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किशोर श्रीवास्तव कृत खरी-खरी के 28 वर्ष

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किशोर श्रीवास्तव कृत जन चेतना कार्टून पोस्टर प्रदर्शनी ‘खरी-खरी’ ने इस माह अपने प्रदर्शन के 28 वर्ष पूरे कर लिये हैं। इस प्रदर्शनी का पहला आयोजन दिल्ली दूरदर्शन ज्ञानदीप मंडल की झांसी शाखा द्वारा झांसी में किया गया था तब से ले कर अब तक विभिन्न संस्थाओं सरकारी कार्यालयों एवं स्कूलों आदि के द्वारा झांसी व दिल्ली सहित इसके सौ से भी अधिक प्रदर्शन आगरा, मथुरा, खुर्जा, ललितपुर, उरई, देवबंद, जबलपुर, अंबाला, गाजियाबाद, शिलांग, बेलगाम, गोवा, सोलन, पुरी, डलहौजी, साहिबाबाद, हिम्मतनगर, भरतपुर, बिजनौर व नांदेड़ आदि विभिन्न जिलों में संपन्न हो चुके हैं। यह प्रदर्शनी कार्टून, छोटी कविताओं, स्लोगनों एवं लघुकथाओं के माध्यम से राष्ट्रभाषा और सामाजिक, सांप्रदायिक सद्भाव के प्रचार-प्रसार एवं विभिन्न सामाजिक विसंगतियो पर कुठाराघात के मद्देनज़र वर्ष 1984-85 में तैयार की गई थी। जिसका निःशुल्क सफर सतत् जारी है। इस प्रदर्शनी के निःशुल्क आयोजन के लिये कोई भी प्रतिष्ठित संस्था श्री किशोर श्रीवास्तव से सीधे इन नंबरों पर संपर्क कर सकती है संपर्क:  9868709348, 8447673015 


साहित्य का जड़ों की ओर लौटना : रामपुर उत्सव

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महाराजगंज :श्री चन्द्रिका शर्मा फूला देवी स्मृति सेवा ट्रस्ट, रामपुर बुजुर्ग, जनपद-महाराजगंज उ.प्र. द्वारा 26 और 27 अक्टूबर 2013 को प्रथम रामपुर उत्सव का सफलतापूर्वक आयोजन किया गया। शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कार के महत् उद्देश्यों को समर्पित इस दो दिवसीय आयोजन में अत्यंत उत्साह और उमंग के साथ ग्रामवासियों और प्रदेश के अन्य कई गणमान्य व्यक्तियों ने शिरकत की। हिन्दी प्रदेश में अपनी तरह का यह पहला आयोजन था जिसमें गाँव के बहुमुखी विकास के लिए पहल हुई, आवश्यक प्रयासों पर गम्भीरतापूर्वक विमर्श हुआ और ग्रामवासियों को सामाजिक-सांस्कृतिक माध्यमों द्वारा उनकी विधिवत जानकारी प्रदान की गई।

दरअसल, हिन्दी के सुपरिचित आलोचक डॉ. अमरनाथ, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर, ‘अपनी भाषा’ संस्था के अध्यक्ष तथा ‘भाषा विमर्श’ के संपादक हैं ने अपने माता-पिता के नाम पर यह ट्रस्ट बनाया है। उनका पैतृक गांव यहीं है। इस ट्रस्ट की ओर से यह पहला आयोजन था।


कार्यक्रम का उद्घाटन 26 अक्टूबर की शाम 8 बजे प्रतिष्ठित लेखक एवं किसान पी.जी.कॉलेज, सेवरही, कुशीनगर के पूर्व प्राचार्य डॉ.वेद प्रकाश पांडेय ने दीप प्रज्जवलित करके किया। उद्घाटन समारोह में डॉ. पांडेय के अतिरिक्त क्षेत्र की कई शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधक डॉ.बलराम भट्ट, जवाहरलाल नेहरू पी.जी. कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ. घनश्याम पांडेय, प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता श्री विमल पांडेय और रामपुर बुजुर्ग गाँव के ग्राम-प्रधान श्री जयप्रकाश कन्नौजिया ने अपने विचार व्यक्त किए । इसके पूर्व अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेट कर तथा माल्यार्पण द्वारा सम्मानित किया गया । प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए न्यास के प्रमुख डॉ.अमरनाथ ने न्यास के उद्येश्यों और इस उत्सव की प्रयोजनीयता के संदर्भ में विस्तार से अपनी बातें रखीं। उन्होंने बताया कि शिक्षा के क्षेत्र में गांव की प्रतिभाओं को सम्मानित करके उन्हें प्रोत्साहित करना, वालीबाल, कबड्डी और कुश्ती जैसे कम खर्चीले और स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयोगी खेलों को पुनरुज्जीवित करना, गांव में निःशुल्क चिकित्सा शिविरों का आयोजन करना, लोक गीतों और लोक कलाओं को संरक्षित करना, हर प्रकार की नशा के विरुद्ध व्यापक जन जारगण अभियान चलाना, पशु पालन की उपयोगिता और उसके महत्व के प्रति जागरुकता विकसित करना, वैज्ञानिक ढंग की खेती के साथ भूमि संरक्षण और उसकी उर्वरा शक्ति बचाए रखने का समय-समय पर प्रशिक्षण देना तथा ‘गांव’ नामक पत्रिका के माध्यम से गाँव की दबी हुई रचनात्मक प्रतिभाओं को अवसर उपलब्ध कराना न्यास का उद्देश्य होगा। डॉ.बलराम भट्ट ने इस अवसर पर न्यास को बधाई दी और इसके द्वारा शुरू किए गए प्रयास की सराहना की। डॉ.घनश्याम पांडेय ने ऐसे आयोजनों के सामाजिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ग्रामीण अंचल में इस तरह के आयोजन से न सिर्फ सरकारी प्रतिष्ठानों को और अधिक जागृत किया जा सकता है बल्कि उन्हें गाँवो के विकास के लिए और अधिक प्रेरित भी किया जा सकता है। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि ऐसे प्रयासों से ग्रामीण प्रतिभाओं को निखरने का मौका मिलेगा। श्री विमल पांडेय ने अपने वक्तव्य में कई ऐसे सुझाव दिए जिससे ग्रामीणों को आर्थिक और सामाजिक स्तर पर उन्नत जीवन की ओर उन्मुख किया जा सकता है। ग्राम-प्रधान श्री कन्नौजिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि ग्राम-प्रधान के रूप में वे ऐसे आयोजनों को अत्यधिक आवश्यक मानते हैं और उनकी ओर से इस उत्सव के सफलतापूर्वक आयोजन में हर संभव सहायता मिलती रहेगी। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ.वेद प्रकाश पांडेय ने इस पहल की भूरि भूरि सराहना की, अनेक सुक्षाव दिए और कहा कि अपनी जमीन से जुड़ाव खत्म करके मनुष्य न तो अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है न अपने समाज का। उन्होंने गाँव के युवाओं को संबोधित करते हुए उन्हें न्यास के प्रमुख डॉ.अमरनाथ की तरह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने और साथ ही गाँव की मिट्टी के प्रति अपने दायित्व को निरन्तर याद रखने की सलाह दी।

इस अवसर पर न्यास की पत्रिका ‘गाँव’ के प्रवेशांक का भी विमोचन किया गया। यह पत्रिका गाँव की रचनात्मक प्रतिभाओं को अवसर देने, उन्हें निखारने और साथ ही गाँव की समस्याओं पर विचार करने और उनका समाधान प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रति वर्ष प्रकाशित की जाएगी। इसके साथ ही न्यास द्वारा आयोजित प्रथम शिब्बनलाल सक्सेना वॉलीबॉल प्रतियोगिता में विजयी और द्वितीय स्थान पर रही टीम को पुरस्कृत किया गया। वहीं शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों को भी सम्मानित किया गया। हाई स्कूल परीक्षा में गाँव में ही रहकर प्रथम श्रेणी के साथ सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले छात्र अमरनाथ रौनियार को पं.चंद्रिका शर्मा स्मृति प्रतिभा सम्मान और छात्रा प्रियंका पटेल को श्रीमती फूला देवी स्मृति प्रतिभा सम्मान से सम्मानित किया गया। डॉ.बलराम भट्ट ने घोषणा की कि भविष्य में सोनपती देवी महिला महाविद्यालय में अध्ययन करने वाली रामपुर बुजुर्ग गाँव की किसी भी छात्रा से विश्वविद्यालय की फीस छोड़कर और कोई फीस नहीं ली जाएगी। उन्होंने बालीबाल प्रतियोगिता में विजयी टीमों को शील्ड और पुरस्कार की व्यवस्था भी अपनी ओर से की।

उद्घाटन एवं सम्मान समारोह के पश्चात् शास्त्रीय एवं लोकप्रिय संगीत की सुन्दर प्रस्तुति की गई। कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित चर्चित संगीतज्ञ श्री निराला मलिक मिश्र ने अपने सुन्दर गायन से ग्रामीणों का स्वस्थ मनोरंजन किया। सच्चे लोक कवि कबीर और नानक की कविता को उन्होंने स्वनिर्मित रागों में पिरोकर प्रस्तुत किया। मिश्र जी के पश्चात क्षेत्र के वरिष्ठ चिकित्सक और संगीत-साधक डॉ. ठाकुर भरत श्रीवास्तव ने सुन्दर गीतों और गजलों के माध्यम से समाँ को बाँधे रखा। पहले दिन के इस पूरे कार्यक्रम का संचालन असम विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर डॉ.शीतांशु ने किया।

कार्यक्रम के दूसरे दिन सुबह विशेषज्ञ डॉक्टरों द्वारा निःशुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन किया गया। चिकित्सा शिविर का शुभारंभ महाराजगंज जिले की जिलाधिकारी श्रीमती सौम्या अग्रवाल ने किया। अपने उद्घाटन वक्तव्य में श्रीमती अग्रवाल ने रेखांकित किया कि ऐसे आयोजनों से न सिर्फ गाँव के युवाओं की चेतना विकसित होगी बल्कि ग्रामीणों के जीवन-स्तर को और भी बेहतर बनाया जा सकेगा । उन्होंने कहा कि अक्सर लोग ऊँचे पदों पर पहुँचते ही अपनी पृष्ठभूमि को भुला देते हैं जो उचित नहीं है। उन्होंने प्रत्येक वर्ष ऐसे कार्यक्रम सम्पन्न करने की प्रतिश्रुति के लिए न्यास के सदस्यों तो शुभकामनाएँ दीं और कहा कि प्रशासनिक स्तर पर न्यास को हर संभव सहयोग दिया जाएगा। इस मौके पर जिले की वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ.रश्मि श्रीवास्तव ने भी ग्रामीणों को स्वास्थ्य संबंधी कई बहुमूल्य सुझाव दिए। डॉ.एस.के.वर्मा, डॉ.कुलदीप सिंह, डॉ.रश्मि श्रीवास्तव, डॉ.पी.के.श्रीवास्तव आदि विशेषज्ञ चिकित्सकों ने मरीजों का स्वास्थ्य परिक्षण किया। डेढ़ सौ से भी अधिक मरीजों ने इस निःशुल्क स्वास्थ्य शिविर का लाभ उठाया। इस चिकित्सा शिविर का संयोजन डॉ. एस. के. वर्मा ने किया।

कार्यक्रम के आखिरी सत्र में गोरखपुर फिल्म सोसायटी ने सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर केंद्रित फिल्मों का प्रदर्शन किया। इस सत्र के संयोजक थे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सचिव श्री मनोज कुमार सिंह और मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे श्री सी.जे.थॉमस। अपने वक्तव्य में श्री थॉमस ने बहुत ही विस्तार से इस क्षेत्र के विकास के लिए प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना द्वारा किए गए महान कार्यों से लोगों को परिचित कराया। इसके पश्चात् श्री मनोज कुमार सिंह ने प्रदर्शित होने वाली फिल्मों के बारे में ग्रामवासियों को जानकारी दी। ‘गाँव छोड़ब नाहीं’, ‘गाड़ी लोहरदगा मेल’ और ‘दाएँ या बाएँ’ जैसी महत्वपूर्ण सामाजिक फिल्मों के अतिरिक्त इस अवसर पर श्री सी.जे. थॉमस द्वारा निर्देशित प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना पर केंद्रित एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का भी प्रदर्शन किया गया। इस सत्र का संचालन किये न्यास के सदस्य और दार्जिलिंग गवर्नमेंट कॉलेज के प्राध्यापक डॉ.हिमांशु कुमार ने।

अंत में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के प्रोफेसर और गांव पत्रिका के संयुक्त संपादक डॉ.विश्वम्भर नाथ शर्मा ने बहुत ही भावनात्मक शब्दों में आभार व्यक्त किया और कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सभी का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कार्यक्रम के समाप्ति की घोषणा की। उल्लेखनीय है कि गांव के ही नहीं, पड़ोस के गांवों से भी एक हजार से भी अधिक लोगों ने दोनो दिन अत्यंत उत्साह से भाग लिया और भविष्य के प्रति भी आश्वस्त किया


कहानी: कोऊ नृप होई हमें का हानि - विजय सिंह मीणा

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विजय सिंह मीणा

चर्चित कथाकार विजय सिंह मीणाका जन्म 01 जुलाई 1965 को ग्राम- जटवाड़ा, तहसील- महवा, जिला-दौसा, राजस्थान में हुआ। शिक्षा:एम. ए. (हिंदी साहित्य), राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर। आप केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, नई दिल्ली एवं केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली में अपनी सेवायें दे चुके हैं और वर्त्तमान में उप निदेशक (राजभाषा) के पद पर विधि कार्य विभाग, विधि एवं न्याय मंत्रालय, शास्त्री भवन, नई दिल्ली में कार्यरत। आपके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे कहानी, कविता व लेख प्रकाशित तथा विभिन्न साहित्यिक व सम-सामयिक विषयों पर आकाशवाणी एवम दूरदर्शन से वार्तायें प्रसारित हो चुकी हैं। प्रकाशन : सिसकियां (कहानी संग्रह)। सम्‍मान: संस्कार सारथी सम्मान 2013। संपर्क: ई-30-एफ, जी- 8 एरिया, वाटिका अपार्टमेट, एम आई जी फ्लेट, मायापुरी , नई दिल्ली 110078।  ई-मेल: vijaysinghmeenabcas@gmail.com

चुनाव के समय उपेक्षित से उपेक्षित व्यक्ति भी आम से खास बन जाता है । प्रत्येक उम्मीदवार में उसे ईश्वर का अंश दिखाई देने लगता है । दोनों के बीच ईश्वर जीव अंश अविनासी का सम्बन्ध स्थापित होने लगता है। ग्राम पंचायत स्तर के चुनाव का तो कहना ही क्या ? चुनाव प्रचार के दौरान प्रत्येक उम्मीदवार फौरी तौर पर अपने समर्थको के लिये शराब और धन का दान इस प्रकार करता है मानो चुनाव आयोग का उसके लिये ऐसा करने का विशेष आदेश हो । पंचायत विधेयक में बाकायदा कमजोर वर्ग और महिलाओं के लिये सुरक्षित सीटों का भी प्रावधान किया गया है । इसके लिये किसी प्रकार की शैक्षिक योग्यता की भी जरूरत नहीं । 

सरकार चाहे इसके पक्ष में कितने ही फायदे गिनवाये लेकिन ग्राम पंचायत चुनावों के कुछ कुप्रभाव भी है जिनसे गांव वालों में हिंसा और वैमनस्य की भावना को बल मिला है । जिन गांवों में लोग परस्पर मिलजुल कर रहते थे आज वहां एक -एक गांव में लोग कई गुटों में बटे हुए हैं । इसके कारण यहां हिंसा , बलात्कार , लूटपाट ,झगड़े , नारी शोषण और प्रतिहिंसा के मामलों में अप्रत्याशित बढोतरी हो गई है । जिन लोगों में भाई चारा रग रग में भरा था वे ही एक दूसरे के रक्त पिपाषु हो रहे हैं । ऐसे ही एक चुनाव में मेरे एक नजदीकी के खड़े होने के कारण मुझे भी इन्हें गहराई से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ । इस दौरान जो घटनाएं मैंने नज़दीक से देखी उन्हीं घटनाओं ने मुझे यह कहानी लिखने को बाध्य कर दिया । 

जयगढ़ ग्राम पंचायत में कुल चार गांव आते हैं । ये है जयगढ़ , नवलपुरा,शेरपुर और सुमेंरपुर। इनमें सबसे बड़ा गांव जयगढ़ है सो हमेंशा से सरपंच पद इसी गांव के पास रहा है। इस बार चुनाव मैंदान में मुख्य प्रतिद्वंदी के रुप में जयगढ़ की राजन्ती और सुमेंरपुर की शकुन्तला ही मुख्य उम्मीदवार थी । इससे पहले राजन्ती दो पन्चायतो की सदस्य भी रह चुकी है । दोनों ही उम्मीदवार धनबल में एक से बढ़कर एक हैं । 

राजन्ती उम्र के पचासवें पड़ाव को पार चुकी थी और शकुन्तला एक अधेड़ आयु महिला थी । शकुन्तला कई बार इस चुनाव को हार चुकी थी परन्तु इस बार उसने साम ,दाम ,दंड़ , भेद से इसे जीतने की ठान ली थी । यही रणनीति अपनाकर वो अपना चुनाव प्रचार कर रही थी । 

असल में हुआ युं कि इस बार राजन्ती चुनाव नहीं लड़ना चाहती थी ।राजन्ती का ससुर धन सिंह जो कि भूतपूर्व सरपंच था , ने इस बार चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था । इसी समय कौशल्या के पति हरिराम और उसके दोनों बेटे राम सिंह व जल सिंह वहां पहुंचे । उन्होंने धन सिंह से कहा कि इस बार हम चुनाव लड़ना चाहते है , हमारी मदद करो । धन सिंह ने सहर्ष कह दिया कि मेरा सपोर्ट तुम्हारे साथ है तुम चुनाव लडो ।सभी खुश थे कि चलो इस बार गांव से कोई और उम्मीदवार नहीं है सो हम आसानी से जीत जांएगे । वे खुशी खुशी प्रचार में लग गये । कई बार कहने पर भी धन सिंह उनके साथ प्रचार करने नहीं गये तो एक दिन राम सिंह व जल सिंह तथा उनके कुछ समर्थक स्थिति जानने धन सिंह के पास पहुंचे । उन्होंने कहा कि सरपंच आप हमारे साथ प्रचार करने क्यों नहीं चल रहे हो ? धन सिंह ने ज़वाब दिया कि मेरा वोट और सपोर्ट तुम्हारे साथ है लेकिन मैं किसी के आगे हाथ जोड़ने कहीं नहीं जाऊंगा । यह सुनते ही राम सिंह नाराज़ हो गया । उसने आव देखा ना ताव और तैश में आकर कह दिया -''तुम्हारे सपोर्ट को अपनी------- में भर लो , हमें जरूरत नहीं है इसकी । और कान खोलकर सुनलो अब तुम भी मैंदान में आ जाओ , तुम्हें भी पता लग जायेगा ।''कहकर वे चले गये । प्रतिष्ठा का सवाल मानकर धन सिंह ने अपनी पुत्रवधू राजन्ती को भी चुनाव मैंदान में उतार दिया । अब इसी गांव से धीरे धीरे कई उम्मीदवार मैंदान में आ चुके थे सो वोटों का बिखराव तो होना ही था । 

जयगढ़ का कुन्जी लाल मास्टर बड़ा ही धूर्त और कामुक प्रवृति का व्यक्ति था । अपनी इन्हीं हरक़तों की वजह से वह पहले से ही बदनाम था । उसने एक बार पास के गांव नवलपुरा की नई ब्याहता मुनिया को देख लिया था । उसी समय से वह उस पर लट्टू हो गया था । उसे वह पाने के सपने मन ही मन देखने लगा पर उसे कुछ सूझ नहीं रहा था । मुनिया दो साल पहले ही शादी होकर नवलपुरा में आई थी । बड़ी‑बड़ी कजरारी आंखें , गोल और उन्नत ललाट, गुलाब से सुर्ख होंठ और गदराई देह से उसका सौंदर्य कंचन सा दमकता था । उसका पति रामप्रसाद निहाहत सीधा साधा अनपढ़ किसान था । कुन्जीलाल गांव में ब्याज पर पैसे भी देता था । एक बार उसने मुनिया के पति को भी पैसे दिये थे सो वे लोग उसका अहसान भी मानते थे । 

कुन्जी सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुका था परन्तु उसका कामी मन अभी सेवानिवृत नहीं हुआ था । कन्जूस व्यक्ति को जैसे धन और कामी को जैसे नारी ही प्यारी लगती है कुछ यही स्थिति कुन्जी मास्टर की भी थी । इस चुनाव में वह न तो राजन्ती के साथ था और न ही शकुन्तला के खेमें में , उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था । चुनाव होने में अभी एक सप्ताह का समय था । एक दिन सुबह सुबह वो मुनिया के घर जा पहुंचा । वहां उसका पति रामप्रसाद भी था ।राम राम करने के बाद कुन्जी खाट पर बैठ गया और कुछ गम्भीर सी मुद्रा बना ली । उसे देखकर रामप्रसाद ने पूछा-''क्या बात है मास्टरजी कुछ चिंता में दिखाई दे रहे हो ।'' 

''यार रामप्रसाद मुझे चिंता इस चुनाव की हो रही है। मैंने काफ़ी दिनों से लोगों से चुनाव के सम्बन्ध में राय ली है। इस बार तो मामला गड़बड़ लग रहा है । यह दोनों ही उम्मीदवार ठीक नहीं है। लोग बाग मुझसे आकर कह रहे हैं अपना कोई उम्मीदवार खड़ा कर दो सारे वोट उसी को दे देंगे ।''कुन्जी ने सर पर हाथ फेरते हुए कहा । 

''तो फिर इसमें देर किस बात की है मास्टरनी को खड़ा कर दो । हम सब जी जान लगा देंगे।'' रामप्रसाद ने खुश होते हुए कहा । 

''अरे यार तुम तो जानते ही हो कि मेरा एक लड़का हमेंशा बीमार रहता है उसे ही संभालने से फुर्सत नहीं मिलती मास्टरनी को ।'' 

''तो फिर किसी और को खड़ा कर दो ।''पास ही बैठे भजनी ने कहा । 

''इसीलिये तो तुम्हारे पास आया हू, मुझे कोई ऐसा उम्मीदवार चाहिये जो नोजवान हो , होशियार भी हो क्योंकि यह सीट महिलाओ के लिये है सो सहज ही योग्य महिला मिलना इतना आसान नहीं है । मैंने इस पर काफ़ी विचार किया और इस नतीजे पर पहुंचा कि मुनिया इसके लिये योग्य है। इन लोगों पर अभी कोई ज्य़ादा बाल बच्चों की भी जिम्मेदारी नहीं है ।''कहकर कुन्जी ने रामप्रसाद की ओर देखा । रामप्रसाद ने हुक्के को जोर से गुड़गुड़ाया और कहा-''अरे मास्टरजी हमारी कहां हैसियत है चुनाव लड़ने की ।'' 

''तुम सारी जिम्मेदारी मुझपर छोड़ दो । हमें इसमें ज्य़ादा पैसे की भी जरूरत नहीं है । वोट आजकल पैसे से नहीं मिलते व्यवहांर से मिलते है । मैंने पूरा हिसाब लगा रखा है तकरीबन 1200 वोट तो मेरे निजी मान कर चलो । तुम्हारे जैसा इमानदार और नेक नियत उम्म्मीदवार खड़ा होने पर तो 500 वोट तो वैसे ही बढ़ जायेगे , जबकि हार जीत तो 1000 वोट पर ही हो लेगी ।''चतुर राजनीतिज्ञ की भांति कुन्जी ने पासा फेंका । चूल्हे पर काम करती मुनिया ने जब यह बातें सुनी तो वो भी घूंघट निकाले उधर ही आ गई । 

''नहीं हमें चुनाव नहीं लड़ना ।''मुनिया ने घूंघट की ओट से कहा । 

''देख मुनिया तुझे इस बात का अभी पता ही नहीं है कि इस बार कोरी सरपंची नहीं है। सरकार सरपंचों को विकास कार्यों के लिये 10 करोड़ रुपया देगी । इसमें ईमानदारी का 10 पेर्सेन्ट सरपंच का कमीशन होता ही है। जानती हो कितना कमीशन बनेगा ।कुल मिलाकर एक करोड़ रुपये ।पांच साल में करोड़पति बन जाओगी । सारी गरीबी भाग जायेगी।'' 

सारी बात सुनकर मुनिया और रामप्रसाद सन्न रह गये । उन्होंने तो कभी एक लाख रुपये भी इकट्टे नहीं देखे । थोड़ी देर मौन छाया रहा । पास में ही भजनी बैठा था सो राम प्रसाद खुलकर कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं था और यही स्थिति मुनिया की थी । कुन्जी ने स्थिति को भांपते हुए कहा-''भजनी तुम घर चलो मैं तुम्हारे ही पास आ रहा हूं, तुमसे भी इस सम्बन्ध में कुछ बातें करनी है ।''सुनकर भजनी अपनी तिबारी की ओर चला गया । 

कुन्जी की बात रामप्रसाद के गले तो उतर गई परन्तु मुनिया अभी ना नुकर ही कर रही थी । 

''देख मुनिया मैं तुमसे दूर थोड़े ही हूं ,जी जान लगा दूंगा और तुम्हें जिताकर ही दम लूंगा ।''कुन्जी ने मुनिया के सर पर हाथ रखकर कहा । भोले‑भाले दोनों कुन्जी की बातों में आ गये और चुनाव के लिये तैयार हो गये । वहीं बैठकर वो तीनों रणनीति तय करने लगे । 

कुन्जीलाल ने कहा-''रामप्रसाद तुम सुमेंरपुर और शेरगढ़ में एक एक घर में जाकर प्रचार करोगे । मुनिया और मैं बाकी दोनों गांवों में सारी महिलाओं से सम्पर्क करेंगे । कल सुबह से ही काम शुरू कर दो ।''कुन्जी ने योजना को अंतिम रुप देते हुए कहा । 

अगले दिन मुनिया और कुन्जी मुंह अंधेरे ही चुनाव प्रचार के लिये निकल पड़े । दिन भर उन्होंने प्रचार किया । कुन्जी जहां भी जाता मुनिया से पहले ही मतदाताओ के पैर पकड़कर मुनिया के पक्ष में वोट ड़ालने की अपील कर देता । एक ही दिन में उसने मुनिया के दिल में जगह बना ली । मुनिया सोचने लगी की वास्तव में कुन्जी मेरे लिये जी जान एक कर रहा है । कई बार रास्ते में चाय पानी का खर्चा भी कुन्जी ने ही उठाया । मुनिया को उसने बिलकुल पैसे देने ही नहीं दिये । जैसी कि आजकल के मतदाताओं की आदत बनी हुई है , उनके पास जो भी जाता है वो सभी से उसके पक्ष में वोट देने की हां करते है ।दूसरे मुनिया का रुप लावण्य भी थोड़ी देर के लिये हर व्यक्ति को आंख सेकने का जरिया मिल रहा था सो वे लोग प्रचार में उसके साथ भी हो लेते थे । मुनिया की इस प्रकार गलतफहमी बढ़ती ही जा रही थी । वो इस सबका श्रेय कुन्जी को दे रही थी । शाम को मुनिया और कुन्जी वापिस घर पहुचे। 

एकांत पाकर कुन्जी ने कहा - 'देखा मुनिया, यह सारे लोगों से मैं तेरे पक्ष में कई दिन पहले से ही प्रचार कर रहा हूं , तभी तो सारे तेरे पास दोड़े चले आ रहे है।'' 

''यह तो सही बात है, तुम्हारे बिना हमें कौन जानता है।''मुनिया ने घूंघट की ओट से कहा । 

''मुनिया अब थोड़े दिन बाद ही तुम सरपंच बन जाओगी । तुम्हें यह घूंघट नहीं करना चाहिए। खासकर मेरे सामने किस बात का घूंघट । मुझमें और तुझमें अब क्या दूरी ।''कहते कहते कुन्जी ने मुनिया का घूंघट अपने हाथो से हटा दिया । मुनिया का दमकता चेहरा और सुर्ख गालो ने कुन्जी के कामी मन को झकझोर कर रख दिया । कुन्जी ने कहा कि मैं दो घंटे बाद वापस आता हू जब तक राम प्रसाद भी आ जायेगा फिर आगे की तैयारी करते हैं । कहकर कुन्जी अपने गांव की ओर चल दिया । 

रामप्रसाद के आते ही मुनिया ने सारे दिन का घटनाक्रम सुनाया । वो बार बार कुन्जी की तारीफ के पुल बांध रही थी । रामप्रसाद भी इससे काफ़ी खुश था । एक ही दिन में दोनों चुनाव के रंग में पूरी तरह रंग गये थे । 

रात नौ बजे कुन्जी ब्यालू कर उनके पास आ गया । वे दोनों उसी की राह देख रहे थे। आते ही कुन्जी ने आगे की रणनीति का खुलासा किया -''चुनाव में जो सबसे ज्य़ादा वोट इधर उधर होते हैं वो रात के समय के चुनाव प्रचार से ही होते हैं । रामप्रसाद आज रात तुम भजनी को लेकर सुमेंरपुर में ही रहो और नज़र रखो की कौन कौन उम्मीदवार वहां किन किन से मिलता है । उसकी सारी खबर सुबह मुझे आकर दो ताकि हम उनका इलाज कर सकें ।''सुनते ही रामप्रसाद बिना देर किये सुमेंरपुर के लिये रवाना हो गया । उसके जाते ही मुनिया दूध का गिलास भर लाई और कुन्जी से कहने लगी -''मास्टरजी आज दिनभर तुमने बहुत दौड़ धूप की है । काफ़ी थक गये हो लो यह दूध पी लो ।''कुन्जी ने एक ही सांस में दूध का गिलास खाली कर दिया । थोड़ी देर इधर उधर की बातें होती रही फिर कुन्जी ने कहा-''मुनिया इसमें अब कोई शक नहीं कि तू सरपंच बनेगी। यह मेरी भी प्रतिष्ठा का सवाल है । तुम्हें भी अब थोड़ा बदलना पड़ेगा ।'' 

''मैं कुछ समझी नहीं मास्टरजी ।''मुनिया ने चूल्हे पर हाथ सेंकते हुए कहा । 

''इस पद को पाने के लिये कुछ दान भी करना पड़ता है । मैं जी जान लगाकर तुझे जितवाकर ही दम लूंगा । मुझे भी तो इसके बदले कुछ चाहिए।'' 

''बताओ मास्टरजी मैं तुम्हारे लिये क्या कर सकती हूं?''मुनिया ने भोलेपन से कहा । 

सुनते ही कुन्जी ने मुनिया को अपनी बांहों में दबोच लिया।एक पल तो मुनिया कुछ समझ ही नहीं पाई परन्तु दूसरे ही पल वह छटपटाते हुए बोली - ''यह क्या करते हो मास्टरजी?'' 

''अब यह दूरी मिटा ही दो मुनिया, जब मैं सब कुछ तुम्हारे लिये कर रहा हूं तो इतनी तो मेंहरबानी मुझपर भी कर दो ।''कहकर कुन्जी ने मुनिया को पूरी तरह दबोच लिया । लाचार मुनिया की स्थिति सांप छछुन्दर जैसी थी । यदि मना करती है तो चुनाव हारने का ड़र और हा करती है तो इज्ज़त,,,,,,,,। आख़िरकार वो विवश हो गई । कुन्जी ने उसकी इज्ज़त को तार तार कर दिया । 

''देख मुनिया राजनीति में यह सब चलता है , तभी तो तू आगे बढेगी ।''इस प्रकार की चिकनी चुपड़ी बात कर कुन्जी ने मुनिया का दिल साफ कर दिया। अब उसे भी कोई गिला शिकवा नहीं रहा था । अब तो आये दिन कुन्जी दिन में इधर उधर चुनाव प्रचार के बहाने जाता और जब भी मौका मिलता मुनिया के साथ रंगरेलिया मनाता । 

इधर जयगढ़ से एक चौथा उम्मीदवार भी मैंदान में कूद पड़ा , वो भी कुन्जी के परिवार से ही था । यह थी सुरजन की बहू कल्याणी । सुरजन इस चक्कर में था कि कोई अन्य उम्मीदवार मेरे पास आयेगा और मुझे बैठने के लिये कहेगा तो अच्छी खासी रकम ले लूंगा । यह सारी चाल कुन्जी की ही थी । उसी ने इसे खड़ा किया था ।कुन्जी प्रचार तो कल्याणी का करता था और मुनिया को झांसे में लेकर उसके साथ रंगरेलिया मनाता था । सुरजन ने भी जोर शोर से चुनाव प्रचार शुरू कर दिया । गांव में शाम होते ही उम्मीदवार अपने‑अपने समर्थकों को दारु की नदियों में डुबो देते थे । इसी आस में जब दिन भर प्रचार करने के बाद सुरजन के समर्थक उसके पास शराब के लिये आये तो सुरजन घर से गायब खो जाता। उन्होंने उसे सब जगह तलाश किया परन्तु वह कहीं नहीं मिला। समर्थकों ने सोचा शायद दूसरे गांव में चुनाव के लिये चले गये हों। ऐसा ही सोचकर उन्होंने उस दिन अपने पैसे से खरीदकर शराब पी ली। सुरजन जैसे ही शाम होती वो दूसरे उम्मीदवारों के घर जाकर बैठ जाता ताकि वहां उससे कोई शराब मागने न आये । आख़िरकार उसके कई समर्थक उससे नाराज़ हो दूसरे खेमों में चले गये। 

एक दिन मुनिया अपने पति के साथ शेरपुर में प्रचार करने जा रही थी । अचानक रास्ते में उनकी मुलाकात शेरपुर के ही चालीस वर्षीय चन्दू से हो गई ।चन्दू से मुनिया के पति ने अपने पक्ष में वोट की अपील की । चन्दू ने कहा मुझे मुनिया से अकेले में चुनाव के सम्बन्ध में कुछ बात करनी है । मुनिया और चन्दू सड़क के दूसरी ओर चले गये । चन्दू भी कुन्जी की तरह लम्पट किस्म का आदमी था । 

''मेरे पास 115 वोट हैं ,वो सारे वोट मेरी मुट्ठी में हैं ,मैं जहां कहूंगा वही जायेंगे। तुम चाहो तो यह सारे वोट तुम्हें दिलवा सकता हूं ।''घाघ चन्दू ने कहा । 

''मैं ज़िंदगी भर यह अहसान नहीं भूलूगी । इस बार मैं बड़ी उम्मीद लेकर चुनाव लड़ रही हूं।''मुनिया ने याचक स्वर में कहा । 

''देख मुनिया सीधी सी बात है इस हाथ ले और उस हाथ दे । बस एक रात अपने साथ गुजार लेने दो । जी जान लगा दूंगा तेरे लिये । चुनाव में तो यह सब कुछ चलता है ।''चन्दू ने गिध्द दृष्टि ड़ालते हुए कहा । 

''रात दस बजे के बाद मेरे घर आ जाना, रामप्रसाद उस समय दूसरे गांव प्रचार के लिये चला जायेगा । लेकिन देख ले विश्वासघात मत करना ।''मुनिया ने नजरे झुकाते हुए कहा । 

''कैसी बात करती हो मुनिया, मैं अपने इकलोते बेटे की कशम खाकर कहता हूं कभी तुमसे दूर नहीं जाऊंगा।''चन्दू ने चेहरे पर कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा । फिर दोनों अपने अपने रास्ते चले गये। 

चन्दू का गांव मुनियां के गांव से एक कोस की दूरी पर था । आज चन्दू का दिल बल्लियो उछल रहा था । शाम होते ही उसने अपने ढोर जल्दी से घर के अंदर बांधे ब्यालू की और अपनी पिछोड़ी ओढकर घर से निकल पड़ा । शीतकाल की अंतिम अवस्था थी और बसंत के आने में अभी समय था ।रात का सर्द धुधलका और ठंडी हवा ने मौसम में अज़ीब सनसनी फैला रखी थी । चन्दू सरसों के खेत से गुजरने वाली पगडंडी से सरपट चला जा रहा था । बीच‑बीच में उसे इक्के दुक्के लोग भी मिल जाते थे जो शायद चुनाव प्रचार के लिये जा रहे थे । मुनिया का घर गांव के आख़िरी छोर पर था । वहां पहुचने के लिये सारा गांव पार करना पड़ता था । चन्दू गांव में नहीं घुसा और खेतों से ही होकर गांव के आख़िरी छोर पर पहुंच गया । उस समय गांव में बिजली गुल थी सो सारा गांव अंधेरे के आगोश में सिमटा पड़ा था। दबे पांव चन्दू ने मुनिया की चोखट खड़काई । मुनिया चूल्हे पर बैठी थी ।उसका पति प्रचार के लिये गया हुआ था । दरवाजा मुनिया ने ही खोला और चन्दू अंदर चूल्हे पर जाकर बैठ गया । मुनिया ने फिर उसे आगाह किया -''देख मैं अपनी इज्ज़त भी दाव पर लगा रही हू, तू अब भी सोचले कहीं धोखा दे दे ।'' 

''नहीं, कभी दोखा नहीं दूंगा । मैं इस अग्नि की सौगंध खाकर कहता हूं।''चन्दू ने अपनी सांसो को संयत करते हुए कहा । कहते कहते चन्दू ने मुनिया को बांहों में भरकर अंदर के कमरे में ले गया जहां घुफ्फ अंधेरा था । यह लोग अभी बात ही कर रहे थे कि अचानक उसी वक्त़ कुन्जी मास्टर भी अपनी हवस मिटाने वहां पहुंच गया । दरवाजा खुला रह गया था सो वो सीधे अंदर कमरे में घुस आया । उसे आया देखकर चन्दू के हाथ पैर पएूलने लगे । अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था , वह अंदाजे से ही बाहर निकलकर भागने की पिएराक में था परन्तु अंधेरे में कुन्जी से जा टकराया। दोनों ही एक दूसरे से भयभीत हो आक्रमण करने लगे। कुन्जी ने अपने पैर से जूती निकाली और चन्दू के सिर और पीठ पर तड़ातड़ मारने लगा । चन्दू भी कहां पीछे रहने वाला था उसने भी लात और घूंसे बरसाना शुरू कर दिया । दोनों लड़ते लड़ते घर के बाहर आ गये , तभी अचानक बिजली आ गई । रास्ते में कुछ प्रचारी लोग भी आ जा रहे थे सो सभी ने यह तमासा देखा। कुन्जी ने ललकारते हुए कहा-''क्यों बे हरामी तेरी हिम्मत कैसे हुई इसके घर में घुसने की ?'' 

''तू कौन होता है इसका ? मैं वोटो के चक्कर में कुछ बात करने आया था ।''चन्दू ने हकलाते हुए कहा । शोर सुनकर काफ़ी लोग जमा हो गये । सभी पूछने लगे क्या बात है? परन्तु दोनों चुप थे ।दोनों ही कुकर्मी थे सो क्या कहते ? बात कुन्जी ने सभाली। कुछ नहीं मैं प्रचार के लिये रामप्रसाद को बुलाने आया था तो यह चोरी से इसके घर में घुसने की कोशिस कर रहा था । इसी बात पर तू‑तू मैं‑मैं हो गई । चन्दू वहां से खिसक लिया । इतने में मुनिया भी इधर आ गई । उसने आते ही कहा -''यहां क्या शोर शराबा मचा रखा है,मास्टरजी तुम्हें तो इस वक्त़ सुमेंरपुर में होना चाहिए ,वहां सभी विरोधी उम्मीदवार जुटे हुए है ।?'' 

''मैं वहीं जा रहा हूं, रामप्रसाद को बुलाने आया था ।''कुन्जी ने बात सभालते हुए कहा । 

इन चुनावो में उम्मीदवार अपने मतदाताओं को भावनात्मक रुप से भी ब्लेकमेल करने से नहीं चूकते ।इसमें फिर चाहे उनकी कितनी भी किरकिरी क्यों न हो? इसका ज्वलन्त उदाहरण कौशल्या का पति हरिराम था । कौशल्या भी इस बार चुनाव मैंदान में थी । हरिराम जीवन के आख़िरी वर्षों में आंखों की ज्योति से विहीन हो चुका था । उसने अब तक के जीवन काल में कई असफल चुनाव लड़े । हर बार उसे हार मिली तो उसने इनसे दूर रहना ही उचित समझा , मगर इस बार अपने दोनों बड़े बेटों के आगे उसकी एक न चली और चुनाव लड़ बैठे । इस गांव में दलित जाति के करीब पचास घर है सो उनके वोट भी काफ़ी तादाद में थे । हरिराम के दोनों बेटों ने रणनीति बनाई की पिताजी द्वारा एक भिखारी की भांति इनसे वोट मांगे जांए तो यह लोग जरूर पसीजेंगे और वोट हमें ही देगे । अगले दिन ऐसा ही किया , हरिराम ने लाख मना किया कि वे किसी के आगे झोली नहीं पसारेंगे मगर दोनों वेटे अपनी इज्ज़त की दुहाई देने लगे । कहने लगे यह चुनाव हमारी प्रतिन्नठा का प्रश्न है । आख़िरकार मन मारकर हरिराम अपने स्वाभिमान को खूंटी पर रखकर तैयार हो गया ।दोनों लड़के हरिराम को बांहों से पकड़े हुए थे । हरिराम झोली पसारे दलित मोहल्ले में अपनी अंधी आंखों में अश्रुजल लेकर वोट मांग रहा था । बीच‑बीच में दोनों लड़के जो भी दलित मिलता उसके पैर पकड़ लेते और तब तक नहीं छोड़ते जब तक वो उन्हें वोट का आश्वासन नहीं दे देता । पीछे‑पीछे उसके समर्थक भी चल रहे थे । उनमें से कुछ लोग कहते जाते कि -''भाईयो तुम हमारे भाई ही हो, हमने तुम्हें कभी अलग नहीं समझा । आज यह अंधा आदमी झोली बनाकर तुमसे भीख मांग रहा, इसे निराश मत करना । अंधे की मक्खी तो भगवान ही उड़ाता है ।''आज हर दलित राजा बलि से कम दिखाई नहीं दे रहा था और हरिराम बामन अवतार की तरह साम दाम सभी आजमा रहा था । 

कैसा अनोखा दृश्य था । ब्रिटिस सरकार से लेकर आज तक कितने ही कानून दलितों के लिये बने ,मगर सारे ही नाकाम रहे थे । सवर्णों ने हर बार उन कानुनो की धज्जियां उड़ाई थी । कभी भी दलितो से सीधे मुंह बात नहीं की , उन्हें अपने सामने कभी भी खाट पर बैठने नहीं दिया , हमेंशा उन्हें अछूत कहकर दुत्कारते रहे । आज वही सवर्ण झोली पसारे भिखारी की तरह उनके आगे मिमियां रहे थे । वाह रे लोकतन्त्र, जो काम बड़े बड़े कानून नहीं कर पाये आज वोट रूपी इस हथियार ने कर दिखाया । 

सभी उम्मीदवार यहां आते , मिन्नते करते और यह दलित भी उन्हें झूठा ही सही परन्तु आश्वासन दे देते । रात में इस मोहल्ले में शराब का अम्बार लग जाता । कई लोगों ने तो साल भर का कोटा इन चुनावो में जमा कर लिया था । कई उम्मीदवारों ने तो गांव में कच्ची शराब की भट्टी ही शुरू करवा दी थी । चुनावो की जितनी खुशी शराबियो को होती है शायद उतनी जीतने वाले उम्मीदवार को भी नहीं होती होगी । कोई हारे या जीते इससे दूर‑दूर तक इनका कोई सरोकार नहीं होता,इन्हे सिर्फ सरोकार होता है शराब से । जब यह लोग रात को पीने के लिये इकट्ठा होते है तो चुनाव के बजाय सिर्फ यही बातें करते है कि अमुक उम्मीदवार ने आज अंग्रेजी पिलाई, फलां उम्मीदवार ने आज शराब के साथ गोश्त को भी पैसे दिए । पीते पीते कई बार यह लोग आपस में लड़ पड़ते है । फिर कोई कम पिया हुआ शराबी उन्हें समझाता है -''हमें किसी के जीतने या हारने से क्या मतलब , जो भी आये सबसे कुछ न कुछ ऐंठो । यही राजनीति है। हमारी तरफ से कोऊ नृप होई हमें का हानि।''सभी शराबी ऐसी बातें सुनकर वाह वाह कर उठते । 

इन सबसे भिन्न शकुन्तला के पति हरिया की रणनीति सबसे अलग थी । उसने चारों गांवों में जमकर रुपये बांटे और ज्य़ादातर मतदाताओं को अपने साथ मिलाने में कामयाब रहा । इस बार वो जीत के लिए आश्वस्त था । इसके अलावा दूसरा कारण यह भी था कि इस बार जयगढ़ से तीन उम्मीदवार खड़े थे और वो सुमेंरपुर से अकेला ही खड़ा था । साथ ही हरिया की ससुराल भी जयगढ़ में ही थी , इसका भी उसे फ़ायदा मिलना निश्चित था। 

जयगढ़ के चरण सिंह में वो सारे गुण थे जो राजनीति में चाहिए ।शेरपुर और सुमेंरपुर में अधिकांश लोगों से उसके प्रगाढ रिश्ते थे । एक तरह से चरणसिंह उन पर आंख मींच कर भरोसा करता था । पिछले कई चुनावों में चरण सिंह के कहने पर इन दोनों गांवों से वोट भी अच्छे मिले थे जिसकी बदौलत धन सिंह सरपंच के चुनाव में सफल रहे थे । चरन सिंह और धन सिंह दोनों गहरे दोस्त थे , या दूसरे शब्दो में कहें तो धन सिंह का मुख्य राजनैतिक सलाहकार चरण सिंह ही था । धन सिंह यदि चन्द्रगुप्त था तो चरण सिंह उसका चाणक्य था। शराब के दोनों शौकीन थे क्योंकि पिछले कई वर्षों से गांव की राजनीति में उनका दखल था सो शराब का शौक अनिवार्य सा ही बन गया था । रोज़ चुनाव प्रचार के बाद जब धन सिंह के घर पर दिन भर के घटनाक्रम की परिचर्चा होती तो इसकी शुरूआत चरण सिंह ही करता । 

''शेरपुर और सुमेंरपुर में तो किसी को अपनी तरफ से प्रचार करने की जरूरत ही नहीं है।सब मेरी मुट्ठी में हैं । वहां के 90 प्रतिशत वोट अपने हैं । वहां से तो हम जीते ही पड़े है ।''कहते कहते हाथ में रखे जाम को खाली करने लगा। इतने में ही बीच में राजन्ती का पति रतन बोल पड़ा-''पर काका मुझे इस बार सुमेंरपुर में कुछ गड़बड़ लग रही है । हमारे इतने वोट नहीं है वहां ।''इस बात को सुनकर चरन सिह तैश में आ गया और कहने लगा- 

''अरे वाह रे बावड़ी बूच ,मेरे तो अंगुलियों पर रखे हैं सारे वोट ,ले अभी गिनवाता हूं, कम से कम शेरपुर से 200, सुमेंरपुर से 300, जयगढ़ से 600 और नवलपुरा से 250 वोट तो आज की तारीख़ में हमारे हैं। इनमें तो किसी प्रकार का रोड़ा ही नहीं हैं । अब कुल मिलाकर 1350 वोट हमारे पास है जबकि हार जीत तो 1000 वोट पर ही हो लेगी । हमें जीतने की अब कोई चिंता नहीं है, हम तो जीते ही पड़े है पर सवाल इस बात का है कि थोड़ा नवलपुरा में ओर जोर लगाओ फिर देखो बाकी सारे उम्मीदवारो की जमानत जब्त हो जायेगी ।''इस बात का समर्थन धन सिंह भी बड़े जोर से करता ओर फिर दोनों नया पैग बनाकर बात को आगे बढ़ाते। 

इन चुनावों में एक ही गांव में लोग कई कई धडों में बट जाते हैं । जो लोग दिन रात साथ साथ बैठकर हुक्का पीते थे , आज वे एक दूसरे से नजरे चुराते फिर रहे हैं । भूलवश: यदि वे आपस में बात भी करते हैं , तो केवल छल कपट और प्रपंच का मुखौटा पहने हुए ही बात करते हैं ।जहां तक वोट देने की बात आती है, वो वहीं खड़े खड़े ईमान धरम उठा जाते हैं और एक दूसरे को इस प्रकार आश्वस्त करते हैं मानो कृष्ण और सुदामा बातें कर रहे हों । 

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एक उम्मीदवार के पास जाकर दूसरे उम्मीदवार की बेबाक बुराई करते है । सामने वाले को यह यकीन दिलाने में कोई कशर नहीं छोड़ते कि वही उसका सर्वेसर्वा है । लेकिन इन लोगों का असली मन्तव्य उसकी रणनीति को समझना होता है। 

आख़िरकार चुनाव का वो दिन आ ही गया जिसका सब को बेसब्री से इंतजार था । लोग प्रात: 8 बजे से कतारो में लग गये । दिन के 12 बजे तक शकुन्तला के अलावा बाकी उम्मीदवारो के गांवों की कतारे समाप्त हो गई । शकुन्तला के गांव की पोलिंग शाम 5 बजे तक भारी भीड़ के साथ शुरू रही । 

मतगणना का परिणाम रात बारह बजे घोषित किया गया । कौशल्या और मुनिया दोनों की जमानत जब्त हो गइ थी । राजन्ती को 550 वोट मिले और वो दूसरे स्थान पर रही । आख़िरकार शकुन्तला की भारी बहुमत से जीत हुई । यह जीत एक तरह से धनबल की थी, लोकतन्त्र की सारी मर्यादाएं धनबल के सामने पराजित हो गई । 

परिणाम जानते ही मुनियां की आंखों में अंगारे दहकने लगे । उसने कुन्जी पर आंख मूंदकर विश्वास किया था तथा कुन्जी ने जीत के प्रति उसे इतना आश्वस्त कर रखा था कि उसे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि वो पराजित हो गई है ।जैसे ही वह मतगणना कक्ष से बाहर निकली , सामने ही कुन्जी सिगरेट के कश लगा रहा था और हारने वाले उम्मीदवारो की हंसी उड़ा रहा था । उसे देखकर मुनिया का खून खौल गया । मुनिया ने अपने पैर से चप्पल निकाली और सबके सामने कुन्जी मास्टर के ऊपर चप्पलो की बरसात शुरू कर दी । किसी को भी इस यह माज़रा समझ में नहीं आ रहा था । लोगों ने आकर बीच बचाव किया । बीच बचाव का फ़ायदा उठाकर कुन्जी जैसे ही वहां से भागा , तो मुनिया ने झपट्टा मारा और उसकी धोती का छोर उसके हाथों में आ गया । कुन्जी धोती को वहीं छोड़कर भीड़ का फ़ायदा उठाकर भाग गया । मुनिया की ड़बड़बाई आंखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी । अभी भी उसके हाथ में चप्पल थी और उसकी अंगारे उगलती आंखें भीड़ में कुन्जी को ढूंढ़ रही थीं । 

चुनाव तो कब का खत्म हो चुका था किन्तु मुनिया की आंखों में अभी भी बदहवासी और नफरत की चिंगारी सुलग रही थी


A Hindi Story by Vijay Singh Meena

समकालीन संदर्भों में मीडिया की परख

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समीक्षित पुस्तक: सीढ़ियां चढ़ता मीडिया 
लेखक: माधव हाड़ा 
प्रकाशक: आधार प्रकाशन, पंचकूला
पृष्ठ: 140
मूल्‍य - रु. 250/-

प्रकाशन वर्ष: 2012 

र्तमान समय में मीडिया, हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। सम्भवतः जीवन का कोई भी हिस्सा आज ऐसा नहीं जिसके विषय में मीडिया मौन हो। अनेक स्थानों पर यह भी कह दिया जाता है, कि अब मीडिया से बाहर कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ दशकों में तो मीडिया एक सामाजिक, राजनीतिक शक्ति के रूप उभर कर आया है। इसका प्रभाव समाज पर भी व्यापक रूप में पड़ा है। पर आज मीडिया पर भी सर्वातिशायी होने के आरोप लगने लगे हैं, यह माना जा रहा है कि मीडिया निरंकुश और दिशाहीन होता जा रहा है। इलैक्ट्राॅनिक मीडिया अपनी टी. आर. पी. और प्रिंट मीडिया रीडरशिप बढ़ाने के चक्क्र में निरंतर सामाजिक महत्त्व के मुद्दों की अनदेखी कर रहा है और सनसनीखेज़ पत्रकारिता मुख्यधारा की पत्रकारिता बन चुकी है। ऐसे समय में आलोचक माधव हाड़ा अपनी पुस्तक ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ के माध्यम से एक बेहद ज़रूरी हस्तक्षेप करते हैं। उनकी यह पुस्तक बारह अध्यायों में बंटी है। जिनमें भूमंडलीकरण के दौर में मीडिया के विभिन्न आयामों पर वे विचार करते हैं। पुस्तक का अंत कथाकार स्वयं प्रकाश से लिए गये एक विस्तृत साक्षात्कार से होता है। इस पुस्तक में माधव हाड़ा मीडिया और भूमंडलीकरण, मीडिया और नया मध्यवर्ग, मीडिया और स्त्री, मीडिया और साहित्य, मीडिया की भाषा जैसे गम्भीर विषयों का विश्लेषण करते हैं।

इस पुस्तक का पहला लेख है ‘ग्लोब के चाक पर’। इस लेख में माधव हाड़ा ग्लोबलाइज़ेशन की प्रक्रिया की पड़ताल करते हैं, तथा इस प्रक्रिया के पूरे विश्व पर हुए प्रभाव की व्यापक समीक्षा करते हैं। पूंजीवादी, मुक्त बाज़ार ग्लोबलाइजे़शन का आधार है। वैसे तो यह प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी में भी थी परंतु बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इस इस प्रक्रिया ने नये रूपों में पूरी दुनिया में अपने कदम रखे। तकनीक और संचार व्यवस्था में आये क्रांतिकारी परिवर्तनों के रथ पर चढ़ कर अवारा पूंजी देश-देशांतरों को जीतने के लिए निकल पड़ी। पूरे विश्व में लिबरलाइजे़शन, प्राइवेटाइज़ेशन और ग्लोबलाइजे़शन के मंत्र को समस्त दुनिया की गरीबी और असमानता को दूर करने वाला मंत्र बताया गया। पूंजीवादी यूरो-अमेरिकी वैश्विक वित्त संस्थानों और बड़े काॅरपोरेट्स ने दुनिया के तमाम विकासशील और पिछड़े देशों को यह अपने बाज़ारों को यूरो-अमेरिकी कम्पनियों के खोलने के लिए तैयार किया। 1980 के आस-पास यूरोप और अमेरिका में विश्व-व्यापार और मुद्रा परिवर्तन को सराकारों का भारी समर्थन मिला। सोवियत रूस के पतन के बाद तो जैसे पूंजीवाद ही एकमात्र विचारधारा रह गयी। माधव हाड़ा इस प्रक्रिया का कारण बताते हुए लिखते हैं, “बाज़ार के निर्णायक और सर्वोपरि हैसियत में आ जाने का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण ग्लोबल अर्थव्यवस्था में आया संरचनात्मक परिवर्तन है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड्स में 44 देशों में विश्व व्यापार औैर मुद्रा परिवर्तन के लिए जो समझौता हुआ, वो 1980 के आसपास ब्रिटेन और अमरीका में मुक्त बाज़ार समर्थक सराकारों के उदय और बाद में रूस में राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था के बिखर जाने से ढह गया। अब यहां की अर्थव्यवस्थाएं राज्य के नियंत्रण से मुक्त हो गयीं। यहां कम्पनियों को उत्पादन की लागत कम करने और निवेशकत्र्ताओं को अधिकतम लाभांश देने के लिए विश्व में कहीं भी जाने की छूट मिल गयी।”(वही-पृ़. 11) इस दौर में पूरी दुनिया में जैसे होड़ सी मच गयी थी कि कौन पहले अपने बाज़ार को दुनिया भरी की कम्पनियों के खोलता है। यह पूरा दौर जहां एक ओर एक नये आशावाद को लेकर आ रहा था वहीं दूसरी ओर सन् 1997 के आर्थिक संकट ने इस बात को भी उजागर कर दिया कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।

इस पूरे दौर में मीडिया ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। माधव हाड़ा लिखते हैं, “ ग्लोबलाइजे़शन के दूसरे चरण में जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अस्तित्त्व में आईं, उन्होंने इस मीडिया की ताकत को पूरी तरह से अपने व्यापारिक हितों के पोषण में झोंक दिया है।” (पृष्ठ. 11) इस दौर में मीडिया के बाज़ार में बेतहाशा वृद्धि हुई। इससे पूरी दुनिया में एकरूपीकरण की प्रक्रिया चल पड़ी। इसका असर देशों की संस्कृति पर भी हुआ। चूंकि ‘साहित्य भी एक संास्कृतिक उत्पाद है’(पृ. 12) अतः यह लाज़िमी था कि मीडिया के इस ग्लोबल रूप का प्रभाव साहित्य पर भी होता। मीडिया ने ग्लोबलाईज़ेशन के प्रारम्भिक दौर में अविकसित और अल्पविकसित देशों में यूरोप और अमेरिका के ग्लैमर को बेचा। एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि इन देशों में से अधिकांश कभी न कभी यूरोपीय दासता को झेल चुके थे। परंतु विदेशी दासता से भले ही वे राजनीतिक रूप से मुक्त हो चुके हों परंतु ये देश सांस्कृतिक रूप से अभी भी पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाये थे। उदाहरण के लिए भारत में जब सैटेलाइट चैनल शुरु हुए तो उन पर यूरो-अमेरिकी दबाव था। तो ऐसे समय में साहित्य पर किस प्रकार का प्रभाव होगा इस समझना भी आवश्यक हैै। माधव हाड़ा इसकी पड़ताल करते हुए लिखते हैं कि ‘साहित्य अभी भी हाशिए पर है या फिर सांस्कृतिक संक्रमण और एक रूपीकरण के साथ तालमेल बिठाने में पिछड़ रहा है। (पृ. 12 ) इसके कारणों की समीक्षा वास्तव में उदारवाद के समय की समीक्षा भी है। इसी समय में भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन आ रहे थे। भारतीय मध्यवर्ग एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में उभरकर आ रहा था। यह वर्ग अपनी बढ़ती हुई क्रय शक्ति के कारण विश्व पूंजीवाद के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ग बन चुका था। इसलिए हम देखते हैं कि वैश्विक पूंजीवाद ने अपने प्रसार के लिए मीडिया का भरपूर उपयोग किया। 

इस पूरी प्रक्रिया ने साहित्य को भी एक सांस्कृतिक उत्पाद के रूप बाज़ार के सामने प्रदर्शित कर दिया। इससे साहित्य का बाज़ार भी तैयार हुआ है। पूरी दुनिया में अंग्रेजी साहित्य तो बहुत अधिक धन कमा रहा है वहीं हिंदी में भी साहित्य को एक अन्य उपभोक्ता सामान की भांति बेचने की बात कही जा रही है। इसने एक तरफ तो हिंदी साहित्य के लिए बाज़ार तैयार कर दिया है वहीं दूसरी ओर हिंदी साहित्य को भी बाज़ार के लिए लुभावना बनाने के लिए कई प्रकार के लुभावने मसालेदार प्रयोग भी किये जा रहे हैं। वे लिखते हैं,‘ हिंदी की श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं में भी जाने-अनजाने मनोरंजन और उत्तेजना पैदा करने वाले तत्त्वों की मात्रा पिछले दस बारह सालों में बढ़ी है’ (पृ. 10) इसका कारण वे मानते हैं कि,‘ साहित्य में साधारण की जगह असाधारण का आग्रह बाज़ार की मांग के कारण निरंतर बढ़ रहा है।(पृ. 10) इस प्रकार यह साफ है ग्लोब के चाक पर न सिर्फ आर्थिक परिवर्तन आ रहे हैं बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक क्षेत्र में भी व्यापक बदलाव आ रहे हैं। इससे न केवल साहित्य के स्वरूप और विषयों में परिवर्तन आया है बल्कि भाषाओं पर भी संकट के बादल गहराते जा रहे हैं। भाषाओं का यह संकट एक प्रकार से विभिन्न विचारधाराओं के समाजांे के लिए भी संकट है। इसीलिए वे मानते हैं कि फिलहाल तो साहित्य हाशिए पर ही है। 

इस पुस्तक का अन्य लेख मीडिया और साहित्य की विविध विधाओं रिश्तों की पड़ताल करते हैं। जैसे ‘कहानी-मीडिया में आपसदारी’, ‘मीडिया की हुकूमत में कविता’ और किताब से कट्टी इसी प्रकार के लेख हैं। ‘कहानी-मीडिया में आपसदारी’ नामक लेख में माधव भारतीय मीडिया के विकास और समस्याओं से हमें रू-ब-रू तो कराते ही हैं, साथ ही साथ माधव हाड़ा मीडिया की तकनीक और प्रविधि में आए बदलाव के प्रभाव को साहित्य की तकनीक और प्रविधि पर भी दिखाते हैं। वे मानते हैं कि मीडिया विशेषतः इलैक्ट्राॅनिक मीडिया ने तीन प्रकार से कहानी को प्रभावित किया पहला ‘इसने अपनी नयी प्रविधि और चरित्र के अनुसार कहानी का सर्वथा नया रूप आविष्कृत किया है। दूसरे इसने इसने कुछ साहित्यिक कहानियों की, दृश्य-श्रव्य रूप देकर, पुनर्रचना की है। तीसरे इसने पारंपरिक साहित्यिक कहानी को अपने सरोकार, रचना प्रक्रिया और शिल्प तकनीक बदलने के लिए मजबूर किया है। पृष्ठ-20 यही नहीं जिस प्रकार से मीडिया ने पाठकों तक इतनी सूचनाएं पहुंचा दी हैं कि ऐसा लगता है कि हिंदी कहानी का पाठक अब पहले से अधिक सब कुछ जानता है। हाड़ा जी हिंदी कहानी में बढ़ते हुए मितकथन को इसी प्रवृति का परिणाम मानते हैं।

‘मीडिया की हुकूमत’ में कविता नामक लेख में माधव हाड़ा आज के समय मंे कविता की आवश्यकता और उसकी वर्तमान दशा पर टिप्पणी करते हैं। आजादी के बाद की हिंदी कविता ने अपने समय के इतिहास को, संघर्षों को और जनता की आकांक्षाओं को वाणाी दी। लगभग आठवें दशक तक हिंदी कविता अपने सामाजिक,राजनीतिक दायित्वों को निभाने में सफल रहती है परंतु नब्बे के दशक के बाद आयी कविता का दायरा सीमित होता चला गया।माधव हाड़ा इस बात की ओर भी संकेत करते हैं कि किस प्रकार लघु पत्रिकाओं का दायरा भी पिछले कुछ दशकों में सीमित हुआ है। यहां सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या साहित्य आज मात्र साहित्य की दुनिया तक सीमित होकर रह गया है? और क्या साहित्य से बाहर की दुनिया में साहित्य कट चुका है? वह मात्र अब पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग तक सीमित हो चुका है? हाड़ा तो और अधिक बढ़कर इस बात को लिखते हैं,‘‘ अब तक जो पढ़ा-लिखा अभिजात तबका कभी-कभी कला-विनोद के लिए ही सही कविता पढ़ लेता था अब पूरी तरह मास-मीडिया और मास-कल्चर का मुरीद है।’’(पृष्ठ 38) अब ऐसे में रास्ता क्या बचता है? साहित्य की विविध विधाओं के सामने उत्पन्न हुए अभूतपूर्व संकट का। साफ है कि साहित्य को मास मीडिया के व्यापक क्षेत्र में कदम रखना होगा। यह मान लेने से कि सारा का सारा मीडिया पूंजीवादी है तो उससे दूरी बनाकर रखना जरूरी होगा। हाड़ा जी मानते हैं कि ‘‘हमारे आस-पास अब ऐसा क्या रह गया है जो पूंजीवाद के दायरे में न आता हो।’’(पृष्ठ.39) इसीलिए वह मानते हैं कि कविता को अपने वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन करते हुए उसे ‘गेयता और लय’ हासिल करना होगा। साथ ही साथ अपने बुनियादी गुण-धर्म के साथ समझौता न करते हुए व्यापक समाज के साथ अपना रिश्ता गहरा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। तभी वह कविता मनुष्य के रंज,असमंजस, असुरक्षा और विकल्पहीनता की बिल्कुल नयी तस्वीर पेश करेगी।’’(पृ.41) माधव हाड़ा यहां तक तो ठीक कहते हैं कि कविता का रिश्ता समाज से, जनता से कट गया है, पर उसका एकमात्र कारण कविता का गद्यात्मक होना ही नहीं है। इसके अन्य कारण भी हैं। पहला, समाज की गति में आया महत्वपूर्ण परिवर्तन। दूसरा, पाॅपुलर,सस्ते मनोरंजन के सर्वातिशयी साधनों की सहज उपलब्धता, तीसरे जनता के बीच कविता की उपस्थिति को सुलभ बनाने वाले साधनों की कमी। सवाल उठता है कि जिस प्रकार का मीडिया उपलब्ध है उसमें सार्थक,गंभीर कविता या साहित्य की कितनी जगह उपलब्ध है? इस लेख की सीमा यह है कि इसमें हाड़ा जी कविता की दुर्बाेधता, कवियों की आत्ममुग्धता और मीडिया के लिए उनकी हिकारत को कविता की वर्तमान स्थिति के लिए दोषी ठहराते हैं पर वे प्रिंट मीडिया या संपूर्ण मीडिया जगत के चरित्र और उद्देश्य में आए व्यापक बदलावों को नजरअंदाज कर देते हैं। यहां यह सवाल भी उठना चाहिए कि क्या मीडिया टी.आर.पी. और रीडरशिप को बढ़ाने के लिए जिस प्रकार की प्रस्तुति को लेकर आ रहा है उसमें साहित्य विशेषकर कविता के लिए कितना स्थान बचा है?

‘किताब से कुट्टी’ नामक लेख में लेखक किताबों से कटे बचपन पर एक वाजिब चिंता व्यक्त करता है। टी.वी. के लिए दिया गया वाक्यांश ‘प्लग इन ड्रग’ इस संदर्भ में एकदम उचित है। इस ड्रग का परिणाम घातक होता जा रहा है। इससे बच्चों की रचनात्मकता और असीम कल्पनाशीलता प्रभावित होने लगी है। आज बच्चे जो कुछ भी टी.वी. परद देखते हंै उसे सही मान लेते हैं। टी.वी. ने जहां एक ओर बच्चों के लिए देश-दुनिया की जानकारी में वृद्धि की है वहीं बच्चों की दुनिया सीमित भी हो गयी है। लेखक ने माना है कि टी.वी. पूरे तौर पर कभी बच्चों का मित्र नहीं बन सकता जबकि किताबें हमेशा से ये काम करती आयी हैं।

समाजशास्त्री धीरूभाई शेठ ने अपने लेख ‘बाजारोन्मुख या सहभागी लोकतंत्र’ में लिखा है,‘‘ पूरी दुनिया के संसाधनों तक अपनी निर्बाध और एकाधिकारी पहुंच बनाए रखने के लिए विश्व पूंजीवादी व्यवस्था महानगरीय जीवन शैली को बढ़ावा देने में लगी रहती है।यह ऐसी राजनीतिक संस्कृति है, जिसमें उपभोक्तावाद नागरिकों पर हावी रहता है। नागरिकता को उपभोक्तावाद के मातहत बनाकर यह व्यवस्था अपनी सत्ता का आधार स्थापित करती है।’’( भारत का भूमंडलीकरण पृ. 110 सम्पादक अभय कुमार दुबे)एक सचेत नागरिक का उपभोक्तावाद के मातहत आना गंभीर चिंता का विषय है।‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ के कई लेख जैसे-‘ग्लोब के चाक पर’,‘मध्यवर्ग के ताबेदार’,‘बदलता नजरिया’,‘यू हैव कम ए लांग वे बेबी’ इसी चिंता के परिचायक हैं। इनमें हाड़ा ग्लोबलाइजेशन के दौर में बदलते हुए मीडिया के स्वरूप पर विचार करते हैं। इस बदलाव को रेखांकित करते अपने लेख ‘मध्यवर्ग के ताबेदार’ में वे लिखते हैं,‘‘ यह वर्ग पहले की तरह दकियानूसी और जड़ होने की बजाए पर्याप्त शिक्षित,गतिशील और महत्वाकांक्षी है।’’( पृ.47) यह खाता-पीता मध्यवर्ग ही आज के हिंदी दैनिकों का लक्ष्यवर्ग है। यदि आप अंग्रेजी दैनिकों पर निगाह डालें तो जिस प्रकार की चमक-दमक वहां मिलती है लगभग वैसी ही चमक-दमक आज के हिंदी दैनिकों में भी मिलने लगी है। अखबारों के काॅर्पोरेटाइजेशन का ही यह परिणाम है कि दैनिकों का उद्देश्य इस मध्यवर्ग को प्रसन्न रखना है। इस मध्यवर्ग के चरित्र की सही पहचान को हाड़ा जी कोका-कोला के उपाध्यक्ष के कथन के जरिए उजागर किया है-‘‘हमारी व्यूह-रचना में मध्यवर्ग जो सतह पर पाश्चात्य और मूल में भारतीय है, का हदय प्रतिबिम्बित होना चाहिए।’’(पृ.50) पर यह भारतीयता विचित्र है जिसमें आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर पश्चिमीकरण है और भारतीयता के नाम पर अंधविश्वास और रूढ़िवाद। यह सही है कि धार्मिक कर्मकांडों और रीति-रिवाजों के साथ मध्यवर्ग का रिश्ता अब पहले जैसा आत्मीय और सघन नहीं है...पुनरुत्थानवादी आंदोलनों में सक्रियता बढ़ी है।’’(पृ.100) ‘‘इन दोनों ही प्रवृत्तियों को आज का काॅरपोरेट अखबार भी बढ़ावा देता है।’’(पृ.76)

इस प्रकार की प्रवृत्ति को माधव हाड़ा इलैक्ट्रानिक मीडिया में भी रेखांकित करते हैं। वे सैटेलाइट चैनलों के उभार के समय में ‘कहानी घर-घर की’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे धारावाहिकों की मध्यवर्ग ़द्वारा अभूतपूर्व स्वीकृति पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं। ये सब धारावाहिक उदारीकरण के दौर में ‘सशक्त स्त्री’ की छवि को पोषित करने वाले पात्रों की कहानियां बताकर परोसे गये थे। इनमें कहानी को संयुक्त परिवार,प्राचीन भारतीय मूल्य व्यवस्था,शादी-विवाह और वर्ष भर चलने वाले तीज-त्यौहारों से इस प्रकार जोड़ा कि दर्शक वर्ष भर ही नहीं बल्कि कई वर्षों तक इनसे जुड़ा रह सकता था।

परंतु जिस प्रकार की सजी-धजी स्त्री छवि को इन धारावाहिकों ने गढ़ा वे अपने वैचारिक गढ़न में पूर्णरूपेण पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्ववाद की पोषक थीं। माधव हाड़ा लिखते हैं कि इन स्त्री चरित्रों की वापसी और प्रतिष्ठा के पीछे दरअसल मध्यवर्ग की विभक्त मनोदशा काम कर रही है। परंपरा इसके जीवन का हिस्सा नहीं है, लेकिन इसकी परंपरानिष्ठा अभी भी कायम है।अपने यथार्थ से भागकर यह परंपरा की शरण लेता है और बाजार इसी पलायनवृत्ति को भुना रहा है। इसके अतिरिक्त समाचार आधारित कार्यक्रमों में स्त्री एंकर का कार्य मात्र दिखावटी ही रहा है। इनका प्रयोग फैशन शोज़,फिल्म और सौंदर्य प्रतियोगिताओं के कार्यक्रमों की एक रूढ़ि जैसा बन गया है।

स्त्री छवि को एक खास ढांचे में ढालकर देखने की विवेचना माधव हाड़ा अपने लेख ‘मीडिया में मीरा का छवि निर्माण’ में करते हैं। भारतीय सिनेमा में अनेक सशक्त स्त्री चरित्रों को प्रस्तुत किया है। मीरा मध्यकालीन भारतीय साहित्य में विद्रोही और चुनौती देती स्त्री की सशक्त छवि हैं। उसका जिस प्रकार का उपयोग मीडिया में हुआ है वह मीरा की रोमानी छवि को ही स्थापित करता है। माधव हाड़ा पाॅपुलर मीडिया के क्षेत्र में मीरा की छवि को गढ़ा जाता हुआ देखते हैं। गीताप्रेस गोरखपुर से लेकर गुलज़ार साहब की मीरा तक वे प्राचीन हिंदू नारी की छवि और स्वतंत्रचेता रोमानी विद्रोही स्त्री छवि को पाठकों के सामने रख देते हैं। यहां पर ये संघर्ष वास्तविक नहीं। ये संघर्ष एक सीमा तक तो आगे बढ़ते हैं फिर उसके बाद पितृसत्तात्मक समाज का अंग बन जाते हैं। हाड़ा उचित ही लिखते हैं ‘‘धार्मिक साम्प्रदायिक चरित्र-आख्यानों और उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने मीरा का संत-भक्त रूप गढ़ने के लिए उसके विद्रोह और संघर्ष को अनदेखा कर दिया।...’’(पृष्ठ-110) और जब इसके बाद जब संत भक्त रूप प्रचलन में आ गया तो बाज़ार ने इसका अपने व्यावसायिक हितों के लिए प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया।

स्त्री अस्मिता और उसके रूपांतरण के साथ-साथ इक्कीसवीं सदी में मीडिया का प्रसार और विस्तार माधव हाड़ा के विश्लेषण का प्राथमिक क्षेत्र है। इस क्षेत्र का बाजार जिस प्रकार से बढ़ा है और जिस प्रकार के व्यावसायिक रूझान इस क्षेत्र में आए हैं, उनका एक गंभीर विश्लेषण किताब के कई लेखों में है। है। पुस्तक का अंतिम लेख ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ एक आधार लेख की भांति दिखाई देता है। लेखक का मानना है ‘‘गत सदी के अंतिम दशकों में हुए आर्थिक सुधारों और ग्लोबलाइज़ेशन के बाद तो इसके पंख लग गए हैं।’’(पृष्ठ 111) इलैक्ट्रानिक मीडिया ने सूचनाओं के प्रसार से न केवल विश्व भर में पूंजीवादी बाजार को बढ़ाया है बल्कि ‘‘ प्रभुत्वशाली देशों ने इसके माध्यम से अविकसित और विकासशील देशों में अपनी संस्कृति और जीवन-शैली को प्रचारित कर नए प्रकार के आर्थिक साम्राज्यवाद की नींव रखी।’’(पृष्ठ-112) इसके लिए शक्तिशाली देशों ने टेलिविजन ,इंटरनेट और सिनेमा का जमकर प्रयोग किया है, जिसका परिचय इस लेख में है।यह बात रेखांकित करने योग्य है कि भारत आज विश्व के बड़े काॅरपोरेट्स के लिए बड़े बाज़ार के रूप में उभरकर आया है। इसलिए नयी सूचना-प्रोैद्योगिकी का प्रयोग कर बाज़ार भारत में अपने पांव पसार रहा है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के प्रारंभ के बाद एक बड़ा परिवर्तन प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के स्वरूप में आया । यह परिवर्तन वैश्विक भी था और स्थानीय भी। इसने मात्र शहरी समाचार-पत्रों के स्वरूप को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि इसने कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्र के अखबारों को भी प्रभावित किया। पूरे तौर पर वैश्विक पूंजीवाद का इस पर प्रभाव देखा जा सकता है। कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्र की पत्रकारिता का बड़ा विशद् विश्लेषण माधव हाड़ा ने ‘गाँव कस्बों के अखबार’, बेगानी शादी में, तथा गांव कस्बों में दैनिक जैसे लेखों में किया है। 

मार्शल मैक्लुहान ने कहा था कि श्डमकपनउ पे जीम उंेेंहमश् तो इसका अर्थ मात्र अभिव्यक्ति के माध्यम भर से नहीं था, बल्कि इसका गहरा अर्थ उस भाषा से भी था जिसमें संदेश भेजे जा रहे हैं। मीडिया एक भाषा आधारित माध्यम है। अतः बाज़ार के लिए यह लाज़िमी हो जाता है कि वह माध्यम की भाषा को भी अपने अनुसार परिवर्तित करे। बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में मीडिया की भाषा बदल गयी है। ‘हिंदी की पीठ पर अंग्रेजी’ लेख में इसी सवाल को उठाते हुए माधव जी ने लिखा है‘‘ कोई भाषा अपने पांवों पर खड़ी होकर दूसरी भाषा का बोझ उठाए-यहां तक तो ठीक है, लेकिन इधर हिंदी दैनिकों के नगरीय परिशिष्टों में अंग्रेजी हिंदी की पीठ पर सवार है। उसके बोझ से हिंदी का अपना बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है। (पृष्ठ-77) अखबार को चलाने वाले यह मानते हैं कि अखबार आज की जनता की भाषा में निकाले जा रहे हैं परंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। जिस पाठक वर्ग को सम्बोधित कर ये अखबार हिंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, वह पाठक वर्ग तो पहले से ही अंग्रेजी पर फिदा है। अतः उसके लिए हिंग्रेजी का अखबार बेमानी हो जाता है। विचार और कृत्रिमता को बढ़ावा देने वाले इन अखबारों का एक ही उद्देश्य है वह है बाज़ार की सेवा करते हुए विज्ञापनों के माध्यम से अपना मुनाफा बढ़ाना।

इस पूरी पुस्तक में माधव हाड़ा अनेक स्थानों पर मीडिया और साहित्य के रिश्ते की पड़ताल करते हैं। उनके द्वारा लिया गए वरिष्ठ कथाकार स्वयं प्रकाश के साक्षात्कार को इसी क्रम में देखा जा सकता है। इसमें स्वयं प्रकाश साहित्य और मीडिया, मीडिया और भूमंडलीय बाज़ार, भारतीय मध्यवर्ग और मीडिया, साहित्य और सिनेमा जैसे बड़े प्रश्नों पर अपनी राय रखते हैं। वे तकनीक और विज्ञान के प्रसार के साथ-साथ विकसित हो रहे पुनरुत्थानवाद की जटिलता में जाते हैं। एक तरफ तो यह स्वीकार करते हैं कि देश ही नहीं पूरी दुनिया में दक्षिणपंथी रुझान बढ़े हैं वहीं वे यह भी रेखांकित करते हैं कि जनता में विवेक भी आया है। माधव हाड़ा कहानी की तकनीक पर पड़े मीडिया के प्रभाव की विवेचना करते हुए बताते हैं कि आज की कहानी पर मीडिया का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ रहा है। स्वयं प्रकाश भी मीडिया ़़द्वारा साहित्य को दी जा रही चुनौती की बात स्वीकारते हैं।

माधव हाडा़ की यह पुस्तक वास्तव में एक बड़े वितान की पुस्तक है जिसमें मीडिया और समाज, मीडिया और साहित्य, मीडिया और भाषा, मीडिया और स्त्री, तथा मीडिया और संस्कृति के सवालों को बहुत ही गम्भीरता से उठायाहै। माधव हाड़ा बहुत ही बारीकी से इन क्षेत्रों के उन कोनों की भी खोज कर लेते हैं जिनमें अभी रोशनी पहुंचनी बाकी है। उनकी यह पुस्तक अनेक मायनों में मीडिया के अध्ययनकत्र्ताओं, शोधकत्र्ताओं तथा आम पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। 

समीक्षक: 
राकेश कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग
रामलाल आनंद महाविद्यालय
 दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

Seediyan Chadhata Media by Madhav Hada

विश्व हिंदी साहित्य परिषद् और आधुनिक साहित्य का तृतीय स्थापना दिवस समारोह

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हिंदी भवन / नई दिल्ली / 06-01-201.विश्व हिंदी साहित्य परिषद् एवं आधुनिक साहित्य पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में तृतीय स्थापना दिवस मनाया गया। स्थापना दिवस सह अलंकरण समारोह की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध पत्रकार व मीडिया कर्मी राहुल देव ने किया वही मुख्य अतिथि के रूप में प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती मृदुला सिन्हा ने किया। समारोह के विशिष्ठ अतिथि हरीश नवल थे। 

संगोष्ठी के विषय '"हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का परिदृश्य व भविष्य"का विषय प्रवर्तन करते आधुनिक साहित्य के संपादक आशीष कंधवे ने समस्त अतिथियों का स्वागत व आभार जताते हुये कहा कि "राष्ट्र को बचना हैं तो राष्ट्रभाषा हिंदी को बचाना होगा और इसका दायित्व हमें निभाना होगा।" 

मुख्य वक्ता पत्रकार महेश दर्पण ने देश के समस्त साहित्यिक पत्रिकाओं मे सामंजय होना जरूरी है. गौड़ टाइम्स के संपादक बी ए गौड़ ने साहित्य पत्रिकाओ मे भी देश मे व्याप्त भ्रष्टाचार मिटाने हेतु कार्य करना चाहिये। मारीसस से आये हिन्दी विद्वान राज हीरामन ने भारत के लोगो के गाँधी और हिन्दी को बचने पर विचार रखी वही विद्वान हरीश नवल ने हिन्दी शब्दों को ब्रम्हा नहीं वरन उसके अर्थ को ब्रह्म माना. उन्हने हिन्दी के ह्रदय के फ़लक को विस्तृत कर उसमे अन्य भाषाओं को पचाने का अनुरोध किया.उन्होने कहा कि साहित्यिक पत्रिकाएं अपनी अभिव्यक्ति में संप्रेषण आवश्यक है। मुख्य अतिथि मृदुला सिन्हा ने साहित्यिक पत्रिकाओं में लोक साहित्य को स्थान देने पर जोर दिया। उन्होंने भी कहा कि जिन भाषाओं के शब्द हमारे भाषा ने अपने लिये उसके प्रयोग से गुरेज नहीं करना चाहिये। अधय्क्षीय विचार रखते राहुलदेव जी ने हिन्दी भाषा भाषियो को कड़वी नसीहत दी। उन्होने कहा हिन्दी पत्रकारिता कमजोर हुई है. लोकमानस मे हिन्दी संकुचित हुई है. हिन्दी भाषा लगातार मर रही है लेकिन हम वेपरवाह है। आत्ममुग्धता मे अगर कोई जी रहा है तो वह है हिन्दी भाषी. उन्होने बतलाया कि धारा के साथ चलने वाला कुछ नहीं कर सकता। धारा के विपरीत चल के ही हिन्दी के साथ साथ अन्य भारतीय भाषाओं को बचाया जा सकता है. समारोह का मंच संचालन हरीश अरोड़ा ने कि और धन्यवाद विश्व हिंदी साहित्य परिषद् की महासचिव ममता गोयनका ने किया। 

साहित्य जगत के अनेक नामचीन हस्ताक्षर इस समारोह में शामिल हुए। परिचर्चा के पश्चात अलंकरण समारोह में वरिष्ठ कवि श्री अजित कुमार को "विश्व हिंदी साहित्य शिखर सम्मान", श्रीमती चित्र मुद्गल "विश्व हिंदी साहित्य शिखर सम्मान", श्री कमल किशोर गोयनका को "विश्व हिंदी साहित्य अन्वेषण सम्मान" ,श्री सुशिल सिद्दार्थ को "दीनानाथ मिश्र स्मृति सम्मान", श्री राज हीरामन को "विश्व हिंदी प्रवासी रचनाकार सम्मान" , श्री लालित्य ललित को "गोपाल सिंह नेपाली स्मृति सम्मान", श्री अनिल वर्मा मीत को "जानकी बल्लभ शास्त्री सम्मान", श्री महेंद्र प्रजापति को "आधुनिक साहित्य युवा पत्रकार सम्मान", श्री तिलक राज कटारिया को "भारत भूषण जैन स्मृति सम्मान", श्री नन्द लाल जोतवाणी को "विश्व हिंदी साहित्य सेवी सम्मान"सम्मानित किया गया। अलंकरण समारोह का सफल डॉ रवि शर्मा ने किया। 

ऋषभ देव शर्मा कृत ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ लोकार्पित

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हैदराबाद (8 जनवरी 2014)‘भारतीय भाषाओं में तेलुगु भाषा का भाषिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व है तथा तेलुगु साहित्य का हिंदी में बड़ी मात्रा में अनुवाद भी हो चुका है जो तेलुगु संस्कृति को निकट से जानने-समझने के लिए बहुत सहायक है.’ ये विचार अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉ. एम. वेंकटेश्वर ने यहाँ श्री त्यागराय गान सभा के प्रेक्षागृह में बिंदु आर्ट्स के तत्वावधान में संपन्न साहित्यिक समारोह में प्रो. ऋषभ देव शर्मा की समीक्षा पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ का लोकार्पण करते हुए प्रकट किए. मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए उन्होंने आगे कहा कि इस पुस्तक में तेलुगु साहित्य का विवेचन हिंदी में अनूदित पाठ के आधार पर किया गया है जो तेलुगु के प्रति लेखक की सहज संवेदना का प्रतीक है.

लोकार्पित पुस्तक की पहली प्रति को स्वीकार करते हुए केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत प्रमुख तेलुगु साहित्यकार प्रो. एन. गोपि ने कहा कि अन्नमाचार्य से लेकर आज तक के तेलुगु साहित्यकारों के रचनाकर्म पर हिंदी में प्रस्तुत यह समीक्षा कृति वास्तव में हिंदी और तेलुगु के मध्य एक नए स्नेह संबंध की शुरूआत है. उन्होंने आगे कहा कि इस पुस्तक को स्वीकार करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष है क्योंकि इससे हिंदी समाज का तेलुगु समाज के प्रति प्रेम प्रकट हो रहा है.

‘स्रवंति’ पत्रिका की सह-संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने लोकार्पित पुस्तक की समीक्षा करते हुए बताया कि इस पुस्तक में 36 निबंध और 1 विस्तृत शोधपत्र शामिल हैं जिनसे यह पता चलता है कि तेलुगु साहित्य ने अनुवाद के माध्यम से हिंदी के भाषा समाज को सामाजिक, सासंकृतिक, भाषिक और साहित्यिक स्तर पर निश्चित तौर पर समृद्ध किया है तथा भारत की सामासिक संस्कृति के विकास में उल्लेखनीय योगदान किया है. 

विश्व रिकार्डधारी डॉ. कलावेंकट दीक्षितुलु ने बतौर आत्मीय अतिथि ‘तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ’ के प्रकाशन को हिंदी-तेलुगु साहित्य की महत्वपूर्ण साझा घटना बताया और कहा कि इसके लिए तेलुगु साहित्य जगत कृतज्ञ रहेगा.

समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रमुख तेलुगु साहित्यकार डॉ. सी. भवानी देवी ने लेखक ऋषभ देव शर्मा के कृतित्व की चर्चा करते हुए कहा कि उनकी यह पुस्तक हिंदी और तेलुगु दोनों भाषाओं के पाठकों के लिए तो उपयोगी है ही अनुवाद, भारतीय साहित्य और तुलनात्मक अध्ययन के शोधार्थियों और अध्येताओं के लिए भी समान रूप से लाभकारी है.

इस अवसर पर श्री साहिती प्रकाशन की ओर से वी. कृष्णा राव तथा बिंदु आर्ट्स की ओर से डॉ. सी. एस. आर. मूर्ति सहित तेलुगु और हिंदी की विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधियों, साहित्यकारों और शोधार्थियों ने विमोचित पुस्तक के लेखक ऋषभ देव शर्मा का सारस्वत सम्मान भी किया.

समन्वयक डॉ. एस. रघु ने सभी अतिथियों और आगंतुकों का आभार व्यक्त किया.                                                                                                                                                                प्रेषक:
- गुर्रमकोंडा नीरजा
सह संपादक ‘स्रवंति’
प्राध्यापक, उच्च शिक्षा और शोध संस्था
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
खैरताबाद, हैदराबाद – 500004
ईमेल – neerajagkonda@gmail.com

आगामी विशेषांक 'नवगीत का मूल्यबोध’- सम्पादक: डॉ राधेश्याम बंधु

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डॉ राधेश्याम बंधु

महोदय,आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि 'नवगीत के नये प्रतिमान’ पुस्तक के प्रकाशन से हिन्दी कविता की दुनिया में आधुनिक छान्दस काव्य नवगीत का दायरा और उसके सम्मान का कद अब काफी बड़ा हो गया है तथा नवगीत के प्रति पाठकों का आकर्षण भी काफी बढ़ा है । इसकी उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें नवगीत को अपेक्षित आकार और सोददेश्यता प्रदान करने वाले बारह मानकों को प्रस्तुत किया गया है जिसे हिन्दी कविता के समीक्षकों और विद्वानों ने एक ऐतिहासिक उपलब्धि की संज्ञा दी है । इससे जहां गद्यकविता के आधुनिकतावादियों द्वारा पैदा किये गये गीतकाव्य के रास्ते में भ्रान्तियों के सारे कुचक्र और अवरोध् तिरोहित हो गये हैं वहीं नवगीतकारों की रचनाशीलता की यथार्थवादी जमीन भी काफी पुख्ता हुर्इ है । इस दिशा में 'समग्र चेतना’ ने 1980 में अपना प्रवेशांक,‘नवगीत विशेषांक’ के रूप में 'नवगीत जनमानस के आर्इने में ’ शीर्षक से प्रकाशित किया था और उस की सफलता के बाद जो विशेषांकों का सिलसिला शुरू हुआ वह 2004 में प्रकाशित 'नवगीत और उसका युगबोध’ तक आते-आते नवगीत को पुनप्र्रतिषिठत करने के लक्ष्य को प्राप्त करने में भी उसे काफी सफलता मिली, किन्तु इस लक्ष्य को पाने में 'समग्र चेतना’ के सम्पादक मण्डल केा काफी मुश्किलों और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ा है । किन्तु इसके बाद भी न हम रुके और न झुके । हमें यहां यह स्वीकार करने में भी कोर्इ्र संकोच नहीं है कि इस संघर्ष में हमें जहां गीतकारों-नवगीतकारों का सहयोग और समर्थन मिला है वहीं विद्वानो और समीक्षकों का मार्गदर्शन तथा प्रोत्साहन भी समय-समय पर मिला है । डा. नामवर सिंह, डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, डा. मैनेजर पाण्डेय, डा. नित्यानन्द तिवारी, डा. शिवकुमार मिश्र, डा. वेदप्रकाश अमिताभ,डा. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर’,  डा. वशिष्ठ अनूप, डा. प्रेमशंकर, डा. प्रेमशंकर रघुवंशी, डा.श्रीराम परिहार, डा.विमल आदि के आलेखों और परिचर्चाओं ने मानकों को चिनिहत करने में हमारा मार्गदर्शन का काम किया हैं । हम इन सबके प्रति हृदय से आभार व्यक्त करते हैं । 

समकालीन कविता के महान समीक्षक डा. शिवकुमार मिश्र ने 'नवगीत और उसका युगबोध’ के सम्बन्ध् में अपने एक समीक्षात्मक आलेख में लिखा है कि ''अब नवगीत भावुक मन की मध्ययुगीन बोध् की चीज नहीं है बल्कि वह समय की सारी आक्रमकता तथा समय की सारी विसंगतियों, विद्रूपताओं से उसी तरह मुठभेड़ कर रहा है जिस तरह आधुनिक कही और मानी जाने वाली गद्यकविता कर रही है । नवगीत के रचनाशिल्प में भाषा, अलंकार, छंद आदि समूचे रचनाविधान में बदलाव आया है । आज यह जरूरी था कि नवगीत और उसकी परम्परा अपनी पूरी वस्तु निष्ठता तथा प्रामाणिकता के साथ सामने आती और यह काम वही कर सकता था जो नवगीत की पूरी परम्परा से परिचित हो । और यह काम पूरी निष्ठा के साथ डा. राधेश्याम बन्धु ने 'नवगीत और उसका युगबोध’ के माध्यम से पूरा करके दिखा दिया है ।('नवगीत और उसका युगबोध’ की समीक्षा 'सम्यक’ 2009 में डा. शिवकुमार मिश्र) 

इसी प्रकार 'समग्र चेतना’ का 2012 में 'नवगीत के नये प्रतिमान’ शीर्षक से एक और महत्वपूर्ण 'नवगीत विशेषांक’ पुन: प्रकाशित हुआ। इसमें डा. नामवर सिंह ने परिचर्चा के अन्तर्गत नवगीत के बारे में लिखा है कि 'नवगीत ने जनभावना और जनसमस्याओं को अपनी अन्तर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया है । इसलिए वह जनसंवाद-धर्मिता की कसौटी पर खरा उतर सका है । समय की चुनौती के अनुसार यदि गीत की अन्तर्वस्तु बदलती है तो उसका सुर और 

कहन की भंगिमा भी बदलती है । नवगीत इसी बदलाव का सुपरिणाम है । (‘नवगीत के नये प्रतिमान’ डा. नामवर सिंह पृष्ठ 108) 

इस पुस्तक को पांच खण्डों में विभक्त किया गया है । प्रथम खण्ड है 'सम्पादकीय खण्ड’ जिसके 100 पृष्ठों में नवगीत के बारह मानकों की विशद व्याख्या की गयी है । इसके प्रतिमानों के शीर्षक इस प्रकार हैं –(1)नवगीत की आलोचना और उसका प्रासंगिक सौन्दर्यबोध (2) नवगीत की वस्तुवादी वर्गीय चेतना और उसका यथार्थवाद (3) प्रयोगवाद और नवगीत के लोकधर्मी प्रयोग (4) इतिहासबोध और नवगीत का उदभव तथा विकास (5) नवगीत की लोकचेतना और वर्तमान समय की चुनौतियां (6) नवगीत के नये रूप और वस्तु की प्रासंगिकता (7)नवगीत के छंद और लय की प्रयोजनशीलता (8) नवगीत की मुल्यान्वेषण की दृषिट और उसका समषिटवाद (9) नवगीत का वैज्ञानिक और वैशिवक युगबोध (10) नवगीत की सामाजिक चेतना और जनसंवादध्र्मिता (11)नवगीत की वैचारिक प्रतिबद्धता और जनचेतना (12) नवगीत 'जियो और जीने दों ’ अवधरणा का समर्थक । 

इसका दूसरा खण्ड है 'परिचर्चा खण्ड’, तीसरा खण्ड है 'समीक्षात्मक आलेख खण्ड’ , चौथा खण्ड है 

'नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर’ खण्ड और पांचवां खण्ड है 'नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ । 'नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर’ खण्ड में 72 नवगीतकारों के दो-दो नवगीत संक्षिप्त परिचय सहित और 'नवगीत के कुछ और हस्ताक्षर’ में 60 नवगीतकारों के एक -एक नवगीत परिचय सहित दिये गये हैं । 

डा. मैनेजर पाण्डेय ने नवगीत की विशेषताओ की चर्चा करते हुए अपनी परिचर्चा में कहा है कि ''आज नवगीत की पहली विशेषता है सहजता, दूसरी विशेषता है जनसंवादधर्मिता और तीसरी विशेषता है सम्प्रेषणीयता ! हिन्दी कविता में जिन दिनों कला और प्रयोग के नाम पर सिपर्फ काव्याभास और कविता के नाम पर विचित्रता, जटिलता और बौद्धिकता का प्रयोग हो रहा था, उन दिनों नवगीत में सहजता और जनसंवादधर्मिता का विकास 

करके नवगीतकारों ने हिन्दी कविता को पाठकों से जोड़ने का काम किया । यही कारण है कि नवगीत अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने में सक्षम है । (‘नवगीत के नये प्रतिमान’ पृष्ठ 115 डा. मैनेजर पाण्डेय) 

हिन्दी कविता के विद्वानों के उपरोक्त वक्तव्य प्रकान्तर से नवगीत के प्रतिमानों की ओर ही संकेतित कर रहे हैं और यदि इन वक्तव्यों में संकेतित रचनाविधान के तत्व मानकों को आकार प्रदान करने में सहायक हैं तो इनकी सत्यता पर अब किसी को संशय नहीं होना चाहिए । अब सवाल यह उठता है कि यदि ये मानक नवगीत को अपेक्षित आकार प्रदान करने में सहायक हैं तो गीतकारो को अपनी रचनाधर्मिता में इन्हें आत्मसात करने में भी कोई अब हिचक नहीं होनी चाहिए । किन्तु अभी भी बहुत से ऐसे गीतकर हैं जो यथास्थितिवाद और आत्ममुग्धता के शिकार हैं । इसलिए गीत - नवगीत का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है । ऐसे में हम निराश होकर बैठ जांय, यह भी उचित नहीं है । हमें इस मुद्दे के औचित्य को स्थापित करने का निरन्तर प्रयास जारी रखना चाहिए । इसी उददेश्य से सम्पादक मण्डल ने 'समग्र चेतना’ का आगामी विशेषांक 'नवगीत का मूल्यबोध शीर्षक से प्रकाशित करने का निश्चय किया है । 

जब तक गीतकार-नवगीतकार इन मानको को अपनी रचना का हिस्सा नहीं बना लेते, तब तक हमारा यह प्रयास अबाध् रूप से जारी रहना चाहिए । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गीतकाव्य की रचनात्मकता का रास्ता अभी भी निरापद नहीं है । क्योंकि आधुनिकतावादी गद्यकविता के कवियों और समीक्षकों द्वारा गीतकाव्य की अब भी उपेक्षा की जा रही है । इसलिए नवगीत के विकास के नाम पर आज भी हमारी कठिनाइयां कम नहीं हुर्इ हैं । दिल्ली के बड़े - बड़े प्रकाशक भी नवगीत के प्रकाशन के सम्बन्ध् में कोई सहयोग या रियायत नहीं करते । प्रकाशन के लिए पूरी लागत लेने के बाद भी वे उतने मूल्य की पुस्तकें ही देते हैं । अब सवाल यह उठता है कि हम इस नवगीत की योजना में भाग लेने वाले अपने सैकड़ों कवियों -विद्वानों को निशुल्क लेखकीय प्रति कैसे दें ? किताब खरीदकर सैकड़ों कवियों को निशुल्क प्रति बितरित की जाय, तो न यह व्यावहारिक है और न आसान ही है । किन्तु इस जटिल समस्या का हल हम अपने सहयोगी ‘कोणार्क प्रकाशन’, दिल्ली की प्रचार-प्रसार की सहयोगी योजना के आधार पर निकाल पाये हैं और कवियो को निशुल्क प्रति देने में सफल भी हो सके हैं । साथ ही उन कवियों और विद्वानों के भी हम बहुत आभारी हैं जिन्होंने 'नवगीत के नये प्रतिमान’ की हमारी प्रचार-प्रसार की योजना में सहयोग देकर और नये पाठक बनाकर नवगीत के इस अभियान को बल प्रदान किया है । हमें विश्वास है कि आगे भी उनका इसी प्रकार सहयोग मिलता रहेगा । 

ज्यों-ज्यों समाज का परिवेश बदला है लोगों की सोच और प्राथमिकतायें भी बदली हैं, साथ ही कविता, कला और ललितकला के प्रति उनका नजरिया भी बदला है । आज महानगरवासी उपभोक्तावादी आधुनिकतावादी संस्कृति के प्रभाव के कारण इतने अवसरवादी हो गये है और अभिजात्य वर्ग के लोग भी कविता और गीतकाव्य के प्रति इतने उदासीन हो गये है कि वे अपने सांस्कृतिक और सामाजिक दायित्व को ही भूल गये है। किन्तु हमें निराश होने की जरूरत नहीं है। समाज में इस प्रकार के संवेदनाहीन कुछ लोग हमेशा रहे हैं। फिर भी हर युग में मनुष्य की आदिम प्रवृतितयों में गीतात्मक कविता की अनुगूंज बराबर महसूस की गयी हे। इसलिए बदलते समय के अनुरूप हमें 

नवगीत की नयी भाषा,मुहावरा,नये छंद,नये शिल्प और नयी यथार्थवादी अन्तर्वस्तु की तलाश जारी रखनी चाहिए, और कविता,गीत,कला के संरक्षण के इस दायित्व को हमें अपने कंधों पर उठाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए । तमाम प्रतिकूलताओं के बाद भी आज गीत - नवगीत लिखे जा रहे हैं और गीत-संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं । हमें मनुष्यता को बचाये रखने के लिए भी कला,कविता और गीतकाव्य को बचाये रखना है । यह सांस्कृतिक,सामाजिक, साहित्यियक सृजन के संरक्षण के दायित्व का सवाल है और इसका निर्वाह कोर्इ भी अकेले नहीं कर सकता । इसे हम आप सबको मिलकर ही सफल बनाना है । 

अत: आप से विनम्र निवेदन है कि 'समग्र चेतना’ के आगामी विशेषांक 'नवगीत का मूल्यबोध’ के लिए अपने पांच मौलिक नवगीत,परिचय, फोन नम्बर और पासपोर्ट की फोटो के साथ अबिलम्ब भेजने की कृपा करे । रचनायें प्रेषित करने के पहले निम्न प्रावधनों पर अवश्य ध्यान देने की भी कृपा करें- 

1. 'नवगीत का मूल्यबोध’ में इस बार नवगीत संचयन के दो ही खण्ड होंगे । पहला खण्ड है-'नवगीत की विरासत खण्ड’ और दूसरा है 'नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर खण्ड’ ।'नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर खण्ड’ में हर स्वीकृत नवगीतकार के दो नवगीत संक्षिप्त परिचय और फोटो के साथ प्रकाशित होंगे । 

2, नवगीत भेजने के पहले उसके भाषिक,शैलिपक,छांदसिक और यथार्थवादी अनतर्वस्तु की संरचना पर एक बार अवश्य गौर करलें जिससे सम्पादक मण्डल को रचनायें स्वीकृत करने में कोर्इ असुबिधा न हो । आप रचनायें प्रेषित करने के पहले एक बार 'नवगीत के नये प्रतिमान’ पुस्तक को नवगीत के अपेक्षित स्वरूप तथा मानकों को समझने के लिए अवश्य पढ़ने की कृपा करें । पुस्तक न हो तो 'नवगीत के नये प्रतिमान’ की प्रति 'कोणार्क प्रकाशन’, दिल्ली-53 के फोन 011 22914666 पर या 09868444666 पर सम्पर्क करके रियायती मूल्य पर मंगा सकते हैं । 

3. नवगीत के छंद का निर्वाह भी शुद्ध होना चाहिए । गतिभंग और रबड़छंद वाला नवगीत मान्य नहीं है । नवगीत तीन बन्द वाले और टंकित होने चाहिए । हर रचनाकार को प्रकाशनोंपरान्त एक प्रति निशुल्क मिलेगी । 

4. आप रचना के साथ अपना एक आश्वासन पत्र भी संलग्न करनें की कृपा करें कि आप नवगीत अभियान की इस प्रचार - प्रसार योजना से सहमत हैं और उसके समर्थक भी हैं । इससे इस नवगीत योजना की सफलता को सुनिशिचत करने में हमें सहायता मिलेगी । 

5. 'नवगीत का मूल्यबोध्’ में भाग लेने वाले कवि और विद्वान एक-एक नवगीत का पाठक भी बनाने का प्रयास करें । इस प्रकार इस योजना को सफल बनाने में जो कवि सक्रिय सहयोग देंगे, उन्हें सदैव एक स्थार्इ सदस्य एवं सहयोगी के रूप में प्राथमिकता और वरीयता दी जायेगी । 

मुझे पूरा विश्वास है कि 'नवगीत का मुल्यबोध्’ के इस सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक आयोजन में आप का सक्रिय और सकारात्मक सहयोग और समर्थन अवश्य प्राप्त होगा । आप अपने टंकित पांच नवगीत परिचय, फोन नम्बर, फोटो के साथ 30 अप्रैल 2014 तक अवश्य प्रेषित करने की कृपा करें । 

'नव वर्ष 2014 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ’

- डा. राधेश्याम बन्धु 
सम्पादक 'समग्र चेतना’

चर्चित रचनाकार और ‘विश्वगाथा’ के संपादक पंकज त्रिवेदी से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

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पंकज त्रिवेदी

अवनीश सिंह चौहान : पंकज जी, सबसे पहले मैं आपको बधाई देना चाहूँगा कि आपका निबंध संग्रह ‘झरोखा’ हाल ही में गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुआ है | आपको चाहने वाले हिन्दी के पाठकों के लिए यह सुखद सन्देश है | किन्तु गुजराती भाषा में भी आपने काफ़ी कुछ लिखा है | संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन-गुजराती), भीष्म साहनीनी श्रेष्ठ वार्ताओ (भीष्म साहनी की श्रेष्ठ कहानियाँ-हिंदी से गुजराती अनुवाद), अगनपथ (लघुउपन्यास-हिंदी), आगिया (जुगनू-रेखाचित्र संग्रह-गुजराती), दस्तख़त (सूक्तियाँ-गुजराती), माछलीघरमां मानवी (मछलीघर में मनुष्य-कहानी संग्रह-गुजराती), झाकळना बूँद (ओस के बूंद-लघुकथा संपादन-गुजराती), कथा विशेष (कहानी संग्रह संपादन गुजराती), सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के लिए आज़ादी की लड़ाई में सूचना देनेवाली उषा मेहता,अमेरिकन साहित्यकार नोर्मन मेलर और हिन्दी साहित्यकार भीष्म साहनी के साक्षात्कार पर आधारित संग्रह), मर्मवेध (निबंध संग्रह-गुजराती) तथा झरोखा (निबंध संग्रह-हिन्दी) आदि कृतियाँ काफ़ी चर्चित हुई है | गुजराती भाषा के पाठकों को ऐसा सुखद सन्देश पहले मिलना चाहिए था... क्या कारण रहा कि गुजरात साहित्य अकादमी और गुजराती साहित्य परिषद का ध्यान आपकी रचनाधर्मिता की ओर न जा सका? 

पंकज त्रिवेदी :अवनीश जी, पहले तो मैं ऋण स्वीकार करूँगा कि आप सभी का स्नेह-आशीर्वाद मुझे मिलता रहा है और मैं गुजराती से हिन्दी साहित्य में कार्य करते हुए अपनी छोटी-सी पहचान बना पाया हूँ | गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी का भी शुक्रगुजार हूँ कि मेरे निबंधो को परखा और सम्मान के लायक समझा |

गुजराती साहित्य में मैंने गद्य की सारी विधाओं में लेखन किया और मेरी पहचान भी गद्यकार की ही रही है | जहाँ तक गुजरात साहित्य अकादमी और सौ साल पुरानी संस्था गुजराती साहित्य परिषद की बात है, परिषद से गांधीजी और गोवर्धनराम त्रिपाठी जैसे महानुभाव जुड़े हुए थे, यह दोनों संस्थानों के द्वारा प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान दिया जाता है | वैसे पुरस्कारों का मामला तो ऐसा है कि वो कहाँ विवादस्पद नहीं रहा? इसे पानेवाला प्रत्येक गुजराती साहित्यकार अपने आप को धन्य समझने लगता है |

मेरा सौभाग्य समझिए या दुर्भाग्य कि गुजरात की दो प्रतिष्ठित संस्थाओं के पदाधिकारी के रूप में मेरे बड़े भाई साहित्यकार हर्षद त्रिवेदी संलग्न रहे | आपका यह सिद्धांत रहा है कि सार्वजनिक संस्थाओं का निजी मंच के रूप में उपयोग न हो | इसके चलते भी मैं इन संस्थाओं के पुरस्कार से दूर रहा | यह मेरे लिए आश्चर्य की बात है कि इतने वर्षों बाद गुजरात की हिन्दी साहित्य अकादमी ने मेरी रचना को पुरस्कृत किया | तात्पर्य यह कि मूल रचना में दम होना चाहिए | पुरस्कारों से रचना बड़ी नहीं होती | गुजरात के समर्थ साहित्यकार चंद्रकांत बक्शी को गुजरात की एक भी संस्था ने पुरस्कृत नहीं किया लेकिन उनके अवसान के बाद आज भी गुजरात की प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ और समाचार पत्र उनके लेखन का पुनर्मुद्रण कर रही हैं |

बंधुवर, बताईए प्रेमचंद का लेखन किस पुरस्कार का मोहताज़ रहा ! 

सच कहूँ तो किसी भी अवार्ड कमिटी को साहित्य के बदले साहित्यकार ही दिखाई देने लगें तो परखने की दृष्टि ही खत्म हो जाती है | ये बात सिर्फ साहित्य क्षेत्र तक सीमित नहीं है, शिक्षा और कला क्षेत्र में भी ज्यादातर यही होता है |

अवनीश सिंह चौहान : यदि परिवार का कोई सदस्य किसी साहित्यिक संस्थान में उच्च पदाधिकारी है भी तो क्या संस्थान के अन्य पदाधिकारियों का ये धर्म नहीं कि वे आपकी रचनाओं/ कृतियों को संज्ञान में लेवें और उन्हें समादृत/ पुरस्कृत करें?

पंकज त्रिवेदी : आपके इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए मुझे कईं सालों का मौन तोडना होगा | पहली बात यह है कि गुजराती साहित्य में राज्य के सभी जिलों में से मेरा सुरेंद्रनगर जिला सबसे ऊपर हैं | जिले के साहित्यिक प्रदान को अगर गिनती में न लिया जाएँ तो गुजराती साहित्य में कम से कम 40 प्रतिशत साहित्यिक मूल्य कम हो जाएगा | यह बहुत बड़ा सत्य है | मेरे बड़े भाई गुजराती साहित्य के अग्रिम साहित्यकार-संपादक हैं | पहले वो गुजराती साहित्य परिषद में पदाधिकारी थे और अब वे गुजरात साहित्य अकादमी के महामात्र (रजिस्ट्रार) है | हमारे परिवार में यह संस्कार है कि जहाँ भी अपने परिवार का कोई सदस्य कार्य करता हो, वहाँ से कोई निजी कार्य नहीं करेंगे |

जहाँ तक साहित्य परिषद में भाई की उपस्थिति थी तब तक की बात और थी | मगर परिषद छोड़कर उनके गुजराती साहित्य अकादमी में जाने के बाद परिषद के साथ मेरा पारिवारिक कोई संबंध नहीं रहा | गुजराती साहित्य परिषद के अवार्ड की बात तो दूर रही, उनके मुखपत्र ‘परब’ में भी मेरी रचनाओं को स्थान देना बंद कर दिया गया | ‘परब’ के वर्त्तमान संपादक को जब भी हमने रचनाएँ भेजीं, तो न उनका प्रत्युत्तर मिला और न ही रचनाएँ प्रकाशित हुईं| हालांकि पूर्व के संपादकों ने मेरी रचनाओं को जरूर स्थान दिया था | हमने सम्पादकश्री से फोन पर पूछा तो जवाब मिला कि मैं यहाँ ऑनररी कार्य करता हूँ | मैंने उन्हें पत्र लिखकर साफ़ कर दिया कि अगर आप साहित्य के बदले पैसों को महत्वपूर्ण मानते है तो आपको यह कार्य छोड़ देना चाहिए | परिषद के मुखपत्र ‘परब’ के लिए दूसरे संपादक भी मिल जाएंगे | फिर तो बड़े भाई के साथ साहित्य परिषद के मत-मतान्तर की बातें भी आने लगीं, मगर मैं सच से वाकिफ़ नहीं हूँ | हो सकता है कि उसी के चलते परिषद के पदाधिकारियों ने मुझे एक साहित्यकार की नज़रों से देखने के बजाय श्री हर्षद त्रिवेदी के भाई के रूप में ज्यादा देखना शुरू किया और दरकिनार कर दिया | हाँ, उन्होंने चुनाव के समय मुझे हमेशा याद किया है क्योंकि मैं परिषद का आजीवन सदस्य हूँ | और यही एक कारण भी है कि मैंने गुजराती साहित्य से हिन्दी की ओर रूख कर लिया | 

गुजरात में गुजराती, हिन्दी, संस्कृत, सिंधी, उर्दू आदि अकादमी भी हैं | सभी भाषाओं के मान्यवर साहित्यकार अवार्ड या श्रेष्ठ पुस्तक प्रकाशन चयनकर्ता के रूप में अलग होते हैं | गुजराती भाषा के पुस्तक के लिए मैंने कभी आवेदनपत्र नहीं दिया | क्यूंकि बड़े भाई वहाँ पदाधिकारी हैं | उनके पदभार संभालने से पूर्व मुखपत्र ‘शब्दसृष्टि’ के कईं संपादक रह चुके थे | जिन्होंने मेरी रचनाएँ प्रकाशित की थी | जितने सालों से भाई ने महामात्र (रजिस्ट्रार) और संपादक का पदभार संभाला है, मैंने कभी उन्हें एक भी रचना नहीं भेजी | हाँ, एक अपवाद जरुर है कि जब हिन्दी कथाकार भीष्म साहनी जी का देहावसान हुआ तब मेरे द्वारा उनकी अनुवाद की गई कहानी उन्होंने जरूर प्रकाशित की थी, क्यूंकि मैंने भीष्म जी का पूरा कहानी संग्रह गुजराती भाषा में दिया था | अब आप समझ सकते हैं कि गुजराती साहित्य परिषद, गुजराती साहित्य अकादमी या अन्य साहित्यिक संस्थान के पदाधिकारियों ने हमारी साहित्यिक यात्रा को संज्ञान में क्यूं नहीं लिया होगा? 

एक और बात स्पष्ट कर दूं कि जब आप किसी साहित्यिक संस्थान के पदाधिकारी बनते है तब आप सभी साहित्यकारों को संतुष्ट नहीं कर सकते | ऐसे में हो सकता है कि कुछ असंतुष्ट साहित्यकार दूसरे संस्थान में पदाधिकारी हों और वो अपना हिसाब चुकाने का मौका भी नहीं छोडते | मुझे अपने लेखन से निजानंद मिलता है वो कोई अवार्ड से कम नहीं | मैं अवार्ड का मोहताज नहीं और कुर्निश बजाना मेरा स्वभाव नहीं | अवार्ड किसी व्यक्ति को नहीं, उसकी साहित्यिक रचना को मिलता है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए | 

अवनीश सिंह चौहान :आपने बताया कि आपके भाई साहब साहित्यकार हैं | आपके पिताजी भी साहित्य से जुड़े रहे | यानी कि लेखन आपको विरासत में मिला है | ज़ाहिर है कि इन सबका प्रभाव आप पर पड़ा ही होगा? अपनी इस पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?

पंकज त्रिवेदी :प्रभाव घर के माहौल का है | मेरे पिताजी ने साहित्य सृजन जितना भी किया उतना प्रकाशित नहीं करवाया | वो गीत और गज़ल के स्वरूप को खूब समझते थे | वो गाँव के स्कूल में आचार्य पद पर थे | देशभक्ति उनकी रगों में थी, आजादी का संग्राम और गांधीयन विचारधारा में जीते थे | उन्होंने जीवनपर्यंत खादी पहनी | वो जब भी गीत-गज़ल लिखते, तो उसे गाते थे | उनकी लय आज भी हमारे कानों में गूंजती है | बड़े भाई चुपके से उनकी कविताओं को पढते थे और धीरे-धीरे खुद भी लिखने लगे | मगर मैं गुजराती में कभी कविता कर न सका | कारण यही था कि छन्द में बंधना मुझे रास न आया | मैंने सहज अभिव्यक्ति को ही स्वीकार किया | संवेदना तो छन्द और छन्दमुक्त रचनाओं में भी होती ही है | मैंने शुरू में कुछ चरित्र निबंध लिखे और उसे लघुकथा का नाम देकर गुजराती साहित्य के लघुकथा स्वरूप के जनक श्री मोहनलाल पटेल को भेज दिए | उन्होंने लिखा – ‘मुझे तुम्हारी एक उत्तम शक्ति की ओर निर्देश करने का मन है | तुम चरित्र लेखन में सिद्धहस्त कलाकार हो और अभी भी उच्च कोटि के ललित चरित्रों को दे सकते हो | अगर यही चरित्रों को तुम कहानी का रूप दे सको तो सोने में सुगंध मिल जाएगी | तुम्हारे चरित्रों को पढकर लगता है कि मडिया (सुप्रसिद्ध गुजराती साहित्यकार श्री चुनीलाल मडिया) के पास जो ‘आंचलिक’ (प्रादेशिक) घटनाओं को बहलाने की शक्ति थी और उनके पास लोक बोली का वैभव था उसका दर्शन तुम्हारे लेखन में भी नज़र आता है |’ 

मेरे पिताजी केवल कविता ही नहीं लिखते थे, उन्होंने लोककथाएं भी लिखी | यूँ कहें कि वो पद्य-गद्य को समान्तर लिखते थे | यही कारण था कि मेरे साहित्य सृजन का पौधा विक्सित होता रहा | पिताजी के कारण गुजराती भाषा के कईं बड़े साहित्यकारों का हमारे घर आना-जाना रहता था | इन्हीं मुलाकातों से उभरती चर्चाएं मेरे कानों को पवित्र करती हुई हृदयस्थ होती थी | 

अवनीश सिंह चौहान :पंकज जी, आपकी मातृभाषा गुजराती है लेकिन आपने गुजराती के साथ हिन्दी में भी लेखन किया है और कर रहे हैं | दोनों भाषाओं में संतुलन बनाये रखना आसान नहीं | हिंदी में लिखने की प्रेरणा कैसे मिली?

पंकज त्रिवेदी : बचपन में हिन्दी विषय में निबंध लिखने होते थे | तब मुझे इतनी रूचि नहीं थी | मगर मेरी माँ का जन्म वाराणसी में हुआ था | वो जब अपने बचपन की बातें करती थी तब हमारी नज़रों के सामने गंगाघाट, आरती, दिए और वाराणसी की गलियों का एक काल्पनिक दृश्य खड़ा हो जाता था | एक तो उनके कहने का अंदाज़ और उनकी भावनाओं का स्त्रोत आँखों से छलकता था | जो मेरे बाल मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ गया | पिताजी गुजराती थे | इस तरह दो संस्कृतिओं का मिलाप और दोनों परिवेश की स्थिति के अनुसार उभरती भावनाओं का साक्षात्कार मेरे बाल मानस को होता था | समझ से ज्यादा अनुभूति प्रबल थी क्यूंकि माँ के कहने में चित्रात्मकता थी | जो मुझे अपने गद्य-पद्य लेखन में भी मुखरित करने लगी | ‘प्रेरणा’ शब्द मेरी भावनाओं से मुझे अलग कर देता है | मैं हमेशा कहता हूँ कि किसी भी व्यक्ति से तुरंत प्रभावित होना ठीक नहीं है और सच में प्रभावित हुए है तो वहाँ अभाव का प्रश्न उठाना ठीक नहीं है | मैं मानता हूँ कि किसी एक व्यक्ति या परिवेश का प्रभाव नहीं होता मगर समय और जीवन के साथ जो माहौल बनता है उससे प्रेरित होकर साहित्यकार या कलाकार उभरता है | बल्कि ये कहूँगा कि अभिव्यक्ति के द्वारा रचनाकार खुद उस वक्त कौन-सी मनोदशा और कालखण्ड में है यह साफ़ झलकता है | 

अवनीश सिंह चौहान :आपने ‘नव्या’ ई-पत्रिका का संचालन एवं संपादन किया है | इसमें रचनाओं का संपादन कलात्मक, मनमोहक और स्तरीय रहता था| अब यह पत्रिका वेब पर दिखाई नहीं देती | पाठकों और साहित्यकारों के लिए यह किसी आघात से कम नहीं, क्या कारण रहा?

पंकज त्रिवेदी : अवनीश जी, आज का दौर इंटरनेट का है | अगर आप कागज़-कलम से ही चलेंगे तो ज़माने के साथ चल नहीं पाओगे | संपादन करने के लिए मेरा स्पष्ट हेतु यह है कि वर्त्तमान प्रवाह के साहित्य और साहित्यकारों से आप रूबरू हो सकते हैं | जो ग्रंथस्थ है उन्हें तो हमने समय के अभाव में या हमारी विद्वता प्रदर्शित करने के लिए अलमारी की शोभा में बिठा दिए हैं | ‘नव्या’ ई-पत्रिका मैंने दो साल चलाई | इंटरनेट पर वो काफ़ी चर्चित रही | मगर एक दिन ऐसा आया कि उसे हैकर्स के द्वारा हैक कर दी गई | मैं टेकनिकली इतना समर्थ नहीं हूँ | मैंने वेबसाईट कंपनी और दोस्तों की मदद से पुन: शुरू करने का प्रयास किया मगर सफलता न मिली | इस दौरान मैंने अपनी प्रिंट पत्रिका शुरू कर दी थी | सम्प्रति, साहित्य सृजन के साथ पत्रिका और पुस्तक प्रकाशन के कारण समय की कमी महसूस होने लगी है | फिलहाल तो वेबसाईट शुरू करने का कोई इरादा नहीं है मगर आने वाले वर्षों में ‘विश्वगाथा’ के नाम से जरूर शुरू करूँगा | 

अवनीश सिंह चौहान :आपने हिंदी से कहीं अधिक गुजराती में संपादन-लेखन किया है | वर्त्तमान में आप ‘विश्वगाथा’ हिन्दी त्रैमासिक प्रिंट पत्रिका का संपादन कर रहे हैं और जो वेब पत्रिका शुरू करने का इरादा है वह भी हिंदी में ही होगी | ये गुजराती में न होकर हिन्दी में क्यों ? 

पंकज त्रिवेदी : हाहाहा ... मैं भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करता हूँ | आपके पूर्व प्रश्नों में कहीं न कहीं गुजराती से हिन्दी भाषा की यात्रा का प्रत्युत्तर मिल जाता है | हिन्दी भाषा ने मुझे कवि और संपादक की पहचान दी है | हिन्दी के कारण मेरी सृजनात्मकता को प्रदेश से परदेश तक का खुला आसमान मिला है | इंटरनेट की भूमिका हम सब के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हुई है | कईं मान्यवर शुरू में इसे पसंद नहीं करते थे वो अब फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर दिखाई देने लगे है | यह ज्ञान और विज्ञान का संगम है |

अवनीश जी, भाषा तो केवल माध्यम है अभिव्यक्ति के लिए | आप इसे लेखन, संपादन या अन्य ललित कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करें | मैंने देखा कि मेरा लगाव बड़ी सहजता से हिन्दी की ओर बढता है, हिन्दीभाषियों के द्वारा मेरी रचनाओं की सादगी के बावजूद उस रचना की संवेदना पहुँच पाती है, उन्हें प्रभावित करती या प्रिय लगती है और प्रतिक्रियाँ बेशुमार आती हैं तो सोचा कि क्यूं न मैं अपनी पत्रिका हिन्दी में प्रकाशित करूँ? सबसे बड़ी बात यह है कि देश-विदेश के साहित्यकारों को एकत्रित करने का यह एक मंच होगा | इसलिए ‘विश्वगाथा’ त्रैमासिक प्रिंट पत्रिका प्रारम्भ की | गुजराती भाषी होने के बावजूद हिन्दी में भी साहित्य सेवा करने का मन है |

अवनीश सिंह चौहान : आपने भीष्म साहनी, अमरीकन लेखक नोर्मन मेलर, क्रांतिकारी उषा मेहता पर एक संयुक्त पुस्तक – ‘सामीप्य’ तैयार की थी | जिसमें इन तीनों के महत्वपूर्ण जीवनानुभवों को जाना-समझा जा सकता है | तीनों व्यक्तित्व अलग-अलग पृष्ठभूमि के होने के बावजूद इन्हे एक साथ रखा गया है | आखिर क्यों? 

पंकज त्रिवेदी :आपने बिलकुल सही कहा कि यह तीनों आलग-अलग पृष्ठभूमि के हैं | मुझे इस पर विस्तृत जवाब देना होगा | असल में यह तीनों महानुभावों के दीर्घ साक्षात्कार हिन्दी में मैंने पढ़े थे, जिसे मैंने गुजराती पाठकों के लिए अनूदित किया था | फिर तीनों को मिलाकर एक किताब करना ही मुनासिब समझा | इस योजना के बारे में आपको विस्तार से बताऊँ तो 1988 से मैंने गुजराती लेखन शुरू किया और 1990 से मेरे लेखन को नई उड़ान मिली | कईं गुजराती अखबारों में स्तंभ लेखन और पत्रिकाओं में मेरे आलेख, कहानियाँ और निबंध प्रकाशित होते रहते थे | एकबार भीष्म साहनी जी की कहानी ‘बबली’ मेरे हाथ में आई | तब मैं गुजराती ‘जनसत्ता’ में स्तंभ लिखता था | वो कहानी मुझे छू गई क्यूंकि उसमें ‘बबली’ का चरित्र मेरे पुराने चरित्र लेखन से सुसंगत था | यूँ कहें कि एक चरित्र चित्रण था | और मैंने उस कहानी का गुजराती अनुवाद ‘जनसत्ता’ को दिया | प्रकाशित होते ही उस कहानी के लिए कईं पाठकों के पत्र आए | मेरी मौलिक कहानियों का स्तंभ ‘माछलीघरमां मानवी’ के साथ मेरे द्वारा अनूदित कहानियाँ भी छपने लगी | दूसरा कारण था कि बलराज साहनी मेरे प्रिय अभिनेताओं में से एक रहे हैं | बलराज जी का गुजरात और मेरे शहर से पुराने ताल्लुकात थे | प्रिय होने का कारण उनका मंच से लगाव | भीष्म जी भी दिल्ली की नाट्य संस्थान ‘इप्टा’ (IPTA) से जुड़े हुए थे | जब मैंने भीष्म जी से उनकी कहानियों के अनुवाद की अनुमति माँगी तो शीघ्र ही लिखित अनुमति मिली | मेरे लिए यह बहुत खुशी की बात थी | फिर तो हम प्रति सप्ताह आपस में पोस्टकार्ड लिखते थे | मेरा दुर्भाग्य यह था कि जब मैं पहली बार दिल्ली उनसे मिलने गया ठीक उसी दिन उनकी पत्नी का देहांत हो गया था और दूसरी बार जाना हुआ तो वो खुद ..... ! 

उषा मेहता की आज़ादी के संग्राम में उद्घोषक के रूप में महत्त्वपूर्ण और रोचकता से भरपूर भूमिका थी | एक अर्थ में यह साक्षात्कार आज़ादी के इतिहास के पृष्ठों को सजाने के लिए पर्याप्त था | क्यूंकि गांधी विचार धारा के लोग अहिंसा के माध्यम से संघर्ष कर रहे थे | दूसरी ओर सुभाषचन्द्र, भगत सिंह, खुदीराम, चंद्रशेखर आदि क्रांतिकारी अपनी आक्रमकता से अंग्रेजों को चुनौती दे रहे थे | ऐसे माहौल में अंग्रेजों ने सरकारी रेडियो प्रसारण को अपने हाथ में ले लिया था | हमारे क्रांतिकारी पूरे देश में से लड़ रहे थे | ऐसे समय गांधी जी या अन्य नेताओं की योजनाओं की सूचना एवं सन्देश को त्वरित गाँव-गाँव पहुंचाने के लिए एक निजी रेडियो स्टेशन भूगर्भ में बनाया गया था, जिसे ‘हेम रेडियो’ नाम दिया गया था | यह कार्य इतना जोखिम भरा था कि ज़रा सी चूक हो जाएँ तो पूरा रेडियो स्टेशन अंग्रेजों के कब्जे में आ जाएँ और महत्त्वपूर्ण योजनाएं विफल हो जाएँ | ऐसे समय गुजराती महिला उषा मेहता ने अपनी जान जोखिम में डालकर हेम रेडियो का संचालन करते हुए प्रथम उद्घोषक के रूप में क्रांतिकारी की भूमिका निभाई थी |

अमरीकन साहित्यकार नोर्मन मेलर बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी थे | जो उपन्यासकार, पत्रकार, निबंधकार, नाटककार, फिल्म निर्माता, अभिनेता और राजनीतिक उम्मीदवार थे | उनका पहला उपन्यास 1948 में The Naked and the Dead था, जो द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी सैन्य सेवा पर ​​आधारित था | "The White Negro: Superficial Reflections on the Hipster"मूल रूप सेDissent 1957 के अंक में प्रकाशित नॉर्मन मेलर द्वारा एक 9000 शब्दों का निबंध है | उनके द्वारा जीवनी पर आधारित लेखन में पाब्लो पिकासो, मुहम्मद अली, गैरी गिलमोर, ली हार्वे ओसवाल्ड और मर्लिन मुनरो शामिल थे | नोर्मन मेलर का जीवन और प्रतिभा का समन्वय साक्षात्कार पढने वाले को प्रेरक और आकर्षित करने वाला था |

इसलिए मैंने सोचा कि विविध पृष्ठभूमि के तीन महान व्यक्तियों की पहचान गुजराती पाठकों तक पहुंचानी चाहिए | अनुवाद विविध पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बाद बहुत सारे पत्र मिले थे | जिसमें कईंयों का सुझाव था कि इसे एक किताब का रूप दीजिए और कुछ अन्य विभूतियों को भी जोड़ें | मगर उस वक्त मैं नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था तो संभव नहीं हो पाया और यह तीनों को लेकर किताब बनी ‘सामीप्य’ | 

अवनीश सिंह चौहान :नैतिक मूल्यों की वकालत कमोबेश सभी साहित्यकार करते रहे हैं | ऐसे में आप अपनी रचनाओं में मूल्य परक आशयों का प्रस्तुतीकरण कैसे करते हैं?

पंकज त्रिवेदी :मैं आपसे कुछ हद तक सहमत हूँ | मगर नैतिक मूल्यों की वकालत करना और जीना अलग बात है | न केवल साहित्यकारों बल्कि किसी भी प्रकार के मौलिक सृजन से जुड़े हुए लोगों के लिए यह चुनौतीपूर्ण शब्द हैं | असल में उनकी भावुकता और संवेदना भावकों को प्रभावित करती है | ऐसे में दोनों तरफ़ की भावुकता और संवेदनाओं को कहीं न कहीं अनछुए अहसासों से संतृप्ति मिलती है | दूसरी चीज है कि रचनाकार या कलाकार आख़िरकार एक इंसान भी है और इसी समाज में उसे जीना पडता है जो कल्पनाओं से हटकर वास्तविकता की कठोरता दिखाता है और ऐसे में उसे जूझना पडता है अपने विचारों से, समाज के नियमों से और भावनाओं से भी....

मेरी रचनाओं में मानवीय मूल्य और भाव-संवेदन को सहजता से प्रस्तुत होती मेरी अनुभूति है | ‘प्रेम’ के कईं आयाम-अर्थ है | रचनाकार के लिए इस शब्द के इर्दगिर्द रहना स्वाभाविक प्रक्रिया है | आप चाहें इसे करुणा, संवेदना या भावनाएँ ही कह दीजिए | व्यक्ति के माध्यम से व्यक्ति के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति और इरादे बदल जाते हैं | मैंने समाज के दायरे के मद्देनज़र जो जीवन को जिया या समझा है, मैंने जहाँ कहीं से विविध रूप में प्यार और नफ़रत को पाया है उसे ही अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति का स्वरूप दिया है | आमतौर से सभी यही करते हैं | ऐसा भी होगा कि कहीं समाज के ढाँचे को बदलने की ज़रूरत को वर्त्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में परखकर क्रान्ति की आवाज़ भी उठाई होगी | अपने विचार को अभिव्यक्त करने का सभी को अधिकार है मगर अपने विचारों को सकारात्मक सोच के साथ प्रस्तुत करना भी अनिवार्य है | सकारात्मक विचार चिरंजीव रहता है |

अवनीश सिंह चौहान :आपने हिन्दी में काफ़ी कविताएं लिखी हैं | आपका कविता संग्रह - ‘हाँ ! तुम ज़रूर आओगी’ शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है | ये कविता संग्रह नायिका को केंद्र में रखकर रचा गया है | जब कि आपने अन्य विषयों पर भी बखूबी कलम चलाई है | इस संग्रह को पहले प्रकाशित करने की क्या वजह रही ?

पंकज त्रिवेदी : मेरा प्रथम हिन्दी कविता संग्रह ‘हाँ ! तुम जरुर आओगी’ फरवरी 2014 में ही प्रकाशित हो जाएगा | हिन्दी भावकों ने मेरी कविताओं को स्वीकार किया है और हमेशा आग्रह करते रहे हैं कि जल्दी ही आपका कविता संग्रह आना चाहिए | बहुत जल्द दूसरा कविता संग्रह भी मिलेगा | इसके अलावा गुजराती निबंध संग्रह ‘होलो, बुलबुल अने आपणे’ (घू घू, बुलबुल और हम) भी आएगा | और बाद में मेरा हिन्दी कहानी संग्रह भी आपको मिलेगा | 

इस कविता संग्रह में सिर्फ नायिका प्रधान कविताएं ही नहीं है | इस कविता संग्रह के बारे में इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री नन्दल हितैषी ने जो लिखा है वो सुनिए – ‘पंकज त्रिवेदी ने अपने इस संग्रह में सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक समीकरणों की खोज की है लेकिन रागात्मक सन्दर्भ ही उनकी केन्द्रीयता रही है | नायिका के प्रति कवि का आकर्षण रचनाओं में निश्चय ही सिर चढ़कर बोलता है | पेड़ पौधे, फूल-पत्तियों पर भी उनकी दृष्टि हैं, वे उनसे भी वार्तालाप करते चलते हैं, उन्हें छूते भी हैं और सहलाते भी हैं, यही वे बिन्दु है, जहाँ रचनाकार की संवेदनाएँ, मनुष्य की थाती बनती है |’

निबंध लिखना जितना आसान दिखता है उतना होता नहीं | वो मेरी प्यारी विधा है | हिन्दी साहित्य लेखन में कविता मेरे पास एक नदी के बहाव सी सहज और तरल रूप में आ गई | निबंध के बारे में मैं अक्सर कहता हूँ कि जो ‘निर्बंध’ है वोही निबंध है | गुजराती साहित्य से हिन्दी साहित्य की यात्रा के दौरान मैंने खुद को एक ‘विहग’ के रूप में महसूस किया, ऐसा लगा कि मेरे लिए खुला आसमान है और मैं अपनी माटी-गाँव-शहर-परिवार से उठकर समष्टि को समदृष्टि से देख रहा हूँ और तब भी मेरे अंतस का तार मेरी ज़मीं से जुडा हुआ होता है | क्यूंकि मैं जानता हूँ–

मिट्टी से वास्ता है पुरखों की विरासत का
उसी मिट्टी से पैदा हुए उसी में दफ़न हूँ मैं

अवनीश सिंह चौहान :क्या गुजराती साहित्य और हिन्दी साहित्य का वैचारिक धरातल एक ही है या उनमें कोई अंतर दिखाई पडता है ?

पंकज त्रिवेदी : अवनीश जी, क्या गुजराती और क्या हिन्दी ? रचनाकार आखिर तो इंसान ही है न? दुनिया के किसी भी कोने में जाएंगे तो धरातल तो एक ही होगा | इंसानियत, धर्म, प्रेम, नफ़रत, ईर्ष्या, प्रकृति, प्राण और हमारे छोटे से स्वार्थ के बीच में व्यक्तिगत सोच | मगर जो सजग साहित्यकार है, परिपक्व है वो अपने धरातल पर रहकर भी विचार से ऊपर उठ सकता है | अगले प्रश्न के जवाब में मैंने कहा है, बिलकुल उसी प्रकार से रचनाकार ‘विहग’ होना चाहिए | मैंने भारत की सभी भाषाओं के वैचारिक धरातल में ज्यादा फर्क महसूस नहीं किया है मगर एक बात स्पष्ट कर दूं कि हमारे देश में जाति, धर्म, रीति-रिवाज़ और संस्कृति के अनुसार जो वैविध्य है उसका सौंदर्य देखते ही बनता है | उसका वर्णन अलग हो सकता है मगर भावनाएँ और संवेदना में कोई अंतर नहीं होता | सभी को देशप्रेम, परिवार, गाँव, खेत-खलिहान से प्यार होता है, वो चाहें गुजरात में हो या बंगाल या कर्नाटका में... | विविधता में एकता की बात हम करते हैं वोही हमारी वास्तविकता है | 

अवनीश सिंह चौहान : पंकज जी, मैंने आपको तो सबसे पहले कवि के रूप में देखा इंटरनेट पर | फेसबुक पर भी आपकी कविताएं ही ज्यादा पोस्ट होती है | किन्तु आपकी अधिकतर पुस्तकें गद्य से हैं | आपको किस विधा में लिखना ज्यादा अच्छा लगता है | और किस विधा (और भाषा की) पुस्तकें पढना आपको प्रिय है? किस पुस्तक को आपने विशेष माना ?

पंकज त्रिवेदी : 1988 से 2010 तक मैंने जो भी सृजन किया वो गुजराती गद्य में ही | मगर 1994 से मैं हिन्दी साहित्य के साथ अनुवाद के माध्यम से सक्रिय हो गया | बीच में कुछ साल हिन्दी में लिख नहीं पाया मगर पिछले चार-पाँच वर्षों से मैं हिन्दी के प्रति पूर्ण समर्पित हो गया हूँ | उसी के फलस्वरूप मेरा निबंध संग्रह ‘झरोखा’ और अब कविता संग्रह आपको मिला है | इंटरनेट-फेसबुक ने आज के समय में जिस तरह से अपनी पैठ जमाई है वो काबिले तारीफ़ है | हम सोच नहीं सकते उतना साहित्य और सन्दर्भ हमें एक पल में मिल जाता है |

मेरे लिए एक गुजराती भाषी होकर हिन्दी साहित्य में प्रवेश करना, वो भी अपने चंद शब्दों की गठरी लिए... मेरी उम्र गुज़र जाएँ तो भी मैं विशेषज्ञों और पाठकों तक नहीं पहुँच सकता था | इंटरनेट और सोशल मिडिया के कारण मेरे लिए यह आसान हो गया | सबसे बड़ी बात तो यह भी है कि अब हर कोई इंटरनेट के माध्यम से कहीं भी पहुँच पाता है मगर आप जिसके बलबूते पर खड़े होना चाहते हैं वो ताकत आपके अंदर कितनी है ? अगर सच में आप अंदर से समृद्ध है तो आपके लिए न भाषा और न प्रांतवाद की अडचनें आएंगी | जब आप कुछ हांसिल करने के लिए आते हैं तो आपको डर रहेगा कि मैं कितना सफल रहूँगा ? मगर आप अपने आनंद के साथ सबको साथ लेकर चलेंगे और किसी प्रकार का लालच नहीं होगा तो दुःख होने की गुंजाईश ही खत्म हो जाएगी |

पहले मुझे निबंध और कहानी लिखना विशेष पसंद था, अब हिन्दी साहित्य में भी कविताएं और निबंध प्रमुख हैं | गद्य लेखन के लिए आपके पास विशेष समय, धैर्य, समझ और चुस्तता होना अति आवश्यक है | मुझे सारी विधाएं प्रिय है मगर किसी भी रचना को शुरू करने से पहले मन की शांति होनी चाहिए | अपने विचारों को गढने की आवश्यकता तब होती है जब आप उस घटना या कथाबीज से आत्म साक्षात्कार नहीं कर पाएं हो | जबतक यह नहीं हो पाता तबतक आपको लिखना भी नहीं चाहिए | अगर पाठक के रूप में रचना और रचनाकार से आप पूर्ण रूप में साक्षात्कार करना चाहते हैं तो उनकी रचनाओं से उनके विचार और उनके व्यक्तित्व की पहचान की जा सकती है | मेरे लिए कोई एक पुस्तक विशेष नहीं है क्यूंकि सभी पुस्तकों ने मुझे कुछ न कुछ देकर समृद्ध किया है | मैं दो-चार बड़े रचनाकारों के नाम देकर अज्ञात रचनाकारों के विशेष प्रदाय को अनदेखा नहीं करना नहीं चाहता | एक छोटा सा विचार या घटना हमें पूरी कहानी लिखने को मजबूर कर दे या किसी का दर्द या प्रेम को महसूस करके हम कविता लिख दें तो हम किसे विशेष योग्यता देंगे? जिस वक्त जो पढने को मिला, हमें अच्छा लगा, उसे स्वीकार किया और दिलोंदिमाग में संजोकर अपने आप रह गया, फिर कहीं न कहीं वो अलग स्वरूप में हमारे लेखन में सहायक की भूमिका निभाएगा | 

अवनीश सिंह चौहान : आपका जन्म (11 मार्च 1963) गुजरात के सुरेंद्रनगर के पास खेराली गाँव में हुआ | गाँव और शहर के बीच की इस यात्रा को आप किस प्रकार से देखते हैं ? विशेषकर अपने लेखन में ?

पंकज त्रिवेदी :अवनीश जी, मेरा जन्म खेराली गाँव में हुआ, मगर मेरे पिताजी वहाँ से चार किलोमीटर दूर लीमली गाँव के स्कूल के आचार्य थे | मेरा बचपन वहाँ बीता | लीमली से सुरेंद्रनगर शहर में जाते समय मेरे अपने गाँव खेराली से ही गुज़रना पडता था | हमारे गाँव का तालाब इतना सुंदर है कि ऐसा लगे कि यहीं स्वर्ग   है | चारों तरफ़ अनगिनत बरगद के पेड़ की शाखा-प्रशाखाएँ फ़ैली हुई है, शायद ही किसी गाँव में ऐसा अदभूत नज़ारा देखने को मिले | आपने गाँव और शहर के बीच की यात्रा का ज़िक्र किया है तो मैं दोनों के बारे में अपनी कविता के माध्यम से ही प्रत्युत्तर दूँगा | कविताओं में शहर और गाँव के जनमानस का प्रतिबिम्ब नज़र  आएगा | पहले शहर में रहकर गाँव तक के सन्दर्भ की कविता की अनुभूति ‘आशीर्वाद’ में सुनिए –

खिडकी से आती हुई धूप 
मेरे अंदर तक उतर जाती है
और एक नई ताकत के साथ दिन भर की
ऊर्जा भर देती है मुझमें....
किताबों के पन्नों पर खिलती धूप से
काले अक्षर भी सुनहरी बन जाते हैं
मन समृद्धि से भर जाता है
अच्छे विचारों से उभरते शब्द
मेरे अंदर जी रहे इंसान को
आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते हैं सदा...
यही सुनहरी धूप मेरे गाँव के खेतों में
मिली थी मुझे लहलहाते पौधों को नया जीवन देती
ठंडी हवाओं की झप्पियों में डोलते हुए उन्होंने ही तो
मेरा स्वागत किया था ...
यही धूप
मेरे गाँव के तालाब में पानी पर नृत्य करते हुए
मेरी आँखों को चकाचौंध कर रही थी
मेरे भीतर दिव्य उजास फैलाती हुई
मेरी प्रसन्नता बढ़ाती हुई वही धूप आज भी
मुझ पर बरस रही है
जैसे कि मेरी मेहनतकश माँ का आशीर्वाद हो !

और अब शहर के सन्दर्भ में ‘वृद्धत्त्व’ कविता –

सड़क को पार करते हुए
वृद्ध के कानों से टकराई हुई
गाली आसपास के लोगों ने सुनी
सभी ने वृद्ध की ओर तिरस्कार की
नज़रों से देखा...
एक नौजवान अपनी कार का शीशा
चढ़ाते हुए अब भी गालियाँ बकता हुआ
घूरता हुआ एक्सीलेटर को गुस्से से
दबाता हुआ 
भीड़ को चीरता निकल गया
उसकी कार की ठंडक में बदबूदार
गरमाहट फ़ैल गई थी और
सड़क पर चले जाते उस वृद्ध के छूटे
पसीने को हवा के झोके ने ठंडक से
तरोताजा कर दिया और उनके पैर
धीरे-धीरे मज़बूत इरादों से चलने लगे !

अवनीश सिंह चौहान : वर्त्तमान में आप क्या लिख रहे हैं और क्या कुछ लिखने की आपकी योजना है ? 

पंकज त्रिवेदी : वर्त्तमान में कुछ कहानियों पर कार्य कर रहा हूँ | अभी भी बहुत कुछ सीखना है, समझना है और लिखना है मुझे | मैंने हमेशा ज़िंदगी की चुनौतियों का स्वीकार किया है और उससे लड़ते हुए अपने कदम आगे बढ़ाएँ है | मगर चाहता हूँ कि चलते-फिरते मेरे कदम रुक जाएं या लिखते-लिखते मेरी कलम थम जाएं | 

अवनीश सिंह चौहान :पंकज जी, आपसे बात करते हुए बहुत खुशी हुई | धन्यवाद |

पंकज त्रिवेदी :अवनीश जी, मैं भी बहुत आभारी हूँ | धन्यवाद

संपर्क : 
Pankaj Trivedi
Gokul park Society, 80 Feet Road,
Surendranagar- 363002 Gujarat
Mobile : 096625 14007

Dr Abnish Singh Chauhan
Mobile : 094560 11560


डॉ. अमरनाथ से डॉ. ब्रज मोहन सिंह की बातचीत

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प्रो॰ (डॉ.) अमरनाथ


चर्चित लेखक एवं शिक्षाविद डॉ अमरनाथ शर्मा का जन्म 1 अप्रैल 1954 को गोरखपुर जनपद (संप्रति महाराजगंज), उ. प्र. के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में हुआ था। शिक्षा: एम.ए., पीएच. डी.(हिन्दी) गोरखपुर विश्वविद्यालय सेभाषा : हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला। पारिवारिक परिचय: माता : स्व. फूला देवी शर्मा, पिता : स्व. पं. चंद्रिका शर्मा, पत्नी : श्रीमती सरोज शर्मा, संतान : हिमांशु , शीतांशु एवं शिप्रा शर्मा। प्रकाशित कृतियाँ : ‘हिन्दी जाति’, ‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’, ‘नारी का मुक्ति संघर्ष’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिन्तन’,‘समकालीन शोध के आयाम’(सं॰), ‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’(सं॰), ‘सदी के अंत में हिन्दी’(सं॰),‘बांसगांव की विभूतियाँ’(सं॰) आदि। ‘अपनी भाषा’ संस्था की पत्रिका ‘भाषा विमर्श’ का सन् 2000 से अद्यतन संपादन। सम्मान व पुरस्कार : साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा का ‘संपादक रत्न सम्मान’, भारतीय साहित्यकार संसद का ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान’, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद का ‘प्रवासी महाकवि हरिशंकर आदेश साहित्य चूड़ामणि सम्मान’, मित्र मंदिर कोलकाता द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन आदि। संप्रति : कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर, 'अपनी भाषा'के अध्यक्ष और भारतीय हिन्दी परिषद् के उपसभापति। संपर्क : ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091, फोन : 033-2321-2898, मो.: 09433009898, ई-मेल : amarnath.cu@gmail.com. 

प्रश्न - आप 1994 में कोलकाता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर के रूप में आए । उसके पहले आप कहां थे ? 
उत्तर- मेरी उच्चशिक्षा गोरखपुर विश्व्विद्यालय से हुई. डॉ. रामचंद्र तिवारी के निर्देशन में मैने ‘ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का परवर्ती हिंदी आलोचना पर प्रभाव ‘ विषय शोध कार्य किया. यहां आने के पहले मै पवित्रा डिग्री कॉलेज मानीराम, गोरखपुर, आचार्य नरेन्द्र देव पी.जी.कालेज बभनान, गोंडा और नेशनल पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज , बड़हलगंज, गोरखपुर मे अध्यापन कर चुका हूं. 

प्रश्न- आप जब कलकत्ता विश्व्विद्यालय में आए तब से लेकर आज तक के शैक्षणिक माहौल में क्या परिवर्तन महसूस करते हैं । 
उत्तर- मैं प्राध्यापक के रूप में यह महसूस करता हूँ कि पहले विश्वविद्यालय के छात्र – छात्राओं में अध्ययन की ललक होती थी । पहले के विद्यार्थियों के प्रश्न अच्छे और उत्साहित करने वाले होते थे । आज संख्या बढ़ी है पर अध्ययन की ललक घटी है । उनमें शिक्षकों के प्रति श्रद्धा, आदर के भाव में भी कमी आयी है । पहले हिंदी पढ़ने के लिए मध्यम वर्ग , संपन्न मारवाड़ी परिवार के लोग भी आते थे । आज साहित्य का अध्ययन करने वाले आर्थिक दृष्टि से पिछड़े ज्यादा हैं । साहित्य पढ़ने – पढ़ाने की रुचि भी घटी है । 

प्रश्न – अभी- अभी लहक के पिछले साक्षात्कार मे प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने बताया है कि कोलकाता वि.वि. में पाठ्यक्रम में बदलाव, सेमेस्टर प्रणाली लागू करवाने में उनकी सक्रिय और केंद्रीय भूमिका रही है मानो सारे परिवर्तनों के नियामक वे ही हैं । आप अपनी भूमिका को कैसे रेखांकित करेंगे । 
उत्तर – हमारे वि.वि. का परिवेश डेमोक्रेटिक है और कोई भी बड़ा परिवर्तन सबके सहयोग के बगैर नहीं हो सकता । मैं तीन बार विभाग का अध्यक्ष रह चुका हूँ । पहले टर्म वर्ष 1997-99 के कार्यकाल में भी एम.ए. और एम.फिल. के पाठ्यक्रम बदले गए थे और वर्ष 2009-10 के दौरान जब सेमेस्टर प्रणाली लागू हुई तब भी मैं ही विभागाध्यक्ष था । उसी अवधि में एम. फिल और पी-एच.डी. के नये नियम और पाठ्यक्रम बने और उन दोनों ही कमिटियों का संयोजक मैं ही हूँ-आज भी । मुझे इस बात का संतोष है कि मुझे प्रो. जगदीश्वर जी और प्रो. शंभुनाथ जी का ही नहीं बल्कि विभाग के सभी सहयोगियों का भरपूर सहयोग मिला । यदि विभागीय सहयोगियों का सह्योग न मिले तो अकेले अध्यक्ष भला क्या कर सकता है। मुझे खुशी है कि एक विभागाध्यक्ष के रूप में अथवा पी-एच.डी. और एम.फिल. समिति के संयोजक के रूप में मेरे कार्यकाल में हुई बैठकों में सारे प्रस्ताव बहुमत से नही बल्कि सर्वसम्मति से पारित हुए । 

प्रश्न – कोलकाता वि.वि. के प्राध्यापक अपने को जनवादी परंपरा का वाहक और प्रगतिशील लेखकों के समर्थक के रूप में अपना परिचय देते थे या छवि बनाए रखना चाह्ते थे । पर 2010 के बीए. ऑनर्स के पाठ्यक्रम में से यशपाल का झूठा- सच उपन्यास और मुक्तिबोध जैसे कवि की कविता को हटा दिया गया और विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास को रखा गया । यह कैसी जनधर्मिता है जो परंपरा से काटती है या कह सकते हैं कि चयन की प्रक्रिया चयनकर्ता की विचारधारा और मनोवृति को प्रकट करती है । 
उत्तर – यह यूजी बोर्ड ऑफ़ स्ट्डीज का मामला है। उस समय संभवतः शंभुनाथ जी उसके चेयरमैन थे। यह प्रसंग मुझे ठीक से याद नहीं है। इस कमिटि में और भी मेंबर होते हैं । हो सकता है मैं उस बैठक में न रहा हूँ । यशपाल को पढ़ाना अच्छी बात है । यशपाल पुराने और विनोद कुमार शुक्ल नए हैं । हमारे लिए दोनो महत्वपूर्ण हैं। किसी भी बड़े रचनाकार को हटाकर उसकी जगह दूसरे बड़े रचनाकार को रखा जा सकता है। अगर एक ही रचनाकार हमेशा कोर्स में बने रहेंगे तो पाठ्यक्रम बदलेगा कैसे? । 

प्रश्न – अगर आप कल्पना करें कि डॉ. शंभुनाथ’ हिंदी मेला’ , आप ‘ अपनी भाषा ‘ और जगदीश्वर जी फेस बुक पर से अपनी सक्रियता कम कर एक साथ कोलकाता को जगाने का काम करें तो कैसा रहेगा ? 
उत्तर- यह एक आदर्श कल्पना है और आदर्श कभी यथार्थ नहीं होता। बुद्धिजीवियों के बीच मतभेद होता है पर न्यूनतम संवाद भी होते रहना चाहिए और यह संवाद हमारे बीच है । हम तीनों के बीच तालमेल बना रहता है । हम एक दूसरे के मंच पर जाते हैं । अपनी भाषा का काम भाषा के मुद्दे से संबंधित है तो हिंदी मेला का उद्देश्य साहित्य है और नई पीढ़ी में साहित्य और संस्कृति के प्रति रुचि पैदा करना भी है । हमारा उद्देश्य कुछ अलग-अगल जरूर है पर हम सब एक ही पथ के पथिक हैं जो बेहतर समाज बनाने की दिशा में अपनी सीमा में रहते हुए प्रयास करते हैं । 

प्रश्न कहा जाता है कि आप सब कोलकाता के प्राध्यापक निजी कारणों, स्वार्थों से एक दूसरे की कमियों को उजागर नहीं करते हैं । कुछ लोग तो ये कह्ते हैं कि आप प्रोफेसर शंभुनाथ से डरते हैं । 
उत्तर – विश्वविद्यालय का शिक्षक अगर डरने लगा तो वह अध्यापन क्या करेगा। शंभुनाथ जी हमारे अग्रज हैं और मैं अपने से वरिष्ठों का सम्मान करना अपना नैतिक दायित्व समझता हूं। शंभुनाथ जी हमारा क्या बना या बिगाड़ लेंगे कि मैं उनसे डरूंगा.। रही बात एक दूसरे की कमियों को उजागर करने की तो ऐसे लोगों को हमारे आदर्श कवि तुलसी ने ‘खलों’ की कोटि में रखा है.। मेरी समक्ष में हमारी नजर दूसरों के गुणों पर पहले पड़नी चाहिए। हम अपने सहयोगियों की कमियां ही क्यों देखें- इसके लिए तो पूरा समाज चौकस है ही। हम साहित्य – संस्कृति से जुड़े हुए लोग हैं, शिक्षक हैं। हम आपस में लड़ेगे तो समाज हमसे क्या शिक्षा लेगा। हमें एक दूसरे का सहयोग करना चाहिए. 

प्रश्न- वामपंथी शासन के दौरान कोलकाता विश्वविद्यालय में एक समय ऐसा था कि लोग जनवादी लेखक संघ के मेंबर होना पसंद करते थे । क्या आप कोलकाता विश्व्विद्यालय में आने के पहले जनवादी लेखक संघ के सदस्य थे ? आपने क्या सोचकर यह लेखक संगठन ज्वाईन किया था ? 
उत्तर – मैं कोलकाता वि.वि. में आने के पहले से ही जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय समिति का सदस्य था । मैं जलेस के गठन के समय से ही उसका सदस्य था . उस समय मैं गोरखपुर के एक कालेज में अध्यापक था। जलेस के संस्थापकों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चंद्रबली सिंह हमारे यहां आए थे और दो दिन रुके थे उनसे लम्बी बाते हुई थी. मैं इसके पहले ही मार्क्सवाद से गहराई से परिचित हो चुका था और चेतना सांस्कृतिक मंच बनाकर उसके सचिव के रूप में सामाजिक-सांस्कृतिक कामों से जुड़ा हुआ था. चंद्रबलीसिह से प्रेरित होकर मैं जलेस का सदस्य बना. 1992 में जयपुर के राष्ट्रीय अधिवेशन में मुझे केंद्रीय समिति का सदस्य चुना गया। मैं कोलकाता 1994 में आया । यहां आने के कुछ दिन बाद से धीरे-धीरे जलेस से मेरा मोहभंग होने लगा. पटना में होने वाले 2003 के केंद्रीय अधिवेशन में जनवादी लेखक संघ के नाम को उर्दू में अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्नफीन जैसा नाम रखने का प्रस्ताव आया क्योकि यह संगठन हिन्दी- उर्दू लेखकों का संगठन है। मैंने इसका विरोध किया। मेरा तर्क था कि जनवादी लेखक संघ एक संगठन का नाम है , संज्ञा है. नाम नही बदला करता. यह तो वैसे ही है जैसे प्रेमचंद को मोहब्बतचंद कहे या लालकृष्ण अडवानी को सुर्ख स्याह अडवानी कहे. मेरा यह भी कहना था कि ऐसा कौन सा उर्दू लेखक है जो जनवादी लेखक संघ का अर्थ नहीं समझता और अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्नफीन का अर्थ समझ लेता है. हमारा उद्देश्य तो दोनो शैली के रचनाकारों को करीब लाने का होना चाहिए. क्या इस तरह अलग-अलग नाम रखने से हमारी दूरी कम होगी। जलेस हिंदी और उर्दू दोनों के लेखकों का एक सगठन है तो उसका दो नाम क्यों. कोई चाहे तो जलेस का नाम उर्दू लिपि में लिख सकता है । उस समय शिव कुमार मिश्र इसकी अध्यक्षता कर रहे थे । मैंने मंच से अपनी बात कही तो लोगों ने तालियां बजाकर मेरा समर्थन किया.। पर लोगों के समर्थन से ही सब कुछ नहीं होता है । उसके बाद केंद्रीय समिति से मेरा नाम काट दिया गया । विगत कुछ वर्षों से जलेस की गतिविधियों की मुझे जानकारी भी नहीं है। 

प्रश्न - बहुत लोग नौकरी पाने के लिए जनवादी लेखक सघ तथा सीपीएम में शामिल हुए थे और काम निकल जाने पर सारी क्रांतिकारिता भूल गए । आखिर वह कौन सी बात थी जहाँ आप जनवादी लेखक संघ में काम नहीं कर पाए या आप जो करना चाहते थे वह कर नहीं पा रहे थे । वह कौन सी मजबूरी थी जहाँ जनवादी लेखक संघ में सक्रिय रहते हुए भी आपको ‘ अपनी भाषा” संस्था का गठन करना पड़ा । 
उत्तर – ‘ अपनी भाषा” का गठन 1999 में हुआ और 2000 में उसका रजिस्ट्रेशन हो गया था। । बंगाल में आने के बाद यह अनुभव हुआ कि हिंदी और बंगला के रचनाकारों में अपेक्षित तालमेल नही है । वे एक मंच पर कम दिखायी देते हैं। मुझे लगा कि दोनों को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए । हमारे सामने बड़ी चुनौती अंग्रेजी की थी । अंग्रेजी सबके उपर हावी थी । वह साम्राज्यवाद की भाषा है, आतंक की भाषा है, अगर बंगला और अंग्रेजी दोनों जुड़कर काम करें तो उसके खिलाफ एक बड़ी ताकत बनेगी । इसी सोच के तहत ‘ अपनी भाषा ’ का गठन हुआ । हमने प्रतिवर्ष किसी एक रचनाकार को, जिसने हिंदी और किसी अन्य भारतीय भाषा को अपने अनुवाद कार्य तथा लेखन के माध्यम से सेतु बनाने का काम किया गया हो ‘ जस्टिस शारदा चरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान ‘ देना आरंभ किया. इसके अलावा हम प्रति वर्ष एक बार भाषा के किसी गंभीर सवाल पर राष्ट्रीय संगोष्ठी करते हैं । भाषा विमर्श पत्रिका भी निकालते हैं जिसके अबतक पंद्रह अंक निकल चुके हैं और इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसकी सात से आठ सौ प्रतियां छपती हैं और हम इसे नि : शुल्क वितरित करते हैं. भाषा के मुद्दे पर गंभीर संस्थाएँ बहुत कम हैं । 

प्रश्न - आप 1999 से ‘ अपनी भाषा ‘ से जुड़े हुए हैं और हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सफल संवाद सेतु बनाने का काम भी कर चुके हैं । अपनी भाषा की मूल प्रतिज्ञा अपनी- अपनी मातृभाषाओं का उत्थान और विकास है । यह देखा गया है कि आप जिस जनपद से आते हैं वहाँ की मातृभाषा भोजपुरी है । आपने भोजपुरी के उत्थान और विकास के लिए कौन - कौन सा काम किया है और अपनी भाषा की ओर से भोजपुरी के किस साहित्यकार को सम्मानित किया है या नहीं । 
उत्तर- देखिए, हिदी बोलियों के समुच्चय का नाम है हिन्दी में ब्रजभाषा के सूरदास भी हैं और राजस्थानी की मीरा भी, अवधी के तुलसीदास हैं तो भोजपुरी के कबीर भी। आजकल हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हिन्दी की इन बोलियों के चंद ठेकेदार इन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. इस तरह की मांग राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, हरियाणवी, कुमायूंनी-गढ़वाली, अंगिका और मगही तक के लिए हो चुकी है. फिर अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि उनको आठवीं अनुसूची में शामिल न किया जाय जब कि उनके पास हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल है. रामचरित मानस और सूरसागर जैसे ग्रंथ है. अगर ये बोलियाँ आठवीं अनुसूची में शामिल हो गयीं और बंगला, उड़िया, तमिल, तेलुगू की तरह स्वतंत्र भाषाएं हो गईं तो आने वाली जनगणना में इन्हें बोलने वाले हिन्दी भाषी नहीं गिने जाएंगे. फिर हमारे देश में हिन्दी बोलने वालों की संख्या अचानक घटकर बहुत कम हो जाएगी. और तब अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग करने वालों के पास अकाट्य तर्क होंगे. याद रखें हिदी इस देश की राज भाषा सिर्फ इसलिए है कि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से वह सबसे बड़ी भाषा है. उसकी संख्याबल की ताकत खत्म हो जाएगी तो उसके पास बचेगा क्या ? वह तो दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। सच तो यह है कि बोलियों को मान्यता देने अर्थात आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग एक साम्राज्यवादी साजिश है। हमें इस साजिश को समझनी चाहिए और इसका पर्दाफाश करना चाहिए. आप को पता होगा कि पिछले दिनों ज्ञान के सबसे बड़े सर्च इंजन विकीपीडिया ने दुनिया की सौ भाषाओं की एक सूची जारी की है जिसमें हिन्दी को चौथे स्थान पर ऱखा गया है. अबतक उसमें हिन्दी को दूसरे स्थान पर ऱखा जाता था। पहले स्थान पर चीनी थी. यह परिवर्तन इसलिए हुआ कि इस सूची में भोजपुरी, मगही, मैथिली, अवधी, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को रखा गया है और इस तरह इन्हें हिन्दी से अलग स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिया गया है. आज भी यदि हम इनके सामने अंकित संख्याओं को हिन्दी बोलने वालों की संख्या में जोड़ दें तो फिर हिन्दी दूसरे स्थान पर पहुंच जाएगी. खेद है कि हिन्दी के विरुद्ध इस अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र को हमारे हिन्दी के बुद्धिचीवी भी नहीं समक्ष रहे है. 

हमारे सामने सवाल यह है कि क्या भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में डाल देने और इस तरह उसे हिन्दी से अलग कर देने से वह समृद्ध होगी या हिन्दी के साथ रहकर उसकी ताकत बढ़ेगी. अगर उसको समृद्ध करने की सचमुच चिन्ता है तो उसमें साहित्य रचिए, उनमें फिल्में बनाइए, उसे पाठ्यक्रमों में रखिए । हिंदी से अलग कर देने से तो भोजपुरी और हिंदी दोनों कमजोर होगी । गोरखपुर विश्वविद्यलय में हिंदी के पाठ्यक्रम में ’पुरइन पात’ नाम का एक भोजपुरी काव्य संकलन रखा गया है, जिसमें गोरखनाथ से लेकर गोरख पांडेय तक की कविताएं संकलित हैं । यह स्वागतयोग्य कदम है. ऐसा और जगह भी होना चाहिए । जो बोलियों के रचनाकार हैं वे पुरस्कार की लालच में बोलियों को मान्यता देने की लड़ाई को हवा देते हैं. आठवीं अनुसूची में शामिल होना हिन्दी का घर बंटना है। हम घर बंटने के खिलाफ है। 

प्रश्न - आज देखा जा रहा है कि केन्द्र और राज्य सरकारें संविधान की अष्टम अनुसूची में आने वाली भाषायों को संरक्षण दे रही हैं और कुछ जातीय भाषाएँ धीरे- धीरे मर रही हैं तो ऐसी हालत में मरती हुई भाषायों को छोड-कर संरक्षित भाषायों के पक्ष में खड़ा होना वैसे ही है जैसे कोई निर्बल को छोड़कर सबल के पक्ष में खड़ा होता है या किसी बड़े लाभ के लिए अपने को भुलाकर गैरों के साथ में जाता है । प्रश्न यह भी उठता है कि जो अपनी मातृभाषा को प्यार नहीं करेगा, उसकी उन्नति के लिए ( निज भाषा उन्नति अहै --- ) कुछ त्याग नहीं करेगा , वह दूसरी भाषा को क्या प्यार करेगा , चाहे वह हिंदी ही क्यों न हो । 
उत्तर – आज दुनिया में हर 15 दिन पर एक भाषा मर रही है । रोज–रोज नयी भाषाएं पैदा नहीं होती । अगर हम बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में डाल दें तो बहुत सारी कठिनाइयाँ पैदा होंगी । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वहां छतीसगढ़ी को मान्यता मिली किन्तु वहाँ 94 बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें हालवी और सरगुजिया जैसी समृद्ध बोलिया भी है. इन बोलियों को बोलने वाले लोग छत्तीसगढ़ी के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं । क्योंकि उनकी उपेक्षा हुई. राजस्थान में राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग हो रही है किन्तु सचाई यह है कि राजस्थानी नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। बल्कि वहाँ की 74 में से सिर्फ 9 ( ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मालवी, शेखावटी, मारवाड़ी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है.। यह इतिहास के विरूद्ध जाने की कोशिश भी है । आज के ग्लोबलाइजेशन के युग में जहाँ अंग्रेजी का वर्चस्व तेजी से बढ़ रहा है इस देश में उसके विरूद्ध जो भाषा तनकर खड़ी हो सकती है वह हिंदी है । भोजपुरी के पास तो मानक गद्य भी नहीं है । उसमें मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कैसे होगी.। यह गांव के सीधे सादे लोगों को जाहिल और गंवार बनाए रखने की साजिश भी है. बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा रहे हैं ,खुद हिंदी की रोटी खा रहे हैं और बोलियों की लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि बोलियां बोलने वालों पर अपना वर्चस्व कायम रहे । मैथिली को आठवी अनुसूची में शामिल हुए लगभग 10 साल हो गए, बिहार के मिथिलांचल में कितने मैथिली माध्यम के विद्यालय खुले? 

प्रश्न 3 आप जैसे लोगों की चिंता है कि अगर हिंदी क्षेत्र की क्षेत्रीय भाषाओं को मान्यता देकर संविधान की अष्टम अनुसूची में रखा जाता है तो हिंदी को खतरा होगा और वह अपनी संवैधानिक मर्यादा तथा अपनी मजबूत स्थिति खो देगी । क्या आपको लगता है कि हिंदी ने राजभाषा का दर्जा पाकर अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है ? लगता है कि सारे हिंदी वाले एक यूटोपिया में जी रहे हैं । आज संघ लोक सेवा आयोग से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विस्थापित करने की तैयारी चल रही है । बेरोजगार छात्र जंतर – मंतर से लेकर राहुल गाँधी के आवास तक प्रदर्शन कर रहे हैं । चार राज्यों को छोड़ दें तो न्यायालयों में आज भी राजकाज की भाषा हिंदी या अन्य भारतीय भाषा न होकर अंग्रेजी है । इसके खिलाफ अगर आईआईटी, दिल्ली के पाठक जी जैसे लोग जंतर – मंतर पर धरना देते हैं तो हिंदी वाले गायब हो जाते हैं । ऐसे मुद्दों पर आपकी संस्था ‘ अपनी भाषा ‘ ने कभी कोलकाता में एक दिन का धरना या विरोध प्रदर्शन किया है या हिंदी की लड़ाई को बंद कमरे से निकालकर सड़कों पर ले जाने के बारे में कभी सोचा भी है क्या ? 
उत्तर –हिंदी राजभाषा बनने के नाते नहीं बल्कि अपनी सामासिकता, लचीलापन, सहजता और वैज्ञानिक लिपि के कारणा फैली है । राजभाषा बनने से हिंदी का नुकसान ज्यादा हुआ है और वह कृत्रिम और दुरूह बन गयी है । भारत की अन्य भाषाओं का सद्भाव उसने खोया है. दूसरी भाषाओं को बोलने वालों को लगता है कि हिन्दी के लिए ही सरकारी धन का इतना इस्तेमाल क्यों । मीडिया ने हिन्दी के प्रसार में बड़ी भूमिका निभायी है. यह उसकी कृपा नही, उसकी मजबूरी है, बाजार की मांग है । 

जहां तक अपनी भाषा का सड़कों पर उतरने और अपनी मांगों के लिए धरना देने की बात है । हमंने कभी धरना नहीं दिया है। धरना देने और सड़कों पर उतरने के लिए संख्या बल की जरूरत होती है. यह सब राजनीतिक दलों अथवा संगठनों के लिए ही संभव होता है. हम तो धारा के विरद्ध काम कर रहे हैं. सारा माहौल तो अंग्रेजी के पक्ष में है। पढ़-लिखे लोग भी वस्तुस्थिति को नहीं समझ पाते। बहुत से हिन्दी के बुद्धिजीवी और लेखक कन्फ्यूज्ड हैं. वे नहीं समझते कि गाँव के गरीब बच्चे तभी मुख्य धारा में आ सकेंगे जब माध्यम भाषा हिंदी, बंगला, ओड़िया, असमिया आदि होगी । हमने 2010 में दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में अपनी भाषा और उसकी बोलियों के अंतर्संबंध के मुद्दे पर एक ऐतिहासिक आयोजन किया था जिसमें देश भर से एक सौ से अधिक लेखक और बुद्धिजीवी उपस्थित थे और सभी अपने-अपने खर्चे पर आए थे. हमने कोलकाता, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, गया, लखनऊ, रायपुर आदि शहरों में प्रेस कांफरेंस करके इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है. इस विषय पर कई पत्रिकाओं को मैने हिन्दी के बुद्धिजीवियों से एक अपील भेजी थी जिसे तगभग डेढ़ दर्जन पत्रिकाओं ने विशेष महत्व देते हुए छापा था. ‘नवनीत’ ‘सबके दावेदार’, ‘अलाव’, ‘दस्तावेज’ ‘पाचवां स्तंभ’, ‘दो आबा’ ‘विश्वमुक्ति’,’आधुनिक साहित्य’ और ‘हंस’ जैसी पत्रिकाओं में से कुछ ने इस विषय पर विशेषांक निकाले और कुछ ने अपने संपादकीय में इसका उल्लेख किया. विभूतिनारायण राय ने म. गां. अं. हिन्दी विश्वविद्यालय बर्धा में हिन्दी का लोक नाम से तीन दिवसीय एक बड़ा आयोजन किया जिसमें मैं भी मौजूद था. इसके अलावा हमने पक्ष और विपक्ष के नेताओं तथा सभी बड़े राजनीतिक दलों के प्रमुखों तथा वरिष्ठ मंत्रियों को इस विषय पर पत्र लिखा है. हमने सड़क पर उतर कर जुलूस नहीं निकाला और नारे नहीं लगाए। क्योंकि मैं शिक्षक हूं और मेरी पहली जिम्मेदारी अध्यापन है। किन्तु हमारे प्रयासों के सकारात्मक परिणाम आने लगे हैं और तोग हकीकत को समझने लगे हैं. 

प्रश्न – डॉ. राम विलास शर्मा ने हिंदी जाति के भीतर बोलियों के अंतःसंबंध की बात तो की पर उर्दू को छोड़ दिया । बाद में आप जैसे या राम विलास शर्मा जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले लोगों ने भी हिंदी जाति के भीतर उर्दू की विरासत को नहीं समॆट पाए या हिंदी की जातीयता के दायरे को छोटा किया । मेरे गाँव के मुसलमान आज भी भोजपुरी में बात करते हैं । 
उत्तर – मैंने अपनी ‘ हिंदी जाति ‘ किताब में इसकी चर्चा की है । वास्तव में हिंदी और उर्दू दोनों अलग भाषाएं नहीं है । दिक्कत ये है कि हम चाहकर भी एक साथ नहीं हो सकते । वोट की राजनीति सामने आ रही है । उर्दू को मजहब से जोड़ दिया गया है । जो काम कभी अंग्रेज कर रहे थे वही काम आज हमारी सरकार कर रही है । मैंने एक समय कोलकाता वि,वि, में उर्दू साहित्य का इतिहास पाठ्यक्रम में रखा था पर बाद में उसे हटा दिया गया । पढ़ाने वाले ही नही मिल रहे थे. दुर्भाग्य है कि जो गालिब को पढ़ता है वह तुलसी या निराला को नहीं पढ़ता और जो निराला को पढ़ता है वह मीर को नहीं पढता । प्रेमचंद हिंदी- उर्दू दोनों में पढ़े जाते हैं । उर्दू के रचनाकार गोपीचंद नारंग मुसलमान नहीं हैं पर उर्दू के विद्वान हैं । फिराक गोरखपुरी तो हिन्दू थे किन्तु उनके नाम पर उर्दू साहित्य मं फिराक युग चलता है. हिंदी- उर्दू की साझी विरासत है । राजनीतिज्ञों ने इसे बाँटा है, पर जनता इस भेद को आज भी नहीं मानती- राजनीतिज्ञों की लाख साजिश के बावजूद.। आज हिंदी की कविताओं की तुलना में उर्दू की गजलें और शेर जनता में ज्यादा प्रचलित है, जनता कवि सम्मेलन और मुशायरा में एक साथ बैठती है । आज भी हिंदुस्तानी संगीत ही मैने सुना है , हिंदी या उर्दू संगीत नहीं । आज भी हिन्दी फिल्में ही होती हैं उर्दू फिल्में नही. जबकि 80 प्रतिशत फिल्मों की स्क्रिप्ट उर्दू होती है. मुझे आज तक कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं मिला जिसने उर्दू और हिन्दी को अलग-अलग भाषा कहा हो., दोनो के सर्वनाम एक, क्रियाएं एक, व्याकरण एक और बोलने वाले भी एक तो भाषा अलग कैसे हो सकती है. वैसे खुसरो से लेकर गालिब और मीर तक सबने अपनी भाषा को हिन्दवी या हिन्दी ही कहा है. यह सब भेद कृत्रिम है. 

प्रश्न .मेरा मानना ये है कि भारत का सच्चा बुद्धिजीवी वह है जो सत्ता और सरकार से समझौता नहीं करता और उसकी गलतियों को आगे बढ़कर दिखाता है। वह एक तरफ भष्टाचार को बेनकाब करता है तो दूसरी तरफ़ संप्रदायवादी शक्तियों को बेनकाब करने में पीछे नहीं रहता । (1) क्या इस कसौटी पर आप अपने को बुद्धिजीवी मानते हैं – हाँ या ना में जवाब दें । 
उत्तर- यह जनता तय करेगी । मैं अपने बारे में क्या बोलूँ । साहित्यकार को प्रतिपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए । साहित्य्कार सत्ता से जुड़ेगा तो जनता की आवाज नहीं बन पाएगा.। साहित्यकार को शोषित वर्ग के साथ खड़ा होना चाहिए । 

( 2) क्या इस कसौटी पर आपको कोलकाता में कोई बुद्धिजीवी नजर आता है? हाँ या ना में जवाब दें । 
बहुत से हैं। किसी का नाम ले सकता क्योंकि दूसरे के छूट जाने का डर है.। 

(3) अगर पूरे भारत से कोई दो नाम लेना हो तो वे कौन होंगे । 
उत्तर - मेधा पाटकर, अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल 

प्रश्न - गोधरा कांड से जुड़े नरेन्द्र मोदी के हाथों या बाबरी मस्जिद को ढहाने वाले भारतीय जनता पार्टी या उनके नेता लाल कृष्ण आडवाणी या कोयला घोटाले , कॉमनवेल्थ घोटाले के मंत्रियों के हाथों या वोट के समय मुस्लिम कार्ड खेलने वाले मौलाना बुखारी के हाथों मुजफ्फरनगर दंगा को न रोक पाने वाले सरकार के हाथों आप पुरस्कार लेना पसंद करेंगे -- हाँ या ना में जवाब दें । 
उत्तर- वे हमें क्यों पुरस्कार देंगे ? हमने इनके पक्ष में नहीं लिखा । हम पुरस्कार के लिए लिखते भी नही. 

प्रश्न- अगर सचिन तेंदुलकर दें तो 
उत्तर – सचिन तेन्दुलकर बहुत अच्छे इन्सान और खिलाड़ी हैं . मैं उनका बड़ा प्रशंसक हूं. किन्तु उनको भारत रत्न दिये जाने के पक्ष में नहीं. भारत रत्न का सम्मान किसी सेलिब्रिटी को नहीं, बल्कि समाज के हित लिए जीवन समर्पित करने वाले असाधारण व्यक्तित्व समाजसेवी या वैज्ञानिक को मिलना चाहिए. मेरी समझ में क्रिकेट से इस देश का नुकसान ही ज्यादा होता है. जिस समय क्रिकेट होता है इस देश के कार्यालयों में काम काज ठप पड़ जाता है. यह अमीरों का खेल है. इसके नाते भारत जैसे देश के गरीबों के लिए उपयोगी खेल पीछे छूटते जा रहे हैं. हमारे देश को हाकी, वालीबाल, कबड्डी, कुश्ती आदि खेल सूट करता है. जिसमें खर्च भी कम होता है, समय भी कम लगता है और शरीर के सभी अंगों की वर्जिश भी हो जाती है. हमें इन खेलों पर ध्यान देने की जरूरत है । 

प्रश्न – क्या आपकी अपनी भाषा धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक संस्था है ? 
उत्तर – हाँ 

प्रश्न – अभी- अभी यह सुना गया है कि आज 15 दिसम्बर , 2013 को कोलकाता के किसी संस्था द्वारा ‘ अपनी भाषा के सचिव डॉ. ऋषिकेश राय को उन लोगों के हाथों द्वारा और उनके साथ सम्मानित किया गया है जो 06 दिसम्बर , 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस में कारसेवा करने वाले, उनका उत्साह बढ़ानेवाले और उस कुकृत्य का मौन- मुखर समर्थन करने, कराने वाले की पंक्ति में थे और उससे भी बड़ी खतरनाक बात ये कि वे साम्प्रदायिक एवं कट्टरतावादी नरेन्द मोदी के गोधरा नरसंहार से संबंधित विचारधारा का समर्थन करते हैं । कोलकाता के वामपंथी कवि कहे जानेवाले पाषाण जैसे दिग्भ्रमित कागजी शेर कवि भी संभवतः शामिल हैं । इस संबंध में आपके क्या विचार हैं ? 
उत्तर- - ‘ अपनी भाषा ‘ का संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं है । डॉ. ऋषिकेश राय या किसी अन्य का किसी से पुरस्कार लेना उनके व्यक्तिगत निर्णय हैं । जहाँ तक बाबरी मस्जिद और गोधरा नरसंहार की बात है वह इतिहास का एक धब्बा है । इतिहास में ऐसी गलतियाँ होती हैं जिसे भुलाया नहीं जा सकता । इस देश में हमें सबको साथ लेकर चलना होगा । मुजफ्फरनगर की घटना तो अत्यंत शर्मनाक है । आजादी के बाद पहली बार दंगे गांवों में पहूंचे . वहां तो आप कर्फ्यू भी नही लगा सकते . गांवों के लोग घरों में कैद हो जाएंगे तो पशुओं को चारा कहां से मिलेगा. वहां के दंगों से प्रभावित लोगों का परिस्थ्तियों की कल्पना करके ही मैं विचलित हो जाता हूं. इन राजनेताओं में क्या इन्सानियत बिल्कुल नहीं होती?. 

प्रश्न – डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि कोलकाता में पुरुषों की तुलना में महिला रचनाकारों द्वारा लेखन ज्यादा हुआ है । आप कोलकाता के रचनाकारों के बारे में क्या सोचते हैं । हितेन्द्र पटेल, प्रफुल्ल कोलख्यान , डॉ’ ऋषिकेष राय , विमलेश त्रिपाठी आदि या अन्य लेखकों के रचना कर्म के बारे में आप की क्या राय है ? 
उत्तर- मुझे कोलकाता की रचनाशीलता सन्तोषजनक लगती है. लेखन में मैं पुरुष – स्त्री का भेद नहीं करता । आज स्त्री विमर्श जहां जा रहा है उसकी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता. बैसे भी जहाँ कृष्ण बिहारी मिश्र जैसे लेखक मौजूद हो वहाँ पुरुष लेखकों को कम आँकने वाली बात कैसे हो सकती है । कई लेखिकाओं के बराबर साहित्य तो अकेले जगदीश्वर जी लिख चुके हैं . उनकी रफ्तार का मुकाबला भला कौन सी लेखिका कर सकती है? हिंदी आलोचना मे डॉ. शंभुनाथ जी ने एक खास जगह बनायी है. हितेन्द्र पटेल में नए विमर्श की संभावनाऎँ हैं । डॉ. ऋषिकेष राय भी अध्ययनशील हैं और आलोचना में अच्छा काम कर रहे हैं । विमलेश त्रिपाठी की कविताए भी प्रभावित करती है । कविता के साथ दुखद स्थिति यह है कि कविता के जंगल में अच्छी कविताऎँ छूट जा रही हैं । कविता लिखना और छपना आसान हो गया है इसीलिए अच्छी कविताएं छाँटना और पढ़ना आसान नहीं है । हिंदी कविता जनता से कटती जा रही है । आज कवियों को इसके बारे में सोचना चाहिए । निराला, नागार्जुन की परंपरा खत्म हो रही है । गजल, नज्म आदि लोकप्रिय हैं । 

प्रश्नः एक अन्तिम सवाल, अभी कुछ दिन पहले आप के संपादन में ‘गांव’ नाम की एक और पत्रिका मैने देखी. भाषा विमर्श के रहते हुए इसे निकालने की क्या जरूरत आ पड़ी? 
उत्तर- दरअसल. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के एक गांव में हुआ था. मां और पिताजी के निधन के बाद गांव पर पिछले 22 वर्ष से कोई रहता नहीं है. मेरी ग्रेजुएशन तक की शिक्षा तो गांव में ही हुई थी. गांव की मेरी सम्पति मूझे विरासत में मिली है वह मेरे द्वारा अर्जित नही है इसलिए उसे बेचने का भी मेरा अधिकार नहीं है. गत वर्ष मैंने अपने माता पिता के नाम पर एक ट्रस्ट बनाया है. मैने तय किया कि गांव की मेरी सम्पत्ति गांव की प्रगति के लिए ही खर्च होगी. कुछ अपने पास से भी लगाते रहेंगे. विगत अक्टूबर में पहला आयोजन गांव पर हुआ अच्छा लगा. गांव के मेधावी बच्चों को सम्मान, गांव में खेल प्रतियोगिताए., नि:शुल्क चिकित्सा शिविर, लोक संगीत लोकरंग आदि का आयोजन हुआ. उसी अवसर पर गांव नामक पत्रिका के प्रवेशांक का भी लोकार्पण हुआ. इस पत्रिका में भाषा और साहित्य की उपस्थिति गौंण होगी. इसमें गांव से संबंधित समस्याओं पर लेख होंगे और गांव की प्रतिभाओं को आगे लाना इसका मुख्य उद्देश्य होगा. अभी तो पहला अंक आया है. मूल्यांकन तो आप लोगों को करना है.


An Interview with Dr Amarnath

कहानी: जी से दिया उतार - राजा सिंह

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राजाराम सिंह 

रोजमर्रा की जिंदगी में हम बहुत कुछ देखते हैं, बहुत कुछ सुनते और बहुत कुछ महसूस करते हैं। कई बार चुप रहते हैं तो कई बार भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं। कई बार सामान्य-सी लगने वाली घटनाएं असामान्य परिस्थितियों को जन्म देती हैं; तो कभी असामन्य घटनाएं सामान्य-सी प्रतीत होती हैं।  ऐसे ही खट्टे-मीठे अनुभवों को पिरोकर 'जी से दिया उतार'कहानी लिखी गयी है जिसमें परिवार की एक मार्मिक घटना को चित्रित किया गया हैं। लेखक हैं संवेदनशील कथाकार राजा सिंह जिनका जन्म2 अगस्त 1963को हुआ। जीव विज्ञान में परास्नातक, स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में शाखा प्रबंधक, लखनऊ (उ प्र) में निवास। संपर्क:एम-1285 सेक्टर-आई, एल.डी.ए. कालोनी, कानपुर रोड, लखनऊ - 226012, मो: 09415200724

ह नींद में था, फोन की घंटी बज रही थी। उसे देर से रात में नींद आई थी। आवाज हकीकत में आ रही है या सपने में? चेतना में आने में थोड़ा समय लगा। अनमने, अलसाये एवं सुझलाहट से सिक्त भाव से वह फोन तक पहुंच गया था। इतनी रात गये फोन? उसके भाई का ही था। भाई ने बताया मां का देहान्त हो गया है।
‘कब, कैसे? भाई बताता जा रहा था, वह सुन रहा था, परन्तु दिमाग में बातें प्रवेश नहीं पा रही थीं।

अभी तो पिछले महीने मां से मिलकर आया था, सब कुछ ठीक लग रहा था। भाई एवं भाभी, और भतीजा जो इण्टर में पढ़ रहा था, एवं भतीजी जो दसवीं में थी, सभी ख्याल रखते थे। मां की भी इनमें जान बसती थी। जब भी वह घर कानपुर आता, अकेले या परिवार के साथ, मां से अक्सर कहता ‘‘मां थोडे़ दिन मेरे पास भी चल कर रहो। मां कहती बेटा ये देहरी का मोह नहीं छूटता, कहां जायें, यहीं से ध्यान नहीं हटता। मैं यहीं ठीक हूँ। उसे नहीं लगता था कि मां कुछ तकलीफ में थीं मगर फिर मां क्यों कहती रहती थी, कि कमल जल्दी जल्दी आया करो और हो सके तो बच्चों को भी साथ ले आया करो। बड़ा मन करता है उन सब को देखने एवं मिलने का।

क्या मां तकलीफ में थी? मां उठती, बैठती, बोलती चालती अपना व्यक्तिगत् कार्य सारा कर लेती थी। उसने महसूस किया, मां कुछ कमजोर सी हो गयी थी। उनकी आंखों में उदासी उतर आयी थी। कुछ बोझ सा महसूस करती थी, ऐसा लगता था कुछ खोजती रहती थी। कई बार उसने महसूस किया था कि मां उससे कुछ कहना चाहती थी। कभी कुछ बोल निकलते-निकलते रह जाते थे, शायद संकोच या डर। क्या उलझन थी? वैसे मां बड़ी सन्तोषी जीव थीं इधर मां ज्यादातर अपने कमरे में बिस्तर में ही रहती थी। कभी कभी सेंस में भी नहीं रहती थी। वह मां से मिलकर हरदम अवसाद् से भर जाता था। वह मां को इस हालत में देख नहीं पाता था। दिल डूबने लगता था, दुख सराबोर कर जाता था। मां की यह हालत पिता के न रहने से तो नहीं? उनमें अकेलापन या खालीपन भर गया था या कुछ और था जो वे कह नहीं पा रहीं थीं।

उसने कंधे पर कोमल का स्पर्श महसूस किया। पत्नी आ गई थी। ‘क्या हुआ?‘ कोमल का स्वर आर्द्ता भरा था। ‘मां नहीं रही।‘ उसने उसकी तरफ बिना देखे ही उतार दिया। वह अपने को रोकने की कोशिश कर रहा था, किन्तु असफल रहा, जब पत्नी ने उसके सर को अपने पहलू में समेटा था। थोड़ी देर बाद वह सामान्य हो पाया था। उसे लगा पत्नी उसे गहराई से महसूसती है और सहानुभूति का स्पर्श काफी राहत प्रदान करने वाला था।

‘अभी निकलते हैं। वह चलने के लिये उतावला हो रहा था। वह अपने पिता को आखिरी वक्त में नहीं देख पाया था। जब उसके पास खबर पहुंची थी, वह यू.एस.ए. में था, वहां से वह दसवां-तेरहीं में ही पहुंच पाया था। कम्पनी के एक प्राजेक्ट में वहां था, उस समय वह बैचलर ही था। इस बार वह कोई कोताही नहीं बरतना चाहता था। 

‘कैसे चलोगे ?'
‘अपनी गाड़ी से ।'

‘नहीं।‘ इतना लम्बा सफर और खुद इस हालात में ड्राइव करोगे। पारूल और शिशिर इस समय बेसुध सो रहे। उठना ठीक नहीं है। ड्राइवर को बुला लीजिये, सुबह के 5-6 बजे निकल पडें़गे। तुम्हारा सभी इन्तजार करेंगे। कोमल ने अपनी मंशा/सलाह जाहिर की। वह फिर बैठ गया था अपनी उतावली को विराम देते हुये। परन्तु दुख को आवेश फिर उमड़ने-घुमड़ने लगा था। पत्नी उसे छोड़कर तैयारियों में व्यस्त हो गई थी।
निकलते निकलते छै बज गये थे। बच्चों को 5 बजे ही उठा दिया गया था, वे तैयार होकर भी नीेंद के आगोश में थे। बीच रास्ते में कोमल ने एक ढाबे के पास गाड़ी रूकवाई थी, और सबके स्वल्पाहार की व्यवस्था करने लगी थी। मैं अपने दुख में डूबता-उतराता गाड़ी में ही बैठा रहा। कोमल उसकी तरफ ही आ रही थी। 

उसने पत्नी से कहा ‘तुम क्यों नहीं कुछ खाती हो ?'
‘आप खायेंगे ?‘ प्रतिप्रश्न उठा।
‘नहीं, खा नहीं पाऊंगा।'

‘तो मुझे भी कुछ नहीं खाना।‘ वह सोच रहा था। दुख मेरा था, परन्तु उसकी छाया उस पर भी पड़ रही थी, या मेरे दुख की अनुभूति से उसकी इच्छा ना हो रही थी। वह सोचने लगा था, पत्नी सारे दिन अनशन कलपेगी। रात एक बजे से जगी है। उसने एक बार फिर उससे करूण स्वर में अनुरोध किया। उसने फिर वही दोहराया ‘आप कुछ ले लेंगे तो मैं भी कुछ खा लूंगी।‘ वह सोच रहा था स्त्री क्या है ? सम्पूर्ण अस्तित्व, इच्छा अनिच्छा अपनों के ही इर्द गिर्द।

‘अच्छा में लेता हूं तुम तो लो।‘ उसका इतना कहते ही वह राजी हो गई थी। उसने केवल चाय ली थी। जब कोमल ने देखा, उसने केवल चाय ली है तो अपने हिस्से से आधा, जबरदस्ती उसे अर्पित कर दिया। उसकी जिद को पूरा करने के लिये उसे वहीं कुछ खाना पड़ा था।

बच्चे कहीं भी जाने की खुशी में आ चुके थे, वह भी दादी के पास, काफी उल्लासित थे। वह वस्तुस्थिति से अनभिग्न थे। उनके प्रश्नोत्तर का जबाब सिर्फ कोमल ही के पास था। उसने ध्यान दिया बड़े ही धैर्यपूर्वक एवं संयत ढंग से समझाया जा रहा था। वह मां, घर, परिवार और उनसी जुड़ी यादों के हिचकोले में था।

‘डैडी, आप चुप क्यों हैं? बोलते क्यों नहीं? पायल ने उसकी बांह पकड़कर झिझोरा था। अक्सर पायल उससे ही मुखातिब रहती थी। उसने बेटी को दुलार किया था, एकदम यांत्रिक एवं अनमने ढंग से। उसकी भावना कहीं जुड़ी थी और हरकतें यहां करनी पड़ रही थी। वह सोच रहा था उसकी दोनों बहनें आ चुकी होंगी लखनऊ, सीतापुर से आने में कितनी देर लगती है। भाई बहन सभी उससे बडे़ थे। सबसे बडे़ भाई थे, फिर बहनें और सबसे बाद में वह। छोटे होने की वजह से वह सबकी डांट एवं प्यार का कारण था। परन्तु वह घर सबसे कम रह पाया था, पहले पढ़ाई के कारण बाहर हास्टल में फिर कैम्पस सेलेक्सन के तहत बाहर सर्विस में। भाई जरूर जन्म से लेकर अभी तक घर में ही था। बहनें शादी तक घर में रहीं फिर अपने-अपने घर। इस समय वह सरकारी कम्पनी में टेलीकाम इंजीनियर था, मेरठ में। इसके पूर्व वह एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नोयडा में कार्यरत् था। उसी कम्पनी में एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में 3 से एक वर्ष के अनुबंध पर अमेरिका भेजा था, वहीं पर उसकी जान-पहचान कोमल से हुयी थी। वह भी उसकी ही कम्पनी में थी, परन्तु बंगलौर में पोस्टेड। उसी प्रोजेक्ट मेें उसका भी सेलेक्सन हुआ था। एक साल में प्रोजेक्ट में काम करते-करते कोमल से काफी निकटता हो गई थी। वापस आने पर मिलना जुलना जारी रहा था क्योंकि उसका घर दिल्ली में ही था। यह सम्पर्क एक दूसरे से चाहने में तब्दील हो गया था। कोमल से शादी को लेकर उसके घर में काफी पुरजोर विरोध हुआ था। सभी कीे शादी पिता की मर्जी से हुई थी परम्परागत् तरीके से। अब पिता थे नहीं, विरासत भाई के पास में थी। मां निरपेक्ष थी। जिससे बड़ा सम्बल मिल रहा था। भइया, भाभी एवं दोनों बहनों का भी काफी मुखर विरोध था। परन्तु मां केे अपने पक्ष में आते ही सबका विरोध निषेधात्मक नहीं रह गया था। मगर भाई नाखुश हो गया था। वो अपने को ही सही मानता था, हर हाल में। वह मेरे विवाह के कार्यक्रमों में उदासीन ढंग से पेश आ रहा था। अक्सर वह एक जुमले का प्रयोग किया करता था ‘‘सबसे बड़ी मार कबीर की, जी से दिया उतार।‘‘ उसे लगता था कि भाई उससे कम मां से ज्यादा उदासीन हो गया था। उसकी आदत थी जो उसके साथ नहीं, वह उसका विरोधी है। परन्तु उसके लिये मां और भी अजीज हो गई थी। कहते भी है जो जिसकी जितनी जरूरतें पूरी करता है वह उसका उतना अजीज बन जाता है।

शादी के बाद उसने और कोमल ने पुरजोर कोशिश की एम.एन.सी. दोनों को एक ही जगह कर दे या तो नोयडा या बंगलौर। जब यह सम्भव नहीं हो पाया तो कोमल ने नौकरी छोड़ दी और उसके पास आ गयी। वह कम्पनी से चिढ़ गया था, एक पिता की मौत पर समय से ना पहुँच पाने का मलाल फिर पति-पत्नी का साथ ना रखने का क्षोभ । उसने मौका मिलते ही सरकारी कम्पनी में शिफ्ट हो गया । 

घर आते आते दोपहर के ग्यारह बज गये थे। घर में रूदन चल रहा था जिसके आवाजें बाहर तक आ रही थीं। रूदन रह-रह कर कभी तेज एवं कभी हल्का पड़ रहा था । हम लोगों के आते ही फिर से एक लम्बा तेज रूदन का सैलाब आया था और उसमें हम सभी सराबोर हो गये थे और अपने आप को उस धारा में शामिल कर लिया था या हो गये थे। भाभी ने जो रो-रो कर हिचकियां लेकर बताया कि आखिर वक्त उसे ही याद कर रही थी, अपने को रोक पाने का माद्दा पूरी तरह ढह गया था। भाभी का गला फाड़ रोने का अंदाज उसे कुछ नकली सा लग रहा था। क्योंकि भाभी, मां को कुछ कम ही पसंद करती थी। जब से पिता जी नहीं रहे थे, धीरे-धीरे भाभी ने मां को घर के सभी कामों से महरूम कर दिया था। मां हर तरह सें अकेले पड़ गयी थी। यद्यपि उसे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता था जिससे ये लगता हो कि मां आर्थिक तकलीफ में हो। दवा-दारू की भी कोई समस्या नहीं लगती थी। पिताजी अच्छा खासा बिजनेस छोड़ कर गये थे, और मेरी शादी को छोड़कर घर बाहर की सारी जिम्मेदारियां पूरी करके गये थे। भाई ने सब कुछ अच्छी तरह सम्हाल भी लिया था।

भइया का विलाप भी कुछ अजीब सा लग रहा था उसे। ‘अरे मां एक बार तो बोल दो। एक बार तो देख लो। तुम्हारे पोते-पोती रो रहे हैं उठकर कर तो देख लो। मां एक बार बोलो। अम्मा हमें सेवा का मौका ही नहीं दिया। मां ज्यादा दिन बीमार नहीं रही थी। उसके बच्चें भी रोने लगे थे और हां, पत्नी भी विसुरने लगी थी। उसे लगा उसका ही दुख कमतर है। वह नीचे उतर आया था जहां मातमपूर्सी करने वालों की आमद बढ़ती जा रही थी, उन्हें भी रिसीव करने वाला कोई चाहिये...........।

एक बार मां, कोमल पारूल और शिशिर मां के कमरे में थे। मां ने कुछ सोचा होगा और अपने बकस को खेलकर कुछ देखा, कुछ खोजा और फिर वापस आ गई, और फिर कोमल से बात में तल्लीन हो गई। मां और कोमल के बीच बातचीत का आदान-प्रदान बड़ा सीमित रहा करता था, ज्यादातर पारूल और शिशिर से सम्बिन्धित। परन्तु कोमल जब भी घर आती थी उसका ज्यादातर समय मां के पास ही गुजरता था। उनके बीच ज्यादातर मौन ही पसरा रहता था। कोमल साधारणतया कम बोलने वाली थी सभी से, हां अगर कोई उसे कुछ बताता या सुनाता था, तो वह तल्लीनता पूर्वक सुनती रहती थी, बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये। पारूल और शिशिर जरूर दादी को बुलवाते, सुनते रहते या अपनी बातें बताते और अपनी फरमाइशें करते रहते। उसके परिवार सहित आने पर मां में प्रसन्नता की लकीर खिंच जाया करती। उसके अकेले आने पर भी संतुष्ट तो होती थी, और बच्चों के ना आने पर उलाहना भी नहीं देती थी। इसी समय वह एक दोस्त से मिलकर आया था और ड्राइंगरूम में पसरा था, कि कोमल ने माँ के कमरे से निकलकर उसे देखा और उसके पास बड़े संयत ढ़ग से प्रवेश किया। उसने आते ही कहा ‘एक बात पूछू।'उसकी टोन कुछ शिकायत लिए थी। ‘‘हाँ-हाँ, अवश्य वह कुछ रोमांटिकता से चहका ।"

कभी 
माँ जी से पूछा है कि उनके पास अपने पैसा है, कि नहीं उन्हें पैसे की जरूरत है भी कि नहीं? वह सन्न से रह गया था वास्तव में कभी पूछना तो दूर कभी सोचा भी नहीं । वह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि माँ के पास इस चीज की भी कमी हो सकती थी । हम लोगों की गिनती धनवानों में होती थी सारे पैसे की धरोहर माँ के पास पिता जी के समय थी घरेलू खर्चें व लेन देन माँ ही करती थी। परन्तु अब? पिता जी के ना रहने पर? उसका ध्यान अब गया था, बिजनेस तो भाई ने सम्हाल लिया और भाभी ने घर। मगर वह यह सोचकर आश्वश्त रहता था कि भाई मां का बेहद ख्याल रखते हैं और यह तो बहुत छोटी चीज है, और ऐसा ही उसने अपनी पत्नी को समझाने की पुरजोर कोशिश की। कोमल उसकी बातें, दलीलें ध्यानपूर्वक एवं शान्त भाव से सुनती रही और फिर मां के बकस वाली घटना का वर्णन निरपेक्ष भाव से किया और उसकी तरफ प्रश्नवाचक मुद्रा में बैठ गई।

उसने पत्नी को कोई उत्तर नहीं दिया, एकदम से उठा और मां के कमरे में घुस गया। मां आंखें बंद किये लेटी थी, शायद सो रही थी या जग रही थी। उसने मां से कुछ पैसों की फरमाईश कर दी। मां हतप्रभ उसे देखने लगी थी, यह पहली बार था कि सर्विस में जाने के बाद उसने मां से पैसे मांगे थे। ‘मेरे पास कहां, पैसे कमल।‘ और उसने बकस लाकर उसके पास रख दिया था। उसमें मां की पुरानी साड़ियां, कुछ गहने आदि थे पैसे का नामोनिशान नहीं था। फिर एक उहव्वास लेकर बोली तेरे पिता के बाद जो कुछ मेरे पास थे वह सब धीरे-धीरे पोते-पोतियों एवं नाती-नातियों को देनलेन में खतम हो गये। फिर वह बोली बेटा मुझे पैसों की जरूरत ही क्या? भइया सारा ख्याल रखते ही है, घर बाहर सारा लेनदेन, वृत त्योहार बहू और बेटा सम्हालते ही हैं। मेरे पास पैसों का क्या काम है उसे मां की यह खुद्दारी अपनों से ही समझ में नहीं आयी।

मगर मां आप अपनी तरफ किसी को कुछ देना चाहें नानी या दादी के रूप में। या फिर कुछ अपने मन से कुछ खर्चाने चाहे। कभी किसी नौकर आदि को देना चाहे। तब क्या भइया से कहकर दिलवायेगी या देंगी। मां के कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया था, अपलक उसे भरी आंखों से निहारती रह गई थी। वह क्षोभ से भर गया था, उसे अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी। इसी बात पर उसकी दृष्टि क्यों नहीं गई। उसने अपने पर्स से काफी रूपये-पैसे निकाल के रख दिये थे, मां के हाथ में, ये कहते हुये कि मां आप मना नहीं करेंगी। और जैसे चाहें अपने मन मुताबिक खर्चा करेगी। फिर भी अगर कभी कमी तो मुझे जरूर बताईगा। तब से जब भी कानपुर जाना होता था वह मां की जरूरत से ज्यादा पैसे देने का बजट लेकर जाता था।

भाई मां की अंतिम यात्रा की तैयारी में व्यस्त थे। यात्रा का सारा सामान आ चुका था, विमान बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। उसे देखकर भाई उसके कंधों में दोनों हांथ रखकर ढाढस बंधा रहे थे और उसे भाई की आंखों में निराशा के बादल घुमड़ते-घुमड़ते नजर आ रहे थे। मां भाई को सबसे ज्यादा चाहती थी, उनकी हर जिद पूरी होती थी, क्या खाने में, क्या पहनने में। भाई उनके पहले और सबसे बडे़ लड़के थे। मां का प्यार दुलार सबसे ज्यादा उन्हें ही नसीब हुआ था। पिता जी के गुस्से, नाराजिगी का शिकार होने पर मां उनका ही पक्ष लेती प्रतीत होती थी। भाई का ध्यान पढ़ाई-लिखाई या पिता जी के करोबार में नहीं लगाया था या तो बहुत कम लगता था सिर्फ अपने जान पहचान वालों के काम आ जाने का जो लुफ्त उन्हें मिलता था उसके कारण घर, अपना गौड़ थे। वही भाई अब सिर्फ अपने लिये ही सोचते थे, ऐसा वह महसूस करता था। वह सोच रहा था मेरे शादी के प्रकरण के बाद से क्या भाई ने वास्तव में मां को अपने जी से उतार दिया था। मां को अकेलेपन की खाई में डाल दिया था । शायद अपने प्यारे बेटे की उपेक्षा उन्हें खामोश करती जा रही थी। भाई की उपेक्षा जी से उतार देने की मुहिम में मां का साथ देने के लिये ना पिता जी थे, ना मैं और बहनें तो पराई हो चुकी थी। शायद मां प्रत्युततर में पलायन करना ही उचित समझा हो। उसे अपने अपराध बोध से गृसित होने का लक्षण प्रगट हो रहा था कि वह मां को अकेलेपन में ढ़कलने वह भी कहीं उत्तरदायी तो नहीं था। उसे अब वही भाव अपने भइया की आंखों में महसूस हो रहे थे। 

A Hindi Story by Raja Singh

डॉ. अमरनाथ से डॉ. ब्रज मोहन सिंह की बातचीत

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प्रो॰ (डॉ.) अमरनाथ


चर्चित लेखक एवं शिक्षाविद डॉ अमरनाथ शर्मा का जन्म 1 अप्रैल 1954 को गोरखपुर जनपद (संप्रति महाराजगंज), उ. प्र. के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में हुआ था। शिक्षा: एम.ए., पीएच. डी.(हिन्दी) गोरखपुर विश्वविद्यालय सेभाषा : हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला। पारिवारिक परिचय: माता : स्व. फूला देवी शर्मा, पिता : स्व. पं. चंद्रिका शर्मा, पत्नी : श्रीमती सरोज शर्मा, संतान : हिमांशु , शीतांशु एवं शिप्रा शर्मा। प्रकाशित कृतियाँ : ‘हिन्दी जाति’, ‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’, ‘नारी का मुक्ति संघर्ष’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिन्तन’,‘समकालीन शोध के आयाम’(सं॰), ‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’(सं॰), ‘सदी के अंत में हिन्दी’(सं॰),‘बांसगांव की विभूतियाँ’(सं॰) आदि। ‘अपनी भाषा’ संस्था की पत्रिका ‘भाषा विमर्श’ का सन् 2000 से अद्यतन संपादन। सम्मान व पुरस्कार : साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा का ‘संपादक रत्न सम्मान’, भारतीय साहित्यकार संसद का ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान’, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद का ‘प्रवासी महाकवि हरिशंकर आदेश साहित्य चूड़ामणि सम्मान’, मित्र मंदिर कोलकाता द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन आदि। संप्रति : कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर, 'अपनी भाषा'के अध्यक्ष और भारतीय हिन्दी परिषद् के उपसभापति। संपर्क : ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091, फोन : 033-2321-2898, मो.: 09433009898, ई-मेल : amarnath.cu@gmail.com. 

प्रश्न - आप 1994 में कोलकाता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर के रूप में आए । उसके पहले आप कहां थे ? 

उत्तर- मेरी उच्चशिक्षा गोरखपुर विश्व्विद्यालय से हुई. डॉ. रामचंद्र तिवारी के निर्देशन में मैने ‘ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का परवर्ती हिंदी आलोचना पर प्रभाव ‘ विषय शोध कार्य किया. यहां आने के पहले मै पवित्रा डिग्री कॉलेज मानीराम, गोरखपुर, आचार्य नरेन्द्र देव पी.जी.कालेज बभनान, गोंडा और नेशनल पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज , बड़हलगंज, गोरखपुर मे अध्यापन कर चुका हूं. 

प्रश्न- आप जब कलकत्ता विश्व्विद्यालय में आए तब से लेकर आज तक के शैक्षणिक माहौल में क्या परिवर्तन महसूस करते हैं । 

उत्तर- मैं प्राध्यापक के रूप में यह महसूस करता हूँ कि पहले विश्वविद्यालय के छात्र – छात्राओं में अध्ययन की ललक होती थी । पहले के विद्यार्थियों के प्रश्न अच्छे और उत्साहित करने वाले होते थे । आज संख्या बढ़ी है पर अध्ययन की ललक घटी है । उनमें शिक्षकों के प्रति श्रद्धा, आदर के भाव में भी कमी आयी है । पहले हिंदी पढ़ने के लिए मध्यम वर्ग , संपन्न मारवाड़ी परिवार के लोग भी आते थे । आज साहित्य का अध्ययन करने वाले आर्थिक दृष्टि से पिछड़े ज्यादा हैं । साहित्य पढ़ने – पढ़ाने की रुचि भी घटी है । 

प्रश्न – अभी- अभी लहक के पिछले साक्षात्कार मे प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने बताया है कि कोलकाता वि.वि. में पाठ्यक्रम में बदलाव, सेमेस्टर प्रणाली लागू करवाने में उनकी सक्रिय और केंद्रीय भूमिका रही है मानो सारे परिवर्तनों के नियामक वे ही हैं । आप अपनी भूमिका को कैसे रेखांकित करेंगे । 

उत्तर – हमारे वि.वि. का परिवेश डेमोक्रेटिक है और कोई भी बड़ा परिवर्तन सबके सहयोग के बगैर नहीं हो सकता । मैं तीन बार विभाग का अध्यक्ष रह चुका हूँ । पहले टर्म वर्ष 1997-99 के कार्यकाल में भी एम.ए. और एम.फिल. के पाठ्यक्रम बदले गए थे और वर्ष 2009-10 के दौरान जब सेमेस्टर प्रणाली लागू हुई तब भी मैं ही विभागाध्यक्ष था । उसी अवधि में एम. फिल और पी-एच.डी. के नये नियम और पाठ्यक्रम बने और उन दोनों ही कमिटियों का संयोजक मैं ही हूँ-आज भी । मुझे इस बात का संतोष है कि मुझे प्रो. जगदीश्वर जी और प्रो. शंभुनाथ जी का ही नहीं बल्कि विभाग के सभी सहयोगियों का भरपूर सहयोग मिला । यदि विभागीय सहयोगियों का सह्योग न मिले तो अकेले अध्यक्ष भला क्या कर सकता है। मुझे खुशी है कि एक विभागाध्यक्ष के रूप में अथवा पी-एच.डी. और एम.फिल. समिति के संयोजक के रूप में मेरे कार्यकाल में हुई बैठकों में सारे प्रस्ताव बहुमत से नही बल्कि सर्वसम्मति से पारित हुए । 

प्रश्न – कोलकाता वि.वि. के प्राध्यापक अपने को जनवादी परंपरा का वाहक और प्रगतिशील लेखकों के समर्थक के रूप में अपना परिचय देते थे या छवि बनाए रखना चाह्ते थे । पर 2010 के बीए. ऑनर्स के पाठ्यक्रम में से यशपाल का झूठा- सच उपन्यास और मुक्तिबोध जैसे कवि की कविता को हटा दिया गया और विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास को रखा गया । यह कैसी जनधर्मिता है जो परंपरा से काटती है या कह सकते हैं कि चयन की प्रक्रिया चयनकर्ता की विचारधारा और मनोवृति को प्रकट करती है । 

उत्तर – यह यूजी बोर्ड ऑफ़ स्ट्डीज का मामला है। उस समय संभवतः शंभुनाथ जी उसके चेयरमैन थे। यह प्रसंग मुझे ठीक से याद नहीं है। इस कमिटि में और भी मेंबर होते हैं । हो सकता है मैं उस बैठक में न रहा हूँ । यशपाल को पढ़ाना अच्छी बात है । यशपाल पुराने और विनोद कुमार शुक्ल नए हैं । हमारे लिए दोनो महत्वपूर्ण हैं। किसी भी बड़े रचनाकार को हटाकर उसकी जगह दूसरे बड़े रचनाकार को रखा जा सकता है। अगर एक ही रचनाकार हमेशा कोर्स में बने रहेंगे तो पाठ्यक्रम बदलेगा कैसे? । 

प्रश्न – अगर आप कल्पना करें कि डॉ. शंभुनाथ’ हिंदी मेला’ , आप ‘ अपनी भाषा ‘ और जगदीश्वर जी फेस बुक पर से अपनी सक्रियता कम कर एक साथ कोलकाता को जगाने का काम करें तो कैसा रहेगा ? 

उत्तर- यह एक आदर्श कल्पना है और आदर्श कभी यथार्थ नहीं होता। बुद्धिजीवियों के बीच मतभेद होता है पर न्यूनतम संवाद भी होते रहना चाहिए और यह संवाद हमारे बीच है । हम तीनों के बीच तालमेल बना रहता है । हम एक दूसरे के मंच पर जाते हैं । अपनी भाषा का काम भाषा के मुद्दे से संबंधित है तो हिंदी मेला का उद्देश्य साहित्य है और नई पीढ़ी में साहित्य और संस्कृति के प्रति रुचि पैदा करना भी है । हमारा उद्देश्य कुछ अलग-अगल जरूर है पर हम सब एक ही पथ के पथिक हैं जो बेहतर समाज बनाने की दिशा में अपनी सीमा में रहते हुए प्रयास करते हैं । 

प्रश्न कहा जाता है कि आप सब कोलकाता के प्राध्यापक निजी कारणों, स्वार्थों से एक दूसरे की कमियों को उजागर नहीं करते हैं । कुछ लोग तो ये कह्ते हैं कि आप प्रोफेसर शंभुनाथ से डरते हैं । 

उत्तर – विश्वविद्यालय का शिक्षक अगर डरने लगा तो वह अध्यापन क्या करेगा। शंभुनाथ जी हमारे अग्रज हैं और मैं अपने से वरिष्ठों का सम्मान करना अपना नैतिक दायित्व समझता हूं। शंभुनाथ जी हमारा क्या बना या बिगाड़ लेंगे कि मैं उनसे डरूंगा.। रही बात एक दूसरे की कमियों को उजागर करने की तो ऐसे लोगों को हमारे आदर्श कवि तुलसी ने ‘खलों’ की कोटि में रखा है.। मेरी समक्ष में हमारी नजर दूसरों के गुणों पर पहले पड़नी चाहिए। हम अपने सहयोगियों की कमियां ही क्यों देखें- इसके लिए तो पूरा समाज चौकस है ही। हम साहित्य – संस्कृति से जुड़े हुए लोग हैं, शिक्षक हैं। हम आपस में लड़ेगे तो समाज हमसे क्या शिक्षा लेगा। हमें एक दूसरे का सहयोग करना चाहिए. 

प्रश्न- वामपंथी शासन के दौरान कोलकाता विश्वविद्यालय में एक समय ऐसा था कि लोग जनवादी लेखक संघ के मेंबर होना पसंद करते थे । क्या आप कोलकाता विश्व्विद्यालय में आने के पहले जनवादी लेखक संघ के सदस्य थे ? आपने क्या सोचकर यह लेखक संगठन ज्वाईन किया था ? 

उत्तर – मैं कोलकाता वि.वि. में आने के पहले से ही जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय समिति का सदस्य था । मैं जलेस के गठन के समय से ही उसका सदस्य था . उस समय मैं गोरखपुर के एक कालेज में अध्यापक था। जलेस के संस्थापकों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चंद्रबली सिंह हमारे यहां आए थे और दो दिन रुके थे उनसे लम्बी बाते हुई थी. मैं इसके पहले ही मार्क्सवाद से गहराई से परिचित हो चुका था और चेतना सांस्कृतिक मंच बनाकर उसके सचिव के रूप में सामाजिक-सांस्कृतिक कामों से जुड़ा हुआ था. चंद्रबलीसिह से प्रेरित होकर मैं जलेस का सदस्य बना. 1992 में जयपुर के राष्ट्रीय अधिवेशन में मुझे केंद्रीय समिति का सदस्य चुना गया। मैं कोलकाता 1994 में आया । यहां आने के कुछ दिन बाद से धीरे-धीरे जलेस से मेरा मोहभंग होने लगा. पटना में होने वाले 2003 के केंद्रीय अधिवेशन में जनवादी लेखक संघ के नाम को उर्दू में अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्नफीन जैसा नाम रखने का प्रस्ताव आया क्योकि यह संगठन हिन्दी- उर्दू लेखकों का संगठन है। मैंने इसका विरोध किया। मेरा तर्क था कि जनवादी लेखक संघ एक संगठन का नाम है , संज्ञा है. नाम नही बदला करता. यह तो वैसे ही है जैसे प्रेमचंद को मोहब्बतचंद कहे या लालकृष्ण अडवानी को सुर्ख स्याह अडवानी कहे. मेरा यह भी कहना था कि ऐसा कौन सा उर्दू लेखक है जो जनवादी लेखक संघ का अर्थ नहीं समझता और अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्नफीन का अर्थ समझ लेता है. हमारा उद्देश्य तो दोनो शैली के रचनाकारों को करीब लाने का होना चाहिए. क्या इस तरह अलग-अलग नाम रखने से हमारी दूरी कम होगी। जलेस हिंदी और उर्दू दोनों के लेखकों का एक सगठन है तो उसका दो नाम क्यों. कोई चाहे तो जलेस का नाम उर्दू लिपि में लिख सकता है । उस समय शिव कुमार मिश्र इसकी अध्यक्षता कर रहे थे । मैंने मंच से अपनी बात कही तो लोगों ने तालियां बजाकर मेरा समर्थन किया.। पर लोगों के समर्थन से ही सब कुछ नहीं होता है । उसके बाद केंद्रीय समिति से मेरा नाम काट दिया गया । विगत कुछ वर्षों से जलेस की गतिविधियों की मुझे जानकारी भी नहीं है। 

प्रश्न - बहुत लोग नौकरी पाने के लिए जनवादी लेखक सघ तथा सीपीएम में शामिल हुए थे और काम निकल जाने पर सारी क्रांतिकारिता भूल गए । आखिर वह कौन सी बात थी जहाँ आप जनवादी लेखक संघ में काम नहीं कर पाए या आप जो करना चाहते थे वह कर नहीं पा रहे थे । वह कौन सी मजबूरी थी जहाँ जनवादी लेखक संघ में सक्रिय रहते हुए भी आपको ‘ अपनी भाषा” संस्था का गठन करना पड़ा । 

उत्तर – ‘ अपनी भाषा” का गठन 1999 में हुआ और 2000 में उसका रजिस्ट्रेशन हो गया था। । बंगाल में आने के बाद यह अनुभव हुआ कि हिंदी और बंगला के रचनाकारों में अपेक्षित तालमेल नही है । वे एक मंच पर कम दिखायी देते हैं। मुझे लगा कि दोनों को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए । हमारे सामने बड़ी चुनौती अंग्रेजी की थी । अंग्रेजी सबके उपर हावी थी । वह साम्राज्यवाद की भाषा है, आतंक की भाषा है, अगर बंगला और अंग्रेजी दोनों जुड़कर काम करें तो उसके खिलाफ एक बड़ी ताकत बनेगी । इसी सोच के तहत ‘ अपनी भाषा ’ का गठन हुआ । हमने प्रतिवर्ष किसी एक रचनाकार को, जिसने हिंदी और किसी अन्य भारतीय भाषा को अपने अनुवाद कार्य तथा लेखन के माध्यम से सेतु बनाने का काम किया गया हो ‘ जस्टिस शारदा चरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान ‘ देना आरंभ किया. इसके अलावा हम प्रति वर्ष एक बार भाषा के किसी गंभीर सवाल पर राष्ट्रीय संगोष्ठी करते हैं । भाषा विमर्श पत्रिका भी निकालते हैं जिसके अबतक पंद्रह अंक निकल चुके हैं और इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसकी सात से आठ सौ प्रतियां छपती हैं और हम इसे नि : शुल्क वितरित करते हैं. भाषा के मुद्दे पर गंभीर संस्थाएँ बहुत कम हैं । 

प्रश्न - आप 1999 से ‘ अपनी भाषा ‘ से जुड़े हुए हैं और हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सफल संवाद सेतु बनाने का काम भी कर चुके हैं । अपनी भाषा की मूल प्रतिज्ञा अपनी- अपनी मातृभाषाओं का उत्थान और विकास है । यह देखा गया है कि आप जिस जनपद से आते हैं वहाँ की मातृभाषा भोजपुरी है । आपने भोजपुरी के उत्थान और विकास के लिए कौन - कौन सा काम किया है और अपनी भाषा की ओर से भोजपुरी के किस साहित्यकार को सम्मानित किया है या नहीं । 

उत्तर- देखिए, हिदी बोलियों के समुच्चय का नाम है हिन्दी में ब्रजभाषा के सूरदास भी हैं और राजस्थानी की मीरा भी, अवधी के तुलसीदास हैं तो भोजपुरी के कबीर भी। आजकल हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हिन्दी की इन बोलियों के चंद ठेकेदार इन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. इस तरह की मांग राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, हरियाणवी, कुमायूंनी-गढ़वाली, अंगिका और मगही तक के लिए हो चुकी है. फिर अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि उनको आठवीं अनुसूची में शामिल न किया जाय जब कि उनके पास हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल है. रामचरित मानस और सूरसागर जैसे ग्रंथ है. अगर ये बोलियाँ आठवीं अनुसूची में शामिल हो गयीं और बंगला, उड़िया, तमिल, तेलुगू की तरह स्वतंत्र भाषाएं हो गईं तो आने वाली जनगणना में इन्हें बोलने वाले हिन्दी भाषी नहीं गिने जाएंगे. फिर हमारे देश में हिन्दी बोलने वालों की संख्या अचानक घटकर बहुत कम हो जाएगी. और तब अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग करने वालों के पास अकाट्य तर्क होंगे. याद रखें हिदी इस देश की राज भाषा सिर्फ इसलिए है कि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से वह सबसे बड़ी भाषा है. उसकी संख्याबल की ताकत खत्म हो जाएगी तो उसके पास बचेगा क्या ? वह तो दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। सच तो यह है कि बोलियों को मान्यता देने अर्थात आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग एक साम्राज्यवादी साजिश है। हमें इस साजिश को समझनी चाहिए और इसका पर्दाफाश करना चाहिए. आप को पता होगा कि पिछले दिनों ज्ञान के सबसे बड़े सर्च इंजन विकीपीडिया ने दुनिया की सौ भाषाओं की एक सूची जारी की है जिसमें हिन्दी को चौथे स्थान पर ऱखा गया है. अबतक उसमें हिन्दी को दूसरे स्थान पर ऱखा जाता था। पहले स्थान पर चीनी थी. यह परिवर्तन इसलिए हुआ कि इस सूची में भोजपुरी, मगही, मैथिली, अवधी, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को रखा गया है और इस तरह इन्हें हिन्दी से अलग स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिया गया है. आज भी यदि हम इनके सामने अंकित संख्याओं को हिन्दी बोलने वालों की संख्या में जोड़ दें तो फिर हिन्दी दूसरे स्थान पर पहुंच जाएगी. खेद है कि हिन्दी के विरुद्ध इस अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र को हमारे हिन्दी के बुद्धिचीवी भी नहीं समक्ष रहे है. 

हमारे सामने सवाल यह है कि क्या भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में डाल देने और इस तरह उसे हिन्दी से अलग कर देने से वह समृद्ध होगी या हिन्दी के साथ रहकर उसकी ताकत बढ़ेगी. अगर उसको समृद्ध करने की सचमुच चिन्ता है तो उसमें साहित्य रचिए, उनमें फिल्में बनाइए, उसे पाठ्यक्रमों में रखिए । हिंदी से अलग कर देने से तो भोजपुरी और हिंदी दोनों कमजोर होगी । गोरखपुर विश्वविद्यलय में हिंदी के पाठ्यक्रम में ’पुरइन पात’ नाम का एक भोजपुरी काव्य संकलन रखा गया है, जिसमें गोरखनाथ से लेकर गोरख पांडेय तक की कविताएं संकलित हैं । यह स्वागतयोग्य कदम है. ऐसा और जगह भी होना चाहिए । जो बोलियों के रचनाकार हैं वे पुरस्कार की लालच में बोलियों को मान्यता देने की लड़ाई को हवा देते हैं. आठवीं अनुसूची में शामिल होना हिन्दी का घर बंटना है। हम घर बंटने के खिलाफ है। 

प्रश्न - आज देखा जा रहा है कि केन्द्र और राज्य सरकारें संविधान की अष्टम अनुसूची में आने वाली भाषायों को संरक्षण दे रही हैं और कुछ जातीय भाषाएँ धीरे- धीरे मर रही हैं तो ऐसी हालत में मरती हुई भाषायों को छोड-कर संरक्षित भाषायों के पक्ष में खड़ा होना वैसे ही है जैसे कोई निर्बल को छोड़कर सबल के पक्ष में खड़ा होता है या किसी बड़े लाभ के लिए अपने को भुलाकर गैरों के साथ में जाता है । प्रश्न यह भी उठता है कि जो अपनी मातृभाषा को प्यार नहीं करेगा, उसकी उन्नति के लिए ( निज भाषा उन्नति अहै --- ) कुछ त्याग नहीं करेगा , वह दूसरी भाषा को क्या प्यार करेगा , चाहे वह हिंदी ही क्यों न हो । 

उत्तर – आज दुनिया में हर 15 दिन पर एक भाषा मर रही है । रोज–रोज नयी भाषाएं पैदा नहीं होती । अगर हम बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में डाल दें तो बहुत सारी कठिनाइयाँ पैदा होंगी । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वहां छतीसगढ़ी को मान्यता मिली किन्तु वहाँ 94 बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें हालवी और सरगुजिया जैसी समृद्ध बोलिया भी है. इन बोलियों को बोलने वाले लोग छत्तीसगढ़ी के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं । क्योंकि उनकी उपेक्षा हुई. राजस्थान में राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग हो रही है किन्तु सचाई यह है कि राजस्थानी नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। बल्कि वहाँ की 74 में से सिर्फ 9 ( ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मालवी, शेखावटी, मारवाड़ी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है.। यह इतिहास के विरूद्ध जाने की कोशिश भी है । आज के ग्लोबलाइजेशन के युग में जहाँ अंग्रेजी का वर्चस्व तेजी से बढ़ रहा है इस देश में उसके विरूद्ध जो भाषा तनकर खड़ी हो सकती है वह हिंदी है । भोजपुरी के पास तो मानक गद्य भी नहीं है । उसमें मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कैसे होगी.। यह गांव के सीधे सादे लोगों को जाहिल और गंवार बनाए रखने की साजिश भी है. बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा रहे हैं ,खुद हिंदी की रोटी खा रहे हैं और बोलियों की लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि बोलियां बोलने वालों पर अपना वर्चस्व कायम रहे । मैथिली को आठवी अनुसूची में शामिल हुए लगभग 10 साल हो गए, बिहार के मिथिलांचल में कितने मैथिली माध्यम के विद्यालय खुले? 

प्रश्न 3 आप जैसे लोगों की चिंता है कि अगर हिंदी क्षेत्र की क्षेत्रीय भाषाओं को मान्यता देकर संविधान की अष्टम अनुसूची में रखा जाता है तो हिंदी को खतरा होगा और वह अपनी संवैधानिक मर्यादा तथा अपनी मजबूत स्थिति खो देगी । क्या आपको लगता है कि हिंदी ने राजभाषा का दर्जा पाकर अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है ? लगता है कि सारे हिंदी वाले एक यूटोपिया में जी रहे हैं । आज संघ लोक सेवा आयोग से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विस्थापित करने की तैयारी चल रही है । बेरोजगार छात्र जंतर – मंतर से लेकर राहुल गाँधी के आवास तक प्रदर्शन कर रहे हैं । चार राज्यों को छोड़ दें तो न्यायालयों में आज भी राजकाज की भाषा हिंदी या अन्य भारतीय भाषा न होकर अंग्रेजी है । इसके खिलाफ अगर आईआईटी, दिल्ली के पाठक जी जैसे लोग जंतर – मंतर पर धरना देते हैं तो हिंदी वाले गायब हो जाते हैं । ऐसे मुद्दों पर आपकी संस्था ‘ अपनी भाषा ‘ ने कभी कोलकाता में एक दिन का धरना या विरोध प्रदर्शन किया है या हिंदी की लड़ाई को बंद कमरे से निकालकर सड़कों पर ले जाने के बारे में कभी सोचा भी है क्या ? 

उत्तर –हिंदी राजभाषा बनने के नाते नहीं बल्कि अपनी सामासिकता, लचीलापन, सहजता और वैज्ञानिक लिपि के कारणा फैली है । राजभाषा बनने से हिंदी का नुकसान ज्यादा हुआ है और वह कृत्रिम और दुरूह बन गयी है । भारत की अन्य भाषाओं का सद्भाव उसने खोया है. दूसरी भाषाओं को बोलने वालों को लगता है कि हिन्दी के लिए ही सरकारी धन का इतना इस्तेमाल क्यों । मीडिया ने हिन्दी के प्रसार में बड़ी भूमिका निभायी है. यह उसकी कृपा नही, उसकी मजबूरी है, बाजार की मांग है । 

जहां तक अपनी भाषा का सड़कों पर उतरने और अपनी मांगों के लिए धरना देने की बात है । हमंने कभी धरना नहीं दिया है। धरना देने और सड़कों पर उतरने के लिए संख्या बल की जरूरत होती है. यह सब राजनीतिक दलों अथवा संगठनों के लिए ही संभव होता है. हम तो धारा के विरद्ध काम कर रहे हैं. सारा माहौल तो अंग्रेजी के पक्ष में है। पढ़-लिखे लोग भी वस्तुस्थिति को नहीं समझ पाते। बहुत से हिन्दी के बुद्धिजीवी और लेखक कन्फ्यूज्ड हैं. वे नहीं समझते कि गाँव के गरीब बच्चे तभी मुख्य धारा में आ सकेंगे जब माध्यम भाषा हिंदी, बंगला, ओड़िया, असमिया आदि होगी । हमने 2010 में दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में अपनी भाषा और उसकी बोलियों के अंतर्संबंध के मुद्दे पर एक ऐतिहासिक आयोजन किया था जिसमें देश भर से एक सौ से अधिक लेखक और बुद्धिजीवी उपस्थित थे और सभी अपने-अपने खर्चे पर आए थे. हमने कोलकाता, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, गया, लखनऊ, रायपुर आदि शहरों में प्रेस कांफरेंस करके इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है. इस विषय पर कई पत्रिकाओं को मैने हिन्दी के बुद्धिजीवियों से एक अपील भेजी थी जिसे तगभग डेढ़ दर्जन पत्रिकाओं ने विशेष महत्व देते हुए छापा था. ‘नवनीत’ ‘सबके दावेदार’, ‘अलाव’, ‘दस्तावेज’ ‘पाचवां स्तंभ’, ‘दो आबा’ ‘विश्वमुक्ति’,’आधुनिक साहित्य’ और ‘हंस’ जैसी पत्रिकाओं में से कुछ ने इस विषय पर विशेषांक निकाले और कुछ ने अपने संपादकीय में इसका उल्लेख किया. विभूतिनारायण राय ने म. गां. अं. हिन्दी विश्वविद्यालय बर्धा में हिन्दी का लोक नाम से तीन दिवसीय एक बड़ा आयोजन किया जिसमें मैं भी मौजूद था. इसके अलावा हमने पक्ष और विपक्ष के नेताओं तथा सभी बड़े राजनीतिक दलों के प्रमुखों तथा वरिष्ठ मंत्रियों को इस विषय पर पत्र लिखा है. हमने सड़क पर उतर कर जुलूस नहीं निकाला और नारे नहीं लगाए। क्योंकि मैं शिक्षक हूं और मेरी पहली जिम्मेदारी अध्यापन है। किन्तु हमारे प्रयासों के सकारात्मक परिणाम आने लगे हैं और तोग हकीकत को समझने लगे हैं. 

प्रश्न – डॉ. राम विलास शर्मा ने हिंदी जाति के भीतर बोलियों के अंतःसंबंध की बात तो की पर उर्दू को छोड़ दिया । बाद में आप जैसे या राम विलास शर्मा जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले लोगों ने भी हिंदी जाति के भीतर उर्दू की विरासत को नहीं समॆट पाए या हिंदी की जातीयता के दायरे को छोटा किया । मेरे गाँव के मुसलमान आज भी भोजपुरी में बात करते हैं । 

उत्तर – मैंने अपनी ‘ हिंदी जाति ‘ किताब में इसकी चर्चा की है । वास्तव में हिंदी और उर्दू दोनों अलग भाषाएं नहीं है । दिक्कत ये है कि हम चाहकर भी एक साथ नहीं हो सकते । वोट की राजनीति सामने आ रही है । उर्दू को मजहब से जोड़ दिया गया है । जो काम कभी अंग्रेज कर रहे थे वही काम आज हमारी सरकार कर रही है । मैंने एक समय कोलकाता वि,वि, में उर्दू साहित्य का इतिहास पाठ्यक्रम में रखा था पर बाद में उसे हटा दिया गया । पढ़ाने वाले ही नही मिल रहे थे. दुर्भाग्य है कि जो गालिब को पढ़ता है वह तुलसी या निराला को नहीं पढ़ता और जो निराला को पढ़ता है वह मीर को नहीं पढता । प्रेमचंद हिंदी- उर्दू दोनों में पढ़े जाते हैं । उर्दू के रचनाकार गोपीचंद नारंग मुसलमान नहीं हैं पर उर्दू के विद्वान हैं । फिराक गोरखपुरी तो हिन्दू थे किन्तु उनके नाम पर उर्दू साहित्य मं फिराक युग चलता है. हिंदी- उर्दू की साझी विरासत है । राजनीतिज्ञों ने इसे बाँटा है, पर जनता इस भेद को आज भी नहीं मानती- राजनीतिज्ञों की लाख साजिश के बावजूद.। आज हिंदी की कविताओं की तुलना में उर्दू की गजलें और शेर जनता में ज्यादा प्रचलित है, जनता कवि सम्मेलन और मुशायरा में एक साथ बैठती है । आज भी हिंदुस्तानी संगीत ही मैने सुना है , हिंदी या उर्दू संगीत नहीं । आज भी हिन्दी फिल्में ही होती हैं उर्दू फिल्में नही. जबकि 80 प्रतिशत फिल्मों की स्क्रिप्ट उर्दू होती है. मुझे आज तक कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं मिला जिसने उर्दू और हिन्दी को अलग-अलग भाषा कहा हो., दोनो के सर्वनाम एक, क्रियाएं एक, व्याकरण एक और बोलने वाले भी एक तो भाषा अलग कैसे हो सकती है. वैसे खुसरो से लेकर गालिब और मीर तक सबने अपनी भाषा को हिन्दवी या हिन्दी ही कहा है. यह सब भेद कृत्रिम है. 

प्रश्न .मेरा मानना ये है कि भारत का सच्चा बुद्धिजीवी वह है जो सत्ता और सरकार से समझौता नहीं करता और उसकी गलतियों को आगे बढ़कर दिखाता है। वह एक तरफ भष्टाचार को बेनकाब करता है तो दूसरी तरफ़ संप्रदायवादी शक्तियों को बेनकाब करने में पीछे नहीं रहता । (1) क्या इस कसौटी पर आप अपने को बुद्धिजीवी मानते हैं – हाँ या ना में जवाब दें । 


उत्तर- यह जनता तय करेगी । मैं अपने बारे में क्या बोलूँ । साहित्यकार को प्रतिपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए । साहित्य्कार सत्ता से जुड़ेगा तो जनता की आवाज नहीं बन पाएगा.। साहित्यकार को शोषित वर्ग के साथ खड़ा होना चाहिए । 

( 2) क्या इस कसौटी पर आपको कोलकाता में कोई बुद्धिजीवी नजर आता है? हाँ या ना में जवाब दें । 
बहुत से हैं। किसी का नाम ले सकता क्योंकि दूसरे के छूट जाने का डर है.। 

(3) अगर पूरे भारत से कोई दो नाम लेना हो तो वे कौन होंगे । 

उत्तर - मेधा पाटकर, अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल 

प्रश्न - गोधरा कांड से जुड़े नरेन्द्र मोदी के हाथों या बाबरी मस्जिद को ढहाने वाले भारतीय जनता पार्टी या उनके नेता लाल कृष्ण आडवाणी या कोयला घोटाले , कॉमनवेल्थ घोटाले के मंत्रियों के हाथों या वोट के समय मुस्लिम कार्ड खेलने वाले मौलाना बुखारी के हाथों मुजफ्फरनगर दंगा को न रोक पाने वाले सरकार के हाथों आप पुरस्कार लेना पसंद करेंगे -- हाँ या ना में जवाब दें । 

उत्तर- वे हमें क्यों पुरस्कार देंगे ? हमने इनके पक्ष में नहीं लिखा । हम पुरस्कार के लिए लिखते भी नही. 

प्रश्न- अगर सचिन तेंदुलकर दें तो 

उत्तर – सचिन तेन्दुलकर बहुत अच्छे इन्सान और खिलाड़ी हैं . मैं उनका बड़ा प्रशंसक हूं. किन्तु उनको भारत रत्न दिये जाने के पक्ष में नहीं. भारत रत्न का सम्मान किसी सेलिब्रिटी को नहीं, बल्कि समाज के हित लिए जीवन समर्पित करने वाले असाधारण व्यक्तित्व समाजसेवी या वैज्ञानिक को मिलना चाहिए. मेरी समझ में क्रिकेट से इस देश का नुकसान ही ज्यादा होता है. जिस समय क्रिकेट होता है इस देश के कार्यालयों में काम काज ठप पड़ जाता है. यह अमीरों का खेल है. इसके नाते भारत जैसे देश के गरीबों के लिए उपयोगी खेल पीछे छूटते जा रहे हैं. हमारे देश को हाकी, वालीबाल, कबड्डी, कुश्ती आदि खेल सूट करता है. जिसमें खर्च भी कम होता है, समय भी कम लगता है और शरीर के सभी अंगों की वर्जिश भी हो जाती है. हमें इन खेलों पर ध्यान देने की जरूरत है । 

प्रश्न – क्या आपकी अपनी भाषा धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक संस्था है ? 

उत्तर – हाँ 

प्रश्न – अभी- अभी यह सुना गया है कि आज 15 दिसम्बर , 2013 को कोलकाता के किसी संस्था द्वारा ‘ अपनी भाषा के सचिव डॉ. ऋषिकेश राय को उन लोगों के हाथों द्वारा और उनके साथ सम्मानित किया गया है जो 06 दिसम्बर , 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस में कारसेवा करने वाले, उनका उत्साह बढ़ानेवाले और उस कुकृत्य का मौन- मुखर समर्थन करने, कराने वाले की पंक्ति में थे और उससे भी बड़ी खतरनाक बात ये कि वे साम्प्रदायिक एवं कट्टरतावादी नरेन्द मोदी के गोधरा नरसंहार से संबंधित विचारधारा का समर्थन करते हैं । कोलकाता के वामपंथी कवि कहे जानेवाले पाषाण जैसे दिग्भ्रमित कागजी शेर कवि भी संभवतः शामिल हैं । इस संबंध में आपके क्या विचार हैं ? 

उत्तर- - ‘ अपनी भाषा ‘ का संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं है । डॉ. ऋषिकेश राय या किसी अन्य का किसी से पुरस्कार लेना उनके व्यक्तिगत निर्णय हैं । जहाँ तक बाबरी मस्जिद और गोधरा नरसंहार की बात है वह इतिहास का एक धब्बा है । इतिहास में ऐसी गलतियाँ होती हैं जिसे भुलाया नहीं जा सकता । इस देश में हमें सबको साथ लेकर चलना होगा । मुजफ्फरनगर की घटना तो अत्यंत शर्मनाक है । आजादी के बाद पहली बार दंगे गांवों में पहूंचे . वहां तो आप कर्फ्यू भी नही लगा सकते . गांवों के लोग घरों में कैद हो जाएंगे तो पशुओं को चारा कहां से मिलेगा. वहां के दंगों से प्रभावित लोगों का परिस्थ्तियों की कल्पना करके ही मैं विचलित हो जाता हूं. इन राजनेताओं में क्या इन्सानियत बिल्कुल नहीं होती?. 

प्रश्न – डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि कोलकाता में पुरुषों की तुलना में महिला रचनाकारों द्वारा लेखन ज्यादा हुआ है । आप कोलकाता के रचनाकारों के बारे में क्या सोचते हैं । हितेन्द्र पटेल, प्रफुल्ल कोलख्यान , डॉ’ ऋषिकेष राय , विमलेश त्रिपाठी आदि या अन्य लेखकों के रचना कर्म के बारे में आप की क्या राय है ? 

उत्तर- मुझे कोलकाता की रचनाशीलता सन्तोषजनक लगती है. लेखन में मैं पुरुष – स्त्री का भेद नहीं करता । आज स्त्री विमर्श जहां जा रहा है उसकी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता. बैसे भी जहाँ कृष्ण बिहारी मिश्र जैसे लेखक मौजूद हो वहाँ पुरुष लेखकों को कम आँकने वाली बात कैसे हो सकती है । कई लेखिकाओं के बराबर साहित्य तो अकेले जगदीश्वर जी लिख चुके हैं . उनकी रफ्तार का मुकाबला भला कौन सी लेखिका कर सकती है? हिंदी आलोचना मे डॉ. शंभुनाथ जी ने एक खास जगह बनायी है. हितेन्द्र पटेल में नए विमर्श की संभावनाऎँ हैं । डॉ. ऋषिकेष राय भी अध्ययनशील हैं और आलोचना में अच्छा काम कर रहे हैं । विमलेश त्रिपाठी की कविताए भी प्रभावित करती है । कविता के साथ दुखद स्थिति यह है कि कविता के जंगल में अच्छी कविताऎँ छूट जा रही हैं । कविता लिखना और छपना आसान हो गया है इसीलिए अच्छी कविताएं छाँटना और पढ़ना आसान नहीं है । हिंदी कविता जनता से कटती जा रही है । आज कवियों को इसके बारे में सोचना चाहिए । निराला, नागार्जुन की परंपरा खत्म हो रही है । गजल, नज्म आदि लोकप्रिय हैं । 

प्रश्नः एक अन्तिम सवाल, अभी कुछ दिन पहले आप के संपादन में ‘गांव’ नाम की एक और पत्रिका मैने देखी. भाषा विमर्श के रहते हुए इसे निकालने की क्या जरूरत आ पड़ी? 

उत्तर- दरअसल. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के एक गांव में हुआ था. मां और पिताजी के निधन के बाद गांव पर पिछले 22 वर्ष से कोई रहता नहीं है. मेरी ग्रेजुएशन तक की शिक्षा तो गांव में ही हुई थी. गांव की मेरी सम्पति मूझे विरासत में मिली है वह मेरे द्वारा अर्जित नही है इसलिए उसे बेचने का भी मेरा अधिकार नहीं है. गत वर्ष मैंने अपने माता पिता के नाम पर एक ट्रस्ट बनाया है. मैने तय किया कि गांव की मेरी सम्पत्ति गांव की प्रगति के लिए ही खर्च होगी. कुछ अपने पास से भी लगाते रहेंगे. विगत अक्टूबर में पहला आयोजन गांव पर हुआ अच्छा लगा. गांव के मेधावी बच्चों को सम्मान, गांव में खेल प्रतियोगिताए., नि:शुल्क चिकित्सा शिविर, लोक संगीत लोकरंग आदि का आयोजन हुआ. उसी अवसर पर गांव नामक पत्रिका के प्रवेशांक का भी लोकार्पण हुआ. इस पत्रिका में भाषा और साहित्य की उपस्थिति गौंण होगी. इसमें गांव से संबंधित समस्याओं पर लेख होंगे और गांव की प्रतिभाओं को आगे लाना इसका मुख्य उद्देश्य होगा. अभी तो पहला अंक आया है. मूल्यांकन तो आप लोगों को करना है.

An Interview with Dr Amarnath

संस्मरण : सुबह होने तक - बलवन्त

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बलवंत जी का छायाचित्र अनुपलब्ध 

आचार्य बलवन्तका जन्म  01 सितम्बर 1967 को ग्राम-जूड़ी, पोस्ट- तेन्दू राबर्टसगंज, सोनभद्र-231216 (उ.प्र.) में हुआ। पिता : स्व. अलगू सिंह चौहान एवं माता स्व. सुभागी देवी। शिक्षा:एम.ए., हिंदी। प्रकाशित कृति : आँगन की धूप (काव्य संग्रह - 2013)। संपादन :अहिंसा तीर्थ (त्रैमासिक पत्रिका), आर.सी.बाफना गो-सेवा अनुसंधान केन्द्र, कुसुंबा, जलगांव, महाराष्ट्र (2009 से 2011)। आकाशवाणी बेंगलूर और जलगांव (महाराष्ट्र) से आपकी काव्य रचनाएँ प्रसारित। विभिन्न समाचार पत्रों में भी आपकी कविताएँ और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। सम्पर्क: विभागाध्यक्ष (हिंदी), कमला कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एण्ड साईंस, 450, ओ.टी.सी.रोड, कॉटनपेट, बेंगलूर-560053, मो. 91-9844558064 ई-मेल : balwant.acharya@gmail.com

बचाओ! बचाओ! की पुकार सुनकर यह समझने में देर नहीं लगी कि पूरब से आनेवाली आवाज़ रामनगीना बाबू के घरवाली की है। लुटेरे लूटपाट में लगे थे, मना करने पर मार-पीट भी रहे थे। रह-रहकर वातावरण के सन्नाटे को चीरती, वही दिल दहला देनेवाली आवाज़ हमारे कानों से टकराकर वातावरण में विलीन हो जाती थी। उस समय हम लोग एक कमरे में बंद थे। नज़र रखने के लिए उनका एक आदमी बन्दूक लिये बाहर खड़ा था। 

दो-ढाई घण्टे पहले की बात थी। उस समय रात के बारह बजते रहे होंगे। आँखों में नींद न थी। कुछ देर पहले से ही मैं कमरे के आस-पास लोगों की आवाजाही महसूस कर रहा था। मन किसी अनहोनी आशंका से घबरा रहा था। तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। क्या करूँ, क्या न करूँ की उहापोह में कुछ समझ नहीं सका। पिछले दरवाजे से निकल भागने की बात भी नहीं सूझी उस समय। न चाहते हुए भी जब मैंने दरवाजा खोला, बाहर का दृश्य देखकर अवाक् रह गया। चार बन्दूकधारी मुझे चारों ओर से घेर लिये। एक ने रोबीली आवाज़ में मुझे चुपचाप बगलवाले कमरे में चलने की बात कही। अच्छी तरह याद है, ठीक उसके पहले उसने शोर मचाने पर गोली मार देने की बात भी कही थी। एक ने तो मेरे सीने पर बन्दूक लगा भी दी थी। 

बगल के कमरे के अंदर का दृश्य कम चौंकानेवाला न था। पड़ोसी परिवार के सारे सदस्य वहाँ मौजूद थे। परिवार के मुखिया की माँ, बहन, बीवी और वह उनसे गिड़गिड़ा कर अपनी जिन्दगी की भीख माँग रहे थे। मेरे किरायेदार मेवालाल और छविनाथ उकड़ूं बैठे थे। उनके हाथ उनकी पीठ पर बंधे थे। बेचारे कब से यह नारकीय पीड़ा भोग रहे थे, कुछ कह नहीं सकता। 

तभी एक आदमी जिसने अपना मुँह मफलर से बाँध रखा था, कमरे में दाखिल हुआ। एक तो पहले से ही वहाँ मौजूद था। तीन-चार बाहर भी रहे होंगे। एक ने दूसरे से कहा, ‘बाहर से लाठी लाओ और सालों को पीटो। मास्टर को मत मारना। पढ़ा-लिखा, समझदार आदमी है, शोर नहीं करेगा। और बुढ़िया, पता चला है कि तू अपनी बहू को बहुत सताती है, चुपचाप रहना-नहीं तो गोली मार दूँगा।’ बुढ़िया ‘नाहीं सरकार, नाही सरकार’ करती हुई अपने निर्दोष होने की सफाई दे रही थी और बच्चों को भी चुप रखे थी। 

उनमें से एक ने मेवालाल से पूछा, “कितने रुपये मिलते हैं महीने के?” 
“तीन हजार साहब।” 
“तीन हजार साले, झूठ बोल रहे हो?” 
“नहीं साहब, सही कह रहा हूँ,” मेवालाल ने कहा। 

डर के मारे चोर को साहब कहते सुनकर मुझे हँसी आ गयी। “यह सच है कि तीन हजार ही नहीं मिलते होंगे। लेकिन जो मिलते हैं, अभी मिले नहीं हैं शायद। क्योंकि हर महीने की चार-पाँच तारीख को किराये के दो सौ रुपये मुझे भी तो देते हैं, अब तक दिये नहीं हैं,” मैंने कहा। शायद मेरी बात उसे जँची। फिर वह कमरे से बाहर निकल गया अंदरवाले साथी को दरवाजे पर खड़ा रहने की हिदायत देकर। 

मेवालाल और छविनाथ बाबू को बहुत देर से पेशाब लगी थी। उनकी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी। मैंने उन दोनों के हाथ खोल दिये और लैम्प की लौ मद्धिम कर दी। महिलाएं भी निवृत्त हुईं एक-एक कर। बच्चों ने पेशाब के साथ शौच भी कर दिये थे। दमघोंटू दुर्गंध कमरे भर फैल गयी थी। अब तो सांस लेना भी कठिन हो गया था। प्यास से किसी का गला सूख रहा था तो कोई अपने अन्य साथियों के हालचाल जानने के लिए परेशान था। बच्चे मारे डर के माँ की गोद में दुबके थे। सब सुबह होने का इंतजार कर रहे थे। 

दरवाजे पर एक आदमी को छोड़कर अन्य सामने के कृषि कार्यालय में घुस गये। पहले वे ऑफिस के कर्मचारियों को अपने कब्जे में किये। फिर उन्हीं के सहारे डिप्टी डायरेक्टर बेचारे उपाध्याय जी को भी दबोच लिये। अंगद बाबू जो केवल नाम के ही अंगद थे, किसी प्रकार बच निकले और शौचालय में जा छिपे। लुटेरे भी कम शातिर न थे। उन्हें पकड़कर जमीन पर पटक दिये। उनमें से एक बूट पहने उनकी छाती पर चढ़ गया। बेचारा चार सवा चार फीट का एकततिहा आदमी चीखने-चिल्लाने लगा, फिर चुप हो गया। मैनेजर सिंह को भी बुरी तरह मारे-पीटे थे सब। 

सन्नाटा अन्दर ही नहीं, बाहर भी पसरा था। उसकी सांय-सांय दूर तक सुनाई दे रही थी। सड़क सूनी थी। रह-रहकर एक-दो गाड़ियाँ आहिस्ता-आहिस्ता सरक रही थीं। जाड़े की रात तो थी ही। पिछले दिन बूंदा-बांदी भी हुई थी। बाहर कुहरा इतना घना था कि पास की चीजें भी नज़र नहीं आती थीं। उसकी बूँदें सड़क के किनारे स्थित शिरीष के पत्तों से टपक रही थीं। वातावरण में नमी इतनी थी कि हवा सांस रोके हुए सी प्रतीत होती थी। फिर बचाओ! बचाओ! की आवाज़। सुबह पता नहीं कब होगी और तब तक क्या होगा? मैं सोचने लगा। 

सुबह हुई। किसी ने दरवाजा खोला। हम लोग बाहर आये। रात की बात जंगल की आग की तरह आस-पास के गाँवों तक पहुँच गयी। लोग जुटने लगे। जिले के आला अधिकारियों को वारदात की जानकारी दी गयी। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक राधेश्याम त्रिपाठी दल-बल के साथ कृषि भवन में आ धमके। उनके आते ही क्षेत्राधिकारी राबर्टसगंज भी मौका-ए-वारदात पर उपस्थित हो गये। आस-पास के कई थानों के अधिकारी भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से नहीं चूके। क्षेत्रीय विधायक हरि प्रसाद खरवार उर्फ घमड़ी, (जो कभी दस्यु सरगना के रूप में दहशत के पर्याय थे) ग्राम प्रधान दयाराम व क्षेत्र के अन्य सम्मानित लोग भी उपस्थित हो गये। आम लोगों की भी खासी भीड़ जुट गयी, जो वहाँ हो रहे तमाशे पर तरह-तरह की अटकलें लगा रही थी। सबको लग रहा था कि जिले की पुलिस वारदात में शामिल प्रत्येक व्यक्ति को धर दबोचेगी। 

पुलिस ने तहकीकात शुरू की। जिसका जो-जो गया था, हुटुक-हुटुक कर गिनाने लगा। एक एच.एम.टी कोहिनूर घड़ी, जिसे मेरे मित्र हीरालाल कवि ने दिया था, जैकेट और 250 रु. के करीब मेरे भी गये होंगे। पड़ोसी परिवार की स्त्रियों के बड़े-छोटे सारे जेवर और नकदी जो गये थे, बुढ़िया रो-रोकर बता रही थी। 

नगीना बाबू के कमरे के बाहर टूटे हुए खाली बॉक्स पड़े थे। उनकी बड़ी बेटी भागमनी उन्हें उठा-उठाकर घर में ले जा रही थी। मझली कहाँ थी, नहीं मालूम पर उनकी छोटी बेटी नीतू अपने पापा के पास गुमसुम खड़ी थी। नगीना बाबू गले पर तौलिया लपेटे इधर-उधर टहल रहे थे। एस.पी. त्रिपाठी डिप्टी डायरेक्टर से औपचारिक पूछताछ में मशगूल थे। कभी-कभी हँसी-मज़ाक भी करते थे। औपचारिकता पूरी कर कड़ी कार्रवाई करने का आश्वासन देकर वापस लौट गये। उनके जाते ही पुलिस के अन्य छोटे-बड़े अधिकारी भी चलते बने। 

रात का वह खौंफ़नाक मंज़र दिन में जब भी याद आता रोंगटे खड़े हो जाते थे और मन काँप उठता था। दो दिन पहले तक जिन लोगों की हँसी के ठहाकों से वातावरण सुखद एहसासों से सराबोर हो जाता था, आज उनके चेहरे लटके हुए थे। सब सन्न थे। कोई किसी से बातें नहीं करना चाहता था। दहशत तो इतनी थी कि सूर्यास्त होते ही सब अपने-अपने ठिकानों पर आ जाते थे। सुबह होने से पहले कोई घर से बाहर नहीं निकलता था। 

दो दिन हुए थे घटना के। रात साढ़े आठ बजे के करीब नगीना बाबू की दो बेटियाँ मेरे पास आयीं और बोलीं- हमारे पापा पागल हो गये हैं, हम लोगों को मार पीट रहे हैं, मम्मी आपको बुलाई है। जल्दी चलिए। बिना कुछ सोचे-विचारे मैं उनके साथ ही चल पड़ा। इस बात की जानकारी मैंने डिप्टी डायरेक्टर को भी दे दी। उन्होंने कार्यालय के अन्य कर्मचारियों के ऊपर नगीना बाबू के देख-भाल की जिम्मेदारी सौंपने के लिए उस कमरे के सामने जाकर आवाज़ देने लगे, जिसके अंदर दसों लोग रहे होंगे। लेकिन न तो किसी की आवाज़ आयी न तो कोई बाहर निकला। 

‘साले! चूड़ियाँ पहन लो’ कहते हुए उपाध्याय जी नगीना बाबू के कमरे की तरफ लौट आये। मेरे पहुँचने से पहले ही नगीना बाबू को पकड़कर उनके हाथ-पैर उन्होंने बाँध दिये थे। उन्होंने मेरे साथ अपने एक चपरासी को लगा दिया। मैंने देखा कि नगीना बाबू एक कमरे में बंद थे और गमछे से बंधे हाथों की गांठें दाँतों से खोल रहे थे। कभी चीखते-चिल्लाते तो कभी अपना सिर पटकने लगते थे। गालियाँ भी देते थे खूब। मुझे मालूम था कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। उस रात जो हुआ, उससे इतना क्षुब्ध हो गये कि खिड़की के शीशे में सिर घुसेड़ दिये। गले पर तो केवल खरोंचें आयीं लेकिन चेहरा बुरी तरह विदीर्ण हो गया। सूजन भी खूब थी। चोट आँखों पर भी आयी थी। गालियाँ बकते समय इतने भयावने लगते थे कि मत पूछिये। हम दोनों का काम इतना भर था कि रात भर किसी तरह उनको घर में रोके रहें। 

आधी रात के करीब क्षेत्राधिकारी राबर्टसगंज चार पुलिस कर्मियों के साथ सीधे नगीना बाबू के आवास पर आ पहुँचा। उसने सबसे पहले मेरा नाम, काम और रात के बारह बजे वहाँ होने का कारण पूछा। जाते समय वह मुझे अगले दिन दस बजे कोतवाली आने का भी हुक्म दे गया। मुझसे अकेले में पूछताछ जो करनी थी। लगता है पुलिस की तफ्सीस में लोगों ने बताया होगा कि मास्टर जी को छोड़कर लुटेरों ने सबको पीटा था। कोतवाल का व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगा। उसके लहज़े में एक धमकी थी। ‘बहुत लम्बा-चौड़ा कुर्ता-पाजामा पहने हो मास्टर। कल कोतवाली में आ जाना दस बजे’ सुनकर मैं सन्न रह गया था। 

अगले दिन दस बजने से पहले ही दो कांस्टेबल मुझे लेने आ पहुँचे। उनके साथ जब मैं कोतवाली पहुँचा, उस समय ग्यारह बजते रहे होंगे। क्षेत्राधिकारी बाहर धूप में चारपाई पर बैठा था। उसकी बायीं ओर की कुर्सी पर एक नेता टाइप का आदमी बैठा था। सामनेवाली कुर्सी खाली थी। मैं उस पर बैठा ही था कि क्षेत्राधिकारी उठ गया और मुझे लेकर वहाँ से कुछ दूरी पर आ गया। फिर बोला- मास्टर साहब ! आपकी भलाई इसी में है कि मैं जो पूछूँगा सही-सही बताइयेगा। 

“ठीक है सर,” मैंने कहा। 
“वो कितने आदमी थे।” 
“जी, चार लोग।” 
“किसी को पहचानते हैं उनमें से?” 
“जी नहीं।” 
“क्यों?” 
“सबके मुँह कपड़े से ढके थे साहब।” 
“उनकी बातचीत से कोई अनुमान?” 
“जी नहीं, मैंने कहा।” 
“बातचीत की भाषा क्या थी उनकी?” 
“हिंदी।” 
“पढ़े-लिखे लग रहे थे?” 
“जी, शुद्ध हिंदी बोल रहे थे।” 
“क्या वो आदमी था?” 
“जी नहीं।” 
“क्यों?” 
“इसलिए कि उसके तीन बच्चे मेरे स्कूल में पढ़ते हैं। वो ऐसा नहीं कर सकता।” 
“ठीक है, अब आप जा सकते हैं, ज़रूरत पड़ेगी तो बुला लूँगा।” 

लोग डरे सहमे थे। घटना के एक सप्ताह के भीतर ही उपनिदेशक कृषि प्रसार कार्यालय पी.ए.सी. की एक छोटी छावनी में तब्दील हो गया। जिधर देखिए, उधर पी.ए.सी. के ही जवान नज़र आते थे। खाने-पीने और सोने के सिवाय दिन में कोई दूसरा काम न था उनको। ऑफिस के सामने उनकी बस हमेशा खड़ी रहती थी। सुबह-शाम एक दो बार साग-सब्जी और राशन आदि के लिए सड़क पर भी नज़र आ जाती थी। 

कृषि कार्यालय के कर्मचारियों ने भी मामले को तूल देना उचित नहीं समझा। सब शांत हो गये। 

नगीना बाबू की तबीयत दिन पर दिन बिगड़ती ही जा रही थी। बच्चे विद्यालय जाना बन्द कर दिये थे। पत्नी परेशान थी। समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, क्या न करे। नगीना बाबू को सम्भालना उसके वश की बात न थी। विभागीय लोगों ने उनकी मानसिक चिकित्सा कराने का मन बनाया। किसी प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें मानसिक चिकित्सालय वाराणसी ले जाया गया। 

लम्बे समय तक दवा चली। चेहरे के घाव तो भर गये, लेकिन उनके दिल पर जो चोट लगी थी, उसके निशान अभी भी उनके स्मृति पटल पर विद्यमान थे। आश्चर्य इस बात का था कि इतनी भयावह वारदात के बाद भी संबंधित थाने में एफ.आई.आर तक दर्ज न हो सकी। उसके बाद एक-एक कर चोरी की कई घटनाएँ घटीं, लेकिन पुलिस की उदासीनता और उसके गैर जिम्मेदाराना रवैये से किसी की हिम्मत नहीं हुई कि थाने जाकर अपनी बात कह सके। 

Balwant, H.O.D., Hindi

व्यंग्य : ड्राइंग रुम से बैड रुम तक - विभावसु तिवारी-

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विभावसु तिवारी

विभावसु तिवारी अपनी पीढ़ी के सशक्त व्यंग्यकार हैं। आपके व्यंग्य हमारे समय का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। और यह भी कि ये व्यंग्य अपनी एक नयी दुनिया बसाते है और इस दुनिया का एक कॉमन पात्र है - शर्माजी। शर्माजी एक आम आदमी का किरदार निभाते हैं। यह किरदार नैतिकता-अनैतिकता के पारंपरिक बोध को नए ढंग से पेश करता हैं। विभावसु तिवारी का जन्म 12 अगस्त, 1951 को दिल्ली में हुआ। आप 36 वर्ष तक दिल्ली के नवभारत टाइम्स समाचार पत्र (टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप) में समाचार संकलन, सम्पादन और लेखन कार्य करते रहे। विभिन्न पत्र- प़ित्रकाओं के सलाहकार सम्पादक रहे। सम्पर्क: टी- 8 ग्रीन पार्क एक्स्टेंशन, नई दिल्ली- 110016। ई-मेल: vtiwari12@gmail.com

र्मा जी के घर के बाहर चकाचक सफेद कुर्ता पाजामा पहने लोगों का जमघट लगा था। कुछ पान चबा रहे थे तो कुछ ने जबड़े के किनारे खेनी की गोली दबा रखी थी। सिटी होंडा, स्कोर्पियो, इन्नोवा, बलेरो आदि कई मेकवाली गाड़ियां आसपास के घरों के गेटों को जाम कर रहीं थीं। देश की भावी राजनीति को लेकर शर्मा जी के घर के सामाने वाली सड़क गरमा रही थी। शर्मा जी अपने ड्राइंग रुम में कुछ मोटे और कुछ ऊंची कद-काठी वाले लोगों के बीच घिरे बैठे थे। सोफे के सामने की टेबल पर रखे केसरिया लड्डू और वरक से चमचमाती बरफी मिलने वालों को पेश की जा रही थी। शर्मा जी कभी खड़े हो कर और कभी बैठे ही लोगों का अभिवादन स्वीकार कर रहे थे। चेहरे पर चमक की परत झलक रही थी। बात करते समय वह हल्की सी मुस्कुराहट के साथ देश को नई करवट देने की बात कह कर गम्भीरता का मुखौटा भी धारण कर लेते थे। तभी उनके अभिन्न मित्र मुसद्दी लाल ने ड्राइंग रुम में अवतरित हो, शर्मा जी को उनकी नवोदित पार्टी ‘‘उगता सूरज‘‘ के लिए बधाई दी।

मुसद्दी लाल बोले, ‘‘ शर्मा जी, आपकी पार्टी ‘उगता सूरज‘ ने अपने नाम से ही पूरे देश-समाज में एक स्पदंन पैदा कर दिया है।‘‘ शर्मा जीने खखारते हुए कहा -‘‘ ‘उगता सूरज‘ एक ऐसी सशक्त पार्टी होने जा रही है, जो देश में एक नए समाज की रचना करेगी। हमारी पार्टी सभी को ऊपर उठने का समान अवसर देगी। आज हमने पार्टी का घोषणा पत्र तैयार करने के लिए यह बैठक बुलाई है। मुसद्दी, तुम भी अपने सुझाव देना। हमें एक ऐसा घोषणा पत्र तैयार करना है, जो आम आदमी को पार्टी की तरफ खींचे। हम नहीं चाहते कि हमारा घोषणा पत्र भी दूसरी पार्टियों के घोषणा पत्रों की तरह झूट का शब्द-सागर समझा जाए। हम राजनीति में वंशवाद को खत्म करने को लेकर प्रतिबद्ध हैं।‘‘ मुसद्दीलाल चहके - ‘‘तो फिर आप अपने बेटे को प्रधान मंत्री नहीं बनने देंगे।‘‘ शर्मा जी- ‘‘बिल्कुल नहीं। हम उसे आगे नहीं बढ़ने देंगे। उसके लिए हम बाधा खड़ी करेंगे ताकि पार्टी पर वंशवाद का कलंक न लगे। हम दूसरी राजनीतिक पार्टियों की तरह अपने बेटे- बेटियों को कताई तरजीह नहीं देंगे। उन्ळें पार्टी ऊंचे पदों पर आसीन नहीं होने देंगे। वह आम पार्टी कार्यर्ता की तरह काम करते रहेंगे। उगता सूरज पार्टी देश की एक मिसाल पार्टी होने जा रही है।‘‘ मुसद्दी ने फिर मुंह खोला- ‘‘ यह तो हर पार्टी की अपनी मर्जी है कि वह किस गधे-घोड़े का तिलक करती है या हार पहनाती है। हर पार्टी का अपना संविधान है। वह उस पर चलती है।‘‘ शर्मा जी बोले- वंशवाद पर ढक्कन लगाने के लिए कुछ तो कड़ा कदम उठाना ही होगा। शर्मा जी ने पास में ही खड़े कभी दांत चबाते तो कभी पान चबाते अपने बेटे की तरफ कनखियों से देखा और फिर बोले- खैर, इस मुद्दे पर आगे चर्चा की जा सकती है। विषयांतर करते हुए शर्मा जी ने कहा - हमारी पार्टी साम्प्रदायिकता का डट कर मुकाबला करेगी। लेकिन हम सम्प्रदायों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम कथावाचकों का भी अलग से एक सम्प्रदाय बनाएंगे। इनका अपना एक फ्रेमवर्क होगा। किसी को भगवान कहलाने की इजाजत नहीं होगी। सरकार की इजाजत के बिना आश्रम स्थापित नहीं कर सकेंगे। फ्रेंचाईजी के तहत आश्रम चलाने की अनुमति नहीं होगी। मुसद्दी- फ्रेंचाईजी! शर्मा जी- हां, फ्रेंचाईजी। यानि कि पट्टे पर! आश्रम पर नाम तो बापूजी का होता है पर चलाते हैं अरोड़ा साहब। आजकल यही हो रहा है। यदि कोई कथावाचक अपने व्यवसाय का विस्तार करना चाहेगा तो उसकी भी बाकायदा अनुमति लेनी होगी। शर्मा जी पूरे मूड में थे। बोले -यदि कोई आश्रम का भगवान या बापू भगवान को प्यारा हो जाता है तो उसके आश्रम को सरकार अपने कब्जे में ले लेगी। उस आश्रम की पूरी सम्पत्ति जो कि जनता की ही है, जनता के लिए खर्च की जाएगी।

शर्मा जी ने अपने को जारी रखते हुए कहा, ‘‘हम समतावाद लाने के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि की इमारतों के एक समान डिजाइन तैयार कराएगें। दूर से देख कर कोई नहीं कह सकेगा कि यह मस्जिद है या मंदिर या फिर चर्च। उगते सूरज की चमक सब पर एक जैसी बिखरेगी। मुसद्दी लाल- ‘‘वाह शर्मा जी! आप की पार्टी तो सही मायने में समाज को एक नई दिशा देने जा रही है।‘‘ शर्मा जी ने सोफे पर बैठे - बैठे हुंकार भरी, ‘‘भ्रष्टाचार दूर करने के लिए उगता सूरज पार्टी अंडर हैंड डीलिंग पर ब्रेक लगाएगी। देशी-विदेशी ऐजेंटों की बाकायदा सूची बना कर उन्हें सूचिबद्ध किया जाएगा। उनके रेट तय होंगे। इससे कालेधन का प्रवाह रुकेगा। सरकार का राजस्व बढ़ेगा। देश समृद्ध होगा। हमारी पार्टी पारदर्शिता की मिसाल होगी। इतिहास में एम.ए. की डिग्री पाने वाले शर्मा जी का अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कुलाचें मार रहा था। 

मुसद्दी ने पूछा, ‘‘आपकी पार्टी जातिवाद को कैसे समाप्त करेगी ? शर्मा जी- ‘‘उगता सूरज पार्टी सभी को एक जैसी ऊर्जा प्रदान करेगी। आजादी के 65 साल बाद भी जातिवाद को हमेशा से वोटवाद के तराजू पर तोला गया है। अब ऐसा नहीं होगा। हमारी पार्टी सत्ता में आती है तो हम जातिवाद के नाम पर पनप रहे माफियावाद को ध्वस्त कर देंगे। मुसद्दी! तुम यदि इस देश की राजनीति का सही यथार्थवाद समझना चाहते हो तो पहले तुम्हें इस माफियावाद को समझना होगा। यह माफियावाद ही देश को खोखला कर रहा है। इटली और दाऊद के माफियावाद से लेकर आश्रमवाद, भगवावाद, फतवावाद, बाबूवाद आदि वादों को डिब्बे में बंद कर समुद्र में फेंक देना है ताकि इनका जिन फिर से देश की धरती पर करतब न दिखा सके।

शर्मा जी थोड़ा और गम्भीर होते हुए बोले देश से टोपीवाद को भी खत्म करना है। गांधी टोपी से लेकर जिन्ना टोपी, गोल कसीदेवाली टोपी, गुजराती टोपी, मराठी टोपी, मारवाड़ी टोपी, कश्मीरी टोपी आदि रंग बिरंगी टोपियों की बिक्री पर रोक लगाई जाएगी। चुनाव से ठीक पहले इन टोपियों के बाजार सजने लगते हंै। हर नेता अपनी चुनाव रैलियों में उस क्षेत्र की पहचान वाली टोपी पहन अपने भाईवाद का इजहार करता है। कभी अल्पसंख्यकों तो कभी बहुसंख्यकों के प्रति प्रेम उगलता है। उगता सूरजा पार्टी टोपियों के इस खेल को उखाड़ फेंकेगी। क्यों मुसद्दी! तुम्हंे हमारे घोषणा पत्र की रुप रेखा कैसी लग रही है ? मुसद्दी- ‘‘शर्मा जी, आप तो जीनियस हैं। बस, अब आप टोपी तक ही रहिएगा। धोती तक न पंहुचें। वैसे मैं आप की क्रिएटिव सोच की दाद देता हूं।‘‘

शर्मा जी ने फिर हुंकार भरी और कहा देश में बढ़ती मंहगाई को कम करना है। यह जनसंख्या की बढ़ती रफ्तार को कम करके ही किया जा सकता है। जो बच्चे पैदा नहीं करेंगे उन्हें स्पेशल इन्क्रीमेंट दिया जाएगा। वरीयता में पदोन्नति मिलेगी। जो सरकारी कर्मचारी एक संतान की नीति का पालन करेगा, उसके तबादले कम होंगे। स्कूलों में भी उनके बच्चों को वरीयता के आधार पर एडमीशन मिलेगा। परिवार नियोजन का पालन करने वालों को वे सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी जो आरक्षण श्रेणी में आती हैं। आरक्षण का स्थान परिवार नियोजन लेगा। शर्मा जी की इन ‘यूटोपियन‘ बातों को सुन मुसद्दी लाल को थोड़ी घबराहट महसूस हुई कि कहीं ‘‘ उगता सूरज पार्टी‘ उगने से पहले ही डूब न जाए। पर इस विचार को अपनी आम आदमी की टोपी के नीचे दबाते हुए मुसद्दी लाल बोले - तो फिर शर्मा जी, चुनाव प्रचार के लिए मैदान में कब उतरना है? शर्मा जी ने मुसद्दी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, मुसद्दी तुम मेरे चुनाव प्रबंधक हो। मैं तुम्हें पार्टी का सचिव बनाता हूं। बस अब तुम्हारा काम पार्टी को प्रमोट करना है। उगता सूरज पार्टी की सरकार बनवानी है। शर्मा जी की इस -‘वजनदार‘ बात को मुसद्दी ने समझा और कदम बढ़ाते हुए शर्मा जी को ड्राइंग रुम से उठा कर बैड रुम की तरफ ले गए। मुसद्दी ने धीरे से कहा- ‘‘पंडित जी! सारे वादों को छोड़ समझौतावाद की तरफ ध्यान दो। बाहर ‘मोक्षधाम पार्टी‘ और ‘धूमकेतु पार्टी‘ के अध्यक्ष बैठे हैं। हाथ मिलाना चाहते हैं। हाथ मिलाने से हमारे वोट बैंक में जबरदस्त उछाल आ जाएगाा। सरकार हमारी ही बनेगी। बस आप के इशारे की देर है। शर्मा जी एकदम से गम्भीर हो गए। मुसद्दी का सुझाव सुन उन्हें कोफ्त हो रही थी। पर बेबस थे। सरकार बनती नजर आ रही थी। वह बेबसी से बोले मुसद्दी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा कि तुम क्या चाहते हो। पर ध्यान रहे, बैड रुम की बात ड्राइंग रुम तक नहीं जानी चाहिए!

by Vibhavasu Tiwari

तीन प्रेम कविताएँ - अवधेश सिंह

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अवधेश सिंह 

अंतर्मुखी, सहज एवं मिलनसार अवधेश सिंह का जन्म 4 जनवरी 1959 को इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश, भारत) में हुआ  आपने विज्ञान स्नातक, मार्केटिंग मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा, बिजनिस एडमिनिस्ट्रेशन में परास्नातक तक शिक्षा प्राप्त की है वर्तमान में आप सीनियर एक्जीक्युटिव पद पर भारत संचार निगम लिमिटेड के कार्पोरेट आफिस नयी दिल्ली में कार्यरत हैं आपका एक कविता संग्रह 'छूना बस मन'प्रकाशित हो चुका है 1972 में आकाशवाणी में आपकी पहली कविता प्रसारित हुई, तब आपकी आयु तेरह वर्ष की थी। स्कूल, विद्यालय से कालेज स्तर तक लेख, निबंध, स्लोगन, कविता लिखने का एक क्रम नयी कविता, गीत, नवगीत, गज़ल, शब्द चित्र, गंभीर लेख, स्वतन्त्र टिप्पड़ीकार, कला व साहित्य समीक्षा की विधाओं के साथ आज तक निर्बाध जारी है प्रख्यात साहित्यकार प्रतीक मिश्र द्वारा रचित "कानपुर के कवि"एक खोजपूरक दस्तावेज में आपकी प्रतिनिध काव्य रचनाएँ व जीवन परिचय का संग्रह 1990 में किया गया वर्तमान में कई नेट व प्रिंट पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित हो रहीं हैं  संपर्क: फ्लैट-21, पाकेट- 07, सेक्टर- 02, अवंतिका, नई दिल्ली-85  

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
(1)

प्रेम में
कहना क्या
चुप रहना क्या
आँखों में कैद हैं
कई सावन
मन ने पाले
पीड़ा क्रंदन
दूरियां नजदीकियां के
नए बंधन
दूर क्षितिज तक
बिखरे दर्द
अनुभूति कहे
अब सहना क्या ……

बन बैठी मैं

खुली किताब
पढने को थे
तुम बेताब
मेरा बदन
ढला गीत में
डूबी प्रकृति
संगीत में
झंकृत हुए
मन के तार
पनपा यूँ
पहला प्यार
कानों में
कोई कहता है
तेरे बिना
अब रहना क्या ……

पलकों में बंद हैं

तेरे ख्वाब
समर्पण मांगे
कोई जवाब
अन्दर उठती
एक छोटी लहर
होटों पर आई
बन सैलाब
कर लो मुझको
मुट्ठी में बंद
बिंदास हवा सा
अब बहना क्या ……

प्रेम में
कहना क्या
चुप रहना क्या

(2 )

उसने कहा
प्रेम निखालिस उधार है
यह नकद नहीं
इसका कोई कद नहीं
यह आकार में निराकार है

जीवन में अजीवन सा
पंखुरियों सा सुवासित
कोमल बंधन इसका
लगता गले में पड़ा
काँटों भरा हार है

संवेदना इस तरह की
रोयां रोयां अंग अंग
बिना स्पर्श
असंख्य विचारों से परिपूर्ण
सूचना का संसार है

अनुभूति -पीड़ा सोच
एक नहीं भरमार है

ठीक ही तो है
दुविधा में जीता
त्याग से रीता
खोने - पाने के स्वार्थ को अपनाये
खुदगर्जी में दुनिया भुलाये

प्रेम कदाचित अर्थहीन
किशोर वय का प्यार है

(3)

प्रिय ,प्रेम में निभाना
मैंने नहीं जाना
क्या है प्रेम में निभाना
क्या है मिलना उसका
क्या है उसका दूर जाना
जब उसको छोड़ कर
दूर रह कर उससे
है अन्दर से उसे पाना

ठीक ही तो है
प्रेम तो योग है सत्य निष्ठा का
प्रश्न कहाँ उठता है इसमें
अहं और प्रतिष्ठा का

प्रिय यह प्यार कैसा
लालच - लांछन
भय -झूट - अविश्वास
से मिला -विवाद जैसा

ठीक ही तो है
प्रेम शास्वत सत्य है
जिसमें एक को
दूसरे के प्रति संवेदना
भावुकता की अनुभूति रहती है
इस भाव की भाषा
कदाचित यही कहती है
यहाँ साम्यजस्यता
काँटों - कंकड़ के बीच
सब सहती है
पुष्प सुगंध सी प्रीति
हमारे बीच रहती है

न ही कोई जीत है
न ही है किसी को हराना
कदाचित यही तो है
प्रेम का निभाना

Three Love Poems of Awadhesh Kumar Singh

'यदि'पत्रिका का 'दिनेश सिंह स्मृति विशेषांक'लोकार्पित

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ओम प्रकाश सिंह, रमाकांत, ओमप्रकाश चौबे (ओम धीरज), अवनीश सिंह चौहान,
शीतलदीन अवस्थी, आनन्द स्वरूप श्रीवास्तव एवं रामनारायण रमण
(बाएं से दाएँ) 'दिनेश सिंह स्मृति विशेषांक'का लोकार्पण करते हुए

रायबरेली : रविवार 16 फरवरी 2013 : साहित्यिक पत्रिका ‘यदि‘ के तत्त्वावधान में सुप्रसिद्ध गीतकवि एवं सम्पादक दिनेश सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक वृहद परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन और 'दिनेश सिंह स्मृति विशेषांक'का लोकार्पण लेखपाल संघ सभागार में किया गया। 

कार्यक्रम के प्रारम्भ में जनपद अमेठी से पधारे वीरेश प्रताप सिंह ने दिनेश सिंह जी के प्रतिनिधि गीतों का सस्वर पाठ किया। उनके दादी माँ गीत के सस्वर पाठ से दिनेश सिंह की स्मृतियाँ ताजा हो गयीं।
दिनेश सिंह (1947-2012)

दादी माँ के छोटे-छोटे पांव
रास्ते छोटे छोटे। 

जीवन उतना जितने रिश्ते
सांसें उतनी जितने बोल 
उतनी प्यास कि जितना पानी
दुःख उतना जितना भूगोल
संझा तुलसी चौरा टपके आँख
दिवस का दर्द कचोटे।

कोहबर की यादें गठियाये
आँचल में मुरझाये फूल 
इतिहासों के पन्नों पर
करलीं सारी गलतियां क़ुबूल
हतप्रभ तकती चाल समय की 
और चलन के सिक्के खोटे। 

थे पहाड़ से पिता हमारे
पुरखे थे पेड़ों की छाँव 
बर्फ और पत्तों के नीचे
बसा हुआ था सारा गाँव 
भूख-प्यास में देह गलाते
अंग जलाते कसे लंगोटे

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए इण्टर कालेज महराजगंज के पूर्व प्रधानाचार्य शीतलदीन अवस्थी ने दिनेश सिंह के बालकाल और युवावस्था की स्मृतियों एवं साहित्यिक गतिविधियों और 'नए-पुराने'पत्रिका का नामकरण करने सम्बन्धी अपने अनुभवों को प्रस्तुत किया। यदि पत्रिका के युवा सम्पादक रमाकांत को 'दिनेश सिंह स्मृति विशेषांक'का सम्पादन करने पर बधाई देते हुएअबनीश सिंह चैहानने दिनेश सिंह को अपनी धुन का पक्का और गीतों के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित व्यक्तित्व बताया, जिसका नोटिस नामवर सिंह, प्रभाकर श्रोत्रिय और अखिलेश जैसे नयी कविता और कहानी के समर्थकों और विद्वानों ने भी लिया। उन्होंने दिनेश सिंह के साथ गुज़ारे गये अपने यादगार पलों को भी साझा किया। ओम धीरजने दिनेश सिंह द्वारा सम्पादित गीत की प्रतिष्ठित पत्रिका 'नये-पुराने'के सम्पादकीय लेखों को ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हुए इन्हें पुस्तकाकार रूप में संरक्षित करने की आवश्यकता पर बल दिया।उन्होंने कहा कि दिनेश जी कविता और गीत के अंतर्भेदी रिश्तों को स्वीकार करते थे। ओम प्रकाश सिंह ने दिनेश सिंह की गीत दृष्टि पर विस्तृत प्रकाश डाला और उन्हें हमारे समय का अत्यन्त महत्वपूर्ण गीतकार बताया। 

वक्तव्य देते रमाकांत और मंच पर ओम धीरज,
अवनीश सिंह चौहान आदि 
रामनारायण ‘रमण‘ ने दिनेश सिंह की तुलना महाप्राण निराला के व्यक्तित्व से की और उन्हें निराला की परम्परा का व्यक्ति एवं कवि बताया। विनय भदौरियाने कहा कि गीत को पुनः स्थापित करने और चर्चा के केंद्र में लाने का सार्थक प्रयास जिन रचनाकारों ने किया है उनमें डॉ शम्भुनाथ सिंह के बाद दिनेश सिंह का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।आनन्द स्वरूप श्रीवास्तवनेदिनेश सिंह द्वारा लिखी गयी नई कविता की चर्चा की और उन्हें न सिर्फ एक समर्पित गीतकार अपितु नई कविता का भी एक सशक्त हस्ताक्षर बताया। चंद्रप्रकाश पाण्डेने बताया कि दिनेश सिंह ने न केवल गीत लिखे, बल्कि उन्होंने सवैया (गोपी शतक और नेत्र शतक), महाकाव्य (परित्यक्ता) के साथ गज़लें और छंदमुक्त कविताएं भी लिखी हैं। उन जैसे साहित्यकार, संपादक बहुत कम हुए हैं।जय चक्रवर्तीने दिनेश सिंह को कबीर के अक्खड़ और फक्कड़ स्वभाव का हू-ब-हू संस्करण माना। शम्सुद्दीन अज़हर ने माना कि दिनेश सिंह की ग़ज़ल पर अच्छी पकड़ थी। वे इस विधा के माध्यम से भी अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करने में सफल रहे। कार्यक्रम के संयोजक और ‘यदि‘ पत्रिका के सम्पादकरमाकान्त ने कहा कि दिनेश सिंह के कृतित्व और व्यक्तित्व दोनों का ही सम्यक मूल्यांकन किया जाना अभी शेष है। गीत और नवगीत को उन्होंने हिन्दी साहित्य के केन्द्र में लाने का जो कार्य किया है वह ऐतिहासिक है। समारोह में शिवकुमार शास्त्री, राधे रमण त्रिपाठी, अजीत आनन्द, राम करन सिंह, सुधीर बेकस ने भी दिनेश सिंह के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर अपने विचार व्यक्त किये।

इस अवसर पर अनियतिकालीन पत्रिका ‘यदि‘ के दिनेश सिंह पर केन्द्रित विशेषांक का लोकार्पण स्व दिनेश सिंह की धर्मपत्नी श्रीमती मान कुमारी, उनकी सुपुत्री श्रीमती प्रीति सिंह, दामाद हंसराज सिंह की उपस्थिति में मंचासीन अतिथियों द्वारा किया गया। कार्यक्रम में श्रीमती मानकुमारी को ‘यदि‘ परिवार की ओर से सम्मानित भी किया गया। 

कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार शम्भू शरण द्विवेदी बन्धु, दुर्गाशंकर वर्मा दुर्गेश, देवेन्द्र देवन, निर्मला लाल, राजेश चन्द्रा, आर पी यादव, अभिषेक, राजेश, राजेन्द्र यादव, राम मिलन, अनिल कुमार आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। अध्यक्षता इण्टर कालेज महराजगंज के पूर्व प्रधानाचार्य शीतलदीन अवस्थी ने की जबकि मुख्य अतिथियुवा साहित्यकार अबनीश सिंह चैहानतथा विशिष्ट अतिथिरायबरेली के अपर जिलाधिकारी (प्रशासन) ओम धीरजरहे। संचालन जय चक्रवर्तीने और धन्यवाद ज्ञापन शमसुद्दीन अज़हरद्वारा किया गया

Dinesh Singh Smrati Visheshank, Yadi, Raibareli

साहित्य समीर दस्तक का वार्षिक सम्मान समारोह एवं विशेषांक लोकार्पित

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'साहित्य समीर दस्तक'का माँ पर केंद्रित विशेषांक लोकार्पित करते 
समीर श्रीवास्तव, अवनीश सिंह चौहान, बटुक चतुर्वेदी, मूलाराम जोशी, 
कीर्ति श्रीवास्तव, मयंक श्रीवास्तव, सुरजीतमान जलईया सिंह

निर्मल चन्द निर्मल को सम्मानित करते साहित्यकार 
भोपाल।साहित्य समीर दस्तक का वार्षिक सम्मान समारोह एवं पत्रिका के 'माँ'पर केन्द्रित विशेष अंक का लोकार्पण समारोह 21 फरवरी 2014 को दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय में हुआ।

इस अवसर पर युवा लेखक समीर श्रीवास्तवद्वारा अपनी माँ की स्मॄति में वरिष्ठ गीतकार निर्मल चन्द निर्मल (सागर)को मोहिनी श्रीवास्तव स्मृति सुदीर्घ साहित्य साधना सम्मानएवं साहित्यप्रेमी शशांक शेखरद्वारा अपने पिता की स्मृति में युवा रचनाकार चित्रांश वाघमारे (भोपाल)को कमल नयन शुक्ला स्मृति युवा साहित्यकार सम्मान प्रदान किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मूलाराम जोशी तथा अध्यक्षता बटुक चतुर्वेदीने की। इटावा के गीतकार अवनीश सिंह चौहान एवं आगरा के युवा कवि सुरजीतमान जलईया सिंह  विशेष रूप से उपस्थित रहे। अपने उद्बोधन में बटुक चतुर्वेदी एवं मूलाराम जोशीने साहित्य समीर द्वारा निर्मल चन्द निर्मल और चित्रांश बाघमारे को सम्मानित किये जाने और पत्रिका के कुशल सम्पादन हेतु संपादक मंडल को बधाई एवं शुभकामनाएं दीं।

 

चित्रांश वाघमारे को सम्मानित करते साहित्यकार 


वक्तव्य देते वरिष्ठ साहित्यकार मयंक श्रीवास्तव जी 





अपनी माँ को पुष्प अर्पित करते समीर श्रीवास्तव 


वक्तव्य देते सुरजीतमान जलईया सिंह


तत्पश्चात मासिक पत्रिका 'साहित्य समीर दस्तक'का माँ पर केंद्रित बहुप्रतीक्षित विशेषांक का लोकार्पण बटुक चतुर्वेदी, मूलाराम जोशी, मयंक श्रीवास्तव, कीर्ति श्रीवास्तव, समीर श्रीवास्तव, अवनीश सिंह चौहान, सुरजीतमान जलईया सिंहद्वारा किया गया। इस विशेषांक में 108 रचनाकारों की रचनाएं सम्मलित की गयीं हैं। युवा लेखक समीर श्रीवास्तव ने साहित्य समीर की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमारा प्रयास रहेगा कि पत्रिका की निरंतरता बनी रहे और पद्य के साथ गद्य को भी समान रूप से प्रकाशित किया जा सके। युवा साहित्यकार अवनीश सिंह चौहान ने माँ विशेषांक के प्रकाशन और उसके प्रयोजन को रेखांकित करते हुए इसका अतिथि सम्पादक बनाये जाने के लिए मयंक श्रीवास्तव जी एवं समीर श्रीवास्तव जी का आभार व्यक्त किया। आगरा के युवा कवि सुरजीत मान जलईया सिंह ने अपने गीतों के माध्यम से माँ के महत्व को बतलाया। वरिष्ठ कवि राधेलाल बिजघावने, शिवकुमार अर्चन एवं श्याम बिहारी सक्सेनाने साहित्य समीर दस्तक पर समीक्षात्मक वक्तव्य दिया। संपादक कीर्ति श्रीवास्तवने आभार व्यक्त किया। 

(साहित्य समीर दस्तक : माँ विशेषांक, प्रेरक एवं परामर्श : समीर श्रीवास्तव, प्रधान सम्पादक : मयंक श्रीवास्तव, सम्पादक : कीर्ति श्रीवास्तव, सहायक संपादक : सुरजीतमान जलईया सिंह एवं अतिथि सम्पादक : अवनीश सिंह चौहान, फरवरी 2014, पृष्ठ 54,  ई-मेल : sahityasameer25@gmail.com)

'साहित्य समीर दस्तक : माँ विशेषांक'पढने के लिए यहाँ क्लिक कर सकते हैं :
2. https://docs.google.com/file/d/0B7TsPAk2TPdpYWs4Rmhjc2l3eTQ/edit?usp=sharing&pli=1

Sahitya Sameer Dastak, Feb 2014, Bhopal, M.P.

अशोक 'अंजुम'को 'नीरज पुरस्कार'एवं मुजीब शहज़र को 'शहरयार पुरस्कार'

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अशोक 'अंजुम' 

अलीगढ़ :उ. प्र.शासन द्वारा अलीगढ़ प्रदर्शनी में गत वर्ष से दिया जाने वाला 'एक लाख एक हज़ार रुपए'का 'नीरज पुरस्कार'प्रदर्शनी के समापन समारोह में दिनांक 17 फरवरी 2014 को चर्चित कवि श्री अशोक 'अंजुम' को 'नीरज पुरस्कार' एवं मुजीब शहज़र को 'शहरयार पुरस्कार'को प्रदान किया गया।

पुरस्कार प्रदानकर्ताओं में कार्यक्रम अध्यक्ष पद्मभूषण नीरज जी के साथ-साथ अलीगढ़ मण्डल के कमिश्नर श्री टी. वेंकटेश, प्रभारी जिलाधिकारी शमीम अहमद आदि के साथ मंच पर श्री धीरेन्द्र सिंह सचान (अपर जिलाधिकारी, नगर) श्री शत्रुघ्न सिंह (अपर जिलाधिकारी, प्रशासन) श्री वी.के. सिंह (अपर जिलाधिकारी, वित्त) श्री धर्मवीर सिंह (वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक) ठाकुर राकेश सिंह (विधायक, छर्रा) जनाब हाजी ज़मीर उल्लाह (विधायक, कोल) श्रीमती शकुन्तला भारती (महापौर, अलीगढ़) श्री शैलेन्द्र कुमार सिंह (नगर आयुक्त) आदि उपस्थित थे। सभी ने इस उपलब्धि के लिए अशोक 'अंजुम'को बधाई दी।

कवि श्री अशोक 'अंजुम'ने इस अवसर पर अपने उद्बोधन के मध्य कहा-

ज़िन्दगी का ज़िन्दगी से वास्ता ज़िन्दा रहे
हम जियें जब तक हमारा हौसला ज़िन्दा रहे
मेरी कविता, मेरे दोहे, गीत मेरे और ग़ज़ल 
मैं रहूँ या ना रहूँ मेरा कहा ज़िन्दा रहे

इस अवसर पर्यावरणविद् श्री सुबोधनन्दन शर्मा, रंगकर्मी श्री प्रमोद राघव, श्री अशोक रावत, बसपा जिलाध्यक्ष श्री रामकुमार शर्मा, श्रीमती भारती शर्मा, देवांशी शर्मा, शायर नसीम नूरी आदि ने भी श्री अंजुम को बधाई दी। प्रदर्शनी की भव्य कृष्णांजलि नाट्यशाला में आयोजित इस कार्यक्रम में जिले के अधिकांश प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ तमाम साहित्यकार, गणमान्य व्यक्ति बुद्धिजीवी उपस्थित रहे।

श्री अंजुम के साथ एक लाख एक हजार रूपये का ही 'शहरयार पुरस्कार'शायर जनाब मुजीब शहज़र को प्रदान किया गया। दोनों रचनाकारों को राशि के चैक के साथ-साथ स्मृति चिन्ह्, शॉल प्रमाण-पत्र आदि प्रदान किए गए।

Ashok Anjum and Mujeeb Shahjar

जगदीश व्योम और ओम धीरज को निराला सम्मान 2014

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रायबरेली :निराला स्मृति संस्थान, डलमऊ (रायबरेली) की ओर से शुक्रवार 21 फरवरी 2014 को महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की जयंती पर सम्मान समारोह आयोजित हुआ। साहित्यकार डॉ. जगदीश व्योम (दिल्ली) और ओम धीरज (रायबरेली) को निराला सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा रहमान अली को मुल्लादाउद सम्मान से सम्मानित किया गया एवं डा० मिथिलेश दीक्षितको मनोहरा देवी स्मृति सम्मान दिया गया। इस अवसर पर पर डॉ मिथिलेश दीक्षित समारोह में उपस्थित नहीं हो सकीं। 

समारोह के मुख्य अतिथि पूर्व आई.जी. शैलेंद्र प्रताप सिंहने कवि निराला के साहित्यिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन्होंने समाज के हित में कई कविताएं लिखीं। साहित्यकार समाज के सच्चे हितैषी होते हैं। उनमें से कवि निराला एक हैं। उनकी कविताएं समाज में व्याप्त कुरीतियों पर करारा प्रहार करती हैं। 
डॉ जगदीश व्योम को सम्मानित करते वरिष्ठ साहित्यकार 

नवगीतकार और हाइकुकार डा० जगदीश व्योम ने अपना एक नवगीत पढ़ते हुये कहा कि निराला ने मानवीय मूल्यों की जिस थाती को कठिन संघर्ष करते हुये बचाकर रखा, उसे सँभाल कर रखना आज के साहित्यकारों का दायित्व है, निराला स्मृति संस्थान के आयोजक जिस विनम्रता और सेवाभाव से यह समारोह आयोजित करते हैं उसकी मिसाल और जगह कम ही मिल पाती है। 

वरिष्ठ साहित्यकार ओम धीरजने चयन समिति का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि निराला जी अपने आप में अद्वितीय रचनाकार थे। 

विशिष्ट अतिथि के.के. चौधरी, एडी.एम. फतेहपुर ने कहा कि निराला की कविताएं भावपूर्ण और क्रांतिकारी थीं। आज के कवियों को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। उनकी साफ-सुथरी साहित्यिक शैली ने सभी को अपना प्रशंसक बनाया।

निराला संस्थान के संस्थापक राजाराम भारतीयने कहा कि कवि निराला समाज के अच्छे मार्गदर्शक थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. ओमप्रकाश सिंहने कहा कि निराला ने सदैव समाज के हित में कार्य किया है।

इस दौरान रामनिवास पंथी की पत्रिका महाप्राण : अपना राज बिराजका विमोचन हुआ। संचालन जय चक्रवर्ती ने किया। इससे पहले संस्थापक राजाराम भारतीय, नगर पंचायत चेयरमैन कंचन श्रीवास्तव, शैलेन्द्र प्रताप सिंह ने कस्बे के पथवारी गंगा घाट पर निराला की पत्नी मनोहरा देवी की स्मृति में उनकी प्रतिमा स्थापित की। इस मौके पर सूर्य प्रसाद शर्मा, दुर्गाशंकर वर्मा, सूबेदार वाजपेयी, महावीर सिंह मौजूद रहे।

Nirala Samman 2014, Raibareli

‘भूमंडलीकरण : 21वीं शती के प्रथम दशक का हिंदी साहित्य’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

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दीप प्रज्वलित करते हुए [बाएँ से] डॉ. रमेश दवे, डॉ. दामोदर खडसे,
डॉ.अजीत सिंह और डॉ. सत्यकाम तथा [माइक पर] डॉ. मृगेंद्र राय

मुंबई, 8 मार्च 2014. गुरुनानक खालसा कॉलेज के हिंदी विभाग तथा महारष्ट्र राज्य हिंदी समिति के संयुक्त तत्वावधान में ‘भूमंडलीकरण : 21वीं शती के प्रथम दशक का हिंदी साहित्य’ विषय पर द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई.

संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए ‘समीक्षा’ के संपादक और इग्नू के प्रोफ़ेसर डॉ. सत्यकाम ने हिंदी साहित्य की कालजयी कृतियों के हवाले से यह कहा कि ‘बाजार हमेशा मौजूद रहा है. वह ईमानदार आदमी को खरीदता है. हिंदी में आधी रचनाएँ विरोध से आशंकित हैं. आज हमारे समक्ष केवल बाजार का ही संकट नहीं बल्कि साहित्य और पर्यावरण का भी संकट उपस्थित है.’ उन्होंने आगे कहा कि ‘बाजार इतना मजबूत हो चुका है कि वह साहित्य से दोस्ताना करने का प्रयास कर रहा है. आज हिंदी साहित्य से गाँव लुप्त होते जा रहे हैं.’ 

भोपाल से पधारे प्रो. रमेश दवे ने कहा कि ‘आज के इस बनावटी संसार में साहित्य में जंग हो रही है, मीडिया में नहीं. भूमंडलीकरण के इस युग में साहित्य मंडी के हाथों कठपुतली बनकर रह गया है.’

उद्घाटन सत्र के अध्यक्षीय संबोधन में अकादमी के कार्याध्यक्ष डॉ. दामोदर खडसे ने कहा कि ‘वैश्वीकरण के इस युग में साहित्य पूरी तरह से बाजार से प्रभावित होता दिखाई दे रहा है. कलम की स्वतंत्रता बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव से बाधित है.’

शुरू में खालसा कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अजीत सिंह ने अतिथियों का स्वागत-सत्कार किया. डॉ. रत्ना शर्मा ने विषय की प्रस्तावना प्रस्तुत की. उद्घाटन सत्र का संचालन डॉ. मृगेंद्र राय ने किया.

‘भूमंडलीकरण और वर्तमान परिप्रेक्ष्य’ पर आधारित प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो. रामजी तिवारी ने की. मुख्य वक्ता डॉ. त्रिभुवन राय ने कहा कि ‘भूमंडलीकरण के इस दौर में पश्चिम की चकाचौंध से युवा वर्ग अधिक प्रभावित है. वर्तमान समय में साहित्यकारों के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं जिनसे उन्हें निरंतर जूझते रहना है.’ इस अवसर पर डॉ. हूबनाथ पांडेय, डॉ. मनप्रीत कौर, डॉ. विनीता सहाय और डॉ. वंदना शर्मा ने शोधपत्र प्रस्तुत किए.

दो दिन के इस कार्यक्रम में विभिन्न सत्रों में भूमंडलीकरण और काव्य, भूमंडलीकरण और कथासाहित्य, भूमंडलीकरण और जनसंचार तथा साहित्य की अन्य विधाओं पर विस्तार से चर्चा हुई. इस चर्चा में इलाहाबाद से आए डॉ. रामकिशोर शर्मा, हैदराबाद से पधारे डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. रतन कुमार पांडेय, डॉ. चंद्रदेव कवडे, डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी, डॉ. विष्णु सर्वदे, डॉ. मधुलिका पाठक, दयानंद भुबाल, डॉ. उषा श्रीवास्तव, डॉ. उषा मिश्रा, डॉ. शीला अहुजा, भुवेंद्र त्यागी और डॉ. सूर्यबाला ने विभिन्न सत्रों में अध्यक्ष तथा विषय प्रवर्तक के रूप में अपने विचार व्यक्त किए.

MUMBAI

साधना बलवटे के तीन गीत

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साधना बलवटे 

भोपाल के अरेरा पहाड़ी पर स्थापित बिड़ला मंदिर वर्षों से आस्था का केन्द्र रहा है। अरेरा कॉलोनी में रहने वाली चर्चित लेखिका डॉ साधना बलवटे का जन्म 13 नवम्बर 1969 को जोबट, जिला झाबुआ, म. प्र. में हुआ। आपने देवी अहिल्या विश्वविघालय, इंदौर से स्नातकोत्तर (हिंदी) एवं पी.एच.डी. की। लेखन, नृत्य, संगीत, हस्थशिल्प में रुचि रखने वाली साधना जी 12 वर्ष की उम्र से ही रचनात्मक कार्य करने लगी थीं। आपने मालवी व निमाड़ी बोली में भी लेखन किया है। पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, नई दुनिया आदि पत्र पत्रिकाओ में आपकी रचनाओं का प्रकाशन एवं आकाशवाणी इंदौर से प्रसारण हो चुका है। सम्मान: निर्दलीय प्रकाशन का 'संचालन संभाषण श्रेष्ठता अंलकरण'। वर्तमान में आप अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की महासचिव हैं। सम्पर्क : ई-2 / 346, अरेरा कॉलोनी, भोपाल, दूरभाष: 0755-2421384, 9993707571। ईमेल:dr.sadhanabalvate@yahoo.com। आपकी तीन रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं:-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
(1) मेरे आँगन 

प्रथम प्रहर की धवल रश्मियाँ
उतर रही मेरे आँगन

भोली बिटिया बांह पसारे
करती जैसे आलिंगन

ऊंचे महल अटारी सबने
लीला बिटिया का बचपन
मीनारों की जंजीरो ने
डाला किरणो पर बंधन
जाने कब पुरवा का झोंका
मल कर चला गया चंदन

धूप कभी माँ सी भाती थी
जी भर कर दुलराती थी
जाड़े में ठिठुरे रिश्तों को
आँचल में ले गरमाती थी
आज प्यार को दखल बताता
स्वार्थ-भरा एकाकी मन

रिश्तों को विकृत कर देना
आज शगल सा लगता है
काला बादल पता नही क्यों
खूब धवल सा लगता है
चुप है दुनिया मूल्यह्रास पर,
कौन करे इस पर चितंन

पवन पिया की छुअन आज कल
प्रेम यज्ञ की अगन हुई
मौसम के बदले तेवर से
खुशियां सारी छुई-मुई
बदली बदली सी सूरत में,
कैसे करूँ प्रणय वन्दन।

(2) तुम

तुम चिरंतन साधना के
दीप बन जलते रहे
शून्य इस जीवन विजन में
श्वांस बन चलते रहे 

बंद आँखों के पटल में,

रोशनी की एक किरन से,
उम्र के गहरे कुंए में
नीर की मीठी झिरन से
शब्द की परछाइयों में
काव्य बन पलते रहे 

धड़कनों के द्वंद्व व्याकुल
सांस का कॅंपता सफर
सांझ के इक झुटपुटे से
तुम अमां की रात भर,
शुक्ल-पक्षी चांदनी से,
ओस बन गलते रहे 

सैंकड़ो तूफान दिल में

ढेर जख्मों के सिले
जन्म से लेकर अभी तक
गम नही क्या क्या मिले
मैं पलक मूँदे रही,
तुम अश्रु बन ढलते रहे 

तुम वियोगी आसमाँ से

और मैं आतुर धरा,
तुम पवन का एक झौंका
और मैं आँचल हरा 
हम निरन्तर सिलसिलो से
क्षितिज बन मिलते रहे। 

(3) रात अमां सी 

भारत माँ की आँखों में तो

सुख सपनों की लाली है
किसे पता था आने वाली
रात अमाँ सी काली है 

धवल हिमालय पर वीरो ने

प्राण-पुष्प थे भेंट किये
समझौतों की स्याही ने
बलिदान समूचे मेट दिये
जो मांग पुछी है एक बार
वो कभी न भरने वाली है

सरकारों ने, नेताओ ने
जनता को सिर्फ दिया है झांसा
हमने खुद जाल बिछाया है
फिर उसमें खुद को ही फांसा 
केवल अपने अधिकारों की
बस होती रही जुगाली है

आंतकी कीड़े पाल-पाल
वो दुश्मन उन्हें सहेज रहा
विष घोल फिजाओं में अक्सर
दुर्गन्ध यहाँ तक भेज रहा
हाथों मे जिसको फूल दिये
वो देता हमको गाली है

माना वो चतुर बहुत लेकिन
हम भी तो निपट अनाड़ी है
हमने कब तस्वीरे पोंछी,
हमने कब धूलें झाड़ी है
इक फूल नहीं गर बगिया में
तो उसका दोषी माली है। 

Three Hindi Poems of Sadhana Balvate
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