वर्ष किसी भी नामित व्यक्ति या संस्था को डा० शंकर दयाल सिंह जन भाषा सम्मान के योग्य नहीं पाया गया तो इसे अगले वर्ष के लिए स्थगित कर दिया जाएगा. निर्णायक मंडल का निर्णय अंतिम एवं सर्वमान्य होगा और यह चयन प्रक्रिया किसी अदालत के दायरे से बाहर होगी. सम्मान के लिए चयनित व्यक्ति अथवा संस्था को २७ दिसम्बर २०१३ को नई दिल्ली में आयोजित समारोह में एक लाख रूपये नगद और प्रशस्ति देकर सम्मानित किया जाएगा. 

प्रथम डा० शंकर दयाल सिंह जन भाषा सम्मान पिछले वर्ष डा० शंकर दयाल सिंह की ७५ वीं जयंती पर आयोजित शंकर अमृत महोत्सव में लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार के हाथों अमेरिका की संस्था अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति को दिया गया था. 


नामांकन-पत्र:


आपका नाम:

आपकी संस्था का नाम:

आपका पदनाम:

आपका पता:

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आप जिस व्यक्ति या संस्था को नामित करना चाहते हैं, उसका नाम:

नामित व्यक्ति या संस्था का पता:

नामित व्यक्ति या संस्था की वेब-साईट:

आप इस व्यक्ति या संस्था को डा0 शंकर दयाल सिंह जनभाषा सम्मान का अधिकारी क्यों मानते हैं?

दिनांक:     मुहर एवं हस्ताक्षर:

संलग्नक;(1) (2)

संपर्क: 

रंजन कुमार सिंह
सचिव
डा० शंकर दयाल सिंह जनभाषा सम्मान समिति
1402 Trishul, Kaushambi
Ghaziabad - 201010

Dr Shankar Dayal Singh Jan Bhasha Samman

आलेख: प्रवासी भारतीय साहित्यकारों का हिन्दी को अवदान

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आशा पाण्डे (ओझा) 

चर्चित रचनाकार आशा पाण्डे (ओझा)का जन्म 25 अक्टूबर 1970 को ओसियां, जिलाः जोधपुर (राजस्थान) में हुआ। शिक्षाःएम.ए. एलएल. बी, हिन्दी साहित्य में आलोचना (शोधरत)। व्यवसायःवकालात।प्रकाशन:दो बूंद समुद्र के नाम (कविता संग्रह) एवं एक कोशिश रोशनी की ओर (कविता संग्रह)। शीघ्र प्रकाश्यःजर्रे-जर्रे में वो है (कविता संग्रह), वक्त की शाख पर (कविता संग्रह), एक हाइकु संग्रह। साथ ही देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, गजल, व्यंग्य, आलेख, समीक्षाएं प्रकाशित। पुरस्कारः कवि तेज पुरस्कार (2007), राजकुमार रतनावती (2007) आदि। ई-मेल: asha09.pandey@gmail.com. आपका एक महत्वपूर्ण आलेख यहाँ प्रस्तुत है:-

Art by Vishal Bhuwania
किसी भी भाषा समाज व संस्कृति का ज्ञान उसके साहित्य से होता है। साहित्य व साहित्यकार भाषा, संस्कृति व समाज को आगे बढाते हैं। राष्ट्रभाषा के गौरव को समृद्ध करते है, पहचान दिलाते है हालांकि राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभाषा घोषित किये जाने के पीछे उस भाषा का साहित्य नही बल्कि यह देखा जाता है कि उस भाषा को कितने विषाल स्तर पर जन मानस द्वारा बोला, लिखा व समझा जा रहा है परन्तु उस भाषा को विकसित व लोकप्रिय बनाने में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विस्तृत अर्थ में अगर हिन्दी का अर्थ देखे तो इस भाषा की पांचो उपभाषाएं अर्थात सहायक भाषाओं को भी सम्मिलित माना जाता है व इन सह भाषाओं के अन्तर्गत आने वाली 17 बोलियों को भी। इस प्रकार देखा जाये तो हिन्दी के विकास में इन सहायक भाषाओं का व बोलियों का भी भरपूर योगदान है। ठीक इसी प्रकार साहित्यकारो का भी हिन्दी भाषा को विकसित व समृद्ध बनाने में विषेष योगदान है। साहित्यकारो ने राष्ट्रभाषा में विपुल साहित्य रचकर आम लोगो की व गैर हिन्दी भाषी लोगो की रूचि को इसमें बढाया व इसे रोचक व रसयुक्त बना दिया। हिन्दी में रचे गये उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, छंद, दोहा, सोरठा, छप्पय, आलेख, शोध पत्र, निबन्ध यहां तक विदेषी भाषाओं के समग्र साहित्य के अनुवाद ने भी राष्ट्रभाषा को जीवन्त बनाया व इसकी जमीन व आसमान को विस्तार दिया। अमीर खुसरो, रासो काव्य, कबीर सूर तुलसी से आधुनिक कविता के प्रारम्भ तक आते आते हिन्दी भाषा एक व्यापक रूप धारण कर लेती है। हालांकि हिन्दी का यह रूप अनेका अनेक उतार चढाव के बावजूद तैयार होता है परन्तु आजादी की लडाई से लेकर आज तक साहित्यकारों, व पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी के विकास में निरन्तर अपना योगदान दिया है। 

स्वतंत्रता के साथ साथ हिन्दी के विकास के योगदान में उदंत मार्तडं, वंग दूत, सुधारक समाचार, सुधा दर्पण पत्र पत्रिकाओं के संपादक व लेखको की हिन्दी को भारत व्यापी जनमन की भाषा बनाने में सक्रिय भूमिका रही। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा इसके युगीन साहित्यकारो की जो विशिष्ट भूमिका रही वो वंदनीय हैं। पीढी दर पीढी साहित्यकार हिन्दी भाषा के विकास एवं उत्थान में अपना योगदान देते आ रहे हैं। न केवल भारत में रहने वाले साहित्यकार बल्कि दुनियाभर में बसे प्रवासी साहित्यकार भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपना उत्तरदायित्व बखुबी निभा रहे हैं जन्म भूमि से परे भी अपनी जननी व अपनी भाषा के प्रति उदार है, उन्होने अपनी भाषा अपनी संस्कृति अपने संस्कारो को छोडा नही बल्कि इन जडो को आज भी उसी लगाव व आत्मीयता से सींच रहे हैं। इनमें दूतावास के अधिकारियों विदेषो में विष्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग या अन्य विभागो के कार्यरत प्राध्यापक, व्याख्याता तो शामिल है ही इसके अतिरिक्त भी वहां रहने वाले अन्य प्रवासी भारतीयों का भी योगदान कम नही जो हिन्दी साहित्य को एक नई दषा व दिषा प्रदान कर रहे हैं ऐसे हजारो साहित्यकार है जो हिन्दी के साहित्य की हर विधा में साहित्य रच रहे है। 

देश से इतर विदेशों में हिन्दी साहित्य के विकास में लगे इन साहित्यकारो की संख्या में उत्तरोतर वृद्धि हो रही हैं। जहां एक ओर भारत में रह रही नई युवा पीढी अंग्रेजो के मोह में अंधी होकर अपनी मातृ भाषा को ही गंवार कहती व गलाजम की दृष्टि से देखती है अंग्रेज बन जाने की होड में यह पीढी न अपने संस्कारो का महत्व जान पाती है ना अपने भाषा की महानता जो कि विष्व में सबसे अधिक लोगो द्वारा बोली जाने वाली चंद भाषाओं में से है। दूसरी तरफ दूर देषो में बसे प्रवासी अपनी मातृ भाषा के प्रति आसक्त व अनुरक्त रहते है, वहां के दूतावास के अधिकारी प्राध्यापको व साहित्कारो के अतिरिक्त आम प्रवासी भी हिन्दी भाषा की हर गोष्ठी, पाठ, कवि सम्मेलन, सामुहिक मिलन समारोह में अपनी शत प्रतिषत भागीदारी निभाते हैं वहां के साहित्यकार वहां केवल साहित्य सृजन करके ही अपनी भाषा के प्रति अपने काव्यों की इतिश्री नही कर लेते बल्कि वे अनेका अनेक पत्र पत्रिकाओं का संपादन भी कर रहे है, उन्हौने हिन्दी भाषा के उत्थान व विकास के लिये कई संस्थायें व संघ भी बनाये है, आये दिन संगोष्ठी व सम्मेलन कर रहे है अन्र्तजाल के इस युग में अनेका अनेक ई पत्रिकाओं का भी संचालन कर रहै है एफ एम रेडियो स्टेषन की स्थापनायें कर रहे है उद्घोषक अपनी सेवाये निशुल्क तक देते है अपनी गाडी का ईधन जला कर अभी हाल ही में आस्ट्रेलिया में रह रही मंजु सिंह ढाका ने दूरभाष पर हुए वार्तालाप में बताया कि वो हफ्ते में तीन चार बार एफ एम स्टेषन पर अपनी सेवायें मुफ्त देती हैं। जो प्रवासी राजस्थानी वरूण पुरोहित द्वारा चलाया जा रहा है व उसके लिये 30 किमी आना व तीस जाना यानी 60 किमी गाडी चलाकर जाने का वह पेट्रोल भी स्वयं की जेब का वहन करती हैं। हिन्दी के प्रति अपने मोह व उत्तरदायित्व को निभाने वाले ऐसे भी प्रवासी भारतीय बहुत है। विदेषो में रहने वाले साहित्यकार जो वहां लम्बे अर्से से बसे हुए है व हिन्दी के प्रति इमानदारी व षिद्धत से अपना उत्तरदायित्व निभा रहे है उससे उनका महत्व और अधिक बढ जाता हैं वनिस्पत भारत में रह रहे साहित्यकारो के क्योकिं जो भाषा उनके बोल चाल व्यवहार कार्य की दिन चर्या नही रह जाती उसके प्रति स्नेह के चलते वे लोग उस भाषा के लिये अलग से समय निकाल कर रचनाकर्म कर रहे है यह केवल बडी बात ही नही है अपितु एक उदाहरण बनता है स्वदेष में रह कर अपनी भाषा को उपेक्षित दृष्टि से देखने वाले लोगो के प्रति। क्योंकि जब एक साहित्यकार रचना करता है तो उसकी रचनाओं में देष काल की समस्त परिस्थितियों का विकास मिलता है। जो भारतीय भाषा में अन्य देषो के भोगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों का हास या विकास रचा जाता है तो इन देषो के प्रबुद्ध लोगो का ध्यान इन रचनाओं की और बरबस खिंचा चला आता है जिसमें उस देष की समृद्धि या विनाष रचा गया है उनकी रूचि फिर इस भाषा की और पनपती हैं। जिस किसी भी भाषा का साहित्य समृद्ध है उस भाषा को सीखने जानने वालो की संख्या में बरबस वृद्धि होती है, अंग्रेजी, रसियन, फ्रेंच या जापानी साहित्य का जब हिन्दी में अनुवाद होता है तब भी उन भाषा के विद्धानों की निगाहे इस भाषा की तरफ उठती है। प्रवासियो के लिये उस देष की भाषा के साहित्य का हिन्दी में अनुवाद करना सहज व सरल कार्य है क्योंकि हिन्दी भाषी होते हुए हिन्दी पर वो पकड होती है बरसो बरस विदेष में रहते हुए उन विदेषी भाषाओं पर भी अपनी गहरी पकड बना लेते हैं।और उस देष के साहित्य व साहित्य रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद करते है इस प्रकार हिन्दी का अन्तराष्ट्रीय विकास होता है। 

बीसवी सदी के पश्चात् भारत छोड कर विदेशों में बसने वाले भारतीयों की संख्या में तेजी से वृद्वि हुई जहां कुछ लोग पहले से लेखन कार्यो में लगे हुए थे तो कुछ लोग वहा जाने के पश्चात जन्मभूमि से व अपनो से दूर होने का अहसास जगने से भी इस सृजनात्मक कार्य में समय व्यतीत करने भर के उद्देष्य भर से जुडे जो आगे चलकर रगो में जडे जमाता गया। धीरे धीरे उनकी लेखनी परिष्कृत व परिमांर्जित होती गई। कई स्वतः सुखाय में लिखते हुए मजबूत लेखन के चलते पत्र पत्रिकाओं में छापने लगें तो कई आगे बढकर निजी पुस्तके भी छपवा चुके यह लोग हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में जाने अनजाने महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है, इसके चलते उनकी नई पीढी भी जो विदेषो मे पेदा हुई वो भी अपनी मातृ भाषा को अधिक करीब से जान पाते है व अपनी भाषा की जडो से जुडे रहते है। अपनी अग्रज पीढीयों से मिल रहे संस्कारो का खुद की रगो में समावेष करते है वे हिन्दी से नफरत नही करते बल्कि उसमें अपनत्व ढूढ़ते रहते है मिठास पाते है।

उषा प्रियंवदा व सोम वीरा जी जैसे प्रवासीयो का हिन्दी साहित्य को अतुलनीय योगदान मिला है। प्रवासीय भारतीयो द्वारा हिन्दी में विपुल साहित्य उपलब्ध हैं और निरन्तर तैयार हो रहा है। विश्व के एक सौ से भी अधिक विश्वविद्यालयो में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है। प्रवासी भारतीय बच्चे भी विषय चयन में हिन्दी लेने से कतराते नही बल्कि गर्व व सम्मान महसूसते हुए इसमें दाखिला लेते है।

इधर प्रवासियों द्वारा प्रकाशित व संचालित की जा रही दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध वार्षिक, वार्षिक साहित्य पत्र पत्रिकाओं में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई हैं।

हिन्दी में साहित्य आलेखो के साथ-साथ तकनीकी व वैज्ञानिक लेखो का भी प्रवासियो द्वारा रख व छपा जाना हिन्दी भाषा को कुछ ओर सोपान ऊपर चढाना हैं।

बीसवी सदी के अन्त तक लगभग 150 प्रवासी भारतीय विभिन्न विधाओं में साहित्य रचना कर रहे थे जो कि 21वीं सदी के प्रारम्भ होने तक इनमें से 50 से अधिक साहित्यकार भारत में अपनी पुस्तके भी प्रकाशित करवा चुके थे। जब से वे पत्र पत्रिकाओं का ब्लाग्स का चलन हुआ तब से ऐसे साहित्यकारो को खुला मंच मिल गया व विश्वव्यापी पाठको तक पंहुचने का सीधा, सुगम सस्ता रास्ता भी मिल गया।

ब्रिटेन, लन्दन, अमेरीका, यु.एस.ए., कनेडा, सहित खाडी देशों में से भी कही प्रवासी साहित्यकार तेजी से उभर कर सामने आये जो साहित्य की हर विघा में उत्कृष्ट रचनायें दे रहे है। हिन्दी भारत में ही नही बल्कि पुरे विश्व में एक विशाल जनमानस की भाषा हैं। प्रवासी भारतीयों का हिन्दी साहित्य इसलिये भी चोकाता है कि जहां उन पर हिन्दी भाषा लेखन व बोल चाल को लेकर कोई दबाव नही , पाबन्दी नही फिर भी इस भाषा को सहेजने, संवारने में दिया जा रहा उनका यह योगदान अनुकरणीय हैं।यह लोग तन मन धन से निज भाषा के प्रति समर्पित है। यह भी उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार से भारत में हिन्दी पत्रकारिता का विभिन्न चरणो में विकास हुआ ठीक उसी प्रकार विदेषो में भी प्रवासी भारतीयो द्वारा उसके विकास की दिषा में महत्तवपूर्ण कार्य हुआ है अधिकांशतः प्रवासी अपने संस्कार व भाषा से भावनात्मक रूप से जुडे हुए हैं । इन्हौने समय समय पर हिन्दी पत्राकारिता के उन्नयन के लिये अनेक पत्र पत्रिकाओ का प्रकाषन प्रारम्भ किया और उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि हुई।

न्युजिलेंड से भारत दर्शन, कनाडा से सरस्वती पत्र, हेल्म, यू.के. से हिन्दी नेस्ट, क्षितिज, सयुक्त अरब अमीरात से अभिव्यक्ति, अनुभुति, अमेरीका से अन्यथा, हिन्दी परिचय पत्रिका, गर्भ नाल पत्रिका, पलायन यु.एस.ए. से त्रैमासिक पत्रिका कर्मभूमि हिन्दी जगत हिन्दी बाल जगत, एवं विज्ञान प्रकाश, विश्व हिन्दी न्यास समिति द्वारा प्रकाषित पत्रिकाऐं है ई विश्वा, अन्तराष्ट्रीय हिन्दी समिति सेलम की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका-प्रवासी टुडे, अक्षरम नामक अन्तराष्ट्रीय साहित्यक सांस्कृतिक संस्था की पत्रिका पुरवाई आदी कई पत्र पत्रिकाएं वर्षो से प्रकाषित हो रही है। इन पत्र पत्रिकाओं में कविता, नाटक, कहानी, समाचार, भेट वार्ता, गजल, संस्मरण, मुक्तक, निबन्ध, व्यंग रिर्पोताज आदी सभी विधाओ का संकलन होता हैं।

भारत में चल रहे सभी टी.वी. चैनलो का प्रसारण भी भारतीय प्रवासियो की मांग पर विदेषो में भी किया जाता है जिससे हिन्दी भाषा का एक नया स्वरूप विकसित हो रहा है। हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार ने विदेषो पर अपना प्रभाव छोडा है, रामायण धारावहिक का प्रभाव जापान देष पर ऐसा हुआ की जापान देष ने रामायण धारावाहिक को अपने यहां दिखाने के लिये पुरी स्क्रिप्ट जापानी कोष के साथ प्रकाषित करवाई। इस तरह प्रवासीयो की मांग पर हिन्दी का वर्चस्व बढा।

पिछले एक दषक में युनाईटेड किंडम में हिन्दी साहित्य के सृजन का एक तरह से विस्फोट हुआ। साहित्य की सभी विधाओ में प्रवासी साहित्य रचना इगलेण्ड में हुई हैं। इसी काल में यहां लंदन में विष्व हिन्दी सम्मेलन युरोपीय हिन्दी सम्मेलनो का भी आयोजन हुआ। एक लम्बे अरसे से यू.के. में हिन्दी की बहुत सारी संस्थाए रचनात्मक कार्यो में लगी हुई हैं। यू.के. हिन्दी समिति, कथा (यू.के.), बर्मीघम में गीतांजली, बहुभाषीय समुदाय एवं कृति (यू.के.) ओर मेन चेस्टर में हिन्दी भाषा समिति, यार्क में भारतीय भाषा संगम एवं नाटिंघम  गीतांजली ये संस्थाऐ देशभर में हिन्दी रचनाधर्मिता एवं विकास संबंधित कार्य करती है।

1. हिन्दी की परीक्षाएँ आयोजित करती है।

2. पूरवाई नाम की पत्रिका प्रकाशित करती हैं।

3. अन्तराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय सम्मानो का आयोजन करती है।

4. अन्तराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय कवि सम्मेलन देश के भिन्न-भिन्न शहरो में करवाये जाते है।

5. कहानी कार्यशाला, कथा गोष्ठियां एवं काव्य गोष्ठियां भी निरन्तर चलती रहती हैं।

यहां के कही साहित्यकारो को भारत भर में अनेका अनेक पुरूस्कारो से सम्मानित भी किया जा चुका हैं। ब्रिटेन के उच्चायोग की भूमिका भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सराहनीय रही हैं। ब्रिटेन प्रमुख प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा, गोतम सचदेव, ज्रकिया जुबेरी, तितिक्षा शाह, अचला शर्मा, तोशी अमृता, दिव्या माथुर, प्रतिभा डावर, प्राण शर्मा, भारतेन्दु विमल, महावीर शर्मा, डा महेन्द्र वर्मा, उषा राजे सक्सेना, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, कीर्ति चैधरी, डा कृष्ण कुमार, कैलाश बुधवर, गोविन्द शर्मा, डा पदमेश गुप्त, मोहन राणा, रमेश पटेल, सहित कई अन्य नाम है जो हिन्दी भाषा में साहित्य रचनाकारो में अग्रणी है।

उसी तरह अमेरीका के प्रवासी रचानाकरो द्वारा भी हिन्दी साहित्य को एक नया स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। उषा प्रियवंदा, सोमा वीरा, सुनिता जैन के नाम प्रवासी साहित्य के जगत में ही नही बल्कि अखिल हिन्दी साहित्य में भी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं। इन्होने अपनी उत्कृष्ट लेखनी से अमेरीकी प्रवासी हिन्दी साहित्य की अवधारण शूरू की। इन्दूकान्त शुक्त, उमेष अग्निहोत्री, अनिल प्रभा कुमार, कमला दत्त, वेद प्रकाश बटुक, मधु माहेष्वरी, मिश्रीलाल जैन, सुधा ओम ढींगरा, अषोक कुमार सिन्हा, आर्यभुषण, डा वेद प्रकाश सिंह (अरूण), सुषमा बेदी, डा भू देव शर्मा, रेणु राज वंषी गुप्ता, विषाका ठाकुर, स्वदेष राणा, उषादेवी कोलटुकर सहित कम से कम 100 से अधिक रचनाकारो ने पाठक एवं लेखक दोनो समुदायो का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया।

वही कनाडा के प्रवासी हिन्दी लेखक भी कही कम नही है। प्रोफेसर अश्वनि गांधी, सुमन कुमार घई, सुरेष कुमार गोयल, डा शेलजा सक्सेना, इनका भी हिन्दी साहित्य को अविस्मरणीय योगदान है। खाडी देशों के प्रवासी साहित्यकार अशोक कुमार श्रीवास्तव, उमेश शर्मा, विधाभूषण घर, कृष्ण बिहारी, दीपक जोषी, रामकृष्ण द्विवेदी आदी साहित्कार हिन्दी साहित्य को अपना योगदान दे रहे है। इस देषो में इत्तर भी प्रवासी साहित्यकार हिन्दी के प्रचार-प्रसार व हिन्दी साहित्य सृजन में लगे हुए हैं। कही दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, वार्षिक पत्र पत्रिकाओं को निकालने के साथ ही वेब- पत्रिकाओ का भी संचालन कर रहे है। हिन्दी चेतना (पेपर) (सुश्री सुधा ओम ढींगरा जी), रचानाकोष (अनिल जनविजय), गर्मनाल (पेपऱवेब) (श्री दीपक मशाल जी का सहयोग) छः साल से अनुभुति वेब (सुश्री पूर्णीमा बर्मन) दस साल से, ई-कविता समुह (वेब) (श्री अनुप भार्गव जी) दस साल से विश्व हिन्दी संस्थान कनाडा, श्री शरण घई, सुश्री कुसुम ठाकुर के ब्लोग्स, अनिता कपुर, प्रेमलता शर्मा, अनिता शर्मा जैसे कई और भी साहित्यकार विदेषो में बेठे हुए हिन्दी साहित्य की सेवा में प्रण-प्राण से जुटे हुए है और ये सभी साधु वाद के पात्र है जो जमीन से दूर रहकर भी जमीन और मातृ भाषा के प्रति अपने कर्तव्यो का निर्वहन कर रहे हैं।

Asha Pande Ojha

आलेख: प्रेम के निवेदन में अपनी धुरी पर नतमस्तक पृथ्वी : डॉ. महेंद्र भटनागर

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डॉ. मनोज श्रीवास्तव

ऊर्जावान रचनाकार डॉ. मनोज श्रीवास्तव का जन्म 8 अगस्त 1 9 7 0 को वाराणसी, उत्तरप्रदेश, भारत में हुआ। शिक्षा:काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. एवं पीएच.डी.। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह- पगडंडियाँ, चाहता हूँ पागल भीड़, एकांत में भीड़ से मुठभेड़। कहानी संग्रह- धर्मचक्र राजचक्र और पगली का इन्कलाब। व्यंग्य संग्रह- अक्ल का फलसफा। अप्रकाशित कृतियाँ: दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास), परकटी कविताओं की उड़ान (काव्य संग्रह) सम्मान:'भगवत प्रसाद स्मृति कहानी सम्मान-२००२' (प्रथम स्थान), रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान-2012, ब्लिट्ज़ द्वारा कई बार बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक घोषित, राजभाषा संस्थान द्वारा सम्मानित। लोकप्रिय पत्रिका "वी-विटनेस"(वाराणसी) के विशेष परामर्शक और दिग्दर्शक। नूतन प्रतिबिंब, राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक। आवासीय पता:सी-६६, नई पंचवटी, जी०टी० रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत। सम्प्रति: भारतीय संसद (राज्य सभा) में सहायक निदेशक (प्रभारी- सारांश अनुभाग) के पद पर कार्यरत। मोबाईल नं: ०९९१०३६०२४९। ई-मेल पता: drmanojs5@gmail.com

डॉ. महेंद्र भटनागर
हिंदी-काव्य साहित्य में चुनिंदा चतुर-चितेरे कवि ऐसे हैं जिनकी काव्य चेतना इतनी प्रबल-प्रगामी है और कविताई की विषय-वस्तु इतनी विस्तीर्ण-व्यापक है कि उन्हें समीक्षक-आलोचक आसानी से आत्मसात कर, अपनी कोई एक सुनिश्चित राय नहीं बना पाते। जब उनकी रचनाओं में इम्प्रेशन्स की बाढ़ उमड़ती है तो उनमें से किसी एक पर दृष्टि जमा पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है और उनमें अनुभूतियों तथा भावों-अनुभावों के उमड़ते ज्वार को मन-मस्तिष्क में समेटना भी एक दुष्कर कार्य हो जाता है। जितनी विविधता उनकी वैचारिक और भावनात्मक संप्रेषणीयता में होती है, उतनी ही विविधता उनकी भाषा-शैली में भी होती है। बेशक! जहाँ जटिल मनोभावों का प्रस्फुटन होगा, ज़ाहिर है कि वहाँ भाषा-शैली का लालित्य भी बड़ा जिज्ञासापूर्ण होगा। अस्तु, ये विविधताएं उबाऊ न होकर अत्यंत दिलचस्प भी होती हैं जिन्हें पाठक जानने-समझने के लिए उतावला हो उठता है। यह उतावलापन एक तरफ तो उन रचनाकारों के व्यक्तिगत जीवन को जानने के लिए होती है तो दूसरी तरफ उनके द्वारा सृजित शब्द-संसार में विचरण करने के लिए भी होती है। इस प्रकार जब हम निराला, प्रसाद, महादेवी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, नरेश मेहता, नागार्जुन से गुजरते हुए इस समकाल पर अपने कदम अवस्थित करते हैं तो बदलते काव्य परिदृश्यों में, जहाँ रोमांटिक, हालावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी आदि रचनाकारों ने विभिन्न काल-खंडों पर अपने-अपने मील के पत्थर स्थापित किए, एक ऐसी शख़्सियत उभरकर अपनी पूर्णता में मुखर होती है जिसकी रचनाधर्मिता को महत्वांकित किए बिना हिंदी काव्य साहित्य को पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। यहाँ ऐसे कवि को स्वर्णाक्षरों में रेखांकित करना अत्यंत आवश्यक है जिसने लगभग सात दशक के अपने दीर्घ रचनाकाल में कविता के सभी सोपानों और उच्चावचों से गुजरते हुए अथक सृजन किया है और प्रतिनिधि कवियों के घनिष्ट संपर्क में रहते हुए, शब्द-साधना की है।

निःसंदेह, यहाँ मेरा सीधा इशारा डॉ. महेंद्र भटनागर की ओर है, जो अपनी लंबी रचनात्मक यात्रा में आज भी अपनी पूर्ण सृजनशीलता के साथ हमारे बीच गा-गुनगुना रहे हैं और मौज़ूदा भ्रमित नवरचनाकारों की काव्य चेतना को झंकृत करते हुए एक अनुकरणीय युगद्रष्टा के रूप में हमारे बीच प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं। दरअसल, कविता की रचना करना और कविता को सम-विषम जीवन की तरह जीना दो भिन्न-भिन्न बातें हैं। इसप्रकार, अब तक के अपने सृजनकाल के दौरान यदि यह कहा जाए कि उन्होंने सिर्फ़ कविताएं रची हैं तो यह उनकी काव्य साधना के प्रति बड़ा अन्याय होगा। सच्चाई यह है कि अपने पूरे जीवन काल में वह कविता को जीते रहे हैं। उस कविता को जीते रहे हैं जिसमें हर समाज के हर वर्ग की आह और आवाज़ मौज़ूद है। जहाँ छायावादी और रोमांटिक कवियों की भाँति उनकी कविताओं में उनका 'मैं'बाह्य तौर पर दिखने वाली एकांतितता और वैयक्तिकता से ऊपर उठकर पूरे मानव समाज को स्वयं में समेट लेता है, वहीं उनका 'मैं'पीड़ितों और शोषितों के एक विश्वसनीय संबल की भाँति वरद हस्त बनकर पूरी दुनिया को त्रासदियों और कष्टों से मुक्ति प्रदान करने के लिए तत्पर है। इस तरह वह इस धरा पर ऐसे जीवन की कामना करते हैं जो निष्पाप, निर्विघ्न, निर्भय, निरंतर और निष्कंटक चलता रहे, चलता रहे--अनन्त असीम काल तक...। क्योंकि जीवन की निरंतरता ही मानव इतिहास की दिलचस्प गाथा सुनाती रहेगी--
"जीवन अबाधित रहे
जन की कहानी कहे।" 


इतने दीर्घकाल से अविरल प्रवाहमान यह जीवन अभिशप्त कभी नहीं हो सकता। वास्तव में, यह जीवन और इसके उन्नयन और नैरंतर्य हेतु इसके साथ संलग्न सभी छोटी-बड़ी इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं, आवश्यकताएं, भौतिक-अभौतिक कोशिशें ही सत्य है; शेष सारी बातें भ्रम हैं, मिथ्या हैं। यदि इस जीवन को कभी विरामावास्था में लाने की कोशिश भी की गई तो वह कभी संभव नहीं हो सकेगा। तभी तो वह एक दार्शनिक की भाँति बुदबुदा उठते हैं-
"बद्दुआओं का असर
होता अगर;
वीरान
यह आलम
कभी का
हो गया होता।" 


ऋषि-कवि, डॉ. भटनागर सृजनहार के इस सृजित संसार की विलक्षणताओं पर मुग्ध हैं। इसके सौंदर्य की अनुभूतियों पर वह रीझ गए हैं। वह इसे कभी खोना नहीं चाहेंगे। यदि खो भी जाय तो उनकी हार्दिक कामना है कि वह इसे बार-बार जीएं। जीवन को विविधीकृत रूप में जीने की उनकी इच्छा उनकी अपनी न होकर पूरे मानव-समाज के लिए है; इसकी प्रेरणा वह पूरे समाज को दे रहे हैं--
"इस ज़िंदगी को
यदि पुनः जीया जा सके —
तो शायद
सुखद अनुभूतियों के फूल खिल जाएँ!
हृदय को
राग के उपहार मिल जाएँ!"


निःसंदेह, इस जीवन को सर्वांगीण रूप में जीने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य में सभी के प्रति आत्मीयता का समभाव हो, जन-जन में कामनाओं की ख़ुशबू हो--
"आत्मा में मनोरम कामनाओं की
सुहानी गंध बस जाए
दूर कर अंतर
परायापन
कि सब हो एकरस जाएँ!"


मानव-मात्र में प्रेम की बस एक ही गंगा सदैव प्रवाहमान होती रहे। यदि इस पीड़ित धरा पर इतने सुंदर जीवन का परिपाक है तो इस जीवन की नींव प्रेम ही है। प्रेम के उपांगों जैसे अपनापन, आसक्ति, स्नेह, सहानुभूति, साहचर्य आदि के सीमेंट-गारे से निर्मित इस जीवन की बहुमंजिली इमारत खड़ी है। सृष्टि में सृजनहार की जीवन की इस अति महत्वपूर्ण परियोजना में कविता की भूमिका अमूल्य है। साधक कवि, डॉ. भटनागर कविता के सर्वशक्तिमान और सार्वत्रिक होने की इच्छा रखते हैं--
"उसके स्वर
मुक्त गूँजे आसमानों में,
उसके अर्थ ध्वनित हों
सहज निश्छल
मधुर रागों भरे
अंतर-उफ़ानों में!
आदमी को
आदमी से प्यार हो,
सारा विश्व ही
उसका निजी परिवार हो!" 

जीवन की बाढ़ को सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। यह चर और अचर, जीव और अजीव संसार तक विस्तीर्ण है तथा इन सभी में परस्पर साहचर्य और अपनापन भी विद्यमान है। चूंकि जीवन के सौष्ठवीकरण में मनुष्य की भूमिका अतुलनीय है, इसलिए उसके लिए यह अनिवार्य है कि वह इन सभी से प्रेम करे क्योंकि उसका धर्म सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम करना है--
"प्यार करना
मानवों से
मूक पशुओं से,
पक्षियों, जल-जन्तुओं से
वन-लताओं से
द्रुमों से
आदमी का धर्म है।" 


यह पृथ्वी मानव समाज को बस एक धर्म--प्रेम को अपनाने के लिए निवेदन करते हुए अपनी धुरी पर झुकी हुई है, नतमस्तक है। इस प्रेम के अतिरिक्त, स्वयं की भौतिक और अभौतिक इच्छाओं की तुष्टि के लिए कुछ भी करना इस सृजन के प्रति अपराध है। इसी भावना से ओतप्रोत होकर प्रेमयोगी डॉ. भटनागर उन (अ)भद्रजनों को धिक्कारते हैं जो दुनियाभर के सपने पालते-पोसते हुए सिर्फ़ अपने लिए ही जीते हैं-- 

"...सपने नयन-आकाश में छाते रहें,
अपने लिए ही गीत हम गाते रहें..." 


इस बात मे तनिक भी संशय नहीं है कि जिन बहुआयामी इम्प्रेशनों पर डॉ. भटनागर काव्य-सरिता में डूबते-उतराते रहे हैं, उनमें प्रेम का भाव इतना प्रबल है कि अन्य भाव उतने अभिभावी प्रतीत नहीं होते। वह प्रेम शुरू-शुरू में व्यक्तिगत-सा प्रतीत होता है जहाँ वह अपनी प्रियतमा के साथ पुनर्मिलन की उत्कट और अनियंत्रणीय इच्छा का बार-बार विस्फ़ोट करते है; किंतु, वह शीघ्र ही व्यक्तिगत भावों से ऊपर उठकर मानव-मात्र के प्रति प्रेम का संदेश देने को व्यग्र हो उठते हैं। उनका रचना-संसार अत्यंत व्यापक है। अपनी कविताओं में वह जीवन के हर पक्ष पर सहानुभूतिपूर्वक दृष्टि ही नहीं डालते अपितु उसकी बेहतरी के लिए जन-जन से आह्वान करते हुए संकल्प लेते हुए प्रतीत होते हैं। सकारात्मक भावों और विचारों का जो उन्माद उनकी रचनाओं में छाया हुआ है, वह अन्य रचनाकारों में उतनी प्रचुरता से नहीं मिलता। उनका यह उन्माद जटिल मनोभावों और अभिव्यक्तियों से भी मुक्त है। वह जन-जन के लिए इतने सहज, सरल और सुलभ होना चाहते हैं कि उनकी इस स्थित पर विस्मय-सा होता है। क्या जीवन को अक्षुण्ण बनाए रखने और इसके लिए प्रेम को एक प्रमुख घटक बनाने के लिए किसी अन्य कवि की इतनी उन्मत्त याचना कहीं और सुनाई देती है?

An Article on Dr Mahesndra Bhatnagar by Dr Manoj Sreevastav

प्रवासी साहित्यकार हरिहर झा की तीन रचनाएँ

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हरिहर झा 

भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्रके कम्प्यूटर विभाग में वैज्ञानिक अधिकारीके पद पर कार्य करने के पश्चात हरिहर झा 1990 से मेलबर्न के मौसम विभाग में वरिष्ठ सूचना–तकनीकी अधिकारीके पद पर कार्य कर रहे हैं। उदयपुर विश्वविद्यालय से विज्ञान में एमएस सी की डिग्री पाई।  सरिता में लेख व वेब-दुनिया, साहित्य-कुंज, अनुभूति, काव्यालय , हिन्दीनेस्ट, कृत्या़ (हिन्दी व अँगरेजी), काव्यालय आदि में कवितायें प्रकाशित हुई । आपकी अँगरेजी कविताओं पर बोलोजी द्वारा सम्मान और ’इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ़ पोयट्स’ ( लास वेगास) तथा ’इंटरनेशनल लाइब्रेरी इन पोयट्री’द्वारा एवार्ड मिले । आपकी दो कविताओं को“Sound of Poetry” कविता की एलबम में शामिल किया गया। स्वयं की हिन्दी कविताओं पर दो संगीतबद्ध एलबम निकले। दो पुस्तकें – “मदिरा ढलने पर” और “Agony churns my heart” । मेलबर्न पोयेट्स एसोसियेशन द्वारा द्विभाषी काव्यसंग्रह “Hidden Treasure”में तथा गेलेक्सी पब्लिकेशन द्वारा“Boundaries of the Heart” में कविता प्रकाशित। आपने ऑस्ट्रेलिया के साहित्यिक सम्मेलनों में कविता-पाठ किया। टी वी (चेनल-31) व आस्ट्रेलिया के रेडियो कार्यक्रम पर कवितायें प्रसारित। जन्म: 7 अक्टूम्बर 1946 बांसवाड़ा, राजस्थान। भाषा : हिन्दी, अँगरेज़ी। ई-मेल :hariharjha2007@gmail.com

आर्ट- विशाल भुवानिया 
1. प्रकृति मौसी 

माँ सी मौसी
आगबबूला 
जाने कब से, 
अंगारों में लड़खड़ा गई 

आवारा बच्चे ना माने 

पकड़ें गरदन 
करें शरारत 
उसको काटें 
लहू भरे गालों पर चाटें 

बही वेदना की सुरंग से 

बारूद भरी 
गोली निकली तड़तड़ा गई 

ताप जगाती घुसी देह में 
चुभती किरणें 
छुये जिगर को, 
चमड़ी जलती 
हाय निगोड़ी, बैरन छलती 

चिमनी आई,
झाड़-फूँक को, 
कर्कश इतनी 
शोर में सृष्टि भड़भड़ा गई 

लाल चेहरा 

क्रोध लुढ़कते पत्थर का सा 
देख देख कर
बिटिया रोती 
मौसी पागल-पागल होती 

समझ न आई 
महाकूप से निकली ज्वाला 
झुलसी बुढ़िया बड़बड़ा गई। 

2. मुठ्ठी भर उष्मा पाने 

धुंध खटखटाती है सांकल 

मुठ्ठी भर उष्मा पाने 

लिये चोंच में पंछी तिनका 
भूख मिटा ना पाये 
हवा बहे तो बिछुआ काटे 
ताप कहाँ से लाये 

बर्फ सनी किरणें भी देती 
अट्टहास में गाली 
हुई प्रतिज्ञा ले आऊँगा 
सूरज भर कर थाली 

पंख फड़फड़ाये हैं तब से 

कड़छी भरी अगन लाने 

चुहिया बैठी 

तार कुतरने 
गीत बह निकल आया 
चीं-चीं कुछ आवाज हुई या 
अनहत नाद सुनाया 

ओले पड़े, ढोल की थपथप 
नभमण्डल बतियाये 
डाली झूमी, कलि मुस्काये 
या संगीत सुनाये 

फूल झनझनाये सितार पर 

भूले बिसरे सुर गाने 

पास घोसला, 
जीर्ण-शीर्ण छत 
टपका पानी रोये 
भूखी थाली, बेसुध तन-मन 
पेट दबा कर सोये 

आँसू बसते हैं कुटिया में 
ओंस भले शरमाये 
धुँआ चूल्हे से उठ न पाये 
कोहरा मुँह चिढ़ाये 

स्वाद लपलपा गये जीभ पर 
चुटकी भर दलिया खाने 

3. बदरी डोल रही 

पुलकित होकर
बदरी डोल रही 
उमंग में बहकी बहकी

झील में मल मल अंग
कल्पना गुनगुनाए
फुदक फुदक कर
कोई तितली मन बहलाये

हवा निगोड़ी
मीठी अगन लगाए 
दिल में दहकी दहकी

थाह मनचले दिल की
लेकर रति शरमाती
पारिजात की
मीठी गंध लिये भरमाती

झूम रही है
भीने अमलतास की 
डाली महकी महकी

ज्वार समेटे मन के
दरपन की टक्कर में
दुनिया उलझी
राशन पानी के चक्कर में

जग है झूठा
भावों की आतुरता 
कितनी चहकी चहकी

Three Hindi Poems of Harihar Jha

पुस्तक चर्चा: सौरभ शर्मा का अंग्रेजी उपन्यास लव हेट्स मी एण्ड आई लव इट- अवनीश सिंह चौहान

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मुरादाबाद की मानसरोवर कॉलोनी में रहने वाले डॉ. जी के उपाध्याय शिक्षा, शोध और सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे हैं। वे एक अच्छे निदेशक तो हैं ही, अच्छे प्रमोटर भी हैं। हाल ही में उन्होंने एक युवा लेखक को प्रामेट किया था। एक दिन संयोग से मैं उनके घर पहुंच गया। वहां पर दो और लोग बैठे हुए थे- एक, मेरे विद्वान मित्र डॉ के के मिश्रा और दूसरे युवक से मेरा अभी तक कोई परिचय नहीं हुआ था। डॉ. मिश्रा ने मेरा परिचय कराया। ...
बातों-बातों में पता चला कि यही युवक (सौरभ शर्मा) *लव हेट्स मी एण्ड आई लव इट*नामक अंग्रेजी उपन्यास के लेखक हैं, जिसे पॉवर पब्लिकेशन, कोलकाता ने प्रकाशित किया है। डॉ. मिश्रा ने उपन्यास की एक प्रति मुझे दी। मैने उपन्यास को उलट पलटकर देखा। अच्छा यह लगा कि इसे एक युवा लेखक ने आज की युवा पीढ़ी को केन्द्र में रखकर लिखा है।

उपन्यास पढ़ने पर जाना कि इसका नायक शाश्वत अपनी किशोरावस्था से ही प्रेम और पीड़ा को एक साथ बुन रहा है। उसे रागिनी से प्यार हो गया। जैसा कि कई बार होता है कि प्यार एकतरफा चलता रहता है और सामने वाले को पता भी नहीं चलता या पता भी चल जाये तो वह पहले से ही बुक होता है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में उसे रेस्पाँस नहीं मिल पाता। शाश्वत के साथ भी ऐसा ही हुआ, उसे भी रागिनी से रेस्पाँस नहीं मिला क्योंकि वह पहले से ही एन्गेज थी।

Genre: Fiction or Novel, Pages: 152,
Binding: Paperback, 
Price Rs 250/-
ISBN No:- 978-93-82792-52-9  
समय करवट लेता है और रागिनी का पहला प्यार टूट जाता है। अब रागिनी अभय से प्यार करने लगती है। किन्तु कुछ समय बाद अभय की मृत्यु हो जाती है। अब रागिनी के पास एक ही विकल्प वचता है कि वह शाश्वत के प्यार को स्वीकार कर ले। वह शाश्वत से सम्बंध बना लेती है और शाश्वत पुरानी बातों को भूलकर लिव-इन- रिलेशनशिप को अंगीकार कर लेता है। इन दोनों का प्रेम कुछ दिन तो पटरी पर रहता है। पर तभी उनके जीवन में एक और टर्न आता है। शाश्वत को फेसबुक से पता चलता है कि रागिनी का लव अफेयर किसी और से भी चल रहा है। शाश्वत और रागिनी एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। 

एक और कहानी सामने आती है। शाश्वत का दोस्त नवनीत सोनल नामकी लड़की को प्यार करने लगता है। वह उसे पाना चाहता है। इसके लिये नवनीत शाश्वत से कहता है कि वह शोनल से उसकी दोस्ती करा दे। जब वह दोस्ती करा देता है तब वे दोनों शाश्वत को भूल जाते हैं। प्रेम और मित्रता में धोखा खाने के बाद शाश्वत निराश होने लगता है। हताशा में वह शराब और सिगरेट का अतिशय सेवन करने लगता है। डाक्टर उसे बताता है कि उसे केंसर है। ऐसी स्थिति में भी शाश्वत बी.टेक की पढ़ाई पूरी करता है और जॉब भी पा लेता है। उसे डाक्टर की बात याद है कि उसकी जल्दी ही मृत्यु हो जानी है। अत: निराशा में एक दिन वह आत्महत्या कर लेता है। 

यह कहानी मुरादाबाद के युवा उपन्यासकार सौरभ शर्मा के जीवन-अनुभवों से जुड़ी हुई है। इसलिऐ इसमें जितना प्रेम, पीड़ा, झूठ-फरेब एवं नफरत का जिक्र है, उतना ही समकालीन युवा मन का सटीक चित्रण भी।पाठकों के लिये यह उपन्यास एक मसाला मूवी की तरह भी हो सकता है बशर्ते इसके दुखद अंत की तुलना मूवी के सुखद अंत से न की जाये। कुल मिलाकर यह उपन्यास अंग्रेजी भाषी युवाओं के लिये पठनीय एवं संग्रहणीय है।

Novel: Love Hates Me And I Love It by Saurabh Sharma

समीक्षा: ज़मीनी चेतना के गीत- डॉ सन्तोष कुमार तिवारी

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दिन क्या बुरे थे! / वीरेंद्र आस्तिक

कानपुर में जन्मेवीरेन्द्र आस्तिक अपनी बहुआयामी गीत-यात्रा में मानवहित, नैतिक मूल्य, अन्वेषण तथा ज्ञात से अज्ञात को जानने की कोशिश को सर्वोपरि मानते हैं। रचनाकार का निर्विकार मन स्वत: ही संवेदनाओं की गहराई के साथ मानवता से जुड़ जाता है। वीरेन्द्र की खोज का विषय यह है कि- 

वो क्या है जो जीवन-तम में
सूरज को भरता है
पतझर की शुष्क, थकी-हारी
डाली में खिलता है।

गीतों में हमेशा एक ही विचार, भाव या घटनाक्रम की अन्विति का शुरू से अंत तक निर्वाह किया जाता है। रचनाकार अपनी अनुभूतिजन्य वैचारिकता या विचारजन्य अनुभूति से यहां-वहां भटक नहीं सकता अन्यथा गीत अपनी समग्रता में प्रभावहीन हो जाता है। गीत की जो उठान शुरू में होती है वही उठान समापन तक बनी रहनी चाहिए। गेयता तथा संक्षिप्तता की दृष्टि से भी आस्तिक के गीत निर्दोष हैं। मशीनीकरण के युग में भी वे अपनी प्रकृति-जन्य संवेदना और विचारजन्य संवेदना को छोड़कर व्यवसायी-संवेदना के शिकार नहीं हुए।
वीरेंद्र आस्तिक 

इस गीत संग्रह में वीरेद्र के पास, पैनी अभिव्यक्ति हैं। शब्द और अर्थ सहचर हैं। अबूझ को सहज बनाते हैं। पैनी अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है कि सार्थक शब्दों का मितव्ययता से प्रयोग हो- आओ! बोलो वहॉ, जहां शब्दों को प्राण मिले/पोथी को नव अर्थो में पढ़ने की आंख मिले/बोलो आमजनों की भाषा/खास न कोई बाकी। हम इक्कसवी सदी के दूसरे दशक में जा रहे हैं फिर हमारी भाषा बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध की क्यों हो? बासी-तिबासी अभियक्ति से बचने के लिए जरूरी है कि हम आज की प्रचलित नयी शब्दावली को काव्यात्मकता प्रदान करें या पुराने शब्दों में नयी अर्थवत्ता को भरने की कोशिश करें। वीरद्र आस्तिक ने नये समय की कम्प्यूटराइज्ड शब्दावली को अपनाकर गीतों को नयी कल्पना और ताजगी प्रदान की है जो काबिलेतारीफ है। विण्डो, मेमोरी, चैटिंग, कूल, मार्केटिंग, ग्लोबल, वायरस, एण्ट्री, संसेक्स और केमिस्ट्री आदि शब्दों को काव्य-माला के धागे में पिरोकर कवि ने युगानुरूप नयापन लाने का प्रयास किया है।

कई गीतों में रचनाकार ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा कन्ट्रास्ट पैदा किया है कि हम अतीत और वर्तमान की सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर बाध्य हो जाते हैं। जंगे-आजादी के दिन क्या बुरे थे या अब न पहले सी रहीं ये लड़कियाँ- जैसी पंक्तियां इसका प्रमाण है। वीरेन्द्र की प्रकृतिजन्य संवेदना उन्हें टेसू, मंजरी, कोयल, निबुआ-अंबुआ, जमुनिया, बनस्थली की ओर ले जाती है और वे प्रकृति-सुंदरी के रोमानी रूप में खो जाते हैं। गीतकार को इस बात की बड़ी शिकायत है कि हमारी संवेदनाएं पथरा गई हैं। तोते को पिंजड़े का डर है, प्यासी चोचों और जलते हुए नीड़ों ने जीवन से मोह भंग कर दिया है। सेक्स, क्राइम तथा मीडिया बाजार में हमें किसानों तक की चिंता नहीं रही- 

लग न जाए रोग
बच्चों को
कुछ बचा रखिए
जमीनी चेतना
अब कहां वो आचरण
रामायणी
पाठ से बाहर हुई
कामायनी। 

रचनाकार को इस बात की पीड़ा है कि मुखड़ा मोहक आजादी का/ पांव धॅसे लेकिन कीचर में।

मेरी स्पष्ट धारणा है कि जब तक माँ-पिता के वात्सल्यपूर्ण त्याग और संरक्षण को हार्दिक श्रद्धा के साथ नहीं देखा जाता तब तक स्वस्थ समाजिकता संभव नहीं। परिवारजन्य संस्कार ही योग्य नागरिकता का और जीवन का शुद्ध पाठ पढ़ा सकते हैं। माँ पर कविता की कुछ मर्मस्पर्शी पंक्तियां देखिये- माँ। तुम्हारी जिंदगी का गीत गा पाया नहीं/ आज भी इस फ्लैट में/तू ढू़ंढ़ती छप्पर/झूठे बासन मॉजने को/जिद करती है/आज भी बासी बची रोटी न मिलने पर/ बहू से दिन भर नहीं तू बात करती है/मैं न सेवा कर सका अर्थात असली धन कमा पाया नहीे। इसी तरह पिता का स्वतंत्रता संग्राम याद करते हुए गीतकार की चिंता का विषय, बालू पर लोट रहे, कंचे खेल रहे घरौंदेें बनाते हुए बच्चों पर केद्रित होता है क्योंकि देश का भावी नक्शा इन्हीं के जिम्मे हैं। चाहे हरित वन का मनुष्यों की स्वार्थपूर्ण आरी से काटने की बात हो, या नदियों के जल-बॅटवारे की, चाहे कश्मीर-गोधरा हादसे का दृश्य हो या औरत पर पुरूष दासिता की नीयत- सब पर वीरेद्र की कलम चली है। अखिल सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध इसी का नाम है या फिर सॉसों की डिबिया में ब्रह्मांड का समा जाना भी कहा जा सकता है। स्व से पर के विस्तारण की कोई हद नहीं होती। फिर भी निराशा-अवसाद-अनास्था का स्वर नकारात्मकता की ओर नहीं जाता- 

इस महानाश में
नव-संवेदन
मुझको रचना होगा। 

हारा-सा सूना खंडहर हूँ 
बिरवा-सा उगना होगा।यह आशापूर्ण संघर्ष का स्वर है।

जाहिर है *दिन क्या बुरे थे!* में वीरेंद्र आस्तिक नेनए शब्द विन्यास और अभिनव शैली-शिल्प से गीतों को संवारा है, नई धुनें दीं है और इस मिथक को तोड़ने में सबसे ज्यादा हाथ बँटाया है कि गीतों के लिए तो बस दो दर्जन शब्दावली पर्याप्त है- हथेली, मेंहदी, महावर, चांदनी, सागर, लहर, ...मुखड़ा, चमेली आदि। वे आधुनातन शब्द विन्यास के पक्षधर हैं और इस मामले में अपने ही तटबंधों का अतिक्रमण करते हैं। विषय-वैविध्य इतना है कि इस प्रतिस्पर्धा में गीत-नवगीत नयी कविता का ग्राफ लगभग एक-सा है। मेरी विनम्र राय में वीरेन्द्र आस्तिक नयी कविता को गीत-नवगीत के जवाब हैं

समीक्षक:
(स्व.) डॉ सन्तोष कुमार तिवारी
सागर, म प्र 


Veerendra Astik's Din Kya Bure The (Anthology of Hindi Lyrics)

समीक्षा: गीत के ये नये आकाश- वीरेंद्र आस्तिक

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दिखने में सौम्य-सरल, आँखों में विनम्र-भाव और ऊँची कद-काठी पर धूसरित संघर्षी-छवि का आकर्षण-किसी भी व्यक्ति के मन में सहज ही यह लालसा उठ सकती है कि ऐसे व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त किया जाए। किसी किसान को देखकर सामान्य तौर पर कहां आता है खयाल कि वह व्यक्ति उद्भट विद्वान भी हो सकता है। ऐसे ही हैं डॉ हुकुम पाल सिंह विकलउनसे जब पहली बार मिला तो हू-ब-हू यही घटित हुआ मेरे साथ। अरसे बाद विकल जी का गीत संग्रह- देती है आवाज नदी, आया है। उलट-पुलट कर देखा-पढ़ा तो कुछ लिखने का मन हुआ। कम ही संग्रह मिलते हैं, जिन पर अपने आप लिखने का मन बन जाए।

आजीवन शिक्षा विभाग में रह कर विकल जी, शिक्षा जगत की नीवें मजबूत करते रहे और सामने आईं विपत्तियों से संघर्ष करते रहे। सांप्रदायिक सद्भाव बना रहे, चाहे उनका स्वयं का घर ही क्यों न जल उठे। ऐसे दृढ़ संकल्पित, भावुक और कल्पनाशील विकल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व में फर्क करना मुश्किल ही नहीं असंभव है। गत्यात्मकता उनके स्वभाव में है, इसलिए गीत में परिवर्तन (नव गति नव ताल छन्द नव) के पक्षधर हैं, किन्तु गीत-नवगीत को गीत ही कहने में विश्वास रखते हैं। आखिर गीत की विरासत से कैसे अलग-थलग हुआ जाय।

विकल जी गीत-तपस्वी हैं। गीत उनके भीतर से आता है क्योंकि पहले वे जीते हैं उसे। कोई भी दृश्य अथवा घटना जब आत्मसात करते हैं तो उनके मन-ह्नदय को वह रसाद्र कर देती है। इस तरह भीतर का भाव-रस गीत के रूप में बाहर आता है। रससिद्ध रचनाकार ही अगाध-गहन-सिन्धु हो सकता है। कठिन संघर्ष के क्षणों में भी द्वेत भाव, विरोधाभास, और अपना-पराया आदि के भाव को सम पर रखते हुए वे सामान्य बने रहते हैं। शायद इसीलिए वे लोकधर्म को सर्वोच्च धर्म मानते हैं और निराला के छन्द विस्तार के शास्त्र में आस्था रखते हैं-
मुक्त छन्द होकर भी ये सब
नहीं छन्द से मुक्त हुए
इस धरती के लोकधर्म से
क्षण भर नहीं विरक्त हुए। (पृष्ठ: 92-93)

विकल जी में भारतीय सांस्कृतिक चिंतन की गहरी पैठ है। इनके कई गीत इसका हमें अहसास दिलाते हैं। वे अहसास दिलाते हैं कि हम अपने जीवन-मूल्य बहुत पीछे (अतीत) छोड़ आए हैं। वहीं से हमें नए ढंग की जीवन की शुरूआत करनी होगी। ऐसा वे संकेत देते हैं -

नानी-दादी के किस्से
जाने कब हवा हुए
सब संवेदन आपस के 
तिथि बीती दवा हुए
पगदण्डी का राजपथों से
मिलना नहीं फला। (पृष्ठ: 40)

गीत किसी विषय की विशेषताओं का वर्णन नहीं होता, न वस्तु की ही। जहां ऐसी स्थितियां आती हैं, गीत साधारण हो जाता है। दरअसल गीत वह कहन प्रक्रिया है जिसके भीतर से वस्तु का प्राकट्य होता है बिलकुल दधि से नवनीत की तरह। विकल जी की जिन्दगी में गीत-मर्म घुल-मिल गया है अत: स्वभाव से ही वे गीत-पारखी हो गए हैं, इसका लाभ लिया है उन्होंने अपने गीत रचाव में। यही कारण है कि अधिकांश गीतों में अन्विति की प्रधानता है। गीत रचना में अन्विति का विशेष महत्व है, बल्कि बिना अन्विति के तो गीत में रसपरिपाक ही नहीं होता। गीत संप्रेषणीय है अर्थात वह अन्विति प्रधान है। श्रोता/ पाठक के मन को अर्थ-पाश से बाँधना और बाँधते जाना ही तो गीत की प्रतिक्रिया है।

भूखे चार और भोज्य सामग्री अत्यल्प। एक रोटी को चार जनों में बाँट कर खाने से भूख तो मिटती नहीं लेकिन कवि ने उन चारों की भूख को आत्म संतोष की तृप्ति से मिटा दिया। संतोष के आनंद से परम कोई आनंद नहीं हो सकता। यहाँ कवि का भारतीय चिंतन बोलता है और जो प्रासंगिक भी है, अर्थात ह्यजब आए संतोष धन सब धन धूरि समान।ह्ण शिखरों को छूने की प्रतिस्पधार्ओं ने व्यक्ति को ही हताश किया है। भूमण्डलीय व्यवस्थाओं ने जनसाधारण को निराशा के कगार पर खड़ा करके जीवन-मृत्यु के असमंजस में झोंक दिया। विकल जी परिवेश की इस विभीषिका को देख रहे हैं और बड़े ही सहज-संक्षिप्त विन्यास में गीत कह कर व्यक्ति को बचा लेते हैं।

चार जनों ने उस रोटी को
सहज बाँट कर खाया
देख उसे आँगन का बिरवा
मन ही मन मुस्काया
द्वार-देहरी इसी खुशी में
लगे संग नचने। (पृष्ठ: 21)

कवि राष्ट्रीय गौरव और भारत के प्रागैतिहासिकता से भलीभाँति परिचित है। तभी तो वह मौजूदा उपलब्धियों से प्रसन्न होने की बजाय क्षुब्ध हो रहा है, बल्कि उपलब्धियोें से भय उत्पन्न हो रहा है। उपलब्धियां आमजन के हित में नहीं हैं। विकास ही शोषक के रूप में प्रकट हो रहा है। यह नया तथ्य है जो रचनाकार के गीत-नये नये आकाश से अभिव्यक्त हुआ है -

यह मन बिलकुल ऊब चुका है-
नये-नये आकाश से
भय-सा लगने लगा शहर के
बढ़ते हुए विकास से
***
टूट रहे हैं धीरे-धीरे
सब अपने इतिहास से (पृष्ठ: 22-23)

कवि को कथित विकास में शोषक-शोषित के जो द्वन्द्वात्मक मूल्य दिख रहे हैं वे वास्तव में भारतीय सांस्कृतिक चिंतन के विरोधी हैं। विकल जी इस तरह अपने गीतों में अनेक समकालीन प्रश्न उठाते हैं और उन पर विचार करने की प्रेरणा देते हैं

समीक्षक:

वीरेंद्र आस्तिक 
एल 60, गंगानगर 
कानपुर, उ प्र 

Detee Hai Awaz Nadi by Dr Hukumpal Singh Vikal

`रीच' विरासत के सदस्यों ने डॉ बुद्धिनाथ मिश्र को दी दोहरी बधाई

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 डॉ बुद्धिनाथ मिश्र 

देहरादून, 7 सितम्बर। `रीच' विरासत के कार्यालय में आज हुई बैठक में देहरादून के शीर्षस्थ कवि और `रीच' के वरिष्ठ सदस्य डॉ . बुद्धिनाथ मिश्र को इस माह देश के दो विशिष्ट सम्मान एक साथ मिलने पर उन्हें दोहरी बधाई दी गयी।

डॉ . मिश्र को आगामी 14 सितम्बर को लखनऊ में आयोजित एक भव्य समारोह में राज्य के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव उन्हें उप्र हिन्दी संस्थान का दो लाख रु का `साहित्य भूषण ' सम्मान प्रदान करेंगे।

उन्हें दूसरा महत्वपूर्ण पुरस्कार 21 सितम्बर को कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद् सभागार में आयोजित परिवार मिलन संस्था का प्रथम `काव्य वीणा ' पुरस्कार दिया जाएगा। रु . 51 हजार का यह सम्मान पिछले वर्षों में प्रकाशित कुल 68 छंदोबद्ध कृतियों में `शिखरिणी ' गीत संग्रह को प्रथम चुने जाने के कारण उन्हें दिया जाएगा ।

मिथिला में जन्मे , काशी में पले -बढे बुद्धिनाथ जी कलकत्ता में 18 वर्षों तक सरकारी सेवा में रहने के बाद ओएनजीसी के आमंत्रण पर 1998 में देहरादून आये और 2009 में मुख्य प्रबंधक ( राजभाषा ) पद से रिटायर होने के बाद स्थायी रूप से यहीं बस गए । पिछले मई मास में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित इनका काव्य संग्रह `ऋतुराज एक पल का ' काफी चर्चित हुआ है । बुद्धिनाथ जी को रूस का अन्तर-राष्ट्रीय अलेग्जेंडर पुश्किन सम्मान सहित देश-विदेश के अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं ।

राकेश चक्र जी की कुण्डलियाँ

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राकेश चक्र 

हाल ही में चर्चित साहित्यकार श्रद्देय राकेश चक्र जी की कुण्डलियाँ छंद में अनूठी पुस्तक 'चाचा चक्र के सचगुल्ले' प्रकाशित हुई। मन हुआ कि इसमें से कुछ कुण्डलियाँ प्रकाशित की जाएँ। 14 नवम्बर 1955 को ग्राम- सजाबाद-ताजपुर, जनपद-अलीगढ़ (उ.प्र.) में जन्मे राकेश 'चक्र' की अब तक लगभग 60 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी बाल साहित्य पर लिखी कई पुस्तकें कई विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मलित की जा चुकी हैं। आपकी लघुकथाओं का अंग्रेजी में 'द एक्जामिनेशन' शीर्षक से अनुवाद किया जा चुका है। रस्किन बोंड ने लिखा है- "राकेश चक्र एक संवेदनशील रचनाकार हैं और इनकी कहानियाँ मानवीय मूल्यों को प्रस्तुत करती हैं।" संपर्क: 90 बी, शिवपुरी (डबल फाटक) मुरादाबाद- 244001, दूरभाष- 945620185

(1)
गूगल सर्च इंजन से साभार 
चेहरे पर चेहरे मिलें, अद्भुत इनके जाल।
गैंडे की सी हो गई, मोटी इनकी खाल।।
मोटी इनकी खाल, स्वयं को धोखा देते।
लेते देते खूब, ऐंठ में वे हैं रहते।।
कहें चक्र कविराय हुए हम अंधे बहरे।।
असली चेहरे छिपे आज चेहरे पर चेहरे।।

(2)
नस-नस में है भर गया, विष-सा भ्रष्टाचार।
सिंहासन पर बैठ कर, बढ़े पाप-कुविचार।।
बढ़े पाप-कुविचार कि सीना खोले चलते।
सीधे साधे लोग देख, हाथों को मलते।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, मुट्ठियां भिंचती कस-कस।।
टूटे भ्रष्टाचार की, भइया, अब तो नस-नस।।

(3)
अपनी-अपनी गा रहे, दूध धुला न कोय।
चौराहे जनता खड़ी, लालच मक्खन होय।।
लालच मक्खन होय, भ्रमित है जनमत सारा।
प्रत्याशी को जाति-धर्म की आड़ उतारा।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, जुगत है लगे पटकनी।
छल, प्रपंच में सभी, गा रहे अपनी-अपनी।।

(4)
अन्ना जी के साथ हम, अन्ना जनमत साथ।
भूखे को रोटी मिले, बेरोजी को हाथ।।
बेरोजी को हाथ, देश खुशहाल बनायें।
जाति धर्म के बन्धन, टूटें प्यार बढ़ायें।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, शुद्ध हो, फिर गंगाजी।
हम सबका हो साथ, तो जीतेंगे अन्ना जी।।

(5)
जीवन ये रंग मंच है, नहीं समझते लोग।
अपना-अपना धर्म है, अपने-अपने भोग।।
अपने-अपने भोग, नहीं कोई साथ निभाता।
मुट्ठी बांधे आया मानव, हाथ पसारे जाता।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, मोह से लगता बन्धन।
बिना मोह के जिये सदा, क्या बढ़िया जीवन।।

(6)
मानव को मैं खोजता, लिये दीप को हाथ।
भू अम्बर मिलता नहीं, सहज प्यार का साथ।।
सहज प्यार का साथ, डंक बिच्छू-सा मारें।
दम्भ-स्वार्थ में डूब गए, सब गेह उजाड़ें।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, हर जगह बाढ़े दानव।
प्रभु भेजो अपनी दुनियां में मानव-मानव।।

(7)
अपनी-अपनी मत कहो, गैरों की सुन यार।
प्रेम बढ़ेगा नित सदा, कभी न होगी रार।।
कभी न होगी रार, रोज गलबहियां होवें।
द्वेष, कपट, हिंसा सारे, सिर पकड़ के रोवें।।
कहे ‘चक्र’ कविराय, बजाओ प्रेम की ढपली।
रोज करो उपकार, करो ना अपनी-अपनी।।

Rakesh Chakra

प्रथम सृजनगाथा सम्मान हेतु प्रविष्टि आमंत्रित

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रायपुर। पिछले 7 वर्षों से संचालित साहित्य, संस्कृति और भाषा की अंतरराष्ट्रीय वेब पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम (www.srijangatha.com) द्वारा इस वर्ष से साहित्यिक, सांस्कृतिक, रचनात्मक व कलात्मक लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए सृजनगाथा सम्मान का शुभारंभ किया गया है । सम्मान हेतु देश एवं विदेश में सक्रिय रचनाकारों से उनकी प्रविष्टि सादर आमंत्रित की जा रही है । प्रविष्टि में किसी भी विधा की प्रकाशित पुस्तकें भेजी जा सकती हैं ।

नियमावली:
 
1. इस सम्मान हेतु रचनाकार को अपनी प्रतिनिधि व प्रकाशित किताब की 2-2 प्रतियाँ जयप्रकाश मानस, संयोजक, सृजनगाथा डॉट कॉम, एफ-3, आवासीय परिसर, छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल, पेंशनवाड़ा, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001, मो. 94241-82664 के पते पर 30 अक्टूबर, 2013 से पूर्व भेजना अनिवार्य होगा । ज्ञातव्य हो कि प्रविष्टि हेतु भेजी जानेवाली कृति 1 जनवरी 2011 से 1 जनवरी 2013 के मध्य प्रकाशित होना चाहिए । 

2. रचनाकार की अनुशंसा उपर्युक्तानुसार कोई मित्र साहित्यकार, संपादक, साहित्यिक संस्थाएं वांछित प्रविष्टि भेजकर भी कर सकती हैं । 

3. सम्मान स्वरूप अंतिम रूप से चयनित युवा रचनाकार को 21,000 रूपये नगद, शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह प्रदान किये जायेंगे । 

4. केवल उन प्रविष्टियों पर विचार किया जायेगा जिस रचनाकार की उम्र 1 जनवरी, 2014 को 45 वर्ष से अधिक हो। 

5. प्रविष्टि में रचनाकार का संक्षिप्त बायोडेटा व फोटो भेजना अनिवार्य है । 

6. पुरस्कार हेतु अंतिम रूप से रचनाकार का चयन एक उच्च स्तरीय समिति द्वारा किया जायेगा । इस चयन समिति में श्री गिरीश पंकज, संपादक सद्भावना दर्पण,रायपुर, डॉ. सुशील त्रिवेदी (आईएएस) वरिष्ठ साहित्यकार, रायपुर, अशोक सिंघई, वरिष्ठ कवि, भिलाई, डॉ. बलदेव, वरिष्ठ आलोचक, रायगढ़ शामिल हैं । 

7. यह सम्मान 8 वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन. श्रीलंका, कोलंबो के मुख्य समारोह (www.facebook.com/events/1402215959991769/) में 22 जनवरी, 2014 के दिन प्रदान किया जायेगा । 

8. यदि किसी कारण से चयनित रचनाकार उक्त सम्मेलन में सम्मिलित नहीं हो सकेगा तो उसे रायपुर में आयोजित समारोह में यह पुरस्कार प्रदान किया जा सकेगा । 

हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर सम्मान समारोह एवं काव्य गोष्ठी

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मुरादाबाद।महाराजा हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर काव्य गोष्ठी तथा सम्मान समारोह आयोजन किया गया। 

महाराजा हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हुए कार्यक्रम का शुभारंभ मां सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित तथा माल्यार्पण करके किया गया।

इस अवसर पर हिन्दी विभाग की अध्यक्ष डा. मीना कौल ने कार्यक्रम की रूपरेखा तथा उसके औचित्य पर प्रकाश डाला। इसके बाद हिन्दी भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए डा. अजय अनुपम तथा डा. अवनीश सिंह चौहान को सम्मानित किया गया। 

साथ ही विभिन्न कक्षाओं में हिन्दी विषय में प्रथम श्रेणी के सर्वोच्च अंक पाने वाले हृदेश कुमार, महीपाल, गुल अफशां, शाजिया परवीन, अर्जुन सिंह यादव, सलमा, जमुना प्रसाद, पूनम सैनी व हेमलता रानी को प्रमाण-पत्र और पुरुस्कार देकर सम्मानित किया गया। 

तदुपरान्त काव्यपाठ किया गया, जिसमें माहेश्वर तिवारी, डॉ हरिवंश दीक्षित डॉ विशेष गुप्ता, डॉ अजय अनुपम, डॉ मीना कौल, डॉ सुधीर कुमार अरोड़ा, डॉ मुकेश चन्द्र गुप्ता, डॉ प्रियंका, डॉ अवनीश सिंह चौहान आदि ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। 

इस मौके डा. सतीश गुप्ता, डा. मधुबाला सक्सेना, डा. रवीश कुमार, मधुकर श्रीवास्तव, विलाल अहमद, राजेंद्र बाबू, मुन्तसिबुर्रहमान आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम में डा. मनीष भट्ट, डा. ऋचा भट्ट, डा. संगीता गुप्ता, डा. सुषमा गुप्ता का विशेष सहयोग रहा। अध्यक्षता प्राचार्य प्रोफेसर हरबंश दीक्षित ने तथा संचालन डा. मुकेश चंद्र गुप्ता ने किया

M.H.P.G. COLLEGE, MORADABAD

क्या है हिन्दी भाषा का भविष्य? - कीर्ति श्रीवास्तव

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कीर्ति श्रीवास्तव

चर्चित युवा साहित्यकार एवं वरिष्ठ उप-सम्पादक समीर श्रीवास्तव जी के बारे में हम सभी जानते हैं लेकिन उनको ऊर्जा प्रदान करने वालीं उनकी सहधर्मिणी युवा कवयित्री कीर्ति श्रीवास्तव जी से हमारा परिचय उतना नहीं है। इसका कारण यह रहा कि वे लेखन से तो काफी समय से जुडी हुईं हैं, लेकिन उनकी रचनाओं का आस्वादन करने का अवसर हमें कुछ समय पहले ही फेसबुक पर मिल सका। तभी से उनकी रचनाओं के बारे में मेरी धारणा बनी कि वे सामाजिक जीवन की विविध समस्याओं को व्यंजित करती हैं। उनकी रचनाएँ मध्यम वर्ग के सहज मनोविज्ञान को रेखांकित करती प्रतीत होती हैं और जिनसे आज के आदमी की अभिरुचि, भावनाओं, उसकी उलझनों, समस्याओं एवं संघर्षों को जाना-समझा जा सकता है। कीर्ति जी का जन्म 06 जुलाई 1974 को भोपाल, म.प्र. में हुआ। आपके पिताजी परम श्रद्धेय मयंक श्रीवास्तव जी हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् हैं। आपकी शिक्षा: एम.कॉम.,भोपाल विश्वविध्यालय, भोपाल से हुई। प्रकाशन: देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत, ग़ज़ल एवं कविताओ का प्रकाशन। सम्प्रति: संचालक 'विभोर ग्राफिक्स'। संपर्क: 'राम भवन', 444-9ए, साकेत नगर, भोपाल- 462024 (म.प्र.), मो.- 07415999621, 09826837335। ईमेल: gunjanshrivastava18@gmail.com 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी देश में हिन्दी भाषा के प्रति आम दृष्टिकोण बहुत उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता। हम अपनी बात जब शब्दों के माध्यम से किसी के सामने प्रस्तुत करते हैं तो सामने वाले को हमारी बात बेहतर समझ में आती है। हिन्दी एक ऐसी ही भाषा है। जिसके माध्यम से हम अपनी बात बड़े ही सरल तरीके से लोगों के सामने पेश कर सकते हैं। ऐसी है हमारी हिन्दी भाषा बेहद सरल, सहज और मधुर। 

उत्तर भारत में तथाकथित हिन्दी प्रदेशों में इसका जो स्थान होना चाहिए वह नहीं है। तो दक्षिण के हिस्सों में रह रहे गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के विषय में क्या हकह सकते हैं। वैसे सम्पूर्ण भारत में हिन्दी ही लोकप्रिय भाषा है। हिन्दी वो राष्ट्रभाषा है जो देशों, प्रदेश, शहर, गाँव, कस्बों सबको परस्पर जोड़कर रखती है। 

एक समय था जब हिन्दी जन जन की भाषा थी पर आज अंग्रेजी जन जन की भाषा बनती जा रही है और जो अंग्रेजी नहीं बोल पाते या समझ नहीं पाते उन्हें तिरस्कार का समाना करना पड़ता है।

हमारे माता-पिता ने हमें हिन्दी भाषा से परिचित कराया है और आज ये हमारा दायित्व बनता है कि हम इस परम्परा को आगे बढ़ाएं। हिन्दी भाषा का शब्दकोश बड़ा ही व्यापक है। हम अपनी किसी भी बात से सामने वाले को जितना हिन्दी के सरल शब्दों के साथ संतुष्ट करा सकते हैं उतनी सरलता अंग्रेजी भाषा में नहीं मिलती। अंग्रेज हमेशा अंग्रेजी भाषा का ही इस्तेमाल अपनी बोलचाल में करते थे और करते हैं पर हिन्दुस्तानी हिन्दी छोड़ अंग्रेजी का उपयोग करते हैं। वाह रे हिन्दुस्तानी! 

जिसे हिन्दी से लगाव नहीं उसे देश से, देश की संस्कृति से, रीति रिवाजों से, परम्पराओं से लगाव नहीं हो सकता। अंग्रेजी का उपयोग आम बोल में बड़े ही जोर शोर से लोग करते हैं या यूं कहें कि शान बताते हैं भले ही वो सामने वाले को समझ में आए या न आए बस ये बताना जरूरी है कि हमें अंग्रेजी आती है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी बोलने वाले लोग हैं ही नहीं। हिन्दी बोलने वाले लोग हैं पर वे अपने बच्चों को हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी पढ़ाना ज्यादा गर्व की बात मानते हैं उन्हें अंग्रेजी माध्यम के स्कुल में पढ़ाते हैं इसका एक कारण और भी हो सकता है। आजकल के वातावरण की हवा में अंग्रेजी भाषा घुली हुई है, अंग्रेजी आज की सबसे जरूरी या जरूरत की भाषा बन गई है। यदि अंग्रेजी का प्रयोग कम और हिन्दी का प्रयोग अधिक से अधिक किया जाने लगे तो हिन्दी का खोया हुआ सम्मान उसे वापस मिल सकता है।

आज एक क्षेत्र में हिन्दी का प्रयोग सबसे अक होता है, और वो है साहित्य। पर शायद हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए नहीं बस पुरस्कार और सम्मान पाने के लिए। मैं यह नहीं कहती कि सभी इस कारण से ही हिन्दी का प्रयोग करते हैं पर ये बात पूरी तरह से गलत भी नहीं। जब किसी भी वैज्ञानिक से शोध पत्र लिखने की बात कही जाती है या कानूनी, वाणिज्य या अर्थिक मुद्दों के संदर्भ में लेख लिखने की बात आती है तो उसे लिखने वाले हिन्दुस्तानी अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हैं। बाद में किसी विद्वान से उसका हिन्दी में अनुवाद करा देते हैं और तब अर्थ का अनर्थ होते देर नही लगती। हम ऐसे लोगों को हिन्दी प्रेमी की श्रेणी में नहीं रख सकते। हिन्दी के भविष्य के बारे में कुछ भी कह पाना बड़ा ही मुश्किल है। आज का युग कम्प्यूटर-लेपटाप का युग है। बिना कम्प्यूटर के आज किसी भी क्षेत्र में कोई भी कार्य नहीं किया जा सकता और उसमें अंग्रेजी का उपयोग ही होता है। ऐसा नहीं है कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में कार्य नहीं किया जा सकता पर हिन्दी का उपयोग यानि शान में कमी। 

अन्त में बस यहीं कहना चाहती हूँ-

सुन्दर शब्दों की पहचान है हिन्दी
भारत का अभिमान है हिन्दी
कानों में मधुर रस घोलती
हिन्दुस्तानियों की जान है हिन्दी

ज्ञान के माध्यम की भाषा और गांधी का पाठ

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प्रो॰ (डॉ.) अमरनाथ


चर्चित लेखक एवं शिक्षाविद डॉ अमरनाथ शर्माका जन्म 1 अप्रैल 1954 को गोरखपुर जनपद (संप्रति महाराजगंज), उ. प्र. के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में हुआ था। शिक्षा:एम.ए., पीएच. डी.(हिन्दी) गोरखपुर विश्वविद्यालय सेभाषा : हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला। पारिवारिक परिचय: माता : स्व. फूला देवी शर्मा, पिता : स्व. पं. चंद्रिका शर्मा, पत्नी : श्रीमती सरोज शर्मा, संतान : हिमांशु , शीतांशु एवं शिप्रा शर्मा। प्रकाशित कृतियाँ : ‘हिन्दी जाति’, ‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’, ‘नारी का मुक्ति संघर्ष’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिन्तन’,‘समकालीन शोध के आयाम’(सं॰), ‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’(सं॰), ‘सदी के अंत में हिन्दी’(सं॰),‘बांसगांव की विभूतियाँ’(सं॰) आदि। ‘अपनी भाषा’ संस्था की पत्रिका ‘भाषा विमर्श’ का सन् 2000 से अद्यतन संपादन। सम्मान व पुरस्कार :साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा का ‘संपादक रत्न सम्मान’, भारतीय साहित्यकार संसद का ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान’, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद का ‘प्रवासी महाकवि हरिशंकर आदेश साहित्य चूड़ामणि सम्मान’, मित्र मंदिर कोलकाता द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन आदि। संप्रति :कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर, 'अपनी भाषा'के अध्यक्ष और भारतीय हिन्दी परिषद् के उपसभापति। संपर्क :ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091, फोन : 033-2321-2898, मो.: 09433009898, ई-मेल : amarnath.cu@gmail.com. 

मारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने आजाद भारत का जो सपना देखा था और उस सपने को साकार करने के लिए जो मार्ग सुझाया था हम उस मार्ग से भटकते –भटकते विपरीत दिशा की ओर मुड़ गए और धीरे –धीरे चलते हुए इतनी दूर पहुँच चुके हैं कि अब तो उधर लौटना एक सपना देखना भर रह गया है. अज हम गाँधी जी की उस शैतानी सभ्यता की ओर बेतहासा भाग रहे हैं जिससे दूर रहने के लिए उन्होंने हमें बार-बार आगाह किया था. 

गांधी जी ने हिन्दी के आन्दोलन को आजादी के आन्दोलन से जोड़ दिया था. उनका ख्याल था कि देश जब आजाद होगा तो उसकी एक राष्ट्रभाषा होगी और वह राष्ट्रभाषा हिन्दी ही होगी क्योंकि वह इस देश की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा है. वह अत्यंत सरल है और उसमें भारतीय विरासत को वहन करने की क्षमता है. उसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि भी है. जो फारसी लिपि जानते हैं वे इस भाषा को फारसी लिपि में लिखते हैं. इसे हिन्दी कहें या हिन्दुस्तानी. 

आरंभ से ही गांधीजी के आन्दोलन का यह एक मुख्य मुद्दा था. अपने पत्रों ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ में वे बराबर इस विषय पर लिखते रहे. हिन्दी-हिन्दुस्तानी का प्रचार करते रहे. जहां भी मौका मिला खुद हिन्दी में भाषण दिया. गांधी जी के प्रयास से 1925 ई. के कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस का काम काज हिन्दुस्तानी में करने का प्रस्ताव पारित हुआ इस प्रस्ताव के पास होने के बाद गाँधी जी ने इसकी रिपोर्ट अपने पत्रों ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ दोनो में दी थी. उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था, “हिन्दुस्तानी के उपयोग के बारे में जो प्रस्ताव पास हुआ है, वह लोकमत को बहुत आगे ले जाने वाला है. हमें अबतक अपना काम काज ज्यादातर अंग्रेजी में करना पड़ता है, यह निस्संदेह प्रतिनिधियों और कांग्रेस की महा समिति के ज्यादातर सदस्यों पर होने वाला एक अत्याचार ही है. इस बारे में किसी न किसी दिन हमें आखिरी फैसला करना ही होगा. जब ऐसा होगा तब कुछ वक्त के लिए थोड़ी दिक्कतें पैदा होंगी, थोड़ा असंतोष भी रहेगा. लेकिन राष्ट्र के विकास के लिए यह अच्छा ही होगा कि जितनी जल्दी हो सके, हम अपना काम हिन्दुस्तानी में करने लगें.”( यंग इंडिया 7.1.1926 ) इसी तरह उन्होंने ‘नवजीवन’ में लिखा, “जहां तक हो सके, कांग्रेस में हिन्दी –उर्दू ही इस्तेमाल किया जाय, यह एक महत्व का प्रस्ताव माना जाएगा. अगर कांग्रेस के सभी सदस्य इस प्रस्ताव को मानकर चलें, उसपर अमल करें तो कांग्रेस के काम में गरीबों की दिलचस्पी बढ़ जाय.” ( नवजीवन, 3.1.1928 ) 

भाषा के बारे में अपनी साम्राज्यवाद विरोधी एवं सामासिक दृष्टि का परिचय देते हुए गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा, ‘प्रत्येक पढ़े लिखे भारतीय को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का और हिन्दी का ज्ञान सबको होना चाहिए. .... सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होगी. उसे उर्दू या देवनागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए. हिन्दू और मुसलमानों में सद्भाव रहे, इसलिए बहुत से भारतीयों को ये दोनों लिपियां जान लेनी चाहिए.” ( सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ-56 ) यहाँ उल्लेखनीय है कि गाँधी जी ने हिन्दी को किसी धर्म विशेष की भाषा न मानकर सभी भारतीयों की भाषा के रूप में उसे पहचाना. यह प्रकारान्तर से हिन्दी के धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रीय चरित्र की स्वीकृति थी. गाँधी जी का उक्त कथन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उस भाषाई षड्यंत्र का जवाब भी था जिसके तहत उन्नीसवीं सदी में फोर्ट विलियम कालेज के द्वारा हिन्दी को हिन्दुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रचारित करके हिन्दू- मुस्लिम अलगाववाद की नींव तैयार की गयी थी. 

गाँधी जी ने 20 अक्टूबर 1917 ई. को गुजरात के द्वितीय शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में राष्ट्रभाषा के कुछ विशेष लक्षण बताए थे, वे निम्न हैं— 

1. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए. 

2. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक कामकाज शक्य होना चाहिए. 

3. उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों. 

4. वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चहिए. 

5. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाये. 

उक्त पाँच लक्षणों को गिनाने के बाद गाँधी जी ने कहा था कि हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं और फिर हिन्दी भाषा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा, “हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूँ, जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी (उर्दू) लिपि में लिखते हैं. ऐसी दलील दी जाती है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग -अलग भाषाएं हैं. यह दलील सही नहीं है. उत्तर भारत में मुसलमान और हिन्दू एक ही भाषा बोलते हैं. भेद पढ़े लिखे लोगों ने डाला है. इसका अर्थ यह है कि हिन्दू शिक्षित वर्ग ने हिन्दी को केवल संस्कृमय बना दिया है. इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते है. लखनऊ के मुसलमान भाइयों ने उस उर्दू में फारसी भर दी है और उसे हिन्दुओं के समझने के अयोग्य बना दिया है. ये दोनो केवल पंडिताऊ भाषाएं हैं और इनको जनसाधारण में कोई स्थान प्राप्त नहीं है. मैं उत्तर में रहा हूँ, हिन्दू मुसलमानों के साथ खूब मिला जुला हूँ और मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगों के साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है. जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं, उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी, दोनो एक ही भाषा की सूचक है. यदि उसे फारसी लिपि में लिखें तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिन्दी कहलाएगी.” ( सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खण्ड- 10, पृष्ठ-29 ) 

गाँधी जी चाहते थे कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ मातृभाषा के माध्यम से हो. दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही उन्होंने समझ लिया था कि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा हमारे भीतर औपनिवेशिक मानसिकता बढ़ाने की मुख्य जड़ है. ‘हिन्द स्वराज’ में ही उन्होंने लिखा कि, “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी मे डालने जैसा है. मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी. उसने इसी इरादे से वह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता, किन्तु उसके कार्य का परिणाम यही हुआ है. हम स्वराज्य की बात भी पाराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है? ....यह भी जानने लायक है कि जिस पद्धति को अंग्रजों ने उतार फेंका है, वही हमारा श्रृंगार बनी हुई है. वहां शिक्षा की पद्धतिया बदलती रही हैं. जिसे उन्होंने भुला दिया है, उसे हम मूर्खता वस चिपटाए रहते हैं. वे अपनी मातृभाषा की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं. वेल्स, इंग्लैण्ड का एक छोटा सा परगना है. उसकी भाषा धूल के समान नगण्य है. अब उसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है....... अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है. अंग्रेजी शिक्षण से दंभ द्वेष अत्याचार आदि बढ़े हैं. अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं. जनता की हाय अंग्रेजों को नहीं हमको लगेगी.”( संपूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड-10, पृष्ठ-55 ) अपने अनुभवों से गाँधी जी ने निष्कर्ष निकाला था कि, “अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभूति, कोई संवाद नहीं है. शिक्षित समुदाय, अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-164) 

गाँधी जी नें इंग्लैण्ड में रहकर कानून की पढ़ाई की थी और बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी. अपने देश के संदर्भ में अंग्रेजी शिक्षा की अनिष्टकारी भूमिका को पहचानने में उनकी अनुभवी दृष्टि धोखा नहीं खा सकती थी. दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही वे अच्छी तरह समक्ष चुके थे कि भारत का कल्याण उसकी अपनी भाषाओं में दी जाने वाली शिक्षा से ही संभव है. भारत आने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उद्घाटन समारोह में जब लगभग सभी गणमान्य महापुरुषों नें अपने अपने भाषण अंग्रेजी में दिए, एक मात्र गाँधी जी ने अपना भाषण हिन्दी में देकर अपना इरादा स्पष्ट कर दिया था. संभवत: किसी सार्वजनिक समारोह में यह उनका पहला हिन्दी भाषण था. उन्होंने कहा, ‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है . .... मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा. हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिंब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है. क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? फिर राष्ट्र के पावों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती, तो आज हम किस स्थिति में होते ! हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-765 ) 

संभव है यहां कुछ लोग मातृभाषा से तात्पर्य अवधी, ब्रजी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका आदि लें क्योंकि आजकल चन्द स्वार्थी लोगों द्वारा अपनी-अपनी बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए उन्हें मातृभाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा हैं और इस तरह हिन्दी को टुकड़े टुकड़े में बांटने की कोशिश की जा रही है. ऐसे लोग न तो अपने हित को समझते हैं और न इतिहास की गति को. वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाते हैं खुद हिन्दी की रोटी खाते हैं और भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी तथा राजस्थानी आदि को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि इन क्षेत्रों की आम जनता को जाहिल और गँवार बनाये रख सके और भविष्य में भी उनपर अपना आधिपत्य कायम रख सके. ऐसे लोगों को गाँधी जी का निम्नलिखित कथन शायद सद्बुद्धि दे. गाँधी जी ने 1917 ई. में हिन्दी क्षेत्र के एक शहर भागलपुर में भाषण देते हुए कहा था, ”आज मुझे अध्यक्ष का पद देकर और हिन्दी में व्यख्यान देने और सम्मेलन का काम हिन्दी में चलाने की अनुमति देकर आप विद्यार्थियों ने मेरे प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है......इस सम्मेलन का काम इस प्रान्त की भाषा में ही— और वही राष्ट्रभाषा भी है --- करने का निश्चय करके आप ने दूरन्देशी से काम लिया है. इसके लिए मैं आप को बधाई देता हूँ. मुझे आशा है कि आप लोग यह प्रथा जारी रखेगे.” ( शिक्षण और संस्कृति, सं. रामनाथ सुमन, पृष्ठ-5 ) 

स्पष्ट है कि सम्मेलन का काम इस प्रान्त की भाषा में ही –और वही राष्ट्र भाषा भी है –कहकर गाँधी जी ने यह अच्छी तरह स्पष्ट कर दिय था कि बिहार प्रान्त की भाषा और मातृभाषा भी राष्ट्रभाषा हिन्दी ही है, न कि कोई अन्य बोली या भाषा. गाँधी जी का विचार था कि मां के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है. हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते है. 

विदेशी भाषा में शिक्षा देने के जो नुकसान गाँधी जी ने बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में बताए उनसे आज भी असहमत होना असंभव है. 

पिछले दिनों हमारे देश के प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा गठित ज्ञान आयोग ने शिक्षा के संबंध में जो सिफारिशें की हैं वे गाँधी जी के सपनों के ठीक विपरीत है. अपनी सिफारिशों में ज्ञान आयोग का मानना है कि अंग्रेजी भाषा की समझ और उसपर मजबूत पकड़ उच्च शिक्षा और रोजगार की संभावनाओं और सामाजिक अवसरों की सुलभता तय करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. इसलिए आयोग ने सुझाव दिया है कि “अब समय आ गया है कि हम देश के आम लोगों को स्कूलों में भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाएं और अगर इस मामले मे तुरंत कार्यवाही शुरू कर दी जाए तो एक समाहित समाज की रचना करने और भारत को ज्ञानवान समाज बनाने मे मदद मिलेगी.” ( राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का प्रतिवेदन, पृष्ठ-28) 

आयोग ने सुझाव दिया है कि पहली कक्षा से सभी बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दी जाय. आयोग के सुक्षाव के पूर्व देश के नौ राज्यों ( पूर्वोत्तर के छ: राज्यों सहित ) में पहली कक्षा से अंग्रेजी की शिक्षा दी जाती थी. किन्तु आयोग के सुक्षाव के बाद देश के सभी राज्यों में पहली कक्षा से अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही है. संप्रति केन्द्र और राज्य सरकारों में यह आम सहमति बनती दिखायी दे रही है कि भारतीय भाषाओं में अध्ययन करने के कारण बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं, जबकि पिछड़ेपन के मूल कारण कहीं और हैं. 

विगत लोक सभा चुनाव के ठीक पहले आयी अर्जुन सेनगुप्त आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के 87 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में ही सरकारी स्कूल हैं और इनमें से एक लाख सरकारी स्कूलों के पास सिर्फ एक ही कमरा है. औसत 42 छात्रों पर एक शिक्षक हैं. 80 हजार स्कूलों में ब्लैक बोर्ड तक नहीं हैं. 10 प्रतिशत के पास पीने का पानी तक नहीं है. इसके बरक्स दूसरी ओर देखें तो पब्लिक स्कूलों की वह दुनिया है जिसमें बेतहासा पूँजीनिवेश हो रहा है क्योंकि वहां अकूत मुनाफा है. भविष्य भी वहां उज्जवल दिखायी दे रहा है. छोटे छोटे शहरों में ऐसे पब्लिक स्कूल बड़ी संख्या में खुल रह हैं. महानगरों में तो पाँचसितारा संस्कृति वाले ऐसे स्कूल बड़ी संख्या में हैं जहां एडमीशन के लिए लाखों का डोनेशन देना पड़ता है. जहां देखा जाता है कि अभिभावक के पास गाड़ी है या नहीं. जहां एडमीशन तो बच्चे का होता है कितु इंटरव्यू माँ –बाप का होता है. 

परिस्थितियां ऐसी बना दी गयी हैं कि इस देश की किसी भी भाषा में पारंगत होने पर आप को कोई नौकरी नही मिल सकती. किन्तु आप भले ही इस देश की कोई भी भाषा न जानते हों और सिर्फ एक विदेशी भाषा अंग्रेजी जानते हों तो आप को बड़ी से बड़ी नौकरी सम्मान के साथ मिल सकती है. ऐसी दशा में अपने बच्चों को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता भला कोई कैसे कर सकता है ? इस देश के शासक वर्ग ने सारे नियम कानून ऐसे बना रखे हैं कि अंग्रेजी के बगैर न तो आप को रोजी-रोटी मिलेगी और न सम्मान के साथ जीवन. 

विगत कुछ वर्षों से हिन्दी की कई बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए आन्दोलन चलाया जा रहा है. संसद के पिछले सत्र में हमारे गृहमंत्री माननीय पी. चिदंबरम साहब ने सांसदों को इस आशय का एक आश्वासन भी दे रखा है कि अगले मानसून सत्र में इससे संबंधित एक बिल संसद में लाया जाएगा. 

अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है. साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली. जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल थीं. फिर 14, 18 और अब 22 हो चुकी हैं. अकारण नहीं है कि जहाँ एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएं यानी अस्मिताएं टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है. हमारी दृष्टि में ही दोष है. इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के लोगों द्वारा गलोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट करके कमजोर किया जा रहा है. 

वस्तुत: साम्राज्यवाद की साजिश हिन्दी की शक्ति को खण्ड-खण्ड करने की है क्योकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है. इस देश में अंग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है. इसलिए हिन्दी को कमजोर करके इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है. अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद का यही एजेंडा है. 

अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की सचमुच चिन्ता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए. उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिन्दी से अलग कर देना और उसके समानान्तर खड़ा कर देना तो उसे और हिन्दी, दोनो को कमजोर बना देना और उन्हें आपस में लड़ाने की जमीन तैयार करना है. 

वस्तुत: हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिन्दी ही है. हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता है. हिन्दी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमे हम अपने सारे औपचारिक और शासन संबंधी काम काज करते हैं. यदि हिन्दी की तमाम बोलियां अपने अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिन्दी की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो जाएगी. 

इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना पड़ेगा. विद्यापति को अबतक हम हिन्दी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे. अब हम उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं. अब वे सिर्फ मैथिली के कोर्स में पढ़ाये जाएंगे. क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाय़ ? 

अंतत: हम फिर कहना चाहते हैं कि हम गाँधी जी के दिखाए गए रास्ते की उल्टी दिशा में चलते –चलते बहुत दूर जा चुके हैं. गाँधी जी ने जिस आजादी का सपना देखा था वह आज भी अधूरा ही है. मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में कुर्सी पर ‘जॉन’की जगह ‘गोविन्द’ बैठ गए हैं. हमें सच्ची आजादी के लिए फिर से एक दूसरी लड़ाई लड़नी होगी. आज हमारी अपनी भाषाओं को जिस सीमा तक सम्मान और अधिकार मिला हुआ है उसी सीमा तक हम आजाद हैं


Hindi, India and Gandhi

त्रिलोक सिंह ठकुरेला का कुण्डलिया संग्रह 'काव्यगंधा'लोकार्पित

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सिरोही ( 20 -09- 2013 ) राजस्थान साहित्य अकादमी एवं अजीत फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में सर्वधाम मंदिर के सभागार में आयोजित कार्यक्रम में साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला के कुण्डलिया संग्रह 'काव्यगंधा 'का लोकार्पण किया गया .कार्यक्रम का शुभारंभ दीप-प्रज्वलन और सरस्वती वन्दना के साथ हुआ .इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि और वरिष्ठ आलोचक डॉ.रमाकांत शर्मा , अजीत फाउंडेशन के सचिव श्री आशुतोष पटनी ,एस.पी. कालेज के प्राचार्य डॉ. वी.के. त्रिवेदी एवं साहित्यकार श्रीमती शकुन्तला गौड़ 'शकुन 'सहित अनेक गणमान्य व्यक्ति एवं साहित्यप्रेमी उपस्थित थे.

राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष श्री वेद व्यास ने इस अवसर पर शुभ-कामनाएं व्यक्त करते हुए कहा कि 'इस कंप्यूटर के युग में भी पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा बहुत कम लोगों के पास है.इसी कारण साहित्यकार और पुस्तकें आज भी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं.

राजकीय महाविद्यालय , सिरोही की हिन्दी प्रवक्ता सुश्री शची सिंह ने कहा कि 'आज कविता से छंद लुप्त होता जा रहा है और कविता गद्य का रूप लेती जा रही है. ऐसे समय में 'काव्यगंधा 'का प्रकाशित होना सुखद तो है ही , यह साहित्य की छांदस परम्परा को आगे बढाने का एक प्रशंसनीय प्रयास है.मुझे पूर्ण विश्वास है कि त्रिलोक सिंह ठकुरेला का यह संग्रह कुण्डलिया छंद को नए शिखर और नए आयामों की ओर ले जाएगा. जीवन में यदि भाव न हों तो जीवन नीरस हो जाएगा . काव्यगंधा की कविता भावों की कविता है. 

शुश्री शची सिंह ने 'काव्यगंधा 'से कुण्डलिया छंदों का वाचन भी किया. इस अवसर पर श्रीमती शकुन्तला गौड़ 'शकुन 'के कविता संग्रह 'हम तो वृक्ष हैं 'का लोकार्पण भी किया गया. 'डॉ.सोहनलाल पटनी स्मृति व्याख्यान 'के अंतर्गत 'साहित्य ,समाज और हमारा समय 'विषय पर बोलते हुए श्री वेद व्यास ने डॉ.सोहनलाल पटनी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि डॉ.सोहनलाल पटनी का व्यक्तित्व सभी को प्रभावित करता था. उनका कृतित्व एवं शोध कार्य समय की कसौटी पर महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं. उन्होंने कहा कि साहित्यकार , चित्रकार और शिल्पकार ही देश का भविष्य और इतिहास बनाते हैं .साहित्यकार संवेदनशील होता है और उसे दूसरे का दुःख प्रभावित करता है .जो धारा के विरुद्ध चलता है, वही इतिहास बनाता है और साहित्यकार को भी कई बार समय की धारा के विरुद्ध चलना पड़ता है . उन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा कि युवा साहित्य से जुड़ें और विविध विधाओं में रचनाओं का सर्जन करें. अंत में श्री आशुतोष पटनी ने सभी का आभार प्रकट करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया.

कवि बुद्धिनाथ मिश्र 'साहित्य भूषण'से सम्मानित

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हिन्दी और मैथिली के वरिष्ठ कवि डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र को हिन्दी दिवस के अवसर पर लखनऊ में आयोजित एक भव्य समारोह में उ.प्र. के मुख्य मंत्री श्री अखिलेश यादव ने `साहित्य भूषण 'पुरस्कार से सम्मानित किया।

इस उपलक्ष्य में शाल, ताम्रपत्र और दो लाख रु . की धनराशि अर्पित की गयी। इस अवसर पर गोपाल दास `नीरज'को भारत भारती , सोम ठाकुर को हिन्दी गौरव, अशोक चक्रधर को विद्या भूषण तथा देश के विभिन्न भागों से आये साहित्यकारों को 60 से अधिक सम्मान दिये गये।

प्रारंभ में उ.प्र. हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष श्री उदय प्रताप सिंह ने कहा कि दुनिया की सभी भाषाओँ में कविता का उद्भव पहले हुआ, गद्य का विकास बाद में। सदियों से समाज को सौमनस्य की दिशा कविता ही देती रही है।

मुख्य अतिथि श्री मुलायम सिंह ने कहा कि समाज में पारस्परिक विश्वास घटने से ही दंगे होते हैं। साहित्य आपसी विश्वास बढाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन्होंने कहा कि जब से केंद्र में मिली-जुली सरकार बनने लगी, तबसे दक्षिण भारत में भी हिन्दी का राजनीतिक विरोध समाप्त हो गया है।

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अगले वर्ष से कुछ पुरस्कारों की राशि बढाने और व्यंग्य विधा तथा विधि साहित्य के लिए दो-दो लाख के नए पुरस्कारों की घोषणा की।

सभी अभ्यागत साहित्यकारों के सम्मान में मुख्य मंत्री निवास पर रात्रिभोज दिया गया, जिसमें तमाम कलमकार, अधिकारी और राजनेता उपस्थित थे। उत्तराखंड के पूर्व मुख्य मंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी ने देहरादून के साहित्यकार डॉ. मिश्र को विशेष बधाई दी।

चन्द्र प्रकाश पांडे के दो नवगीत

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चन्द्र प्रकाश पांडे



वरिष्ठ कवि चन्द्र प्रकाश पांडे का जन्म 6 अगस्त 1943 को लालगंज, रायबरेली, उ प्र में हुआ।शिक्षा:एम ए, विशारद (वै) साहित्य रत्न। प्रकाशित कृतियाँ:बैसवाड़ी के नए गीत, मुट्ठी भर कलरव (नवगीत संग्रह), आँखों के क्षेत्रफल में (ग़ज़ल संग्रह), राम के वशंज (बाल कथाएं)।सम्मान:आकाशवाणी हरिद्वार एवं कोलकाता, राष्ट्र निर्माण सेवा समिति, अहमदाबाद आदि द्वारा सम्मानित। संपर्क: लालगंज, रायबरेली, उ. प्र., मोब - 09621166955


(1) एक नदी
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

सुख की
एक नदी बहती है
दुख के निर्जन से
पंख घुमावों में उतरे हैं
उगते बचपन से

सारे घर आंगन में टहलें
धूप-छांह से दिन
और घोसले टूटे जोड़ें
तिनके-तिनके बिन
छवि के
दावेदार खड़े हैं
टेढ़े दर्पण से

आधी आकाशी है
आधी गहराई में देह
भीड़ और सन्नाटों के स्वर 
अंखुआता संदेह
पथराये दृश्यों तक
दौड़े
दृष्टि समपर्ण से।

(2) जी न लगे

जी न लगे
इस सूनेपन में
और न तेरे संग

आज उगे 
हैं बाहर-भीतर
सरपत के जंगल
बासी हुई हवायें
आकर
टहलें अगल-बगल
रुचीं न बातें
मौसम की भी
बौने हुये प्रसंग

गहरी चोट लगे पानी सा
घण्टो तक कंपना
कुछ-कुछ भूल चुके थे
टूटन
बीती दुर्घटना
ऐसे कभी-कभी
लौटी है
खण्डित हुई तरंग।




Chandra Prakash Pande

गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र की `शिखरिणी'पुरस्कृत

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कोलकाता: गत 21 सितम्बर को कोलकाता की प्रमुख साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था `परिवार मिलन'ने सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र के गीत संग्रह `शिखरिणी'को पिछले वर्षों में प्रकाशित 68 प्रतिनिधि छंदोबद्ध काव्य संग्रहों में प्रथम स्थान देते हुए उसे अपने प्रथम `काव्य वीणा 'पुरस्कार से सम्मानित किया। भारतीय भाषा परिषद् के सभागार में आयोजित एक भव्य समारोह में डॉ . मिश्र को धातु-निर्मित पुस्तक-वीणा का प्रतीक-चिह्न, 51 हजार रु. की सम्मान-राशि, शाल, श्रीफल आदि भेंट कर उनके दीर्घ सृजनशील जीवन की कामना की गयी । 

समारोह की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने बुद्धिनाथ जी के गीतों में ग्रामीण जीवन के यथार्थ पर प्रकाश डाला । उन्होंने कहा कि बुद्धिनाथ में मैथिली और भोजपुरी के साथ-साथ बंगाली संस्कृति का अद्भुत मिश्रण है।

मुख्या अतिथि डॉ. रामजी तिवारी (मुंबई) ने हिन्दी गीत के परिप्रेक्ष्य में `शिखरिणी'के गीतों में प्रेम और सौंदर्य के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों का विशद विवेचन किया और कहा कि यवतमाल में किसानों की आत्महत्या लेकर केदार घाटी के महा प्रलय को गीतों में स्थान देनेवाले बुद्धिनाथ समकालीन परिस्थितियों के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील गीत-कवि हैं । डॉ. प्रेम शंकर त्रिपाठी, डॉ बिमल लाठ , श्री अरुण चुडीवाल और डॉ. दुर्गा व्यास ने `शिखरिणी 'और उसके रचनाकार पर अपने उद्गार व्यक्त किये तथा श्री सुरेश नेवटिया , श्रीमती विमला पोद्दार, श्रीमती कल्याणी खेतान, डॉ . रामलोचन ठाकुर, डॉ . कुसुम खेमानी आदि ने विभिन्न संस्थाओं की और से उनका अभिनन्दन किया। 

अरसे बाद कलकत्ता के तमाम साहित्यकारों, हिन्दी विद्वानों, पत्रकारों और हिन्दी-प्रेमियों की सारस्वत उपस्थिति ने इस सम्मान समारोह को ऐतिहासिक गरिमा प्रदान की और `गीतांजलि'की साहित्यिक परम्परा का अभिवंदन किया ।

केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड में राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु कार्यक्रमों का आयोजन

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नई दिल्ली। यहां केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु पूरे एक पखवाड़े तक अनेक रोचक, ज्ञानवर्द्धक व प्रेरक कार्यक्रमों व प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के पहले दिन बोर्ड की अध्यक्ष श्रीमती प्रेमा करियप्पा एवं कार्यकारी निदेशक श्री सोहन कुमार झा ने दीप प्रज्जवलित करने के साथ ही बोर्ड की संस्थापक डॉ. दुर्गाबाई देशमुख के चित्र पर माल्यार्पण किया। 

इसके पश्चात विभिन्न कार्यक्रमों का शुभारम्भ हुआ। इस अवसर पर अहिंदी भाषी श्रीमती करियप्पा ने हिंदी में अपना बेहतरीन भाषण प्रस्तुत कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। उन्होंने देश में एक भाषा की आवश्यकता पर बल देते हुए सभी से हिंदी को बढ़ावा देने का अनुरोध किया। श्री झा ने राजभाषा हिंदी के बेहतर क्रियान्वयन हेतु अपनी योजनायें बताईं और इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त की कि उनके आदेशानुसार इस बार अनेक नई तरह की हिंदी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा रहा है। संयुक्त निदेशक श्रीमती नीलम भारद्वाज ने कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस अवसर पर बोर्ड की पत्रिका समाज कल्याण के संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव की राजभाषा हिंदी जन चेतना कार्टून पोस्टर प्रदर्शनी ‘खरी-खरी’ का प्रदर्शन भी किया गया। 


15 दिनों तक विभिन्न प्रतयोगिताओं का आयोजन करने के पश्चात 23 सितंबर को पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन करते हुए विभिन्न विजयी प्रतिभागियों को पुरस्कृत किया गया। अंतिम दिन अमरीका से पधारी प्रवासी भारतीय श्रीमती अनिता कपूर विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहीं। उन्हें विदेशों में हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु कार्यकारी निदेशक श्री सोहन कुमार झा ने प्रतीक चिन्ह व पुष्प गुच्छ भेंटकर सम्मानित किया। संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाश डाला। 

इस अवसर पर सहायक निदेशक श्रीमती मिनैती एवं साथियों सहित सर्वश्री मंजीत सिंह (संपादक-सोशल वेलफेयर), कुसुम चौधरी, सतीश, रवीन्द्र शर्मा, मंजू, शिवमंगल, सतपाल आदि बोर्ड के अनेक अधिकारियों व कर्मचारियों ने गीत, कविता एवं हास-परिहास की सुंदर प्रस्तुति दी। 

कार्यक्रम का संचालन हिंदी अधिकारी श्रीमती ज्योति सिंह ने किया। आभार संयुक्त निदेशक श्रीमती नीलम भारद्वाज ने व्यक्त किया एवं संयुक्त निदेशक श्री अरविन्द कुमार सिंह ने पखवाड़े पर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की। पूरे पखवाड़े के कार्यक्रमों की विशेषता यह रही कि कार्यकारी निदेशक महोदय के आवाहन पर इस बार पखवाड़े के दौरान आयोजित विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजयी प्रतिभागियों ने अपनी पुरस्कार राशि ज़रूरमतंदों को दान करने हेतु स्वेच्छा से बोर्ड में जमा कराई। इस तरह दान देने हेतु लगभग एक लाख रुपये की राशि इकट्ठा की गई। कार्यकारी निदेशक महोदय की पहल पर संभवतः देश में यह अपने तरह का अनूठा प्रयास व आयोजन रहा


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