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अनूदित कविता: माँ - डॉ सुधीर कुमार अरोड़ा

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डॉ सुधीर कुमार अरोड़ा

डॉ सुधीर कुमार अरोड़ाभारतीय अंग्रेजी साहित्य (विशेषकर आलोचना विधा) की एक उपलब्धि तो हैं ही, एक कवि के रूप में भी उनकी विशिष्ट पहचान है। उनकी रचनाओं में आज का भारतीय समाज स्पष्ट दिखाई पड़ता है: वर्तमान समाज व्यवस्था और उसकी विकृतियाँ, वर्ग विशेष की गरीबी-भुखमरी, अन्याय एवं अत्याचार और उसके विरुद्ध सजग आदमी का संघर्ष- और इन सबके बीच बहता हुआ अपनत्व, स्नेह- राग। इस बार हम पूर्वाभास पर उनकी चर्चित अंग्रेजी कविता'मदर'का उनके द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि दार्शनिक अंदाज में लिखी इस कविता को आप पसंद करेंगे।  डॉ अरोड़ा का जन्म 5 दिसंबर 196 8 को मुरादाबाद, उ प्र में हुआ।शिक्षा: एम ए, बी एड, पीएच डी, नेट (अंग्रेजी)। अंग्रेजी कविता संग्रह'ए थर्स्टी क्लाउड क्राइज'सहित आधा दर्जन से अधिक आलोचना पुस्तकें प्रकाशित। देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कई सम्मानों से विभूषित। सम्प्रति: महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद, उ प्र में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर। संपर्क:बी-72, दीनदयाल नगर, फेज़-2, साईं मंदिर के पास, मुरादाबाद-244001 (उ प्र ), ई-मेल: drsudhirkarora@gmail.com

माँ 
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

मैं और यह सर्द हवा
आग और वर्फ की तरह
खुले आसमान के नीचे
रहते है खुलकर!

एक समय था
जब यह सर्द हवा
अपने नुकीले दातों से
मुझे काटती थी

समय का चक्र बदला
प्रकति बदली
आग वर्फ हो गई
वर्फ आग

आज यह वफीर्ली आग
मुझे काटती नहीं
बल्कि
मेरा चुम्बन करती है
अपने प्यार का इजहार
करने के लिए
मेरे आस्थिपंजर में
प्रवेश कर जाती है

मैंने भी एक सच
जान लिया है
कि
हम एक दूसरे के बिना
अधूरे हैं

मैं ही दर्शक हूँ
मैं ही कलाकार
चल पड़ा हूँ, बस चल पड़ा हूँ
बिना जाने
कि कहाँ होगा पड़ाव
बस चल पड़ा हूँ
इस वृत्ताकार पथ पर
जो
मुझे बार-बार ला देता है
जहाँ पर मुझे मिलता हैं
एक भिखारी

मैंने पूछा
तुम यहाँ क्यों आते हो
यहाँ तो भीख भी नहीं मिलती
यह जगह लोगों को
दुखी बना देती है
एहसास कराते हुए
कि
एक दिन तुम्हे भी
यहाँ आना है

वह मुस्कराया
बोला
न मैं बुद्धिमान
न मैं दुखी
मैं तो बस आता हूँ
सिर्फ सर्द हवाओं से
बचने के लिए
ये चिताएँ मुझे गर्माहट देती हैं
मेरे अस्तित्व को
बरकरार रखती हैं
हालांकि
यह बात दूसरी हैं
कि
जब ये चिताएँ चिताएँ नहीं थी
तब भी आग में जलती थी
फर्क सिर्फ इतना हैं
कि तब अन्दर से जलती थी
अब बाहर से

चिंता की आग
किसी काम की नहीं होती
वह अपनों को ही
ठंडा कर देती है
लेकिन
चिता की आग
काम को जलाती है
और
पंछी को मुक्त कराती है

मुझ स्वार्थी के लिए तो बस
इतना है कि
कम से कम मुझे यह आग
बचाती है
अपनी गर्माहट से
मैं जिन्दा हूँ
चिता से
चिंता तो मुझे मार ही डालती

काम आग है
आग ही मेरा काम
और
मैं भलीभांति जान गया हूँ
कि
इस आग का अस्तित्व
बर्फ में छिपा हैं
इसलिए
ये सर्द हवायें मुझे सताती हुई नहीं लगती
क्योंकि
मैं इन्हें अब प्यार करता हूँ
और यह भी सच है
कि
बर्फ और आग के बीच ही
मैं जिन्दा हूँ

एक चिता मेरे अपने की
देख रहा था
निहार रहा था
उस पवित्र आत्मा को जिसने मुझे जन्म दिया
मुझे लगा
वह आत्मा
मुझे आशीर्वाद दे रही थी

बेटे, हरहाल में खुश रहना
चिता की वो लपटें
मुझे झुलसा नहीं रही थी
बल्कि ममता का
गर्म स्पर्श दे रही थी

मैं जान गया
एक सच-
सच उस भिखारी का
उसके बार-बार मिलने का
एक चिता जो मेरे लिए
मेरी माँ की चिता थी
लेकिन
भिखारी के लिए
अस्तित्व की वजह

मैं उसके सामने
नतमस्तक हो गया
सभी चिताएं
ममता का स्पर्श दे रहीं थी
इसलिए वह खुश था

मैं सोचने लगा
कि
भिखारी कौन है
वह जिसके पास कुछ नहीं,
फिर भी खुश है
या मैं
जिसके पास सब कुछ है
फिर भी खुश नहीं हूं।



Dr Sudhir Kumar Arora

पत्रिका: दूरदर्शन द्वारा प्रकाशित ‘दृश्यांतर'का प्रवेशांक (अक्टूबर २०१३)

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ब हमलोगों ने नया नया लिखना आरम्भ किया था यानी ८० से ९० के दशक में,तब धर्म युग, हिन्दुस्तान, सारिका निहारिका जैसी पत्रिकाए बडे घरानो द्वारा निकाली जाती थी। हम उन पत्रिकाओं मे अपनी रचनाए भेजते थे तो खेद है जैसे एक पत्र के साथ रचनाऎ वापस आ जाती थी। उसके बाद हमें पता चला कि कुछ छोटी पत्रिकाए भी निकलती है और उन्हें लेखक ही मंगा कर बेचते है। छोटी पत्रिकाओं मसलन उतरार्ध ,कलम, पहल, नया पथ, वसुधा आदि के साथ जुडने के बाद लेखकीय संस्कार बनते चले गए। इन पत्रिकाओं में तब गजब का संपादकीय दृष्टिकोण होता था।

पूरा पढने के बाद अपने भीतर बहुत कुछ नया जुडता था। पढ कर पत्र लिखते थे। पत्र भी छप जाता था तो खुशी होती थी। उसके समानान्तर पूर्वग्रह, साक्षात्कार, गगनांचल, समकालीन भारतीय साहित्य और इंद्रप्रस्त भारती जैसी कुछ सरकारी पत्रिकाऎ भी निकलती थी ।धीरे धीरे वे पत्रिकाए जो बडे घरानो द्वारा निकाली जाती थी, बन्द हो गई। साहित्यिक संगठनो द्वारा निकाली जाने वाली कुछ पत्रिकाए संकलन बन गई है और सरकारी पत्रिकाओं कोरम पूरा कर रही है।

इस नए दौर में एक नई सरकारी कोष से निकलने वाली पत्रिका का प्रवेशांक आया है। नाम है दॄष्यांतर। इसके संपादक है अजित राय। संपादकीय में अजीत राय ने लिखा है कि करीब एक साल पहले दूरदर्शन के महानिदेशक त्रिपुरारी शरण ने एक ऎसी पत्रिका की परिकल्पना की जिसमें हिन्दी के श्रेष्ट लेखन को छापा जा सके.साथ ही मिडिया की गतिविधियों का अन्वेषण और विश्लेषण किया जा सके। पत्रिका के प्रवेशांक ने मुझे निराश नहीं किया। पत्रिका कुल ९६ पृष्टों की है । इतने कम पॄष्टों में श्याम बेनेगल का त्रिपुरारी शरण द्वारा लिया गया साक्षात्कार, राम गोपाल बजाज पर देवेन्द्र राज अंकुर का संस्मरण, चन्द्र प्रकाश द्विवेदी का पिंजर से मुहल्ला अस्सी तक का अनुभव और असगर वजाहत का नाटक पाकिटमार रंगमंडल हमें नाटक और सिनेमा जगत से जोडता है तो राजेन्द्र यादव ,शिव मूर्ति, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी और विनोद भारद्वाज की रचनाऎ आश्वस्त करती है। मंजीत ठाकुर का रिपोर्ताज बुंदेल खंड डायरी –बूंद चली पाताल-पढ कर तो दहशत पैदा हो जाती है और पता चलता है कि औद्योगिक संसकृति ने किस तरह कृषि संसकृति को तबाह किया है। 

यह पत्रिका अपने कलेवर और तेवर से एक उम्मीद जगाती है , यह बना रहे इसके लिए अपने मित्र अजीत राय और त्रिपुरारी शरण को बहुत बहुत शुभकामनाऎ।

दृश्यांतर: सम्पादक: अजित राय, कार्यालय-दूरदर्शन महानिदेशक, कमरा नं. 1026, बी विंग, कोपरनिकस मार्ग, नई दिल्ली-110001) Ph. : 91-11-23097513, Email : drishyantardd@gmail.com

(निलय उपाध्याय की फेसबुक टाइमलाइन से साभार)

व्यंग्य: रामलीला - विभावसु तिवारी

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विभावसु तिवारी

विभावसु तिवारीअपनी पीढ़ी के सशक्त व्यंग्यकार हैं। आपके व्यंग्य हमारे समय का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। और यह भी कि ये व्यंग्य अपनी एक नयी दुनिया बसाते है और इस दुनिया का एक कॉमन पात्र है - शर्माजी। शर्माजी एक आम आदमी का किरदार निभाते हैं। यह किरदार नैतिकता-अनैतिकता के पारंपरिक बोध को नए ढंग से पेश करता हैं। विभावसु तिवारी का जन्म 12 अगस्त, 1951 को दिल्ली में हुआ। आप 36 वर्ष तक दिल्ली के नवभारत टाइम्स समाचार पत्र (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप) में समाचार संकलन, सम्पादन और लेखन कार्य करते रहे। विभिन्न पत्र- प़ित्रकाओं के सलाहकार सम्पादक रहे।सम्पर्क:टी- 8 ग्रीन पार्क एक्स्टेंशन, नई दिल्ली- 110016. ई-मेल: vtiwari12@gmail.com

र्मा जी को उनकी कॉलोनी के निवासियों ने ‘रामलीला मंचन संस्था’ का संरक्षक (पैट्रन) बना रखा था। संरक्षक इसलिए कि शर्मा जी के पत्रकार होने के नाते रामलीला के लिए पार्क मिलना आसान हो जाता था। रावण को जलाने के लिए वीआईपी भी बिना चक्कर काटे मिल जाते थे। कुछ स्थानीय राजनेताओं के जमावड़े से उनकी रामलीला का थोड़ा रुतबा भी बढ़ जाता था। 
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

इस बार आयोजित की जा रही रामलीला में जिस वीआईपी को रावण का वध करने के लिए तीर चलाना था, वह अचानक से स्वर्ग सिधार गया। अब एकदम से नया वीआईपी मिलने में कठिनाई आ रही थी। शर्मा जी ने अपने नेटवर्क का इस्तेमाल किया, परन्तु दुर्भाग्यवश दशहरे के दिन के लिए सभी वीआईपी लोगों की पहले से ही बुकिंग हो रखी थी। ‘रामलीला मंचन संस्था’ के लोगों ने अपनी रामलीला को फ्लॉप होने से बचाने के लिए शर्मा जी को ही मैदान में उतारने का फैसला किया। शर्मा जी से कहा गया कि दशहरे के दिन रावण का वध करने के लिए आप ही वीआईपी होंगे और तीर चलाएगें। साथ में यह भी कह दिया कि इस बार हमारी दिली इच्छा है कि यह शुभ कार्य आप जैसे वरिष्ठ पत्रकार के हाथों से ही होना चाहिए। शर्मा जी ने अपने को गौरवान्वित महसूस करते हुए राम सेवकों को आश्वस्त किया कि उस दिन मैदान में वही डटेंगे।

लेकिन इन राम सेवकों के चले जाने के बाद उनका मन चिंतित हो उठा। आज तक उन्होंने कभी तीर नहीं चलाया था। बचपन में पिताजी ने आंख में तीर लगने की दलील देकर खेलने के लिए भी कभी तीर-कमान नहीं दिलवाया। इसलिए धनुष पर तीर चढ़ाने और डोरी खींचकर उसे छोड़ने जैसी हिमाकत उन्होंने कभी नहीं की। अपनी बड़ी आरमदेह कुर्सी पर झूलते हुए खुद ही ओढ़ ली इस मुसीबात का हल ढूंढने की कोशिश में वह अपनी सोच पर जोर देने लगे। तभी उनके बचपन के मित्र मुसद्दीलाल टपक पड़े। शर्मा जी के समक्ष जब भी कोई समस्या खड़ी होती मुसद्दीलाल हनुमान जी की तरह अवतरित हो उनके समाधान के लिए अपना पूरा बुद्धिभंडार झोंक देते। वह भी मुसद्दीलाल की मित्रनिष्ठा के कायल थे।

मुसद्दी को देख उनके चेहरे पर रौनक आ गई। बोले, बड़ी लम्बी उम्र है। अभी याद ही कर रहा था। मुसद्दी ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए पूछा, ‘‘सब ठीक तो है!’’ शर्मा जी बोले, ‘‘इस बार अपनी कॉलोनी के रावण को तीर मारने का काम मुझे ही करना है।’’

मुसद्दी थोड़ा चौंका! फिर बोला, ‘‘तुम्हारी कॉलोनी में तो ढेर सारे रावण हैं। एक साथ कितने तीर चलाओगे। सबसे बड़ा रावण तो वही देवदास है, जिसकी मृगनयनी पर तुमने अपनी आंखों के तीर चलाए थे। वह पड़ोसी देवदास तुम्हारी आंखों के सामने ही उसे ले उड़ा था। तभी से तुमने उसका नाम रावण रख दिया था। मौका है उस पर ही सबसे पहले तीर चला देना।’’

शर्मा जी ने जिंदगी के राज उगल रहे मुसद्दीलाल को बीच में ही टोका और बोले, ‘‘इतिहास मत खोद, हमारी कॉलोनी में दशहरा मनाया जा रहा है। परम्परा के अनुसार रावण दहन के लिए उसके पुतले पर तीर चलाना होगा। मैंने आज तक धनुष नहीं उठाया। तीर चलाना तो दूर की बात है। निशाना लगाना भी नहीं आता। अगर रावण के पुतले के पेट में तीर नहीं घुसा तो रावण नहीं मरेगा। बेचारे राम सेवकों की बड़ी भद्द पिट जाएगी। फिर, मैं भी तो इस संस्था का पैट्रन हूं। समझ नहीं आ रहा, क्या किया जाए?’’ 

मुसद्दी को यह मामला कुछ गम्भीर नजर आया। कुछ देर के मौन के बाद वह बोले, ‘‘शर्मा जी कहीं से तीर कमान मंगवाओ। बस धनुष उठाने, डोरी पर तीर चढ़ाने की थोड़ी सी प्रेक्टिस करनी होगी। रावण दहन स्थल पर दर्शकों को यह जरूर दिखाई देना चाहिए कि कोई वीआईपी रावण पर तीर चला रहा है। बस, तुम्हें तो सबके सामने धनुष की डोरी पर तीर चढ़ाना है। एक राम सेवक को रावण के पुतले के पास मशाल लिए खड़ा कर देंगे। जैसे ही तुम धनुष पर तीर चढ़ा कर डोरी खींचोगे वैसे ही वह राम सेवक अपनी मशाल रावण के पुतले में घुसा देगा। देखते ही देखते रावण पटाखों की आवाज के साथ जलने लगेगा। शर्मा जी आप भी भोले हो! बड़ी-बड़ी रामलीलाओं में भी ऐसा ही होता है। वहां भी वीआईपी ऐसे ही करते हैं। देखो! यह काम बड़ी दिलेरी से करना। इसका संदेश दूर तक जाएगा। कॉलोनी के जितने भी रावण हैं वे भी तुम से घबराने लगेंगे। तुम तो, बुराईयों पर अच्छाईयों की जीत के प्रतीक बनने जा रहे हो। रावण का वध करोगे।’’ 

मुसद्दी के इस उवाच से शर्मा जी बड़े कृतज्ञ महसूस कर रहे थे। बढ़ती उम्र के दबाव से उनकी दबी छाती एकदम से फूल गई थी। लगा कि जवानी लौट आई है। उन्हें अपने पड़ौसी देवदास पर गुस्सा आ रहा था, जो उनकी हीरोईन को ले उड़ा था। तभी उम्र की परिपक्वता सामने आ गई। 

मुसद्दी से बोले यार, ‘‘मैंने उस देवदास को तो माफ कर दिया है पर दशहरे वाले रावण को छोड़ना नहीं है।’’ 
उन्होंने पास में ही खेल रहे पोते को गांधीजी वाला दस रुपए का नोट थमा कर बाजार से फौरन धनुष बाण लाने को कहा। सवाल बुराई पर अच्छाई की जीत का था!!

Vibhavasu Tiwari

विधान केसरी की प्रेस यूनिट का उदघाटन एवं सम्मान समारोह

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मुरादाबाद। "विधान केसरी के उदघाटन कार्यक्रम को देखकर कहना गलत नहीं होगा कि विधान केसरी पत्रकारिता के मापदन्डों का ध्यान रखकर देशभर में नाम रोशन करेगा तथा गरीबों-मजलूमों की आवाज बनेगा।"यह बात विधान केसरी यूनिट के उदघाटन समारोह में पधारे दक्षिण काली सिद्धपीठ के महामण्डलेश्वर ब्रह्मचारी स्वामी कैलाशानन्द जीने कही। साथ ही स्वामी जी ने सम्पादक विनेश ठाकुरद्वारा अपनी मां श्रीमति लीलावती द्वारा प्रेस का उदघाटन कराने पर बधाई दी।

कार्यक्रम का शुभारंभ स्वामीजी ने मां सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष द्वीप प्रज्जवलित करके किया। तदुपरांत मुख्य अतिथि श्रीमति लीलावती के साथ स्वामीजीने विधान केसरी यूनिट का फीता काटकर उदघाटन किया।

कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए पूर्व सांसद शीशराम सिंह रविने विधान केसरी की प्रशंसा की और गांव से निकलकर मुरादाबाद तक पहुंचने पर सम्पादक को बधाई दी। पर्यटन मंत्री मूलचन्द चौहान ने कहा कि विधान केसरी पत्रकारिता के मापदन्डों पर चलकर लगातार तरक्की कर रहा है, जोकि देश की प्रिन्ट मीडिया में एक अलग पहचान बनाने का काम करेगा। स्टाम्प एवं न्यायलय शुल्क मंत्री मनोज पारस ने कहा कि मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि मेरी विधान सभा क्षेत्र नगीना के गांव भरेकी निवासी विनेश ठाकुर ने विधान केसरी को संयुक्त परिवार के बल पर यहां तक पहुंचा दिया।
स्वामी जी के प्रमुख सचिव सपा नेता डीपी यादव ने विधान केसरी के सम्पादक को बधाई दी और हर सम्भव सहयोग का आश्वासन दिया। विशिष्ठ अतिथि प्रथमा बैंक के चेयरमैन बीके पंडित ने भी विधान केसरी के उज्जवल भविष्य की कामना की और विधान केसरी ग्रुप की ओर से पत्रकारों को प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया।

तदुपरांत दैनिक समाचार पत्र विधान केसरी की ओर से शहर मुरादाबाद के महत्वपूर्ण साहित्यकारों एवं शिक्षाविदों को सृजन सम्मान- 2013 से विभूषित किया गया। सम्मानित रचनाकारहैं: सर्वश्री डॉ महेश दिवाकर, आनंद कुमार गौरव, राजीव सक्सेना, डॉ अम्बरीष कुमार, अशोक विश्नोई, शिशुपाल मधुकर, रघुराज सिंह निश्चल, उदयप्रकाश सक्सेना अस्त, जितेन्द्र जौली, शरर हसनपुरी और शिक्षाविद : डॉ ए के गुप्ता, डॉ बी के सिंह, प्रो दीपक शर्मा, डॉ कृष्ण कुमार मिश्रा, डॉ सत्यवीर सिंह चौहान एवं राजीव शर्मा साथ ही विधान केसरी के साहित्य सम्पादकडॉ अवनीश सिंह चौहान और समाज सेवा हेतु श्री अरविन्द गोयलको सम्मानित किया गया। साहित्यकारों के छाया चित्र:


















शिक्षाविदों के छाया चित्र:
 
 
 
 
 
 

इस अवसर पर स्वामी जी ने मंच पर मौजूद मंत्री मनोज पारस, सपा नेता डीपी यादव, जिलाध्यक्ष मनमोहन सैनी, सपा नेता विनोद गुम्बर, एमएलसी सुबोध पारासर आदि की खुलेमन से प्रशंसा की।  उनके साथ पर्यटन मंत्री मूलचन्द चौहान, राज्य मंत्री नईमुलहसन, विधायक हाजी युसूफ अंसारी, नहटौर विधायक ओमकुमार पूर्व विधायक नजीबाबाद शीशराम सिंह, एमएलसी परमेश्वर लाल सैनी, बसपा कोर्डिनेटर डॉ. संजीव लाल,पूर्व सांसद शीशराम सिंह रवि,प्रथमा बैंक के चेयरमैन बीके पन्डित, टीएमयू के ग्रुप चासंलर मनीष जैनतथा उनके प्रमुख सचिव भी मौजूद रहे।

कार्यक्रम में सुल्तानपुर के पूर्व सांसद श्री ताहिर अली, नगीना के सपा नेता सुल्तान अहमद, दर्जा राज्यमंत्री हाजी इकराम कुरैशी, गौरव भडाना, मेहन्दी हसन, सपा नेता राहुल ठाकुर, संजीव यादव, पार्षद कृष्ण कुमार काले, परियोजना अधिकारी डूंडा श्री बीके सैनी, एसडीएम सदर श्री शैलेन्द्र सिंह, एसपी सीटी महेन्द्र यादव, सीओ कटघर राकेश कुमार आदि ने भाग लिया। तथा पत्रकारों में सुधीर मिश्रा, चन्द्रप्रकाश गुप्ता, जितेन्द्र कुमार, सुनील वर्मा, राकेश कुमार, राजीव कुमार,  एन आर रहमान, फसीऊर्रहमान बेग, पूर्वी, सन्तोष कुमार, एसपी चौहान, मौ. यासीन, अविनाश कुमार, नानू अब्बासी, मकसूद अहमद, विधान केसरी से सब एडिटर मंजेश ठाकुर,जीएम सनेश ठाकुर, राहुल ठाकुर, हाजी इकराम उर्फ भैय्या जी, अरूण ठाकुर, अनुज ठाकुर, संदीप वर्मा, नदीम उद्दीन, सूरज ठाकुर, सुनील दिवाकर, दीपक शर्मा, सुनील प्रजापति, इरशाद खां, मौ. गुफरान, मौ. आरिफ, राहुल कुमार, शुएब सिद्दकी, राजीव कुमार, श्याम कुमार, सतीश त्यागी, अमित त्यागी, नीरज तिवारी, शहजाद अख्तर, आसिफ अंसारी, मौ. अंजार, आसिफ अली इदरीसी, रामानन्द सागर, अकील अहमद, अवधेश शर्मा, मुनीर आलम, दीपक चन्द्रा, गौतम कुमार, उस्मान जैदी, आर्यन कुमार, सुनील कुमार, सागर शर्मा, अरूण गुप्ता, अनिल कुमार, वीरभान सिंह, हरीश कुमार, रवि राजपूत, कामिल अहमद, जरीस मलिक, पीयूष प्रधान, सुरेश ठाकुर, मनीषा शर्मा, मनीषा सिंह, प्रदीप मिश्रा, मनीश ठाकुर, शुभम ठाकुर, कर्मवीर, मनोज आदि उपस्थित रहे

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वॉर नहीं एंटी वॉर फिल्म है - वॉर छोड़ ना यार

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एक गुरू के लिए सबसे बड़ी गुरू दक्षिणा वह होती है जो शिष्य अपनी मेहनत के बल पर देता है और वही फराज़ हैदर ने दिया। आज मैं बहुत गर्व महसूस कर रहा हूं कि उसने फिल्म इंडस्ट्री में एक मजबूत कदम रखा है जो हमारे संस्थान के छात्रों के लिए प्रेरणा का काम करेगा- संदीप मारवाह ने फिल्म वॉर छोड़ ना यार की टीम का स्वागत करते हुए कहा। 

फिल्म वॉर छोड़ ना यार की पूरी टीम 'एशियन एकेडमी ऑफ़ फिल्म एंड टेलीविजन' (नोएडा, उत्तर प्रदेश) पंहुची जिसमें फिल्म के कलाकार शरमन जोशी, जावेद जाफरी सोहा अली,फिल्म के गीतकार हैदर बेबाक अमरोहीके साथ इस फिल्म के निर्देशक फराज़ हैदर पंहुचे जो एशियन एकेडमी ऑफ़ फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान के भूतपूर्व छात्र हैं। 

इस अवसर पर सोहा अली ने कहा कि मैं यहां आकर बहुत खुश हूं क्योंकि यहां पर मैं खुद को बहुत चार्ज महसूस कर रही हूं। फिल्म के बारे में उन्होंने कहा कि यह फिल्म वॉर कामेडी पर बेस्ड है और यूथ को ध्यान में रखकर बनाई गई है। यह पहली फिल्म है जो वॉर पर कामेडी दिखा रही है और युद्ध को मीडिया किस तरह आम आदमी के लिए पेश करता है और उसका क्या प्रभाव पड़ता है। 

फिल्म वार छोड़ न यार का पोस्टर
फिल्म- वॉर छोड़ न यार
डायरेक्टर- फराज हैदर
एक्टर- शरमन जोशी, सोहा अली खान, जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, दिलीप ताहिल, मनोज पाहवा
ड्यूरेशन- 1 घंटा 59 मिनट
फ़िल्म में एक कर्नल खान हैं जिन्हे सस्ती मेंहदी बहुत पसंद है। जाहिर है उनकी दाढ़ी और बाल उसी से रँगे हुए होंगे। उनका अंग्रेजी में उच्चारण बहुत पुअर है। 'स्पीक टु मी'को बोलने पर लगता हैं कि 'सफीक टमीम'बोल रहे हैं। वह अपनी पाकिस्तानी सरकार से बहुत परेशान हैं। जब तब कहते रहते हैं कि यह सरकार खाने को दाल गोश्त देती है, मगर उसमें न दाल होती है, न गोश्त। उनका कैप्टन है कुरैशी, जिसे सीमा पार के जवानों से अंताक्षरी खेलने का शौक है। फ़िल्म में एक वजीर हैं, जो बस चीन से हथियार और अमेरिका से डॉलर चाहते हैं। एक जनरल भी है, जो लड़ाई के नाम पर बस वीडियो गेम में धांय धांय करता है। और भी बहुत कुछ है… जिसे फ़िल्म देखकर जान सकते हैं.
जावेद जाफरी ने फिल्म इंडस्ट्री के बारे में बताते हुए कहा कि हमारे देश के लोगों को दो चीजों से बहुत लगाव है एक मां और दूसरा सिनेमा और सिनेमा बहुत ही पॉवरफुल है अपनी बात लोगों तक पंहुचाने के लिए। यह फिल्म हमारे समाज को एक अच्छा संदेश देगी क्योंकि युद्ध किसी के लिए भी अच्छा नहीं है। 

शरमन जोशी ने फिल्म के बारे में कहा कि बहुत अलग सब्जेक्ट है फिल्म का इसलिए मैं खुद को रोक नहीं पाया इसमें अभिनय के लिए और उम्मीद करता हूं कि आप सभी लोगों को यह फिल्म पसंद आऐगी। 

फिल्म के निर्देशक फराज़ हैदर ने कहा- मैं इसी संस्थान का छात्र हूं और यह मेरी पहली फिल्म है जिसे मैने वॉर कामेडी के रूप में पेश किया है और यह एक एंटी वार फिल्म है, फिल्म में आपको कामेडी के बम मिलेगें।

अंत में संदीप मारवाह ने आए हुए सभी कलाकारों को अंतराष्ट्रीय फिल्म एंड टेलीविजन क्लब की आजीवन सदस्यता प्रदान की। और पधारे सभी अतिथियों का आभार व्यक्त किया।

ललित गर्ग को मिला अणुव्रत लेखक पुरस्कार

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नई दिल्ली (28 अक्टूबर 2013) : अणुव्रत महासमिति द्वारा प्रतिवर्ष उत्कृष्ट नैतिक एवं आदर्श लेखन के लिए प्रदत्त किया जाने वाला ‘अणुव्रत लेखक पुरस्कार’ वर्ष-2011 के लिए लेखक, पत्रकार एवं समाजसेवी श्री ललित गर्ग को अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री महाश्रमण के सान्निध्य में जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) में आयोजित राष्ट्रीय अणुव्रत लेखक सम्मेलन में दिनांक 26 अक्टूबर 2013 को प्रदत्त किया गया। अणुव्रत महासमिति के अध्यक्ष श्री बाबूलाल गोलछा ने श्री गर्ग को इक्यावन हजार रुपए की राशि का चैक,स्मृति चिह्न और प्रशस्ति पत्र प्रदत्त कर उन्हें सम्मानित किया। श्री गर्ग पिछले तीन दशक से राष्ट्रीय स्तर पर लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाएं प्रदत्त करते हुए अणुव्रत आंदोलन के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। विदित हो वर्तमान में श्री गर्ग सूर्यनगर एज्यूकेशनल सोसायटी (रजि॰) द्वारा संचालित विद्या भारती स्कूल के विकास एवं मैनेजमेंट कमेटी के चेयरमैन है।

आचार्यश्री महाश्रमण ने श्री गर्ग की नैतिक एवं स्वस्थ लेखन की प्रतिबद्धता की चर्चा करते हुए कहा कि श्री गर्ग सृजनशील प्रतिभा हैं जिनमें सरलता, सादगी और नैतिक निष्ठा दिखाई देती है। ये संस्कार इन्हें इनके पिता वरिष्ठ पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी एवं साहित्यकार स्व॰ श्री रामस्वरूपजी गर्ग से विरासत में प्राप्त हुए हैं। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के साथ सक्रिय रूप से कार्य करने वाले इनके पिताजी ने अणुव्रत आंदोलन की सक्रिय सेवाएं की हैं। श्री ललित गर्ग भी अणुव्रत आंदोलन, आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ और हमारे वर्तमान कार्यक्रमों में विशिष्ट सहयोगी हैं। आचार्य श्री महाश्रमण ने अणुव्रत महासमिति के इस चयन को सही बताया और गर्ग की धर्मसंघ के प्रति सेवा और समर्पण भावना की सराहना की। आचार्य श्री महाश्रमण ने आचार्य तुलसी जन्म शताब्दी की चर्चा करते हुए कहा कि देश में नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों की स्थापना में अणुव्रत आंदोलन का विशिष्ट योगदान है। उन्होंने लेखकों को सामाजिक विचारधारा का वाहक बताया और लेखन में नैतिकता अपनाने का आह्वान किया। अणुव्रत लेखक पुरस्कार की चर्चा करते हुए कहा कि उत्कृष्ट और नैतिक लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए ऐसे लेखकों की विशेषताओं को स्वीकार कर हम उनका सम्मान करें, आदर करें, इससे एक बड़ी शक्ति का प्रस्फुटन हो सकता है। 


अणुव्रत महासमिति के अध्यक्ष श्री बाबूलाल गोलछा ने श्री गर्ग और उनके परिवार द्वारा की गई उल्लेखनीय समाज सेवा चर्चा करते हुए कहा कि श्री ललित गर्ग हमारे समाज की एक विशिष्ट प्रतिभा है। साहित्य,पत्रकारिता और जनसंपर्क की दृष्टि से इनकी समाज को विशिष्ट सेवाएं प्राप्त हो रही हैं। अणुव्रत आंदोलन को उन्होंने पिछले तीन दशक में राष्ट्रव्यापी स्तर पर स्थापित करने में उल्लेखनीय सहयोग किया।

अणुव्रत लेखक पुरस्कार से सम्मानित श्री गर्ग ने आयोजकों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि यह पुरस्कार मेरे लिए महान् संत पुरुषों का आशीर्वाद है। मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे बचपन से ही आचार्यश्री तुलसी, आचार्यश्री महाप्रज्ञ और आचार्य श्री महाश्रमण का असीम अनुग्रह, स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। बचपन में जहां गांधी, विनोबा भावे और आचार्य तुलसी के साथ पिताजी से जुड़े निकटता के अनूठे संस्कारों से शिक्षित होने का अवसर मिला। आज प्राप्त पुरस्कार पिताजी की अविस्मरणीय एवं अनुकरणीय सेवाओं का ही अंकन है। उन जैसी सरलता, सादगी, समर्पण और नैतिक निष्ठा को जीना दुर्लभ है। फिर भी गुरुदेव श्री तुलसी, आचार्यश्री महाप्रज्ञ एवं आचार्य श्री महाश्रमण से ऐसे आशीर्वाद की कामना है कि उनके नैतिक और मानवतावादी कार्यक्रमों में अपने आपको अधिक नियोजित करते हुए समाज और राष्ट्र की अधिक-से-अधिक सेवा कर सकूं।

इस अवसर पर श्री ठाकरमल सेठिया ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि श्री गर्ग का जीवन प्रेरक है क्योंकि इन्हें बचपन से ही एक आदर्श पिता के साथ-साथ आचार्य तुलसी, आचार्यश्री महाप्रज्ञ एवं आचार्य श्री महाश्रमण जैसे महान पुरुषों के साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ है। ये सम्मान प्रतिभा के साथ-साथ संस्कारों का भी सम्मान है। अणुव्रत महासमिति के महामंत्री श्री संपत सामसुखा ने प्रशस्ति पत्र का वाचन करते हुए कहा कि श्री गर्ग ने पत्रकारिता के क्षेत्र में नैतिक दर्शन और मूल्यों को प्रतिस्थापित करने की दृष्टि से प्रयत्न किए हैं। आपने पंद्रह वर्षों तक ‘‘अणुव्रत पाक्षिक’’ का संपादन किया। ‘‘अणुव्रत लेखक मंच’’ के संयोजक के रूप में लेखकों को संगठित करने और उन्हें नैतिक लेखन के लिए प्रोत्साहित करने के लिए विशिष्ट प्रयत्न किए। वर्तमान में भी ‘समृद्ध सुखी परिवार’ मासिक पत्रिका के संपादक के अलावा अन्य पत्र-पत्रिकाओं का संपादकीय दायित्व निभा रहे हैं। कार्यक्रम का संयोजन करते हुए डॉ.. आनंद प्रकाश त्रिपाठी रत्नेश ने श्री ललित गर्ग की विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी की चर्चा करते हुए उन्हें हार्दिक बधाई दी।

स्वर्गीय ‘शासनभक्त’ हुकुमचंद सेठिया, जलगाँव (महाराष्ट्र) की पुण्य स्मृति में प्रतिवर्ष दिये जाने वाले अणुव्रत लेखक पुरस्कार से अब तक स्व॰ श्री धरमचंद चोपड़ा, डॉ. निजामुद्दीन, श्री राजेन्द्र अवस्थी, श्री राजेन्द्र शंकर भट्ट, डॉ. मूलचंद सेठिया, डॉ. के. के. रत्तू, डॉ. छगनलाल शास्त्री, श्री विश्वनाथ सचदेव, डॉ. नरेन्द्र शर्मा कुसुम, डॉ. आनंद प्रकाश त्रिपाठी, श्रीमती सुषमा जैन एवं प्रो. उदयभानू हंस सम्मानित हो चुके हैं।

Lalit Garg

'अनबीता व्यतीत'में पर्यावरण प्रदूषण

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लंबोधरन पिल्लै.बी

लंबोधरन पिल्लै.बीका जन्म 20 मई 1965 को कोट्टारकरा, कोल्लम, केरल में हुआ। पिता- कृष्ण पिल्लै एवं माता- भगीरथि अम्म। शिक्षा:एम.ए. हिन्दी, एम.फिल एवं करपगम विश्वविद्यालय (कोयम्बटूर) से पी.एच.डी (शोधरत)। सम्प्रति: प्रोफसर (हिंदी), एम.ए.एस. कालेज, मलप्पुरम, केरल।ई-मेल: blpillai987@gmail.com

हिन्दी उपन्यास यात्रा का एक पडाव है- श्रीकमलेश्वरका 'अनबीता व्यतीत'नामक उपन्यास। इसमें वर्तमान सांसारिक जीवन की एक बडी भयानक सामाजिक समस्या, पर्यावरण– प्रदूषण एवं मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं के बीच संपर्क की अनिवार्यता का वर्णन सुन्दर ढंग से किया गया है

उपन्यासकार कमलेश्वर का 'अनबीता व्यतीत'का प्रकाशन २००५ में हुआ था इससे पहले हिन्दी उपन्यासों में इस विषय को बडा स्थान नहीं मिला था। 

6 जनवरी 1932 में मैनपुरी में जन्मे कमलेश्वर आधुनिक हिन्दी के बहुआयामी व्यक्तित्व वाले कलमकार है। एम.ए. उत्तीर्ण करने के पश्चात कमलेश्वर ने कहानी, उपन्यास, निबन्ध, संपादन, कथा-पटकथा लेखन आदि क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा की परिचय दिया भारतीय दूरदर्शन के ऍडिशनल डायरेक्टर जनरल के पद पर कुशलतापूर्वक  कार्य किया। विराट, वेताल पच्चीसी, बिखरे पन्ने, युग और चन्द्रकांता आदि अनेक महत्वपूर्ण धारावाहिकों का चयन और सारा आकाश, अमानुष, मिस्टर नटवरलाल, उसके बाद, राम बलराम, शैतान, मौसम, पति- पत्नी आदि का कथा-पटकथा लेखन-निर्देशन भी कमलेश्वर ने किया।

कमलेश्वर ने अपनी लम्बी साहित्य-यात्रा के दौरान ग्यारह उपन्यास लिखे: १९६१ में प्रकाशितएक सडक सत्तावन गलियाँ, १९६२ में प्रकाशित डाक बंगला, १९६३ में प्रकाशित लौटे हुए मुसाफिर एवं तीसरा आदमी, १९७४ में काली आँधी, १९८० में आगामी अतीत औरवही बात, १९८२ में सुबह दोपहर शाम, १९८८ में रेगिस्तानऔर कितने पाकिस्तान, २००४ में प्रकाशित अनबीता व्यतीतउनकाअनबीता व्यतीत हिन्दी उपन्यास-जगत को अनुपम देन है

कितने पाकिस्तान और अनबीता व्यतीत विषय-वस्तु  और रचना पद्धति की दृष्टि से अलग तरीका व्यक्त करने वाले उपन्यास है। कितने पाकिस्तान में उन्होंने भारतीय राजनीति, आपातकालीन परिस्तिथियाँ एवं उनके परिणामों का वर्णन किया है, अनबीता व्यतीत में एक नया विषय- पर्यावरण-प्रदूषण, पक्षी-जानवरों का जीवन चित्रित करने का प्रयास किया है पुराने नैतिक मूल्यों एवं आधुनिक जीवन संघर्षों का वर्णन इस उपन्यास को एक अलग कोटि का बना देता है

विवेच्य रचना- अनबीता व्यतीत पर्यावरण प्रदूषण की समस्या केंद्र में है, जिसमें पशु-पक्षी भी सम्मिलित है। यह वास्तव में हिन्दी उपन्यास जगत में एक नयी परीक्षणात्मक प्रणाली है।  दूसरे जीव-जन्तुओं के प्रति दया, करुणा और ईश्वरीय दृष्टिकोण अंकित करनेवाला हिन्दी का पहला अनूठा उपन्यास है अनबीता व्यतीत। मनुष्य में जन्म से यह अहंकार भाव पैदा होता है कि वह सबसे ऊँचा है, उसे जीतने वाला और कोई नही है। सृष्टि-स्थिति और संहार का अधिकार उन पर सीमित है, दूसरे जीव-जन्तुओं के ऊपर उनका परमाधिकार है मनुष्य, प्रकृति की लाखों-करोडों जीवों में एक होकर भी अन्य सबों के ऊपर अधिकार जमाकर उसे निष्कासित करने का प्रयास कर रहा है मिट्टी और जल-वायु उनके हाथों का खिलौना है प्रकृति की सारी विपत्ति का कारण यह दुर्विचार है अनबीता व्यतीत इस समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है भारतीय परंपरा में वेदों और पुराणों में ही नहीं, बौद्ध और जैन दर्शन में भी मनुष्य और प्रकृति के अन्य जीव-जन्तुओं से जीवन समरसता का उपदेश मिलता है। हर नीति-नियमों का उल्लंघन करना अपना ध्येय मानने वाला मनुष्य हर समय और हर करतूत में सृष्टि के अन्य जीवों का ही नहीं, वरन सृष्टा को भी चुनौती दे रहा प्रतीत होता है। मनुष्य दिन-प्रति दिन, क्षण-प्रतिक्षण अपनी सुख-सुविधाएँ बढाने के लिए जो कुछ करता है,वह सब स्वयं अपने अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न कर डालता है। अनबीता व्यतीत उपन्यास में अत्यंत मासूम जीव-जन्तुओं के दर्दनाक जीवन एवं मानव का व्यवसायिक मनोभावों की वास्तविकता उद्घाटित होती है

अनबीता व्यतीत उपन्यास की प्रस्तावना (दो शब्द) में स्वयं कमलेश्वर ने लिखा है- 'करुणा, दया और सह-अस्तित्व का भारतीय सिद्धांत सदियों पुराना है यह कोई आज का राजनैतिक सिद्धाँत नहीं है, बल्कि भारतीय सभ्यता ने इसे जीव और जीवन, प्रकृति और पर प्रकृति के लिए सदियों पहले स्वीकार किया था जीवन और वनस्पति के, वनस्पति और जीव-जन्तुओं के आपसी सन्तुलन को खोजा था इसी सर्वमंगलिक निष्ठा ने बौद्धकालीन और जैनकालीन अहिंसा को जन्म दिया था।'

भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को उजागर करना कमलेश्वर का एक और लक्ष्य है।  हमारी प्रकृति में तरह-तरह के जीव है। इनमें से सबसे मासूम और सुन्दर है वे पंछी, जो हमारी वन्य-संस्कृति की संपदा भी है। अपने मखमली पंखों को लहराते, अपनी मधुर आवाज़ से संगीत पैदा करते ये पंछी बरसों बरस मन को शाँती, जीवन देते है और इन्हीं पंछियों से आ मिलते है वे परदेसी पंछी, जो सर्दियों से सायबेरिया और उत्तरी गोलार्द्ध से उडकर भारत आ जाते है, यहाँ बसेरा करते है। ये सुन्दर और मासूम पंछी लगभग ११,००० वर्षों से भारत आते रहे है, हज़ारों मील का सफ़र तय करते है, हिमालय को पार करते है, और सर्दियों में भारत को अपना घर बना लेते है। लेकिन इन मासूम पंछियों के पीछे भी मृत्यु पडी रहती है। जगह-जगह इन्हें पकड़ा या मारा जाता है और व्यापार किया जाता हैवास्तव में इस उपन्यास का लक्ष्य इतने में सीमित नहीं है। इतना ही नहीं इसमें अहिंसा की विस्तृत भाव-भूमि को निरखा-परखा जा सकता है

स्वतंत्रता के पश्चात् अनेक छोटे-बडे राज्य भारत संघ में मिला लिए गए वैसे ही एक छोटा राज्य- सुमेरगढ़ , अरावली पर्वत की तराई का सुन्दर प्रदेश भी भारत संघ में जोड़ा गया। इस राज्य की महारानी है राजलक्ष्मी एक दिन दीवानखाने की ज़मीन पर पक्षियों का खून और हिरणी की लाश देखकर महारानी का ह्रदय दुखी हो जाता है वे भगवान से प्रार्थना करती है कि 'हे भगवान, जब तूने इन जीव-जन्तुओं को जीवन दिया था तो इन्हें अपनी शक्ति भी देता ताकि ये बेचारे अपने जीवन की रक्षा कर पाते' - यह है इस उपन्यास की मुख्य संवेदना। राजलक्ष्मी की नातिन समीरा भी चिडियों को पालती है, उनका दुःख अपना दुःख समझती है समीरा हर दिन झील के किनारे पर जाकर पंक्षियों का निरीक्षण करती है

महारानी राजलक्ष्मी एक विदेशी के हाथ से अफ्रीकी काकतूआ को खरीदती है। वे उसे बहुत प्यार करती है। एक दिन सभी चिड़ियाँ अभय के लिए दीवानखाने पर आ गए तब महाराजा वहाँ आकर अपनी बन्दूक से काकतुआ का हत्या कर देता है इस पर दुःखी होकर महारानी मर जाती है

प्रकृति रक्षा, पक्षी पालन और पर्यावरण संरक्षण का दायित्व राजकुमारी समीरा ले लेती है दिव्या, पंडित दीनानाथ की बेटी और समीरा की सहेली है। उसका व्यक्तित्व भी समीरा के समान है

गौतम भारतीय पुरातत्व विभाग में काम करने वाला एक कर्मचारी है सुमेरगढ का पुरातत्व प्रधान चीज़ों का व्यौरा लेने के लिए सुमेरगढ आता है। उसकी भेंट दिव्या से होती है धीरे-धीरे दिव्या के माध्यम से समीरा से संपर्क कर गौतम का प्यार परवान चढ़ने लगता है इससे व्यथित दिव्या अपने कपड़े तथा चप्पल झील के किनारे छोडकर आत्महत्या की शंका पैदा कर अप्रत्यक्ष हो जाती है समीरा की तरह गौतम भी प्रकृति को मानता एवं पूजता है समीरा के पिता नरेन्द्रसिंह चिडियों का माँस खाने का शौक़ीन है। वह अपनी बेटी समीरा द्वारा पाले गए पंछी को मार कर खा जाता है इस बात पर पुत्री एवं पिता के बीच मतभेद हुए, परिणामस्वरुप रतनपुर के युवराजा जयसिंह से उसकी शादी करवा दी जाती है फलस्वरूप समीरा और गौतम की मुलाकात संभव नहीं हो सकती बाद में समीरा को मालुम होता है कि उसके पिता की भाँती पति जयसिंह भी पक्षियों का माँस खाने वाला है समीरा यहाँ से अपने बेटे विक्रम को लेकर सुमेरगढ लौट आती है एक दिन उसका पति उसे मनाने के लिए आता है दोनों में मतभेद बढता है

समीरा के बेटे विक्रम का जन्मोत्सव मनाते समय भजन मंडली के सदस्य बनकर सन्यासिनी की वेशभूषा में दिव्या प्रासाद आती है समीरा और दिव्या परस्पर जानने पर भी बातें नहीं करती है। गौतम और समीरा के मध्य संबंध तोडने के बारे में जयसिंह समीरा से कहता है। वास्तव में गौतम-समीरा संबंन्ध वासनात्मक न होकर पर्यावरण विषय पर आधारित है इस सत्य को मानने के लिए जयसिंह तैयार नहीं है एक सायंकाल गौतम और समीरा झील के किनारे बैठकर पक्षी-निरीक्षण कर रहे होते हैं तभी जयसिंह गौतम को लक्ष्य कर गोली चला द॓ता है गोली समीरा को लगती है और वह झील में गिर पडती है थोडी देर बाद उसकी मृत्यू हो जाती है 

गौतम पुरातत्व विषय संबंन्धी अपनी ऱिपोर्ट भारत सरकार को भेजता है। उस पर प्रसन्न होकर सरकार उसे आदिवासी जाति का खोज कार्य सौंप देती है किन्तू सुमेरगढ जैसा प्रकृति संपन्न, रमणीय और मनोरम प्रदेश छोडकर वह जाना नहीं चाहता। वह उसकी माँ द्वारा जोड़े गये धन से सुमेरगढ की झील और प्रकृति प्रधान जगहों को खरीद लेता है, जोकि मरने से पहले उसकी माँ की इच्छा थी तब वह झील के पास पक्षियों के लिए एक आश्रय स्थल स्थापित करता है। उपन्यास का अंतिम वाक्य भी प्रकृति संरक्षण की ओर इशारा करता है
 और उस मुख्य सडक पर, जहाँ से झील की सरहद शुरु होती थी, वहाँ पर वह एक बडा सा बोर्ड़ लगा रहा था-

पंछियों की धर्मशाला,
यहाँ शिकार करना मना है

हिन्दी में ही नहीं, अन्य भाषाओं के उपन्यासों में भी आजकल स्त्री-पुरुष प्रेम और सौंदर्य के वर्णन को ज़्यादा स्थान दिया जा रहा है अधिकाँश उपन्सकारों के लिए प्रकृति का अस्तित्व एक विषय नहीं है- ऐसा प्रतीत होता है, किन्तू कमलेश्वर द्वारा प्रकृति संरक्षण हेतु रचा गया यह उपन्यास प्रशंसनीय है

हिन्दी में पर्यावरण संरक्षण विषय पर रचा गए कुछ उपन्यासों में विवेच्य रचना अपने विशिष्टतम स्थान पर रहती है इस उपन्यास क॓ पात्र अपने से अधिक पशु-पक्षियों की मुक्ति और प्रकृति के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए संघर्ष करते है। इस उपन्यास की नायिका समीरा इसका अच्छा उदाहरण है वह पक्षियों की संरक्षण केलिए अपना जीवन न्योछावर कर देती है 146 पन्नों वाला 'अनबीता व्यतीत'नामक उपन्यास हिन्दी का एक विरल उपन्यास है जो काल की पुकार सुनकर रचा गया है। शायद इसीलिए यह उपन्यास कालजयी बन गया है

Written by Lembodharan Pillai.B, Research Scholar of Prof. (Dr.) K.P.Padmavathi Amma, Karpagam University, Coimbatore, Tamil Nadu, South India.

समीक्षा: ‘अँजुरी भर प्रीति'यानी कविता की समसामयिक भंगिमा

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रजनी मोरवाल

चर्चित रचनाकार रजनी मोरवाल का जन्म 1 जुलाई 1967 को आबूरोड़ (राजस्थान) में हुआ था। शिक्षा:बी.ए.(हिन्दी), बी.कॉम, एम.कॉम, बी.एड.। प्रकाशित कृतियाँ: (1) काव्य-संग्रह- “सेमल के गाँव से” (2) गीत-संग्रह- “धूप उतर आई” (3) गीत‌‌-संग्रह- “अँजुरी भर प्रीति”। प्रकाशन: विभिन्न प्रतिष्टित पत्र-पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, कविता, लघुकथा, लेख आदि का निरन्तर प्रकाशन। प्रसारण: जयपुर एवं अहमदाबाद दूरदर्शन से गीत प्रसारित एवं जयपुर, उदयपुर तथा अहमदाबाद आकाशवाणी से गीत प्रसारित। सम्मान:वाग्देवी पुरस्कार, रामचेत वर्मा गौरव पुरस्कार, हिन्दी साहित्य परिषद, गुजरात द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्ति स्वरूप रजत पदक एवं प्रशस्ति-पत्र से महामहिम श्रीमती (डॉ.) कमला बेनीवाल, राज्यपाल, गुजरात द्वारा हिन्दी पर्व पर पुरस्कृत, अस्मिता साहित्य सम्मान आदि। आपने विभिन्न राष्ट्रीय कवि-सम्मेलनों, मुशायरों एवं कवि-गोष्टियों में गीत-गान एवं गज़ल-पठन तथा कवि-शिविरों में पत्र-वाचन किया है। संप्रति: केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका के पद पर कार्यरत। सम्पर्क: सी‌- 204, संगाथ प्लेटीना, साबरमती-गाँधीनगर हाईवे, मोटेरा, अहमदबाद -380 005। दूरभाष: 079-27700729, मोबा.09824160612. 

विता एक आस्तिक भाव है| वह उस अवचेतन की कृति है, जो मनुष्य की समूची अस्मिता का प्रारूप होती है| इसी आस्तिक अस्मिता का सबसे मोहक रूप है प्रीति| इस प्रीति से ही मनुष्य मनुष्य के बीच एक अटूट अनूठा राग-भाव उपजता है, जो देवों को भी दुर्लभ है| युवा कवयित्री सुश्री रजनी मोरवाल के तीसरे काव्य-संग्रह का शीर्षक है 'अँजुरी भर प्रीति', जिसमें काफ़ी संख्या में ऐसी गीत-कविताएँ हैं, जो इसी प्रीति भाव के संज्ञान का उत्सव रचती हैं| आज के आपाधापी वाले युग में यह प्रीति का उत्सवभाव विरल ही होता जा रहा है| ऐसे में इस संग्रह के इन गीतों से रूबरू होना, सच में, हमारी आस्तिकता को एक नई ऊर्जा दे जाता है| मेरी राय में, यहइस संग्रह का सबसे बड़ा अवदान है

संग्रह का शुभारम्भ पारम्परिक रूप में माँ शारदा की वन्दना से हुआ है, किन्तु इन गीतों का रचना-संसार समग्र रूप में पारम्परिक नहीं है| नई बिम्ब-छवियों से इस युवा कवयित्री ने अपनी इन गीत-कविताओं में आज के गीत के कहन-शिल्प की बखूबी बानगी दी है| मसलन, रजनी की इन कविताओं  में 'प्रीति...जूही की छैया'है, 'अभिलाषा मुँहजोर सखी'है और देह 'सिहरन की लहरों पर...बलखाती नैया'है| ये श्रृंगार की एकदम नूतनबिम्बाकृतियाँ हैं|

रजनी मोरवाल की वैयक्तिक रचनाओं में भी उक्ति का नयापन इन्हें आम निजी अभिव्यक्तियों से अलगाता है| 'छत की अलगनियों पर बैरन/ ख़ामोशी है लूमी'या बाँहें फैलाकर सूनापन/लेता है अँगड़ाईअथवा'यादों की परछाईं'शीर्षक गीत का यह अछूती उद्भावना वाला पद -

'पिछले कमरे में कुछ सपने / एकाकी हो रूठे
इस सावन परखूँगी उनको / सच्चे हैं या झूठे
पलकों की गलियों में कब से / गूँज रही शहनाई'  

समस्त विश्व साहित्य में ही महिला कविताई की एक विडम्बना रही है - वह अधिकांशतः स्व की पीड़ा या अनुभूति से प्रेरित रही है, फिर चाहे वह अंग्रेजी की एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग या एमिली डिकिन्सन हों या हिन्दी की महादेवी| सुखद रहा इस संग्रह की कविताओं को इस सीमा को तोड़ते हुए देखकर| रजनी आज के समय की एक जागरूक नारी हैं और उनके इस संग्रह में फ़िलवक्त के तमाम प्रसंग और उनसे उपजे अहसास भी बड़ी शिद्दत के साथ प्रस्तुत हुए हैं|        
संग्रह की एक कविता 'लेह'में कई वर्ष पूर्व बादल फटने की त्रासदी पर कवयित्री ने जो सार्थक बिम्ब उकेरे हैं, वे आज केदारधाम और समग्र उत्तराखंड के परिवेश में व्यापी त्रासदी के सन्दर्भ में उतने ही मौजूँ हैं | देखें उसका एक मर्मस्पर्शी अंश - 
      
पानी की नरभक्षी धारा / लील गई बस्ती
गाँव गली घर आँगन बिखरे / जान हुई सस्ती
सिसक रही होगी अब भी / मलबे में कोई देह

माथे की सिंदूरी बिन्दी / ले डूबा बादल
माताओं की कोखें उजड़ीं / सूख गया आँचल
राखी के दिन बिन भैया / कैसे बरसेगा नेह

समसामयिक सन्दर्भ आज की कविता के एक प्रमुख सरोकार रहे हैं - रजनी के गीतों में भी फ़िलवक्त की असंगत स्थितियों का भरपूर अवलोकन हुआ है| पूरे विश्व में पदार्थवादी संस्कृति के विस्तार से शहरों की जो आपाधापी भरी जीवन-शैली विकसित हुई है, उसमें 'शहर की रफ्तार से मारे हुए'और 'रात-दिन की दौड़ से हारे'हुए 'सीखचों में साँस लेते'और 'बेबसी में मौन को धारे'‘मूक दर्शक से यहाँ / सारे हुए हैं लोगकी आख्या रजनी की कवयित्री ने अपने इन गीतों में बखूबी कही है| संग्रह के 'फूलों का आँगन बदला'शीर्षक गीत की ये पंक्तियाँ इस दृष्टि से बड़ी ही सटीक और सार्थक बन पड़ी हैं -  

मूक हुए संवाद हमारे / शहरों की इन गलियों में

पत्थर-ईंटों की दीवारें / क्या जानेंगी प्रीति भला
गमलों में काँटे पलते हैं / फूलों का आँगन बदला
खुशबू ढूँढ़ रहे हैं सारे / अब कागज़ की कलियों में

चौराहे के बीच अकेली / लाश पड़ी है खून सनी
अखबारी काले हर्फ़ों में / जी भर उछली तनातनी
पानी जैसा खून बह रहा है / लोगों की नलियों में

इसी से जुडी है महानगरों में जीवन बिताने को विवश बचपन की यह मार्मिक छवि -

ट्राफ़िक सिग्नल पर देखा है / उसको कितनी बार

काँधे पर गमछा डाले वह / वाहन धोता है
फुटपाथों पर अकसर ही वह / भूखा सोता है
रातों को ठेला करता है / उसको थानेदार
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फूल, खिलौने, डमरू, झंडे / अखबारी किस्से
बेचा करता है सपने जो / थे उसके हिस्से
हसरत से देखा करता है / आती-जाती कार

बदलती संस्कृति’, ‘बोझ उठाए अगली पीढ़ीऔर नई सदी के कडुएपन मेंजैसी गीत-रचनाओं में रजनी ने आज के समय में बदलते जीवन-मूल्यों के तहत राजनैतिक. आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में जो बदलाव आया है, उसका बड़ा ही सशक्त आकलन किया है| बतौर बानगी देखें ये गीत-अंश -   

मूँछ तानकर सीना ठोंकें / बगुले भगत सयाने हैं
श्वेत वस्त्र धारण करके भी / लगते चोर पुराने हैं
नेताओं की सौदेबाजी / वोट कहाँ ले पाई है

बाजारू सम्मान हुए हैं / पुरस्कार मानो चंदा
मोलभाव हो जाता पहले / मकड़जाल-सा है फंदा
रुपयों के गोरखधंधे में / रिश्तों की भरपाई है

                *                    *          
हुए खोखले मन के बंधन / तन के रिश्ते अंधकुआँ
जिस्मों की सौदेबाजी में / खेल रहे सब आज जुआँ
गिरते मूल्यों की संस्कृति क्या / इस युग का अभिप्राय हुई’                                          

              *                    *                 
मोह विदेशी गलियों का हो / या परदेशी रौनक खींचे
बूढ़े वृक्षों की छायाएँ / नई पोध को कैसे सींचें
संस्कारों की माप नापते / अब वस्त्रों के ओछेपन में

तार सरीखे रिश्ते उलझे / स्वार्थ स्नेह से आगे भागे
काट रही इच्छा को कैंची / संबंधों की भीगे धागे
तन-मन सब कंकाल हो गए / नई सदी के कडुएपन में

इन गीतांशों में फ़िलवक्त के लगभग सभी सरोकार बड़े ही सहज रूप में और पूरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत हुए हैं|

समग्रतः यह संकलन आज की युवा पीढ़ी के सोच और उसके माध्यम से कविता में सार्थक अभिव्यक्ति एवं सहज सटीक कहन का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है| मेरी राय में, रजनी की कविताई की प्रमुख विशेषता उसकी आमज की बोली-बानी में सहज कहन है| यही आज के गीत की विशिष्टता है| इस दृष्टि से रजनी मोरवाल समसामयिक कविता की एक विशिष्ट प्रतिनिधि रचनाकार हैंमेरा हार्दिक अभिनंदन है इस युवा कवयित्री को इन सशक्त गीतों के लिए| संग्रह से रजनी मोरवाल की एक कवि के रूप में  जो झलक मिलती है, वह निश्चय ही भविष्य की सम्भावनाओं एवं उपलब्धियों का संकेत देती है| मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ कि इस कवयित्री की सर्जना को नित नये आयाम मिलें और उनकी  सृजनधर्मिता से हिन्दी कविता का परिवेश निरंतर समृद्ध होता रहे|      

समीक्षक:

कुमार रवीन्द्र
क्षितिज ३१० अर्बन एस्टेट - 
हिसार -१२५००५
                                                                                          -   

Anjuree Bhar Preeti by Rajni Morwal

विशेषांक: वीरेन्द्र आस्तिक पर एकाग्र

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वरिष्ठ साहित्यकार श्री राम अधीर विगत 17 वर्षों से मासिक पत्रिका संकल्प रथका संपादन कर रहे हैं। इन 17 वर्षों में उन्होंने लगभग 17-18 ख्यातनाम सहित्यकारों और लोकप्रिय रचनाकारों के विशेषांक निकाले। इन विशोषांकों का साहित्य जगत में, विशेषकर शोध संस्थानों में, विशेष महत्व रहा है। इसी श्रंखला मेंसितम्बर 2013 अंकवरिष्ठ गीतकवि एवं आलोचक वीरेन्द्र आस्तिक जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित किया गया है। नवगीत की नई रचनात्मक शक्तियों के रचनाकार होने के साथ-साथ श्री आस्तिक हिन्दी आलोचना के दायरे में गीत को समादृत करने तथा उसे मूल्यांकित करने वाली विचारधारा के अप्रितिम समीक्षक माने जाते हैं। विशेष बात यह है कि इस अंक में श्री नन्द चतुर्वेदीऔर श्री रंग जैसे कविता के क्षेत्र के समीक्षकों ने भी अपने बेबाक और तर्कसंगत विचार व्यक्त किये हैं। साथ ही डा. मधुसूदन साहा, डा. सुरेश गौतम, डा. उपेन्द्र, डा. सरिता, डा. संतोष कुमार तिवारी, डा. शांतिसुमन, डा. श्याम नारायण पाण्डेय, डा. वेद प्रकाश अमिताभआदि के लेख भी अच्छे बन पड़े हैं। संपादन की दृष्टि से अब तक के विशेषांकों में यह अंक सर्वाधिक रोचक एवं पठनीय है, संपादक श्री राम अधीर का ऐसा मानना है। 

पत्रिका चर्चा

- डॉ. अवनीश सिंह चौहान

Visheshank: Virendra Astik Par Ekagra

विख्यात लेखक विजयदान देथा और उनकी यादें

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विख्यात साहित्यकार श्रद्धेय विजयदान देथा (1 सितम्बर 1926 - 10 नवम्बर 2013) को बिज्जी के नाम से भी जाना जाता है राजस्थानी लोक कथाओं एवं कहावतों का अद्भुत संकलन करने वाले पद्मश्री देथा जी की कर्मस्थली उनका पैतृक गांव बोरूंदा ही रहा तथा इसी छोटे से गांव में रहकर उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्य का सृजन किया। पद्मश्री पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य चुड़ामणी पुरस्कार जैसे अति महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित देथा जी का 87 वर्ष की आयु में रविवार को निधन हो गया। ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व को पूर्वाभास की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि। 

यहाँ आपकी एक लोककथा प्रस्तुत है:
एक बार...

एक बार भोले शंकर ने दुनिया पर बड़ा भारी कोप किया। पार्वती को साक्षी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएंगे। शंकर भगवान शंख बजाएं तो बरसात हो। बरसात रुक गई। अकाल-दर-अकाल पड़े। पानी की बूंद तक नहीं बरसी। न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही और न किसी रंक की। दुनिया में त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया। लोगों ने मुंह में तिनका दबाकर खूब ही प्रायश्चित किया। पर महादेव अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिगे।

संयोग की बात ऐसी बनी कि एक दफा शंकर-पार्वती आकाश में उड़ते जा रहे थे तो उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत की जुताई कर रहा है। पसीने में सराबोर, मगर अपनी धुन में मगन। जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गयी थी। फिर भी वह जी-जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो। उसकी आंखों और उसके पसीने की बूंदों से ऐसी ही आशा चू रही थी।

भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते। तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है। शंकर पार्वती आकाश से नीचे उतरे। उससे पूछा, “अरे बावले! क्यों बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती। बरसात का तो अब सपना भी दूभर है।”

किसान ने एक बार आंख उठा कर उनकी ओर देखा और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया, “हां, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। मगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊं, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूं। जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी क्या! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है। फ़कत लोभ की खातिर ही मैं खेती नहीं करता।”

किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए। सोचने लगे,”मुझे भी शंख बजाए बरस बीत गए। कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस, उससे आगे सोचने की जरूरत ही उन्हें नहीं थी। खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूंका। चारो और घटाएं उमड़ पडी। मतवाले हाथिओं के सामान आकाश में गडगडाहट पर गडगडाहट गूंजने लगी और बेशुमार पानी बरसा। बेशुमार जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूंदें पहले ही खेत में मौजूद थीं।

देथा जी से मेरा परिचय 1984-85 में मास्को में हुआ था। तब वे केन्द्रीय साहित्य अकादमी के सदस्य थे और एक परियोजना के तहत तीन बार मास्को आए थे। पहली ही मुलाक़ात में इतनी घनिष्ठता हो गई थी कि फिर वे जितने दिन मास्को में रहे, मैं उनके साथ-साथ रहा। यहाँ तक कि सरकारी बैठकों में भी वे मुझे अपने साथ ले जाते थे। जाते-जाते अपने बिल्कुल नए तीन राजस्थानी कुर्ते मेरे लिए छोड़ गए थे, वे कुर्ते आज भी मेरे पास रखे हैं। उन्हीं दिनों उनकी पुस्तक ’रुंख’ आई थी। उसकी दो अलग-अलग प्रतियाँ भी उनके हस्ताक्षरों के साथ मेरे पास हैं। उन्हें अपनी कहानी ’दाँत’ बहुत पसन्द थी। उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं सबसे पहले ’दाँत’ पढूँ। मैंने ’दाँत’ पढ़ी और मैं वह मेरी सर्वप्रिय कहानियों में से एक बन गई है। उसके बाद ’दाँत’ को मैंने बार-बार पढ़ा है, पढ़ाया भी है। जितनी बार उस कहानी को पढ़ता हूँ कहानी का एक नया आयाम मेरे सामने खुल जाता है। आप लोगों को भी ’दाँत’ ज़रूर पढ़नी चाहिए। अब उनके जाने की सूचना पाकर मैं बेहद आहत हुआ हूँ।- अनिल जनविजय, मास्को, रूस 

Vijaydan Detha

नवगीत के महत्वपूर्ण संकलन

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पांच जोड़ बांसुरी- संपादक: चन्द्रदेव सिंह, 1969 

1. कविता 64- सम्पादक : ओम प्रभाकर, प्रकाशन वर्ष-1964 
2. नवगीत दशक (एक, दो, तीन)- सम्पादक : डॉ. शम्भूनाथ सिंह, प्रकाशन वर्ष-1982-84 
3.नवगीत : इतिहास और उपलब्धि- सम्पादक : डॉ. सुरेश गौतम एवं डॉ. वीणा गौतम, प्रकाशन वर्ष-1984
4.हिंदी नवगीत : उद्भव एवं विकास - लेखक : राजेन्द्र गौतम, प्रकाशन वर्ष - दिसम्बर-1984 
5. यात्रा में साथ-साथ- सम्पादक : देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, प्रकाशन वर्ष-1984 
6. नवगीत का विकास और मौजूदा बहस- सम्पादक : राजेन्द्र प्रसाद सिंह, प्रकाशन वर्ष-1985 
7. काव्य परिदृश्य अर्द्धशती : पुनर्मूल्याकंन (खण्ड एक एवं दो)- सम्पादक : डॉ. सुरेश गौतम, प्रकाशन वर्ष-1997 
8. धार पर हम (एक)- सम्पादक : वीरेन्द्र आस्तिक, प्रकाशन वर्ष-1998 
9.गीत रचना की नई जमीन- सम्पादक : नचिकेता, प्रकाशन वर्ष-2000 
10. नवगीत एवं उसका युगबोध-सम्पादक : राधेश्याम बंधु, प्रकाशन वर्ष 2009 
11. नवगीत के नये प्रतिमान- सम्पादक : राधेश्याम बंधु प्रकाशन वर्ष, 2012
11. हरियर धान रुपहरे चावल- सम्पादक : देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, प्रकाशन वर्ष-2012 

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  • नवगीत सप्तदशक- सम्पादक : राजेन्द्र प्रसाद सिंह 
  • नवगीत अर्द्धशती- सम्पादक : डॉ. शम्भूनाथ सिंह
  • नवगीत सप्तक- सम्पादक : उदभ्रांत 
  • नवगीत का संक्षिप्त इतिहास- सम्पादक : अवधेश नारायण मिश्र
  • समकालीन गीतिकाव्य : संवेदना और शिल्प- डॉ. रामस्नेही लाल शर्मा यायावर
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कुछ और नवगीत संकलन और उनके उपलब्ध मुखपृष्ठ:

 
श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन/
कन्हैयालाल नंदन, 2001 

 
नवगीत एकादश/
भारतेन्दु मिश्र , 1994 
 
नवगीत: नई दस्तकें/
निर्मल शुक्ल, 2009 
 
धार पर हम (दो )/
वीरेंद्र आस्तिक, 2010 
 
शब्दायन/
निर्मल शुक्ल, 2012 
 
नवगीत: एक परिसंवाद/
निर्मल शुक्ल, 2012 
 
गीत वसुधा/
नचिकेता, मिश्र  एवं राठौर, 2013  
 
नवगीत- 2013/
डॉ जगदीश व्योम एवं पूर्णिमा वर्मन 


 दिनेश सिंह द्वारा सम्पादित पत्रिका नये-पुराने  के नवगीत पर केंद्रित विशेषांक (1996- 2000): 











Some Anthologies of Hindi Lyrics

नवगीत परिसंवाद 2013

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पहला दिन 
२३ नवंबर- सुबह ८:०० बजे 
  • शब्द-रंग पोस्टर प्रदर्शनी का उद्घाटन। 
  • नवगीत विभिन्न रचनाकारों के हैं और पोस्टर होंगे-पूर्णिमा वर्मन, रोहित रुसिया, विजेन्द्र विज और अमित कल्ला के                                                                     (८:३० से ९:३० चाय कलेवा)
उद्घाटन
  • ९:३०- मंगलदीप जलाकर कार्यक्रम का उद्घाटन। 
  • पिछले वर्ष के कार्यक्रमों पर आधारित फिल्म।
  • आयोजक का संबोधन 
प्रथम सत्र कार्यशाला- (प्रातः १० से १) 
  • उपस्थित विद्वानों में से कोई एक या एक से अधिक समीक्षक मार्गदर्शन के लिये होंगे। 
  • पाठशाला के विद्यार्थी होंगे- १.कृष्ण नंदन मौर्य, २.वीनस केसरी ३. शशि पुरवार ४. ब्रजेश नीरज ५. परमेश्वर फुँकवाल, ६.संध्या सिंह, ७. श्रीकांत मिश्र कान्त, ८. कल्पना रामानी। हर विद्यार्थी एक रचना पढ़ेगा और समीक्षक अपनी राय देंगे। हर विद्यार्थी को १० मिनट का समय मिलेगा। 
  • विशेषज्ञ- भारतेन्दु मिश्र जी का वक्तव्य होगा- वह क्या है जो नवगीत को गीत से अलग करता है। 
  • बचे हुए समय में प्रश्न पूछे जा सकेंगे।                           (दोपहर भोजन १:०० से से २:००) 
दूसरा सत्र (दोपहर २:०० से ५:००) 
  • वरिष्ठ रचनाकारों का कविता पाठ 
  • इस सत्र में कविता या रचना प्रक्रिया से संबंधित प्रश्न पूछे जा सकेंगे। 
1. मधुकर अष्ठाना (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
2. विनोद निगम- (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
3. धनंजय सिंह (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
4. दिनेश प्रभात (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
5. शशिकांत गीते (कविता पाठ का समय २५ मिनट)                      (शाम की चाय ५:०० से ५:३०) 

तीसरा सत्र (सायं- ५:३० से ८:३०) 
  • नई पीढ़ी के रचनाकारों का कविता पाठ 
  • इस सत्र में कविता या रचना प्रक्रिया से संबंधित प्रश्न पूछे जा सकेंगे। 
१. जयकृष्ण राय तुषार (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
२. मनोज जैन मधुर (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
३. अवनीश सिंह चौहान (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
४. रोहित रुसिया (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
५. रविशंकर मिश्र रवि (कविता पाठ का समय २५ मिनट)                            (रात्रि भोज ८:३० से) 
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दूसरा दिन 
रविवार २४ नवंबर 
प्रातः ८:३० से १०:०० चाय कलेवा 
चौथा सत्र (प्रातः १० से १) 
  • अकादमिक शोधपत्रों का वाचन.
  • प्रत्येक वक्तव्य के बाद १० मिनट का समय प्रश्नोत्तर के लिये निश्चित है। 
1. गुलाब सिंह- नवगीतों में भारतीय संस्कृति (समय २५ मिनट ) 
2. नचिकेता- समकालीन नवगीतों में संवेदना का विकास(समय २५ मिनट ) 
3. निर्मल शुक्ल- गीत की शाश्वतता और युवा रचनाकार (समय २५ मिनट ) 
4. वीरेन्द्र आस्तिक- गीत स्वीकृति- रचना प्रक्रिया के नये तेवर (समय २५ मिनट ) 
5. डॉ. ओमप्रकाश सिंह– नवगीतों में नारी विमर्श के स्वर (समय २५ मिनट ) 
6. डॉ. जगदीश व्योम- वेब पर नवगीत की उपस्थिति (समय २५ मिनट )(भोजन अंतराल १:०० से २:००) 

पाँचवाँ सत्र- (दोपहर २: ०० से ५: ००) 
  •  महिला नवगीतकारों का कविता पाठ- 
  • इस सत्र में कविता या रचना प्रक्रिया से संबंधित प्रश्न पूछे जा सकेंगे। (अध्यक्ष होंगे) 
१. शांति सुमन (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
२. यशोधरा राठौर (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
३. मिथिलेश दीक्षित (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
४. गीता पंडित (कविता पाठ का समय २५ मिनट) 
५. सुवर्णा दीक्षित (कविता पाठ का समय २५ मिनट)                      (शाम की चाय ५:०० से ५:३०) 

छठा सत्र- (सायं- ५:३० से ८:३०) 
  •  स्थानीय रचनाकारों का कवितापाठ एवं सांस्कृतिक संध्या 
  • नवगीत पाठ- उपस्थित रचनाकार जो विभिन्न सत्रों में रचना नहीं पढ़ सके हैं उनका काव्य पाठ (समय १ घंटा) 
  • नवगीतों की संगीत प्रस्तुति– सम्राट आनंद एवं साथी – संयोजन रश्मि आशीष (समय २० मिनट) 
  • फिल्म– विजेन विज, मनु गौतम, श्रीकांत मिश्र कांत (समय २० मिनट) 
  • नाटक– निर्देशक नितिन जैन सह निर्देशन रामशंकर वर्मा (समय २० मिनट) 
  • ग्रुप फोटो (२० मिनट)                                                                      (रात्रि भोज ८:३०)
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कला तकनीक, सहयोग एवं अन्य विवरण 
  • कार्यक्रम में उपरोक्त नवगीतकारों के अतिरिक्त सुरेश उजाला, राजेन्द्र वर्मा, डॉ कैलाश निगम, डॉ रामाश्रय सविता, शिवभजन कमलेश, रामदेव लाल विभोर, अमृत खरे, राजेन्द्र शुक्ल राज, राजेन्द्र परदेसी, डॉ गोपाल कृष्ण शर्मा, डॉ सुभाष राय, हरेप्रकाश उपाध्याय, अनिल वर्मा ओमप्रकाश तिवारी, लखनऊ विश्वविद्यालय एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के प्रतिनिधि आदि के उपस्थित रहने की संभावना है। 
  • भारत में कार्यक्रम संयोजन कर रहे हैं- डॉ. अवनीश सिंह चौहान एवं डॉ जगदीश व्योम, फोन- अवनीश सिंह चौहान- 09456011560, डॉ. जगदीश व्योम- 9868304645 
  • दोनो दिनों के कार्यक्रमों का लाइव प्रसारण इंटरनेट पर होगा। अतः जो लोग कार्यक्रम में नहीं आ सके हैं वे भी घर बैठे इसका आनंद ले सकेंगे। तत्काल प्रसारण का लिंक फेसबुक के अभिव्यक्ति समूह तथा नवगीत की पाठशाला समूह में एक या दो दिन पहले प्रकाशित किया जाएगा। यह प्रसारण श्रीकांत मिश्र कांत के सौजन्य से होगा। 
  • वीडियोग्राफी श्रीकांत मिश्र कांत की होगी। 
  • कैमरा, प्रोजेक्टर तथा ध्वनि सहयोग आशीष व रश्मि का होगा। 
  • साज-सज्जा रोहित रुसिया की होगी। 
  • कुछ नई पुस्तकों का विमोचन होगा और नवगीत से संबंधित कुछ पुस्तकें आधे मूल्य पर खरीदी जा सकेंगी।

कार्यक्रम स्थल 
फ्लैट न १००२, कालिन्दी विला, विभूति खंड, गोमती नगर, 
फैजाबाद रोड, (सुषमा हास्पिटल के सामने) लखनऊ

 आयोजक 
पूर्णिमा वर्मन 

 
डॉ जगदीश व्योम
 
अवनीश सिंह चौहान 

गीत स्वीकृति: रचना प्रक्रिया के नए तेवर (भाग-1 एवं 2)

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वीरेन्द्र आस्तिक

वरिष्ठ कवि एवं आलोचक वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील भावुक-चिन्तक एवं मिलनसार रहे हैं। कानपुर (उ.प्र.) जनपद के एक गाँव रूरवाहार में 15 जुलाई 1947 को जन्मे वीरेंद्र सिंह ने 1964 से 1974 तक भारतीय वायु सेना में कार्य करने के बाद भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएं दीं। काव्य-साधना के शुरुआती दिनों में आपकी रचनाएँ वीरेंद्र बाबूऔर वीरेंद्र ठाकुरके नामों से भी छपती रही हैं। अब तक आपके पाँच नवगीत संग्रह-परछाईं के पाँव, आनंद ! तेरी हार है, तारीख़ों के हस्ताक्षर, आकाश तो जीने नहीं देता एवंदिन क्या बुरे थे प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त काव्य समीक्षा के क्षेत्र में भी आप विगत दो दशकों से सक्रिय हैं जिसका सुगठित परिणाम है- धार पर हम (एक और दो)जैसे आपके द्वारा किये गये सम्पादन कार्य। आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। उनकी रचनाओं से गुजरने पर लगता है जैसे आज़ादी के बाद के भारत का इतिहास सामने रख दिया गया हो, साथ ही सुनाई पड़तीं हैं वे आहटें भी जो भविष्य के गर्त में छुपी हुईं हैं। इस द्रष्टि से उनके गीत भारतीय आम जन और मन को बड़ी साफगोई से प्रतिबिंबित करते हैं, जिसमें नए-नए बिम्बों की झलक भी है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी। और यह व्यंजना जहां एक ओर लोकभाषा के सुन्दर शब्दों से अलंकृत है तो दूसरी ओर इसमें मिल जाते है विदेशी भाषाओं के कुछ चिर-परिचित शब्द भी। शब्दों का ऐसा विविध प्रयोग भावक को अतिरिक्त रस से भर देता है। संपर्क: एल-60, गंगा विहार, कानपुर-208010 । संपर्कभाष: 09415474755 । यहाँ गीत पर आपका एक महत्वपूर्ण आलेख प्रस्तुत है

गीत की स्वीकृति और उसकी रचना प्रक्रिया पर कुछ कहने से पहले, यहाँ अपने एक पत्र को रखना चाहूँगा जो ‘संचेतना’ (दिल्ली: पूर्णांक-159) में छपा था। यह अंक एक विशेषांक था- ‘संकट गीत की स्वीकृति का।’पत्र का मुख्यांश इस प्रकार था- ‘‘20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी साहित्य में एक विस्मयकारी परिवर्तन देखने में आया जिस पर आलोचकों का ध्यान या तो नहीं गया या वे जानबूझकर केन्द्रस्थ नहीं हुए। वह तथ्य था- कथ्यात्मक स्तर पर हिन्दी की सारी विधाओं का एक होना, अर्थात् विभिन्न विधाओं की आन्तरित ध्वनि में एकात्मकता। यह एक ऐसा तथ्य था जिस पर आलोचकों की कलम चलनी चाहिए थी, किन्तु आश्चर्य, उक्त तथ्य की धवलता आलोचकीय कुहासे में उभर नहीं पायी। विधाएं अपने-अपने स्वरूप पर मुग्ध, अपने-अपने शिविरीय आइनों में श्रेष्ठ साबित होती रही और उक्त तथ्यात्मक वास्तविकता दबी ही रह गई। यह कथ्यात्मक एकात्मकता यदि आलोचना के केन्द्र में आई होती तो कम से कम काव्य जगत के विभिन्न स्वरूपों की समग्र रूप से मूल्यांकन की धारा विकसित होती।’’

विधाओं की संरचना में अन्तर होते हुए भी कथ्यात्मक साम्य पर विचार किया जाए तो गीत की स्वीकृति अर्थात् साहित्य की मुख्य धारा में उसकी भागीदारी का संकट, निष्कर्षतः संकट नहीं रह जाता है। क्योंकि नवगीत के रचनात्मक विकास के इतिहास को जब हम देखते हैं, तो पता चलता है कि वहाँ गीत, समय की सापेक्षता, युगीन सन्दर्भों और अपनी प्रभावोत्पादकता में ट्रैक से अलग नहीं है। गीत और कविता के द्वन्द्वात्मक संबंधों के बारे में यहाँ डॉ वीरेन्द्र सिंह का कथन उद्घृत है -‘‘गीत और छन्दमुक्त कविता में यथार्थ को व्यक्त किया जा सकता है। गीतों और कविताओं के अध्ययन से यह सत्य प्रकट होता है कि गीतों में भी वही कहा जा सकता है जो कविताओं में कहा जाता है।’’डॉ सन्तोष कुमार तिवारी जैसे आलोचक भी मानते हैं कि ‘‘जीवन मूल्यों की पहचान और शब्द की गतिशील अर्थवत्ता की पकड़ दोनों विधाओं में है।’’ 

आलोचकों का उपरोक्त कथन अकारण नहीं है। वे कहना चाहते हैं कि युग की परिवर्तनकामी प्रवृत्तियों से गीत-नवगीत की रचना प्रक्रिया भी स्पर्धित हुई है। वहाँ भाषा में नए मुहावरे गढ़े गए हैं तथा नवीन शब्द योजाओं में समय की त्रासदी और संवेदना व्यंजित हुई है। इस तरह यदि आज के नवगीत की रचना प्रक्रिया के सन्दर्भ में  कथ्यगत विषयवस्तु, शैल्पिक भाषा और उसकी अन्विति (प्रस्तुतीकरण) विधान आदि पर विचार कर लिया जाए तो गीत के नए तेवरों का परिदृश्य सामने आ सकता है।

जहाँ तक कथ्य का प्रश्न है - मानता हूँ कि समकालीन साहित्य में आम जनता के नायकत्व में मनुष्य के पूरे जीवन दर्शन का केन्द्रस्थ होना ही कथ्यात्मक एकता की सबसे बड़ी पहचान है। इसी से संलग्न दूसरी बात यह है कि कथ्यात्मक एकता ही वह तथ्य है जिसके कारण हमारी अनुभूतियों एवं विषय वस्तुओं में भी समानता व टकराहत दिखाई देती है। क्योंकि मनुष्य ही साहित्य के केन्द्र में है और वहाँ वह खानों में नहीं बँटा है। इन तथ्यात्मक कसौटियों से रू-ब-रू गीत, साहित्य की विकास यात्रा में अन्य विधाओं की तरह एक सहयात्री रहा है और आज भी है।

दूसरी बात जो भाषा से संबद्ध है उस पर भी विचार कर लेना चाहिए। क्योंकि रचना प्रक्रिया भी भाषा से ही बनती है। सामान्यतः भाषा के निर्माण में ‘मैटर और मैनर’ के संतुलन की कलात्मक भूमिका होती है। भाषा स्वयं अपने ही घटकों, कथ्याग्रहों, ऐन्द्रिय बिम्बों एवं मुहावरों आदि के प्रयोग से प्रभावित होती है। भाषा की कलात्मकता ही एक प्रकार के शिल्प का बोध कराती है। किन्तु गीत की भाषा अन्य गद्य एवं गद्यात्मक विधाओं से बिलकुल भिन्न है। इस भिन्नता के मुख्य कारक हैं, छन्द और प्रास, जो कविता के आलोचकों के समक्ष सबसे बड़ी दुविधा एवं नकार के रूप में रहे हैं। उन लोगों का मानना था कि जटिल अनुभूतियों वाले विषय गीत के लिये उपयुक्त नहीं हो सकते या गीत ऐसे विषयों को काव्यत्व प्रदान करने में अक्षम है। किन्तु समय के साथ गीत की विकासात्मक प्रवृत्तियों ने इन सारे आरोपित फतवों का उत्तर सहज अभिव्यक्ति के रूप में दिया है और आज भी दिए जा रहा है।

उदाहरण के बतौर यहां डॉ अवनीश सिंह चैहान का एक गीत-‘गली की धूल'पर बात की जा सकती है। समय और प्रगति की द्वन्द्वात्मकता में हमारी जो अवनति हुई है- बताती है कि हम भारतीय आधुनिक चिंतन के स्थापित मूल्यों से कैसे और कितने ड्रैग हुए हैं। इस गीत की अर्थ-वीथियां हमें कहां-कहां ले जाती हैं- उससे लगता है कि हमने लक्ष्य के विपरीत दिशाओं में यात्राएं की हैं- 

समय की धार ही तो है
किया जिसने विखण्डित घर
………… 

गरीबी में जुड़े थे सब
तरक्की ने किया बेघर

किसी वाक्य की रचना में यदि छन्द-प्रास विद्यमान है तो उसका कुल इतना ही मतलब है कि शब्दों को कुछ इस तरह नियोजित कर दिया गया है जिससे उसका पाठ लयबद्ध अर्थात् गेय हो गया है। गीत में लय-गेयता उसकी कलात्मकता का एक पक्ष है जिससे गीत की विषयवस्तु आदि बिलकुल भी आहत नहीं होती। जैसा कि पारम्परिक छन्दों में प्रायः हो जाया करता था। वहाँ मीटर प्रमुख था और कथ्य को ही गराने की छूट थी। नवगीत में कथ्य (यथार्थवादी रूझानों आदि के कारण) प्रमुख हो गया। वहाँ कथ्य के अनुसार छन्दों का निर्माण किया जाने लगा। गेय भाषा में विषयवस्तु की बुनावट का कार्य कविता के किसी कवि के लिए जटिल हो सकता है पर किसी गीत साधक के लिए उसकी साधना की एक विशेष नियति होती है जिसे लयप्रिय होना ही होता है। गीतकवि छन्द-प्रास युक्त भाषा में वस्तु-प्राण वैसे ही प्रतिष्ठित करता है जैसे कोई कवि या कथाकार गद्य में। कहने का कुल आशय यह कि भाषा और वस्तु के अन्योन्याश्रित संबंधों को गीतकार भी समझता है तथा प्रयोग में भी लाता है। इस तरह अज्ञेय का कथन कि भाषा कवि के प्रयोग का साधन है या काव्य के गुण अन्ततः ‘‘भाषा के ही गुण होते हैं,’’ का गीत पूरी तरह निर्वाह करता है। ध्यातव्य है कि यह वक्तव्य अज्ञेय ने कविता के पक्ष में दिया था।

उपरोक्त विवेचन के बाद एक पक्ष और रह जाता है गीत की अन्विति अर्थात वस्तु और भाषा के अन्योयाश्रित संबंध के आधार पर अर्थात्मक पूर्णता का। कविता की आलोचना-भाषा में अन्विति को ‘अर्थ की लय’ कहा गया है। जबकि गीत में अर्थ की लय गम्भीरतर से गम्भीर हो जाने की प्रक्रिया में गतिमान रहती है। गीत प्रायः अपनी अन्तिम पंक्तियों में सर्वाधिक पोटेंशियल होता है। कविता की पोटेंसी के संदर्भ में यहां पर रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन प्रासंगिक है -‘‘कविता उत्कृष्टतम शब्दों का उत्कृष्टतम क्रम है।’’ स्थूल रूप से यह परिभाषा गीत के लिए अपर्याप्त-सी जान पड़ती है। उत्कृष्टतम शब्दों को उत्कृष्टतम क्रम में रखना ही कलात्मकता है। ‘क्रम’ शब्द से विन्यास जैसा भाव भी ध्वनित होता है जो अन्ततः छन्द की ओर संकेत करता है। दरअसल वे कहना चाहते होंगे कि ‘‘कविता (गीत भी) श्रेष्ठतम भाव के लिए उत्कृष्टतम शब्दों का उत्कृष्टतम कलात्मक रूप है।’’

प्रसंगात अवगत हो कि आलोचकों में ‘रूप’ शब्द विवाद का विषय रहा है। वे कविता को रूप से बाहर रखते रहे हैं और गीत के रूप से ‘एलर्जी’ (वही छन्दादि के कारण)। मैं कहना चाहता हूँ कि वस्तु और रूप का सम्बन्ध तो आत्म और शरीर जैसा होता है। माना कि सर्जना की श्रेष्ठता वस्तु-तत्व पर निर्भर करती है। किन्तु शैल्पिक शरीर वस्तुतः कथ्यवस्तु पर स्वयं की आन्तरिक मांग के अनुसार ही तो उत्सर्जित होता है। जैसा डॉ सन्तोष कुमार तिवारी कहते हैं कि‘‘तत्व के भीतर से ही रूप स्वयं ढलने लगता है।’’अर्थात चाहे कितना ही अमूर्त काव्य क्यों न हो वह शब्दों में अवतरित होते ही मूर्तमान हो जाता है। रूप है तो लय किसी न किसी प्रकार की अवश्य उत्पन्न होगी और दोनों के संयोग से एक भाषा सौंदर्य की भी बोध में आएगी। उक्त तथ्यों के आधार पर कविता भी छान्दसिक आवश्यकताओं से इन्कार नहीं कर सकती। कविता की भाषा विशुद्ध गद्य नहीं है। कविता की रचना प्रक्रिया में भी कथ्य आधारित कोई न कोई लय निर्माण की प्रक्रिया चलती रहती है। गीत हो या कविता दोनों में लय का सर्वाधिक महत्व स्वीकार किया गया हैं लय का प्रबन्ध ही तो छन्द है अतः कविता में भी छन्द का अस्तित्व न्यूनाधिक रूप में विद्यमान रहता है।

यहाँ गीत और कविता के बारे में उपरोक्त तथ्यों को प्रस्तुत करने का कुल आशय यही रहा कि उनमें रचनात्मक स्तर पर तो अन्तर रहेगा किन्तु अर्थात्मक और भावबोध के स्तर पर दोनों विधाएं युग सापेक्ष तथा समकालीन है। इस आधार पर केवल गीत को मूल्यांकन व मुख्यधारा के दायरे से बाहर रखना दुखद तो है ही, एक षडयंत्र भी है।

भाग-2

सन् 1960 के बाद गीतों में कथ्य की मांग के अनुसार छंदों का प्रयोग करने का चलन बढ़ता गया। इनमें पारम्परिक छन्दों के भी प्रयोग होते रहे, किन्तु अधिकतर उनकी लयों के लघु आकार (लंबाई) ही अपनाए गए। संक्षिप्त कथ्य वस्तु या अर्थ संप्रेषण आदि की वजह से। यहां पर पहले ‘कथ्य की मांग’ और अनुभूति के अंतर्सम्बन्धों को समझना जरूरी होगा। हम देखते हैं कि साहित्यिक धाराओं में आम जनता का व्यवस्था आदि के प्रति बढ़ता आक्रोश और नैराश्य आदि एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता गया है। इस आक्रोश का कारण भले ही राजनीतिक रहा हो, किन्तु इस सच्चाई से इनकार करना बेमानी होगी कि इसी काल में चीन और पाक युद्धों का सामना करना पड़ा। वास्तव में यह काल हमारे लिए किसी वज्रपात को झेलकर संभलने का काल था।

अगले दशकों में आशातीत आश्वासनों और निष्ठाओं पर बेबाक एवं मारक अभिव्यक्ति का प्रहार होना जो प्रारम्भ हुआ तो उससे अनुभूति का आधार एकाएक परिवर्तित होते देखा गया अर्थात् वहाँ युग यथार्थ और उसकी मूल संवेदना ही आत्मानुभूति का रूप ग्रहण करती गई है। आलोचक इसी प्रक्रिया को रचना में अनुभूतिजन्य वैचारिकता या विचारजन्य अनुभूति का आधार बनना देखते हैं। यहाँ पर तेजी से बदलते अनुभूति के आधारों और उसके सौंदर्य को आत्मसात करना होगा, तभी हम गीत की नई अंतर्वस्तु और उसकी रचना प्रक्रिया के साथ न्याय कर सकेंगे। इस काल में नित्य बदलते घटनाक्रमों के सामाजिक बीहड़ में  अनुभूति के छोटे-छोटे अंशों को गीत में ‘फोकस’ करने का प्रचलन अधिक बढ़ा जिससे गीत अधिकाधिक पोटेंशियल हुआ। डॉ रवीन्द्र भ्रमर, वीरेन्द्र मिश्र, नईम, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, सत्य नारायण, शांति सुमन, विद्या नंदन, राजीव, माहेश्वर तिवारी आदि के गीत उपरोक्त तथ्यों के आधार पर परखे जा सकते हैं।

इस काल के नवगीतों में समाजार्थिक मूल्यों के अलावा व्यक्तित्व बोध और भारतीय जीवन दर्शन का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। इस पीढ़ी का उत्तर काल जो हमें विरासत में मिला है वह कम महत्वपूर्ण नहीं। बल्कि इस धारा का आगे विकास होना चाहिए। शिव बहादुर भदौरिया का एक नवगीत उपरोक्त आशय का मार्मिक बोध कराने में बेजोड़ है-

मेरी कोशिश है कि 
नदी का बहना मुझमें हो
...................... 

मैं न रुकूँ संग्रह के घर में
धार रहे मेरे तेवर में
मेरा बदन काट कर नहरें
ले जाएं पानी ऊसर में

जहां कहीं हो बंजरपन का
मरना मुझमें हो

पूरा गीत विश्वबंधुत्व, उसकी सार्वभौतिक दृष्टि और उदारवादी नीति का बोध कराता है। नवगीत वैश्विक मूल्यों और भारतीय आधुनिक सांस्कृतिक मूल्यों में सामंजस्य स्थापित करने का सफल प्रयास करता आया है, मूल्यांकन की दृष्टि से यह भी देखा जा सकता है बल्कि देखा जाना चाहिए कि रचना अपनी सोद्देश्यता के संप्रेषण में कितनी अर्थवान है। पुरानी पीढ़ी के बाद विशेषतः दशकीय प्रवृत्तियों के नवगीतों से जो नवगीत परिभाषित हुआ, उसका प्रभाव बाद की नई पीढ़ी में भी देखा जा सकता है- अजय पाठक, यश मालवीय मनोज जैन मधुर, अवनीश सिंह चैहान, यशोधरा राठौर आदि के गीतों में युगीन पारदर्शिता स्पष्ट हुई है। ऐसे गीत भूमण्डलीय विभीषिका (बाजार सभ्यता) और भारतीय चिंतन की द्वन्द्वात्मकता में दरअसल उन भारतीय मूल्यों को सुरक्षित रखना चाहते हैं, जिन मूल्यों को विश्व बिरादरी ने सम्मानजनक दृष्टि से देखा है। ऐसे तथ्यों के सन्दर्भ में मनोज जैन मधुर का कहना है-

इच्छाओं की फौज बिदकती
जब-जब भटका मन
थमा दिया दुख के हाथों ने
जीवन का दर्शन
............. 

विश्वग्राम से लोक ग्राम की
देह रही है छिल
आखर कबिरा की साखी के
दिखते हैं धूमिल

तम्बू तने हुए ज्यों के त्यों
नई-पुरानी रीत के             (एक बूँद हम: पृष्ठ: 54-55)

कहना होगा कि गीत आनुभूतिक प्रखरता/प्रधानता के कारण ही संक्षिप्त हुआ और इसी से जुड़ते रचना प्रक्रिया के अन्य घटक भी प्रभावित हुए। पहले से टेक आवृत्ति भी तार्किक हुई। शब्द औचित्य चिंतन द्वारा निरर्थक या साधारण से शब्दों से किनाराकसी तथा तुकांत इतने अर्थप्रिय प्रयोग में लाए जाने लगे जो पंक्ति में ढुँसे न होकर आवश्यक प्रतीत हो।

दरअसल गीत समय का दस्तावेज बनने की जद्दोजहद में प्रयोगधर्मी होता गया है। वास्तव में गीत का प्रयोगधर्मी होना ही नवीन होना है। प्रयोग किसी एक अंग पर केन्द्रित नहीं होता, वह रचना प्रक्रिया को अपनी सर्वांगता में देखता है। हम कह सकते हैं कि कथ्य, छन्द और प्रास आदि के संगुफित प्रयोगों से आनुभूतिक प्रभावोत्पादन की अनूठी खोज हुई है। कहना चाहूँगा कि प्रयोग प्रक्रिया भाषा की वह रेसिपी है जिसमें रचनाकार अपने अनुभूत तत्व को घुलते हुए देखता है तथा संवेदना और उत्पीड़न आदि के द्वन्द्वात्मक मूल्य को निथरते हुए भी देखता है। डॉ विष्णु विराट की कहन प्रक्रिया से उक्त तथ्य स्पष्ट होता है-

जुर्म ये है कि जुर्म कुछ भी नहीं
फिर भी गर्दन तो कटारी पर है
ठोकरें उनको कहां छू पातीं
वे तो घोड़े की सवारी पर है।

एक बात और छन्द की सहजता पर। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कभी कहा होगा कि ‘गद्य और पद्य की भाषा पृथक-पृथक नहीं होनी चाहिए’।‘भाषा’ का अर्थ यहां पद्य का गद्य में रूपान्तरित होना नहीं, बल्कि भावार्थ की दृष्टि से पद्य की स्पष्ट रचना प्रक्रिया से है। दरअसल क्लिष्टात्मक शिल्प जितना सहज होता जाता है लयात्मकता उतनी ही गद्यात्मकता का आभास देती है। सत्यनारायण की गीत पुस्तक की भूमिका में कन्हैयालाल नंदन ने एक गीत को प्रोज आर्डर में लिखकर उक्त कथन की पुष्टि की, जबकि गीत अपने छन्द विधान में पूर्ण है। गीत है -‘‘सभाध्यक्ष हँस रहा, सभासद कोरस गाते हैं। जय-जयकारों का अनहद है, जलते जंगल में, कौन विलाप सुनेगा घर का, इस कोलाहल में..............आप चक्रवर्ती हैं राजन, वे चिल्लाते हैं।’’

यहां पर बनन-कहन भंगिमा नए प्रतिमानों का सहारा लेकर सहज किन्तु नए अन्वेषण के रूप में प्रकट हुई है। गीत-भाषा में संवाद तत्व और नामों के प्रयोग भी सार्थक हुए हैं, जो प्रायः प्रतीक के रूप में अपनाए जाते हैं। ऐसे शब्द, ऐतिहासिक/ वैज्ञानिक और राजनैतिक घटनाओं आदि को अपने में समेटे हुए मिथकीय रूप में भी आते हैं। हिन्दी कविता में प्रतीक (मिथक) रूप में कबीर शब्द का प्रयोग बहुतायत है। अवध बिहारी श्रीवास्तव का एक गीत है- मंडी चले कबीर। कबीर शब्द अनेक ध्वन्यार्थों में प्रयुक्त होता रहा है। यहां गीत में वह एक आम आदमी है जिसका शोषण हो रहा है। 

अर्थात् शोषक-शोषित संबंधों की अभिव्यक्ति में उक्त प्रकार का प्रयोग हुआ है- ‘‘कपड़ा बुनकर/ थैला लेकर/ मंडी चले कबीर/ जोड़ रहे हैं रस्ते भर वे/ लगे सूत का दाम/ ताना-बाना और बुनाई, बीच कहां विश्राम/ कम से कम इतनी लागत तो पाने हेतु अधीर/ कोई नहीं तिजोरी खोले, होती जाती शाम/ उन्हें पता है कब बेचेंगे औने-पौने दाम/ रोटी और नमक थैलों को, बाजारों को खीर।’’

उपर्युक्त कुल विवेचन का सारांश यही है कि हिन्दी आलोचना में गीत की स्वीकृति का संकट, संकट नहीं बल्कि गीत को हाशिए पर रखने का षडयंत्र मात्र है जो यहाँ शब्दसः स्पष्ट हुआ है जिन आलोचकों को छन्द-प्रास आदि से ‘एलर्जी’ है उन्हें अब अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। बात बिल्कुल साफ है कि छन्द-प्रास गीत की कलात्मकता के अनिवार्य अंग हैं तथा इनकी वजह से विषय वस्तु की गम्भीरता आहत न होकर अधिकाधिक संप्रेष्य हो जाती है। उन आलोचकों को भी अपने निष्कर्ष बदलने होंगे जिनके विचार थे कि जटिल अनुभूतियों वाले विषय गीत के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते। वास्तविकता ये है कि युगीन परिवर्तनों के कारण गीत में भी वैचारिक एवं आनुभूतिक स्तर पर परिवर्तन आते हैं जिनका वह नए-नए भाषा-प्रयोगों द्वारा अपने में समाहार करता है। आज संरचनात्मक भेद होते हुए भी गीत और कविता में कथ्यात्मक स्तर पर समानता देखी जा सकती है। सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि भारत एक गीत प्रधान देश है जहां गीत की स्वीकृति का मुद्दा ही बेबुनियाद है। हकीकत यह भी है कि साहित्य समाज में गीत के स्वीकार भाव को हमेशा आदर मिला है वहीं गद्य कविता की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। आज गीत की नवांतर रचना प्रक्रिया ने यह सिद्ध करके दिखला दिया है कि गीत एक युगानुरूप प्रगतिशील काव्य प्रवाह है।

'Acceptance of Hindi Lyrics in the Present Era' by Virendra Astik, Kanpur, Uttar Pratdesh, India.

अभिव्यक्ति विश्वम द्वारा आयोजित नवगीत परिसंवाद 2013

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लखनऊ: नवगीत को केन्द्र में रखकर दो दिवसीय कार्यक्रम २३ तथा २४ नवम्बर २०१३ को गोमती नगर के कालिन्दी विला में सम्पन्न हुआ।नवगीत की पाठशालाके नाम से वेब पर नवगीत का अनोखे ढँग से प्रचार-प्रसार करने में प्रतिबद्ध अभिव्यक्ति विश्वमद्वारा आयोजित इस कार्यक्रम की कई विशेषताएँ हैं जो इसे अन्य साहित्यिक कार्यक्रमों से अलग करता है।

माँ वागीश्वरी के समक्ष मंगलदीप जलाकर कलादीर्घा पत्रिकाके सम्पादक एवं चित्रकारअवधेश मिश्र जी ने पोस्टर प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। इस अवसर पर कार्यक्रम की संयोजक पूर्णिमा वर्मन जी ने विगत दो वर्ष से आयोजित किये जा रहे नवगीत परिसंवाद की संक्षिप्त रूपरेखा तथा नवगीत के लिये अभिव्यक्ति विश्वम की नवगीत विषयक भावी योजनाओं के विषय में जानकारी दी।
गुलाब सिंह जी को स्मृति चिन्ह भेंट करती पूर्णिमा बर्मन जी 

प्रथम सत्र का शुभारंभ  डा० भारतेन्दु मिश्र (दिल्ली) के वक्तव्य से हुआ उन्होंने कहा-'गीत वैयक्तिकता पर आधारित होता है, जबकि नवगीत समष्टिपरकता से  जुड़ा होता है हर गीत नवगीत नहीं होता जबकि हर नवगीत में गीत के छंदानुशासन का निर्वाह करना होता है।'

देश और विदेश के नव रचनाकारों को नवगीत समझने व लिखने के लिये नवगीत की पाठशालाएक सहज मंच है। पाठशाला से जुड़े रचनाकारों- कृष्णनंदन मौर्य, वीनस केशरी, शशि पुरवार, ब्रजेश नीरज, सन्ध्या सिंह एवंश्रीकान्त मिश्र ’कान्त’ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं जिसपर वरिष्ठ सहित्यकारों ने अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ देते हुए बताया कि किस नवगीत में कहाँ सुधार की आवश्यकता है।

पूर्णिमा बर्मन, विजेन्द्र विज, अमित कल्ला और रोहित रूसियाके द्वारा बनाये गये नवगीत पोस्टरों को दर्शकों के लिए विशेष रूप से लगाया गया था जिसे भरपूर सराहा गया।

दूसरे सत्र में वरिष्ठ नवगीतकारों द्वारा नवगीत प्रस्तुत किये गयेहर गीत नवगीत नहीं होता जबकि हर नवगीत में गीत के छंदानुशासन का निर्वाह करना होता है मधुकर अस्ठाना (लखनऊ),डा० विनोद निगम (होशंगाबाद), डा० धनंजय सिंह (दिल्ली), दिनेश प्रभात (भोपाल), शशिकान्त गीते (खण्डवा) ने अपने-अपने प्रतिनिधि नवगीतों का पाठ किया। प्रत्येक कवि को रचना पाठ हेतु पच्चीस मिनट का समय दिया गया। सभी नवगीतकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये नवगीतों पर प्रश्न पूछे गये जिसमें सर्वश्री नचिकेता, मधुकर अष्ठाना, धनंजय सिंह, निर्मल शुक्ल, वीरेन्द्र आस्तिक, भारतेन्दु मिश्र एवं डा० जगदीश व्योमने नवगीत के कथ्य, शिल्प व लय से सम्बंधित अनेक प्रश्नों व उत्तरों के द्वारा नवोदित गीतकारों का मार्गदर्शन किया। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ गीतकवि गुलाब सिंहने कहा-"यह कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए कि यहाँ नये-पुराने कवियों, आलोचकों, सम्पादकों, संगीतज्ञों, चित्रकारों, विचारकों ने खुले मन से गीत पर बात की और गीतों को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। पूर्णिमा जी और उनकी टीम को हार्दिक बधाई।"
डॉ भारतेंदु मिश्र की पुस्तक का लोकार्पण करते वरिष्ठ साहित्यकार 

तदुपरांत हौंसलों के पंख (कल्पना रमानी), छंद प्रसंग? (डॉ भारतेन्दु मिश्र) गीत संग्रह? (गीता पंडित), नवगीत 2013 (संपादक द्वय:  डा. जगदीश व्योम एवं पूर्णिमा बर्मन) बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता (सम्पादक: अवनीश सिंह चौहान) पुस्तकों का लोकार्पण किया गया।

तीसरे सत्र मेंनई पीढ़ी के रचनाकारों का कविता पाठ रखा गया। इसमें ओमप्रकाश तिवारी (मुम्बई), जयकृष्ण राय तुषार (इलाहाबाद), अवनीश सिंह चौहान (इटावा), रोहित रूसिया (छत्तीसगढ़), रविशंकर मिश्र (प्रतापगढ़) ने अपने नवगीत प्रस्तुत किये।

नवगीत के अकादमिक सत्र में 'नवगीतों में भारतीय संस्कृति' (गुलाब सिंह), 'समकालीन नवगीतों में संवेदना का विकास' (नचिकेता), 'गीत की शाश्वतता और युवा रचनाकार' (निर्मल शुक्ल), 'गीत स्वीकृति- रचना प्रक्रिया के नये तेवर' (वीरेन्द्र आस्तिक), 'नवगीतों में नारी विमर्श' (डॉ. ओमप्रकाश सिंहएवं 'वेब पर नवगीत की उपस्थिति' (डॉ. जगदीश व्योम) विषयों पर शोधलेख प्रस्तुत किये गये जिन पर चर्चा-परिचर्चा में सभी ने अपने अपने स्तर के अनुरूप सहभागिता की। 

अपने वक्तव्य में नचिकेता जी ने कहा- 'आधुनिकतावादी-अस्तित्ववादी जीवन दृष्टि के प्रभाव एवं प्रवाह में लिखे गए गीत नवगीत हैं। गीत की व्यक्तिनिष्ठता नवगीत में यथार्थ दृष्टि में बदल गयी है, जिससे गीत की संवेदना का पाट अत्यधिक चौड़ा हो गया है।'निर्मल शुक्ल जी ने कहा- 'गीत-काव्य अपने उद्भव से अधुनातन तक की यात्रा करते हुए आज जिस परिष्कृत रूप में हम तक पहुंचा है वही आज संवेदनशील आधुनिक गीत के स्वरुप का नया संस्करण है।वीरेंद्र आस्तिक जी ने बताया कि'दरअसल गीत समय का दस्तावेज बनने की जद्दोजहद में प्रयोगधर्मी हो गया है। वास्तव में गीत का प्रयोगधर्मी होना ही नवीन होना है।'डॉ ओमप्रकाश सिंह जी कहते हैं- 'सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक बदलाव के साथ नवगीत भी बदलता है। इस बदलाव के रंग नवगीत में- (नारी विमर्श) में भी देखे जा सकते हैं।'डॉ जगदीश व्योम जीका मानना है- 'नवगीतों को विश्व स्तर पर पहुंचाने में इंटरनेट का बड़ा योगदान है। वर्त्तमान में वेब की उपलब्धता नवगीत के लिए बड़ी उपलब्धि है'

बल्ली सिंह चीमा जी को स्मृति चिन्ह भेंट करती पूर्णिमा बर्मन जी 
पांचवें सत्र मेंमहिला नवगीतकारों ने काव्यपाठ किया जिसमें यशोधरा राठौर (पटना), गीता पंडित (दिल्ली), सीमा अग्रवाल, शशि पुरवार (महाराष्ट्र), संध्या सिंह (लखनऊ) ने अपने नवगीत प्रस्तुत किये। अतिथि कवियों में चन्द्रभाल सुकुमार, बल्ली सिंह चीमा, सुरेश उजालाएवं डॉ सुभाष रायकी उपस्थिति सराहनीय रही। इन कवियों ने काव्यपाठ भी किया।

छठे सत्र में स्थानीय एवं अन्य रचनाकारों का कवितापाठ हुआ। नचिकेता, निर्मल शुक्ल, पूर्णिमा बर्मन, वीरेन्द्र आस्तिक, डा. ओमप्रकाश सिंह, सौरभ पाण्डेय, शैलेन्द्र शर्मा, अनिल वर्मा, रामशंकर वर्मा, मनोज शुक्ल, श्याम श्रीवास्तव, शरत सक्सेना आदि ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया। इस सत्र की एक उपलब्धि यह भी रही कि उपस्थित रचनाकारों को यज्ञदेव पण्डित जी से रेडियो की दुनियां के संस्मरण सुनने का अवसर मिला। इस सत्र की अध्यक्षता धनञ्जय सिंह ने की।

विजेन्द्र विजएवं श्रीकान्त मिश्रनें मल्टीमीडिया विशेषज्ञ की भूमिका का निर्वहन किया। इन दोनों के द्वारा नवगीतों पर निर्मित लघु फिल्मों को दिखाया गया जिसे भरपूर सराहना मिली। इस अवसर पररामशंकर वर्मा द्वारा निर्देशित नवगीतों पर नाट्यमंचन प्रस्तुत किया गया। नवगीतों की संगीतमय प्रस्तुति सम्राट एवं राजकुमार और उनके साथियों ने की, जबकि संयोजनरश्मि एवं आशीषका रहा कार्यक्रम का संचालन रोहित रूसियाने किया। आभार अभिव्यक्ति पूर्णिमा वर्मन जीने की।

Programmw on Hindi Lyrics organized by Abhivyakti Vishwam

’बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ पुस्तक का भव्य लोकार्पण

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 ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ पुस्तक का लोकार्पण करते
कुलपति प्रो 
पृथ्वीश नाग (मध्य में), डॉ. अनुराधा बनर्जी धर्मेन्द्र सिंह।
साथ में डॉ बुद्धिनाथ मिश्र एवं डॉ अवनीश सिंह चौहान 

वाराणसी: महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के पत्रकारिता संस्थान सभागार में प्रसिद्ध नवगीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्रपर केन्द्रित पुस्तक ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’का लोकार्पण कुलपति डॉ. पृथ्वीश नागएवंडॉ. अनुराधा बनर्जीने किया। 

कार्यक्रम का शुभारम्भ मां वागेश्वरी के समक्ष डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने 'अपनी चिट्ठी बूढ़ी मां मुझसे लिखवाती है / जो भी मैं लिखता हूं / वह कविता बन जाती है’ गीत पढ़कर की। तत्पश्चात इस पुस्तक के सम्पादक डॉ. अवनीश सिंह चौहानने बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मितापुस्तक का विस्तार से परिचय देते हुए कहा किडॉ मिश्र की भारतीय जीवन के विविध सरोकारों के प्रति सजगता एवं संवेदनशीलता जहां 'वसुधैव कुटुम्बकम'की भावना को उद्घाटित करती है वहीं सहृदयों को इस आयाम पर चिन्तन करने की प्रेरणा भी प्रदान करती है।मिश्रजी न केवल हिन्दी के बल्कि मैथलीय साहित्य के अद्वितीय हस्ताक्षर हैं। उनकी भाषा में शक्ति है सम्प्रेषणीयता है और है शब्द सामंजस्य।

लोकार्पित पुस्तक के कुशल सम्पादन हेतु डॉ. अवनीश चौहान को बधाई देते हुएकुलपति प्रो. नागने कहा कि डॉ. बुद्धिनाथ की कविताओं की हिन्दी सरल है जिसे आमजन भी उनकी कविता का मर्म समझ लेता है। इनकी कविता में पर्यावरण का असर दिखता है जिसको ध्यान में रखकर कविता लिखने वाले कवियों की संख्या बहुत कम है।









बीएचयू के प्रो वशिष्ठ अनूपने कहा किडॉ. बुद्धिनाथ मिश्र पर केन्द्रित पुस्तक न केवल डॉ. मिश्र के जीवनानुभवों से परिचय कराती है बल्कि नवगीत की वर्तमान धारा से भी जोड़ने का सार्थक प्रयास करती है। डॉ. नीरजा माधव ने कहा कि डॉ. बुद्धिनाथ की कविताओं में भावना व संवेदना दोनों का सामंजस्य दिखाई पड़ता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि एक युवा सम्पादक डॉ. चौहान ने जाने-माने गीतकवि डॉ मिश्र की भावना एवं संवेदना की पड़ताल इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत की है।उत्तराखंड के वाचस्पतिने कहा किडॉ. बुद्धिनाथ ने बिना कोई समौझता किये ही अपनी रचनाओं में सुन्दर शब्दों का चयन किया है। उनको बेहतर ढंग से जानने-समझने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी होगी। हरीश जीने कहा कि कवि का राज्य नहीं समाज के प्रति उत्तरदायित्व होता है। हरिप्रसाद द्विवेदी ने कहा कि डॉ. बुद्धिनाथ कविता लिखते नहीं लिख जाती हैं जैसा उनका स्वभाव है उसका असर कविताओं पर दिखता है।हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि भारत में काव्य की लम्बी परम्परा रही है वर्तमान समय नवगीत की पारी खत्म होती दिख रही है ऐसे में काशी को केन्द्र बनाकर नवगीत की नयी पारी की शुरूआत करनी चाहिए। इस सन्दर्भ में लोकार्पित पुस्तक एक पहल के रूप में देखी जा सकती है। 

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वसंत कन्या महाविद्यालय कमच्छा के अंग्रेजी विभाग की अध्यक्ष डॉ. अनुराधा बनर्जीने कहा कि अनुशासन के मूल में भाषा व चिंतन होता है । बिम्ब किस अनुशासन से बना है यह कविता पढ़ने के बाद पता चलता है। बुद्धिनाथ मिश्र की कविताई और उनकी वैचारिकी को उनके व्यक्तित्व के साथ समग्र रूप से जानने के लिए यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है। इस सराहनीय कार्य के लिए संपादक और कवि दोनों बधाई के पात्र हैं।

इस अवसर पर डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने प्रमुख गीतों का पाठ भी किया। डॉ मिश्र ने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए पुस्तक के सम्पादक डॉ अवनीश सिंह चौहान एवं प्रकाशक राहुल जी (प्रकाश बुक डिपो, बरेली, उ प्र) को धन्यवाद दिया। कार्यक्रम में प्रो. मंजुला चतुर्वेदी, विकास पाठक, डॉ दयानिधि, हरी भैया, डॉ. सुरेन्द्र सिंह,विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं एवं प्राध्यापकगण, शहर के सम्भ्रान्त नागरिक और प्रतिष्ठित साहित्यकार आदि मौजूद रहे। संचालन वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजसेवी धर्मेन्द्र सिंहव धन्यवाद ज्ञापन प्रो श्रद्धानंदने किया।

Buddhinath Mishra Ki Rachanadharmita edited by Dr Abnish Singh Chauhan

सुधीर कुमार सोनी की कविताएँ

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सुधीर कुमार सोनी 

सुधीर कुमार सोनीछत्तीशगढ़ के उन युवा कवियों में शामिल हैं जिन्हें पाठकों ने खूब सराहा है। सोनी जी का जन्म 26 मई 1960 को रायपुर, छत्तीसगढ़में हुआ। अब तक आपकी कविताएँ अनेक समाचार पत्रों में प्रकाशित हो चुकी हैं। 'सृष्टि एक कल्पना'नाम से आपका एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन। कादम्बिनी साहित्य महोत्सव में आपकी कविता पुरस्कृत। ब्लॉग: srishtiekkalpna.blogspot.in.ई मेल: sudhirkumarsoni1960@gmail.com. मोबा: 09826174067

1. सृष्टि एक कल्पना
गूगल सर्च इंजन से साभार 

हम सभी अचम्भित हैं 
कि इस नीले आसमान के ऊपर क्या होगा
किस पर टिकी है यह धरती
हलचल है कब से इन समुन्दरों में
सब कुछ बंद किताब-सा है
वह बंद किवाड़ है
जो फिर न खुल सकेगा

सोचता हूँ
कब पहली बार लाल सुबह
पँख फड़फड़ाती धरती पर उतरी होगी

कैसा लगा होगा धरती को
जब पहली बार
उसने धूप को ओढ़ा होगा

कब पहली बार
हवा के किताब के पहले पन्ने खुले होंगें
और धरती के पोर-पोर में
गुनगुनायी होगी हवा

कब पहली बार
आकाश से मोतियों की तरह
नन्हीं -नन्ही बूंदे गिरी होंगी

कैसा लगा होगा
किसी नन्हें पौधे को
मिट्टी के भीतर से उगना पहली बार

आँख भर आई होगी धूप की
जब पहली बार अगले दिन के लिए
शाम की लालिमा के साथ वह लौटी होगी

कब पहली बार
मानव की रचना कर
पृथ्वी पर उतारा गया होगा

कब पहली बार
किसी कन्या ने गर्भ धारण किया होगा
और कहलाई होगी माँ

कब पहली बार
आदमी का मौत से हुआ होगा
साक्षात्कार
जो उसकी सोच में भी नहीं था

कब पहली बार
अस्तित्व में आई होगी लकीरें
और आदमी के माथे की परेशानियां बनी होगी

कब पहली बार
लकीरें उठ खड़ी हुई होंगी
और आदमी ने धरती को बाँटा होगा
जिसका बाँटा जाना बंद होने के अब सारे बंद हैं


2. दिन रात के 

दिन रात के
अँधेरे-उजाले
और जीवन के अँधेरे उजाले में
कोई समानता नहीं है
तय नहीं
कि अँधेरे के बाद उजाला आएगा
जीवन में रात का अँधेरा होना ही
अँधेरे का होंना नहीं होता
जीवन के उजाले
और
रात के अँधेरे साथ-साथ हो सकते हैं
साथ-साथ हो सकते हैं
जीवन के अँधेरे और दिन के उजाले
काश
जीवन में उजाला ही होता
क्योंकि रात का अँधेरा तय ही है

3. भाषा

मजबूरी
भाषा बदल देती है
अभिमान
बहुत सी परिभाषा बदल देते हैं

4. पेड़ 

मैंने
कागज पर लकीरें खीचीं
डाल बनायीं
पत्ते बनाये
अब कागज पर
चित्र लिखित-सा पेड़ खड़ा है
पेड़ ने कहा
यह मैं हूँ
मुझ पर काले अक्षरों की दुनिया रचकर
किसे बदलना चाहते हो

मैंने
रंगों से कपड़ों में
कुछ लकीरें खींचीं
डाल बनायीं
पत्ते बनाये
अब
कपड़े पर छपा पेड़ है
पेड़ ने कहा
यह मैं हूँ
मुझे नंगाकर
किसे ढंकना चाहते हो

यह जो तुम हो
पेड़ ने कहा
यह भी मैं हूँ
साँसों पर रोक लगाकर
किसे जीवित रखना चाहते हो

Sudhir Kumar Soni

कहते कुछ, करते कुछ हैं आज के रचनाकार - अवनीश सिंह चौहान

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अवनीश सिंह चौहान

गूगल सर्च इंजन से साभार 
ये दिन मीडिया देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अन्याय, अनीति आदि पर अपनी चिंता व्यक्त करता रहता है। उसकी यह चिंता राजनीति से लेकर अध्यात्म तक के क्षेत्रों में देखी-सुनी जा सकती है। (हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कई बार यह सब अपनी पब्लिसिटी / टीआरपी को बढ़ाने के लिए भी किया जाता है)। उसकी चिंता इस बात को लेकर अधिक रहती है कि आज चरित्र का पतन बड़ी तेजी से हो रहा है? शायद इसीलिए इसकी जांच-पड़ताल करने के लिए तमाम विद्वान, लेखक, विचारक सामने आ रहे हैं अपने भाषणों के साथ, अपने लेखों के साथ, अपनी चर्चाओं के साथ। जनता देख-सुन रही है, पढ़ रही है, प्रतिक्रिया भी कर रही है- ‘यह सब ठीक नहीं हो रहा है... यह सब कब तक चलेगा? या अब तो भगवान ही मालिक है!’ तत्पश्चात् इनमें से अधिकांश लोग अपने-अपने काम-धंधे में लग जाते हैं और अगली घटना के घटने तक उन्हें इन समस्याओं/ विकृतियों के निराकरण हेतु कुछ कर गुजरने की फुरसत ही नहीं मिलती! यदि घटना की पुनरावृत्ति हुई तो कोई मीडियाकर्मी, लेखक या बुद्धिजीवी पिछली घटना को नई घटना से जोड़ते हुए पुरानी ‘टीस’ का स्मरणभर करा देता है और बात आयी-गयी हो जाती है। 

चूंकि इस प्रक्रिया से एक साहित्यकार/ कलमकार भी सीधे तौर पर जुड़ा होता है, इसलिए वह भी अपनी लेखनी का भरपूर प्रयोग करने से नहीं चूकता। तब प्रसव पीड़ा के बाद सैकड़ों-हजारों रचनाएं जन्म लेने लगती हैं। कई बार तो एक ही थीम पर। पढ़ने बैठो तो लगेगा कि सब एक ही सुर में गा रहे हैं, ढोल बजा रहे, शब्दों की बाजीगरी दिखा रहे हैं। नतीजा? वही ढाक के तीन पात वाला। जनता मौन, जनसेवक मौन। न अर्जुन, न द्रोण। ऐसे में जनता में बदलाव आये तो कैसे? चेतना आए तो कैसे? नैतिक पतन पर फुल स्टॉप लगे तो कैसे? कहीं आइडियोलॉजी वीक तो नहीं हो गई है? जहां तक आइडियोलॉजी की बात है तो इस वैज्ञानिक युग में यह और भी अधिक तार्किक एवं पुष्ट हुई है। आजकल तो ‘आइडिया’ सर्वत्र उपलब्ध है- ‘गेट आइडिया, एट एनी टाइम, एट एनी प्लेस।’ तब दूसरा पहलू है आइडियोलॉजिस्ट यानि कि आइडिया देने वाला, जिसके बारे में जांच-पड़ताल करने की परम आवश्यकता है। 

आज के तमाम विचारक/ कलमकार बहुत चालाक हो गए हैं। वे अच्छी बात कह तो देते हैं पर उस पर अमल करते दिखाई नहीं पड़ते। पहले के तमाम विचारक/ कलमकार जो कुछ भी कहते-लिखते थे, उसका अनुसरण भी करते थे। यानि कि यदि वे किसी मूल्य या विश्वास को बनाए रखने की वकालत करते थे तो उसका अपने जीवन में भी अक्षरश: पालन करते थे। वे खुद से अधिक दूसरों को सुखी और प्रसन्न देखना चाहते थे। वे जीवमात्र से प्रेम करते थे और सभी का यथोचित सम्मान करते थे। उनकी वाणी मधुर और उनके व्यवहार में स्नेह झलकता था। सामने और पीछे एक-सा व्यवहार। दुर्व्यवसनों और सांसारिक चकाचौंध से कोसों दूर रहकर वे विश्व कल्याण के लिए सतत शब्द साधना में निमग्न रहते थे।

लेकिन आज के तमाम रचनाकारशेर की खोल में सियार ज्यादा हैं। वे कहते कुछ हैं, करते कुछ है और दिखते कुछ और। वे केवल और केवल अपने आप को सुखी, संपन्न एवं सम्मानित देखना चाहते हैं। वाणी में दिखावटी प्रेम, ह्रदय में कपट। सामने प्यार-दुलार और मौका मिलते ही वार। दुर्व्यसनों और सांसारिक चकाचौंध को जीवन का आधार बनाकर चलने वाले ये लोग ग्लैमर में विश्वास रखते हैं। वे शब्द-साधना तो करते हैं लेकिन स्वार्थ साधने के लिए, और अपनी इस कीमियागीरी पर मन ही मन बहुत खुश भी हो लेते हैं। खुश क्यों न हो, वे जो हर जगह छाये रहते हैं। भले ही उनका छा जाना ‘हैंगिंग क्लाउड्स’ जैसा क्यों न हो। मसलन, कोई कार्यक्रम हो रहा हो तो वे मंच पर किसी न किसी बहाने चढ़ जाते हैं, विशेषकर तब जब फोटोग्राफर्स या रिपोर्टर्स कार्यक्रम का कवरेज लेने आये हों। या कुछ नहीं तो सभागार में जोर-जोर से ‘वाह-वाह’ या ‘क्लैपिंग’ कर छाने का प्रयास करते हैं। और कहीं माइक हाथ लग गया तो एक-दूसरे की ‘मटकी सैट'करने (इमेज बनाने) का उपक्रम कर छा जाते हैं और भूल जाते हैं कि इनका कलाउड्स जैसा होने से इनमें आसमान जैसी विशालता, एकरूपता, समरसता नहीं आ सकती। लेकिन एक फायदा तो जरूर मिल जाता है इन्हें- इनकी फोटो और नामों की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में छप जाया करती है। इतना क्या कम है? 

देखा यह भी गया है कि इनमें से कई साहित्यकारजब कभी मंचासीन होते हैं और जब उनका बोलने का नम्बर आता है तब वे जिस हेतु आमंत्रित होते हैं उस संदर्भ में कुछ भी नहीं कहते (न आलोचना में, न ही प्रशंसा में), बल्कि इधर-उधर की बातें करते रहते हैं, शायद यह मानते हुए कि ‘साइलेंस इज गोल्ड।’कई बार तो पुस्तकों के लोकार्पण या सम्मान समारोह में इनकी कृपणता सिर चढ़कर बोलती है, इसीलिए नहीं कि जिस पुस्तक का लोकार्पण हो रहा है या जिस किसी का सम्मान हो रहा है, वह टिप्पणी करने के लिए उपयुक्त नहीं है, बल्कि इसलिए कि टिप्पणी करने से उनका व्यक्तिव एवं कृतित्व उभरकर कहीं सामने न आ जाए और वे स्वयं कहीं उनके सामने बोने न हो जाएं। अत: वे बड़ी लकीर न खींचकर विद्यमान लकीर को ही छोटा करने में अपनी ऊर्जा खपा देते हैं। वे मानकर चलते हैं कि बोलने और लिखने से ‘हाथ कट जाते हैं।’ 
गूगल सर्च इंजन से साभार 

कई बार भूमिका, समीक्षा या टिप्पणी लिखने के लिए जब उपरोक्त कलमकारों के पास कृतियाँ पहुंचती है तब यदि वे उम्दा हुईं या रचनाकार विजातीय हुये तो वर्षों कृतियां उनकी अलमारियों में सड़ती रहती हैं, पर वे उन पर एक पंक्ति भी लिखकर नहीं देते। वे यह नियम दूसरों पर तो लागू करते हैं अपने ऊपर नहीं। यानि कि दूसरों से अपनी पुस्तक पर साग्रह लिखवा भी लेते हैं और अपने बारे में बुलवा भी लेंगे। यदि अन्य लोग उनके बारे में लगातार अच्छा लिखते-बोलते रहते हैं तो उनसे बहुत खुश रहेंगे (हालांकि ताउम्र उनके लिये वे शायद ही कुछ अच्छा कर पाएं)। अन्यथा वे अपने चमचों के साथ चौकड़ी जमाकर निंदाशास्त्र रच डालते हैं। 

इसका मतलब यह नहीं कि आज अच्छे एवं सच्चे साहित्यकार होते ही नहीं है। होते तो हैं पर उनकी संख्या बहुत कम है। बहुतायत ऐसे कलमकारों की है जिनके आचरण भ्रष्ट हैं। मजे की बात यह कि वे भ्रष्टाचार न करने, रिश्वत न लेने-देने आदि की जोरदार वकालत अपनी रचनाओं में तो करते हैं, परन्तु अपनी निजी जिंदगी में जमकर भ्रष्टाचार करते हैं, रिश्वत लेते हैं।कई तो बलात्कार जैसे 'समसामयिक टॉपिक्स’ पर आग उगलते देखे जा सकते हैं। किन्तु यदि कोई उनकी व्यक्तिगत जिंदगी में झांक सके तो पता चलेगा कि वे भी चरित्रहीन हैं- उन तमाम सांसदों, नेताओं, संतो-महन्तों, व्यवसायियों, अधिकारियों, टापोरियों की तरह ही जो ब्लू फिल्में देखते हैं और औरत को सिर्फ ‘टूल’ समझते हैं। 

शायद तभी देखने में आता है कि ऐसे विचारक/ साहित्यकार खडूस होने पर भी महिला रचनाकारों/ पाठकों के प्रति अच्छा बर्ताव करते हैं, जैसे- समय-समय पर उनके हाल-चाल पूछते रहना, उनके खाने-पीने, आने-जाने, रुकने-ठहरने की अत्यधिक फिक्र करना, उनकी प्रशंसा में पुल बांधना आदि। किन्तु मौका मिलते ही वे उनकी पीठ पर हाथ फेरने से भी नहीं चूकते। अगर उक्त महिला सब कुछ सह गयी, कुछ न बोली, तो बल्ले-बल्ले; नहीं तो कह देते हैं ‘बेटा' (बेटी नहीं), हम तो तुम्हें आशीर्वाद दे रहे थे। लो कर लो बात।

कुछ साहित्यकार ऐसे भी हैं जो अपने आपको 'हाईलाइट'करने की जुगत में लगे रहते हैं। जाहिर है वे नेटवर्किंग पर ज्यादा फोकस करते हैं। ये संपादकों-प्रकाशकों को पोटने-फुसलाने का ‘बंगाली जादू’ जानते हैं। जैसे, वार्षिक-आजीवन सदस्यता के नाम पर उन्हें चन्दा भेज दिया, उनकी झूठी तारीफ कर दी, उनको एसएमएस कर दिया, फोन पर बधाई दे दी, चिट्ठियां लिख दीं और गिफ्ट आदि भेज दिया। इससे भी काम न बना तो अपनी पॉवर (यदि है तो) का प्रयोग कर किसी से ‘एड’ या ‘फण्ड’ दिलवा दिया। यह भी फामूर्ला न चला तो संपादक को अपने शहर-कस्बे बुलाकर सम्मानित कर दिया। बचके कहां जाओगे बच्चू। तब सम्मानित संपादक उसको अपनी पत्र-पत्रिका में स्पेस देना प्रारम्भ कर ही देगा। यदि न भी किया तो कम से कम अपने सम्मान की न्यूज उसमें छापेगा ही या कहीं और छपवायेगा ही। तब उस न्यूज में ऐसे साहित्यकारों/ कलमकारों का नाम-पता भी छपना स्वाभाविक है। कुल मिलाकर, हो गए न ‘हाईलाइट’। इतना ही नहीं, यहां उनकी एक और हरकत देखी जा सकती है। उनके द्वारा लिखे गए उक्त समाचार में सम्मानित संपादक के बाद, वरिष्ठताक्रम में छोटे होने के बावजूद भी, वे अपना नाम पहले लिखेंगे फिर उनके चमचों-मुरीदों-नातेदारों का नाम होगा, ततपश्चात कहीं अन्य स्थानीय साहित्यकारों का नाम लिखा दिखाई देगा, वह भी तब जब सब कुछ ठीक बना रहे, अन्यथा वह भी नहीं। 

इन दिनों रचनाओं की चोरी का भी मुद्दा गरमाया रहता है। कभी-कभी तो यह यक्ष प्रश्न बनकर सामने आता है। इसके पीछे और आगे यही कलमकार हैं। ऐसे रचनाकार दूसरों की अच्छी रचनाओं की पंक्तियों को अपना बना लेना का विशेष हुनर रखते हैं।  यानि कि 'सब गोलमाल है'। उपन्यास से कहानी, कहानी से कविता, कविता से गीत, गीत से दोहा, दोहा से हाइकु, हाइकु से आलेख, आलेख से प्रश्न, प्रश्नों से साक्षात्कार, साक्षात्कार से भूमिका, भूमिका से शोधपत्र या कोई और तरीका अपनाकर लेखक बनने की तरतीबें भिड़ायी जा रही हैं।कुल मिलाकर, इन दिनों 'रिमिक्स'पर भी जबरदस्त काम चल रहा है।

इन कलमकारों का यदि कुछ छप-छपा गया तो सम्मान / पुरुस्कार हथियाने के लिए इनके अत्याधुनिक हथकण्डे देखते बनते हैं। फिर चलता है एक अनवरत क्रम- चयन समिति से संपर्क बनाना, बड़े-बड़ों से दवाब डलवाना, जातिवाद या क्षेत्रवाद की दुहाई देना, तेल-मालिश करना और जाने क्या-क्या करने को तैयार रहते हैं ये लोग! बस किसी तरह उन्हें सम्मानित/ पुरस्कृत कर दिया जाए। लेकिन यहाँ भी हरकत करना बंद नहीं करते। इन्हें जब तक दूसरों से कुछ न कुछ मिलते रहने की आशा रहती है तब तक उनसे सम्बन्ध बनाये रखते हैं, तदुपरांत पहचानने से भी इंकार करते दिख जायेंगे। अर्थात आप उनके किसी काम के नहीं है तो आपसे 'क्या लेना-देना', और काम निकल जाने पर भी आपसे 'क्या लेना देना।' 

यहां पर एक वाकियायाद आ रहा है। एक साहित्यकार एक संपादक से उन्हें पत्रिका में विशेष स्थान पर प्रकाशित करने का आग्रह बार-बार करते रहे। जब संपादक ने उनकी रचनाएं प्रकाशित कर दीं और पत्रिका उनके पते पर रजिस्टर्ड डाक से भेज दी, तो महीनों उन्होंने उन संपादक को न तो फोन किया न ही पत्र लिखकर सूचना दी। कुछ दिनों बाद जब सम्पादक ने उन्हें कई बार फोन लगाया तो उन्होंने फोन भी नहीं उठाया। जब संपादक ने किसी दूसरे नंबर से उन्हें फोन लगाया तो उन्होंने फोन उठा लिया। बात हुई। संपादक ने पूछा क्या पत्रिका मिल गई? जवाब मिला, ‘पिछले दिनों बड़ी व्यस्तता रही, सो पत्रिका खोलकर देख नहीं पाया। हां श्रीमतीजी ने बताया तो था कि पत्रिका आई है।’इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उक्त साहित्यकार कितना सच बोल रहा है? 

बातें बहुत सी हैं। जनता सब जानती है। इसीलिए शायद हमारे समाज का साहित्य से भरोसा उठता जा रहा है। इस सबके बावजूद, मीडिया और सभ्य एवं सजग समाज चुप बैठा हैं। वे ऐसे तथाकथित लोगों (लेखकों, विचारकों, उदघोषकों, उपदेशकों, जनसेवकों, सम्पादकों आदि) का पर्दाफाश क्यों नहीं करते, यह एक बड़ा प्रश्न है? हो सकता है कि कई लोग मेरी इन बातों-विचारों से सहमत न हों, तो क्या मेरा यह कहना गलत है?

Writers of Today....Dr Abnish Singh Chauhan

सरहद को स्वरांजलि कार्यक्रम आयोजित

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इटानगर:गत 22-24 नवम्बर 2013 को अरुणाचल की राजधानी इटानगर के इंदिरा गांधी पार्क में संस्कार भारती के तत्वावधान में त्रिदिवसीय 'सरहद को स्वरांजलि‘ कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें 1962 के युद्ध में शहीद जवानों को इन गीतों के माध्यम से श्रद्धांजलि दी गई।

22 नवम्बर को उद्घाटन अवसर पर अरुणाचल के शहरी विकास मंत्री श्री राजेश ताचो जी, इटानगर निगम परिषद के उपाध्यक्ष श्री किपा बाबू, औद्योगिक विकास विभाग में सचिव श्री सुरेन्द्र गंगोत्रा जी सहित कई विशिष्ट अतिथियों की उपस्थिति में आठों राज्यों से जिला एवं राज्य स्तर पर हुई ’ए मेरे वतन के लोगों..‘ गीत प्रतियोगिता से चुनकर आये 23 प्रतिभागियों के मध्य पूर्वोत्तर स्तरीय गीत स्पर्धा हुई, जिसमें असम की श्रुति बुजरबरुआ प्रथम और मीनाक्षी देवी द्वितीय तथा मणिपुर के मार्टिन को तृत्तीय स्थान प्राप्त हुआ। बालिवुड से दिलीप शुक्ला सहित, हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक पंडित नागराज हवलदार, शहनाई वादक उस्ताद सोहेल अहमद खाँ साहब तथा पंडित निलय दत्त इस प्रतियोगिता में निर्णायक थे। अपने उद्बोधन में श्री राजेश ताचो जी ने श्रोताओं को वह वक्त याद दिलाया जब यह गीत हर भारतीय के दिल की धड़कन और देशभक्ति का स्त्रोत बन गया था।

दूसरे दिन, 23 नवम्बर को, इस महोत्सव के 24 घंटे व्यापी सुर-ताल-लय से सजे सांस्कृतिक कार्यक्रम का शुभारंभ पूर्वोत्तर की सभी जनजातीयों (अरूणाचल से आपातानी, आदी, गालो, निशि, असम से बोड़ो, राभा, असमिया, कछारी, मणिपुर से मैतेयी, मेघालय से सेन खासी (बूवाइयिंग), नागालैंड से नागा, मिजोरम से मिजो, सिक्किम से नेपाली और त्रिपुरा से रियांग समुदाय) की विभिन्न पूजा पद्धतियों द्वारा किये गये ’देव आवाहन्‘ से हुआ, जिसमें देशभर से आये प्रसिद्ध कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से शहीदों के परिवारों को दिये जाने वाले सुश्री लता मंगेशकर द्वारा हस्ताक्षरित स्मृति चिन्हों और रक्षासूत्रों सहित 1857 के शहीदों के जन्मस्थान और कर्मस्थान बिठूर में हुये ’नमन 1857‘ की अभिसिंचित माटी और अरूणाचल के सीमांत गावों की मिट्टी को अभिशिक्त किया। इनमे, ध्रुपद गायक डागर बंधु उस्ताद नफीसुद्दीन खाँ और उस्ताद अनीसुद्दीन खाँ, अंतर्राश्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार श्री वासुदेव कामथ, हिंदुस्थानी षास्त्रीय संगीत गायक पंडित नागराज हवलदार, बांसुरी वादक पंडित चेतन जोशी, तबला वादक पंडित श्री निलय दत्त, नृत्य प्रशिक्षक तथा गायक श्री देलोंग पादुंग, श्रीमती रंजूमोनी सैकिया, थांग-टा गुरू- गुरूमयूम गौरकिशोर शर्मा, सहित पूर्वात्तर के आठों राज्यों से आये हजारों कलाकार मंच की शोभा थे।

अरुणाचल के संस्कृति मंत्री श्री सेतोंग सेना ने इन कलाकारों का स्वागत किया और कहा कि 1962 का भारत-चीन युद्ध सिर्फ अरुणाचल के लिये ही नहीं पूरे भारत के लिये एक महत्तपूर्ण मोड़ था, अपने शहीदों से प्रेरणा लेते हुये अपनी मातृभूति के प्रति हम अपने कर्तव्य का निर्वाह करें। 24 घंटे व्यापी यह कार्यक्रम 23 नवम्बर को 5.41 प्रातः सूर्योदय से प्रारंभ होकर, 24 नवम्बर को 5.42 प्रातः सूर्योदय पर अरूणाचल के इष्टदेव डोनी-पोलो की पूजा से सम्पन्न हुआ।

24 नवम्बर 2013, इस त्रिदिवसीय महोत्सव का समापन दिवस था। प्रातः 10:00 बजे, इटानगर के इंदिरा गांधी पार्क में लोग उन वीरों की माताओं का दर्शन करने उपस्थित थे, जो मातृ-भू रक्षार्थ शहीद हो गये थे। 1962 में 72 घण्टों तक चीन की सेना को रोके रखने वाले, जसवंत गढ़ के बाबा के रूप में पूजे जाने वाले, 20 साल की उम्र में शहीद हुये, महावीर चक्र जसवंत सिंह रावत की 92 वर्षीया माता श्रीमती लीला देवी इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं, जो परिवार के उत्तराखण्ड से पधारीं। इनके साथ कीर्ति चक्र शहीद एन. के. तापे याजो और शहीद पातेय तासुक की माता तथा शहीद तागोम तासुक के भाई ने कार्यक्रम में उपस्थित हजारों दर्शकों के साथ शहीदों को श्रद्धांजलि दी। महाभारत में पितामह और बच्चों के चहेते शक्तिमान श्री मुकेश खन्ना (मुम्बई) तथा अरुणाचल के माननीय मुख्यमंत्री श्री नाबम तुकी सहित हिगियो अरूनी (मुख्य पार्षद, इटानगर), श्री किपा बाबू (उप-मुख्य पार्षद, इटानगर), स्वामी विश्वेशानंद (रामकृश्ण मिशन), श्री टोनी कोयू (साहित्यकार), श्री नाबुम अतुम (उपाध्यक्ष, पूर्वात्तर जनजाति फोरम), श्री ताबा हारे (सामाजिक कार्यकर्ता), पद्मश्री बिनि यांगा (सामाजिक कार्यकर्ता), श्री जोम्न्या सिराम (गायक), रेरिक कारले रिगबक (गायक), श्री ज्ञाती राणा (सचिव, आपातानी परिशद), मणिपुर से पद्म श्री गुरूमयूम गौरकिशोर शर्मा, असम से श्री प्रांजल सैकिया (अभिनेता), श्री मुनिन बोरा (शास्त्रीय गायक), श्री वीरेन बरूआ, सेवानिवृत्त ले. जन. श्री वी. एम. पाटिल (पुणे), श्री इन्द्रेष कुमार (हिमालय परिवार), श्री दिनेश चन्द्र (विहिप), श्री राकेश कुमार (सीमा जागरण मंच), श्री विजय कुमार (पूर्व सैनिक परिषद), श्री विमल लाठ (कोलकाता), श्री वासुदेव कामथ (मुम्बई) समेत कई विशिष्ट अतिथि शहीदों को नमन करने, मंच पर मौजूद थे।

पासीघाट के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय से आये 450 छात्रों द्वारा नृत्य की भावुक प्रस्तुति, 1962 की संवेदनाओं को जीवंत कर गई और इसके बाद हजारों कंठों से सामूहिक गाया गया ’ए मेरे वतन के लोगों‘ गीत फिर से हमें उस दर्द की टीस से निकालकर गर्व के भावों से भर गया।
स्कूलों से आये हजारों बच्चों के शक्तिमान और पितामह भीषम के रूप में सभी दर्शकों को सम्बोधित करते हुये श्री मुकेश खन्ना ने कहा कि देश की सीमाओं की रक्षा का दायित्च हर नागरिक का है। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री, श्री नाबम तुकी ने मातृभूमि सेवा में अपना जीवन बलिदान करने वाले शहीदों के प्रति अपनी भावनायें व्यक्त कीं और इस प्रकार का शहीदों की स्मृति में आयोजित अनूठा कार्यक्रम अरुणाचल की धरती पर सम्पन्न हुआ, इसके लिये संस्कार भारती को धन्यवाद दिया। 

इस अवसर पर मा. मुख्यमंत्री ने सभी वीर शहीदों की स्मृति में इटानगर में ’शहीद स्मारक‘ बनवाने की घोषणा की और उल्लेखनीय है कि कार्यक्रम के 5 दिनों बाद ही अरुणाचल प्रदेश मंत्रिपरिषद ने ’शहीद स्मारक‘ के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी। समापन दिवस की संध्या पर बाबा मौर्य द्वारा ’भारतमाता की आरती‘ से यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।

सरहद को स्वरांजलि कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पाये शहीदों के परिवारों को 3 दिसम्बर 2013 को अरूणाचल के नाहरलगुन में आयोजित ’शहादत को सम्मान‘ कार्यक्रम में सम्मानित किया गया।
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हिमालय की गोद में बसा, भारत के पूर्वोत्तर का सीमांत प्रदेश, कुल जनसंख्या लगभग 14 लाख, प्रतिवर्ग कि.मी. में औसतन 17 लोगों की रिहायिश, छोटी और खस्ता सड़कें, अव्यवस्थित यातायात, सभी चीजों के आसमान छूते दाम और कुछ उपद्रवी तत्वों द्वारा फैलायी जा रही अशांति से जूझता अरुणाचल। जहां सुशासन पर नेताओं की स्वसेवा और जनता की उपेक्षा हावी है; जहां पढ़ाई और आजीविका के उत्तम अवसर न होने से लोग विशेषकर युवा बेबसी का जीवन जीकर गलत राह चुनने को मजबूर हुये जाते हैं और ये सिलसिला चला आ रहा है। आजादी के बाद, ’नीच चीन‘ के 1962 के छल ने भी सरकार को गंभीर नहीं किया है, जिसका परिणाम है कि ड्रैगन आज भी अरुण को निगलने को तत्पर है। लेकिन हर बार युद्ध या हथियारों से ही सफलता संभव हो, ऐसा नहीं है। इस पर डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा है - ’मेरा दृढ़ विश्वास है कि संगीत और नृत्य इसमें प्रभावशाली औजार साबित हो सकते हैं।‘

1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया, जिसमें भारत के 3105 जवान शहीद हुये थे। इसी समय भारत को पराजय बोध और अवसाद से निकालकर देशभक्ति और शौर्य के भावों से भर देने वाला स्वर्गीय कवि प्रदीप का लिखा और स्वर्गीय श्री सी. रामचन्द्र के संगीत में सजा गीत - ’ए मेरे वतन के लोगों‘, सुर साम्राज्ञी भारतरत्न लता मंगेषकर ने 27 जनवरी 1963 को पहली बार गाया था और चीन, 1962 की लड़ाई में हथियारों से जीतकर भी, इस गीत की तासीर से हार गया था।

इस के पूर्व, युद्ध के पश्चात सुधाकंठ डॉ भूपेन हजारिका असम से पत्रकार के रूप में तवांग पहुँचे, लेकिन युद्ध में हुई तबाही को देखकर विह्वल मन से बोमडिला लौटे और 16 दिसम्बर, 1962 को गीत ’कतो जोवानोर मृत्यु होल‘(असमिया में) लिखा। यह वर्ष इन दोनों गीतों का अर्धशताब्दी वर्ष है।.………………………… 

बंजारन: नए आस्वाद की कविताएँ

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बंजारन (कविता संग्रह) / कुंती मुखर्जी / 
112 पृष्ठ- हार्डबाउंड / मूल्य- 200 / 
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद

जिस स्त्री विमर्श को लेकर आजकल साहित्य जगत में बहुत कुछ लिखा जा रहा है और इतनी अधिक मात्रा में लिखा जा रहा है कि स्त्री खुद कंफ्यूज सी हो गयी है कि वास्तव में इस बदलते समय में उसकी दिशा क्या हो | आखिर इस तमाम लेखन की क्या निष्पत्ति है ? एक तरफ प्रगतिशीलता और खुलेपन के नाम पर लिखा जा रहा आवेगीय फूहड़ लेखन है तो दूसरी तरफ सहज रूप में गंभीरता से लिखी जाने वाली इस तरह की कुछेक किताबें | ऐसे समय में अपनी एक बिलकुल अलग तरह की कविताओं के माध्यम से कुंती मुखर्जी ने स्त्री विमर्श के उस अनछुए पहलू को हमारे सामने रखा है जिसके बारे में बहुत कम ही लिखा गया है | नारी शक्ति को समर्पित इस कृति की कविताओं का आस्वाद बिलकुल भिन्न है |

‘घायल मृगी’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘बज रही थी मुरली की तान/..../कितने सुन्दर शब्द !/ कितने सुन्दर लय/ ठहरु ! चलूँ ! ठुमकूं !/ या नाचूं मचल ! मचल !/ जादूगर ! रुक ! धीरे !/ ज़रा ठहर ! फिर चल!....’ 

‘चिरंतन सत्य’शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखना चाहें- ‘..../ निशा नशीली रात आयी/ फिर सो गयी बेगानी/ सपनों का द्वार खोल/ आया कोई सजीला/ मुग्ध हुए देख नक्षत्रकण/ कानों में बजने लगे वाद्ययंत्र/ छिड़ गयी मन मोहिनी जादुई तान/ अशांत मन पुलकित-तरंगित हुआ/ नाच उठे धरती के कण-कण/ चंचल उर में प्रेमदीप जल उठा/....’ 

अपने सुगठित भाषा विन्यास और विचारों के साथ कुंती जी ने नारी के अंतर के तमाम पहलुओं को अपनी इन रचनाओं के माध्यम से समाज को आईना दिखाने की एक सार्थक कोशिश की है | 

‘एक लड़की’ कविता देखें- ‘निर्मल कोमल मन,/ था उसका,/ कल कल करती/ नदी सी बहती/....’ 

‘बंजारन’ कविता संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए कभी भी बोझिलपन नहीं लगता जैसा की तमाम अतुकांत कविताओं को पढ़ते हुए अकसर लग जाया करता है | इसकी सभी कवितायेँ उच्च भाव बोधों को समेटे हुए हैं | कविताओं में परस्पर प्रवाह है | पाठक कविताओं को पढ़ता ही नहीं बल्कि उनसे जुड़ता चला जाता है | कविताओं के साथ दिए गए अहमद नियाज़ रज्ज़ाकी के सारगर्भित व कलात्मक रेखांकन भी साथ-साथ में बहुत कुछ कहते चलते हैं | 

ये कविताएँ सिर्फ कविताएं मानकर लिख दीं गयी हों ऐसा नहीं लगता | इन कविताओं को कवियत्री ने स्वयं अपने जीवन के विविध आयामों में जिया है, ऐसा प्रतीत होता है | ‘बंजारन’की कवितायेँ नारी मन के सच्चे व बेलाग भावों की मार्मिक भावाभिव्यक्तियाँ हैं | संग्रह की कविताओं के स्तर व परिपक्वता को देखते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि यह उनका पहला काव्य संग्रह है | स्त्री विमर्श पर कविताओं के माध्यम से एकदम नये सामाजिक सरोकारों की बात करती इस तरह की पहली काव्य कृति मेरी आँखों के सामने से गुजरी है | कवियत्री अपनी कविताओं में स्त्रीमन के विस्तृत फलक का अंतर्संसार रचती है- 

‘पिघलता क्षण’ कविता देखें - ‘बचपन से यौवन तक/ ज़िन्दगी की भीड़ में, कितने/ रिश्ते टूटे और कितने जुड़े/ सोचती हूँ और खो जातीं हूँ !’ 

यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि एक स्त्री ही स्त्री के अंतर्मन के भावों को अच्छी तरह से समझ सकती है | कवियत्री अपनी कविताओं में आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से पाठकों को एक स्त्री के जीवन के उस पहलू से अवगत कराने का प्रयास किया है जिसमें वह अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन संघर्षों में जीती है, अपने घर-परिवार के लोगों का ध्यान रखती है, फिर चाहे माँ, बहन, पत्नी आदि उसका कोई भी रूप हो | भारतीय वैदिक साहित्य में नारी को देवी का स्वरुप माना गया है | वह जन्मदात्री है | उसकी अस्मिता की रक्षा करना समाज का नैतिक दायित्व बनता है और साहित्य उस दायित्व के निर्वहन में उसका सहयात्री | हालांकि इस गंभीर विषय पर इतना अधिक लेखन हुआ है कि इस सम्बन्ध में कोई एक सर्वमान्य राय बना पाना इतना आसान नहीं फिर भी कुंती मुखर्जी जैसे कुछ रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से एक आशा की किरण दिखाते हैं | कुंती मुखर्जी ने अपनी कविताओं में नारीमन के जिन सवालों उठाया है उनके जवाब हमें देने ही होंगे | 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कवियत्री द्वारा लिखी गयी कविता ‘नारी क्यों रोती है’ उसकी अंतर्व्यथा के बारे में बहुत कुछ कह जाती है | जब वह कहती है- ‘सुन्दर छवि पा/ नयन भर आंसू, नारी क्यों रोती है ?/....’ 

कवियत्री का कोमल कविमन तमाम बंधनों को तोड़-ताड़कर भाव सरिता में डूब जाने को विकल है | भाव और अंतर्द्वंद्व की अतिशयता में वह ‘मुझे डोर से मत बांधो’ शीर्षक कविता में कह उठती है- ‘मैं बहना चाहती हूँ, मुक्त/ मेरे प्रियतम ! मुझे स्नेह की डोर से मत बांधो !’ 

कवियत्री की ‘एक सवाल’ शीर्षक कविता पुरुषवादी वर्चस्व के बीच अपने अस्तित्व की पहचान पर लगा हुआ एक ऐसा प्रश्नचिन्ह है जिनके उत्तर तलाश करने का समय आ चुका है | और मुझे लगता है कि इन प्रश्नों के उत्तर एक स्वस्थ माहौल बनाकर दिए जाने चाहिए जिससे कि आगे चलकर एक स्वस्थ व विकसित समाज के विनिर्माण की परिकल्पना साकार होगी | जहाँ सभी स्त्री-पुरुष एक समान होंगें | साहित्य को ऐसे सभ्य व सबल समाज को आधार प्रदान करने में निश्चित रूप से अपनी इस अप्रत्यक्ष भूमिका का योजनाबद्ध तरीके से निर्वहन सुनिश्चित करना होगा | इधर-उधर निरुद्देश्य भागते रहने से कुछ हासिल नहीं होने वाला | कम से कम इस दिशा में जो भी, जितना भी सार्थक लेखन हो रहा है उसे तो हम पढ़ें, देखें, समझें और गुनें | 

‘एल लड़की पगली सी’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें- ‘.....सूने घर में-/ एक लड़की अनजानी/ मिट गयी कोमल मन सी काया/ धरती से आकाश तक/ उठा हाहाकार,/ पर-/ निष्ठुर समाज/ चलता रहा अपने ही ढर्रे पर |’ 

कवियत्री की पूरी किताब में उनकी कविता ‘यह घर तुम्हारा है’ अपने भाव, बिम्ब, कथ्य व शिल्प की वजह से मेरी पसंदीदा कविता रही | यह एक ऐसी कविता है जिसे मैं बार-बार पढ़ना चाहूँगा | इसमें शादी के बाद एक स्त्री के जीवन का आख्यान प्रस्तुत किया गया है जो कि कम शब्दों में भी बहुत कुछ कह जाती है | 

‘बंजर जमीन’ कविता का एक टुकड़ा देखें- ‘कहतें हैं- वक़्त हर मर्ज़ की दवा है / हाँ ! लेकिन ! ख़ामोशी कब चुप्पी साधती है ?/ ज्वालामुखी एक राह से नहीं तो/ दूसरी जगह से भड़क ही जाता है/...../ जीवन शुरू होता है संघर्षमय/ जंग रहती है जारी आजीवन/ बचा रहता है क्या, हाथ में आया तो बस/ बंज़र ज़मीन का एक टुकड़ा/ और ऊपर नीला आसमान !’ 

विषय की समीचीनता को देखते हुए इस पुस्तक की समीक्षा लिखना मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है | इस अवसर पर और इस विषय पर हाल ही में प्रकाशित प्रसिद्द लेखिका रश्मिप्रभा जी द्वारा सम्पादित एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘नारी विमर्श के अर्थ’ जिसमें इस विषय को लेकर कई अच्छे आलेख संग्रहीत किये गए हैं, का जिक्र भी जरूर करना चाहूँगा | जिसके समानांतर ही कुंती जी की पुस्तक बंजारन आयी है | दोनों में सिर्फ इतना फर्क है कि एक गद्य विधा में है दूसरी पद्य विधा में | साहित्य सुधियों के लिए उक्त दोनों किताबें स्त्रीविमर्श का एक अहम् दस्तावेज़ हैं | 

चूँकि मैं यहाँ पर एक पुस्तक की समीक्षा लिख रहा हूँ अतः नारी विमर्श का विस्तृत विश्लेषण यहाँ पर प्रस्तुत करना संभव नहीं है, हाँ अगर नारी विमर्श पर आप किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहते हैं तो आपको इन दोनों किताबों को अवश्य ही पढ़ना चाहिए | 

कुल मिलाकर पुस्तक पठनीय, विचारणीय एवं संग्रहणीय है | साहित्य जगत में इस पर पर्याप्त चर्चा किया जाना अपेक्षित है | इस संग्रह की कविताओं से गुजरने के बाद महाकवि जयशंकर प्रसाद जी के शब्दों में मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा- ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो/ विश्वास रजत पग तल में/ पीयूष स्रोत सी बहा करो/ जीवन के सुन्दर समतल में !’ 

समीक्षक
 राहुल देव 

संपर्क- 9/48 साहित्य सदन
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) 
सीतापुर, उ.प्र. 261203 

ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com


Banjaran by Kunti Mukharji

समीक्षा: नैतिकता तो मात्र हिंडोला है - कुमार मुकुल

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डॉक्टर ग्लास (अंग्रेजी उपन्यास)/ लेखक: ज़लमार सॉडरबर्ग 
 अनुवादक: द्रोणवीर कोहली / मूल्य : $ 13.95 
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, दिल्ली  
ISBN : 9789381923047

इस स्वीडिश उपन्यासका अंग्रेजी से अनुवाद द्रोणवीर कोहली ने किया है। उपन्यास के आरंभ में एक जगह डाक्टर ग्लास कहता है- 'मुझसे, यानी डाक्टर ताइको गैबरियल ग्लास से, बढकर और कोई  इतना तन्हा नहीं है जो कभी-कभार दूसरों की मदद करने दौड़ पड़ता है, लेकिन जिसमें अपनी मदद करने की क्षमता ही नहीं है और जो तीस बरस की उम्र बीत जाने के बाद भी किसी औरत के नज़दीक नहीं गया। तीस की उम्र में एक तन्हा व्यक्ति की स्त्री की नजदीकी की कामना उसके मानस में किन भावों को जन्म देती है और इस अभाव की पूर्ती के लिए वह कैसे एक बूढ़े पादरी की हत्या के तर्क को अभिव्यक्त करता है और उसे अंजाम तक पहुंचाता है, यही इस उपन्यास का विषय है। विवाह संस्था, धर्म की व्याख्या और सामाजिकताओं के दबाव कैसे अपराध् की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं यह भी साथ-साथ दृषिटगोचर होता चलता है। दरअसल सारे अपराध् थोपी गयी पवित्रता और भलाई के दबावों से बच निकलने की जद्दोज़हद में ही अपना रास्ता पाते हैं।' 

डाक्टर ग्लास की विडंबना यह है कि जिस स्त्री की कामना से वह पादरी की हत्या तक जाता है उससे कभी वह अपने प्यार का खुलकर इज़हार तक नहीं कर पाता, यहां तक कि हत्या के बाद भी वह स्त्री को खुद से दूर जाता हुआ पाता है। देखा जाए तो ग्लास के बहाने उपन्यासकार मानव मन पर तथाकथित सभ्यता के दबावों से पैदा होने वाली विकृतियों से पाठक का परिचय कराता है। यह सभ्यता प्रेम की सहज भोग को विकृत कर देती है, ग्लास एक जगह सोचता है-'लोग हमेशा एक-दूसरे के प्रेम-प्रसंगों के भी इसी लपेटे में लेते हैं। नतीजा क्या होता है... गर्भवती स्त्री घिनौनी लगने लगती है... ऐसा क्यो कि जिस इन्द्रिय का इस्तेमाल हम दिन में कई बार गलाजत को बाहर निकालने के लिए नाली की तरह करते हैं क्यों उसी से मानव जाति सुरक्षित रहती है... यही काम क्या किसी गरिमामय ढंग से... नहीं किया जा सकता ?'

हमारी सभ्यता को सबसे ज्यादा विकृत उस पर थोपे गए पवित्रता के दबाव करते हैं जो स्त्री-परुष संबंधों में तमाम गलत चुनावों की भूमिका तैयार करते हैं। शादी-व्याह के नाम पर इतना गाजा-बाजा और तमाशा होता ही इसलिये है कि सहज युवा मन अपनी सिथति पहचान ही ना पाए। पादरी के साथ विवाह के बाद जिस स्त्री का दम घुटता है अपने समाज और सभ्यता के दबाव में खुद ही पादरी का चुनाव किया था पर नतीजा यह होता है कि पादरी के सारे सदव्यवहार के बाद भी उसके मन में उसके प्रति घृणा ही उपजती है और एक बाहरी युवक के वह प्रेम कर बैठती है। युवक को हासिल करते ही वह पादरी से छुटकारे के लिए तड़पने लगती है। यह तड़प ही डा. ग्लास की नज़रों में पादरी को अपराधी बना देती है। 

उधर पादरी के लिए उसकी स्त्री उसकी सम्पत्ती मात्र है जिसका कभी भी भोग किया जा सकता है। उस स्त्री का विरोध इसी संपत्ती होने के खिलाफ है। 

बारीकी से देखा जाए तो यह उपन्यास समाज की जड़ और चेतन सत्ताओं की टकराहट को सामने लाती है पादरी सभ्यता की स्थापित, जड़ हो रही सत्ता का नमूना है। इसलिये एक स्त्री मन को जाने बिना वह अपनी सत्ता से लौट अपनी र्इच्छा की अभिव्यकित मात्रा से उसे हासिल कर लेता है। दूसरी ओर डा ग्लास चेतन सत्ता है जो अपनी अभिव्यकित के लिए जगह ना निकाल पाने की तड़प में पादरी की विराट सत्ता को नष्ट करने का सपफल षडयंत्रा करता है। और सत्ता के मद में पादरी जिस स्त्री मन की चेतन सत्ता का हनन कर उसे गुलाम बनाता है और गुलाम समझता है, वही उसकी सत्ता के विनाश का साधन बनती है। 

पादरी का जड, तयशुदा व्यवहार उसकी स्त्री मन में उसके प्रति कैसी घृणा पैदा करता है इसे पादरी कभी जान नहीं पाता। पर वह स्त्री पादरी की जड़ता को अच्छभ् तरह जानती है। पादरी द्वारा शारीरिक संबंध् बनाने की हर कोशिश उसे बलात्कार लगती है पर वह पादरी से अपना मन खोलने की कल्पना भी नहीं कर सकती। दुनिया भर के अपराधें के लिये क्षमा और प्रार्थना करने वाले पादरी के पास इस स्त्री के लिए राहत का एक शब्द नहीं हो सकता, यह वह जानती है एक जगह डाक्टर ग्लास को वह समझती है- ... आप उसे नहीं जानते। तलाक और पादरी! वह कतई राजी नहीं होगा, कभी नहीं ।चाहे मैं सर पटकूं, दुनिया इधर-से-उधर हो जाए। खड़ी-खड़ी मुझे 'क्षमा कर देगा, एक बार नहीं सत्तर बार। ... नहीं मेरे भाग्य में तो रौंदा जाना ही लिखा है। 

यहां हम आलोक ध्न्वा की कविता 'भागी हुर्इ लड़कियां की पंकितयों की याद कर सकते हैं- 'क्या तुम्हें दाम्पत्य दे दिया गयाक्या तुम उसे उठा लाएअपनी हैसियत, अपनी ताकत सेतुम उठा लाए एक ही बार मेंएक स्त्राी की तमाम रातें...। यह उपन्यास पादरी की उसी हैसियत और ताकत की बानगी पेश करता है, जो वैध् तरीके से स्त्री को गुलाम बनाए रखती है। उस स्त्री और डा ग्लास का विद्रोह इसी हैसियत और ताकत के खिलापफ है- 'अब यह औरत जाग उठी है! और इसको माता-पिता ने, जिन्हें यह मालूम होना चाहिए या कि शादी-ब्याह क्या हेाता है, जिन्होंने जानते-समझते हुए भी अपनी स्वीकृति दी थी... और स्वयं यह पादरी भी : क्या इसके जेहन में भी यह बात नहीं आर्इ कि कितना अप्राकृतिक, कितना अनुचित व्यवहार कर रहा है वह?... इसके पहले मैंने कभी नहीं सोचा था कि नैतिकता तो मात्र हिंडोला है...। नैतिकता की व्युत्पत्ति प्रेंफ शब्द मोरल; प्राथाद्ध से है इसी तरह एक जगह डा ग्लास सोचता है- 'पादरी हमेशा पिछले दरवाजे से ही चर्च में प्रवेश करते हैं, ऐसा क्यों ? 

पोटैशियम सायनाइड की जो गोलियां डा. ग्लास ने अपने लिए तैयार कर रखी थीं उसे ही पादरी को विश्वास मे लेकर खिलाया था उसने। गोलियां बनाते समय उसने अपनी जान लेने की नहीं सोची थी, हां यह विचार जरूर था कि एक अक्लमंद आदमी को आत्महत्या के लिए तैयार रहना चाहिए। 

यहां देखा जाए तो आत्महत्या के नये निहितार्थ सामने आते हैं। आत्महत्या को लेकर ग्लास के सोचने का तरीका यह जाहिर करता है कि वर्तमान व्यवस्था में अपनी सपफार्इ पर होने वाली नकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रति निशिचंत होने के कारण व्यकित आत्महत्या की ओर बढ़ता है और बहुत बार जब वह अपने शत्रु  को मारना तो चाहता है पर मारने के तर्क को जमाने के लिए अग्राहय पाता है तो आत्महत्या कर लेता है? मतलब बहुत बार आत्महत्या करने वाला किसी की हत्या में खुद को असमर्थ पाकर भी आत्महत्या कर सकता है। यानि कि सामने वाले को मार डालने के जिस तर्क के प्रति वह अश्वस्त है उस पर दुनिया केा सहमत करा पाने में विपफल होने की आशंका उसे आत्महत्या की राह पर ढेल सकती है। कुल मिलाकर आत्महत्याएं हमारी व्यवस्था के लिए खतरनाक प्रश्न चिन्ह की तरह हैं। वे उस खतरनाक बिंदु की ओर र्इशारा कर रही होती हैं, जिसमें मामूली हेर-फेर व्यवस्था को गर्त में ढकेल देने की राह तैयार कर सकती है। किसी भी सकारात्मक व्यवस्था की आत्महत्या की घटनाओं के बाद अपनी स्थिति का आकलन शुरू कर देना चाहिये वर्ना आत्महत्या की उपेक्षा उस व्यवस्था के लिए आत्महत्या की तैयारी साबित होगी। 

आत्महत्या भी एक विद्रोह है इसलिये सोच-समझ कर व्यवस्था आत्महत्या से बच गए आदमी के लिए सजा की व्यवस्था करती है। आत्महत्या की कोशिश व्यवस्था के प्रति व्यकित के विद्रोही को उजागर कर देती है, इसलिए व्यवस्था उसे बच जाने पर बंध्क बना लेती है, वह जानती है कि खुद को मारने में असपफल रहा व्यकित आसानी से व्यवस्था को नष्ट करने की ओर बढ सकता था, या बढ़ सकता है, इसलिये उसे कंडीशंड करने और तोड़ने के लिए कैद की व्यवस्था रहती है। 

आत्महत्या से बचे आदमी को सजा का ही एक पहलू है इच्छामृत्यु का अधिकार ना देना। डा ग्लास इच्छा मृत्यु के अधिकार को मतदान के अधिकार से भी महत्वपूर्ण मानता हे। 

प्रेम की भावना को डा ग्लास बहुत महत्व देता है। वह मानता है कि किसी व्यक्ति के लिए सबसे बुरी स्थिति  यह होती है कि वह देखता है कि वह किसी का प्रेमपत्र नहीं वह सोचता है कि- 'प्यार नहीं तो प्रशंसा मिले... नहीं तो हमारा दबदबा हो, ऐसा नहीं तो घृणा, तिरस्कार मिले। कि आदमी अपनी पहचान खोजता है। दूसरों पर अपना असर देखना चाहता है, किसी भी रूप में वह आनंद को भी परिभाषित करता है- 'हर आदमी को अपनी स्थिति में जो भी अच्छा लगता है, वही आनंद है। उपन्यास मानव मन की चेतन-अवचेतन तमाम परतें उधेड़ता चलता है। और यह उधेड़ अपना एक मौलिक लहजा रखता है। उधेड़ता हुए वह पाता है कि - 'सदाचारी बने रहने का मतलब है, अपनी सीमाओं को पहचानना या चुनाव करने का मतलब ही है अपने आपको महरूम करना। लोग सुख की चिंता नहीं करते, केवल भोग-विलास के पीछे भागते हैं या मेरी देह ही मैं हूं। देह के माध्यम के बिना कोई खुशी नहीं, कोई गम नहीं।

कुल मिलाकर उपन्यास बहुत अच्छा है, जिसे संजोकर रखा जा सकता है। काफी पहले हंस में जान स्टाइनबेक का उपन्यास पढ़ा था 'एक मछुआ एक मोती। अनुवाद राजेन्द्र यादव ने किया था। वह भी इतना अच्छा लगा था कि सहेज कर रख लिया। मात्र सौ पेज पढ़कर संतुष्ट करा देना ऐसा कुछ ही कृतियों के बस का होता है।

समीक्षक            


कुमार मुकुल 
स्थानीय सम्पादक
कल्पतरु एक्सप्रेस 
आगरा, उ.प्र.               


Doctor Glas (English Novel) by Hjalmar Soderberg
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